1 वाह मिट्टी ''छोनू बेटा, बाहर मिट्टी है, गंदी! गंदे हो जाओगे। घर के अन्दर ही खेलो, आं...।'' जब से सोनू घुटनों के बल रें...
1 वाह मिट्टी
''छोनू बेटा, बाहर मिट्टी है, गंदी! गंदे हो जाओगे। घर के अन्दर ही खेलो, आं...।'' जब से सोनू घुटनों के बल रेंगने लगा था, रमा उसकी चौकसी करती रहती कि वह बाहर न जाए। मिट्टी में न खेलने लगे।
''छी-छी! गंदी मिट्टी! मिट्टी में नहीं खेलते बेटा। देखो, हो गए न गंदे हाथ-पैर!
छी!'' सोनू बाहर चला जाता तो रमा उसे तुरन्त उठाकर अन्दर ले आती। प्यार से समझाती-झिड़कती।
जब सोनू खड़े होकर चलने लगा तो हम पति-पत्नी बेहद खुश हुए। लेकिन, अब रमा की परेशानी और अधिक बढ़ गयी। वह न जाने कब चुपके से बाहर निकल जाता और मिट्टी में खेलने लगता। रमा खीझ उठती, ''उफ्फ! मैं तो तंग आ गयी। दिन भर पकड़-पकड़कर अन्दर कमरे में बिठाती हूँ और यह बदमाश है कि न जाने कब चकमा देकर बाहर चला जाता है। ठहर, अभी लेती हूँ तेरी खबर!''
अब रमा सोनू को डांटने भी लगी थी। वह चपत दिखाते हुए उसे धमकाती, ''खबरदार! अब अगर बाहर मिट्टी की तरफ झांका भी! मार पडेग़ी, समझे।''
''तुझसे अन्दर बैठकर नहीं खेला जाता? हर समय मिट्टी की तरफ ध्यान रहता है।'' सोनू की हरकत से कभी-कभी मैं भी खीझ उठता।
फिर, न जाने क्या हुआ कि सोनू ने बाहर जाकर मिट्टी में खेलना तो क्या उधर झांकना भी बन्द कर दिया। दिनभर वह घर के अन्दर ही घूमता रहता। कभी इस कमरे में, कभी उस कमरे में। कभी बाहर वाले दरवाजे की ओर जाता भी तो तुरन्त ही 'छी मित्ती!' कहता हुआ अन्दर लौट आता। अब न सोनू हँसता था, न किलकारियाँ मारता था। हर समय खामोश और गुमसुम-सा बना रहता।
सोनू के दादा-दादी को जब इस बात की खबर हुई तो वे भी चिंतित हो उठे। उन्होंने इच्छा प्रकट की कि हम सोनू को लेकर कुछ रोज के लिए गाँव चले आएँ। मुझे और रमा को उनका प्रस्ताव अच्छा लगा। हम उसी रोज बस पकड़कर गाँव पहुँच गये।
माँ-पिताजी, छोटे भाई-बहन सभी सोनू को पाकर बेहद खुश हुए। लेकिन, सोनू था कि यहाँ आकर और अधिक गुमसुम हो गया था। वह गोद से नीचे ही नहीं उतरता था। उतारने की कोशिश करते तो रुआंसा-सा हो जाता और गोद में ही बने रहने की जिद्द करता।
तभी, पिताजी ने सोनू को अपनी गोद में उठाया और बाहर ले गये। काफी देर बाद जब पिताजी वापस घर आये तो सोनू उनके संग नहीं था।
''सोनू कहाँ है?'' हम पति-पत्नी ने चिंतित स्वर में एक साथ पूछा।
''बाहर बच्चों के संग खेल रहा है।'' पिताजी ने सहज स्वर में बताया। तभी, एक जोरदार किलकारी हमारे कानों में पड़ी। हम दौड़कर बाहर गये। सोनू मिट्टी में लथपथ हुआ बच्चों के संग खेल रहा था और किलकारियाँ मार रहा था।
00
2 रंग-परिवर्तन
आखिर मंत्री बनने का मनोहर लाल जी का पुराना सपना साकार हो ही गया। शपथ-समारोह के बाद वह मंत्रालय के सुसज्जित कार्यालय में पहुँचे। वहाँ उनके प्रशंसकों का तांता लगा हुआ था। सभी उन्हें बधाई दे रहे थे।
देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के पत्रकार और संवाददाता भी वहाँ उपस्थित थे।
एक संवाददाता ने उनसे पूछा, ''मंत्री बनने के बाद आप अपने मंत्रालय में क्या सुधार लाना चाहेंगे ?''
उन्होंने तत्काल उत्तर दिया, ''सबसे पहले मैं फिजूलखर्ची को बन्द करूंगा।''
''देश और देश की जनता के बारे में आपको क्या कहना है ?''
इस प्रश्न पर वह नेताई मुद्रा में आ गये और धारा-प्रवाह बोलने लगे, ''देश में विकास की गति अभी बहुत धीमी है। देश को यदि उन्नति और प्रगति के पथ पर ले जाना है तो हमें विज्ञान और तकनालोजी का सहारा लेना होगा। देश की जनता को धार्मिक अंधविश्वासों से ऊपर उठाना होगा। तभी हम इक्कीसवीं सदी में अपने पहुँचने को सार्थक कर सकेंगे।''
तभी, मंत्री ज़ी को उनके निजी सहायक ने फोन पर बजर देकर सूचित किया कि छत्तरगढ़ वाले आत्मानंदजी महाराज उनसे मिलना चाहते हैं। मंत्री जी ने कमरे में उपस्थित सभी लोगों से क्षमा-याचना की। सब के सब कमरे से बाहर चले गये।
महाराज के कमरे में प्रवेश करते ही, मंत्री जी आगे बढ़कर उनके चरणस्पर्श करते हुए बोले, ''महाराज, मैं तो स्वयं आपसे मिलने को आतुर था। यह सब आपकी कृपा का ही फल है कि आज...''
आशीष की मुद्रा में महाराज ने अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाया और चुपचाप कुर्सी पर बैठ गये। उनकी शान्त, गहरी ऑंखों ने पूरे कमरे का निरीक्षण किया और फिर यकायक चीख-से उठे, ''बचो, मनोहर लाल, बचो !.... इस हरे रंग से बचो। यह हरा रंग तुम्हारी राशि के लिए अशुभ और अहितकारी है।''
मंत्री महोदय का ध्यान कमरे में बिछे हरे रंग के कीमती कालीन, सोफों और खिड़कियों पर लहराते हरे रंग के पर्दों की ओर गया। पूरे कमरे में हरीतिमा फैली थी। अभी कुछ माह पहले ही पूर्व मंत्री क़ी इच्छा पर इसे सुसज्जित किया गया था।
''जानते हो, तुम्हारे लिए नीला रंग ही शुभ और हितकारी है।'' महाराज ने चेताया।
मंत्री महोदय ने तुरन्त निजी सचिव को तलब किया। उससे कुछ बातचीत की और फिर महाराज को साथ लेकर अपनी कोठी की ओर निकल गये।
अब मंत्रालय के छोटे-बड़े अधिकारी रंग-परिवर्तन के लिए युद्धस्थल पर जुटे थे।
00
3 बीमार
''चलो, पढ़ो।''
तीन वर्षीय बच्ची किताब खोलकर पढ़ने लगी, ''अ से अनाल... आ से आम...'' एकाएक उसने पूछा, ''पापा, ये अनाल क्या होता है ?''
''यह एक फल होता है, बेटे।'' मैंने उसे समझाते हुए कहा, ''इसमें लाल-लाल दाने होते हैं, मीठे-मीठे !''
''पापा, हम भी अनाल खायेंगे...'' बच्ची पढ़ना छोड़कर जिद्द-सी करने लगी। मैंने उसे डपट दिया, ''बैठकर पढ़ो। अनार बीमार लोग खाते हैं। तुम कोई बीमार हो ? चलो, अंग्रेजी की किताब पढ़ो। ए फॉर ऐप्पिल... ऐप्पिल माने...।''
सहसा, मुझे याद आया, दवा देने के बाद डॉक्टर ने सलाह दी थी- पत्नी को सेब दीजिये, सेब।
सेब !
और मैं मन ही मन पैसों का हिसाब लगाने लगा था। सब्जी भी खरीदनी थी। दवा लेने के बाद जो पैसे बचे थे, उसमें एक वक्त की सब्जी ही आ सकती थी। बहुत देर सोच-विचार के बाद, मैंने एक सेब तुलवा ही लिया था- पत्नी के लिए।
बच्ची पढ़ रही थी, ''ए फॉर ऐप्पिल... ऐप्पिल माने सेब...''
''पापा, सेब भी बीमाल लोग खाते हैं ?... जैसे मम्मी ?...''
बच्ची के इस प्रश्न का जवाब मुझसे नहीं बन पड़ा। बस, बच्ची के चेहरे की ओर अपलक देखता रह गया था।
बच्ची ने किताब में बने सेब के लाल रंग के चित्र को हसरत-भरी नज़रों से देखते हुए पूछा, ''मैं कब बीमाल होऊँगी, पापा ?''
00
4 कबाड़
बेटे को तीन कमरों का फ्लैट आवंटित हुआ था। मजदूरों के संग मजदूर बने किशन बाबू खुशी-खुशी सामान को ट्रक से उतरवा रहे थे। सारी उम्र किराये के मकानों में गला दी। कुछ भी हो, खुद तंगी में रहकर बेटे को ऊँची तालीम दिलाने का फल ईश्वर ने उन्हें दे दे दिया था। बेटा सीधा अफसर लगा और लगते ही कम्पनी की ओर से रहने के लिए इतना बड़ा फ्लैट उसे मिल गया।
बेटा सीधे आफिस चला गया था। किशन बाबू और उनकी बहू दो मजदूरों की मदद से सारा सामान फ्लैट में लगवाते रहे।
दोपहर को लंच के समय बेटा आया तो देखकर दंग रह गया। सारा सामान करीने से सजा-संवारकर रखा गया था। एक बैडरूम, दूसरा ड्राइंगरूम और तीसरा पिताजी और मेहमानों के लिए। वाह !
बेटे ने पूरे फ्लैट का मुआयना किया। बड़ा-सा किचन, किचन के साथ बड़ा-सा एक स्टोर, जिसमें फालतू का काठ-कबाड़ भरा पड़ा था। उसने गौर से देखा और सोचने लगा। उसने तुरन्त पत्नी को एक ओर ले जाकर समझाया, ''देखो, स्टोर से सारा काठ-कबाड़ बाहर फिंकवाओ। वहाँ तो एक चारपाई बड़े आराम से आ सकती है। ऐसा करो, उसकी अच्छी तरह सफाई करवाकर पिताजी की चारपाई वहीं लगवा दो। तीसरे कमरे को मैं अपना रीडिंगरूम बनाऊँगा।''
रात को स्टोर में बिछी चारपाई पर लेटते हुए किशन बाबू को अपने बूढ़े शरीर से पहली बार कबाड़-सी दुर्गन्ध आ रही थी।
00
5 सहयात्री
बस रुकी तो एक बूढ़ी बस में चढ़ी। सीट खाली न पाकर वह आगे ही खड़ी हो गयी। बस झटके के साथ चली तो वह लड़खड़ाकर गिर पड़ी। सीटों पर बैठे लोगों ने उसे गिरते हुए देखा। जब तक कोई उठकर उसे उठाता, वह उठी और पास की एक सीट को कसकर पकड़कर खड़ी हो गई।
जिस सीट के पास वह खड़ी थी, उस पर बैठे पुरुष ने उसे बस में चढ़ते, अपने पास खड़ा होते और गिरते देखा था। लेकिन अन्य बैठी सवारियों की भाँति वह भी चुप्पी साधे बैठा रहा।
अब बूढ़ी मन ही मन बड़बड़ा रही थी, 'कैसा जमाना आ गया है ! बूढ़े लोगों पर भी लोग तरस नहीं खाते। इसे देखो, कैसे पसरकर बैठा है। शर्म नहीं आती, एक बूढ़ी-लाचार औरत पास में खड़ी है, लेकिन मजाल है कि कह दे, आओ माताजी, यहाँ बैठ जाओ...।'
तभी, उसके मन ने कहा, 'क्यों कुढ़ रही है ?... क्या मालूम यह बीमार हो ? अपाहिज हो ? इसका सीट पर बैठना ज़रूरी हो।' इतना सोचते ही वह अपनी तकलीफ भूल गयी। लेकिन, मन था कि वह कुछ देर बाद फिर कुढ़ने लगी, ''क्या बस में बैठी सभी सवारियाँ बीमार-अपाहिज हैं ?... दया-तरस नाम की तो कोई चीज रही ही नहीं।''
इधर जब से वह बूढ़ी बस में चढ़ी थी, पास में बैठे पुरुष के अन्दर भी घमासान मचा हुआ था। बूढ़ी पर उसे दया आ रही थी। वह उसे सीट देने की सोच रहा था, पर मन था कि वहाँ से दूसरी ही आवाज निकलती, 'क्यों उठ जाऊँ ? सीट पाने के लिए तो वह एक स्टॉप पीछे से बस में चढ़ा है। सफर भी कोई छोटा नहीं है। पूरा सफर खड़े होकर यात्रा करना कितना कष्टप्रद है। और फिर, दूसरे भी तो देख रहे हैं, वे क्यों नहीं इस बूढ़ी को सीट दे देते ?'
इधर, बूढ़ी की कुढ़न जारी थी और उधर पुरुष के भीतर का द्वंद। उसके लिए सीट पर बैठना कठिन हो रहा था। 'क्या पता बेचारी बीमार हो ?.. शरीर में तो जान ही दिखाई नहीं देती। हड्डियों का पिंजर। न जाने कहाँ तक जाना है बेचारी को ! तो क्या हुआ ?.. न, न ! तुझे सीट से उठने की कोई ज़रूरत नहीं।'
''माताजी, आप बैठो।'' आखिर वह उठ ही खड़ा हुआ। बूढ़ी ने पहले कुछ सोचा, फिर सीट पर सिकुड़कर बैठते हुए बोली, ''तू भी आ जा पुत्तर, बैठ जा मेरे संग। थक जाएगा खड़े-खड़े।''
00
रचनाकार परिचय:
सुभाष नीरव
जन्म : 27-12-1953, मुरादनगर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा : स्नातक, मेरठ विश्वविद्यालय
कृतियाँ : 'यत्किंचित', 'रोशनी की लकीर' (कविता संग्रह)
'दैत्य तथा अन्य कहानियाँ', 'औरत होने का गुनाह'
'आखिरी पड़ाव का दु:ख'(कहानी-संग्रह)
'कथाबिंदु'(लघुकथा-संग्रह),
'मेहनत की रोटी'(बाल कहानी-संग्रह)
लगभग 12 पुस्तकों का पंजाबी से हिंदी में अनुवाद।
सम्पादन अनियतकालीन पत्रिका 'प्रयास' और मासिक 'मचान' ।
सेतु साहित्य( उत्कृष्ट अनूदित साहित्य की नेट पत्रिका ½
http://setusahitya.blogspot.com
पुरस्कार/सम्मान हिन्दी में लघुकथा लेखन के साथ-साथ पंजाबी-हिन्दी लघुकथाओं के श्रेष्ठ अनुवाद के लिए 'माता शरबती देवी स्मृति पुरस्कार, 1992' तथा 'मंच पुरस्कार, 2000' से सम्मानित।
सम्प्रति भारत सरकार के पोत परिवहन मंत्रालय में अनुभाग अधिकारी।
सम्पर्क 248, टाईप-3, सेक्टर-3, सादिक नगर, नई दिल्ली-110049
ई मेल subh_neerav@yahoo.com
दूरभाष 011-26264912(निवास)
09810534373
---------------
चित्र - रेखा की कलाकृति
----------
chixnxcये छोटी-छोटी लघुकथाएं बहुत बड़ी बाते कह गई ।आज के भागम भाग जीवन में अपने आस-पास यही सब कुछ तो दिखाई दे रहा है,लेकिन हम देख कर भी अंनजान बनें,निकल जाते हैं।संदेश देती सभी कथाएं अच्छी हैं।
जवाब देंहटाएंsubashji aapki saari kahaniyein bahut bahut achi hai. sach much dil ko chunewali kaaskar katha kabad bachon ki mansik avastha ko prakat karne wali katha wah mitti.
जवाब देंहटाएंsab katha prabhavshalli hai
C.R.Rajashree
Faculty-Hindi
Coimbatore