एक असली प्रेम कहानी

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  मन ही माया मोह रे   - खा़मोखा़ ************************************ पार्वती --- '' नाथ! फिर कोई प्राचीन कथा तो नहीं ?`` शिव ...

 

मन ही माया मोह रे

 

- खा़मोखा़

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पार्वती --- ''नाथ! फिर कोई प्राचीन कथा तो नहीं ?``

शिव --- ''नहीं, आज एक नितांत नवीन कथा है!``

पार्वती --- ''स्वामी ! कोई हिन्दू-मुसलमान पात्र तो नहीं?``

शिव -- ''नहीं, प्रिये! सबके सब पात्र इंसान हैं !!``

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मित्र लोग जब आपसे कुछ आपबीती-जगबीती सुनने की अपेक्षा लेकर आते हैं, तब वे निश्चिंत होते हैं कि आपकी बातें सरस-सुखद भी होंगी. लेकिन ऐसे में आप चिंतित-आशंकित रहते हैं कि कहीं आपकी बातें मित्रों को निरर्थक-नीरस न लगें !

तो इस समय मैं चिंतित-आशंकित हूं , लेकिन मेरे मित्र 'प्रदीप पाण्डेय` और 'बी.बी.सी.` निश्चिंत और आश्वस्त हैं, कारण वही कि वे सात्विक-से श्रोता हैं, जबकि मैं स्वयं को तामसिक-सा, बीहड़-सा व्यक्ति और वक्ता ही मान पाता हूं !

आप पूछेंगे प्रदीप पाण्डेय तो ठीक , लेकिन ये बी.बी.सी. का क्या मतलब ? आप, अपने आप कैसे समझ सकेंगे, जब तक कि हममें से कोई न बता दे कि बी.बी.सी. यानि 'भारत भूषण चौरसिया`..... और क्या?!

ये दोनों स्थानीय दूरदर्शन रिले केन्द्र पर पदस्थ हैं और ग्वालियर के मेरे ऐसे पड़ोसी हैं, जिनसे भेंट और मित्रता यहीं आकर हुई. यहीं ..... यानी अपनी कलात्मक साड़ियों के लिये मशहूर 'चंदेरी` नामक पुरानी बस्ती में, जहाँ मेरे महाविद्यालयीन साथियों 'प्रो० अजय त्रिपाठी` और 'प्रो० पुनीत कुमार` तथा नायब-तहसीलदार 'कोमल प्रसाद राज` के साथ ये दोनों भी मेरे हितैषी-हमदर्द हैं. { इन मित्रों की पत्नियों-ममता, कुमुद, मंजूषा, कल्पना और सुजाता का मैं ऐसा भाई हूं, जिसके अकारण एकाकीपन और अजीब-सी मान्यताओं-ज़िदों पर वे खीजती भी हैं, खिलखिलाती भी हैं. ये उनकी आत्मीयता है कि अपने-अपने प्रिय पति के साथ कभी-कभार मेरे घर भी आ जाती हैं और इसरार करके मुझे अपने घर भी बुलाती हैं. जब इनमें से किसी के घर पहुँच जाऊं तो जाने क्या-क्या और कितना-कितना मुझे खिला-पिलाकर अपने बहनापे को संतुष्ट करती हैं.... मैं फिर भी यही सोचता हूं कि मेरी बातों के बजाय कहीं ये मुझ पर, मेरी सूरत-हालत पर तो नहीं हँसती-मुस्करातीं! }

यूं तो पांडेय जी और बी.बी.सी. शिफ्ट़-ड्यूटी की अनिश्चतता में उलझे रहते हैं, लेकिन गाहे-ब-गाहे जब भी साथ-साथ फ़ुर्सत का वक्त बिताना होता है, तो मेरे पास भी चले आते हैं. सिनेमा, साहित्य, संगीत, व्यक्तियों-स्थानों-घटनाओं और समकालीन संसार के समाचारों-विचारों -व्यवहारों पर उन्मुक्त { शायद आधारहीन-अधकचरी ! } टीका-टिप्पणियों और जुमलेबाज़ी से हम अपना जी बहलाते हैं, यानी युग के विराट घटनाक्रम में अपनी नगण्य-सी भूमिका निभाते हैं. ये दोनों सुरीले व्यक्ति हैं और न जाने कैसे गल़तफ़हमी में मुझे भी सुरीला-सा व्यक्ति मानते हैं.

टेलिफ़ोन, टी.वी., फ्रिज़, रेडियो, स्कूटर, समाचारपत्र-पत्रिकाओं जैसे अनिवार्य मान लिए गए आधुनिक गृहस्थी के सामानों के बिना भी, अपने एकांत में अत्यंत सुखी-संतुष्ट-सा और निहायत असामाजिक-सा, अव्यवहारिक प्राणी....अर्थात् मैं, इनके लिए किसी बीते-भले ज़माने की भली-सी यादगार या पुरकशिश पुरावशेष हूं, जिसके सान्निध्य में इन्हें अजायबघर की यात्रा जैसी बचकानी खुशी मिलती है शायद !

इस समय हम तीनों चंदेरी की बस्ती के बाहर, ताल-तलैयों के भी परे की पहाड़ी जगह पर कहीं बतकही करने के लिये बैठने को भटक रहे हैं . तलाश है ऐसे सुरम्य-सुरक्षित स्थान की, जहाँ निर्विघ्न-निश्चिंतता से बैठा जा सके और 'सिंदबाद` { यानी अपनेराम जी! } के ताज़ा सफ़रनामे को सुकूनो -सब्र से सुनने का सुख लिया जा सके.

१५-२० मिनिट पहले तक तो मैं इस अभियान का अनुमान भी नहीं कर सकता था, जब नए शैक्षणिक-सत्र की पहली छुट्टी की शान्त- सुहानी-सी शाम में २-१ पत्र लिखकर यूँ ही अधलेटा-सा हुआ था कि सीढ़ियों पर हल्की-भारी आहटों के बाद गलियारे में फुसफसाहटें सुनाई दीं---- ''मिऱ्जा गा़लिब घर पर ही हैं, यारो !``

फिर दरवाज़े पर चिरपरिचित, चिरप्रतीक्षित-सी दस्तक ---- '' प्रोफ़ेसर साहब हैं क्या ?``

उल्लसित होकर दरवाज़ा खोलने उठता हूं और अनायास ही अपने किसी काल्पनिक-सेवक का अभिनय करने लगता हूं.

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--- ''राम-राम, साब ! आइए ... बैठिए ! मालिक तो घर मा नाहीं, अकेले कोन्हूं जरूरी कारज हो तो अबैं बुलावत हैं.``

वे दोनों मुस्कराते, मुझसे हाथ मिलाते हुए कमरे में आ बैठते हैं और साहबी अभिनय शुरू कर देते हैं --- ''बहुत ज़रूरी काम है. जल्दी बुलाओ अपने मालिक को !``

मैं नौकराना नाटकीयता जारी रखते हुए पूछता हूँ--- ''मालिक से मैं का कहूं हुजूर,कि साब कौन-सा कारज बता रहे हैं ?``

प्रदीप जी डपटते हैं --- '' काम तुम्हारे मालिक से है, तुम्हें क्यों बताएँ? जाओ, उन्हें जल्दी बुला लाओ!``

---'मालिक बहुत जल्दी तो नहीं आ पाएँगे, पन उनसे हम बताये देत हैं कि साब लोग आए हैं.``

बी.बी.सी. रौब झाड़ते हैं --- ''हाँ, उन्हें बता दो साहब लोग आए हैं और उनका अपहरण करने आए हैं ! वे तुरन्त यहाँ हाज़िर हों, देरी या चालाकी की, तो.... !``

मैं भीतर के कमरे में जाते-जाते लौटकर उनकी खुशामद करता हूं ---''ऐं साब ! मालिक के बदले हमरा हरन नहीं कर सकत आप लोग !``

---''क्यों नहीं, ज़रूर कर सकते हैं, मगर तुम अपना हरण क्यों करवाना चाहते हो? जानते नहीं ये कितनी खत़रनाक चीज़ होती है?``

---''अब साब ! खतरा-उतरो हर चीज में है, अकेले हमऊँ चाहत हैं कि हमरा भी कभी हरन हुई जाए !``

---''तुम्हें डर तो नहीं लगेगा ? ``

---''डर तो भोत लगिहै महाराज ! अकेले हरन की हौंस हमें भोतई जादा है . सीतामैया को हरन करके जैसे रावन ने सोने की लंका की असोक बाटिका में रखा, हमऊँ चाहत हैं कि हरन करके हमऊँ को सोननगरी की सुपन -बाटिका में कोई धर दे !``

---''ठीक है, तुम्हारे मालिक की जगह तुम्हारा ही हरण किया जाएगा...मगर शर्त यह है कि अपने मालिक वाला काम तुम्हें करना पड़ेगा !``

---''मालिक बाला कईसा काम, साब ? कोन्हूँ किलास-ईलास तो नहीं न लेनी पड़िहै ?``

---''बिलकुल ठीक समझे! किलास ही लेनी पड़ेग़ी और किलास में तुम हमें अपने मालिक की राज़ की बातें बताओगे. बोलो ,मंज़ूर है ?``

---''मालिक की तो राज की ऐसी-ऐसी बतियाँ हमें पता हैं, साब , कि का कहें ...... ! अकेले कोऊको बताबे से तो गद्दारी हुइए.``

---''गद्दारी कैसी ? हम तुमसे तुम्हारे मालिक की सारी राज़ की बातें थोड़े ही पूछ रहे हैं. तुम तो बस उनकी इन छुटि्टयों वाले सफ़र की बातें बता देना, बस !... और ये तो तुम्हारी वफ़ादारी और महान बलिदान है कि अपने मालिक को तुम अपहरण के खत़रे से बचा रहे हो. सेवकों के इतिहास में तुम्हारा नाम, तुम्हारी ये बलिदान-कथा सोने के शब्दों में लिखी जाएगी.``

---''सच्ची, साब !? ....और कछु सऊना-अऊना हमें नगद भी मिलिहै का ?``

---''मूर्ख प्राणी! जानता नहीं, जिनके पास बहुत सोना होता है, उनका नाम इतिहास में सुनहरे शब्दों में नहीं लिखा जाता, उनकी तो कलंक- कथाएँ ही इतिहास में जाती हैं. अमर होना चाहता है तो अब आगा-पीछा सोचे बिना हमारे साथ चल पड़!``

---''भोत भली कई, साब! अकेले पूरे कपड़ा तो पहिर आऊँ?``

---''ज़रूर! वरना इन अधूरे कपड़ों में तो हम भी तुम्हारा हरण नहीं करेंगे.``

---''ऐसा काहे साब ?``

---''भैया! अधूरे कपड़ों में तुम महामोहक लगते हो!``

---''सो का, साब?``

---''नादान इतना भी नहीं समझता कि ऐसे आधे-अधूरे कपड़ों के साथ तेरा हरण किया तो रास्ते में हसीनाएँ तुझे हमसे छीन के ले जाएगी.``

---''ओ%% ! मतबल .... हरन के भीतर हरन, बप्पा रे!! जे तो भारी मिश्टेक हुई जइहे ! फिर तो हम पूरे बस्त्र ओढ़ आवत हैं.``---''अकेले आप लोगन के लाने कछु चाय,नास्ता ....?``

---''नही, वत्स! मौका-मुहूर्त बीता जा रहा है. हरण में अब अधिक विलम्ब उचित नहीं. जल्दी से चले चलो!``

इस अनायास शुरू हुई ड्रामेबाज़ी को विराम देकर हम तीनों घर से निकले और प्रदीप जी के स्कूटर पर सवार होकर ऐसी तन्हाई की तलाश में चल पड़े 'जहाँ कोई आता-जाता न हो!`

पिछले वर्ष भी जुलाई के शुरू में कभी ऐसे ही मेरा अपहरण करके ये लोग 'रामनगर संग्रहालय` की तरफ़ के सुहाने-वीराने रास्ते पर ले गए थे और ग्रीष्म-अवकाश के मेरे भ्रमण की कथा सुनी थी. उस वाले जून का 'ऋषिकेश-प्रवास` तो सचमुच अद्भुत ही था!! अमरीकावासिनी, शिकागो -निवासिनी समाज-सेविका 'मिस मैरीऐन` और मॉरीशस की भारतीय मूल की 'नीलकमल` और उसकी मम्मी के सान्निध्य में 'स्वर्गाश्रम` के 'प्राकृतिक चिकित्सालय और योग प्रशिक्षण संस्थान` में बीते १०-११ दिनों के संस्मरण सुनकर ये लोग मुदित-चमत्कृत हुए थे. कुछ ही दिन बाद मैरिऐन तो ग्वालियर होती हुई चंदेरी भी आई थीं और इन सबकी पत्नियों की सखी बन गई थीं.... हम सब आनंदित भी थे और बहुत आश्चर्यचकित भी कि भाषा की बीहड़ बाधा के बावजूद मैरिऐन से बतियाने में किसी को विशेष दिक्क़त नहीं आ रही थी. जबकि सच यह है कि मैरिऐन को हिन्दी के नाम पर भारत के राष्ट्रीय-मंत्र 'सब चलता है` के अलावा कुछ नहीं आता था और अंग्रेज़ी के नाम पर हम सब की हालत आम भारतीयों जैसी है कि अंग्रेज़ों से ग़ुलामी झेलने का बदला अंग्रेज़ी से ले रहे हैं!

बस, पिछले वर्ष के इसी अनुभव से इन दोनों को लग रहा है कि इस बार की मेरी अवकाश यात्रा भी अद्भुत रही होगी. इसलिए पहली फ़ुर्सत में दोनों भले लोग ताज़ा क़िस्सा सुनने, मुझे किसी प्रशांत-पुरसुकून जगह ले जा रहे हैं , जहाँ मैं बेझिझक यादों की पोटली खोल सकूँ .

स्कूटर पर हमेशा की तरह हालत हास्यास्पद है. एल.एम.एल. स्कूटर की एकमुश्त सीट का आधे से अधिक हिस्सा प्रदीप जी ने अधिगृहीत किया हुआ है, शेष बची आधी-अधूरी, अपर्याप्त सीट पर मैं और बी.बी.सी. किसी तरह अटके हुए हैं, अटके हुए से लटके हुए हैं.

क़िस्सा सुनने की आतुरता में प्रदीप जी स्कूटर जिस तेज़ी से चला रहे हैं उससे बस्ती वालों को ज़रूर शक हुआ होगा कि वे हम दोनों का ही अपहरण करके लिये जा रहे हैं. बहरहाल, जब भी हम तीनों स्कूटर पर साथ होते हैं तो दृश्य यही होता है कि 'श्री गणेशजी` की तरह बाक़ायदा विराजमान -शोभायमान प्रदीपजी और 'मूषकसंतानों` की तरह बेक़ायदा लदायमान- लटकायमान मैं और बी.बी.सी.!

बस्ती से बाहर आकर एक सुरक्षित-सी जगह स्कूटर रोककर और लॉक कर ,अब हम तीनों आम रास्तों और प्रचलित पगडंडियों से दूर ऐसी जगह ढूँढ रहे हैं, जहाँ से सड़क पर गुज़रते लोगों को हम सरलता से नज़र न आएँ, लेकिन राहगीरों और अपने स्कूटर पर नज़र हम रख सकें. प्रदीप जी अपने भारी बदन को अपने चरण-कमलों पर ज्य़ादा ढोने में असमर्थ हैं, लेकिन हल्के-फुल्के बी.बी.सी. ततैये की तरह उड़ते-से चले जा रहे हैं, ऐसी जगह जहाँ कोई मेरा परिचित-प्रियजन विघ्नसंतोषी बनकर न आ जाए... ये लोग अक्सर आश्चर्य प्रकट करते हैं कि --- ''जब आपका आवास और महाविद्यालय दोनों ही बस्ती के बाहर हैं और महाविद्यालय के सिवाय आप कभी कहीं जाते-आते नहीं.... और इतने असामाजिक हैं कि तमाम पंथिक-सामाजिक भीड़भरे आयोजनों- उत्सवों से अलग रहते हैं, यहाँ तक कि अत्यंत अनिवार्य होने पर भी बस्ती या बाज़ार में जाना टालते ही रहते हैं, तब आखिऱ हर जगह आपके परिचित या आत्मीय, इतने लोग कैसे मिल जाते हैं?`` ऐसे सवालों का जवाब क्या दूँ, सिवाय इसके कि---'ऐसे लोगों का मैं शायद जन्म-जन्मांतर से कर्जद़ार हूं ,उसी का तकाज़ा करने, उलाहना देने आ जाते हैं, भाई लोग!``

खै़र ! छितरे-छिटके बादलों के तले नीम और खिन्नी के कुछ वृक्षों की आड़-छाँव में हम ऐसा स्थान पा गए जहाँ आराम से बैठकर एकदूसरे को देख-सुन सकें.

प्रदीप जी ने क़िस्सा-ए-सफ़र शुरू करने के लिए वही चिरपरिचित वाक्य बोला--- ''मौसम बहुत बेईमान हो रहा है. बस, अब तो आप जल्दी से शुरू कर दीजिए!``

बी.बी.सी. ने भी शर्मीले अंदाज़ में सम्पुट लगाया --- ''हाँ साहब! मौक़ा भी है, मुहलत भी है, दस्तूर भी, सो; देरी किस बात की ?``

हम में से किसी को अनुमान नहीं था कि आज मौसम सचमुच बेईमान है और जो मौक़ा-मुहलत हमें मयस्सर है, वो बहुत देर के लिए नहीं है.

मैंने अपनी बात को आरंभिक सिरे से खोला.... कि किस तरह प्रदेश में पंचायत-चुनाव स्थगित हो जाने से हमें २० मई १९९९ को ही ग्रीष्मावकाश के लिये महाविद्यालय से मुक्त कर दिया गया. यात्रा भुवनेश्वर की करनी थी, जहाँ हमारी मुँहबोली बहन 'सुखविन्दर कौर` तथा उसके पति 'विजय जी` पिछले साल से ही हमारा इंतज़ार कर रहे थे. पिछले साल उनका पत्र विलम्ब से पाने के कारण हम भ्रमित हुए और निरूद्देश्य ही दिल्ली, हरिद्वार होते हुये ऋषिकेश पहुँच गए थे. लेकिन इस बार सुखविन्दर ने बहुत पहले से वादा ले रखा है कि ज़रूर भुवनेश्वर आना है.

ग्वालियर पहुँचकर ट्रेन का आरक्षण करवाने पर पता चला कि १४ जून १९९९ से पहले का आरक्षण नहीं मिल सकता. मजबूरी में 'उत्कल एक्सप्रेस` से १४ जून को प्रस्थान करने हेतु आरक्षण करवाया. मगर ज्य़ादा ही समझदार बनने के चक्कर में भुवनेश्वर से वापसी हेतु भी 'नीलाँचल एक्सप्रेस` में २० जून १९९९ का आरक्षण ले लिया..... ये सोचा ही नहीं कि २० जून १९९९ का दिन तो 'विश्वकप क्रिकेट प्रतियोगिता` के फ़ाइनल मैच के लिये निर्धारित है और प्रत्येक समझदार क्रिकेटप्रेमी २० जून को सफ़र इत्यादि करने के बजाय, इस फ़ाइनल मैच को ही देखना चाहेगा. अब क्या करें ? .... सो, 'अंगूर खट्टे हैं` की तऱ्ज पर खुद को समझाने के लिए हमने तर्क सोचा ---'हम क्रिकेट-प्रेमी तो हैं, क्रिकेट के आदी-व्यसनी थोड़े ही हैं! { फिर कारगिल-संघर्ष की पृष्ठभूमि में जब यह खब़र मिली थी कि फाइनल मैच पाकिस्तान और आस्ट्रेलिया की टीमों के बीच खेला जाना है, तब तो मैच न देख पाने के अपने अफ़सोस को कम करने का एक तथाकथित राष्ट्रीय तर्क हमें मिल गया कि--- 'अब हम भारतीयों के लिए इस विश्वकप के फाइनल मैच में भला क्या आकर्षण ?!`}

जून की भीषण गर्मी में सत्रह-अठारह सौ कि.मी. लम्बी यात्रा का इरादा तो कर लिया, ट्रेन में आरक्षण भी जुटा लिया, लेकिन पहली बार करने के हिसाब से यह सफ़र और सफ़र का समय सरल या उचित नहीं लग रहा था.... ऐसे में एक दिन अम्मी ने अचानक पूछ लिया कि- 'यहाँ से भुवनेश्वर क्या बम्बई से भी ज्य़ादा दूर है ?` मुझे हँसी आई कि अम्मी को भला क्या मालूम कि यहाँ से मुम्बई भी कितनी दूर हब फिर भी उन्होंने अनुमान लगाने के लिए पूछा था और मैं अनुमानत: ही बोल गया कि --- ''यहाँ से भुवनेश्वर मुम्बई के मुक़ाबले तो दुगुना दूर है!`` ये जवाब देते-देते यात्रा की दूरी और भीषण गर्मी के बारे में सोचकर मेरी हिम्मत जवाब देने लगी.

बार-बार मन को समझाता था - 'हिम्मते-मर्दां, मददे- ख़ुदा!` और यह कि - 'चढ़ जा बेटा सूली (सीट) पर, भली करेंगे राम!` और सचमुच ख़ुदारामजी ने काफ़ी मदद भी की, अजीबोगऱीब तरीके से.

सफ़र शुरू किया तो पाया ट्रेन में मेरी सीट एक उड़िया- परिवार के साथ है. यह सोचकर मैंने संतोष महसूस किया कि यात्रा में कोई भाषाई समस्या आने पर इस सुशिक्षित परिवार से सहायता मिल जाएगी . मगर इससे पहले कि उनसे सहायता लेने का कोई अवसर आता, स्वयं मुझे उनकी एक ज़रूरी सहायता करनी पड़ी. हुआ ये कि उस परिवार के एक सदस्य को अन्य कोच में कहीं आरक्षण मिला था. ज़ाहिर है कि वे सब मुझसे आशा- अपेक्षा कर रहे थे कि मैं अपना स्थान छोड़कर उस अन्य कोच में चला जाऊँ ताकि वे सब एकसाथ बैठ सकें. टी.टी.ई. को समुचित रूप से सूचित करके मैं उस सदस्य के स्थान पर चला गया. उस भले परिवार से बिछुड़ने की कसक थी , लेकिन मनुष्यता का तकाज़ा था, सो,मुझे दूसरे कोच में जाना पड़ा.

मनुष्यता का बदला तुरन्त ही मुझे मनुष्यता के साथ ही, आत्मीयता से भी मिल गया. उस नई सीट पर 'शिवपुरी` के कभी के मेरे एक अपरिचित से पड़ोसी 'कम्ठान साहब` मिल गए और उन्होंने मुझे पहचान कर स्वागत किया. आकाशवाणी शिवपुरी पर सेवाकाल के दौरान वे मुझे देखते- जानते रहे होंगे. उन्होंने बातों और साथ लाये गये नाश्ते-भोजन से मुझे तृप्त -तुष्ट किया. मैं सामान्यत: सफ़र के दौरान भोजन इत्यादि से बचना पसन्द करता हूं , मगर कम्ठान साहब ने यह कहकर खाना खाने को विवश किया कि ---''मैं भी सफ़र में कुछ खाना पसंद नहीं करता, लेकिन प्रिय पत्नीजी ने जबरदस्ती नाश्ता-खाना साथ रख दिया है, अब अगर आप नहीं खाएँगे तो मैं भी नहीं खाऊँगा.`` मैंने अहसान माना उन भली गृहणियों का, जो अपने प्रिय पति के साथ हम जैसे अनजान सहयात्रियों के लिए भी ख़ूब सारा खाना रख देती हैं! इनके साथ धन्यवाद दिया ऐसे पतियों को भी जो पत्नी की दी हुई सौगा़तें हम जैसे अजनबियों से शेयर करते हैं !!

बिलासपुर के आसपास से मौसम बहुत शीतल-सुखद था. पेड़-पौधों, पहाड़ियों-जंगलों-खेतों और बादलों-घटाओं-छायाओं के ऐसे- ऐसे लुभावने दृश्य दिखाई देने लगे कि समय गुज़ारने और सुरूचि का प्रदर्शन करने के लिए साथ रखी पुस्तकें-पत्रिकाएँ खोलने तक की ज़रूरत मुझे न पड़ी

१६ जून को तेज़ बारिश के बीच ट्रेन निर्धारित समय से काफ़ी विलम्ब से भुवनेश्वर पहुँची. सुखविन्दर प्लेटफ़ार्म पर नहीं थी, क्योंकि मैंने उसे आश्वस्त कर दिया था कि मैं उसके दिऐ पते से घर तक पहुँच जाऊँगा .... वैसे भी शक था मुझे कि हम एकदूसरे को पहचानेंगे कैसे! १०-११ वर्ष पहले उससे कुछ दिनों तक मुलाक़ातें हुई थीं, जब 'मनाली` के एक एन.सी.सी. कैम्प में दुर्घटनाग्रस्त हो जाने पर वह और मेरी बहन 'यास्मीन` चण्डीगढ़ के मिलिट्री- हॉस्पीटल में अत्यंत गम्भीर अवस्था में भर्ती की गई थीं. सुखविन्दर और उसके मम्मी -पापा-मामा अपनी तकलीफ़ भूलकर यास्मीन की मदद करते थे. तभी से सुखविन्दर हमारी बहन हो गई. इसके दो-एक साल बाद गणतंत्र दिवस कैम्प (आर.डी.सी.) में पुरस्कृत होकर दिल्ली से लौटती सुखविन्दर से हम सब लोग कुछ मिनट के लिए ग्वालियर प्लेटफ़ार्म पर मिले थे.

इसके बाद से तो समय-प्रवाह में हमारी शक्ल-सूरत -शख्स़ियत, रूप-रंग सब बदल चुके हैं और 'सुखी` भी अब जाने कैसी लगती होगी! वह विशेष बदली न भी हो, तो भी मैं तो लोगों को पहचानने, याद रखने के मामले में पूरा 'भूलाभाई भुलक्कड़ भट्ट` हूं.

प्लेटफ़ार्म के बाहर से ऑटोरिक्शा लेकर चला, बारिश का नज़ारा निहारते हुए. थोड़ी ही दूरी पर सड़क की दूसरी ओर से एक स्कूटर पर चालक के पीछे बैठी लड़की को बारिश की फुहारों के बीच से सड़क के इस तरफ़ आते वाहनों में कुछ खोजता-सा पाकर चौंकता हूं. लड़की अपने स्कूटर -चालक से और मेरे ऑटोरिक्शा ड्रायवर से रूकने के इशारे करती है. मैं समझ जाता हूँ कि वे सुखविन्दर और विजय जी हैं, इतने वर्षों बाद, मेरी इस अस्त-व्यस्त हालत में, तेज़ जाते ऑटोरिक्शा में मात्र मेरी झलक देखकर, दूसरी और से स्वयं तेज़ चलते स्कूटर पर बैठी होने के बावजूद वो मुझे पहचान कैसे गई? सुखद आश्चर्य !

मैं ऑटोरिक्शा से उतरता हूं. हम लोग बगल़गीर होकर सड़क पर ही, भीगते हुए बतियाने लगते हैं. विजय जी समझाइश देते हुए अपना स्कूटर आगे बढ़ा देते हैं कि--- ''भैया, आप लोग ऑटोरिक्शा से आओ. मैं चलता हूं.``

घर पहुँचते ही सामान रखकर कपड़े बदलते हैं. सिक्खों का कोई पर्व है, सो ,हम तीनों गुरुद्वारे जाते हैं. लंगर में शामिल होते हैं.... ज़िन्दगी में कितनी सारी चीज़ें सुयोगों पर निर्भर होती हैं! ग्वालियर में रहते हुए, नरिन्दर सिंह नामधारी और इन्द्रपाल सिंह जैसे सिक्ख मित्रों के होते हुए और क़िले पर स्थित 'गुरुद्वारा दाताबंदी छोड़` तक अक्सर जाने के बावजूद, इससे पहले कभी लंगर में शामिल नहीं हो सका था मैं.

१७ जून को हम तीनों प्रदीप पांडेय जी की छोटी बहन 'दीपा` से मिलने जाते हैं. उसका घर ढूँढते हुए भटकते हैं. दीपा की नन्हीं बेटी की मज़ेदार बातों से हम सब का ख़ूब मनोरंजन होता है.

१८ जून की शाम पैदल जाकर 'उत्कल विश्वविद्यालय` के परिसर की परिक्रमा की. इस दौरान दिवास्वपन देखता रहा कि १९८७-८८ में इस विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करने वाली वक्ता 'सोनू` शायद कहीं दिख जाए और हम एकदूसरे को पहचान कर दिल्ली के 'सप्रू हाउस`की यादें ताज़ा करें!

१९ जून को हम लोग स्कूटर और मोटरसाइकिल से 'कोणार्क` और 'पुरी` तक गए. मंदिरों-मस्जिदों में तो मेरी विशेष रुचि है नहीं, लेकिन भुवनेश्वर से कोणार्क का, कोणार्क से पुरी का रास्ता इतना अच्छा था कि मुझे लगा कि कभी उस पर पदयात्रा की जाए और सहयात्री कोई मैरीऐन या डॉक्टर धनंजय शुक्ला जैसा ऐथलीट बंदा हो, तब तो क्या बात हो!

.... समुद्र तटों का कुछ सुख लिया और आस्थावान लोगों के लिये जगन्नाथ मंदिर का प्रसाद लेकर वापस आए.

ये सब बातें प्रदीप जी और बी.बी.सी. ने बिना बोर हुए बरदाश्त कीं .... हमेशा की तरह मैं सोचता रहा कि सभी भले कलाकारों को ऐसे सुधी और सुधीर श्रोता-दर्शक-प्रेक्षक मिल जाया करें, तो उनकी कला और कृतित्व में कितनी करिश्माई उन्नति हो !.... मगर क़ुदरत के खेल हैं कि अक्सर गुणीजनों को गुणग्राहक-प्रशंसक-प्रोत्साहक नहीं मिल पाते.

कुदरत के खेलों के बारे में सोच ही रहा था कि हम तीनों को उसका एक नया खेल देखना-झेलना पड़ा....यूँ तो हम तीनों ही प्राणी उस श्रेणी के हैं, जिसे पान-बीड़ी-सिगरेट-तम्बाकू-चाय-शराब जैसी किसी चीज़ की ज़रूरत-आदत नहीं होती. इसलिए बतकही के बीच किसी बाहरी या भीतरी विघ्न की हमें आशंका न थी. लघुशंका तक का सवाल न था! मगर जब हवा में ठंडक ज्य़ादा महसूस होने लगी तो हमने ध्यान दिया कि माहौल की रंगत बदलकर बिगड़ चुकी है. छितरे-छितरे से बादलों का पुख्त़ा-घनघोर संगठन बन चुका है और अब इनका हरावल दस्ता रणभेरियों की गूँज के साथ ही हम शत्रुओं पर हमला करने को हुँकार रहा है. हमारे सेनापति सूर्य को बादलों द्वारा मज़बूत घेरे में लेकर, कड़े पहरे में क़ैद कर लिया गया था और हमारे निजी अंगरक्षक चारों-पाँचों पेड़ अपने अंग-प्रत्यंग हिला-हिलाकर हमें तुरन्त सुरक्षित स्थान की ओर सिधारने का संकेत कर रहे थे.

बस, फिर क्या था. २० जून ९९ का क़िस्सा अधूरा ही छोड़कर हम अनमने-उतावले-से उठे और अटपटे ढंग से सरपट स्कूटर की तरफ़ भाग चले. अंधेरा घना-सा हो रहा था, हवाएं तेज़तर हो रही थीं. अचानक परिवर्तन से पशु-पक्षी ही नहीं,मनुष्य नामक जन्तु भी अफ़रा-तफ़री के शिकार नज़र आ रहे थे . हम दोनों के बैठते-बिठाते प्रदीपजी ने स्कूटर स्टार्ट करके इतनी तेज़ी से आगे बढ़ाया कि मैं और बी.बी.सी. बारिश में घिरने-भीगने से अधिक,दुर्घटना का शिकार होकर गिरने-मरने के प्रति आशंकित रहे !

कुछ ही मिनिट में मुझे मेरे ठिकाने पर टपकाकर और अगली शाम को फिर मिलकर क़िस्से को पूरा करने के वादे-इरादे के साथ वे अपने घरों के लिये पलट लिए. उस हड़बड़ी में हम हँस-खिलखिला ज्य़ादा रहे थे या खिसिया-घबरा ज्य़ादा रहे थे.... निश्चित नहीं कहा जा सकता . हाँ,यह लगभग निश्चित था कि वे दोनों अपने घर पहुँचने से पहले ही बारिश के सर्राटों में सराबोर हो गए होंगे,क्योंकि मैं सीढ़ियाँ पार करके कमरे में पहुँच भी नहीं पाया था कि घन-गरज के साथ झमाझम बारिश शुरू हो गई .

विद्युतमण्डल वालों ने आँधी की आशंका में तुरन्त बस्ती का विद्युत-सम्पर्क भंग कर दिया और जैसे इससे अधिक कुपित या हर्षित होकर , घटाओं ने अपने सही लक्ष्य भेदने को विद्युल्लता-देवी की सहायता लेनी शुरू कर दी , जिन्होंने तड़क-तड़क कर हम छिपने वाले बुज़दिलों को ललकारना भी ज़रूरी समझा .

जब तक देखने में बादल-बिजली-बारिश का नाच-गाना- बजाना अच्छा लगता रहा , मैं गलियारे में खड़ा उसे देखता-महसूसता रहा फिर टॉर्च और मोमबत्ती के सहारे उन जगहों से पुस्तकें-बिस्तर-वस्त्र हटाये , जहाँ छतों-दीवारों से टपकने-रिसने वाला पानी आ रहा था . ज्य़ादा पानी जहाँ से टपक रहा था,वहाँ दो-तीन जगह बर्तन भी रखने पड़े. बर्तनों में पानी की बूंदें गिरने से घर के भीतर और आँधी-बारिश के कारण घर के बाहर , एक अच्छा-ख़ासा पार्श्व-संगीत जारी था . इस पार्श्व-संगीत को सुनते हुए, उस आरामदायक-से अँधेरे में , सूखी-सी जगह पर लगाए गए बिस्तर पर पड़े हुए मैं भुवनेश्वर के सफ़र की स्मृतियों की जोत को फिर मन-ही-मन जगाने लगा .

***************

रविवार,२० जून ९९ की सुबह दु:ख-दर्द यह कि सुखविन्दर और विजय जी से बिछुड़ना पड़ रहा है.सुख-संतोष यह कि मेरे जैसा आलसी भी एक भले-से रिश्ते की खा़तिर इतनी दूर आ तो सका और अभी वापसी में भी रायबरेली-कानपुर-दिल्ली-फ़रीदाबाद में ऐसे ही रिश्तों को ताज़गी देता- लेता हुआ वापस जाएगा .

दिन में ११ बजे के लगभग नीलाँचल एक्सप्रेस से विजय जी और सुखी ने मुझे विदा किया,फिर से आने का आमंत्रण देकर .

मैं उदास-सा अपनी बर्थ पर जा बैठा. बैठने में कोई सुकून न मिला तो लेट गया और न जाने कितनी देर तक यादों के उपवन में उड़ता रहा .....कुछ खाने-पीने का भी होश नहीं था और इसबार कोई कम्ठान साहब जैसा सहयात्री भी नहीं था,जो आत्मीयता दिखाता और आग्रहपूर्वक कुछ खिलाता. बल्कि किसी सहयात्री से किसी तरह ,का कोई संवाद ही न हुआ .

गर्मी ख़ूब थी, हालाँकि ट्रेन अच्छी रफ्त़ार से चल रही थी. आख़िर शाम ०४ बजे के लगभग अलसाना छोड़कर मैं उठा और हाथ-मुँह धोकर एक दरवाज़े पर जा खड़ा हुआ . मनमोहक,हरभरे दृश्य थे, इनके साथ मेहनती-मुफ़लिस मनुष्य थे. मैं सोचता रहा कि इतनी उपजाऊ-सम्पन्न जगह के अधिकतर निवासी गऱीब क्यों हैं? निश्चय ही कोई राजनीतिक-सामाजिक दुष्चक्र है , जिसके कारण आर्थिक दुरावस्था व्याप्त है! .... देर तक खड़ा देखता-सोचता रहा .

वापस अपनी सीट पर जाना ही चाहता हूं कि दूर से कोई शहर दिखने लगा . दरवाजे पर ही रुककर उसके नज़दीक आने का इंतज़ार करने लगा . सुखद आश्चर्य ! यह तो संसार में अपने प्लेटफ़ार्म की लंबाई के लिए प्रसिद्ध 'खड़गपुर` है . जाते समय ट्रेन का मार्ग अलग था, इसलिए यह शहर तब नहीं दिखा था.

खड़गपुर का नाम सोचकर ही रोमांच-सा हुआ . अब मैं उस प्लेटफ़ार्म की लंबाई देखने और उसे महसूस करने की कोशिश कर रहा हूं.

शाम के ०५.०० बजने वाले हैं. खा़सी भीड़ वाले प्लेटफ़ार्म पर ट्रेन प्रवेश कर रही है . प्लेटफ़ार्म और उसकी भीड़ को यूँ ही सरसरी तौर पर देख रहा हूं , क्योंकि वहाँ किसी पूर्वपरिचित के मिलने की संभावना तो है नहीं .

तभी! ...... प्लेटफ़ार्म के एक मुख्य प्रवेशद्वार से आ रही दो मूरतों पर मेरी नज़र अटकी रह गई . ट्रेन की रफ्त़ार कम हो गई है और मेरी नज़रों की रफ्त़ार तो बस,जैसे उन दोनों से, बल्कि एक से ही जुड़ी रह गई है . उनमें से एक १४-१५ वर्ष की किशोरी है और दूसरी २२-२३ वर्षीय युवती . शायद दोनों बहनें होंगी . छोटी वाली बड़ी वाली का बायाँ हाथ थामे, उससे सटी-सी चल रही है , इसके बाऐँ हाथ में एक पॉलीबैग है और चेहरे से कुछ क्लांति-थकान ज़ाहिर हो रही है . बड़ी वाली के दाएं कंधे पर एक बैग है, जो शॉपिंग-बैग या ऑफ़िस-बैग हो सकता है , उसकी रफ्त़ार में संजीदा मुस्तैदी भी है और एक आत्मविश्वासी बेपरवाही भी . मेरा लगभग पूरा ध्यान उसी बड़ी वाली पर है . वह कोई विद्यार्थी है, शोधार्थी है या कोई कामकाजी युवती अथवा कोई घरेलू लड़की ? वह अपनी साधारणता में भी असाधारण नज़र आ रही है . चेहरे -मोहरे, वेशभूषा , सामान से बिल्कुल साधारण-आमफ़हम, जैसे वैशिष्ट्यरहित , लेकिन साधारण कदकाठी पर वह चेहरा और उस चेहरे का वह भाव, असाधारण रूप से आकर्षक और विशिष्ट है!

मैं सबसे बेख़बर उसी को देखे जा रहा हूं , उसकी चाल में भी कुछ भली-सी लयबद्धता-निश्चिंतता है, पर असल और अद्भुत चीज़ है उसका चेहरा और चेहरे की सहज भंगिमा....... मैं उसका वर्णन नहीं कर सकता , क्योंकि पूरी तरह उसे दृष्टि में समेट ही नहीं पा रहा हूं ! .... कितने ही भाव-विचार मेरे मन में उमड़ रहे हैं और सबका समग्र निष्कर्ष यही है कि - वह एक अद्भुत व्यक्तित्व का अद्भुत भाव है , जिससे भलेपन-बड़प्पन, सादगी-संतोष, विचारशीलता-सृजनशीलता का आभास एक साथ हो रहा है. स्नेहिलता, कोमलता और पवित्रता को एक साथ ही प्रकट करने के लिए जैसे क़ुदरत ने इस चेहरे को तराशा-सँवारा है....सुंदरता, सुकुमारता और सौम्यता- पूर्ण सृदृढ़ता के सम्मिश्रण से!

उसके चहरे के परिपूरक के रूप में ही है उसकी सहज -संतुलित,लयपूर्ण रफ्त़ार ,जैसे उसकी श्रमशीलता का प्रमाण या उसके एथलीट अथवा कुशल नृत्याँगना होने का प्रमाण प्रस्तुत करती रफ्त़ार. उसके चेहरे और चाल में कुछ ऐसा सार्थक समन्वय है कि मैं इनकी अलग-अलग कल्पना भी नहीं कर पा रहा हूं . एक को दूसरे से अलग कर दें, तो दोनों ही कुछ निष्प्रभावी हो जाऍ. उस चेहरे को मैं एकटक देखे जा रहा हूं और उसकी चाल एक आभास के रूप में, मेरी दृष्टि में है.

और...... अगले ही किसी पल यह चेहरा भी मात्र एक आभास, अहसास बनकर ही रह जाएगा ..... मात्र एक स्मृति ..... और कुछ ही समय में यह स्मृति भी धुँधली होती हुई , हमेशा के लिए ओझल हो जाएगी! विलुप्त हो जाएगी !

नहीं , इससे पहले ही मुझे कुछ करना चाहिए . लेकिन क्या ?

ट्रेन की रफ्त़ार धीमी सही, लेकिन उसे पीछे छोड़ने के लिए काफ़ी है और अब वह भीड़ में खोकर दिखना बंद हो गई है .

क्या मैं अपने आपे में नहीं हूं ? नहीं, लगता है मैं पूरी तरह अपने आपे में ही हूं . तभी तो मन-ही-मन बेचैन ..... बहुत बेचैन होते हुए भी, ऊपरी तौर पर शांत, संयमित,शालीन-सा बना खड़ा रहा हूं ......एक मात्र गड़बड़ काम यही किया कि उसे एकटक निहारता रहा ......लेकिन शुक्र है कि मेरी इस अशोभनीय-सी हरकत को किसी ने देखा-जाना नहीं है .

तो , वे पल बीत गए. वे कुछ पल अनंत-असीम काल- प्रवाह में घुलकर ओझल हो गए हैं . उस युवती की छवि भी कुछ ही समय में मेरी दृष्टि-स्मृति से , मेरे मन मस्तिष्क से धुल-पुँछ जाएगी .क़िस्सा यहीं ख़त्म हो जाएगा! .......नहीं,ये क़िस्सा यूँ ख़त्म नहीं होगा. ये घटना ज़रूर घटित होकर ख़त्म हो गई है , लेकिन इसका असर एक कसक के रूप में हमेशा मेरे साथ रहेगा . और जब तक यह कसक रहेगी , ये क़िस्सा भी मेरे लिए ख़त्म नहीं हो सकेगा !

काश , इस क़िस्से की कुछ सुखद परिणति होती , कोई सुखांत होता !

मगर कैसे ?..... भला उस नितांत अपरिचित युवती से मैं क्या कहता ? कोई रोमानी बात तो कहता नहीं , क्योंकि यदि ऐसी बात कहता भी तो , मेरे मुंह से बेमानी ही लगती .तब इसके नतीजे में उस निहायत शालीन नज़र आती लड़की का नितांत नाराज़गी भरा रूप और प्लेटफ़ार्म पर मौजूद उस निहायत अहिंसक,असम्बद्ध-सी भीड़ का नितांत सुसम्बद्ध, हिंसक रूप मुझे देखने को मिल सकता था और मेरी सारी शराफ़त झाड़ दी गई होती.

मैं उससे कोई भली-सी , प्रशंसात्मक बात कहता , वह उसे भी भली ही लगती , यह तो इस बात पर निर्भर था कि वह ऐसी बात कहने वाले व्यक्ति को भी भला ही मानती-समझती ....... लेकिन उसने तो मेरी तरफ़ एक बार भी नहीं देखा था, कम-से-कम मुझे तो ऐसा ही लगा...... फिर महत्वपूर्ण सवाल भाषा का भी था , बह बाँग्ला भाषी हुई तो ....? हिन्दी भाषी न हुई तो?!

वैसे....... किसी अजनबी से , उसके अच्छेपन के बारे में या उसकी सुरुचि-सौंदर्य के बारे में सहज भाव से कुछ कहना अजीब क्यों है? एक साधारण शुभकामना-सी बात तो ख़ुशगवार लगनी चाहिए , लेकिन अशोभनीय-अपराध-सी लगती है. शायद विकसित-सुलझे-खुले समाजों में इस तरह की बातों को सहजता से स्वीकार किया जाता होगा . ऐसे क़िस्से तो हम पढ़ते भी रहते हैं .

वही क़िस्सा लीजिए,जिसमें सुदूर प्रवास से लौट रही अपनी पत्नी को हवाई अड्डे पर लेने गए पति ने हाथ में तख्त़ी पकड़ रखी थी, जिस पर पत्नी के नाम स्वागत-संदेश लिखा था....... 'सुस्वागम् , रोज़ी!!` यात्री-गैलरी में रोज़ी से पहले निकलने वालों में से एक युवती ने उस व्यक्ति के पास से गुज़रते हुए शोख अ़दा से,शरारतन कहा --- ''काश! मैं ही रोज़ी होती!`` उन पतिदेव ने भी मज़ा लेते हुए तपाक से कहा---''काश! तुम भी रोज़ी होतीं!!``...... यानि एक मजेद़ार-सी बात और एक खु़शगवार-सा अहसास. और बस!

या फिर यह मामला विकसित-अविकसित समाजों का नहीं, बल्कि आत्मविश्वासी और संकोची व्यक्तित्वों के अंतर का है. यह ज़रूर है कि विकसित समाजों में उन्मुक्त-आत्मविश्वासी व्यक्ति अधिक होते होंगे .

यूं देखें तो....किसी के द्वारा किसी अजनबी की भी प्रशंसा करने में बुराई तो कुछ नहीं है . इसमें साधारणत: दो ही भाव छिपे रहते हैं... क़ु़दरत के प्रति आभार का,जिसने उस व्यक्ति को प्रशंसनीय बनाया और उस प्रशंसनीय व्यक्ति के प्रति शुभकामना का कि वह हमेशा ऐसा ही, बल्कि अधिक बेहतर बना रहे!

मगर ....... आभार और दुआएँ तो मन की चीज़ें हैं और मन से तो मैं उन चंद पलों के लिए क़ुदरत का आभारी और उस लड़की के प्रति शुभाकाँक्षी हूं ही. फिर मुझे दु:ख और कसक का अहसास क्यों हो रहा है ? होना तो नहीं चाहिए!

लेकिन यह अहसास इसलिए अधिक हो रहा है कि उन पलों की स्मृति-रेखाएँ, मेरे मन से तो नहीं , लेकिन मेरे मस्तिष्क से बहुत शीघ्रता से पुँछती जा रही हैं .......क्या सचमुच मैंने उसे गौ़र से नहीं देखा था ? ......... शायद यही सच है. वरना उस मोहक चेहरे और उसके मुग्धकारी भाव को मैं इतनी जल्दी कैसे भूलने लगता?

ट्रेन उस बहुत लम्बे प्लेटफ़ार्म पर आगे सरकती रही और अपनी मानसिक उधेड़बुन में, मैं प्लेटफ़ार्म की लंबाई का अहसास ही नहीं कर पाया हूं . ट्रेन रूक गई. इतनी देर से मैं अपने सामान से बिल्कुल बेपरवाह रहा हूं, अब भी उसकी ओर से बेपरवाह ही बने रहते हुए प्लेटफ़ार्म पर उतरता हूं और पानी की एक टंकी के पास जाकर हाथ-मुँह धोता हूं , पानी पीता हूं. भीड़ से कुछ परे फलों के रस वाले एक स्टॉल के पास खड़ा हो गया हूं . रस विक्रेता को रस बनाने का कहकर फिर रवाँ भीड़ को ताकने लगता हूं . भीड़ में फिर उसी लड़की के दिख जाने की आशा-कल्पना करने लगता हूं . साथ ही स्वयं की हँसी भी मन-ही-मन उड़ा रहा हूं कि उसे जाने कहाँ जाना था और इतने लंबे प्लेटफार्म पर कहाँ गई होगी? हाँ , इसी तरफ़ एक अन्य प्लेटफार्म पर खड़ी लोकल-ट्रेन से उसे कहीं जाना हो तो बात अलग है. मगर , अगर वह इस तरफ़ आ भी रही हो , तो भी जब तक वह यहाँ पहुँचेगी, तब तक शायद मेरी ट्रेन जा ही चुकी हो.

अच्छा, ...... मान लो वह अभी इधर ही आ निकले, तब ? इस प्रश्न के उत्तर में , बेबसी से मुस्कराने की चेष्टा करता हूँ .

तभी!!....... जैसे जादू ही हुआ , भीड़ में जगह बनाती वे दोनों लडकियाँ इसी तरफ़ आती दिख रही हैं..... अब निश्चय ही आपे में नहीं हूं मैं .यह तो असंभव-सी बात हो गई, इसका मतलब कुदरत को भी हमारा कुछ और सामीप्य स्वीकार है!

इस सुअवसर को अब यूँ ही नहीं गँवाऊँगा ... भय क्यों करूँ? मैं किसी दुर्भावना से दुष्प्रेरित तो हूं नहीं. एक भोली-भाली-सी बात ही तो कहना चाहता हूं . अगर वह भली व्यक्ति है, तो मेरी बात का क़तई बुरा नहीं मानेगी.

मगर मेरा मन ही मुझे हतोत्साहित कर रहा है कि तुम ख़ुद उसे भले-से-न लगे तो? तुम्हारी सूरत-शक्ल की, तुम्हारे शब्दों से सुसंगति न बनी तो?..... दूर से वह मेरी दिशा में ही निकट आती जा रही है,लेकिन स्पष्ट है कि मुझसे मिलने की ख़ातिर नहीं. मन को समझाता हूं - - वह दूर से गुज़र गई तो ये समझकर सब्र कर लूँगा कि एक सुखद सपना था. यदि पास से गुज़री तो ......

मन टोक देता है-- वह दूर से गुज़र गई, तब तुम सपना मानकर सब्र कर लोगे, ये तो माना जा सकता है , क्योंकि तब सब्र के अलावा कर ही क्या सकोगे?...... लेकिन यदि वह तुम्हारे निकट से निकली तो क्या कहने-करने वाले हो ?

यही तो नहीं सोच पा रहा हूं ...... सिर्फ तुमसे कहता हूं अगर मुझे अपने बारे में बेहतर विश्वास होता , तो निश्चय ही इस भलीमानस से इसी को माँग लेता! ........ इसके व्यक्तित्व में कुछ ऐसी बात है कि मैं इससे जीवनभर का साथ माँग सकता हूं ........ जैसा बेढंगा-सा , बे-साज़ो-सामान का जीवन में जी रहा हूं , यह उसमें एक बेहतर ढंग , एक सुमधुर साज़ -संगति ढूँढ सकेगी . मेरी असामाजिकता में भी एक समाज और सामाजिकता महसूस कर सकेगी!

मन मेरी भरपूर मुख़ालफ़त पर आमादा है. पूछता है - - वह पहले से ही यदि विवाहित हो तो?

मैं मज़बूत बनने की कोशिश में मुस्करा रहा हूं - - वह विवाहित तो नहीं लग रही. { हम पुरूषों के साथ ही दिक्क़त है कि अपनी वैवाहिक स्थिति का कोई सूचक-संकेत ही नहीं बनाया!}

ठीक है,विवाहित नहीं है., लेकिन यदि किसी से प्रेम करती हो या किसी से उसका विवाह तय हो गया हो तब ?{ ठीक कह रहे हो. बस , स्त्रियों के लिए ऐसे वस्त्रों -आभूषणों का तय किया जाना ही शेष है, जो उनका किसी की प्रेमिका या मँगेतर होना भी प्रदर्शित करें!}

-यार, यदि वह किसी की प्रेमिका या मँगेतर हो तो मैं दाल-भात में मूसलचंद क्यों बनूँगा ? 'सॉरी` कहकर , हार्दिक शुभकानाएँ देकर विदा! .......

लीजिए , अब करिए बात-मुलाक़ात! वे दोनों तो मेरी तरफ़ ही आ रही हैं...... और किसी बात पर ख़ूब मुस्करा रही हैं, छोटी वाली को तो जैसे अपनी हँसी क़ाबू करने के लिए खा़सी कोशिश करनी पड़ रही है. रस का गिलास मेरे हाथ में है और उस हाथ में कंपन है! मैं समझ नहीं पा रहा.............. मेरी हालत ख़ौफ़ की है या ख़ुशी की? मैं प्रसन्न हूं या कि सिर्फ सन्न?!

मुस्करा रहा हूं और देख रहा हूं कि जूस-स्टॉल के पास से , मेरे सामने से गुज़रते हुए दोनों रुक गई हैं, मैं चकित-विस्मित भी हूँ और उल्लसित-प्रफुल्लित भी!

नहीं , वे मेरे लिए नहीं रुकी हैं, बल्कि जूस की खा़तिर ही रुकी है. जूस पीने लिए ही रुकी रहें, तो ये पल कुछ और खिंच जाऍ!--- उसने जूस वाले से बात करते में क्षणांश के लिए मेरी तरफ़ भी नज़र डाली है. क्या था उस सरसरी-सी निगाह में ...... आकर्षण या आक्रोश , उत्सुकता या वितृष्णा.... या......?

वाह! शुक्रिया, जूस वाले बंधुजी! इन्हें उस लोकल ट्रेन से जाना है और आपने जैसे मुझपर अहसान करते हुए , इन्हें ट्रेन के २०-२५ मि. बाद जाने के बारे में आश्वस्त कर दिया है!

अब उस छोटी बालिका के चेहरे पर निश्चिंत-सी हँसी बिखर गई है, जिसे देखकर बड़ी वाली भी हँस पड़ी है और उसे प्यार से थपथपाकर खुद़ भी आश्वस्त भाव से आस-पास देखने लगी.

भीड़ हमसे थोड़ी दूर है जूस वाले सज्जन अपने एक मित्र -परिचित से बतियाते हुए इनके लिये जूस तैयार कर रहे है. मैं चाहूँ तो इससे बात कर सकता हूं , क्योंकि आस-पास इन दोनों लड़कियों के सिवाय कोई नहीं है .

यह घटना किसी कहानी या फिल्म में घटित हो रही होती और हम दोनों नायक-नायिका होते , तो अभी पल भर में हमें प्रेमी-प्रेमिका बनाकर , प्रेम-विवाह का पथ प्रशस्त कर दिया जाता और यह छोटी वाली लड़की भी अपनी चंचलता की चूरन-चटनी से हमारी चाहत को चटपटा बना देती, चार चाँद लगा देती , चाँदनी से सजा देती!......मगर यह है कि शरारत से परहेज़ करते हुए , शांत-निर्लिप्त-सी खड़ी है ...... सच है ,असली ज़िन्दगी में तो यही होता है. हक़ीक़त में किसी हसीन जादू के लिए जगह कहाँ?! .... और मैं हूं कि आस किए जा रहा हूं कि उससे बातें करने लगूँ ....या वही मुझसे बातें करने लगे.

... लेकिन वो स्वयं पहल करके, अकारण मुझ अजनबी से क्या बात करेगी और क्यों?

... क्यों? भला क्यों नहीं कर सकती? क्या उसे अहसास नहीं है कि मैं प्लेटफ़ार्म पर सिर्फ़ उसे ही देखता रहा हूं ? क्या उसे अहसास नहीं कि मैं क्या सोच रहा हूँ और क्या मेरे सोच से उसका कोई सरोकार नहीं?... तब वही मुझसे कुछ कह क्यों नहीं देती? ... और कुछ नहीं तो , इस तरह बेशर्मी से ताकने पर ही मुझे रोक दे, डाँट दे.....या मेरे प्रति अपनी अरुचि-उपेक्षा का ही इज़हार कर दे .

.... वह आपकी उपेक्षा ही तो कर रही है. उसने आपमें कोई रुचि ज़ाहिर नहीं की, यही तो उसकी अरुचि का इज़हार है !

उसकी सरसरी नज़र अपने आस-पास से उठती -सी मुझपर से गुज़री है और इस बार वापस लौटकर मुझ पर ही टिक गई है, सहज स्मित के साथ.

.... मगर मेरी हालत हौलनाक है, पैरों के नीचे से जैसे ज़मीन खिसकी जा रही हो. मैं उस पर से अपनी निगाहें हटा नहीं पा रहा हूं पलकें झपक रही हैं या नहीं , मुझे होश नहीं. असहज-सी मुस्कान मेरे ख़ुश्क होठों पर चिपकी है और कानों में तेज़ सीटी-सी बजना शुरु हो गई है ..... यह सीटी मेरी ट्रेन की भी तो हो सकती है, लेकिन मैं ज़रा भी हिलने की स्थिति में नहीं हूं .... जैसे कि यह एक स्वप्निल-समाँ है , जो मेरे हिलते ही बिखर जाएगा. .

..... मुग्ध - सा , मायूस-सा, मंत्रबिद्ध-सा , मौन खड़ा हूं मैं ........ ...... इस लोक की निहायत निराली नवयुवती के सामने!

...... इस लोक के निहायत लंबे प्लेटफ़ार्म पर!!

उस छोटी बालिका को भीड़ से थोड़ा और परे या अपने और पास करने के लिए अनायास (या सायास?) वह जिस तरफ़ कुछ खिसकी है, मैं उसी तरफ़ खड़ा हूं .

अब वे दोनों अनायास (या सायास!) ठीक मेरे पास में हैं........ और मैं हूं स्तब्ध-सा, स्तंभित-सा ,मूर्ति-सा या मृतक समान! ज़ाहिर है, मैं उससे कुछ न कह पाता और उलझन-ऊहापोह में जकड़ा रह जाता ...बाद में दुखी होने, शोक-अफ़सोस करने के लिए !

तभी! ......सहज-सुमधुर स्वर सुना मैंने ......अंग्रेज़ी में पूछा गया था --- ''आप इसी ट्रेन से आए हैं न?``

मैं आशंका में कुछ-का-कुछ सुन-समझ सकता था, लेकिन कुछ होशो-हवास बचे हुए थे मेरे, इसलिए मैंने देखा कि उसका हल्का-सा इशारा सामने खड़ी 'नीलाँचल एक्सप्रेस` की तरफ़ था और सवाल उसने मुझसे ही पूछा था .

मैंने हड़बडी में हामी भरी और हिन्दी में प्रतिप्रश्न किया ---''आपको कैसे मालूम?``

मेरी बात पर उसने छोटी वाली की तरफ हँसते हुए देखा, जो शर्माई हुई-सी उसके पीछे छिपने का प्रयास कर रही थी, तब जवाब दिया ---''आप एक कोच के दरवाज़े पर खड़े हमारे सामने से गुज़रे थे``

--- ''लेकिन आप लोगों ने तो मेरी तरफ़ नहीं देखा था!``

--- ''नहीं, हम लोग तो आपको ही देख रहे थे. ये समझ रही थी (छोटी वाली ने कसकर उसका हाथ दबाकर उसे आगे बोलने से रोकना चाहा, मगर नाकाम रही) कि आप कोई अंग्रेज़ हैं``......

कई लोगों की तरह इन्हें भी ऐसा ही भ्रम हुआ, जानकर मैंने अपनी हँसी रोकते हुए पूछा ---''तब आपने क्या कहा?``

---''मुझे तो विश्वास हो गया था कि आप विदेशी नहीं हैं, लेकिन पास से देखने पर मुझे लगा कि शायद इसी की बात सच हो, इसीलिए मैंने पहली बात आपसे अंग्रेज़ी में की. ये तो शर्त लगाने को तैयार थी इसलिए आपको हिन्दी में बोलते सुनकर अपने गल़त अनुमान पर शर्मा रही है . ''

---''आश्चर्य है, आप लोग इतनी अच्छी हिन्दी बोलते हैं!``

---''हम बाँग्ला भी बोलते हैं . बोलें?``

---''ज़रूर बोलिये! लेकिन मुझे तो साधारण-सी हिन्दी के अलावा कोई भाषा नहीं आती. सॉरी!``

---''ये तो अच्छी बात नहीं है . हिन्दीभाषियों को अन्य भारतीय भाषाएँ भी सीखनी चाहिएँ . देखिए , हमें हिन्दी न आती तो आपसे कैसे बात कर पाते?``

--''आप जैसे भले लोगों को साथी बनाना पड़ेगा, तभी आपकी सीख पर अमल हो सकेगा.``

--''ज़रूर!....अच्छा आप कह रहे थे कि हमने आपकी ओर नहीं देखा था, ऐसा आपको कैसे लगा?``

---''मेरी बात अजीब और अशोभनीय भी लग सकती है आपको. अगर अनुमति दें तो कहूं?``

---''व्यक्ति तो आप भले-से दिख रहे हैं , अशोभनीय बात जानबूझकर क्यों कहेंगे भला?``

---''शुक्रिया!... लेकिन मेरी बात बुरी लगे तो माफ़ करिएगा!``

---''माफ़ी? सवाल ही नहीं उठता, बुरी बात का तो बलपूर्वक विरोध करेंगे!`` कहते-कहते उसे फिर हँसी आ गई और उसके कहने के ढंग तथा बेबाकी पर मैं भी हँस पड़ा.

तब यथा सम्भव सहजता से मैंने कारण बता दिया कि मुझे क्यों लगा कि उन लोगों ने मुझे देखा ही नहीं --- ''क्योंकि मैं तो लगातार आपको ही देख रहा था!``

अब वे दोनों उन्मुक्त हँसी हँस पड़ीं, छोटी वाली मुश्किल से बोली ---- ''हम भी तो ...... आपको ही देख रहे थे ....... दीदी कह रहीं थी कि आप कोई खोई हुई चीज़ खोज रहे है.``

अब मैं हँस रहा हूं ---- ''हाँ, मेरे शब्द और मेरी समझ खो गई थी ---- मैं उन्हें ही खोज रहा था.``

---- ''फिर खोज सके या नहीं?``

---- ''शब्द तो कुछ-कुछ मिल रहे हैं, समझ के बारे में अभी संशय है.``

---- ''क्यों? ऐसा क्यों?`` .... ''और हाँ , हम लोग जूस पीते हुऐ भी बातें कर सकते है!``

उसकी बात पर हम तीनों हँस पड़े , क्योंकि हम तीनों ही जूस के गिलास थामे खड़े थे , मगर जूस पीने की ओर ध्यान ही नहीं था .

सिप करते हुए मैंने बात आगे बढ़ाने का उपक्रम किया --- ''मालूम नहीं, एक अजनबी व्यक्ति के रूप में , यूं रास्ते में हुई क्षणिक-सी भेंट में मेरा वह कहना उचित है या नहीं , जो मैं सोच रहा था!``

---''अब तो हमारी भेंट क्षणिक से कुछ अधिक समय की हो चुकी..... ऐसा सोचकर अपनी बात कह डालिए!``

मैं कुछ सहज हुआ ----''आप बहुत अच्छी हैं और सचेत भी!....शायद पहले भी कई लोगों ने आपसे यह कहा होगा.``

उसने छोटी वाली की तरफ़ देखा और अफ़सोस और आश्चर्य का अभिनय करते हुए कहा --- ''नहीं तो,कभी किसी ने नहीं कहा और कहता भी क्यों? ऐसा कोई कारण भी नहीं है.``

---''नहीं-नहीं, कारण तो है. आप अत्यंत सहज हैं , लेकिन भीड़ से अलग, जैसे भेड़चाल से भी परे!``

----''हूं%........ अच्छा,कोई आपके बारे में ऐसा कहे तो?``

----''मेरे बारे में ऐसा कुछ कहना निराधार होगा . अपनी असलियत से अपरिचित नहीं हूं मैं.``

---'' आपको क्या लगता है , अन्य सब लोग अपनी असलियत से अपरिचित होते है?``

---''नहीं,सभी तो नहीं,लेकिन काफ़ी लोग होते हैं ... मैंने गुरूदेव रवीन्द्र के किसी साक्षात्कार में पढ़ा था कि वे वर्षों तक अपनी शक्लो-सूरत-शख्स़ियत को लेकर ख़ासी कुंठाएँ पाले रहे थे. ....जबकि हम लोग उनके व्यक्तित्व को कितना भव्य-दिव्य अनुभव करते हैं!``

---''आप ख़ुद ऐसे लोगों में शामिल नहीं हैं?``

---''हो सकता है मैं भी इनमें शामिल होऊँ....लेकिन

मैं ऐसा व्यक्ति तो नहीं ही हूं ,जिसे देखकर किसी को कोई अद्भुत अहसास हो! बस,आत्मीय-मित्रों द्वारा किसी तरह बर्दाश्त कर लिया जाता हूं.``

---'' कोई अजनबी यदि आपकी अच्छाई बताए तो?``

मेरे ही शब्दों से उसने मुझे घेरा है, सोच कर में हँसा---''तब ..... मैं उस भले अजनबी का आभार मानते हुए उसकी गल़तफ़हमी दूर करना चाहूंगा,क्योंकि अपनी स्वयं की अच्छाई के कारण ही उसे मेरे अच्छेपन का धोखा-मुगा़लता हुआ होगा .``

---''ओह%.......! ये बात है , ..... तो मामला ऐसा है.``

---''कैसा?``

---''नहीं, कुछ नहीं! आपकी समझ सचमुच अभी भी सैर करने ही गई हुई है.``

वो अपने मज़ाक़ पर मुस्करा रही है और मैं हैरान --''जी?!``

---''जी हाँ! बुरा नहीं मानिएगा, लेकिन आप स्वयं के बारे में ज़रूर हीनभावना और गल़तफ़हमी के शिकार हैं . ...... आपको ये भी खय़ाल नहीं है कि भला हम लोग आपके पास क्यों आए और आपसे बातें क्यों कर रहे हैं?``

---''सॉरी, .... मैंने आपको रोक लिया ..... यूँ ही....``

----''गुड! यानी कि आपने सचमुच हमें रोका था?``

मैं अचकचा गया . सचमुच मैंने कहाँ इन्हें रोका था और चाहकर भी कब इनसे बात कर सका था?

--- ''वैसे .... आप करते क्या हैं ......?``

अकारण अब हीन-भावना-ग्रस्त-सा अधिक हो रहा हूं, कह जाता हूं --- ''.....बस, यही न पूछिए ! ``

वह हैरान है---- 'बेरोज़गार तो नहीं लगते......`` छुटकी वाली ने तंज़ किया --- ''कुछ काला-धंधा वगैऱह......!``

----''नहीं ऐसा कुछ नहीं , मैं एक विद्यार्थी .....मेरा मतलब एक प्राध्यापक हूं .``

---''आप न भी बताएँ तो भी लोग यही अनुमान लगा सकते हैं आपके बारे में .``

---''क्यों? क्या सूरत से ही सख्त़ी और मनहूसियत टपक रही है?``

हम सभी हँसे .

---''...'सर`! आप कहाँ से आ रहे हैं?``

---''अपनी एक मुँहबोली बहन से मिलकर भुवनेश्वर से आ रहा हूं..... .``

----''... और अब मुँहबोले भाइयों वगै़रह से मिलने जा रहे हैं ... है न?`` अपनी तुकबंदी पर वे मज़े से हँस रही हैं. मैं भी उनकी हँसी में शमिल होकर उनके मज़ाक की पुष्टि कर देता हूं --- ''सही अनुमान लगाया आपने! मैं अपने मुँहबोले भाई-बहनों तथा मित्रों से मिलता हुआ ही वापसी का सफ़र करूँगा .``

मैं प्रसन्न भी हूं कि १०-१२ मिनिट पहले तक जिसकी कल्पना भी शायद नहीं की जा सकती थी, वह घटना घटित हो रही है. ०५ मिनिट पहले तक जिस संवाद की संभावना भी तमाम आशंकाओं में घिरी थी,वही संवाद अब ऐसी सहजता से जारी है जैसे हम लोग सुदीर्घ समय से सुपरिचित हैं!

लेकिन ..... अब आगे क्या? ......मेरी ट्रेन तो अब यह स्टेशन छोड़ने की तैयारी में होगी .

दूर से पास आने के सुयोग के बाद , अब फिर से दूर होने का दुर्योग घटित होगा? जो मैं चाहता था , वह हो चुका है . मैं उससे मिल सका , बातें कर सका . ...... और इसके लिए समीप आने से लेकर बात-चीत शुरू करने तक की सारी पहल भी उसी ने की थी . .... अब विदाई के बोल बोलने का बहुत मुश्किल काम भी वही कर दे तो वेहतर है .

मैंने धन्यवाद और शुभकामनाओं के साथ , फिर से अजनबी बन जाने के लिए तैयारी करना शुरू कर दिया है . उन दोनों बहनों ने संकेतों या मन की भाषा में आपस में कुछ संवाद किया है . बाहरी तौर पर तो उनमें दु:खी या विचलित होने के कोई लक्षण नज़र नहीं आ रहे हैं . ....शायद उन्होंने भी स्वयं को सँभाल लिया है . कुछ क्षण के मौन अंतराल के बाद , मुझसे नज़र मिलते ही वो पूछती है ---- ''जहाँ आप जा रहे हैं, वहाँ आपकी प्रतीक्षा की जा रही होगी?``

----'' नहीं , प्रतीक्षा जैसी तो कहीं कोई विशेष बात नहीं है, क्योंकि जहाँ-जहाँ भी मैं जाने वाला हूं वहाँ किसी को सूचना नहीं है कि अभी मैं कहाँ हूँ और उनके यहाँ कब तक आ धमकने वाला हूं.``

----'' 'सर`! ..... तब तो ऐसा हो सकता है कि आप अपनी जर्नी-ब्रेक कर लें .... और हमारे साथ चलें!``

उसने दूसरी बार मेरे लिये 'सर` संबोधन प्रयोग किया . उपहास का तो नहीं , लेकिन दोनों बार कुछ हास-परिहास या उलाहना जैसा भाव ज़रूर था ..... जैसे जताया जा रहा हो कि उचित संबोधन के अभाव में इस संबोधन से काम चलाया जा रहा है , वरना तो .......! ..... मैं अविश्वास से उसकी बात सुनकर सोच रहा हूं कि उसने सचमुच वही कहा है, जो मैंने सुना? या फिर मेरे कान बज रहे हैं और मैं वही सुन रहा हूं , जो मैं सुनना चाह रहा हूं!``

--- ''जी?!``

--- ''जी हाँ , ..... अगर आपको अजीब न लगे और असुविधा न हो तो हमारे साथ चलें ......``

----''अजीब तो है आपका आमंत्रण,लेकिन सुखद भी! ..... मगर यह शायद ठीक नहीं होगा.``

----''किसके लिए , आपके लिए या हमारे लिए ?``

----'' आपके लिए ! और क्योंकि आपके लिए ठीक नहीं है तो मेरे लिए भी ...... आपके परिवार में भी यह किसी को उचित और अच्छा नहीं लगेगा.``

----''क्यों? आप कोई दुष्ट-बदमाश हैं?``

---''हो भी सकता हूं! और न होऊँ, तब भी किसी को ऐसा लग तो सकता हूं . ---- 'हाय! क्या करूं सूरत ऐसी , गाँठ के पूरे चोर के जैसी`!``

वो अपनी हँसी रोक नहीं पा रहीं और मुझे लग रहा है कि वो मेरी बात से , मेरी सूरत का मिलान भी कर रही हैं .

----''बेफ़िक्र रहिए , वहाँ किसी को ऐसा नहीं लगेगा . हाँ , आप ज़रूर देख लीजिए कि कहीं आप खु़द तो हम खऱाब-से लोगों के चंगुल में नहीं फँस रहे हैं?!``

---''नहीं-नहीं. विश्वास करिए , मैं आप लोगों को लेकर क़तई आशंकित नहीं हूँ! लेकिन .... इस तरह घर पर किसी अजनबी को साथ लेकर ...``

---''अरे, कमाल है , अब तक आप अजनबियत से ऊपर ही नहीं उठे हैं! आप तो हमें अजनबी नहीं लग रहे . चलिए , औपचारिक परिचय कर लें .....मैं 'माया` हूं ....``

----''सच?!.... मैं 'मोह` हूं !`` मैंने अपने नाम 'मोहम्मद` के आधे से भी कम आरंभिक भाग का उपयोग किया , जिस पर वह छोटी वाली बहुत तेज़ हँस पड़ी . फिर उसने अदा से जो दुआ की , उस पर हम तीनों ही और भी तेज़ हँसने पर मजबूर हुए . उसने आकाश की तरफ़ देखते हुए हाथ जोड़कर कहा --- '' .... और मैं इस 'माया-मोह` के चक्कर में फँसी निरीह -नश्वर प्राणी हूं . मेरी रक्षा करना , प्रभुजी!``

माया ने हँसी को रोककर सीधा सवाल किया ---- ''अच्छा! आपको हमारे साथ चलने मैं कोई समस्या नहीं है न?``

----''बिल्कुल भी नहीं , मगर ....``

---''देखिए , इस मगर को जाने दीजिए कहीं पानी में और तुरंत ट्रेन से अपना सामान उतार लीजिए , क्योंकि आपकी ट्रेन जाने वाली है ,लेकिन आपने यहाँ 'जर्नी-ब्रेक` करने का निश्चय कर लिया है . ठीक है?``

---''सोच लो , आप ही....``

---''हाँ - हाँ , सोच लिया और सोच कर ही मैं कह रही हूं .``

मैं जूस के पैसे देने बढ़ता हूं , तो वह मेरे हाथ से गिलास झपटकर मुझे डपट-सा देती है ---- ''आप जाकर सामान ले आइए! अभी आपको जर्नी-ब्रेक करवाने और हमारी इस ट्रेन का टिकिट लेने भी जाना है. जल्दी करिए,याद रखिए १० मिनिट ही शेष हैं .

मैं गिलासों और जूस बाले भाई के पैसों की परवाह छोड़कर अपनी ट्रेन की तरफ़ भागता हूं ,जो प्रस्थान के संकेत हेतु सीटी दे चुकी है. ....... सरकना शुरू कर चुकी ट्रेन से अपना बैग लेकर मैं वापस प्लेटफ़ार्म पर टपका. जूस वाले का भुगतान करके वे दोनों मेरी ही दिशा में आ रही थीं . मैंने स्टेशन-अधीक्षक कार्यालय से जर्नी-ब्रेक करवाई . तब तक वह लोकल ट्रेन का एक और टिकिट भी ले आई और हमने लगभग भागते हुए उस लोकल ट्रेन को पकड़ा.

रास्ते भर मैं कुछ असहज ही था , लेकिन उनके घर का माहौल

असाधारण रूप से आश्वस्तिप्रद और सहज था .

माया की माँ और पापा सरल-शांत,स्नेहिल स्वभाव के लगे . उसके पापा ने युवावस्था में कभी अपना पैतृक घर-शहर छोड़कर अपनी स्वतंत्र घर-गृहस्थी बसाई थी . फिर प्रौढ़ावस्था में उन्हें सरकारी नौकरी छोड़कर निजी व्यवसाय जमाना पड़ा.इस समय डिज़ायनिंग के इसी व्यवसाय को युवा उद्यमियों के एक समूह से जोड़कर बढ़ाने में व्यस्त थे. मुझसे उन्होंने मैत्रीभाव से बातें की और मेरे प्राध्यापन-कार्य और कार्य-स्थितियों के बारे में जानकर बोले ---- ''आप सरकारी नौकरी छोड़ने पर आमादा हैं और सरकारी नौकरी आप जैसों के लिए है भी नहीं, सामन्यत: सरकारी-सेवाएँ हमारे तथाकथित धार्मिक जीवन का पूर्ण प्रतिरूप हैं . जो नियम-क़ानून-शर्तें हैं , उन्हें ख़ुद सरकार ही नहीं मानती और जो लोग इन्हें मानते हैं, निष्ठापूर्वक कार्य करते हैं, वे उपेक्षित रहते और प्रताड़ित होते हैं .धंधेबाज़-चापलूस-चालूपुऱ्जे लोग सारी व्यवस्था की धज्जियाँ उडाते और अपनी जुगाड़ें जमाते ऊपर चढ़ते जाते हैं . नियम-प्रक्रियाएँ ऐसी है जिनका पालन किया ही नहीं जा सकता और जिनके उल्लघंन के आरोप किसी पर भी लगाए और सिद्ध किए जा सकते हैं . .....लगता है आपको अन्य विकल्पों के बारे में जानना-सोचना और निर्णय लेना होगा . .... और ये कार्य जितना जल्द कर सकें उतना बेहतर होगा , वरना ..... .``

-----''.... देर हो जाएगी?``

----''हाँ , .... और देर ज्य़ादा होने पर व्यक्ति सोचता ही रह जाता है , कुंठित - क्रोधित होते रहने के सिवाय कुछ कर नहीं पाता . वैसे भी विकल्प तलाशना-अपनाना सरल कार्य तो है नहीं .``

सरकारी नौकरी छोड़ने के तजुर्बे के कारण इस मुद्दे पर बात करने और सलाह देने का उनको अधिकार था .... निर्णय सरल नहीं है , यह तो ईमानदारी से नौकरी करने की ज़िद पाले मेरे सभी साथी-सहकर्मी जानते हैं . ....... भले से नौजवान लोग कठिन साधना करके 'हरिभजन` को आते हैं , लेकिन मसखरे-मक्कार-महाभ्रष्ट मठाधीश उनको 'कपास ओटने` के अलावा कोई कार्य नहीं करने देते . बल्कि कपास ओटने के बजाय कपास ओटने का भी मात्र अभिनय करना और काग़जी ख़ानापूर्ति कर लेना ही कौशल माना जाता है!

माया की माँ 'गृहणी` के रूप में शुरू करके पुन: गृहणी के पद पर ही आ चुकी हैं . पति के सरकारी सेवा छोड़ने के संकटपूर्ण संक्रमण काल में वे शिक्षिका बनकर गृहस्थी में अतिरिक्त योगदान कर चुकी हैं . अब ज़रूरत न रहने पर शिक्षिका की नौकरी तो छोड़ दी है , लेकिन निकट के निर्धन बच्चों के लिये 'प्रयोगात्मक विद्यालय` चलाने बाले एक स्वयंसेवी संगठन को अपनी अवैतनिक सेवाएँ दे रहीं हैं .

माया की छोटी बहन 'सुमीता` तो खड़गपुर के प्लेटफ़ार्म पर माया के साथ ही मुझसे मिल चुकी थी . उसके जुड़वाँ भाई 'सुमित्र` के लिए मैं , जैसे अजायबघर की चीज़ या चिड़ियाघर का जन्तु था . वे दोनों बहन-भाई परस्पर जाने क्या कानाफूसी करते और मुस्कराते-खिलखिलाते-शर्माते रहते . वे दसवीं कक्षा में आए हैं . अगली सुबह जब ११ वीं कक्षा में विषयों के चुनाव और उनकी सुरुचियों पर बात चली , तब उनकी समझदारी-संजीदगी स्पष्ट हुई . ....... और यह भी पता चला कि दरअसल वे माया की स्वर्गीय मौसी के बच्चे हैं , जो अपने माता-पिता की असामयिक मृत्यु के बाद अब कई साल से इस घर के बच्चों की तरह माया के घर में पल रहे हैं!

माया के बड़े भाई साहब 'मानस जी`,जो अपने कार्य के सिलसिले में एक ठिकाना खड़गपुर में बनाए हुए हैं,मुझसे पूरी तरह सहज नहीं हो सके . यूँ तो वे यथासंभव शिष्टता बरत रहे थे और बातचीत में उनका सहज हास्य- बोध भी झलक जाता था , लेकिन घर के भीतरी हिस्सों से उनकी बातों - आवाज़ों, सरगोशियों , फुसफुसहटों का जो भी आभास मुझ तक पहुँचता, उसमें उलझन-असंतुष्टि,बल्कि आवेश-आक्रोश-सा झलकता था. घर में सबकी तरह वे भी समझ रहे थे कि माया मेरे बारे में दरअसल क्या सोच और चाह रही है . सो , प्रिय बहन के प्रति सहज स्नेहवश उनका आशंकित होना भी स्वाभाविक है . फिर मेरी अवस्था, अव्यवहारिकता को लेकर उनका बेचैन-परेशान होना भी स्वाभाविक था.{ आखिऱ उनकी भली बहन को बहला-फुसलाकर (?) , अत्यंत अजीब तरीके से , मैं अजीब-सा अजनबी उनके घर तक जो चला आया था . यह शराफ़त का सबूत तो था नहीं. ...... और जो व्यक्ति शिष्ट-शरीफ़ ही नहीं है , उसकी किसी भी बात की विश्वसनीयता क्या?!} माया की माँ और भाभी .... और स्वयं माया भी उनकी चिंताओं-अशंकाओं से सहानुभूति-सहमति जताकर संजीदगी का प्रर्दशन तो करतीं,अक्सर कोई हल्की-फुल्की बात कहकर हँस भी पड़तीं . कभी उनकी बातों को टालतीं , कभी उन्हें समझाने की कोशिशें करतीं और कभी उन्हीं के विचित्र प्रेम-विवाह और गृहस्थी से संबंधित विचित्र निर्णयों का उलाहना-सा देकर निरुत्तर कर देतीं .

भीतर से खीजकर वे आँगन या बैठक में मेरे पास आते और शायद मुझसे ऊब-उकताकर वापस भीतर चले जाते . मुझे नहीं पता कि राजनीति-कूटनीति , साम्यवाद- पूँजीवाद , धर्म-अध्यात्म , आतंकवाद-नक्सलवाद , व्यापार-वाणिज्य , मौसम-मनोविज्ञान इत्यादि जितने भी विषय उन्होंने छेड़े , उनपर मेरा रवैया उन्हें खरा लगा या खंडित?!

हाँ , उनको किसी स्तर पर आश्वस्त सहज बनाए रखने के चक्कर में , ख़ुद मेरा व्यवहार सहज न रह सका . मुझे उनसे सहानुभूति थी .{ आख़िर हमारी ही कोई भली बहन , माया की तरह किसी ऐरे - गै़रे, नत्थू - खैरे को घर ले आए और उससे किसी आजीवन संबंध की कल्पना -कामना भी करने -जताने लगे , तो हम लोगों का हाल भी , कम बेहाल तो नहीं होगा न?} मेरे मन में उनके प्रति आदर था क्योंकि निश्चित रूप से वे एक प्रबुद्ध और सुलझे -साफ़ व्यक्ति थे ...... उस पूरे परिवार की तरह .

और वहाँ उलझा - अस्पष्ट व्यक्ति सिर्फ़ एक ही था जो कि स्वयं मैं था! उनकी तरफ़ से किसी प्रत्यक्ष संकेत के बिना ही मैं लगातार ख़ुद को उस घर-परिवार-परिवेश में अवाँछित-अनफ़िट अनुभव करने लगा . परिणाम यह कि विशेषकर माया की उपस्थिति वाले संवादों-चर्चाओं में , मैं ख़ुद को गल़त , हास्यास्पद-सा प्रकट करने लगा . ...... मगर इसका परिणाम शायद उलटा ही हुआ , क्योंकि वह मुझ 'शुष्कक्लांत नीरस` को 'सुहासप्रिय सरस` समझने लगी!

और ख़ुद माया? ....... उसका तो क्या कहना?!

वह विचित्रताओं का कुछ ऐसा सौम्य संगम-संतुलन लिए हुए है कि सामान्य व्यक्ति के लिए उपहास का कारण बन सकने वाली 'विचित्रताएँ` भी उसके व्यक्तित्व से जुडकर 'विशिष्टताएँ` बन जाती हैं .

दादा-दादी ने शैशव में ही माया का विवाह तय कर दिया था और किसी पर्व-उत्सव पर कोई रस्म करके उस तथाकथित विवाह की पुष्टि भी मान ली. माया के बचपन में ही उसके तथाकथित पति की किसी बीमारी से मृत्यु के बाद वे उसे विधवा जैसी स्थितियों में रखना चाहते थे , क्योंकि उनकी दृष्टि में वह 'बाल-विधवा` ही थी! ....... लेकिन माया के माँ-पापा इस बात से सहमत होने के बजाय अंतिम रूप से अपना पैतृक घर छोड़कर निकल

आए . माया के काका-ताया के लालचीपन और लड़ाई-झगड़े पर उतारू होने के कारण, उन्होंने पैतृक सम्पत्ति पर अपना अधिकार छोड़ने की घोषणा पहले ही कर दी थी .

विद्यालयीन शिक्षा के दौरान एक पिकनिक यात्रा में घायल हो जाने पर माया के दाएँ पैर के पंजे का कुछ हिस्सा काटना पड़ा . पैर के अधूरे पंजे के बावजूद इतनी संतुलित और सुप्रभावी चाल है उसकी कि कोई ऐसी दुर्घटना का सरलता से विश्वास तो क्या , शक भी नहीं कर सकता . ........ बहरहाल , इस दुर्घटना ने तथाकथित 'वैधव्य` के साथ 'विकलाँगता` की विशिष्ट स्थिति भी उसके व्यक्तित्व से जोड़ दी .

बात यहीं ख़त्म नहीं होती , विचित्रतम और विशिष्टतम स्थिति तो यह कि उसने श्रेष्ठ श्रेणी में एम.बी.बी.एस.की उपाधि अर्जित करने के बावजूद व्यावसायिक रूप में चिकित्सा को नहीं अपनाया . बल्कि उसने विभिन्न व्यवसायों - सेवाओं में लगे अपने साथियों - सहृदयों की मदद से ग्रामीण और नगरीय गंदी - गऱीब बस्तियों के लोगों के लिये 'सामाजिक सहायता समूह` स्थापित किए हैं . महिलाओं और युवाओं को स्वावलंबी बनाने के साथ -साथ उन्हें अन्य ज़रूरतमंदों का सहारा बनने में सक्षम बनाने के प्रयास ये समूह करते हैं . ....... मैं उसकी इस सामूहिक-सांगठनिक , स्ववित्तीय , सार्थक गतिविधि पर सिर्फ हैरान रह जाता हूँ!

माया की भाभी अपने पति-ननद , सास-ससुर सभी के सार्वजनिक- पारिवारिक कार्यों की अनिवार्य-अथक सहयोगी और शौकिया तौर पर रंगमंच की सक्रिय अभिनेत्री और गायिका हैं . .......संगीत का संस्कार-सूत्र तो जैसे उस परिवार में सभी को संगठित रखने वाला स्थायी कारक है , यह तथ्य उन दो रातों की सुरीली-रसीली घरेलू महफ़िलों में मैंने देखा - जाना ही .

ख़ैर! मेरी यात्रा दो दिनों के लिये ही ब्रेक हो सकती थी . तीसरे दिन प्रस्थान न करने पर मेरा वह टिकिट बेकार हो जाता .

दूसरे दिन की शाम तक जो भेंट-मुलाक़ात भली -मज़ेदार लग रही थी , उसमें मेरी उलझन के कारण अजीब उलझाव उत्पन्न होने लगे . मामला माया से मेरे संबंधों की दशा - दिशा का था , जिसे मैं दुर्दशा के क़रीब पहुँचा रहा था .

..... उसके प्रति प्रबल आकर्षण है , आदर है , स्नेह भी ..... इससे कैसे इन्कार करूँ?

......वह सुन्दर , सरल , सुशिक्षित है , सार्थक जीवन जी रही है..... इससे भी इनकार नहीं!

.........वह ज़िम्मेदार - ज़िन्दादिल ,जुझारू और जीवट वाली भी है, यह भी सच है!

लेकिन ........उसके प्रति हमारा जो भाव है, उसे लगाव -प्रेम मान भी लें , तो भी हमारे प्रति उसका जो भाव है , वह भी प्रेम ही है .....ऐसी ख़ुशफ़हमी तो पालना चाहते हैं लेकिन इसका कोई विश्वसनीय आधार स्वयं में नहीं पाते . ........ वो सार्थक रूप से सक्रिय-साहसी और मैं निरर्थक रूप से निठल्ला , निरूत्साही! हमारी अवस्थाओं में १२-१३ वर्षों का अंतराल!!

दूसरी शाम को हम सभी खाना खा रहे हैं . हर संजीदा बात को हँसी-मज़ाक़ मैं उड़ाने की मेरी कोशिश से खीजकर , वह अचानक ख़ामोश-सी हो गई है .मुझ पर से उठती उसकी नज़र छत तक गई और कोई सहारा न पाकर झुक गई है , पलकों में आँसू झलक-से आए हैं .

तभी , ...... ठीक तभी ,सही अर्थों में मामले की नज़ाकत और उसमें अपनी नाजुक और निर्णायक भूमिका का मुझे अहसास हुआ. इससे पहले कि कोई अन्य इस परिस्थिति की प्रतिक्रिया में कुछ बोले या उसे सहारा - सांत्वना देने उठे .......सभी को आश्वस्त रहने का इशारा करते हुए , अपने स्थान से उठकर मैं उसके पास पहुँचा . ...... आँसुओं को थामने , स्वयं को सँभालने और कोई निर्मम निर्णय लेने हेतु भीतरी शक्ति सँजोने के लिए उसकी पलकें मुंदी हैं और होंठ भिंचे-से हैं . ....... उफ़! उसके आत्मीयतापूर्ण और बड़प्पनभरे व्यवहार के बदले जाने -अंजाने , कैसा बेतुका व्यवहार करता रहा हूं मैं! मुझे सचमुच अफ़सोस है!!

उसके कंधे को हल्के-से थपथपाकर मैंने उसे उठने का इशारा किया . उसने आँखे खोले या मुद्रा बदले बिना मेरे हाथ को हटाभर दिया . { मुझसे इतनी चिढ़ के बावजूद इतनी संयत उसकी प्रतिक्रिया! उसके प्रति मेरे मन मैं सम्मान बढ़ जाता है!} साहस करके दूसरे हाथ से उसका हाथ थामा और फुसफुसाते स्वर में इल्तिजा की ---- ``प्लीज़! ...... उठो तो!'' अंतत: वह अनिच्छुक-सी उठी . उससे नज़रें मिलाए बिना , सबको पुन: आश्वस्त रहने का इशारा करके और उसके पापा की विश्वस्त मुस्कान से सहारा पाकर , उस बड़े हॉल के किनारे पर पर्दे की आड़ में स्थित वॉश-बेसिन तक उसे ले गया . उसके कंधों पर हाथ रखकर , नज़रें झुकाए -झुकाए लेकिन हार्दिक स्वर में मैंने कहा -----''सॉरी! ........ रियली सॉरी!! यक़ीन करो,मैं बिलकुल अंजाने में तुम्हें ठेस पहुँचाता रहा मुझे सचमुच बहुत अफ़सोस है! प्लीज़ ...... खाने के दौरान अपना और सबका मूड ऑफ़ न करो . मैं वादा करता हूं कि खाने के बाद हम दोनों साथ-साथ बैठेंगे और साफ़-साफ़ बातें करेंगे!``

भीगे स्वर में उसने कहा -----''नहीं, रहने दीजिए . आप ........ ``

----''....... ठीक है ....... तुम न चाहो तो ...... ``

----'' आपको मेरी चाह की कुछ भी परवाह है?`` उसके स्वर में बहुत कसक है .

----''बिल्कुल परवाह है, भई! ....... पर इस वक्त़ तुम आराम से खाना खा लो , फिर जैसा तुम चाहोगी वही करेंगे.``

----''हूं ?``

----''हाँ!``

----''सच?``

----''मुच!``

----''वादा?``

----''इरादा!``

इस चुहलबाज़ी पर वह मुस्कराई , फिर मुँह-हाथ धो-पौंछकर संतुष्ट भाव से अपने स्थान पर पुन: आ बैठी . ....... मुझे अशंका थी कि अब हम सब लोग सहज भाव से खाना नहीं खा सकेंगे .लेकिन भला हो सुमित्र का! जैसे ही मैंने उसकी ओर देखा, वह सुमीता के कान में कुछ फुसफुसाया और अनायास (या सायास?) दोनों ही खिलखिला दिए और उनकी मासूम खिलखिलाहट के माधुर्य में पिछले दृश्य का सारा तनाव और मौन बिखर गया.

भाई साहब बोले ---- ''भई , ज़रा माया को 'केले की सब्ज़ी` तो दो और प्रोफ़ेसर साहब को 'करेले` की``. शायद यह कोई पुराना परिवारिक मज़ाक था ...... सब हँस दिये . वरना तो वहाँ न केले की सब्ज़ी थी और न करेले की!

भाभी जी ने भी भाई साहब से ठिठोली की ----''..और 'कटहल` की सब्ज़ी तो आप किसी को भी देंगे ही नहीं न?`` सब फिर हँसे क्योंकि भाई साहब के अनुरोध के बावजूद कटहल नहीं बन सका था .

पापा कुछ कहने को हुए तो माँ ने उनकी दुखती रग छू दी ------''आप तो अपनी खीर खाइए और ख़ुश रहिए.`` इस पर सभी को तेज़ हँसी रोकना मुश्किल हुआ ........ दरअसल कटहल की सब्ज़ी की तरह , पापा की पसंदीदा खीर भी नहीं बन सकी थी . शायद मेरी पसंद के दहीबड़े और खट्टी - मीठी चटनी बनाने के चक्कर में ,ये चीज़ें छूट गई थीं .

खाने के बाद पिछली शाम की तरह सभी लोग छत पर पहुँचने वाले थे, जहाँ गीत-संगीत की घरेलू महफ़िल सजनी थी .

लेकिन माया मुझे अपने और सुमीता के कमरे में ले आई है. आमने - सामने बैठकर उसने साफ़-स्पष्ट संवाद की अपेक्षा में मधुर स्मित के साथ अपनी मासूम दृष्टि मुझ पर टिका दी है . मैं हँसने का या मज़ाक करने का जोखिम नहीं ले सकता . अब मज़ाक करने की या महत्वपूर्ण मुद्दों को मज़ाक में टालने की मुझे क़तई अनुमति नहीं है .

ओह! माया को कैसे बताऊँ अपना अंतर्द्वंद्व , वह भला कैसे समझेगी मेरे भीतर निरंतर जारी ऊहा-पोह को?! ...... मैं हमेशा यही कोशिश करता रहा हूं कि इंसानों को इंसान की तरह ही देखूँ-समझूँ-चाहूं. जन्म पर आधारित उनके तथाकथित जाति-वर्ग , पंथ- संप्रदाय को बीच में बाधा न बनने दूँ .मैं ख़ुद भी लोगों से चाहता रहा हूं कि लोग मुझे सिर्फ मुसलमान की तरह नहीं , बल्कि एक इंसान के रूप में समझें-स्वीकारें.... मगर .....लोग सामान्यत: जाति-वर्ण , गोत्र-नस्ल , पंथ-संप्रदाय की चिपकी-बिल्ले चिपकाए बिना मानते नहीं हैं . ज्य़ादा अफ़सोस तब होता है जब वर्षों पुराने मेरे अभिन्न-आत्मीय मित्र और प्रियजन भी अक्सर मुझे केवल मुसलमान , केवल पठान के रूप में देखते-जानते-मानते हैं ......या फिर कभी इसी रूप में नकारना भी चाहते हैं!

मित्रों के घरों में भी यदि उनके माता-पिता मुझे अपने बच्चों के मित्र के रूप में 'बेटे जैसा` मानते रहे हैं, तब भी वे मुझे एक 'मुस्लिम बेटे` से अलग , अपनी ही तरह का इंसान शायद ही मान पाए हों . इसके बावजूद मेरे लगभग सभी मित्र गै़रमुस्लिम हैं . वे वर्षों से मेरे प्रिय मित्र बने हुए हैं तो इसके कारणों में से एक महत्वपूर्ण कारण क्या यह भी है कि मैंने कभी उनके परिजनों में से किसी सुकन्या से वैवाहिक संबंध की कोई संभावना नहीं तलाशी , ऐसा कोई संकेत तक नहीं दिया? ...... अन्यथा मित्रता पर महासंकट भी आ सकता था ! जाति - वर्ण - गोत्र - संप्रदाय के जन्म -आधारित इस मानसिक (और अमानुषिक!) मकड़जाल से हम भारतीय व्यक्ति जैसे निकलना - बचना ही नहीं चाहते . कितनी बेबस और बेरस ज़िन्दिगियाँ हैं हम लोगों की?! ....... धन्य हैं हम!! धिक्कार है हमें!!! ........ हम इतना भी नहीं समझना चाहते कि जन्म से बहुत कुछ निर्धारित ज़रूर होता है ,लेकिन होना नहीं चाहिए क्योंकि मनुष्य अपनी ज़िन्दगी में जो कुछ सोचता,चाहता और करता है , अंतत: उसी से उसका जीवन और व्यक्तित्व बनता है ....... न कि मात्र जन्म से या जन्म पर आधारित जाति या परिवार से!

माया और उसके परिजनों ने मुझे सिर्फ़ इंसान के रूप में समझा- स्वीकारा है और इंसानियत के नाते मुझ पर विश्वास किया है. तब , माया से आजीवन-संबध की बात करके मैं कहीं इस बहुमूल्य विश्वास और दुर्लभ-से सम्मान को चोट तो नहीं पहुँचा दूँगा?! .... अपनी औक़ात भूलने या अधिक लोभ-लालच करने जैसी बात तो नहीं है यह?!

ख़ैर! माया की गंभीर मुद्रा देखकर मैंने भी गंभीर होने की कोशिश की---''हाँ, तो.....विचारणीय मुद्दा क्या है?``

----''आप अच्छी तरह जानते हैं कि मुद्दा क्या है और मामला क्या है. प्लीज़ , ....... टालमटोल मत करिए!.....आपकी समस्या क्या है ? उलझन-ऊहापोह क्या है? बस , वही कहिए! हम बात करेंगे और ...... अगर कोई हल नज़र नहीं आता, ....... तो नियति को स्वीकार करके संतोष भी कर सकते हैं .``

----''देखो ,माया! ....... व्यक्ति किसी को भी चाहने और पाने की कल्पना-कामना करने को स्वतंत्र है. सो ,ज़ाहिर है वह अपने से बेहतर और बेहतरीन की कल्पना -कामना करता है........ लेकिन उसे यह ज़रूर सोचना चाहिये कि उस बेहतरीन व्यक्ति के संगसाथ के लिए , वह स्वयं सुपात्र है भी या नहीं?...... मुझे लगता है कि सचमुच तुम बहुत अच्छी हो! मैं स्वीकार करता हूं कि तुम्हें देखते ही , मैं तुम्हारी कामना करने लगा था .......``

----''बहुत दिक्क़त हो रही होगी इस बात को स्वीकारने में?``

----''सचमुच! बहुत साहस सँजोकर यह बात कह पा रहा हूं . शायद तुम्हारी उपस्थिति से ही ऐसी शक्ति-मज़बूती मुझे मिल पा रही है...... मैं जानता था और अब ज्य़ादा मानता हूं कि मैं सचमुच तुम्हारे ..... योग्य नहीं हूं . ......... तुम्हें मुझसे बेहतर जीवन साथी मिल सकता है..... मिलना ही चाहिए!``

---''जैसे......?``

---''जैसे कोई भी .......मुझसे बहुत बेहतर!

---'' लेकिन आप नहीं , है न?``

---''काश , मैं वह होता! लेकिन मैं वह नहीं हूं ..... शायद हो भी नहीं सकता .``

---'' और आप यह विश्वास करते हैं कि मैं आपसे बेहतर हूं?``

---''बिल्कुल, ...... बेशक!``

---''आप ही की बात सच मानली जाए...... इसका मतलब यह भी हुआ कि अपना भला-बुरा सोचने की ,अपने लिए निर्णय करने की और अपने लिए जीवन-साथी चुनने की समझ मुझमें आपसे ज्य़ादा है.``

----''हाँ...... और मुझे विश्वास है कि यह सूझ-समझ,ऐसी प्रतिभा-क्षमता,सभी स्त्रियों में,.....नैसर्गिक रूप से ही अधिक होती है.....``

---''तब......यही सच है कि मैं आपको अपने लिए सुपात्र समझ रहीं हूं ...... और मैं निश्चय ही नासमझ-नादान बच्ची तो हूं नहीं , और न ही यह बात किसी भोलेपन या क्षणिक आकर्षण के चलते कह रही हूं .``

---''फिर भी ..... मेरे खय़ाल से....``

---''जी नहीं, दरअसल यह समस्या आपकी थी ही नहीं , इसे लेकर आप व्यर्थ ही परेशान हुए.``

---''तुम..... जल्दबाज़ी तो नहीं कर रही हो?``

---''जल्दबाज़ी की मुझे कोई ज़रूरत नहीं है. विवाह के बिना अधूरा , अभावग्रस्त या अर्थहीन समझा जाए, ऐसा जीवन तो मैं जी नहीं रही हूं.``

---''बेशक! तभी तो मैं सोच रहा हूं कि जीवन की जो अर्थवत्ता तुमने अर्जित की है , मुझसे जुड़कर वह व्यर्थ ही बिखर तो नहीं जाएगी?``

---''क्यों? कैसे?``

---''तुम्हारे बिना , तुम्हारे इन 'सहायता समूहों` का संचालन कैसे होगा?``

---''इस भ्रम में न रहिए कि इन सब कार्यों को मैं अकेली संचालित कर रही हूं या मैं इनकी सर्वे-सर्वा हूं . मेरे लगभग सभी साथी इन कार्यों के संपादन-संचालन और समन्वय हेतु सक्षम हैं .``

---''फिर भी ...... अपनी पहल- परिश्रम से तैयार संगठन को छोड़ना अजीब ...... ``

----''किसने कहा मैं इसे छोड़कर जा रही हूं?``

---''क्या मतलब?!``

---''विवाह का मतलब क्या आप भी यही समझते हैं कि लड़की अनिवार्यत: अपना घर छोड़े और सदा के लिये ससुराल सिधार जाए?``

उसके तंज़ पर मुझे तेज़ हँसी आई ---''तो क्या हम-तुम हमेशा

दूर- दूर रहेंगे........किनारों की तरह?``

---''नहीं, किनारों की तरह क्यों? हम तो लहरों की तरह रहेंगे , प्रवाह की तरह रहेंगे......सदैव गतिशील,प्रगतिशील, उन्नतिशील! ........ मिलते, बिछुड़ते और फिर से मिलते!....और किनारे भी क्या परस्पर मिले नहीं रहते? मैं तो समझती हूं कि अपने पानी के प्रवाह के माध्यम से किनारे हमेशा एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं!....... और जिन किनारों के बीच प्राणवान पानी और उसके प्रवाह का वजूद नहीं है , उसका तो मिलना क्या और बिछुड़ना क्या?!``

----''वाह! क्या बात है.......मिलने के लिए बिछुड़ना, बिछुड़ऩे के बाद पुन: मिलना!... और कभी सूचनाओं-संदेशों के आदान-प्रदान में बाधा आ जाए तो शायराना शिकवे-शिकायत करना कि 'अपने-अपने मुक़ाम पर,कभी तुम नहीं , कभी हम नहीं!`...... है न?``

---''जी नहीं ,जनाब! ज्य़ादा ज़िन्दादिली और शायरी से काम न लें , मैं तो सिर्फ़ संभावनाएँ तलाश रही थी. वास्तव में तो मैं आपके साथ ही आने का इरादा

रखती हूं .``

---''क्यों,घरेलू ज़िन्दगी का कोई गहरा आकर्षण है या कार्यहीन जीवन कि कोई कशिश है?``

---''नो,......नेवर! बल्कि आपके निठल्लेपन के साम्राज्य को

नष्ट- निर्मूल करने का निश्चय किया है!``

{लीजिए ख़ामोख़ा जी, और कीजिए आत्मप्रताड़ना! कैसी निशाने पर चोट की है, आपके निर्द्वंद्व निठल्लेपन पर?}

---''कहीं यह भी जल्दबाज़ी तो नहीं?``

---''सवाल ही नहीं है, हा ,आपकी तरह टालमटोल और बेवजह विलम्ब भी मैं नहीं कर रही हूं , क्योंकि जल्दबाज़ी की तरह, लेटलतीफ़ी भी कोई अच्छी चीज़ नहीं है!``

हँसती हुई वह कमरे से बाहर गई और कुछ ही पल में स्वयं पानी पीकर और मेरे लिए गिलास में पानी लेकर लौट आई. मैंने एक-दो घूँट पानी पीकर गिलास पास ही मेज़ पर रख लिया .वह फिर विमर्श के लिये मुस्तैद थी---''जी, अब अगली समस्या सुनाइए!``

---''माया! ....... हमारी अवस्थाओं का यह अंतराल, .....क्या तुम इसे महत्वपूर्ण समस्या नहीं मानतीं?``

---''मानती हूं, बहुत 'महत्वपूर्ण` मानती हूं , लेकिन इसे 'समस्या` नहीं मानती! मैं यह भी मानती हूं कि जीवन-साथियों की अवस्था में कुछ अंतराल होना अच्छा ही है...... और इसमें भी कोई बुराई नहीं यदि पत्नी की अवस्था पति से अधिक हो!......मगर अवस्था से भी महत्वपूर्ण यह है कि दो परस्पर अनुकूल-उचित व्यक्ति एक दूसरे से मिल सकें. क्योंकि जब ऐसे व्यक्ति मिलेंगे तो उनकी अवस्थाएँ प्राथमिक,महत्वपूर्ण चीज़ नहीं रह जाएँगी.``

---''.......... फिर भी अवस्था से सोच - समझ,निर्णय-नज़रिया प्रभावित तो होता ही है न ?``

---''सोच-समझ और निर्णय-नज़रिए की तो इतनी-सी बात ही सच है (वह शरारत से मुस्करा रही है) .......कि ..... कुछ लोगों को ३४ वर्ष क्या , ६४ वर्ष की अवस्था तक भी समझदारी नहीं आती , न वे निश्चित नज़रिया बना पाते और न ही त्वरित निर्णय ले पाते . जबकि कुछ लोग २४ तो क्या , १४ वर्ष की अवस्था में ही ख़ूब समझदारी से निर्णय लेने में समर्थ हो जाते हैं! .``

मेरे तर्क की धज्जियाँ उड़ाकर वह आनंदित है . ...... और मैं 'मैरिऐन` के बारे में सोच रहा हूं . उसके 'प्रस्ताव` को स्वीकार न कर पाने के मेरे तर्कों के पीछे, अवस्था को लेकर मेरा अधकचरापन ही तो था . भाषा संस्कृति , रहन-सहन या रवैए-नज़रिए की भिन्नता को लेकर मैंने जो भ्रमजाल फैलाया था, उसके मूल में कहीं,क्या यही कुंठा नहीं थी कि मैरिऐन मुझसे २-३ साल बड़ी थी अवस्था में ? वरना तो हमारी भिन्नताओं को स्वीकारते हुए भी , मैरिऐन जानती थी कि भिन्नताएँ सिर्फ़ बाधाएँ ही उत्पन्न नहीं करतीं बल्कि उनसे एक अपूर्व आकर्षण भी उत्पन्न होता है . वरना संसार के दो सुदूर हिस्सों के वासी होने के नाते , हममें मौजूद स्वाभाविक विभिन्नताओं को बाधा कहकर और इन बाधाओं को बड़ा करके दिखलाने वाला मैं भी जानता था कि इन विभिन्नताओं के बावजूद या इनके कारण भी,हम परस्पर प्रभावित हुए थे. सरलता से संभाव न होने पर भी,मेरे आमंत्रण का आदर करते हुए,वह ग्वालियर और चंदेरी के मेरे परिजनों-मित्रों से मिलने आई. क्या मात्र मानवीय मैत्री भाव के नाते?..... नहीं,वह उसका प्रेम और लगाव ही था और उसका बड़प्पन भी था कि मेरे कुतर्कों के भीतर छिपे छल और क्षुद्रता को उजागर करने , उघाड़ने के बजाय उसने मेरी बात समझने-स्वीकारने का अत्यंत विश्वसनीय अभिनय किया और अपनी सदाशयता-सहृदयता सिद्ध की........ मैरिऐन कहाँ-कैसी होगी?! काश,उसे एक बेहतर जीवनसाथी मिल सका हो.(आमीन!)

माया मेरे मौन पर मुस्कुरा रही है, जैसे आश्वस्त है कि मेरे पास अब कोई उलझन नहीं बची होगी, जबकि मैं मन-ही-मन अनेक उलझनों की उधेड़बुन में लगा हूँ........ आख़िर वह अजीब-सा सवाल भी कर बैठता हूं---- ''माया! क्या तुम्हें लगता है कि तुम मुझसे........ प्रेम......... करने लगी हो?''

---''प्रेम?!......काश, मैं आपसे प्रेम न कर पाती!.... वैसे क्या आप कह सकते हैं कि आप मुझसे प्रेम नहीं करने लगे?''

प्रतिप्रश्न से मैं अचकचा जाता हूँ--'' मैं....कैसे कहूं....?''

---''क्यों?``

---''दरअसल....ऐसे प्रेम का मुझे कोई तजुर्बा ही नहीं है...``

---''...... और आपको लगता है कि मैंने तो ऐसे प्रेम का प्रचुर प्रशिक्षण लिया हुआ है. है न?``उसकी मुस्कान मेरी मात की घोषणा है.

---''नहीं,मैंने ऐसा तो नहीं कहा, लेकिन....``

---'' लेकिन-वेकिन को छोड़ भी दीजिए न! प्रेम की परिभाषा और परीक्षण करने बैठे तो ज़िंदगी निकल जाएगी और निष्कर्ष-नतीजा तब भी नहीं निकल सकेगा.``

---''मेरे प्रति तुम्हारे लगाव-आकर्षण को मैं समझ नहीं पा रहा हूँ. मुझे डर है कि बाद में तुम्हें पछताना न पड़े और मेरे कारण पछताना पड़े ये तो मैं कभी नहीं चाहूँगा``. मैंने कहा था.

---''प्रेम की परिभाषा मैं नहीं जानती, सिर्फ़ इतना जानती हूँ कि आपके साथ होने से मुझे बहुत अच्छा लग रहा है और विश्वास है कि हमेशा ऐसा ही लगेगा.... पछतावा मुझे तभी होगा , जब आपकी सरलता-सात्विकता एक ढोंग साबित होगी.``--- उसने कहा था.

---'' क्या पता... मैं एक ढोंगी-धूर्त व्यक्ति ही साबित होऊँ?!``

---'' नहीं, आप वैसे नहीं हैं, हो भी नहीं सकते, उसके लिए बहुत चालाकी और दुष्टता चाहिए, जो आप कभी नहीं जुटा सकते!``

---''हाँ, जुटा तो मैं बहुत-सी ज़रूरी चीज़ें भी नहीं सका हूँ..``

---'' कोई बात नहीं! मगर... अब सच्चाई और साहस जुटाकर मुझे बताइए कि.... क्या मैं आपके लायक हूँ?``

मुझे याद आया.....कल शाम ऊँच-नीच की जन्म-आधारित,समाज-स्वीकृत

वर्ण-व्यवस्था की विकृति के किसी संदर्भ में उसने मुझे सावधान किया था---''आपने पूछा नहीं.....,कहीं हम 'दलित-वर्ग` के लोग हुए तो?``,

---'' जो किसी को 'दलित` बनाते हैं, वे हमें 'म्लेच्छ` बना चुके हैं!``

---''जो आप जैसों को म्लेच्छ माने, वह मूर्ख होगा या मक्कार..... या फिर दोनों!''---उसने कहा था.

---'' और जो किसी को भी दलित कहे-बनाए, वह स्वयं पतित होगा या कुत्सित..... या फिर दोनों!``---मैंने कहा था.

लेकिन इस समय के उसके प्रश्न का उत्तर क्या दूँ कि --क्या वह मेरे लायक़ है?

---''तुम्हें इसमें कोई शक लगता है, माया?``

---''ओ% माँ! सवाल के जवाब में भी सवाल? कभी तो प्राध्यापक-पने से परे रहा करिए!..... खैऱ! आप कह भले ही न पाएँ, लेकिन हम दोनों जानते हैं कि हम दोनों एक-दूसरे के लायक़ हैं........कुल समस्या मात्र इतनी है कि मैं आपको शायद कुछ देर से मिली हूँ, जबकि आप मुझे कुछ जल्दी ही मिल गए हैं!``

---''क्या सचमुच मैं तुम्हें मिल गया हूँ?``

---'' झूटमूट मिले हों, तो भी अब मैं आपको बिछुड़ने नही दूँगी, यह समझ लें आप!.... और अब इस एकांत-संवाद का समय होता है समाप्त! छत पर सभी लोग इंतज़ार कर रहे होंगे, वहीं चलिए आप!``

मैं उसे अकबकाकर रोकता हूँ---''अरे..... रुको तो, भई! देखो, ऐसा है...... ``

---'' न; अब ऐसा, वैसा या कैसा भी कुछ नहीं. समय समाप्त हुआ!``

---''माया; बात इतनी सरल नहीं है, तुम समझने की कोशिश करो....``

---''अच्छा, ठीक है. लेकिन सिर्फ एक;...बिल्कुल अंतिम समस्या कह डालिए . इसके बाद समस्याओं की बातें समाप्त. ओ.के.?``

---'' बिल्कुल, ओ.के.! बैठो, थमो तो ज़रा!``.... मैं फिर उसे देख रहा हूं और सोच रहा हूँ कि क्या कहूँ? अंतत: भविष्य की सबसे बड़ी सम्भावित समस्या की ओर उसे लाने के लिए पूछता हूँ---''तुम ..... मातृत्व के बारे में क्या सोचती हो?``

---''और क्या सोचूँगी भला? अच्छी और आवश्यक चीज़ है, उसके बारे में अच्छा ही सोचती हूँ!....मगर अफ़सोस कि आप पुरुष लोग मातृत्व धारण नहीं कर सकते. क़ुदरत को यही क़बूल है कि इस बारे में आप लोग स्त्रियों से ईर्ष्या ही करते रहें. रियली सॉरी, वी कांट हैल्प !!``

वह प्रकृति के इस पक्षपात पर पर्याप्त प्रमुदित है. हँसी रोक कर बताती है---'' मालूम है, बचपन में जब कोई पूछता था कि-'बड़ी होकर क्या बनोगी?` तो मैं कहती थी-'बड़ी होकर मैं तो मम्मी बनूँगी!` घर के लोग अब भी इस बात को याद कर मेरा मज़ाक बनाते हैं.`` उसकी बात पर हँसी तो मुझे भी आई, लेकिन अब संजीदगी अपनाने की बारी मेरी है---'' माया! मुझे भी आशंका थी कि विशेषकर आम भारतीय स्त्रियों की तरह तुम्हें भी ज़रूर माँ बनने का मोह होगा.... मगर मैं तो स्वयं के.... बच्चे ही नहीं चाहता!``

---'' वो क्यों भला?!`` हैरानी से मुझे ताकते हुए उसने कुछ देर बाद पूछा.

---'' मुझे लगता है कि मनुष्यों की आबादी पहले से ही बहुत

अधिक है. किसी भी कारण से इसमें और वृद्धि करना धरती-माँ और प्रकृति-माँ के प्रति अत्यंत अन्याय है. मनुष्यों की यह भारी संख्या, पहले ही धरती के व्यापक जीवन के लिए विनाशकारी संकट बन चुकी है! बहुत सारे बच्चे हैं जिन्हें सचमुच माता-पिता या अभिभावक की ज़रूरत है, जो उन्हें नहीं मिल पाते.... तमाम भले लोगों को अपनी संतानें पैदा करने के बजाय, पारस्परिक पसंद के आधार पर इन्हीं ज़रूरतमंद बच्चों में से एक या अनेक को अपना लेना चाहिए!``

---'' यानी.... हमारी पसंद के बच्चे और बच्चों की पसंद के हम?!``

---'' क्या यह विचार तुम्हें अच्छा लग सकता है, माया?``

---'' महान् विचार हैं आपके, 'गुरुजी`! मैं गद्-गद और गौरवान्वित हूं!......लेकिन आपके ये विचार हमारे लिए बिल्कुल नए नहीं हैं.....``

---'' क्या मतलब?``

---'' मतलब यही कि अगर आपने यह सोचा होता और पूछा होता कि हमारे भाईसाहब और भाभीजी के स्वयं के बच्चे,अब तक क्यों नहीं हैं?....

तो आप समझ.... ``

---'' यानी कि उन्होंने जानबूझकर ही स्वयं के बच्चे नहीं पैदा....?``

---'' जी हाँ; जनाबेआली! ये महान् क्रांति हमारे घर में अत्यंत शांतिपूर्ण ढंग से सम्पन्न हो चुकी है! बहरहाल, इस बारे में आप अकेले ही निर्णय कैसे ले सकते हैं? हमारा विवाह होने दो,तब हम दोनों साथ मिलकर इस बारे में फैस़ला करेंगे.... यूँ भी..... आप जैसे ' शिशु` को सँभालने से जब फ़ुऱ्सत मिलेगी, तभी तो हम अपनी स्वयं की संतानों के बारे में सोच सकेंगे! ठीक है न?``

इतना कहते-न-कहते वह जल्दी से उठी और मुझे कुछ चिढ़ाती और कुछ दुलारती-सी मेरे पास से निकलकर जाने लगी. मैंने उसे रोकने के लिए उसका हाथ पकड़ने की कोशिश की तो वह मेज़ के पास से सट कर, मुझसे बचकर निकल गई. लेकिन उसके दुपट्टे से उलझकर उस मेज़ पर रखा पानी का गिलास मेरे ऊपर गिरा और पानी से मेरे कपड़े गीले हो गए. वह बिना रुके दरवाजे तक पहुँची और बाहर निकलने से पहले हँसती हुई मुड़ी.... और मैंने देखा कि मैं खिसियाया हुआ-सा हँस रहा हूँ...और यह कि मेरे चारों तरफ़ अँधेरा है और पानी बरसने का शोर अब भी जारी है!

****************

ओह!..... तो क्या..... ये सब खु़राफ़ातें..... ख्व़ाब में चल रही थीं?!

मैं हड़बड़ा कर बिस्तर पर उठकर बैठ जाता हूँ. बिजलीदेवी अब भी नदारद थीं. टॉर्च जलाकर मैंने देखा कि जुलाई की तेज़ मानसूनी बारिश जारी है, पानी छत में कुछ नयी दरारों से टपकने लगा है. ख्व़ाब में 'माया` के दुपट्टे से उलझकर गिरे गिलास के पानी से नहीं, बल्कि छत में बनी किसी नयी टपकन से आ रहे पानी से मेरे कपड़े भीगे हैं और इसी से मेरी झपकी खुली है तथा ख्व़ाब टूट गया है!

मैंने बिस्तर सूखी जगह की तरफ खिसकाया है और प्रभु से लेकर पृथ्वी के परम-प्रभुओं तक से शिकायतें की हैं---' ऐसा समाज- संसार क्यों बनाया है जहाँ मनुष्य को अपने अनुकूल मनुष्य तक नहीं मिलते? ऐसा शासन क्यों है जो शासकीय-सेवकों के लिए भी आवास तक की न्यूनतम सुविधा उपलब्ध नहीं करा पाता?अध्यापकों-प्राध्यापकों के लिए अपने सुविधाजनक आवास सुलभ कराने वाले सभी सज्जन लोग क्या इस धरा से सिधार चुके? मकान बनाकर किराये पर उठाने वाले भले लोगों में इतनी भी भलाई क्यों नहीं है कि वे किरायेदार की न्यूनतम ज़रूरतों के हिसाब से मकान में आवश्यक सुधार-मरम्मत कर सकें? ये तथाकथित मानव-समाज इतना अमानवीय क्यों है?!--- मुझे याद नहीं उस एक टूटे हुए सपने के लिए मैंने कितनी देर तक, कितने लोगों को दोषी ठहराया?!

..... फिर उस अँधेरे को अपना अभिन्न सखा बनाकर, अपने होशो-हवास दुरुस्त करके,मैंने पिछली शाम की बातों के सिरे मिलाने की कोशिश की. अभी-अभी जिस तीव्र और गहन अहसास से गुज़रा हूँ, वह दरअसल था क्या.....

' ख्व़ाब था या ख़याल था; क्या था?!

हिज्र था या विसाल था; क्या था?!`

पिछली शाम को प्रदीप जी और बी.बी.सी. का मेरे घर आना और हमारा मज़ाक़िया नाटकबाज़ी करना.... फिर बस्ती के बाहर जाकर, एक जगह बैठकर मेरी भुवनेश्वरऱ्यात्रा के संस्मरण शेयर करना..... फिर तेज़ बारिश की आशंका में जल्दी से वापस भागना.....घर आकर अकेले में, अँधेरे में पड़े-पड़े, मन-ही-मन मेरा उस यात्रा को दोहराना.

तो, ये बात थी. संस्मरणों के साए में, मैं कब निद्रादेवी की शरण में चला गया, पता ही नहीं चला. बारिश की लय-ताल से, मन- मस्तिष्क पर इतनी प्यारी-सी थपकियाँ पड़ीं कि उस अधूरी हक़ीक़त को पूरा अफ़साना बनाने 'निद्रादेवी` के साथ ही जैसे 'नियतिदेवी` भी आ बैठी थीं. फिर इन दोनों देवियों ने इस ख्व़ाब के ज़रिए उस 'माया-वी` हक़ीक़त को मुझे ऐसे महसूस करवा दिया जैसे कि वही असलियत हो..... जबकि हक़ीक़त में मेरे चाहने पर भी, ऐसा कुछ नहीं हुआ था, हो ही नहीं सका था!

हक़ीक़त के अपूर्ण-इकतरफ़ा मामले को अर्धनिद्रा में, अवचेतन ने परिपूर्ण ओर दोतरफ़ा बना दिया. मुझ पर यह मेहरबानी भला क्यों? क्या मैंने ऐसी किसी चीज़ की कामना की थी ?

शायद हाँ. २० जून ९९ की उस शाम से अब तक यही कामना-याचना-प्रार्थना तो न जाने किससे करता रहा था मैं!

उफ़! कितना सुदीर्घ सपना था! इतनी सारी बातें तो मैंने

एकसाथ कभी किसी संदर्भ में नहीं सोचीं. चाहूँ तो भी इतनी सूक्ष्म और समग्र कल्पनाएँ- संकल्पनाएँ मैं कर ही नहीं सकता!

ज़रा सोचूं तो..... इस सपने में सच कितना था!?......

....सच है कि १४ जून १९९९ को भुवनेश्वर गया था और सुखविन्दर तथा विजय जी से मिलकर २० जून १९९९ को 'नीलाँचल एक्सपे्रस` से वापसी के सफ़र पर विदा हुआ था.

.....सच है कि २० जून १९९९ की शाम ५ बजे के लगभग जब नीलाँचल-एक्सपे्रस खड़गपुर प्लेटफ़ार्म पर पहुँची,तब कुछ देर से मैं अपने कोच के दरवाजे पर अनमना-सा खड़ा था.

......यह सच है कि उस प्लेटफ़ार्म के एक मुख्य प्रवेशद्वार के सामने की भीड़ में शामिल एक किशोरी के साथ चल रही युवती को मैं एकटक निहारता रह गया था. (सपने में यही दोनों 'सुमीता` और 'माया` बन कर आईं!)

.....यह सच है कि माया को देखते ही मुझ पर वही बीता, जो इस सपने में भी दिखा और जिसे शब्दों में तो बयान ही नहीं किया जा सकता.

.....यह भी सच है कि प्लेटफ़ार्म पर ट्रेन के रुकने पर मैं हाथ-मुँह धोकर एक जूस-स्टॉल के पास खड़ा होकर माया के बारे में ही सोच रहा था.

...... यह भी अविश्वसनीय-सा सच है कि मुझे चकित- विस्मित करती माया-सुमीता कुछ ही मिनट बाद पुन: मेरे सामने थीं, माया ने सुमीता से जूस के बारे में पूछा, जूस-विक्रेता ने उन्हें लोकल ट्रेन के बारे में आश्वस्त भी किया, लेकिन वे किसी रेडीमेड जूस का पैकेट खऱीदकर आगे बढ़ ली थीं.

....यह भी सच ही है कि मैं माया से कुछ कहने को बेचैन हो रहा था, .... लेकिन कामनाजन्य भावावेग पर सभ्यता-शालीनता के तकाज़ों को तऱ्जीह देता हुआ-'कारवाँ गुज़र गया, गु़बार देखते रहे`- की तर्ज पर मैं वहाँ शान्त-सहज-सा बना,उन्हें जाते हुए ताकता रहा था.

....सच ही है यह भी कि मैंने उस लोकल-ट्रेन की तरफ़ चक्कर भी लगाया, लेकिन फिर भीड़ में कहीं उन दोनों की झलक भी नहीं मिली!.... शायद अब कभी मिलेगी भी नहीं!!

......और.... सच तो यही है कि...सिर्फ इतना ही सच है! इसके बाद की कथा तो सपने का सच है; बल्कि सिर्फ़ सपना ही है!!

.....लेकिन मैं उस क्षण से आज तक इस अधूरी और अत्यन्त दु:खदायी सच्चाई को स्वीकार नहीं पाया हूँ... यह भी सच है!!

...और यह शंका भी सच है जो मेरे मन में निरन्तर उठती है कि--'उस शाम खड़गपुर प्लेटफ़ार्म पर मेरा व्यवहार वास्तव में सभ्यतापूर्ण था या कि कायरतापूर्ण?!`

कभी तो सोचता हूँ कि शायद अच्छा ही हुआ जो मैंने उस भली-सी युवती से कुछ नहीं कहा!....और कभी विश्वास करना चाहता हूँ कि उससे बात कर लेने का परिणाम मेरे लिए बुरा ही निकलता ऐसा क़तई ज़रूरी नहीं था!

ठीक है कि आमतौर पर ऐसी बातों को अच्छा नहीं माना जाता, सदाशयतापूर्ण और स्वीकार्य-सम्भाव्य भी नहीं माना जाता... लेकिन चीज़ों की अच्छाई-बुराई, सम्भाव्यता-असम्भाव्यता व्यक्ति-व्यक्ति के लिए भिन्न- भिन्न होती है. इसे यूं भी कहूं कि जो बातें प्राय: सभी के लिए असम्भव या अनुचित होती हैं, वे ही किसी एक या कुछ-एक के लिए उचित और सम्भव भी हो सकती है.....दरअसल, बातें-क्रियाएँ असम्भव नहीं होतीं, हमारे व्यक्तित्व या प्रयासों की कमी से वे असम्भाव्य बन जाती हैं!

तो, २० जून १९९९ की शाम के उन अविस्मरणीय क्षणों और उसके बाद के समय में, मैं अफ़सोस ही अधिक करता रहा कि --आख़िर मैंने माया से बात क्यों नहीं की ?

मगर.... कुछ विशेष थी वह घटना और विशिष्ट ही है उसका अहसास भी ... जैसे कि उसने मुझे कोई ऐसी चीज़ याद दिला दी है, जिसे मैं कभी भूला भी नहीं था! .....कौन जाने उस दिन ना हो सकी हमारी वह बात-मुलाक़ात कब-कहाँ हो चुकी हो!.... या जाने कब-कहाँ होने वाली हो, न जाने किस भिन्न स्वरूप में!!

...... और यह सुदीर्घ-सा सपना ? यह सपना वास्तव में मुझे कब आया था ?... जुलाई ९९ की उस बरसती-भीगती अँधेरी रात में या ....२० जून १९९९ की उस अद्भुत-अनोखी शाम को खड़गपुर प्लेटफ़ार्म पर ही ?!....या फिर इन्हीं दिनों, जबकि मैंने इसे काग़ज पर उतारने का प्रयास किया है....न जाने क्यों और किसके लिए ?!

निश्चय से कुछ नहीं कह सकता. बस, ऐसा हुआ है कि वर्षों के अंतराल के बाद, आखिऱकार यह अहसास किसी रूप में काग़ज पर उतर सका है... और ऐसा हुआ है जैसे मेरे अनजाने में, अनायास ही. मैं तो चाहूँ भी तो ऐसी बातों की कल्पना नहीं कर सकता. इस अहसास को यदि दुबारा कहना-लिखना चाहूँ , तो अब कहाँ कह-लिख सकूँगा!

यह सपना दरअसल एक ऐसी घटना का अहसास करा गया है, जो यूं कभी घटित तो नहीं हुई और फिर भी अघटित नहीं लगती.. यानी इसका इसी रूप में होना तयशुदा था. इससे भिन्न, इससे बेहतर रूप में इसका होना शायद हमारे अगले किसी जन्म यानी ...जीवन के अगले किसी कालखंड हेतु निर्धारित हो!

आप इसे सहज रूप में पढ़ सके और कुछ सुख भी पा सके हो तो यह आपकी अपनी सुरुचि है.. मैंने इसे आपसे कहने की जुर्रत की तो सिर्फ़ इसलिए कि यदि इसे आपसे न कहता तो एक असहनीय अपूर्णता और एक अत्यन्त कसकभरी असंतुष्टि मुझे नोंचती-खसोटती रहती. माया के उस क्षणभर के सामीप्य की यह लिखित परिणति न होती, तो वह सामीप्य, वह सुछवि और उसका वह सुप्रभाव... सब निरर्थक हो जाता!

मैं अब कहीं माया को देख भी सकूँ , तो शायद पहचान नहीं पाऊँगा! (काश, ऐसा न होता !)

लेकिन आप मुझे तो नहीं; माया को ज़रूर कहीं भी पहचान लेंगे. है न?

मैं इस कहानी में कहीं विलीन हो गया हूँ, इसे कहने का मात्र बहाना बनकर रह गया हूँ ! ...सो, अब यह किन्हीं भी दो युवाओं की,दो व्यक्तियों की, दो संभावित सहजीवियों की कहानी है ...और इस रूप में आप में से किसी की भी कहानी है... सार्वजनीन और सार्वभौमिक!.. 'ग्लोबल-विलेज` से आगे चल कर कभी बनने वाली 'ग्लोबल-फ़ैमिली` जैसी भली दुनिया में यह कहानी अक्सर घटित होगी.... और शायद अपने सकारात्मक और सुखद स्वप्निल रूप में!

आपके साथ या आपके आसपास भी ऐसा कुछ घटित हुआ हो, तो सुनाइएगा; मैं ज़रूर सुनना चाहूँगा. आपका साथी-श्रोता (या पाठक!) हो सकने में मुझे कोई आपत्ति न होगी; बल्कि ख़ुशी ही होगी !!

पार्वती--''प्राणनाथ! यह सच भी सपना ही निकला!......क्या मनुष्यों के जीवन में कोई सुखद वास्तविकता संभव ही नहीं है ? `` शिव--''शुभे! मनुष्यों का जीवन है ही स्मृतियों-सपनों-कल्पनाओं पर आधारित...और इनके स्वप्न तथा कल्पनाएँ साकार भी तो होतीं हैं, जब तुम-हम अपना स्नेहाशीर्वाद इन्हें प्रदान कर देते हैं! वैसे भी जो कभी किसी के लिए मात्र सपना होता है, वह कहीं और,किन्हीं अन्यों के लिए सजीव-सुखद वास्तविकता भी होती है!``

रचनाकार संपर्क : खा़मोखा़,

द्वारा शुभ-संसार न्यास,

डाकघर के पास, बजरिया

भिण्ड- ४७७००१ (म.प्र.)

मोबाईल-०९४२५१३५१४९

मोबाईल नम्बर-०९८९३६८१९८

फोन - ०७५३४-२३१९११

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BLOGGER: 1
  1. जबरदस्त कथा है किंतु थक गया इसे पढ़कर…बहुतSSSSS लम्बा था…। :)

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: एक असली प्रेम कहानी
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