कहानी -संजय पुरोहित पण्डित देवनारायण का मन उचाट था। उन्होंने एक ऐसा स्वप्न देखा था जिसका स्मरण कर किसी अनिष्ट की आशंका से असह...
कहानी
-संजय पुरोहित
पण्डित देवनारायण का मन उचाट था। उन्होंने एक ऐसा स्वप्न देखा था जिसका स्मरण कर किसी अनिष्ट की आशंका से असहज हो गए थे।
''क्या बात है, आज कुछ चिन्तित जान पड़ते हो'' पण्डिताईन ने उन्हें असमंजस में जान उनकी चिन्ता की वजह पूछी ।
''आज वर्षों बाद एक ऐसा सपना देखा है जिसका अर्थ समझ में नहीं आया'' पण्डित के मुँह से बोल फूटे।
''कुछ बताओगे भी, आखिर क्या स्वप्न देखा है आपने ?'' पण्डिताईन ने उन्हें कुरेदा।
''पण्डिताईन, आज भोर के स्वप्न में मैंने मन्दिर देखा, लेकिन मन्दिर में मेरे इष्ट श्रीकृष्ण की प्रतिमा नहीं थी। गर्भगृह बगैर प्रतिमा सूना और डरावना सा लगा। मैं चिल्लाने लगा, हे कृष्ण.....हे कृष्ण, लेकिन मेरी आवाज मेरे आराध्य तक नहीं पहुंची और मैं छटपटाने लगा । इसी अवस्था में मेरी आंख खुल गई। ना जाने क्या अनिष्ट होने वाला है'' पण्डित ने अपने सपने का सार बताया और पुन: चिन्ता में डूब गए।
''लेकिन प्रतिमा तो अपने स्थान पर विद्यमान है'' पण्डिताईन ने निश्चल स्वर में सांत्वना देते हुए कहा।
''अरी पण्डिताईन, स्वप्न में प्रतिमा स्थल रिक्त था, इसका अर्थ है, कोई विपदा का आगमन अवश्यंभावी है।'' पण्डित जी के इस वाक्य का मन्तव्य जान पण्डिताईन भी सोच में डूब गई। अपनी अर्द्धांगिनी को इसी मुद्रा में छोड़ पण्डित गंगा स्नान को निकल पड़े।
''ना जाने मुझ मूर्ख से क्या अनर्थ हुआ है कि मेरे पूज्य मुझसे रूठ गए हैं। हे प्रभु, अगर नादानी में मुझसे कोई पाप हुआ है तो मुझे क्षमा करो'' मन ही मन पण्डित इन्हीं शब्दों को बुदबुदाते रहे। ग़ंगाजी के रास्ते में चलते-चलते बार बार स्वंय से प्रश्न भी करते रहे।
पण्डित देवनारायण अपने हलके के प्रतिष्ठित व्यक्ति गिने जाते थे और कस्बे के एकमात्र श्रीकृष्ण मंदिर के पुजारी थे। पूजा पाठ ही उनका कर्म और धर्म था। मंदिर परिसर में ही उनका निवास था। यजमानों से मिलने वाली भेंट से उनका गुजारा भलीभांति हो जाता था। उनके दो पुत्र थे जो अपने-अपने परिवार के साथ शहर में बस गए थे। अवकाश काल में वे जरूर मिलने को आते और वो समय हंसी-खुशी गुजर जाता था। कई बार वो भी अपने पुत्रों के यहां हो आते लेकिन अनेक बार मिन्नत किये जाने पर भी पण्डित देवनारायण ने पुत्रों के घर हमेशा के लिए जाना स्वीकार नहीं किया। कारण था उनकी श्रीकृष्ण के प्रति अटूट भक्ति और मन्दिर के प्रति गहन आस्था। श्रीकृष्ण की अत्यन्त मनोहारी प्रतिमा में वे साक्षात् श्रीकृष्ण को पाते थे। सुबह-संध्या श्रीकृष्ण के भक्तों की भीड़ लगी रहती थी और इसी कारण पण्डित देवनारायण व्यस्त रहते थे। आरती के समय नन्हे मुन्नों का एक पूरा दल ही प्रसाद के लालच में मन्दिर में घन्टा बजाने, जोर-जोर से आरती गाने के लिए इकटठा हो जाता था। चढावे का प्रसाद भी इतना आ जाता था कि फुर्सत निकाल कर बच्चों को बांटते । बस, यही उनकी दिनचर्या थी।
लेकिन पण्डित आज उदास थे। इस अबूझे स्वप्न ने उनकी नींद उड़ा दी थी। दिन भर अनमने होकर दिनचर्या को ढोते रहे। जैसे ही किसी कार्य से निवृत्त होते पुन: उन्हें उनका स्वप्न अपने जाल में बुनने लगता। इस स्वप्न की उधेड़बुन में उनकी देह अन्न-जल ग्रहण नहीं कर रही थी। पण्डिताईन की लाख मनुहार से दो निवाले जरूर हलक से उतार लिये लेकिन मस्तिष्क में चल रहे अन्तद्वंद्व ने उन्हें निरन्तर उलझाए रखा।
रात घिर आई थी। पण्डित देवनारायण मन्दिर के खुले बाग में खटिया लगाए शून्य में निहार रहे थे। नींद ने पण्डित तक पहुंचने की यात्रा अब तक शुरू ही नहीं की थी। नन्हे तारे गगन में टिमटिमा कर चांद का मनोरंजन करने को आतुर थे। नींद का इन्तजार करते पण्डित देवनारायण ने अपने गत दिनों की दिनचर्या को खंगालना शुरू किया। ऐसा क्या कुछ नवीन इन दिनों हुआ था, जो आम दिनों से अलग था। प्रतिदिन की तरह ही सुबह गंगा स्नान, आरती, प्रसाद वितरण फिर शाम को आरती और प्रसाद वितरण। सभी कुछ तो सहज, सामान्य था। सहसा उनकी स्मृति ने उन्हें कुछ असामान्य घटना की ओर इशारा किया।
पण्डित देवनारायण को उस भोली भाली लड़की सलमा का चेहरा याद आया। प्रसाद के लिए रोज आने वाले बच्चों की पंक्ति में सलमा भी थी। एक गरीब मजदूर मुसलमान हैदर की बेटी।
सलमा को ना तो पण्डित जी की पूजा से कोई मतलब था ना ही श्रीकृष्ण की मनोहारी प्रतिमा से। निश्चल, निर्मल, मासूम सलमा की नजर तो केवल और केवल प्रसाद पर ही रहती थी। हां, ये जरूर था कि एक डेढ महिने से प्रसाद लेने के लिए रोज आने के कारण उसे कुछ-कुछ आरती याद हो गई थी, जिसे वो अन्य बच्चों के साथ बगैर उसका अर्थ जाने गुनगुना जाती।
पण्डितजी को कल ही तो ज्ञात हुआ था कि रोज प्रसाद के लिए आने वाली ये लड़की तो मुसलमान है। पण्डित देवनारायण ठहरे शुध्द ब्राहम्मण । उनके मन्दिर में मुसलमान को श्रीकृष्ण का प्रसाद ! पण्डित जी ने उस मासूम बालिका को तृप्तिसीमा तक बुरा-भला कहा औरे लगभग दुत्कारते हुए मंदिर परिसर बाहर कर दिया । पण्डित को ये भी याद आया किया बाद में नाना प्रकार के स्त्रोत बड़बड़ाते हुए गंगाजल छिड़क कर उन्हें मंदिर का शुद्धिकरण किया था।
''क्या मैंने सलमा को दुत्कार कर पाप किया ?, क्या प्रभु इसी लिए मुझसे रूठ गए ?, जिस बाल कृष्ण को मैं पांचों पहर भोग लगाता हूँ, उसी का रूप नहीं है सब बाल-गोपाल ? तो फिर सलमा अलग कैसे हो गई ? क्या सिर्फ इसलिए कि वह मुसलमान है ? मैं इतना निष्ठुर कैसे हो गया ?, जब ईश्वर ने ही मानव मानव में भेद नहीं किया तो मुझ अज्ञानी ने ऐसा पाप क्योंकर किया?,'' अपनी अन्तरात्मा से उठते प्रश्नों के भूचाल ने पण्डित देवनारायण को झकझोर दिया। उन्हें अपने किताबी ज्ञान के खोखलेपन पर शर्म आई।
पण्डित देवनारायण अचकचाकर उठ बैठे। कुछ सोचा और मन्दिर के गर्भगृह में जाकर श्रीकृष्ण को चढाए गए भोग का प्रसाद कटोरी में डाला और बिन पादुका तेज कदमों से मोहल्ले की तरफ चल पड़े। उन्हें इस तरह बदहवासी में जाते हुए देखकर पण्डिताईन भी पीछे-पीछे भागी। पण्डित तब तक मोहल्ले के चौक में पहुंच चुके थे। वहां से सलमा के बारे में पूछा । किसी ने एक टूटे हुए से मकान की ओर हाथ का इशारा किया। वो लगभग दौड़ते हुए हैदर के घर पहुंचे। पण्डित को इस तरह जाते हुए देखकर कुछ लोगों का समूह भी उनके पीछे हो लिया। दरवाजा खुला था। हैदर दिनभर के कड़े परिश्रम के बाद घर आया ही था। अचानक ही कुछ लोगों की चहलकदमी की ओर उसका ध्यान गया। वह बुरी तरह घबरा गया ।
''ये लोग मेरे घर की जानिब क्यों आ रहे हैं ? क्या शहर में दंगा हो गया है ?, मुझे कुछ मालूम क्यों नहीं पड़ा ? अभी तक तो सब ठीक ही था। '' हैदर ने इन प्रश्नों का सैलाब खुद के आगे खड़ा कर लिया। अचानक ही उसे बेगम और सलमा का ख्याल आया।
''तुम सलमा को लेकर अन्दर जाओ'' अपनी बेगम की ओर देखकर हैदर चिल्लाया। उसके आदेश को मानकर बेगम सलमा तक पहुंची ही थी कि पण्डित देवनारायण घर के अन्दर आ गए।
हैदर कुछ समझ पाता तब तक पण्डित सलमा के पास पहुंच कर रोने लग, बोले ''बिटिया, मुझे क्षमा कर दो, मैं तुम्हारा पापी हुँ। ये देखो मैं तुम्हारे लिए प्रसाद लाया हूँ।'' सलमा निर्भाव उन्हें देखने लगी।
''मैंने तुम्हारी बिटिया को परसों इसी लिए प्रसाद नहीं दिया था कि ये मुसलमान है। इस पाप की सजा मुझे मिल चुकी है। मेरे प्रभू मुझसे रूठ गए हैं। यदि तुम आज्ञा दो तो मैं अपने हाथों से सलमा को प्रसाद खिलाना चाहता हूँ।'' पण्डित देवनारायण हैदर से स्वीकृति लेते हुए एक ही श्वास में बोल गए।
हैदर कुछ बोल न सका, केवल हां में इशारा भर कर दिया। पण्डित ने सलमा को अपनी गोद में बिठा कर प्रसाद खिलाया। पण्डित जी की पिछली डांट से डरी, सहमी सलमा कुछ न समझ सकी और ना ही समझी सलमा की अम्मा और मोहल्ले के लोग। लेकिन पण्डिताईन की आंखों से झर-झर आंसू बह रहे थे।
''मैंने तुम्हें कल प्रसाद नहीं दिया था, तुम्हे मालूम है मेरे श्रीकृष्ण मुझसे रूठ गए। तुमने प्रसाद खा लिया। मेरा रोम-रोम कृत्य-कृत्य हो गया। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे कृष्ण लला को खुद मैं अपने हाथों
से खिला रहा हूँ।'' अबोध सलमा की जिह्वा पर मिठाई ने स्पर्श किया तो उसके चेहरे पर मुस्कान दौड़ गई। पण्डिताईन ने हैदर को पूरी बात बताई। हैदर और उसकी बेगम भी मुस्कुरा उठे। मोहल्ले के लोग इस प्रेम, भक्ति और स्नेह से भरे दृश्य को देख धन्य हो रहे थे।
सलमा को प्रसाद खिला कर और रोज प्रसाद लेने की मनुहार कर पण्डित कृष्णा-कृष्णा कहते मन्दिर में लौट आए।
पण्डिताईन पीछे-पीछे आई और उन्हें संभालते हुए चारपाई पर लिटा दिया। लेकिन उनकी आंखों से निद्रा कहीं दूर हो गई थी। आधी रात तक प्रायश्चित् करते रहे। नेत्रों के मुहाने से निकलती गंगा ने उनके मन को पहले से कहीं अधिक उजला कर दिया था।
पण्डित उठे, मन्दिर में आकर श्रीकृष्ण की प्रतिमा के समक्ष अपराधी की तरह खड़े हो गए। ''प्रभु, आपने मुझे माफ कर दिया है ना ?'' ये शब्द उनके मुख से प्रस्फूटित हो रहे थे।
सहस्त्रगोपियों को रास के लिए बाध्य करने वाले श्रीकृष्ण का मन्द मन्द मुस्कुराता हुआ मुख पण्डित देवनारायण को नवतेज प्रदान करता सा प्रतीत हुआ।
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रचनाकार संपर्क -
संजय पुरोहित
बावरा निवास, समीप सूरसागर,
धोबीधोरा, मेजर जेम्स विहार, बीकानेर
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्संजय जी की लिखी कहानी मन को छू गई।बहुत मार्मिक कहानी नही इसे मै कथा कहना चाहूँगा। पंडित देवनारायण का सपना और उस सपने के भाव को क्या आज का समाज समझ सकेगा। आज ऐसे पंडितों की ही जरूरत है। काश!पण्डित देवनारायण हर जगह पैदा हो जाए।
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