वर्ल्ड ऑफ़ बुक्स ज़िन्दगी के प्याज की परतें उतारते हुए -डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल भारतीय पाठकों के लिए सुपरिचित, 1927 में जन्मे नोबल पु...
वर्ल्ड ऑफ़ बुक्स
ज़िन्दगी के प्याज की परतें उतारते हुए
-डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
भारतीय पाठकों के लिए सुपरिचित, 1927 में जन्मे नोबल पुरस्कार विजेता जर्मन लेखक ग्युण्टर ग्रास की मूल जर्मन किताब का माइकल हेनरी हाइम का किया हुआ अंग्रेज़ी अनुवाद ‘पीलिंग द अनियन’ अभी-अभी प्रकाशित हुआ है। ग्रास ने इस किताब में, जिसे उन्होंने संस्मरणों की किताब कहा है, अपने जीवन की परतों को प्याज़ के छिलकों की तरह एक-एक करके उतारा है और इस तरह 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध से लेकर 1959 में उनके विश्वविख्यात उपन्यास ‘द टिन ड्रम’ के प्रकाशन तक के काल खण्ड का निर्मम बेबाकी से अंकन किया है।
किताब की शुरुआत तत्कालीन जर्मनी के डानज़िग शहर (जो अब पौलेण्ड में है) से होती है। 12 साल का एक लडका नाज़ी काल में बडा हो रहा है। उसके पास है अपने निम्न मध्यवर्गीय अतीत की स्मृतियां, ऐसे घर में रहने की यादें जहां उसे अपने दोस्तों को लाने में भी शर्म आती थी। उसी कालखण्ड में, जबकि उसमें कोई राजनीतिक परिपक्वता तो दूर, समझ तक नहीं है, वह हाइनरिख हिमलर की निजी सेना वाफ़ेंग एस एस का सदस्य बन जाता है। यहीं अपने पाठकों को यह याद दिला दूं कि इसी कुख्यात सेना को कन्सन्ट्रेशन कैम्पों के धत्कर्मों और वारसा आन्दोलन के क्रूर दमन का अपराधी मान जाता है। ग्रास लिखते हैं : “कई दशकों तक मैं इस नाम और इन दो अक्षरों से जुडा होने से इन्कार करता रहा। युद्ध के बाद की शर्मिन्दगी ने मुझे उस काम को स्वीकार करने से रोका जो मैंने जवानी के मूर्खतापूर्ण उत्साह में कर लिया था। लेकिन मन पर बोझ बना रहा, किसी भी तरह कम नहीं हुआ।” यह सर्व विदित है कि अपने नाज़ी अतीत के अपराध बोध का बोझ पूरी ही जर्मन मानसिकता पर रहा है।
स्वयं ग्रास के लेखन और राजनीतिक जीवन में यह अपराध बोध बार-बार अभिव्यक्त होता रहा है। अपनी अब तक की यशस्वी निजी ज़िन्दगी में इस अपराध से उन्होंने जाहिरा तौर पर खुद को अलग रखा। इतना ही नहीं, ग्रास ने तो राष्ट्रपति रीगन और चांसलर कोहल की इस बात के लिए कटु आलोचना भी की थी कि उन्होंने उन मृतकों का सम्मान क्यों किया जिनमें वाफ़ेंग एस एस के सैनिक भी शरीक थे। लेकिन जब छिपाये रखना असह्य हो उठा तो उन्होंने यह किताब लिख डाली। किताब के आते ही जर्मनी में तो जैसे भूचाल आ गया। कुछेक बुद्धिजीवियों ने इस किताब को ग्रास की नैतिक आत्महत्या तक की संज्ञा दे डाली। कुछ अखबारों ने लिखा कि ग्रास पूरी ज़िन्दगी जो स्टैण्ड लेते रहे, इस आत्मस्वीकृति के बाद, वह शीशे के घर में रह कर पत्थर फ़ेंकने जैसा लगता है। उनसे नोबल पुरस्कार लौटाने तक का आग्रह किया गया। गुस्सा इसलिये और भी ज़्यादा है कि ग्रास पूरी ज़िन्दगी साफ़गोई के हिमायती रहे हैं।
वैसे तो यह किताब और यह विवाद कुल मिलाकर हमारी बीसवीं सदी का एक यथार्थ ही है। नरसंहार के दु:स्वप्न से जागृति और विस्मृति का द्वन्द्व। किताब के पन्नों और वृत्तान्त से गुज़रते हुए जो असहजता हममें उपजती है शायद उसे उपजाना ग्रास की आकांक्षा भी रही हो। क्या पता, अपनी इस आकांक्षा की पूर्ति के लिए खुद ग्रास को कितने आंसू बहाने और कितने पीने पडे हैं। पुस्तक का प्रारम्भ जितना तनावपूर्ण है, उत्तरार्द्ध उतना नहीं है। लेकिन उसमें एक भिन्न किस्म की पठनीयता है। वहीं हमें यह भी समझने को मिलता है कि एक लेखक के मन के भीतर किस तरह की उथल-पुथल चलती रहती है और, कैसे लगभग मौन-सी प्रतीत होने वाली फ़ुसफ़ुसाहट भी साहित्यिक कृति का बीज बन जाया करती है।
विवाद पैदा करने वाला अंश किताब का एक छोटा-सा हिस्सा है। अगर उससे हटकर हम देखते हैं तो पाते हैं कि पूरी किताब दुर्लभ साहित्यिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। किताब में अनेक मार्मिक प्रसंग हैं। एक अद्भुत मार्मिक प्रसंग की चर्चा करना चाहता हूं। यह उन दिनों की बात है जब रूस से लौटते में ग्रास की दोस्ती एक अनुभवी लांस कॉर्पोरल से हो गई थी। लांस कॉर्पोरल की दोनों टांगें एक ग्रेनेड हमले की भेंट चढ चुकी थीं। एक दिन लांस कॉर्पोरल ग्रास से अनुरोध करता है कि वह उसकी निक्कर के भीतर हाथ डालकर यह पता करके बताये कि उसका पौरुष भी बचा है या नहीं! यह प्रसंग पाठक को विचलित कर देता है। यह पूरी किताब एक व्यक्ति के जीवन का आख्यान भर नहीं है, इससे भी आगे बढकर स्मृति का महा उत्सव है। किताब पढकर ही यह जाना जा सकता है कि स्मृति किस तरह एक कथाकार के मनोजगत का निर्माण करती है।
ग्रास ने खुद भी कहा है, अतीत में जाना परत-दर-परत प्याज छीलने की मानिन्द है। यह ऐसा काम है जो आपकी आंखों में आंसू तो लायेगा ही। ग्रास इस स्मृति वृत्तान्त में अपने औपन्यासिक चरित्रों और खुद को इस खूबसूरती से गूंथते चलते हैं आप मुग्ध हुए बगैर नहीं रह सकते। किताब में भूख का बार-बार ज़िक्र है। अमरीका में युद्ध बन्दी के रूप में, पोटाश खदान में, एक स्मारक पर काम करने वाले मज़दूर के रूप में, हर कहीं ग्रास भूख से जूझते मिलते हैं। लेकिन जब वे कहते हैं कि “जितना ही मेरा पेट सिकुडा, मेरी कल्पना उतनी ही विस्तृत हुई” तो लगता है कि आप एक बडे रचनाकार से बावस्ता हैं। किताब पढने के बाद ग्रास की जो छवि उभरती है वह एक विलक्षण मन वाले, भोजन,कला और तम्बाकू के गुणग्राही, बेहद स्वाभिमानी, आदर्शवादी लेकिन व्यावहारिक भी, धैर्यवान किन्तु अदमनीय भी, और मज़बूत इरादों वाले इंसान की छवि है।
◙◙◙
सम्पर्क :
ई-2/211, चित्रकूट
जयपुर- 302 021
फ़ोन : 2440782
ई मेल : dpagrawal24@gmail.com
-----------------.
COMMENTS