आलेख -मनोज सिंह पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो का तकरीबन दो दशक पूर्व एक वक्तव्य आया था कि वह अपने बेटे को या तो सेना...
आलेख
-मनोज सिंह
पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो का तकरीबन दो दशक पूर्व एक वक्तव्य आया था कि वह अपने बेटे को या तो सेना में भेजना चाहेंगी या वकील बनाएंगी। किसी साक्षात्कार के दौरान एक पत्रकार द्वारा उनके बेटे के करिअर के बारे में प्रश्न पूछने पर उपरोक्त संदर्भ उठा था। बात सामान्य-सी है मगर जाने-अनजाने यह प्रदर्शित कर जाती है कि पाकिस्तान में रहने वाली एक मां अपने बेटे के लिए क्या सपना देखती है। कथन का शब्दार्थ सरल है जो पहले भी समझ आया होगा मगर अब तो पूर्णत: प्रमाणित भी हो रहा है। इसके भावार्थ में छिपी है एक समझदार मां की दूरदर्शिता, जो बेनजीर भुट्टो में भी साफ दिखाई दे रही थी। यहां सोचने वाली बात है कि उन्होंने अपने बेटे के लिए कोई और प्रोफेशन के बारे में क्यूं नहीं सोचा? भुट्टो परिवार के लिए, जो राजनीतिक और आर्थिक रूप से मजबूत है, हर तरह से समर्थ है, अपने बच्चों के लिए कोई भी शिक्षा चुन सकते हैं, तो फिर सिर्फ इन दो क्षेत्रों को चुनने का ही क्यूं सोचा गया? विश्लेषण किया जाना चाहिए। आज की तारीख में बच्चे (बिलावल, बख्तावर व आशिफा) अभी पढ़ रहे हैं, भविष्य में क्या करेंगे, उनकी पसंद व परिस्थितियों पर निर्भर करता है। परंतु माता-पिता द्वारा बच्चों के लिए देखा गया ख्वाब, समाज की हकीकत बयान करता है। यह बताता है कि तत्कालीन युग में सबसे महत्वपूर्ण ओहदे कौन से हैं। हर एक मां-बाप को अपने बच्चे को ऊंचे से ऊंचे पद पर देखने का ख्वाब होता है। वो उन्हें शक्तिशाली, बड़े से बड़ा, खुशहाल और सुरक्षित देखना चाहते हैं। और ध्यान से देखें तो यही दोनों क्षेत्र पाकिस्तान में सबसे ज्यादा आकर्षक हैं फिर जिनके द्वारा शीर्ष तक भी पहुंचा जा सकता है। इस क्षेत्र से संबंधित लोग अधिक प्रभावशाली हैं। पैसा, पावर सब कुछ है यहां पर। पाकिस्तान के इतिहास पर नजर डालें तो अब तक जितने भी शासक यहां हुए हैं, वे या तो तानाशाह के रूप में सेनाध्यक्ष हुए या फिर अधिकांश प्रमुख प्रधानमंत्री, पेशे से वकील थे। पाकिस्तान के कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना एक मशहूर एडवोकेट थे। लोकप्रिय जुल्फिकार अली भुट्टो, एकमात्र ऐसे नेता थे जो राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री दोनों रहे, उन्होंने भी विदेश से वकालत पास की थी। रईस घर के सफल व्यवसायी नवाज शरीफ ने भी पाकिस्तान के पंजाब विश्वविद्यालय से लॉ की परीक्षा पास कर रखी है। बेनजीर खुद वकालत की मानद उपाधि से सम्मानित हैं और वे छात्र जीवन में भी सक्रिय थीं। वो प्रथम एशियाई महिला हैं जिन्हें ऑक्सफोर्ड यूनियन के निर्वाचित प्रेसीडेंट होने का गौरव प्राप्त है।
लड़ाई दो तरह से लड़ी जा सकती है- एक हाथ से दूसरी जुबान से। शासन दो तरीके से किया जा सकता है शब्द के द्वारा या शस्त्र के माध्यम से। शासक सदैव नियमों को बनाकर उसका क्रियान्वयन करता रहता है। समाज को अनुशासित करने के लिए, व्यवस्था बनाए रखने के लिए, जितनी भी कोशिश की जाती है सभी के मूल में यही दो रास्ते होते हैं। अवाम के लिए लड़ने वाला नेतृत्व भी दो तरह से विद्रोह करता है एक शारीरिक दूसरा मानसिक। दोनों रास्ते में सफलता के लिए बुद्धि, होशियारी व साहस का होना आवश्यक है। मुंह से बोलने वाला अपनी वाक् कला से सामने वाले को मोहित करता है, तर्क से संतुष्ट करता है, बहस से वश में करता है और वाद-विवाद से हराता है, अपने अधीन करता है, अपनी बात मनवाता है। वहीं हाथ से लड़ने वाला, ताकत से, जोर-जबरदस्ती से, डर से, बाहरी दुश्मन से बचाने व सुरक्षा प्रदान करने के नाम पर अपने नियंत्रण में कर लेता है। विश्व इतिहास को देखें तो या तो जिन्होंने शस्त्र उठाया या फिर जो अच्छे वक्ता रहे हों, इन दोनों ने ही नेतृत्व प्रदान किया है। इन दोनों ने ही क्रांतियां की और फिर इन्हीं में से कुछ शासक बने। इन दोनों विधाओं व कला के प्रदर्शन के लिए सर्वाधिक अनुकूल व उपयुक्त क्षेत्र देखना हो तो जहां शस्त्र के लिए सेना सर्वश्रेष्ठ है वहीं शब्द के लिए वकालत से बड़ा कोई पेशा नहीं। इसीलिए अधिकांश क्रांतियां सैनिकों द्वारा लड़ी गयी और ज्यादातर नेता वकील हुए।
पाकिस्तान में, पिछले कुछ दिनों की घटनाओं को देखें तो वर्तमान काल इन्हीं विचारों की सत्यता को प्रमाणित करता है। वहां के सैनिक तानाशाह को अपने ही न्यायाधीश ने चुनौती दे रखी है और बहुत हद तक अवाम इस विद्रोह के साथ दिखाई देता है। पद से हटाये गये मुख्य न्यायाधीश इफ्तेखार मोहम्मद चौधरी ने अब तक कोई राजनीतिक वक्तव्य नहीं दिया इसके बावजूद वो मुशर्रफ के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में उभर कर आए हैं। पाकिस्तान स्वतंत्रता के बाद से ही कभी भी स्थिर नहीं रह सका। और सदा ही युद्धभूमि बना रहा। और इसीलिए यहां लड़ने वाला ही जीवित रहता है। और जो जीता वो सिकंदर, वही राज करता है। अधिकांश समय सेना ने बंदूक के नोक पर शासन किया तो चुनाव में जाने-अनजाने वकीलों का वर्चस्व रहा। वैसेे भी सेना हो या वकालत, राजनीति इन दोनों के दरवाजे पर खड़ी भीख मांगती नजर आती है। दुनिया के दूसरे स्वतंत्रता संग्राम को भी देख लें, शब्द और शस्त्र ने ही क्रांतियां की हैं। एक तरफ हाथों से लड़ने वाले सैनिक, मजदूर, स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी व आंदोलनकारी और दूसरी तरफ विचारक, लेखक, दार्शनिक और सबसे बड़ी संख्या में वकील। जो शब्दों के माध्यम से जिरह कर न्याय प्राप्त करते और दिलवाते हैं। और यही कारण है जो अधिकांश विद्रोह, क्रांतियां, स्वतंत्रता संग्राम और आंदोलनों में वकीलों की संख्या सर्वाधिक रही है। भारत में भी तमाम बड़े नेता या तो वकीली पेशा से आए या फिर नेता बनने के बाद एडवोकेट भी बन गए।
आज पाकिस्तान जल रहा है। वो न्याय की उम्मीद में है। वर्तमान में ही नहीं पूर्व में भी सैनिक तानाशाह तभी तक बने रह सके जब तक विपक्ष कमजोर रहा। बेहतर विकल्प पर सदा सेनाध्यक्ष को या तो हटना पड़ा या समय द्वारा हटा दिया गया। और अवाम ने प्रजातांत्रिक व्यवस्था को कई मौके दिए, फिर चाहे वो तत्कालीन नवयुवती बेनजीर रही हों या सफल व्यवसायी शरीफ। अबकी बार उसे आशा की किरण एक न्यायाधीश से प्राप्त होती दिखाई देती है। ध्यानपूर्वक देखें तो ऐसा ही कुछ हाल हिंदुस्तान का भी है। हम चाहे अपने प्रजातंत्र पर जितना भी गौरव करें मगर असलियत है कि हमारी सर्वोच्च न्यायालय भी दिन प्रतिदिन लोकप्रिय होती जा रही है। और उसकी वजह है कि प्रजा न्याय चाहती है। वह चाहती है कि जो उसकी भलाई में हो वही उसके साथ किया जाये। फिर चाहे कुछ पल के लिए बुरा ही क्यूं न लगे। वो स्वयं के लिए कोई शार्टकट नहीं चाहती। झूठा दिखावा, लाड़-प्यार नहीं चाहती। वह दिवा-स्वप्न नहीं चाहती। उसे सुख की चाशनी में दु:ख पसंद नहीं। वह तुष्टिकरण नहीं चाहती। हमारी प्रजातांत्रिक नेतृत्व इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं। वो जनता को झुनझुना पकड़ाकर बच्चों की तरह बहलाना-फुसलाना चाहते हैं। वह उसे वो सब चीज देना चाहते हैं जो देश, समाज, परिवार किसी के भी हित में नहीं। परिपक्व अवाम, इसी कारण से, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये जा रहे अधिकांश फैसलों को, जो दूरगामी व सकारात्मक परिणाम से बंधे दिखाई देते हैं और उसके वास्तविक हित में है, दिल से स्वीकार कर रही है। कइयों का तो यह भी मत है कि न्यायालय कम से कम फैसले तो ले रही है। अब क्या करें, शासन खुद तो कुछ भी करने को तैयार नहीं।
अगर हमारे प्रजातांत्रिक संस्थान के तथाकथित महान नेतृत्व को इन बातों का यकीन न हो तो हिंदुस्तान में भी जनमत करा कर देख लें, वे सर्वोच्च न्यायालय के सामने भी चुनाव हारते हुए दिखाई देंगे। हिंदुस्तानी नेताओं सावधान, कहीं तुम्हारी जमानत भी जब्त न हो जाए।
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रचनाकार संपर्क :
मनोज सिंह
४२५/३, सेक्टर ३०-ए, चंडीगढ़
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