कहानी - कमल. "आऊट!" कहते हुए अशोक ने अपनी तर्जनी ऐसे उठाई मानों उसकी आँखों में ही घुसेड़ देगा। "...और अइसे हुंदा है सिक्...
कहानी
- कमल.
"आऊट!" कहते हुए अशोक ने अपनी तर्जनी ऐसे उठाई मानों उसकी आँखों में ही घुसेड़ देगा।
"...और अइसे हुंदा है सिक्सर।" कहते हुए कुलवंत ने अपने दोनों हाथ भांगड़ा करने की मुद्रा में ऊपर उठा लिये, "क्यों शा, जी कुछ समजयाँ (क्यों शाह जी कुछ समझे)?"
आनंद को लगा मानों कुलवंत बाज की तरह झपट्टा मार, उस पर कूदने वाला है। उसने चिढ़ कर कहा, "अब तुम लोग हमको टोटल ढक समझते हो का? ई सब हम भी जानते है।"
"तब किचैन काहे करते हो?" अशोक उस पर चिल्लाया।
"अरे तुमसे बोला रहा न आगे टाइम से ई टॉपिक में तुम्म कुच्छो नई बोलेगा, तुम फिर सुरू हो गिया?" आनंद अशोक की बात पर कुछ बोल पाता, उससे पहले ही मार्टिन बोल पड़ा।
"कुछ बूझेगा ई सरवा, तब न जानेगा कि किरकिट में का मजा आता है! अरे मरदे, किरकिट से तो कई लोगन का जिनगी बदल गिया। देखते नहीं हो का, किरकिट वाला सब साला लाखों में खेलता हैं, लाखों में।" पीछे से परवेज की उत्साह में डूबी ऐसी आवाज आती, मानों लाखों में खेलने का अगला नंबर उसी का है।
उन सब के बीच स्वयं को आनंद अभिमन्यु की तरह घिरा पाता।
"ओए तूं तां आप्पना परवचन आपनी...में ई रख। नई तां याद रक्ख छित्तर जद वाजदे ने सेर ते, तां रोण आपे-आप निकलदा है, कडणा नई पैंदा(सर पर जूता पड़े तो रोना स्वत: निकलता है निकालना नहीं पड़ता)।" कुलवंत की मिक्स पंजाबी फूट पड़ती।
कुछ ऐसी ही रंग-बिरंगी भाषा थी, अपने देश के उस औद्योगिक शहर की। जहां देश के लगभग हर हिस्से से कमाने-खाने के लिए आ बसे लोगों की स्वत: विकसित उस भाषा को दूसरे लोग सुन कर भले ही समझने के लिए सर खुजाने लगें या मुस्कुरा दें, परन्तु वहां के सभी निवासी (मूल-निवासी और बाहरी के झगड़ों के बावजूद) आसानी से समझ लेते थे।
...ऐसा है कि किसी और तरह से तो खास आदमी की कहानी प्रारंभ होती है, एक आम आदमी की कहानी इसी तरह प्रारंभ होगी न! ऐसा आम आदमी जो प्राइवेट कारखाने की कम आय वाली नौकरी और कमर तोड़ महंगाई के साथ-साथ और भी न जाने कितने पाटों में पिस रहा हो।...जिसके कारखाने का मालिक मुक्त अर्थव्यवस्था वाले विश्व-बाजार के इस दौर में अपने मजदूरों का खून चूसने के लिए जोंक को भी मात देने की महारत रखता हो। ...तमाम नारों के बावजूद दुनिया के मजदूर भले ही एक न हो सके हों, लेकिन बगैर नारा लगाये दुनिया के सारे मालिक जरूर एक हो गये हैं।
तो आनंद को दूसरे शहरों के बारे में सुन कर आश्चर्य हुआ करता था, लेकिन वही खेल जब एक आफत की तरह उस शहर भी आ पहुँचा, तब सारे प्रयत्नों के बावजूद वह उसके ताप से बच न पाया था।
...वह पुरानी बात है जब लोग रेडियो को कानों से ऐसे चिपकाए रहते, मानों विश्वयुद्ध की खबरें सुन रहे हों। छक्का लगने या आऊट होने पर इस तरह चीखते-उछलते मानों मित्र देश की सेना ने दुश्मनों का कोई हवाई जहाज मार गिराया हो। अब तो टी.वी का जमाना है भाई, लोग क्रिकेट में पागलपन की हदें भी पार कर जाते हैं। सब कुछ लाइव जो हो चुका है। सारा-सारा दिन टी.वी. से चिपके लोग, अपना काम-धंधा छोड़-छाड़ कर केवल और केवल क्रिकेट की बातें करते रहते हैं। इसका नशा जुए के नशे से कम नहीं होता, अगर कहीं अपनी टीम हार गई तो उस टी.वी. की खैर नहीं।
...तो शहर में ओ.डी.आई.(एक-दिनी) क्रिकेट मैच होने की घोषणा ने सारे शहर को मानों अफीम खिला दी थी और वह खेल अब खेल खेल में उसके लिए ढेर सारी मुसीबतें ले आया था। काश, दोनों बातें बारी-बारी हुई होतीं। या तो उसकी पत्नी बीमार न पड़ी होती या अभी वहाँ मैच ना होता। लेकिन अब तो दुविधा की आफत सामने है कि वह बेटे को क्रिकेट मैच दिखाए या पत्नी का इलाज कराये?
वह शहर पहले भले ही छोटा हुआ करता था, लेकिन अब आवारा पूँजी और भूमंडलीकरण की लुभावनी, चमकीली और रंगीन आँच में तप कर बड़ा और तथाकथित रूप से आधुनिक हो चुका है। पहले जहाँ केवल अम्बेसडर और फिएट कारें थीं, उन्हीं सड़कों पर मारूती-एट हंड्रेड भी न जाने कब की दिनांक-बाहर(आऊट-डेटेड) हो चुकी है। अब तो वहाँ एंडेवर, होन्डा-सिटी, सेंट्रो, बोलेरो, क्वालिस, बेंज, इंडिगो, स्कोर्पियो न जाने कौन-कौन से नामों वाली चमकदार गाड़ियाँ शहर की छाती पर दनदनाती फिरती हैं। वह दिन दूर नहीं जब कुछ शहरों में हुई दुर्घटनाओं की तरह ही वे अपनी दनदनाहट में वहां भी रातों को फुटपाथों पर इठला जाएंगी।...न...न इसमें कुछ खास नहीं होता। बस फुटपाथ पर सोने वाले कुछ बूढ़े, जवान, बच्चे, औरतें आदि स्वर्गारोहण कर अपने जीवन के हर दुख से नींद में ही मुक्ति पा जाते। फिर उन लोगों के उद्धारक कार-चालकों (जो बड़े घरों के बिगड़ैल सपूत होते) के नशे में धुत्त लाल-लाल आंखों वाले चेहरे कुछ देर थानों में चहलक़दमी करते। दो-चार क्लिपों के साथ 'क्राइम व क्रिकेट` पर ही जीने वाले सभी 'तेज और सुस्त` खबरिया चैनलों के क्षेत्रीय सूरमा (रिपोर्टर) चीख-चीख कर उनका महापुरुषों की तरह गुणगान करते। महाभारत के धर्मयुद्ध पश्चात् स्वर्गारोहण करते पांडवों का हश्र तो हम जानते हैं लेकिन स्वर्गारोहण कराने वाले उन कार चालकों का हश्र जमानत पर छूट जाने से अलग कुछ भी न होता। वे मुक्त हो जाते अगली बार कुछ और फुटपाथी-लोगों को जीवन के कष्टों से मुक्त करने के महाकार्य हेतु...खैर! फिर पट्ट से बदलती खबर के साथ लगभग नग्न, धरती वाली अप्सराएं फैशन-शो में उसी स्क्रीन पर इठलाते हुए बिल्ली-चाल(कैट-वाक) करती नजर आतीं, जहां अभी कुछ ही पल पूर्व तक फुटपाथ पर कुचली हुई लाशें पड़ी थीं। ...कांट्रास्ट है भाई, महान कांट्रास्ट।
...तो वहाँ वन-डे मैच पहली बार हो रहा था। घोषणा के बाद से ही मानों शहर क्रिकेट का स्टेडियम बन गया। मुख्य सड़कों की तो बात ही छोड़िये गली मुहल्लों में भी जहां-तहां खिलाड़ियों के कट-आउट व पोस्टर लटकते-लहराते दिख रहे थे। शहर में प्लेग की तरह फैल रहे क्रिकेट के उस बुखार का विरोध करने पर आनंद अपने ही सहकर्मियों के बीच मजाक का पात्र बनता रहता। ...लेकिन वह समझ नहीं पाया था कि क्रिकेट का खेल तो एक खेल है। फिर इस खेल से लोग कैसे लाखों कमा सकते हैं?...एक ही झटके में लाखों तो केवल जुए में कमाए जा सकते हैं या फिर लूट से! आखिर क्रिकेट इन दोनों में से क्या है? वह जानना चाहता था, क्या क्रिकेट अब खेल नहीं रहा? इसलिए आजकल वह गंभीरता से क्रिकेट पर मनन करने लगा था। और इस क्रम में क्रिकेट की चमक-दमक धीरे-धीरे उस पर भी हावी होने लगी थी।
अफरा-तफरी भरे ऐसे ही दिनों में काम से लौटने में उसे उस दिन फिर अंधेरा हो गया। खाने बैठते रात के दस बज गये। आनंद ने नोट किया, सुधा कुछ ज्यादा ही चुप-चुप है।
"क्या दर्द फिर हो रहा है?" उसने पूछा।
"नहीं...नहीं तो।" सुधा मानों कहीं दूर ख़्यालों से वापस लौटी हो।
"मैंने बात की थी, फैक्ट्री-मालिक एडवांस देने को मान गया है। कल दो हज़ार रुपये मिल जाएंगे। तुम्हारे सारे टेस्ट जल्द ही करवा दूंगा।" आनंद ने गिलास उठा कर पानी पिया।
पैसों की बात सुन कर सुधा कुछ चैतन्य हुई। जग से गिलास में पानी डाल बोली, "मेरी एक बात मानोगे, कहूँ?"
उसने सर उठा कर सुधा की ओर देखा।
"मैं अब पहले से बेहतर हूं। डाक्टर ने भी दवाएं कम कर दी हैं। रही बात सोनोग्राफी की तो वह एक-दो माह ठहर कर करवा ली जा सकती है। ...रवि आज फिर स्कूल से लौटने के बाद देर तक रोता रहा था। कह रहा था, उसकी क्लास के सभी लड़के मैच देखने जा रहे हैं। ऐसे मैच रोज-रोज नहीं होते। कल पैसे मिलते ही तुम टिकटें ले आओ।"
पत्नी के अटक-अटक कर बात पूरी करने तक आनंद की आँखों के सामने बिस्टुपुर चौराहे पर भारतीय क्रिकेट खिलाड़ियों की बड़ी-सी होर्डिंग लहराने लगी। वहां चढ़ाई होने के कारण उसे साइकिल से उतरना पड़ता है। तभी एक उचटती नज़र उस होर्डिंग पर पड़ जाती है। जब तक उसके पास स्कूटर था, उसने कभी महसूस ही नहीं किया कि वहां इतनी चढ़ाई है। विगत कुछ दिनों से उसे साइकिल पर ही आना-जाना पड़ रहा है। स्कूटर वाली आदत अभी छूटी नहीं है, वह जल्दी ही थक जाता है। दरअसल पत्नी की बीमारी के कारण जब वह महाजन का सूद पिछले दो माह नहीं दे पाया तो एक दिन महाजन ने उसका स्कूटर छीन लिया था।
"ए...कहाँ खो गये? मैं तुम्हीं से कह रही हूं।" सुधा ने टोका तो उसकी स्मृति से शराब का विज्ञापन करते भारतीय क्रिकेट खिलाड़ियों की बड़ी-सी होर्डिंग एक ही पल में ओझल हो गई।
"...अं...हाँ, सुन रहा हूं। और देख रहा हूं, शहर में होने वाले क्रिकेट-मैच का भूत अब तुम पर भी चढ़ने लगा है।" आनंद ने नोट किया, उसकी बात सुन कर सुधा के होठों पर एक निर्जीव-सी, फीकी मुस्कान तैर गई थी।
सुधा ने बैठे-बैठे अपना पहलू बदला। संभवत: दूसरे पहलू में उसे कुछ आराम मिल रहा था, "चलो माना, तुम्हारी बात सही है। मैं भी उस भूत की चपेट में आ गई हूँ। अब तो बेटे को मैच दिखा दोगे?"
"नहीं, बिल्कुल नहीं! तुम चाहती हो, तुम्हें दर्द में तड़पता छोड़ कर इतनी कठिनाई से मिलने वाले अग्र्रिम वेतन को क्रिकेट मैच पर उड़ा दूं? कैसी बातें कर रही हो? खेल ज्यादा जरूरी है या जीवन?"
"देखो इधर कुछ दिनों से मेरा दर्द ठीक है।" सुधा ने अपने तर्क का वजन बढ़ाने के लिए झूठ कहा, "...और फिर बात मेरे दर्द और क्रिकेट मैच की नहीं, बेटे की खुशी की है। हर मां अपने बेटे के लिए कई-कई दर्द सहती है। क्या मैं इस जरा-से पेट दर्द को नहीं झेल सकती...?"
''जिसे तुम जरा-सा दर्द कह रही हो, वह तुम्हारे लिए जानलेवा भी हो सकता है।" आनंद ने उसकी बात काटते हुए कहा,"...रही बात बेटे की तो अगर वह साँप से खुश हो, तब क्या उसके हाथों में साँप पकड़ा दोगी? मेरी बात समझो। हमें मिल कर बेटे को समझाना होगा। खेल वही और तभी तक अच्छा होता है, जब तक खेल हो। उसकी मूल भावना और आत्मा में खेल बसता हो। फिर यह क्रिकेट तो कभी भी आम लोगों का खेल नहीं रहा। अंग्रेजों के समय जब राजा-महाराजा इसे खेलते, तब बैटिंग करने वालों का नाम खेल के अंत में लिखा जाता। इस तरह जो भी खिलाड़ी सबसे ज्यादा रन बनाता, उसकी जगह पर राजा अपना नाम लिख लेता था। ...आज का क्रिकेट तो विलासिता का व्यापार बन गया है। तुम मानों या न मानों! जिनके पास ढेर सारा पैसा और फालतू समय हो। जिनकी हाजरी समय से काम पर न जाने से कट जाए, यह खेल उन लोगों के लिए नहीं है।" सुधा के चेहरे पर अपनी बातों का कोई असर न पड़ता देख उसने पुन: तर्क प्रस्तुत किया, "भला यह भी कोई खेल हुआ? इसे देखने के लिए सारा-सारा दिन निठल्ले बैठे रहो। टेस्ट मैच में तो पाँच दिनों तक काम-धंधा छोड़ कर बैठना पड़ता हैं। उस पर तुर्रा ये कि आवश्यक नहीं हार-जीत का फैसला हो ही जाए।...अगर फैसला हो भी गया तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि वह खेल वास्तविक था या उसकी मैच-फिक्सिंग में करोड़ों का दांव लगा हुआ था। क्रिकेट के इन मैचों में मैदान पर होने वाले खेल से ज्यादा ताकतवर तो मैदान के बाहर होने वाला खेल रहता है। जिसमें लाखों-करोड़ों का सट्टा लगा होता है। अब यह खेल नहीं रहा, अब तो यह भारी जुए का व्यापार बन गया है। जहाँ रुपया ही खेलता है और रुपया ही जीतता है। हार तो हम जैसे आम आदमी की होती है।" बोलते-बोलते आनंद हाँफने लगा था।
मौन सुधा उसे एक टक देख रही थी। कुछ देर वहां बिल्कुल नीरवता छाई रही। फिर बोली, "तुम्हारी हर बात से मैं सहमत हूं। लेकिन इन बड़ी-बड़ी बातों का मैं क्या करुंगी? मैं तो केवल अपने बेटे के आंसू देख रही हूं। उसकी आंखों में उमड़ते-घुमड़ते ढेर सारे प्रश्नों के काले मे देख रही हूं। यह खेल अमीरों का हो अथवा जुआरियों का, मुझे तो अपने बेटे की खुशी चाहिए। पता है, जब वह मैच की बातें कर रहा होता है, तब उसकी आँखों में चाँद-तारे चमकते रहते हैं। जैसे ही उसे लगता है कि वह मैच नहीं देख सकेगा, उन्हीं आँखों में अंधेरा छा जाता है ...डरावना, काला अंधेरा।"
अपने भरी-भरकम और विद्वता भरे तर्कों के परखचे यूँ उड़ते देख, आनंद ठप्प हो गया। दरअसल बाजार को नारी देह के बाद सबसे मजबूत चोर दरवाजे, हमारे बच्चों का पता चल गया है। अब वह अपनी पूरी निर्ममता के साथ कहीं भी और कभी भी बे-रोकटोक आ जा सकता है। उन्हें तो पता ही नहीं चला, कब रवि की राह पूरा का पूरा क्रिकेट-बाज़ार ही उनके जीवन में घुस आया था। दादी-नानी के जमाने में बच्चों को बुरी बलाओं से बचाने वाले कई टोटके हुआ करते थे। लेकिन बुजुर्गों द्वारा बताया कोई भी टोटका इस बला से रवि को बचाने में काम नहीं आ सकता था।
उठकर उसने हाथ-मुंह धोये और चौकी पर रवि की बगल में आ लेटा। अधिक दिनों की लड़ाई के बाद तो बड़ी से बड़ी सेना भी हार जाती है। कम से कम दिग्भ्रमित तो हो ही जाती है। फिर यहां तो वह अकेला और निहत्था था, जबकि दूसरी तरफ दुश्मन चमकीले और भड़कीले प्रलोभनों की पूरी तैयारी के साथ, भला वह कितने दिन ठहर पाता। सुधा की बातों से सहसा उसे अपने फैक्ट्री वाले दोस्त याद आ गये कहीं ऐसा तो नहीं कि उन सब की ही बातें सही हों? कहीं क्रिकेट का एक भी दांव अपने पक्ष में बैठ गया तो.... और अचानक ही उसे लगा कि वह भी क्रिकेट की चकाचौंध में फिसलता जा रहा हो। जिसमें भले ही दूर कहीं गहरे गड्ढे में कादो-कीचड़, मल-मूत्र, थूक-खंखार, पीब-मवाद आदि हों, लेकिन अभी तो राह में सतरंगी इंद्रधनुष ही नजर आ रहे हैं।
सुधा रसोई समेट कर आ लेटी। बेटा नींद में कुनमुनाया था। आनंद ने भी उसका बड़बड़ाना सुना, "पापा, पापा वो लगा सिक्सर!.. सिक्सर..! मैं क्रिकेट मैच देखूंगा...मैं क्रिकेट मैच देखूंगा..।"
उसने करवट बदल कर नींद में बेसुध पड़े बेटे को देखा। नाइट-बल्ब की नीली रोशनी में बेटे के गोरे-गोरे मासूम गालों पर गीली आंखों से ढलक आयी बूंदें चमक रही थीं। ऐसा नहीं होता कि माँ ही बच्चे को ज्यादा प्यार करती है, अंतर केवल यह होता है कि उसके प्यार में जहां भावुकता अधिक होती है, वहीं पिता को अपने प्यार में भावुकता के अतिरिक्त और भी कई बातों का समावेश करने की विवशता। आँसुओं में भीगे रवि का चेहरा आनंद को अंदर तक तड़पा गया। उसे अपनी छाती से भींच वह प्यार से थपकने लगा। उसके चेहरे पर वात्सल्य उमड़ आया था। अपने पेट को गर्म पानी की बोतल से सेंकती सुधा ने वह दृश्य देखा तो उसके भी चेहरे पर एक पवित्र मुस्कान फैलती चली गई।
अगली सुबह स्कूल के लिए तैयार होते रवि को जब आनंद ने मैच दिखाने की बात बतायी तो लगा, एका-एक ही पूरे घर का माहौल बदल गया है। रवि के ब्रश करने, नहाने, स्कूल यूनिफॉर्म पहनने आदि हर काम में अचानक ही प्रसन्नता और उत्साह छलकने लगा था।
-"पापा, आज टिकटें मिलने का अंतिम दिन है।"
-"पापा, स्टेडियम की मेन-रोड वाली खिड़कियों पर भीड़ ज्यादा रहती है। ज़रा घूमना पड़ेगा लेकिन आप दूसरी तरफ वाली खिड़कियों पर जाइएगा।"
-"पापा, मैं भी आज अपने दोस्तों को बता दूंगा।"
स्कूल जाने से पहले तक वह आनंद को कई निर्देश दे चुका था। जो उसके लिए न सिर्फ नये थे, बल्कि स्टेडियम में मैच के टिकट लेने में सहायक भी होने वाले थे।
फैक्ट्री में बड़ी आरजू मिन्नत के बाद भी दो की जगह मात्र डेढ़ हज़ार रुपये एडवांस देते मालिक के चेहरे पर अप्रिय भाव कुछ और ज्यादा घनीभूत हो गये, जब आनंद ने उससे दिन-भर की छुट्टी के साथ-साथ अगले दिन की भी छुट्टी मांगी।
"मेरे को मालूम था, अब तेरे को छुट्टी भी चाहिए होगी। एक तो एडवांस दो ऊपर से छुट्टी! जाओ मगर याद रखो, परसों काम पर नहीं आया तब दो की जगह चार दिन की पगार कटेगी, समझा।" मालिक की कुढ़न से बचते-बचाते आनंद तेजी से बाहर निकल गया था।
स्टेडियम का पूरा चक्कर काट वह जब दूसरी तरफ वाली टिकट खिड़कियों पर पहुंचा तब वहां की भी भीड़ देख विचलित हो गया। क्षणांश को उसके मन में यह विचार आया कि उस भीड़ में टिकट मिलना असंभव है। परन्तु रवि का चेहरा उसके मानस पटल पर कौंधते ही उसे भी भीड़ का हिस्सा बनते देर न लगी। तूफानी समंदर की लहरों-सी भीड़ कभी इधर तो कभी उधर मचल रही थी। कभी एक तरफ से भीड़ का रेला आता और वह खिड़की के बिल्कुल पास पहुंच जाता।...और तब, जब उसे लग रहा होता कि बस अब-तब में वह खिड़की के पास पहुंच जाएगा, एक दूसरा रेला उसे खिड़की से बहुत दूर उछाल चुका होता। बीच-बीच में वहां तैनात सिपाहियों के बेंत भी हवा में लहराने लगते। इसी रेल-पेल में दिन निकलता जा रहा था। उसने कई बार अपना ज़ोर लगाया कि टिकट-खिड़की को पकड़ सके, परन्तु हर बार असफल रहा। खिड़की का तिलिस्म एक छलावे की तरह हर बार उसे द्दोखा दे जाता। ढलती दोपहर के साथ टिकट खिड़की बंद होने का समय जैसे-जैसे पास आ रहा था, आनंद की निराशा बढ़ती जा रही थी। उसकी आंखों के सामने रवि का मासूम चेहरा घूमने लगता। कैसे कर सकेगा वह उसका सामना कि टिकट नहीं ले पाया...?
तभी चमत्कार हुआ, ठीक वैसे ही जैसे क्रिकेट में भी खेल से ज्यादा चमत्कार हुआ करते हैं। न जाने किधर से आये एक जोरदार धक्के से उबरते हुए उसने स्वयं को टिकट-खिड़की के सामने पाया। लपक कर उसने बाँये हाथ से खिड़की का रॉड पकड़ा और दांया हाथ खिड़की से भीतर घुसाते हुए ज़ोर से चीखा़, "दो टिकट!"
लेकिन आनंद का दुर्भाग्य! फरियाद सुनी जाने से पूर्व ही सब कुछ पलक झपकते हो गया और वह टिकट ले पाता, उससे पहले ही एक ज़ोरदार धक्के ने उसे खिड़की से दूर फेंक दिया। आस-पास की भीड़ में वह कुछ ऐसा दबा कि उसे अपना दम घुटता महसूस हुआ। खिड़की से रगड़ खा चुकी उसकी कलाई पर खून की बूँदें उभर आयी थीं। इस खींच-तान में उसकी वह कमीज भी फट गई, जिसने अभी कम से कम एक साल तक तो और उसका साथ जरूर दिया होता। परन्तु अभी भी उसका ध्यान कमीज की ओर कम और टिकट खिड़की की ओर ज्यादा था। वह पुन: भीड़ में से रास्ता बनाता स्वयं को उस ओर ठेलने लगा। उसने मन ही मन दृढ़ निश्चय किया कि अगली बार वह खिड़की का रॉड जोर से पकड़ेगा।
...लेकिन खिड़की तो खिड़की ही थी, उसे शाम तक केवल और केवल धोखा देती रही, टिकट नहीं दिया और समय समाप्त होने के साथ ठीक उसके मुँह पर बंद हो गई। फटाक्! मानों किसी ने सरिया कर पुराने चमड़े का भारी-सा जूता उसके मुँह पर मारा हो, फटाक्! बंद खिड़की उसे ऐसे घूूर रही थी मानो उसके भाग्य की हर राह बंद हो गई हो। वहीं पर तो टिकट थे, जिनमें से मात्र दो उसे चाहिए थे। जिनके लिए वह सारा दिन भीड़ में धक्के खाता रहा, कमीज फड़वाई। ...चलो कमीज के लिए तो वह सुधा से कह देगा कि फैक्ट्री के पास झाड़ियों में उलझ कर फट गई। समर्पित पत्नी को समझाना चालू किस्म के पति के लिए भला कोई कठिन काम है? लेकिन रवि से वह क्या कहेगा? जब वह पूछेगा कि उसके इतने निर्देशों के बाद भी वह टिकट क्यों नहीं ले पाया? इन्हीं विचारों में उठते-गिरते उसके चेतन ने पीछे से उभर रही वे आवाजें सुनी।
"चार का आठ....चार का आठ।"
वह हठात् ही उस तरफ मुड़ गया। क्या मैच के टिकट भी ब्लैक हो रहे हैं। और जल्द ही उसे अपने प्रश्न का उत्तर 'हाँ` में मिला। चार सौ की टिकट आठ सौ में बिक रही थी। दो की कीमत सोलह सौ! उसका सर घूूमने लगा। अगर टिकट ली तो सुधा के लिए कुछ ना बचेगा।
...अगर टिकट न ली तो फिर दूसरा मौका फिर ना मिलेगा। शायद वह कुछ देर और दुविधा में पड़ा रहता, लेकिन वह तो क्रिकेट के चमकीले नशे का ही प्रताप था, आनंद को दुविधा से निकलने में जरा भी समय न लगा। झटपट उसने निर्णय लिया, अब तो हर हाल में मैच देखना है, बाकी जो होगा सो बाद में देखा जाएगा। वह "चार का आठ....चार का आठ।" के पीछे लपक लिया।
टिकट ब्लैक करने वाला पहले तो नहीं माना। लेकिन किसी तरह आरजू-मिन्नत कर के उसने दो टिकटों के लिए पंद्रह सौ में बात फाइनल की। पैसे देते समय एक पल को पुन: उसे सुधा का ख्याल आया लेकिन दूसरे ही पल क्रिकेट का तिलिस्म उस पर हावी होता चला गया। अपने हाथ में थमी टिकटों को देख उसके चेहरे पर एक विजयी मुस्कान फैल गई। क्रिकेट-बाजार की एक मुस्कान उन टिकटों पर भी थी, लेकिन आनंद जैसों को वह नजर कहाँ आती है?
...हल्के नीले रंग की टिकटों पर क्रम संख्या के एक तरफ छोटा-सा चौकोर स्टीकर अपने चमकते अक्षरों में टिकट के "जेन्यूइन" होने का प्रमाण दे रहा था तो शीतल पेय का प्रचार करता दूसरा कोना गेट संख्या चार बता रहा था, जिससे हो कर कल उन्हें स्टेडियम में प्रवेश करना था। टिकट के पीछे खेल के प्रारंभ, लंच और समाप्ति के समय के साथ-साथ पानी की बोतलें, कैमरा, रेडियो, दर्पण और पटाखे आदि नहीं लाने के निर्देश छपे थे। प्रसन्न आनंद ने कब रास्ता तय किया और कब र पहुंचा उसे पता ही न चला। पत्नी और पुत्र ने भी उन टिकटों पर छपे विवरण को कई-कई बार पढ़ा और हर बार स्वयं में एक नयी उत्तेजना, एक नये मजे का अनुभव किया, मानों उन्हें सारा जहाँ मिल गया हो।
अगली सुबह स्टेडियम से लगभग आधा किलोमीटर दूर ही उन्हें रिक्शा छोड़ना पड़ा। चारों तरफ लोगों की बड़ी भारी भीड़ थी, मानों कोई मेला लगा हो।
"कितनी भीड़ है, पापा।" रवि बोला।
उसकी बात सुन रिक्शे वाले को पैसे देते आनंद के मन में कुछ ख्याल आया, उसने कहा, "रिक्शे वाले, हमें शाम को पांच बजे यहीं से ले लेना। देखो दूसरी सवारी मत ले लेना। मैं तुम्हें भाड़े के अतिरिक्त दस रुपये दूंगा।"
"नहीं बाबू। "भाड़ा लेते हुए उसने उत्तर दिया,"मेरा घर यहां से दूर बस्ती में है। हम रोज कमाने-खाने वाले लोग हैं। दस रुपये ज्यादा के लिए रुक गया तो रिक्शा जमा कर समय से घर नहीं पहुंच पाऊंगा। घर में चूल्हा नहीं जलेगा और परिवार को भूखा सोना पड़ेगा। मुझे माफ कीजिए आप कोई और रिक्शा देख लीजिए। "इतना कह कर रिक्शे वाला मजे से घंटी बजाता निकल गया।
"अच्छा, शाम की बात शाम को देखेंगे।" कह कर आनंद ने रवि की बांह पकड़ी और स्टेडियम के भीतर जाने वाली लाइन में लग गया।
पंक्तिबद्ध हो, वह रवि के साथ जब भीतर पहुंचा तो विस्मय से भर गया। मैदान के चारों तरफ उपस्थित विशाल जनसमूह अविश्वसनीय था। जिधर देखो, उधर ही उछलते-कूदते, तरह-तरह के स्वांग करते लोग। बीच में अंडाकार मैदान पर बिछी खूब हरी, मखमली घास और ऊपर खुला आकाश आनंद को लगा, वह किसी और ही दुनिया में पहुंच गया है।
तभी स्टेडियम में माईक पर आवाज गूँजने लगी, "हम सब मंत्री जी के बड़े आभारी हैं जो उन्होंने आ कर हमारा हौसला बढ़ाया है। अब मंत्री जी अपने शब्दों से खिलाड़ियों का हौसला बढ़ाएंगे।"
"अब मंतरिया बेट्टा चाटेगा!" बगल से आवाज उभरी और कई लोग हंस दिये।
"भाइयों तथा बहनों," मंत्री जी की आवाज गूंजने लगी, "आज मुझे गाँव में सड़क का उद्घाटन करना था। लेकिन जब मुझे पता चला कि आज मैच है तो मैं इधर आ गया। क्या है कि एक दिन में सड़क बन तो नहीं जाएगी, इसलिए उसका उद्घाटन कल-परसों कर देंगे। मेरा विश्वास है कि सड़क बन जाने से गाँव वाले भी किरकेट देखने का मजा लेने शहर आ सकेंगे। आइए, अब हम सब मैच का मजा लें, धन्यवाद!"
मंत्री जी की जय! मंत्री जी की जय!!` दो-चार नारे गूंजे और फिर खेल शुरू होने की घोषणा हुई।
"मंतरिया बेट्टा तो कम चाटा रे!" एक बोला।
"किरकेट का सामने नेतवो का बोलती बंद हो जाता है।" दूसरे ने जवाब दिया।
पनामा हैट पहने दोनों अंपायर और टीमों के कप्तान पिच पर पहुँचे। टॉस होने के साथ ही खेल प्रारंभ हो गया। ऐसा खेल जिसका न जाने किस-किस को और किन-किन कारणों से इंतज़ार था। क्षेत्ररक्षण करने मैदान में आते खिलाड़ियों के नाम रवि चीख-चीख कर उसे बताता जा रहा था।
मैदान के एक किनारे शान से सर उठाये खड़े, स्कोर बोर्ड के ठीक ऊपर शीतल पेय की बोतल का बड़ा-सा विज्ञापन अट्टहास कर रहा था। खेल का विवरण जानने के लिए आनंद की नज़रें जितनी बार भी उस ओर उठतीं, विज्ञापन वाली नकली बोतल में अटक कर रह जातीं और उसके गले में असली रेगिस्तान उतरने लगता। उसे वहाँ लगाया भी तो इसी उद्देश्य से गया था। उस विज्ञापन का अट्टहास धीरे-धीरे उसके अंतर में उतार कर प्यास के कैक्टस उगाने लगा। स्टेडियम में घुसते वक्त सुरक्षा के नाम पर, सबकी पानी भरी बोतलें गेट पर तैनात सुरक्षाकर्मी पहले ही छीन चुके थे। अब प्यास का एकमात्र निदान था, स्टेडियम में मिलने वाली शीतल पेय की बोतलें या सादे पानी के छोटे-छोटे पाऊच (जिनमें ग्लास भर से ज्यादा पानी न था) खरीदे जाएं। बोलो बच्चू, अब बचके कहाँ जाओगे? सर पर तीखी होती धूप जब प्यास की तीव्रता असहनीय करने लगी, तब आनंद भी पानी के आठ-दस पाऊच ले आया। स्टेडियम में भीड़ काफी हो चुकी थी। स्पष्ट लग रहा था, वहां क्षमता से कहीं अधिक टिकटें बेची गई हैं। जब बात मुनाफ़े की हो, तब दर्शकों की सुविधा का ध्यान भला आयोजक क्यों रखते? भीड़ के कारण आनंद को पानी लाने में बहुत कठिनाई हुई थी। लौटने पर उसने महसूस किया, रवि धूप व भीड़ से बहुत बेचैन है। उसकी नज़रें बार-बार बायीं तरफ बने पेवेलियन और वी.आई.पी. स्टैंड की ओर उठ रही थीं। वहां धूप से बचने को छत थी और गर्मी से बचने के लिए पंखे भी।
"पापा यहां बहुत भीड़ है। चलिए न हम लोग वहां जा कर बैठें। देखिए न वहां पंखे भी हैं।" रवि ने उस ओर इशारा किया था।
"नहीं बेटा, वह जगह विदेशियों और उनके जैसी नकल करने वाले देसी लोगों के लिए है। वहां हम नहीं जा सकते। यहां धूप-गर्मी है तो क्या हुआ, अपने लोग भी तो हैं।" आनंद ने उसे बहलाया, हालाँकि भीतर से वह भी उन कामुक सुंदरियों के पास बैठने की अपनी इच्छा जाग्रत होते अनुभव कर रहा था। जहां खूबसूरत कुर्सियों व आरामदेह सोफों पर फैले थुलथुल लोग और अप्सराओं को मात करती छरहरी सुंदरियाँ, जिनके अंग-अंग से यौवन और काम फूट रहे थे, सभी उत्साह से चह-चहा रहे थे।
तभी दाहिनी तरफ ज़ोरों का शोर उठने से उनकी बात-चीत भंग हुई। क्रिकेट की सफेद बॉल आकाश में लहराती हुई उस ओर जा रही थी। वहां बैठे लोग अपने दोनों हाथ आकाश में आ रही बॉल की ओर उठा कर खड़े हो गये। अगर बीच में बॉल न होती तो उनकी दुआएं सीधी ऊपर पहुंच जाती। बॉल भीड़ के जिस हिस्से की ओर लपकती जा रही थी, वहां का उत्साह सारी सीमाएं तोड़ने को आतुर था। नीचे आती गेंद को कैच करने के लिए कई हाथ आपस में ही उलझ गये। लेकिन गेंद किसी भी हाथ में न आयी, छिटक कर दूर जा गिरी।
"सिक्सर!...सिक्सर!" भीड़ का जोरदार शोर उभरा था।
"ओफ्फ...ओ। भीड़ ने इतना अच्छा 'गुडलक कैच` गिरा दिया।" रवि की निराश आवाज उभरी थी।
"पापा ये सिक्सर था। इसमें बल्लेबाज को दौड़ने की मेहनत नहीं करनी पड़ती। खड़े-खड़े छ: रन मिल जाते हैं।" रवि ने उसे बताया, "दर्शक द्वारा सिक्सर कैच करना बहुत बड़ा गुडलक होता है! मैच देखने आये लोगों को ऐसा मौका जिन्दगी में कभी-कभी ही मिलता है, इसे मिस नहीं करना चाहिए। जानते हैं, ऐसे गुड-लक पर सच्चे मन से जो भी माँगो पूरा हो जाता है। ...अच्छा पापा, यदि आपके पास सिक्सर आया तो कैच कर लेंगे न!" रवि की आंखों में आनंद के लिए ढेर सारा विश्वास चमक रहा था।
आनंद ने उसकी ओर देखा, "हां, हां। मैं जरूर कैच कर लूंगा।"
उसे अचानक ही अपने गांव का छोटा-सा पुराना मंदिर याद आ गया, जिसे दिखाते हुए दादी बचपन में बताती थीं, बेटा यहां सच्चे मन से मांगी हर मुराद पूरी होती है। न जाने क्यों बड़े प्रयत्नों के बावजूद, क्रिकेट में रमने की जगह आनंद का मन बार-बार भटक जाता था।
"अगली बॉल पर अब छक्का नहीं लगेगा।" काली टोपी वाले उस मोटे ने अपने साथ बैठे आदमी से कहा।
"तो उसके बाद वाली बॉल पर लग जाएगा।" नीली टोपी पहने औसत कद वाले उस आदमी ने जवाब दिया।
ठीक अगली पंक्ति में बैठे होने के कारण उनकी बात-चीत सुनने में आनंद को कोई कठिनाई नहीं हो रही थी।
"ठीक है, निकालो सौ रुपये। अगर पूरे ओवर भर में एक भी छक्का लग गया तो दो सौ दूंगा।" काली टोपी वाले ने अपने मतलब पर आते हुए कहा।
"ठीक है, लगी।" नीली टोपी ने जवाब दिया और सौ रुपये निकाल कर उसे दे दिये।
उसके बाद तो हर बॉल पर ही नीली टोपी वाला उछल-उछल कर पागलों की तरह चिल्लाता रहा 'छक्का, छक्का` मगर एक भी छक्का नहीं लगा।
ओवर खत्म होने पर काली टोपी वाले ने सौ का नोट चूम कर अपनी जेब के हवाले किया और बोला, "अच्छा, पूरे खेल में इस टीम के दस छक्के लगेंगे या नहीं इस पर सट्टा लगा लो। इस पर सौ के पांच सौ।"
"ठीक है, लगी।" नीली टोपी ने स्वीकार किया।
...और आनंद देख रहा था, क्रिकेट के खेल में कैसे रुपये एक जेब से निकल कर दूसरी जेब तक का सफर तय कर रहे हैं।
कुछ देर बाद मैच में "ड्रिंक्स" हुआ। एक बड़ी-सी बोतल का मॉडेल बनी गाड़ी मैदान पर चली गयी। उससे निकाल कर शीतल पेय की बोतलें खिलाड़ियों को थमाई जा रही थीं। उन्हें देख रवि मचल उठा। देखो तो हमारे खिलाड़ी कोल्ड-ड्रिंक पी रहे हैं। ऐसे में अगर हम न पीयें तो भला उन्हें सपोर्ट कैसे करेंगे? हमें भी कोल्ड-ड्रिंक पीना होगा। उसके तर्क ने आनंद को निरुत्तर कर दिया था। जो हमारे खिलाड़ी करते हैं, वही हमें करना चाहिए। वे जो पीते हैं, जो खाते हैं, जो पहनते हैं, जो भी बताते हैं, हमें भी वही सब करना चाहिए! इस जुनून की कोई भी काट आनंद जैसों के पास नहीं थी। वह जोर से बोल कर बताना चाहता था कि खिलाड़ियों को वैसा करने के लिए ढेर सारा पैसा मिलता है और हमें वैसा करने से हमारा जो थोड़ा-सा पैसा है, वह भी चला जाता है। इसलिए हमें अपनी बुद्धि का प्रयोग करना चाहिए ना कि खिलाड़ियों की बातों का अंधानुकरण! लेकिन भीड़ के तीव्र शोर में उसके गले से कोई आवाज नहीं निकली, अगर निकली भी होती तो क्या वहाँ कोई सुन पाता?...वहाँ के बाद भी भला कोई सुनता है क्या?
मैदान पर खेल और व्यापार...व्यापार और खेल इस कदर घुल-मिल चुके थे कि उन्हें अलग-अलग देख पाना असंभव था। कई-कई कंपनियों के बैनर, पोस्टर आदि बाउंड्री-लाईन को घेरे इस प्रकार खड़े थे, मानों बिना व्यापार किये कुछ भी न तो भीतर जा सकता है न ही बाहर आ सकता है।
"आऊट!" शोर उभरा। बॉल बल्लेबाज के स्टंप बिखेर, उसे क्लीन बोल्ड करती चली गई थी। लेकिन अशोक द्वारा बताये आऊट के इशारे की तरह एक अंगुली उठाने की जगह अंपायर ने अपनी दांयी बांह को कंधे के समानांतर फैला दिया था।
"नो बॉल! नो बॉल में आऊट नहीं होता है।" रवि ने उसे बताया।
"अजीब बात है क्लीन-बोल्ड को भी अंपायर नॉट-आऊट कर सकता है।" आनंद बोला, "तब तो अंपायर जब चाहे नो-बॉल करार दे।"
"वैसे आप ठीक कह रहे हैं। अंपायर्स जजमेंट इज द लास्ट जजमेंट (अंपायर का निर्णय ही अंतिम होता है)। लेकिन नो-बॉल होने के भी नियम होते हैं।" रवि ने उसे समझाया।
'अंपायर्स जजमेंट इज द लास्ट जजमेंट` यह वाक्य उसके कानों में गूंजता चला गया। उसे याद आया एक दिन मालिक ने बेवजह गुस्सा हो कर सारा दिन की मेहनत के बावजूद 'नो-बॉल` की तरह उसे 'नो-वर्क` कह कर हाजरी काट दी थी।
...इधर-उधर टहलती उसकी नजरें वहां लगे एक स्कूटर-कंपनी के बैनर पर पड़ीं तो आनंद को अपना स्कूटर याद आ गया। कितनी कठिनाई से रुपये जुटा, खरीदा था उसने। मगर सूद न चुका पाने के कारण महाजन ने एक ही झटके से छीन लिया। स्कूटर के ना होने से आनंद के कई-कई काम अटकने लगे हैं। महाजन ने तो मानों उसके पांव ही काट दिये हैं...।
तभी रवि ने खेल के बारे में कुछ बताया था। "आं...हाँ...!" वह केवल इतना ही बोल पाया। रवि तो पूरी तरह मैच की उत्तेजना में गोते लगा रहा था, आनंद का ही ध्यान बार-बार अपनी दुनियाँ में भटकने लगता। सुधा अभी क्या कर रही होगी..? कहीं उसे दर्द तो नहीं उठा होगा..? अगर वे आज मैच देखने न आते तो निश्चय ही वह उसके बाकी के टेस्ट करवा देता...उसे दर्द से छुटकारा दिला देता...आदि...आदि।
ऐसे ही विचारों में इधर-उधर भटकते आनंद ने वह दृश्य देखा तो भौंचक्का रह गया। मिनी-स्कर्ट पहने एक बहुत सुंदर बाला पेवेलियन से निकल, बाउंड्री लाईन पर खड़े खिलाड़ी तक गई। उसे पेन थमा, बाला ने बड़ी अदा से अपनी स्कर्ट का किनारा उठाया और उसके सामने अपनी गोरी-गोरी, नर्म, मुलायम जाँघें अनावृत कर दी। खिलाड़ी ने मुस्कराते हुए उसकी जाँघ पकड़ कर वहाँ अपना ऑटोग्राफ दे दिया।
"अरे...देख बे, हुंआँ का हो रहा है?" पीछे से एक स्वर उभरा था।
"होगा का! थाइलैंड-ऑटोग्राफ हो रहा है। ऑटोग्राफ का एकदम्मे नया इश्टैल!" उधर से ही जवाब भी आया।
आनंद को अपना सर घूमता लगा। वह लड़की वापस लौट कर अपने साथियों में गर्व से ऑटोग्राफ का प्रदर्शन कर उनकी बधाईयां समेटते, इतरा रही थी। आनंद को लगा, उस लड़की की गोरी और नर्मो-नाजुक जाँघ से एक खुरदुरा चेहरा उभरने लगा है। उसने जल्दी-जल्दी अपनी पलकें झपकाईं, आँखों को मला। लेकिन वह चेहरा उसे सचमुच नज़र आ रहा था। क्रमश: बड़ा होता वह चेहरा उसके फैक्ट्री मालिक के चेहरे का आकार लेने लगा। जो उसे गुस्से से घूर रहा था, "मेरे पास अपनी पत्नी की बीमारी का रोना रो रहे थे। यहां क्रिकेट-मैच और लड़की की चिकनी जाँघ देख रहे हो!"
आनंद ने बरा कर अपनी आंखें फिर मलीं, इस बार मालिक का चेहरा स्कोर बोर्ड के ठीक ऊपर खड़ी बड़ी-सी बोतल के भी ऊपर नजर आया। गुस्से में नहीं, बल्कि एक मोहक मुस्कान के साथ पूछता, "आज कोल्ड ड्रिंक पिया क्या?"
उफ् ...फ् ...ये सब उसे क्या-क्या दिख रहा है? कहीं तेज गर्मी ने उसके दिमाग पर असर तो नहीं कर दिया?
"हो...हो...!" तभी भीड़ का शोर फिर उठा। आनंद ने आस-पास देखा फिर उसकी नज़रें भी दूसरों का पीछा करती ऊपर की ओर उठ गईं। आकाश में उठी सिक्सर वाली गेंद इस बार उनकी तरफ लपकती आ रही थी।
रवि ने चीख कर उसे ललकारा, "पापा होशियार! गुडलक सिक्सर आ रहा है। कुछ भी हो जाए इसे गिरने मत देना।"
यदि कैच उसके पास आया तो वह किसी भी कीमत पर मिस नहीं करेगा, सोचते हुए आनंद ने बॉल की दिशा पर अपना ध्यान केंद्रित किया। यह क्या! बॉल की दिशा का पूर्वानुमान कर उसे सुखद आश्चर्य हुआ, बॉल उसकी ही ओर आ रही थी। उसने अपने शरीर में एक रोमाँचक तनाव अनुभव किया। कैच पकड़ने के लिए उसके हाथ ऊपर आकाश की ओर उठ गये। बॉल की बार-बार बदलती लग रही दिशा के साथ संगत करता आनंद का शरीर भी इधर-उधर लहरा रहा था। कील की तरह यह बात उसके दिलो-दिमाग में ठुंक चुकी थी कि हर हाल में कैच पकड़ना ही है। उसके और सिक्सर के बीच की दूरी तेजी से घटती जा रही थी। बॉल बस अब-तब में उसके पास पहुंचने वाली थी।
उसने पास आती बॉल को लपकना चाहा, परन्तु वह उसके हाथों को धत्ता बताती सीधी सर पर जा लगी। फटाक्, की आवाज के साथ सर फोड़ कर लाल-लाल, गाढ़ा खून उबलने लगा। दर्द की तीव्रता ने अचानक ही उसका ध्यान सिक्सर वाली बॉल से हटा दिया। उसने रुमाल से खून का प्रवाह रोकने का प्रयास किया। खून देख कर रवि रुंआसा हो गया था।
"अरे....रे। कुछ नहीं हुआ। देखो-देखो खेल शुरू हो गया है।" रवि को बहलाते हुए उसने अपने दर्द को पीछे ढकेला और चेहरे पर आड़ी-तिरछी लकीरें बना, मुस्कराने के भाव पैदा करने का प्रयास किया, लेकिन उन रेखाओं ने फैल कर वास्तव में उसका चेहरा बहुत ही दयनीय बना दिया था।
बॉल किसी और के हाथों से हो कर मैदान में पहुंच गई और खेल फिर से शुरु हो चुका था।
----------------
रचनाकार संपर्क:-
(कमल)
डी-१/१, मे दूत अपार्टमेंट्स;
मरीन ड्राइव रोड-कदमा.
पो.-कदमा; जमशेदपुर-८३१००५ (झारखंड).
दूरभाष:- +९१(०६५७)-२३१०१४९, ९४३११७२९५४
------------
COMMENTS