कहानी - राजनारायण बोहरे 25 दिसम्बर, शाम पांच बजे दिन डूब चला था । जैन साहब को दिन भर में अब जाकर खाना नसीब हुआ था । वे सुबह...
कहानी
- राजनारायण बोहरे
25 दिसम्बर, शाम पांच बजे
दिन डूब चला था ।
जैन साहब को दिन भर में अब जाकर खाना नसीब हुआ था । वे सुबह दस बजे से कलेक्टोरेट में व्यस्त थे । सूर्य डूबने के पहले अन्थऊ (रात्रि का भोजन) करने की उनकी बचपन से ही आदत है । थके-मांदे लौटे थे और पत्नी से गर्म खाना बनवा कर वे इत्मीनान से भोजन कर रहे थे, कि टेलीफोन की घंटी बजी । पत्नी ने फोन उठाया ।
फोन के दूसरी ओर उनके विभाग के संभागीय अधिकारी वर्मा जी मौजूद थे । सो उनकी आवाज पहचान कर मिसेज जैन मना ही करने वाली थीं कि उनने फोन पर हाथ रखके जैन साहब को इशारे से बताया कि वर्माजी का फोन है । जैन साहब के हाथ का कौर थाली में ही छूट गया । उनने फोन हाथ में लिया और बड़े अदब के साथ बोले ''हलो सर मैं जैन...................''
''सुनो जैन, इस वक्त तुम क्या कर रहे हो ? घर में बैठ कर समय खराब मत करो ऐसा करो कि फटाफट घर से निकल लो । रात ग्यारह बजे भोपाल से हमारे विभाग के सचिव तुम्हारे यहाँ पहुँच रहे हैं, उन्हें परसों तक तुम्हें अटैण्ड करना है ।''
'' ठीक है सर, कोई खास बात ?''
'' हाँ, सचिव महोदय जरा डिसिप्लेन पसंद करते हैं । उन्हें ओबिडेंट वर्कर चाहिये । हालांकि मैंने तुम्हारी तारीफ कर दी है...... । फिर भी तुम जरा ऐहतिहात बरतना..... । ध्यान से सुनो, चाहो तो नोट कर लो -सबसे पहले तो उन्हें स्टेशन पर रिसीव करने के लिये एक कार का बंदोबस्त कर लेना ...... ...। सर्किट हाउस में एक रूम स्यूट भी रिजर्व करा लो.......। खाने-पीने का ठीक इंतजाम जरा ठीक से करना, और हाँ...... वे देवी मंदिर में दर्शन के लिये आ रहे हैं, जरा मंदिर के प्रबंधकों से मिलके व्ही.आई.पी. इंतजाम करवा लेना । ठीक है, कोई प्रॉबलम................?''
जैन ने पूरे अदब और अत्यंत विनम्रता से कहा ''एक छोटी सी प्रॉबलम है सर, दरअसल चुनाव का समय चल रहा है, देवी मंदिर पर रोज मिनिस्टर वगैरह आ रहे हैं । इसलिये सर्किट हाउस में जगह मिलने की दिक्कत हो सकती है ! और कोई अफसर होता तो मैं स्वयं जाकर कह देता लेकिन इस कस्बे में सर्किट-हाउस का सारा मामला कलेक्टर खुद देखते हैं, इसलिए हो सकता है कि जगह मिलने में दिक्कत हो । फिर भी देखता हूँ । हां एक और बात , आपने कहा कि मंदिर में व्ही.आई.पी. इंतजाम करवाना है, सो सर उसमें भी दिक्कत होगी, क्योंकि यहां के नियम के मुताबिक मंदिर में हर आदमी बराबर हैं । मंत्रियों के लिये भी वहां कोई अलग इंतजाम नहीं होता । वे लोग भी लाइन में लग के दर्शन करते हैं, सो सचिव महोदय भी ऐसे ही कर लेंगें ।''
वर्मा जी उन अधिकारियों में से थे जिनके सिर पर चौबीसों घण्टे अफसरी का भूत सवार रहता हैं, वे अरन्तु-परन्तु से बहुत नाराज होते थे । इस वक्त की जैन की हीला हवाली से उनका पारा ज्यादा ही ऊपर चढ़ गया और उन्होने जैन साहब को एक लम्बी सी डाँट पिलाई, फिर फोन पटक दिया ।
जैन साहब का खाना हराम हो गया ।
जैसे-तैसे करके उन्होने तीन रोटी निगली और एस.डी.एम. के बंगले की ओर भागे । कलेक्टर के निर्देशन में सर्किट हाउस का रिजर्वेसन एस.डी.एम. ही तो संभालते हैं ।
25 दिसम्बर , शाम सात बजे
कलेक्टर साहब से सीधा निवेदन, एसडीएम से मक्खनबाजी की भाषा तथा उनके पीए से माथामच्ची जैसी जद्दो-जहद के बाद सर्किट हाउस में उत्तर कक्ष रिजर्व हो पाया, तो थके से जैन साहब ने रिजर्वेशन-स्लिप लेकर पैदल ही सर्किट-हाउस का रूख किया । विभाग की जीप कलेक्टर ने चुनाव कार्य के लिये अटैच कर रखी थी, सो वे इन दिनों पैदल परेड कर रहे थे ।
खानसामा को दाल, चावल, सलाद और किसी हरी सब्जी का इंतजाम रखने को कह उनने उसके हाथ में एक सौ का नोट थमाया और लौटते में कलेक्टर के बंगले पर चले गये । संयोग से कलेक्टर अच्छे मूड में मिले और आय ए एस के आने का कार्यक्रम जानके उनने तुरंत ही जैन साहब को ये अनुमति दे दी कि वे इलेक्शन ऑफिस से एक दिन के लिए अपनी गाडी वापस ले सकते हैं ।
इस कस्बे के सबसे बड़े सिरदर्द निपट गये थे,जैन साहब ने ठंडी सांस ली ।
बस अब देवी मंदिर की व्यवस्था देखनी थी । वे थोड़े निश्चिंत मन के साथ मंदिर की ओर चल पड़े ।
यकायक एक अनूठा और नकारात्मक सा विचार आया क़ाश यह प्रसिद्ध देवी मंदिर इस कस्बे में न होता ! सचमुच कितना अच्छा होता ! उन जैसे तमाम अधिकारी चैन से नौकरी करते और झूठा-सच्चा कुछ सरकारी काम करते रहते । इस मन्दिर के ही कारण तो यहाँ के अफसरों इतनी फुरसत नहीं मिल पाती कि मंदिर के दर्शनार्थियों से मुक्त हो के कुछ सरकारी काम कर सकें । सहसा जैन साहब का चिंतन पलटने लगा......ये क्या सोच रहे है वे ? यह मंदिर ही तो इस कस्बे की पहचान है । इसी के बहाने कस्बे में इतने सारे नेताओं और सरकारी अधिकारियों की आवाजाही लगी रहती है । राजनेता ही नहीं ,बड़े बड़े डॉक्टर,इंजीनियर, कानूननविद और हाईकोर्ट के तमाम न्यायमूर्ति भी नियमित रूप से यहाँ दर्शन और अनुष्ठान कराने आते रहते हैं । कोई तो मुंह मांगी मुराद मिलती होगी, तभी तो इतने लोग आते हैं । और फिर यदि मंदिर न होता तो शायद यहां छोटा सा गांव ही बना रहता,जिला मुकाम भी न होता, और उन जैसों की पोस्टिंग भी न होती यहां। सोचते हुए जैन साहब ने मन ही मन देवी से माफी मांगी ।
उन्हें याद आया कि लोग कहते है कि अभी कुछ बरस पहले तक ऐसा नहीं था , देवी-मंदिर एक सिद्ध स्थान के रूप में धीरे-धीरे विख्यात हो रहा है । यह मान्यता फैल गयी है, कि जो व्यक्ति यहाँ देवी का अभिषेक करा के सच्चे मन से कोई याचना करता है, देवी तीन महीने के भीतर उसका मनोरथ पूरा करती हैं । पण्डे-पुजारी दर्शनार्थियों के कान में फुसफुसाते हुए कहते हैं कि तमाम प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों की अल्पमत सरकारें और प्रधानमंत्री की लंगड़ी सरकार किसी गठबंधन के कारण नहीं बल्कि यही कराये जा रहे जप-तप के चमत्कार से ही तो चल रही है । जैन साहब सोचते हैं कि शायद यह सच भी हो । आज स्पष्ट बहुमत किसे मिलता है, हर जगह त्रिशंकु बहुमत ही तो दिखता है । अल्पमत वाला नेता प्राय: अस्थिर रहता है । सो अस्थिरता में ऐसे अनुष्ठान वाले स्थानों पर हमेशा जप-तप हवन चलना आश्चर्य चकित नहीं करता किसी भी बुद्धिजीवी को । हर जगह जाकर माथा नवाते हैं ये राजनैतिक लोग ,अपने स्थायित्व की प्रत्याशा में ।
उनके कार्यालय के लोग बताते हैं कि एक जमाना था जब मंदिर जाने वालों में सबसे बड़ी संख्या गरीब-मजदूर वर्ग और छोटे कर्मचारियों की थी । पर आज मंदिर के नियमित दर्शनार्थियों में इस तबके के लोग धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं । अब वहां आने वालों में ऊँचे वर्ग के लोगों की संख्या बढ़ रही है । उसी अनुपात में उनका वर्चस्व भी बढ़ने लगा है । सिद्ध पीठ पर उन्हें सम्मान भी मिलने लगा है और स्थान भी । शनिवार और इतवार के दिन मंदिर के बाहर दर्जनों मारूतियाँ नजर आती हैं, पर मंदिर के कैम्पस में बनी साइकिल पार्किंग सूनी रहती है अब । बड़े लोग आते हैं , सो उनके जलवे बरकरार रखने और अपनी खुशामद दिखाने के लिए जिला प्रशासन ने सुरक्षा के स्थाई बन्दोबस्त कर दिये गये हैं यहाँ ।
जैन साब एक साल पहले ज्वाइन हुये हैं इस कस्बे में, इस एक साल में वे बीस से ज्यादा वरिष्ठ अधिकारियों को मंदिर के दर्शन और अभिषेक करवा चुके हैं । वे पुराने अफसर हैं, अन्य जिलों में भी नौकरी कर चुके हैं । दूसरे जिलों में इतनी बड़ी संख्या में अधिकारी नहीं आते । पर इस कस्बे में देवी जी का ही प्रताप है कि यहाँ पदस्थ अधिकारी प्राय: मन्दिर में सदा व्यस्त रहा करते हैं ।
कभी-कभी तो झल्लाहट हो आती है जैन को इस कस्बे में अपनी पदस्थापना पर । होता यह है कि आसपास के क्षेत्र में सौ किलोमीटर तक के स्थान पर जब भी कोई अधिकारी आता है, अपनी यात्रा में इस कस्बे को जबरन जोड़ लेता है । कागजी खानापूरी में तो नाम होता है इसंपेक्शन का, पर असल उद्देश्य देवी दर्शन का रहता है । जैन जैसे तमाम अधिकारी अपने-अपने विभाग के मेहमानों की सेवा का सुअवसर (?) पाते रहते हैं । वरिष्ठ लोगों की भक्तिभावना से यहॉ कार्यरत सब लोग परेशान हैं । दर्शन लाभ लेते हैं आगंतुक और त्रस्त होते हैं स्थानीय जन ।
जिस दिन मुख्यमंत्री आते हैं, चार घण्टे के लिये पूरा रोड बंद कर दिया जाता है । चूंकि इसी रोड पर प्राय: सभी स्कूल हैं, सो मुख्यमंत्री की सुरक्षा-परेड के कारण पूरी सड़क बन्द रहती है,और नन्हे-नन्हे बच्चे दिन-दिन भर भूखे प्यासे स्कूल में टंगे रहते हैं । जैन प्राय: सोचते है कि ऐसे में मुख्यंमत्री भला क्या पुण्य पाते होंगे ! अभी प्रधानमंत्री के आने का कार्यक्रम बना, तो आठ दिन पहले उनकी खास अंगरक्षक फौज आकर मंदिर में जम गयी । यहां रहने वाले गरीब-गुरबा सेवकों और बाबा-फकीरों को तुरंत भगा दिया गया । मंदिर को धुलाने-चमकाने का सुझाव दिया गया-उनकी तरफ से । अच्छा हुआ कि वे आये नहीं, अगर आते तो ष्षायद पूरे दो-तीन दिन रोड बंद रहती ।
25 दिसम्बर, शाम आठ बजे
मंदिर के ट्रस्ट-कार्यालय में व्यवस्थापक के रूप में कार्यरत दाऊ साहब तख्त पर अधलेटे से आराम फरमा रहे थे । वे एक रिटायर्ड राजनैतिक थे और अभी भी खुद को किसी केबिनेट मंत्री से नीचे दर्जे का नहीं मानते थे । जैन ने खीसें निपोरते हुये उन्हें प्रणाम दिया और बोले ''दाऊ साहब, कल हमारे सेकेट्री साहब यहां सिद्ध स्थान पर दर्शन करने आ रहे हैं ।''
दाऊ साब का चेहरा निरपेक्ष था । वे बोले ''तो आयें न, अपने को का हर्ज है ?''
''मेरी समस्या ये है दाऊ साहब, कि वे देवी का अभिषेक करना चाहते हैं । आप अनुमति दे दें तो.......................''
''ना............................ये तो कतई संभव नहीं ।''
''दाऊ साहब, कृपा करो हम पर''
''अरे भैया, तुम्हें क्या पता नहीं है, कै देवी के अभिषेक का अवसर सिर्फ यहां के शिष्यों को मिलता है - केवल सवर्ण शिष्य ही अभिषेक कर पाते हैं । तुम्हारे सचिव किस जाति के हैं ?''
''वे अपने नाम के पीछे सिंह लगाते हैं । जाति का तो सचमुच मुझे पता नहीं दाऊ साहब !''
''सिंह यानी कि ठाकुर हुये । सचिव है तो ठाकुर ही होंगें । ठाकुर हैं तो अपन लोग रास्ता निकाल लेंगे कुछ । हां, ऐसा हो सकता है कि उनसे केवल संकल्प करा लिया जाये और अभिषेक हमारे पुजारी जी करें ।..............ठीक है तुम रसीद कटा लो पांच सौ एक रूपये की....................!.''
''पॉच सौ एक.................'' जैन साब को यह राशि कुछ ज्यादा लगी थी ।
''हॉ , अब ट्रस्ट ने इतनी ही दक्षिणा तय की है और हमारे पास तो रोज ही दो-तीन लोगों के निवेदन प्राप्त हो रहे हैं । अरे भाई,जिसे करना है वो पाँच हजार भी देने को तैयार हो जायेगा । देवी का अभिषेक बड़ा चमत्कारी है । तुम्हारे कारण यह अनुमति दे रहा हूँ । यदि इच्छा न हो छोड़ो ।''
''ना.................नहीं दाऊ साब, यह बात नहीं है । आपका आभारी हूँ मैं कि आपने अनुमति दे दी । मेरे पास इस समय पांच सौ एक रूपये नहीं है। मैं कल सुबह रसीद कटा लूंगा ''कहते हुये जैन साब वहां से खिसक लिये ।
कार का इंतजाम करना शुरू से ही उन्हें कठिन लगता रहा है । क्योंकि इस कस्बे में उनके विभाग के पास खटारा जीप है । टैक्सी वाले भी यहाँ गिने चुने ही हैं । वे अनाप-शनाप पैसे मांगते है। जैन साहब बुझे मन से टैक्सी वाले के पास पहुंचे । सौदेबाजी के बाद टैक्सी वाला रात ग्यारह बजे से परसों सुबह तक के लिए आठ सौ रूपये में तैयार हो गया तो उन्होने चैन की सांस ली ।
उन्होंने हिसाब लगाया कि सिंह साहब की इस यात्रा में कुल मिलाकर डेढ़ हजार से ज्यादा का खर्च आयेगा, इसमें से देवी-अभिषेक की दक्षिणा तो वे सिंह साहब से मांग सकते हैं, पर एक हजार रूपये उन्हें जेब से ही भुगतना होंगे । यह याद आते ही वे बड़े दुखी हो उठे थे । उनको ऊपर की कोई आमदनी नहीं है, कि वे ऐसे खर्चे निकाल सकें । पर क्या करें...........?.ऊपर का हुकुम तामील करना मजबूरी है ।
ऐसे खर्च वे स्टेशनरी के कैश-मैमो और अपने फर्जी टीए बिल्स से ही पूरे करते हैं । उसमें भी पिछली दफा तो उनके टी.ए. बिल्स में इन्हीं संभागीय अधिकारी वर्मा साब ने खुद ऑब्जेक्सन लगाया था । जैन ने स्पष्ट किया कि टी.ए. बिल सचमुच फर्जी है, पर यह केवल उस खर्चे का एडजस्टमैण्ट है जो कि वरिष्ठ निदेशक की यात्रा पर जैन ने अपनी जेब से खर्च किये हैं । सो वर्मा जी ने एहसान सा करके उन्हें पास कर दिया था ।
कई दफा तो ऐसा भी होता है कि जब सर्किट हाउस और छोटा रेस्ट हाउस खाली नहीं मिलता तो कस्बे के एक मात्र लॉज में मेहमान अधिकारी को रूकाना पड़ता है........तब जेब से डेढ़ दो सौ और निकल जाते हैं ।
26 दिसम्बर, रात दो बजे
रात बारह बजे वह ट्रेन आ सकी । एक घंटा स्टेशन पर बैचेनी से गुजारते रहे -जैनसाहब । स्टेशन पर जीप और कार देखकर सिंह साहब खुश हुये । अलबत्ता भारी-भारी दो सूटकेस जैन को ही उठाना पड़े, क्योंकि सिंह साहब के साथ न कोई आदमी था न चपरासी । प्राइवेट कुली का तो कस्बे के स्टेशन पर सवाल ही नहीं उठता ।
सर्किट हाउस पहुंचकर मेहमान ने फरमाइश दागी कि वे खाना खायेंगे । खानसामा चुस्त दुरूस्त था, उसने हामी भर दी और फटाफट खाना भी बना दिया । रात दो बजे जैन लौट सके ।
26 दिसम्बर, सुबह सात बजे
सात बजे सुबह मंदिर के लिये सिंह साहब चुस्त दुरूस्त तो मिले पर उनकी पहली फरमाइश थी -धोती । अब भला मंदिर में पैण्ट पहन के तो जाया नहीं जा सकता, सो उन्हें एन-मौके पर धोती आवश्यक लगी । उन्होने हुकुम झाड़ दिया - नई धोती लाइये जैन साहब ।
मन में आया कि कहे ''सर आपको मंदिर जाना था तो धोती लेकर क्यों नहीं आये, या फिर कल दिन में मुझे कहला देते, मैं बाजार से ले लेता । अब सुबह सात बजे कहाँ से लाऊं मैं धोती ।'' पर प्रकट में उन्होने सिर्फ ''यस सर'' कहा और अपने स्कूटर की ओर बढ़ गये ।
एक परिचित कपड़े वाले से मिन्नत करके उन्होने मुश्किल से दुकान खुलवाई और एक मर्दानी धोती खरीदी । चूंकि दुकान देहाती ग्राहकों की थी, सो धोती भी मोटे कपड़ा की ही मिली । पर जैन साहब को संतोष यह था, कि धोती की फरमाइश पूरी हो गयी है ।
सिंह साहब ने देहाती टाइप की मोटे कपड़े की धोती देखी तो तमाम नाक भौं सिकोडे । जैन साहब ने क्षमा मांगी तो उन्होंने मुंह बनाते हुये धोती पहनी ।
26दिसम्बर, सुबह नौ बजे
मंदिर में दो घण्टे रहे सिंह साहब । उनने बड़ी श्रद्धा और भक्ति से अभिषेक किया । बाद में पुजारी से अनुरोध करके नवरात्रि में नौ दिन के विशेष अनुष्ठान के लिये सुपारी भी एक पण्डित को दिला दी । कुल मिलाकर आठ सौ पचास रूपये खर्च हो गया था - जैन साहब का ।
सर्किट हाउस में पहुंच कर सिंह साहब ने नया हुकुम झाड़ा ।
''क्यों जैन, देखो, गाड़ी में पैट्रोल तो ठीक है न ! मैं गिरिमाला के मंदिर जाना चाह रहा हूँ ।''
जैन साहब ने ड्रायवर से पूछकर पैट्रोल होने की हामी भरी ।
26 दिसम्बर , शाम सात बजे
पूरा दिन जैन साहब बोर होते रहे उनकी खटारा जीप सिंह साहब की कार के पीछे गिरिमाला के मंदिरो की पहाड़ियों पर चढ़ती उतरती रही ।
''जी सर'' ''जी सर'' की एक सी प्रतिक्रियायें देते जैन साहब सांझ को थक गये । शाम को सर्किट हाउस वापिस पहुंचे तो एक नई समस्या सामने थी । अचानक ही प्रदेश के एक मंत्री जी कस्बे में आ गये थें, सो सर्किट हाउस के चौकीदार ने सिंह साहब का सामान समेट कर अपने स्टोर रूम में पटक दिया था । अब सिंह साहब को ठहरने के लिए सर्किट हाउस में कोई जगह तक न थी । सिंह साहब को बैठक में कुछ देर इंतजार करने को कह कर जैन साहब ने सब-इंजीनियर से संपर्क किया । पर सब-इंजीनियर मिनिस्टर की मौजूदगी में किसी और को सर्किट हाउस में ठहराने के लिए तैयार नहीं हुआ ।
जैन की तमाम प्रार्थनाओं के बाद भी सिंह साहब मंत्री से जाके ये न कह सके, कि सर्किट हाउस के तीन रूम स्यूट में से एक में उन्हें बने रहने की अनुमति दे दें । अंतत: जैन साहब स्वयं ही कस्बे के छोटे रेस्ट हाउस में एक कमरा तलाशने निकल पड़े । क्योंकि मंत्री से कुछ भी कहने की किसकी हिम्मत है ।
जैसे - तैसे करके छोटे रेस्ट हाउस में एक कक्ष मिला और जैन ने सिंह साहब से वहां चलने का निवेदन किया तो वे खा जाने वाली नजरों से उन्हें ताकने लगे । पर मजबूरी थी सो उन्हें जाना पड़ा।
26 दिसम्बर , रात ग्यारह बजे
रात को खाने का मैन्यू पूछा तो सिंह साहब की अफसरी जाग उठी थी । मैकडोनाल्ड व्हिस्की और मुर्गा की इच्छा प्रगट की थी, उन्होने ।
रात दस बजे दिन भर के भूखे प्यासे जैन साहब रेस्ट हाउस के बाहर बैठे कुढ़ रहे थे और अंदर सिंह साहब मुर्गा की रान चबाते हुये बड़े इत्मीनान से डकारें ले रहे थे । रात 11 बजे वे लौटे तो भूखे ही सो गये क्योंकि जैन होने के नाते रात में कुछ खाना-पीना पाप कर्म कहलाता ।
27 दिसम्बर , सुबह आठ बजे
अगले दिन सुबह आठ बजे की ट्रेन से जैन साहब ने सिंह साहब को ए.सी. की टिकिट कटवा कर विदा करने की तैयारी की । ए.सी. वाले डिब्बे में बैठते हुये सिंह सिंह साहब की नजरें ज्यादा ही तिरछी थीं - मिस्टर जैन कितने दिन हो गये आपको यहाँ ?''
''सर पांच साल''
''ऐसी क्या खास बात है जो तुम इसी जगह हमेशा बने रहना चाहते हो ।''
''सर मैं तो उकता गया । मैं तो जल्दी से जल्दी यह कस्बा छोड़ना चाहता हूँ - पर आप कृपा ही नहीं कर रहे हैं । प्लीज इस बार मुझे वहाँ से हटा दीजिये ।''
कहीं दूर शून्य में ताकते सिंह साहब बोले थे ''जब तक मेरा अनुष्ठान पूरा नहीं हो जाता तब तक तो तुम्हें रहना यहाँ रहना ही होगा । वैसे कल तुमने सब कुछ ठीक से मैनेज नहीं किया था । यह ठीक नहीं । आइंदा ध्यान रखना ।''
ट्रेन चल दी थी और जैन साहब के सिर से वजन सा हटने लगा था । उन्होंने जाती हुयी ट्रेन के पीछे एक गाली उछाली - ''@#%&................'' और वे घर लौट पड़े ।
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रचनाकार परिचय-
राजनारायण बोहरे
जन्म
बीस सितम्बर उनसठ को अशोकनगर मध्यप्रदेश में
शिक्षा
हिन्दी साहित्य में एम. ए. और विधि तथा पत्रकारिता
में स्नातक
प्रकाशन
' इज्ज़त-आबरू ' एवं ' गोस्टा तथा अन्य कहानियां'
दो कहानी संग्रह और किशोरों के लिए दो उपन्यास
पुरस्कार
अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता 96 में पच्चीस हजार रूपए
के हिन्दी में एक कहानी पर अब तक के सबसे बड़े पुरस्कार से
पुरस्कृत
सम्पर्क
एल आय जी 19 , हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी दतिया-475661
07522-506304
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