कहानी -राजनारायण बोहरे उनका मन बड़ा विचलित था । रात के बारह बज चुके थे, पर उनकी आंखों से नींद अब भी कोसों दूर थी । दिन में खूब खुला ...
कहानी
-राजनारायण बोहरे
उनका मन बड़ा विचलित था ।
रात के बारह बज चुके थे, पर उनकी आंखों से नींद अब भी कोसों दूर थी । दिन में खूब खुला और हवादार दिखता सरकारी बंगले का बैठक वाला यह कमरा अंधेरे में खूब डरावना और खाली-खाली सा लग रहा था । एक अजीब सी उदासी और घुटन सारे माहौल में व्याप्त थी ।
''बाहर शायद बादल घिर आये होंगे'' माहौल में भरी हुई घुटन के कारण मन ही मन मौसम का अनुमान लगाते हुए उनने करवट ली और सामने की दीवार को निरपेक्ष भाव से टुकुर-टुकुर ताकने लगे ।
दीवार पर ठीक सामने ही पारदर्शी पन्नी से मढ़ा हुआ, एक बड़ा सा फोटो टंगा था । फोटो में वे प्रदेश के मुख्यमंत्री की बगल में खड़े दिख रहे थे । मुख्यमंत्री अपना बायां हाथ उनके कंधे पर रखे थे, और दांये हाथ को ऊँचा उठाये हवा में लहराते हुए जनता का अभिवादन करते प्रतीत होते थे ।
फोटो पर नजर गई तो उन क्षणों की याद करके वे अब भी पुलकित हो उठे । मुख्यमंत्री की गुलाबी, गदबदी और मजबूत हथेली अब भी अपने कंधे पर रखी महसूस की उनने ।
उन्हें याद आया - बहुत पहले की बात है यह । तब वे नये-नये चुने गये थे । जिले के पंच-सरपंच सम्मेलन में मुख्यमंत्री खुद हेलीकॉप्टर (जिसे वे उडनखटोला कहते हैं) में बैठ कर आये थे । पंचायती-राज के प्रतीक के रूप में उन्हें अपने पास खड़ा करके मुख्यमंत्री ने जनता से कहा था-असली जनतंत्र अब आया है ! हमने एक प्रदेश की कितनी सारी राजधानियाँ बना दी हैं ।
संपतप्रसाद का कंधा थपथपाते हुये वे बोले थे - ये देखो, आपके बीच के संपतप्रसाद को हमने राज्यमंत्री का दर्जा दिया है । ये आपके जिला पंचायत अध्यक्ष हैं । इन्हें यहाँ इतना ऊँचा खड़ा देख के आज स्वर्ग में बैठे, बाबा साहब और गांधीजी को कितनी खुशी हो रही होगी ।
तब संपतप्रसाद ने सोचा था कि स्वर्ग में बैठकर यह दृश्य देख रहे गान्धी जी और बाबा साहब की आँखें सचमुच आज जुड़ा गई होंगी । एक गरीब दलित किसान का खेतिहर बेटा मुख्यमंत्री के ढिंग खड़ा है, यह कोई छोटी बात थोड़ी है ।
मगर मुख्यमंत्री को इतने दिन देखने के बाद उन्हें आज लगता है कि उस दिन मुख्यमंत्री ने किसी और की नहीं, स्वयं अपनी तारीफ की थी । उनके भाषण का छिपा हुआ आशय यह था - लो देख लो मुझे, मैं ही हूँ, इस जनतंत्री गंगा का भागीरथ । मैं ही तार सकता हूँ तुम्हें । मेरी ही बदौलत ऐरे-गैरे-नत्थू खैरे लोग अब सत्ता में सीधे-सीधे भागीदार हो रहे हैं । पंच-संरपंच, मेम्बर से लेकर जिला प्रधान तक सब कमाई की गंगा में हर हर गंगे बोल रहे हैं । अब तो घर का चूल्हा फूँकती महिलाओं को भी दलितों की तरह हमने कुछ जगहें छोड़ दी हैं । महिलाएं चाहें तो घर की चार-दीवारी लांघ के खुद राज कर सकती हैं ।
इस क्षण एकाएक संपतप्रसाद को लगा कि फोटो के सामने खड़े होते समय उनका मन और मस्तिष्क सुन्न सा हो गया था । सच ये है कि चित्र में मुख्यमंत्री मजाक सा उड़ाते लग रहे थे, संपतराम और सुराजियों के पुराने वर्ग का, उनकी निरक्षरता का भी, भोले व्यक्तित्व का भी, बल्कि सच तो यह है कि पुराने सिद्धांत वादियों और पुराने अठन्निया मैम्बरों की झूठी गर्व भावना का भी । इन नये नेताओं को पुराने लोग अप्रासंगिक ही तो लगने लगे हैं अब ।
गांव के गंवई लोगों की तरह बिना इस्तरी किये हुये खद्दर के मोटे कुर्ता पजामा पहनने वाले मुख्यमंत्री अपनी धज में कुछ अलग ही दिखते हैं । आम आदमी की बोली-बानी में भाषण देकर जनता को लुभाने का बड़ा हुनर है उनके पास । मुस्कराते हैं तो फूल झड़ते हैं, हँसते हैं तो धूप खिल उठती है । लेकिन इसी हँसी और मुस्कान में वे सबको उड़ा देते हैं । पहले वे ऐसे न थे । पर अब बड़े घाघ हो गये है । अपने राजनैतिक गुरू को भी पटक्का दे दिया है उनने, लोकनीति और दलित चेतना का नया झुनझुना जनता के हाथ में देके ।
संपतराम अनुभव करते हैं कि प्रदेश की राजनीति के सर्वेसर्वा होने की वजह से मुख्यमंत्री आज के सारे छुटभैया नेताओं के आदर्श बन चुके हैं । सहसा उनने सोचा कि इन नयों की तुलना में वे कहाँ खड़े हैं ? वे तो पंक्ति के आखिरी हिस्से में हैं बल्कि पंक्ति से बाहर ही निकल चुके हैं वे तो । काश! वे खुद को जमाने के मुताबिक बदल पाते, तो आज ये स्थिति नहीं आती कि.................
याद आते ही उनके सीने की आग बढ़ उठी । लेटना मुहाल हो गया । वे उठे और पांव में चप्पल डाल के दरवाजे की ओर लपके । कुछ दिन से वे रात-रात भर जागते थे, और जाने क्या-क्या बड़बड़ाते थे, सो बच्चों की नींद में खलल पड़ता था । इसलिये पत्नी के कहने पर अब बैठक वाले कमरे में ही रात का बिस्तर लगा लिया है उनने ।
दिन में भी प्राय: सन्नाटे में डूबे रहने वाले सिविल लाइन के इस क्षेत्र में इस वक्त पैना और धारदार सन्नाटा व्याप्त था । आसमान में काले घटाटोप बादल छाये हुये थे । कृष्ण पक्ष की काली अंधियारी रात को इन बादलों ने और घनी अंधेरी बना दिया था । वातावरण में उमस सी घिरी हुई थी । वे कुछ देर तक बरामदे में खड़े रहे फिर लॉन में उतर आये । लॉन में ही उनका प्यारा कुत्ता मोती बंधा था । उनने गौर से देखा मोती बहुत कमजोर और दीन-हीन सा दिखने लगा था इन दिनों । लॉन को रौंदते हुये वे बंगले की बाउंड्रीवाल में ठीक सामने बने चौडे ज़ालीदार दरवाजे की ओर सरपट बढ़ लिये, जैसे कहीं जाने की जल्दी हो ।
गेट में लगी सिटकनी को खोलने के लिये उनने ज्यों ही हाथ लगाया, हल्की सी 'खट्' की ध्वनि ने सन्नाटे को भेद दिया । बंगले के पीछे से एक कड़क स्वर गूंजा -''हुकुम सदर''
संपतराम ने खांसते हुये अपने होने का संकेत दिया और जोर से बोले -''कोऊ नहीं है लल्ला । परे रहो तुम तो ।''
गेट में ताला लगा था, इसलिये दरवाजे की दायीं ओर बने सीढ़ीदार रास्ते पर चढ़ के संपतप्रसाद चहार दीवारी के बाहर निकल आये और मुड़कर अपने बंगले को ताकने लगे । वहां से उन्हें दूर खड़ा अपना बंगला तो धुंधला सा दिखा पर बाउंड्रीवाल में बना दरवाजा, जालीदार किवाड़ और दोनों ओर बने सफेद खंबों के ऊपर लाल रंग में लिखा चमकता खुद का नाम जरूर खूब स्पष्ट और उजागर दिखा उन्हें -
संपत प्रसाद
जिला पंचायत अध्यक्ष
(दर्जा राज्य मंत्री)
वे मोह में डूबे से अपने नाम की इबारत को कुछ देर तक एकटक देखते रहे फिर आगे बढ़े और बड़े लाड़ से अपने नाम पर हाथ फेरने लगे । ................क्या पता कल क्या होगा ? उनके मस्तिष्क में संदेह कौंधा । कल शायद............उनके नाम के नीचे ये पद और उसके विभूषण नहीं लिखे जायेगें । बल्कि यूं कहें कि पद और विभूषणों के ऊपर शायद उनका नाम नहीं होगा । उनने किसी तरह खुद को संभाला । अपने होठों को पूरी ताकत से कस लिया और वहां से हट आये । आहिस्ता-आहिस्ता चलते हुए वापस लॉन में आये, बैठक का दरवाजा खोला और फिर से उसी बिस्तर पर जा लेटे, जहां से अभी-अभी उठकर भागे थे ।
वे चित्त लेट गये ओर छत को ताकने लगे । खुद को धिक्कारने लगे कि आदमी को ऐसा सीधा नहीं होना चाहिये कि दूसरे लोग उसे चूतिया समझने लगें ।
सन् ब्यालीस का आंदोलन चल रहा था उन दिनों ।
उन दिनों सुराजी लोग गांव-गांव जाकर जनजागरण कर रहे थे । इसी सिलसिले में सुराजियों का एक जत्था उनके गांव में आया । घंटे भर रूक के वे लोग अगले गांव जाने वाले थे कि आंधी तूफान आ गया सो उन लोगों का वह पूरा दिन उसी गांव में बीता ।
संपत ने दिन भर उन लोगों की मदद की । वह उन लोगों की बातों से बड़ा प्रभावित हुआ । रात को चौपाल पर बैठकर सुराजियों ने जब विस्तार से गुलामी, आजादी और अहिंसा आंदोलन का मतलब समझाते हुये अंग्रेजों के अत्याचारों की दास्ताँ बयान की तो गांव के युवाओं की भुजा फड़क उठी थी । संपत ने भी अपनी इच्छा बताई ।
सुराज आंदोलन में भाग लेने की संपत की इच्छा जानकर सुराजियों ने उसे खूब प्रेरित किया और सलाह दी कि वे लोग गांव में प्रजा मंडल की एक शाखा डाल लें या अपनी कोई अलग समिति बना के आजादी का आंदोलन चलाते रहें । तब संपत के जीवन में समाज सेवा, देश सेवा का सूत्रपात हो गया था ।
देश स्वतंत्र हुआ । सन् पचास से देश का अपना कानून लागू हुआ ।
पार्टी की तरफ से विधान सभा के चुनाव में रामरूप प्रत्याशी बने और जब वे संपत के गांव में आये, तो बिना कहे ही संपतप्रसाद ने आसपास के तमाम गांवों में पार्टी को वोट दिलाने का आश्वासन दे दिया । उनने यह जिम्मेदारी निभाई भी ।वोट वाले दिन उन गांवों के अधिकांश वोट रामरूप की पेटी में डलवाने के बाद ही उसने भोजन किया ।
उन गॉवों से रामरूप को भारी बहुमत मिला । वैसे भी पार्टी की लोकप्रियता बढ़ रही थी । सो रामरूप विधायक चुन लिये गये । उनकी पारखी नजर ने संपतप्रसाद की प्रतिभा को पहचान लिया था । संपत को खूब मान देने लेगे थे वे, यहां तक कि शपथ लेने गये तो अपने साथ संपतप्रसाद को भी राजधानी ले गये । उनने भाई जैसा नेह दिया संपत प्रसाद को । उसी नेह का नतीजा था कि वे पार्टी के पूर्ण कालिक कार्यकर्ता हो गये । अपनी गृहस्थी गांव से उठाई और लाकर शहर के पिछड़े मुहल्ले के एक मकान में जमा ली ।
जीवन चलने लगा । उनकी पत्नी आज भी कहती है - ''तुम्हें का पतो के गृहस्थी कैसे चलत तुम तो अपनी राजनीति में बीधे रहे जिदंगी भर, हम जानत कैसे दिन निकारे हमने, चार बाल बच्चों का साथ और तुम्हारी यहीं शहर में रहिबें की जिद् में फंस के अधपेटे भूखे रहके दिन निकारे हमने । आज कलि के नेता होते तो का ऐसे रहि सकत थे ।''
सचमुच आजकल के युवा नेता ऐसे नहीं रह सकते थे ।
अपने विधायक को कभी बदनाम नहीं किया था संपत प्रसाद ने । अपने से बड़े नेताओं का हुकुम मानना, बैग उठा लेना, जरूरत पड़ने पर उनके पैर तक दबाने को तैयार रहना, खास गुण रहा है संपतप्रसाद का । उस जमाने में तो सारे के सारे युवा नेता ऐसे ही होते थे । वो तो इमरजेन्सी के जमाने से बिगड़ गये हैं सारे राग-बाग। नहीं तो कैसी अनुशासन प्रिय पार्टी थी वाह !
आज याद आता है कि उनके साथ के कितने सारे लोग आज लाखों में खेल रहें हैं, बड़ी-बड़ी कोठियां तनवा ली हैं और वे है कि शहर में एक झोंपड़ी भी नहीं डाल सके । वे भी सदैव अपने उसूलों पर कायम रहे ।
''फालतू के उसूल । क्या मिला इन बेकार के उसूलों से ? आज भी आपकी न पार्टी में इज्जत हो सकी न समाज में, प्रतिष्ठा ।'' संपतप्रसाद का बड़ा बेटा नवल प्राय: झुंझलाता हुआ कहता है ।
समय बीतता गया ।
जमाना बदलता चला गया । संपतप्रसाद ने दस्तखत करने लायक पढ़ना-लिखना सीखने के अलावा कुछ न सीखा और चालीस बरस बीत गये । इस बीच बहुत कुछ घटा । जो पद आरक्षित कोटे के होते गये, उन पर रामरूप के हुकुम बरदार रहकर संपतप्रसाद चुने जाते रहे, पर सदा वह पद रामरूप में यहां बंधक सा रहता रहा । वे ही आदेश जारी होते रहे जो रामरूप कहते थे ।
उन दिनों संपतप्रसाद डायरी लिखा करते थे । उनका महीने भर का हिसाब लेनदारी देनदारी खास-खास घटनायें दर्ज करते थे वे । याद आया तो संपतप्रसाद उठे । ट्यूबलाईट जलाई । लोहे की अलमारी में उनके पुराने कागज पत्तर रखे हैं । अलमारी खोल कर उसके निचले खन में जमा के रखी पुरानी डायरियों का बन्डल उठा लिया यूं ही एक डायरी के पन्ने पलटते हुये एक पृष्ठ पर वे रूके, वहां लिखा था
150 रूपये किराने वाले सिन्धी के
30 रूपये चाय वाले अन्नू के कुल 240 रूपये पटाये (रूपया रामरूप जी ने दिये)
30 रूपये दूध वाले यादव के
20 रूपये बीड़ी बण्डल वाले के
10 रूपये नाई के
कुछ माह बाद एक पन्ने पर लिखा था -
280 रू. कपड़े वाले गुप्ता जी के उधार
140 रू. चॉदी की पायल खरीदी, सुनार से उधार कुल खर्च 571 रूपये ब्याज सहित पटा कर 151 रू. व्यवहार में रखे भानजी के विवाह में खाता बेबाक किया (जनपद पंचायत से तनखा मिली)
हर महीने की पहली तारीख के पन्ने पर प्राय: इस तरह का हिसाब दर्ज था । इसे चुकाने के लिये पैसा कहां से आया इसका भी वे जिक्र कर देते थे । सीमित आमदनी में खर्च चलाने वाले इसी तरह का तो हिसाब किताब रखते हैं यह वे आज भी मानते हैं । लेकिन अब वे नहीं बड़ा बेटा नवल अब उनके घर का ऐसे ही हिसाब लिखता है ।
इन्हीं डायरियों के बीच सबसे पुरानी डायरी सन् 1964 की मिली । उसके पृष्ठ पलटते हुये उन्होने वह पन्ना खोला जहां उनने अपने राजधानी प्रवास का जिक्र लिखा था ।
आज सकारे उठके नहाना थोना निपटाया, कलेऊ करके एमेले साब के संग
गृहमंत्री के बंगला पर मिलने गये । तॉगे से गये और लौटे पॉव पैदल । ऐसे कि एमेले साब लौटते
में मंत्री जी के संग कार में चले गये और हम बाहर बगीचा में बैठे रह गये । हमारी जेब में कानी कौड़ी भी न थी, सो रिंगत भये एमेले रेस्ट हाउस आना पड़ा । तीन बजे खाना खाया और आराम करते रहे । एमेले साब संजा 5 बजे लौटे और अपनी गलती मनात रहे कि चलते समय जल्दबाजी में बता न सके ,जिससे फालतू तकलीफ उठानी पड़ी हमें । बड़ा दिल है एमेले रामरूप का, परमात्मा उल्टे हजार बरस की उमर दे ।
एक जगह लिखा था -
आज अब पता लगा कि ऐमेले साब ने खादी संघ, हरिजन सेवक संघ, पंचायत प्रतिनिधि संघ के चिट्ठी पैड काहे बैग में रखवाये थे । हरेक पैड से एक पन्ना फाड़ के उनने मुखमंत्री के लाने हमसे कई चिट्ठी लिखाई कि रामरूप जी को मंत्री मण्डल में सम्मिलित किया जावे । हमें खुषी है कि हम उनके कछु कमा आये ।
हाथ की डायरी खुली हुई हाथ में ही रह गई, और वे अतीत में खो गये ।
राजनीति में उनने रामरूप का पल्ला पकड़ा तो किसी दूसरे में आस्था रखी ही नहीं । घर में पैंतालीस बरसों में बहुत कुछ घटा । तीन बच्चे हुये उनके । गृहस्थी पहले ही गांव से उठकर शहर के हरिजन मुहल्ले में आ चुकी थी । गांव से थोड़ा-मोड़ा अनाज आ जाता तो उसी में वे रूखा-सूखा खा कर अपना गुजारा करते । एक जोड़ी खादी के उजले से धोती कुर्ता वे संभाल कर रखते थे । बाकी अपना और बच्चों का गुजारा जैसा मिल जाता, वैसा खा पहन कर करते रहते । बाद में जेठा लड़का जब कुछ बड़ा हुआ तो खुद ही लेबर सप्लाई की ठेकेदारी करने लगा था । उन लोगों ने गांव से लाकर एक देशी कुत्ता 'मोती'पाला था अपने घर में । वह कुत्ता रूखी-सूखी खाकर भी तगड़ा बना रहा तथा रात को खूब भौंकता था ।
एकाएक एक रात रामरूप को दिल का दौरा पड़ा । उन्हें ब्रेन हेमरेज हुआ और लकवा लग गया । उस दिन संपतप्रसाद की आंखों के आगे तो अंधेरा छा गया था - अब क्या होगा ?
बेचारी भाभी पर बड़ी दया आई उन्हें । एक महीना तक वे अस्पताल में रात दिन हाजिर रहे । हिले तक नहीं। रामरूप को देखने बड़े बड़े नेता और मंत्री लोग आये। इसी अंधेरे से आशा की नयी किरण चमकी । रामरूप के मंझले भाई को पार्टी ने दिल्ली आने की खबर भेजी थी ।
अगले दिन ही मंझला भाई राजरूप दिल्ली रवाना हो गया। तीसरे दिन वह लौटा तो बड़ा प्रसन्न था। पार्टी ने रामरूप जी की लम्बी सेवा और जनता में उनकी आस्था को आधार मानकर सहानुभूति लहर का फायदा उठाने का निर्णय लिया । पार्टी ने राजरूप को टिकट देने का फैसला कर लिया था ।
विधानसभा चुनाव हुये ।
राजरूप भारी बहुमत से जीत गया । रामरूप की तरह चुनावों में उसने भी संपत प्रसाद को भरपूर मान दिया। उन्हीं दिनों देश में दलितों की अपनी पार्टी बनी। संपत प्रसाद के पास प्रस्ताव आया कि वे इस मध्यमार्गी पार्टी की गुलामी छोड़ें और दलितों की अपनी पार्टी में शामिल हो जायें पर वे उसमें नहीं गये ।
अचानक ही प्रदेश के मुख्यमंत्री ने प्रदेश में पंचायत चुनाव की घोषणा कर दी । संयोग की बात, कि इस जिले का पंचायत अध्यक्ष पद दलित जाति के लिये आरक्षित हो गया। जिला पंचायत अध्यक्ष को राज्यमंत्री का दर्जा मिलना था, सो तमाम नये पुराने लोग इस पद के लिये चुनाव लड़ने को अपना मन बनाने लगें।
उनने राजरूप से बात की तो राजरूप ने उन्हें सबके सामने बुरी तरह फटकार दिया । उनका बूढ़ा विद्रोही मन भला कैसे सुन सकता था सो वे राजरूप को छोड़कर तुरंत ही अपने घर चले आये । अपने लोगों की एक बैठक बुलाई और जिले भर में आदमी भेज दिये गये । सब जगह से उन्हें समर्थन मिल रहा था । उनने जिला पंचायत अध्यक्ष बनने के लिये कमर कस ली ।
लेकिन इसके लिये संपत प्रसाद को खुद को बहुत बदलना पड़ा । पहले उसने राजरूप की परवाह किये बगैर राजरूप के केंडीडेट के खिलाफ एक नम्बर वार्ड के सदस्य के लिये चुनाव का पर्चा भरा। खूब मेहनत करके रातदिन एक कर दिये। वे जीत भी गये।
सदस्य पद पर जीतते ही वे राजधानी की ओर दौड़ गये वे अपने पुराने कागज पत्तर लेकर । पार्टी हाई कमान ने उनके दावे को सही माना । वे मुख्यमंत्री से मिले तो मुख्यमंत्री ने बड़ा नेह दिया उनको और वे पार्टी के उम्मीदवार बने । अंतत: बड़े संघर्ष से जिला पंचायत अध्यक्ष बन सके थे वे।
तब यह बंगला, एम्बेसेडर कार, और भरपूर स्टाफ दिया था, शासन ने । कलेक्टर ने उनसे आग्रह किया तो अपनी टूटी-फूटी गृहस्थी का थोड़ा सा सामान लेकर सिविल-लाइन के इस बंगले में आने की हिम्मत नहीं हो सकी थी, उनकी । मन में वे सोचते रहे कि जाने किन-किन जन्मों का पुण्य था जिसके कारण यह राजयोग मिला है, इसे ठुकराना तो अपने भाग्य को ठुकराना है । सो वे एक रात अपने गांव के एक ट्रैक्टर वाले की ट्रॉली में गृहस्थी लादकर बंगले में ले आये थे।
उन दिनों यह बंगला खूब बड़ा लगता था। उन्हें बड़ा और अत्यंत भव्य लगता था । ऐसा भव्य कि इसकी भव्यता के नीचे वे स्वयं को दबा हुआ महसूस करते रहे थे कई दिन तक । उन सबसे ज्यादा परेशान तो कुत्ता मोती था जो अब, सिविल लाइन में आकर कुछ ज्यादा ही उदास हो गया था। अकस्मात किसी आगंतुक को काटना ले इस कारण बंगले में उसे एक पट्टे से बांध कर रखा जाने लगा था। वह धीरे-धीरे भोंकना भी भूल गया।
फिर उन्हें धीरे-धीरे सब कुछ अच्छा लगने लगा था। जिले के हर सरकारी कार्य में वे खास मेहमान होते थे । अंजाने और जाने-पहचाने हजारों लोग उन्हें आदर देने लगे थे। जब बाजार में या किसी शादी-ब्याह में जाते तो हजारों हाथ उनके प्रति नमस्कार के लिये उठते । वे खुद को कुछ खास मानने लगे थे। इस सम्मान के लिये वे मुख्यमंत्री, गांधी बब्बा और बाबा साहब को धन्यवाद देते थे।
एक दिन अकस्मात राजरूप उनके दफतर में टपक बैठा था और उनसे बड़े लपक के मिला था । अनायास ही संपतप्रसाद की एक एक क्रिया पर राजरूप का नियंत्रण होता चला गया। यहां तक कि उनके बगंले के दो कमरो में राजरूप का निजी दफ्तर आकर जम गया, जहां वह नियमित रूप से सुबह-शाम बैठने भी लगा। बंगले की चहार-दिवारी के बड़े ग़ेट पर छोटा सा एक बोर्ड लटक गया था-
''बिना अनुमति प्रवेश वर्जित है।''
सचमुच इस बंगले ने अपने लोगों से दूर कर दिया था उन्हें । गांव के पुराने भाई बंधु, बचपन के हितू और सखा अब बंगले में घुसने का साहस नहीं कर पाते थे। खुद की लोकप्रियता पर विश्वास सा हो चला था उन्हें । एक-आध बार ऐसा भी हुआ कि किसी गांव में साथ-साथ जाने पर राजरूप की बजाय गांव के लोगों ने उन्हें ज्यादा आव-आदर दिया । तब बब्बा के मन में एक बड़ी इच्छा ने नन्हे से अंकुर के रूप में जन्म लिया...........क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वे एमेले का चुनाव लड़ लें................ इतना तो तय है कि वे जरूर ही जीत सकते हैं ।
उनसे जाने कैसे गलती हो गई कि एक दिन अपनी पार्टी के जिलाध्यक्ष से अकेले में वे अपनी इच्छा बता बैठे । फिर क्या था, पूरी पार्टी हैरानी से इस बात पर बहस करने में जुट गयी कि अनपढ़ व पुराने अव्यावहारिक राजनीतिक बिरादरी के खण्डहर संपतप्रसाद उर्फ बब्बा को एमेले का टिकिट देना ठीक होगा कि नहीं ।
उन्हें विश्वास है कि उन जैसा पुराना समाज सेवक जिले भर में और कोई नहीं बचा है, पुराना भी और सिद्धांत वादी भी । उन्हें खुश रखना पार्टी की मजबूरी थी । दलित वोटों के लिये बड़े लुभावने चारे के रूप में पार्टी उनका इस्तेमाल कर रही थी। एक मुखौटा भर थे वे पार्टी के, पर वे कहां समझ पाये ।
राजरूप की कैद में रहने के बड़े कष्ट भोगे हैं उनने । उनके कार्यकाल में उनके आदेश पर जिले भर में हजारों हैण्डपंप लगे, सैकडों सड़कें बनीं , पचासों पाठशालायें बनी और मास्टर से लेकर डॉक्टरों तक की अनगिनत जगहें भरी गयी, पर वे अपनी मर्जी का एक काम भी न करा सके । निज अपने गांव में कोई एक बड़ी चीज न दे सकें । अपने एक भी रिश्तेदार और गांव वाले को किसी छोटे मोटे पद पर बहाल न कर सके ।शुरू में लाल बत्ती की गाड़ी, बड़ा आलीशान बंगला ,ऊंचे अहलदारों की तरफ से रोज की जा रही हजूरी में ऐसे खोये रहे कि और कहीं ध्यान ही नहीं रहा उनका, बाद में सबसे पहले गांव वालों ने दबे ढंके स्वरों में उन्हें रोका ,फिर इलाके के दीगर लोगों ने इशारा किया और अंत में बड़े बेटे नवल और उसकी मां ने खुलकर टोकना शुरू किया तो उन्हें कुछ समझ में आया । हालांकि पत्नी से उन्होने यही कहा कि वे उतने गंदे नहीं हो सकते के विष्टा खाने लगे।
अपने भोलेपन के कारण फिर छले गये वे । अपने गांव का विकास तथा रिश्तेदारों की नौकरी लगाने के लिये उनने राजरूप से कहा तो हंसी उड़ाने के अंदाज में राजरूप बोला- तुम पोंगा के पोंगा रहे संपत, अरे भले आदमी सारे के सारे काम अपने गांव वालों और रिश्तेदारों के करा लोगे तो इलाके के दूसरे लोग तुम्हें क्या वोट देंगें। आगे तुम्हें सिर्फ वार्ड मेम्बरी का चुनाव थोड़ी लड़ना है, तुम तो एमेले का चुनाव लड़ोगे न ,इसलिये पूरे ऐरिया का ध्यान रखो।
एमेले के चुनाव की बात करके उनके मन की दुखती रग को छू लिया था राजरूप ने । सो बब्बा चुप हो गये। उन्हें उस समय का क्या पता था कि बब्बा के एमेले बनने की महात्वकांक्षा से खुद राजरूप सबसे ज्यादा नाराज है ।
घर मे एक दिन नवल ने फिर टोका तो बब्बा ने उन्हें बरज दिया कि राजनीति में ज्यादा दखलंदाजी मती करो। हम ज्यादा जानत हैं की काम अच्छे है और की काम बुरो। हालांकि नवल की मां ने उन्हें राजरूप के बढ़ते जा रहे दखल से उस वक्त उन्हें चेताया था ।
उन्होंने पत्नी के बारे में सोचा कि कहने को ये औरत बिना पढ़ी लिखी ऐसी जनी मान्स है, जिसके बारे में रामायण में शबरी के बहाने से लिखा गया हैं - ''अधम से अधम अधम अति नारी, तिन मह मैं मति मंद गवारी'' लेकिन उन्होंने अनुभव किया है कि यह दुनियादारी की बातें खूब समझती है ।
ठीक उसी क्षण से राजरूप के प्रति गहरी वितृष्णा हो आई थी उन्हें । वे एक दम सक्रिय हो उठे । अपने गांव के लछमन बागला को मूर्ति चोरी के मामले में पुलिस द्वारा झूठा फंसाया जाने पर वे एस.पी. से आग-बबूला हो गये थे और जब एस.पी. ने बताया कि यह सब राजरूप के कहने से हो रहा है तो राजरूप को भी काफी बुरा भला कह डाला था ।
राजरूप ने अपने दुश्मनों को जिन षड्यंत्रों और झूठे प्रकरणों में फंसाया था, एक एक करके बब्बा को सब याद आने लगे थे । मन के किसी कोने में खुद के विरूद्ध भी ऐसे किसी षड्यंत्र का हल्का सा भय पैदा हुआ तो कुछ देर के लिये वे डर गये । जाने शाम तक कैसे उनमें आत्म विश्वास उभरा था कि वे अगली सुबह से बेधड़क होकर अपनी मर्जी से काम करने लगे थे।
लेकिन ऐसा एक सप्ताह तक ही तो चल पाया था । राजरूप ने पलट कर उन पर ऐसे वार किये कि वे सन्न रह गये थे । जिला पंचायत अध्यक्ष के सरकारी बंगले में एक प्रायवेट ठेकेदार के रहने का मुद्दा उठा कर उसने बब्बा के बड़े बेटे को घर से बेदखल कराने का षड्यंत्र रच डाला था । सरकारी एम्बेसेडर के निजी उपयोग के सैकडों प्रसंगों की सूची बना के राजरूप ने कलेक्टर को सौंप दी थी - जिनका जवाब देना बड़ा कठिन लगा था, संपत को ।
ऐसे मे संपत ने तमाम विकल्पों पर विचार किया था - पार्टी के दूसरे गुटों में जा मिलने से लेकर दलितों की पार्टी में चले जाने तक की कल्पना की थी। पर हर विकल्प अधूरा सा लग रहा था उन्हें । अंत में वे इसी रास्ते पर वापस लौटे थे कि राजरूप से ही सुलह-सफाई कर ली जावे, तनाव और विरोध सदा से हानिप्रद रहा है।
एक बार वे फिर राजरूप के शरणागत हो गये थे लेकिन अब की बार उनके साथ युध्दबंदियों सा सलूक हुआ था । राजरूप तो चुप ही बैठा रहा था उस दिन, उसके चेले चमचे ही विष उगलते रहे थे। ऐसी ऐसी शर्ते लाद दी गई थी उन पर, कि जीना भी दूभर हो जाये । एमेले के लिये टिकट मागंना तो दूर की बात पार्टी के किसी भी अधिकारी से मिलने की मनाही कर दी गई उनसे । उनकी ऐम्बेसेडर उनका ड्राईवर ,उनका पी.ए. अब राजरूप की कोठी पर रहने लगा था - वे सिर्फ रबर स्टांप बनकर रह गये थे।
हर रात वे आज की तरह जागते हुये काटते थे। आत्म विषलेशण करते हुये वे स्वयं से पूछने का यत्न करते रहते थे कि एक बार फिर से वे क्यों राजरूप के गुलाम हो गये ?
शायद इस राज्यमंत्री स्तर के पद के लिये या इन सुख-सुविधाओं और ताम-झामों के लिये । रामरूप जी की नमक-हलाली के लिये या खुद में अनायास उमड़ आये सत्ता प्रेम के लिये ! जिससे ता जिंदगी वे और उनकी पीढ़ी के दीगर लोग दूर-दूर रहे । हर रात जागते हुये प्राय: वे उन परिणामों पर भी गौर करते जो वे राजरूप की नाराजगी की वजह से भोग सकते थे ।
खुद पर बड़ा ताज्जुब होता था उन्हें । उनका जन्म से जुड़ा दबंग रवैया जाने कहाँ चला गया था । ठसकेदार आवाज जाने कहाँ बिला गई थी ।
''सचमुच आज की राजनीति उन पैसों के लिये कतई उपयुक्त नहीं बची है,'' यह जुमला हर बार उनके दिल और दिमाग पर छा जाता था ।
महीना भर पहले प्रदेश भर में चर्चा उठी थी कि हर जिला पंचायत को एक-एक करोड़ रूपया दिया जा रहा है - ग्रामीण विकास के नाम पर ।
हर जिले के जिला सभा कक्ष, कार्यालय भवन, जीप, जनपदों के कार्यालय और वाहनों के अलावा इंदिरा आवास योजना जैसी दर्जनों योजनाओं के लिये एक-एक करोड़ दिया जाना था । इस काम का जल्दी से जल्दी टैण्डर निकालकर काम शुरू होना था । शासन ने ऐसा बन्दोबस्त किया था कि पूरा एक करोड़ किसी एक ठेकेदार को सौंपा जाये जिससे सारे काम जल्दी से जल्दी हो सकें ।
फिर क्या था, देश भर में हड़कंप मच गया । जाने कहाँ-कहाँ के किस-किस नस्ल के ठेकेदार अपनी ए.सी. गाड़ियों में बैठकर बब्बा के बंगले पर दुआ-सलाम करने आने लगे । उधर राजरूप तो ऐसे मामलों में दूर की कौड़ी लाता था । उसने जाने कब श्री कंस्ट्रक्शन प्रा. लि. नाम की कंपनी बना ली थी, जिसके निदेशकों में बब्बा के बेटे नवल को भी शामिल कर लिया था । एक दिन पता चला कि राजरूप की भी गिद्ध-नजर इसी एक करोड़ रूपये पर है तो उनका माथा ठनका था । घर पर नवल से बात करी तो पहली बार नवल भी राजरूप के पक्ष में बोला था । वे समझ गये कि निदेशक मण्डल में शामिल होने की वजह से उरचन-खुरचन भी मिली तो चार-छह लाख रूपये से ज्यादा पैसा ही मिलेगा नवल को ।
उनने मन ही मन तय किया था कि चाहे दूसरी कोई कंपनी ठेका लेले वे श्री कंस्ट्रक्शन को ठेका नहीं लेने देंगे ।
एक हफ्ता पहले शासन से एक करोड़ रूपया की स्वीकृति आ गई है और तभी से राजरूप चाहता है इस काम का श्री कंस्ट्रक्शन कंपनी को ही ठेका मिल जाये । पर वे न माने और उनने एक बड़े अखबार में विज्ञप्ति छपा दी है । संपत मानते हैं कि यह एक करोड़ का टेण्डर कल खुलना है । रूपया उनके बाप का नहीं है, जो नाग सा बैठकर वे उसकी रखवाली करें । न ही सरकारी पैसे का गबन रोकने का कोई ठेका उनके पास है, जो इस रूपये के पीछे लट्ठ लिये घूमते रहें । पर सवाल है आटे में नमक और नमक में आटे का । आज जिले में किसी भी विभाग का ठेका क्यों न हो, राजरूप का उसमें जरूर हिस्सा है । सड़क बनाना हो चाहे पुल, खदान का ठेका हो चाहे शराब का, हर जगह राजरूप का आदमी चिपका है । शायद यही होती है नई राजनीति । पूरे प्रदेश में आजकल यही फैशन चल पड़ा है । मन ही मन हिसाब लगाया संपत ने, आज तीस मार्च है, कल टैण्डर खुलेंगे और तुरंत ही रूपया ट्रांस्फर कर देना पड़ेगा । नहीं तो पूरा रूपया वापस हो जायेगा । इकतीस मार्च तो सदैव से वित्तीय वर्ष का अंतिम भुगतान दिन होता है । बीते हुये कल राजरूप उनके पास आया था और संपत की बेरूखी देख कर बड़ा नाराज हुआ था। वह उन्हें सीधे स्वर में धमका गया है कि अगर यह एक करोड़ रूपये का ठेका उसकी कंपनी को न मिला, तो बब्बा के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पक्का है ।
इधर टेण्डर छिनेगा उधर राजरूप आठ दिन के भीतर संपत को गद्दी से उतार फेंकेगा । अविश्वास प्रस्ताव पर आठ लोगों के दस्तखत कराके तैयार करा रखे हैं राजरूप ने । कितना बड़ा अपमान होगा उनका ।
''क्या सचमुच इसे अपमान कहेंगे ......?'' मन ही मन स्वयं से उनने प्रश्न किया था, और कल शाम से ही वे इस प्रश्न से लड़ रहे हैं । पूरी रात बीत चली है । इस रात में अपना सारा अतीत देख डाला है उनने । कहीं कोई खोट, कोई ऐब नहीं मिला है, फिर भी उनकी सीट खतरे में हैं, यह देखकर वे बड़े विस्मित हैं ।
कल उनने मुख्यमंत्री को फोन लगा के इस समस्या का निदान पूछा था । तो उनने टके सा उत्तर दे दिया था - ''विधायक को मिला कर चलो । ''
आखिर वे विधायक के गुलाम हैं क्या ? अपना मूल्य ही कहाँ समझ पाये वे जिंदगी भर । बेकार उसूलों से बंधे रहे ।
नवल सच कहता है कि उसूलों के लिये फालतू जिंदगी गंवा दी उनने ।
भोर हो चली थी ।
पंछी चहचहाने लगे थे । बाहर उजास फूट रही थी ।
यकायक वे उठे और बरामदे में चले आये । उन्हें देखकर मोती बड़े लाड़ से भोंका - भौं-भौं-भौं !
वे झुककर मोती के पास बैठ गये, उसका गला सहलाया और धीरे से उसका पट्टा खोल दिया ं
बड़ी अविश्वसनीय सी निगाहों से मोती ने उन्हें देखा । अपने कान फटकारे । एक जोरदार अंगड़ाई ली बब्बा की अनुभवी आंखों में देखा कि उसकी आंखों में मुक्ति का अहसास था ।
वे मुस्कराये । उठकर कुछ दूर खड़े हो गये । मोती ने एक बार और अंगड़ाई ली फिर फुर्ती से एक लम्बी छलांग लगाई और चहारदीवारी पार करके सीधे सड़क पर जा खड़ा हो गया ।
मोती ने एक क्षण मुड़कर बंगले को उदासीन भाव से ताका और दूसरे ही क्षण निर्मोही सा हो कर वह गांव की दिशा में दौड़ता चला गया ।
बब्बा आने मन को बड़ा खुला और हल्का सा महसूस कर रहे थे । वे अपनी प्रात: क्रिया में व्यस्त हो गये ।
प्रात: ग्यारह बजे थे ।
कलेक्टर के चैम्बर में टेबल के सामने बैठे बब्बा के हाथ का पत्र देखकर कलेक्टर अचंभित थे - बब्बा आप क्या कर रहे हो ?
कलेक्टर ने और कुछ पूछने का यत्न किया पर हाथ के इशारे से बब्बा ने बरज दिया और उन्हें विस्मित सा खड़ा छोड़कर चैम्बर से बाहर निकल आये ।
उन्हें पैदल चलते देख ड्राइवर दौड़ा आया ''पैदल कहां चल दिये आप । हम गाड़ी ला रहे हैं । ''
'' न लला, हम पैदल जैहें । हमने इस्तीफा दे दिया है अबई हाल । खुशी रहो तुम ।'' एक क्षण रूककर बब्बा ने ड्राइवर पर प्यार भरी नजर डाली और उसे भौंचक्का खड़ा छोड़कर चल पड़े ।
सड़क पर चलते हुये उनने महसूस किया कि वे तो जमीन पर चलना भी भूल चले थे । जमीन तो सबकी मां है । सब की जड़ें जमीन में ही तो होती हैं । उन जैसे जमीन पर काम करने वाले आदमी के लिये तो जमीन से जुड़ा रहना उतना ही जरूरी है जितना जिंदा रहने के लिये हवा से जुड़ा रहना । यह याद करते ही उनमें उछाह भर उठा । वे खरामा-खरामा चल पड़े । जमीन पर पड़ता हर कदम उन्हें ताकत देता महसूस हो रहा था ।
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रचनाकार परिचय-
राजनारायण बोहरे
जन्म
बीस सितम्बर उनसठ को अशोकनगर मध्यप्रदेश में
शिक्षा
हिन्दी साहित्य में एम. ए. और विधि तथा पत्रकारिता
में स्नातक
प्रकाशन
' इज्ज़त-आबरू ' एवं ' गोस्टा तथा अन्य कहानियां'
दो कहानी संग्रह और किशोरों के लिए दो उपन्यास
पुरस्कार
अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता 96 में पच्चीस हजार रूपए
के हिन्दी में एक कहानी पर अब तक के सबसे बड़े पुरस्कार से
पुरस्कृत
सम्पर्क
एल आय जी 19 , हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी दतिया-475661
07522-506304
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