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(लूजर्न स्थित 800 साल पुराना लकड़ी का पुल और पानी के बीच टॉवर) द्वितीय किश्त | तृतीय किश्त | अंतिम किश्त यात्रा - वृत्तांत -सोमेश शेखर ...

(लूजर्न स्थित 800 साल पुराना लकड़ी का पुल और पानी के बीच टॉवर)
द्वितीय किश्त | तृतीय किश्त | अंतिम किश्त

यात्रा - वृत्तांत

-सोमेश शेखर चन्द्र

दिल्ली के इंदिरागाँधी एयरपोर्ट से हमारी यात्रा, रात पौने तीन बजे शुरू हुई थी। सुबह, वहाँ के समयानुसार हम पौने सात बजे जर्मनी के फ्रैंकफुर्त हवाई अड्डे पर उतरे थे। दरअसल, यह उड़ान करीब सात घंटे की थी लेकिन जर्मनी और भारत के समय में करीब साढ़े तीन घंटे का अंतर होने के चलते फ्रैंकफुर्त में उस समय सुबह के पौने सात बज रहे थे। फ्रैंकफुर्त से जूरिख की हमारी उड़ान, डेढ़ घंटे बाद थी इसलिए हम अपनी अगली उड़ान वाले टर्मिनल के लाउंज में अपना सामान रखकर मंजन आदि करके थोड़ा नाश्ता पानी कर लेने का मन बनाए थे। जर्मनी का फ्रैंकफुर्त हवाई अड्डा बहुत बड़ा है और इसमें दो टर्मिनल है। जिस टर्मिनल में हम उतरे थे वहाँ से हमें दूसरे टर्मिनल में अपनी अगली उड़ान पकड़ना था। दूसरे टर्मिनल में पहुँचने के लिए, यहाँ दो-तीन डिब्बों वाली ट्रामनुमा ट्रेन चलती है उसी में बैठकर हम दूसरे टर्मिनल में पहुँचे थे। जर्मनी का यह हवाईअड्डा, अन्तर्राष्ट्रीय हवाईअड्डा है लेकिन, यहाँ पर न तो पीने के लिए पानी कहीं मिलता है और न ही इतनी भीड़-भाड़ वाली जगह, में इससे मेल खाते टॉयलेट और बाथरूम की सुविधा ही बनाई गई है। बीच-बीच में छोटी-छोटी दुकानें बनी हैं जिसमें फ्रिज में बोतल बंद पानी, कोक, फ्रूट जूस जैसे पेय आदि बिस्कुट और चॉकलेट मिलता है। पानी की बोतल लेना हो, तो उसमें निर्धारित यूरो डालने से बोतल बाहर आ जाता है। यात्रियों को सबसे बड़ी समस्या यहाँ चिल्लर यूरो की होती है। फ्रिज के की-बोर्ड, में निर्देश जर्मन में लिखा होता है इसलिए उसे समझ पाना मुश्किल होता है। कुशल यह था कि दिल्ली से चलते समय, हमने दो बोतल पानी अपने पास रख लिया था। बेटे ने हमें पहले ही ताकीद कर दिया था कि फ्रैंकफुर्त हवाई अड्डे पर पानी की बड़ी किल्लत होती है इसलिए हम बोतल बंद पानी अपने पास रख लिये थे। यहाँ एयरपोर्ट पर दूसरे एयरपोर्टों की तरह, जगह-जगह टेलीफोन बूथ तो लगे हैं लेकिन छुट्टा पैसों के चलते और भाषा की बाधा के कारण कहीं टेलीफोन कर सकना भी संभव नहीं होता है। इन सब असुविधाओं के अलावे, जो सबसे बड़ी असुविधा यहाँ पर है, वह है टॉयलेट की । सुबह का समय, हमें हाजत महसूस हो रही थी। संडास घर की तलाश करते-करते, काफी दूर निकल गया तो एक जगह संडास दिखा। वहाँ काफी भीड़ थी। संडास करने के लिए अन्दर, सिर्फ दो ही सीटें थी, उसी में लोगों को छोटा और बड़ा दोनों काम निपटाना था इसलिए वहाँ भीड़ लगी थी। औरतों की तरफ तो और भी लम्बी लाइन लगी थी। हवाई जहाज में निपटने के लिए उठा था तो वहाँ भी काफी भीड़ थी इसलिए सोचा गया कि चलकर हवाई अड्डे पर फारिग हो लिया जाएगा। यहाँ की यह दुर्व्यवस्था देखकर हमें अपने यहाँ के हवाई अड्डों की याद आई। दिल्ली हवाई अड्डे पर, इस काम के लिए, जितनी अच्छी व्यवस्था और साफ सफाई है उसकी तुलना में यहाँ की व्यवस्था काफी अपर्याप्त और लचर थी।

यहाँ पर जो बात मुझे सबसे ज्यादा अखरी थी, वह थी, यहाँ तैनात कर्मियों की संवेदनहीनता और उनका उजड्डपन। हमें जिस लाउंज से जूरिख के लिए उड़ान पकड़ना था, उसमें जाकर बैठ गये। डेढ़ दो घंटे हमे वहीं काटना था। लेकिन हमारी उड़ान के पहले, एक और उड़ान वहाँ से थी इसलिए हमें वहाँ से हटकर दूसरी जगह चले जाने को कहा गया था। हम वहाँ से हटकर दूसरे लाउंज की खाली जगह में बैठे तो वहाँ से भी एक उड़ान का समय हो गया था। वहाँ से भी हमें हटना पड़ा। वहाँ से हटकर हम लाउंज के बाहर आए, तो मुझे लाउंज के भीतर सुबह का अखबार दिखा। सोचा तब तक थोड़ा अखबार पढ़ते हैं। अखबार उठाने के लिए अन्दर जा ही रहा था, तो वहाँ मौजूद लेडी स्टाफ मुझपर बड़बड़ाती मेरे पास आई थी और मुझे बाहर निकल जाने को कहा था। इसी तरह वहाँ तैनात स्टाफ को दूसरे यात्रियों को भी झिड़कते और उन पर चिल्लाते हुए देखा था।

फ्रैंकफुर्त से जूरिख एक घंटे की उड़ान थी। जूरिख हवाई अड्डे पर उतर कर हम लोगों को, विदेशियों की लाइन में लगकर कुछ औपचारिकताएँ पूरी करना था। औपचारिकताएँ पूरी करने के बाद, हम बाहर निकलने के लिए आगे बढ़े तो देखा शीशे के उस पार हमारी बहू और बेटा, हमारा इन्तज़ार करते खड़े थे। लेकिन मैं अभी थोड़ी ही दूर बढ़ा था, कि वहाँ का एक स्टाफ मेरे सामने खड़ा होकर मुझे रोक लिया था। उसने जर्मन मे मुझसे कुछ पूछा था। क्या पूछा था, उसकी बात मेरी समझ में नहीं आई थी। दरअसल उसके, अचानक से अपने सामने प्रकट हो जाने से मैं थोड़ा असहज हो उठा था। कार्ट रोक कर मैं उसे सवालिया नजरों से देखता खड़ा हुआ था तो वह बड़ी कमजोर अंग्रेजी में और उससे भी ज्यादा कमजोर लहजे में, जैसे वह मुझसे डर रहा हो, करीब-करीब हकलाता हुआ सा मुझसे पूछा था, आपके बक्से में क्या-क्या सामान है? मैंने उसे बताया इसमें क्लादिंग्स है। क्लादिंग्स...? क्लादिंग्स का नाम सुनते ही वह चौक गया था। यह क्लादिंग्स भला क्या चीज होती है? मैंने उसे अपनी चुटकी से, अपनी पहनी कमीज और पैंट हिलाकर उसे समझाया था, ``यह सब`` । ओ % % % ........ इसके बाद उसने मुझसे पूछा था और क्या है इसमें? मैं इसे चेक करूँगा। आप बेशक चेक कर सकते है, हालांकि मैं उससे कह तो दिया था कि आप सामान बेशक चेक कर सकते हैं और उन्हें चेक करवाने के लिए मैं अपनी अटैची कार्ट से उतारने भी लग गया था, लेकिन सच बात यह थी कि मैं भीतर से बुरी तरह डर गया था। जब इस शख्स की समझ में क्लादिंग, जैसे अंग्रेजी के आसान शब्द के माने नहीं आया, तो अटैची खुलने के बाद भीतर बच्चों के लिए जो मैंने मसाला, आचार, गुझिया, मिठाइयाँ, सत्तू, बेसन, चावल का आटा ठूंस रखा है उसे यह क्या समझेगा? और उसे मैं उन चीजों के बारे में समझाऊँगा कैसे? मुझे लगा था अब यह सामान चेक करेगा और इतनी मेहनत से तैयार की गई चीजें, या तो फेंक देगा या जब्त कर लेगा। आप कहाँ जायेंगे? सामान चेक करने की बजाए, उसने मुझसे मेरे गंतव्य के बारे में पूँछ लिया था। मैंने उसे बताया था जुग। जुग ? मेरे जुग बताने पर वह फिर उसी तरह चौंक उठा था। दरअसल जुग स्विटजरलैण्ड का एक प्रांत है, मुझे उसे अपने ठहरने का पता बताना था। लेकिन पता मेरी डायरी में लिखा हुआ था इसलिए मैंने बताने के लिए उसे जुग बता दिया था। लेकिन इस बीच पता नहीं, उसे क्या सद्बुद्धि आई, उसने मुझसे पूछा क्या आप दो आदमी हैं? मैंने उससे हाँ कहा तो वह मुझे ओ०के० कहकर छोड़ दिया था। इतनी देर में पत्नी बच्चों के पास पहुँच कर, उनसे अपनी पीठ ठोंकवा रही थी, देखो मैं कितनी तेज हूँ, कि सबको गौंटे कटाकर बाहर निकल आई और तुम्हारे पापा, अपने लल्लूपने के चलते, उसके फंदे में फंस गये। बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तो माएँ शायद इसी तरह तेज हो जाती है। बाहर निकलकर आया तो बच्चे मुझपर बिगड़ गए। वहाँ क्यों झूठ मूठ का खड़े हो गये? उसे अनदेखी करके भाग आना था। मैं उन्हें क्या बताता कि मैं वहां-कहां खड़ा हुआ था वही आकर मुझे पकड़ लिया था।

स्विटजरलैंड के समय के मुताबिक, उस समय सुबह के १० बज रहे थे। ज्यूरिख से कुछ दूरी पर राइन नदी होकर गुजरती है। एक जगह वह पहाड़ से नीचे गिरती है। बच्चों ने कहा, अगर आप लोग कहें तो हम लोग राइन फाल देखते चलते है। थकावट ज्यादा नहीं थी। फ्रैंकफुर्त हवाई अड्डे पर, घर से लाया गुझिया, अंगूर और केलों का पुष्ट नाश्ता हो चुका था। हवाई जहाज में भी कुछ हल्का फुल्का खाने को मिल गया था इसलिए भूख भी नहीं थी और हम लोग हवाई अड्डे से ही राइन फाल देखने चले गये थे।

राइन नदी का यह फाल, स्विटजरलैंड की देखने वाली जगहों में से बड़ी ही खूबसूरत जगह है। हवाई अड्डे से बाहर निकलकर जब आबादी पार करके, पहाड़ों के बीच से हमारी कार गुजरने लगी थी, तो देखा दूर तक हरियाली से आच्छादित पहाड़ियाँ, यहाँ के लोग, सड़कें और बस्तियाँ, भारत के शहरों और कस्बों से एकदम अलग थी। नई जगह वैसे भी खूबसूरत लगती है और जब वहाँ प्राकृतिक सौन्दर्य बिखरा पड़ा हो तब तो वह और भी खूबसूरत लगने लगती है। लेकिन उस समय, जो दृश्य मेरी आँखों के सामने से गुजर रहे थे, वे खूबसूरत तो थे, लेकिन सम्मोहन नहीं था उनमें। दरअसल मैं उन नज़ारों की तुलना अपने यहाँ के उत्तरांचल, हिमांचल और कश्मीर की खूबसूरती से करने लग गया था और जो कुछ मैं वहाँ देख रहा था, वह, सब भारत की उन खूबसूरत जगहों की तुलना में मुझे जम नहीं रही थी।

राइन फाल और इसके ईद-गिर्द, दूर तक पसरा सौन्दर्य बड़ा ही सम्मोहक है। सबसे बड़ी विशेषता यहाँ जो देखने को मिली, वह यह कि, राइन नदी के किनारे-किनारे यहाँ के लोगों ने, जहाँ से नदी समतल जमीन पर बह रही होती है वहाँ से शुरू करके, जहाँ यह नीचे गिरकर झील में बदल जाती है, वहाँ तक पहाड़ी को काटकर कहीं-कहीं सीढ़ीदार और कहीं-कहीं पर सपाट रास्ता बना दिये हैं। इन्हीं रास्तों पर बीच-बीच में लकड़ी का प्लेटफार्म, बनाकर उसे लोहे की छड़ों से घेर दिए है। इन प्लेटफार्मों पर खड़ा होकर, हा-हा-करती बहती राइन नदी, इसका फाल और दूर तक पसरे इसके सौन्दर्य को, बड़े अच्छे से देखा जा सकता है। इसका प्रवेश द्वार अपने यहाँ, जिस तरह राजमहलों के प्रवेश द्वार हुआ करते थे, उसी तरह काफी ऊँचा बना है। यह प्रवेश द्वार करीब पांच सौ साल पहले बनाया गया था। द्वार के ठीक ऊपर इसके बनने का वर्ष १५३७ लिखा हुआ है। इतना ही नहीं प्रवेश द्वार के बगल ही, बगुले की गर्दन की तरह, पानी की एक पीतल की टोंटी लगी हुई है। इस टोंटी से चौबीसों घंटे पीने का ठंडा, साफ पानी बहता रहता है। हम लोग टोंटी से गिरते पानी की धार में, अपना मुँह लगाकर इसका पानी पिये। यह पानी काफी मीठा, ठंडा और साफ था।

सीढ़ियों से नीचे उतरकर हम लोग उस तरफ गए जिस तरफ, से राइन नदी आ रही थी। दूसरी पहाड़ी नदियों की तरह, इसके भी पाट चौड़े नहीं थे लेकिन इसमें इतना पानी था और इतने बेग में बह रहा था जैसे लगता था कि यह क्रुद्ध होकर अपने आगे का सबकुछ मटियामेट कर देने को तत्पर हो। आगे बढ़ने पर जिस जगह इसका पानी पहाड़ से, हा-हा करता नीचे गिर रहा था, वहाँ देखने से मन में दहशत सी होती थी। वहाँ इसका रूप बड़ा विकराल और रौद्र हो गया था। लगता था कोई विकराल राक्षस क्रुद्ध होकर अपने भीतर से फ़व्वारे छोड़ रहा है। हम लोग प्लेट फार्म पर खड़े थे और नदी के धार के काफी करीब थे। इसकी विकरालता को देख हमें लगता था कि हम यहाँ खड़े होकर इसकी शान में गुस्ताखी कर रहे है और हमारी इस गुस्ताखी के लिए यह किसी भी क्षण अपनी जीभ लपका, हमें झपट कर अपने भीतर घुसेड़ लेगी। वहाँ से थोड़ा और नीचे उतरने पर हम उस जगह गये थे जहाँ पर नदी का पानी जमीन पर गिरता है। इस जगह का दृश्य बड़ा ही रोमांचक और अनूठा था। नदी का पानी, जमीन पर गिरकर ऊपर उठता था, काफी ऊपर और उसके बाद इसकी बौछारें और पानी की छोटी-छोटी कनियाँ, काफी ऊपर हवा में तैरकर कोहरे जैसा छाई हुई थी। सूरज उस समय चमक रहा था। उसकी किरणें पानी की कोहरे की तरह तनी घनी कनियों पर पड़ने से, उसमें काफी बड़ा इन्द्रधनुष तना दिखाई पड़ रहा था। यह इन्द्रधनुष हमारे इतना करीब था कि मन कहता था कि उसे हाथ बढ़ाकर पकड़ लूँ। उस दृश्य को देखकर मैं भीषण रूप से रोमांचित था। आकाश में तना इन्द्रधनुष, इसके पहले मैं बहुत देख चुका था लेकिन, हाथ लपकाने भर की दूरी पर तना इन्द्रधनुष देख मैं स्तब्ध था। मुझे लगा था, प्रकृति कुशल जादूगर की तरह वह दृश्य मेरी आँखों के सामने तान, मुझे मंत्र मुग्ध करके बिना किसी गुमान के तटस्थ मेरे पास खड़ी है। बड़ा अद्भुत दृश्य था वह।

वहाँ से थोड़ा और नीचे उतरने पर, यह नदी उतनी ही शांत और सौम्य हो गई थी। इस जगह, यह एक बड़ी झील में बदल गई थी। उस झील में जैसा यहाँ की दूसरी झीलों में होता है, बड़ी छोटी सभी तरह की नावें चल रही थी। झील में सब कुछ इतना सामान्य चल रहा था कि, उसे देखने से लगता ही नहीं था कि वहाँ से कुछ गज की दूरी पर झील में बदल गई वह नदी अपने इतने विकराल रूप में मौजूद है जिसे देखकर दिल दहशत से भर उठता है। झील में तैरती खूबसूरत नावें, बड़ी मनोहारी दिखती थी। कुछ नावें, सैलानियों को लेकर झील के उस हिस्से तक आ जा रही थीं जहाँ नदी का पानी जमीन पर गिरता था। दरअसल नदी के दूसरे पाट की तरफ, नदी जहाँ गिरने के पहले अपने पूरे वेग और रौद्र रूप में दिखती है, वहाँ पत्थरों के छोटे बड़े कइयों टीले है। करोड़ों वर्षों से बहता नदी का पानी, अपने रास्ते के पत्थरों को काट दिया है। उन्हीं पत्थरों में से कुछ पत्थर अभी बचे रह गए है। नदी का भयानक बेग, उन्हीं पत्थरों में बनी सुरंगनुमा जगह से गुजरता है। सैलानियों को उन पत्थरों तक पहुंचने के लिए सीढ़ियाँ बना दी गई है। उन सीढ़ियों से, पत्थरों के ऊपर, जाकर सैलानी नदी का रौद्र रूप देख रहे थे। हम नदी के दूसरे पाट पर थे इसलिए वहाँ पहुंचने की गुंजाइश नहीं थी। काफी देर तक हम लोग वहाँ के चमत्कृत कर देने वाले दृश्य को देखते खड़े रहे थे। आदमी हमेशा से ही ख़तरों से खेलता आया है। यहाँ भी उसी तरह का कोई जांबाज, जहाँ नदी अपने रौद्र रूप में हा-हा करके बह रही थी, उस खतरनाक जगह से, इसे पार करने की कोशिश किया था। लेकिन धार के बीच में पहुंच कर वह, अपने को संभाल नहीं पाया था और नदी में बहकर मर गया था। उस आदमी की याद में जिस जगह तक वह पहुँचा था, वहाँ एक क्रास लगा दिया गया है।

वहाँ से निकलकर हम बाहर आए थे। ऊँचे प्रवेश द्वार की बगल में एक

रेस्तरां था। उस रेस्तरां में कइयों सैलानी बैठ कर, आराम करने के साथ-साथ, हल्का-फुल्का नाश्ता करने में जुटे हुए थे। यहाँ पर वैसे चिड़ियाँ मुझे कइयों दिखी थी लेकिन उनमें से कोई चिड़िया ऐसी नहीं थी, जो भारत में दिखाई पड़ती हैं। लेकिन रेस्तरां की बेंचों पर बैठे सैलानियों के बीच भारत में अमूमन हर जगह दिखने वाली, गौरैया चिड़िया काफी तादाद में फुदकती दिखाई दी थी। वे सैलानियों के बीच बड़ी निर्भीक होकर कभी उनके पावों के पास तो कभी बेंचों पर ठीक उनके सामने से, उनके गिराए जूठन उठा लेती। और किसी किसी गौरैया को तो देखा कि वह लोगों की प्लेटों में रखे भोजन पर, चोंच मारने से नहीं हिचकती थीं। लोग भी थे कि उन्हें ऐसा करते देखने की ललक में, उन्हें पूरी छूट दे रखे थे।

दो ढाई घंटे राइन नदी का वह अद्भुत दृश्य देखने के बाद, हम अपने घर चले आये थे। हमारा डेरा, अपार्टमेंट के चौथे तल्ले पर था। उसमें छोटी सी एक बालकनी थी। उस अपार्टमेंट के सभी वासिंदे विदेशी थे। उसमें भारत से हम सिर्फ एक ही परिवार थे। बाकी के सभी परिवार वोहनियर थे। हमारी बालकनी से बगल, ठीक नीचे जो परिवार था, उसमें दो छोटे बच्चे और पति पत्नी रहते थे। यहाँ लोग एक ही मकान में रहते जरूर हैं लेकिन कोई किसी से बात नहीं करता। बालकनी में खड़ा होने से, दूर-दूर तक फैली पहाड़ियाँ, मकान की छतें और घरों के फूलों से भरे लॉन दिखाई पड़ते थे। बाहर का दृश्य देखने के लिए जब मैं अपनी बालकनी में खड़ा हुआ तो नीचे अपनी बालकनी में बोस्नियन दंपति बच्चों के साथ बैठे हुए थे। मुझे बाहर खड़ा देख वे दोनों अंदर चले गये थे लेकिन उनके छोटे, ४ और ६ साल के बच्चों को, मुझे देख कुतूहल सा हुआ था। वे मुझे देखते और भागकर अपने घर में घुस जाते। थोड़ी ही देर में वे फिर मुझे दीवाल की ओट से झांकने लगते। इसी झांका-झांकी में थोड़ी ही देर में मेरी उनसे दोस्ती हो गई थी लेकिन सिर्फ दूर से ही।

यहाँ पर साल के छ: महीने प्राय: बर्फ पड़ती है। इसलिए यहाँ के मकानों की छतें भारत की तरह समतल नहीं होती। यहाँ की छतें खपरैल घरों की तरह ढलवा होती है। रिहायश के मकान, ज्यादातर लकड़ी के बनाये जाते हैं। बड़ी बिल्डिंग और कॉम्प्लेक्स कंकरीट के बनते हैं। भारत की तरह यहाँ ऊँचे और गगनचुम्बी मकान नहीं दिखाई पड़ते। पांच-छ: तल्लों से ऊँचे मकान, मैंने यहाँ नहीं देखे। जिस मकान में हम रहते थे वह चार तल्लों का था लेकिन समूचा लकड़ी का बना था। ठंडी के दिनों में बर्फीली ठंड हवा से बचाव के लिए, यहाँ मकानों की दीवारों के बीच फाइबर का मोटा गत्ता लगा दिया जाता है जो बाहर की ठंडी हवा भीतर घुसने से रोकता है। भीतर गर्म रखने के लिए कमरों में तीन-चार पाइपों का जाल बिछा दिया जाता है जिसमें गर्म पानी बहता रहता है। इसके चलते कमरों के भीतर गर्मी बनी रहती है। यह व्यवस्था लेकिन अब पुरानी पड़ चुकी है। जो मकान काफी पुराने है उसी में यह व्यवस्था है। नये मकानों में लोग अब ए०सी० लगवाते है। हमारे अपार्टमेंट के ठीक सामने से सड़क गुजरती थी जिस पर दिन भर ट्रैफिक रहता था। यहाँ घर के अन्दर से लेकर बाहर, जहाँ तक आदमी का ताल्लुक है, वहाँ तक की सारी व्यवस्था देख, मैं चमत्कृत था। घर के अंदर चौबीसों घंटे ठंडा और गर्म पानी नलों में आता रहता है। किसी भी घर में पानी की अपनी निजी टंकी नहीं होती। ठंडा पानी सरकारी तंत्र से सप्लाई होता रहता है। हर घर में पानी गर्म करने की अलग व्यवस्था होती है, उसमें से गर्म पानी नलों में चौबीसों घंटे मिलता रहता है। घर के कचरे लोग अपने घरों से निकाल कर बाहर खुले में नहीं फेंकते। सभी घरों के बासिंदे, अपने घर के कचरे, जिसमें सब्जी का छीलन, कूड़े कचरे और इसी तरह के दूसरे कचरे, एक थैले में तथा प्लास्टिक की बोतलें, पालिथीन की पन्नियाँ और दूसरे काँच और लकड़ी के टूटे फूटे सामान, दूसरे थैले में जमा करते जाते है। सप्ताह के निर्धारित दिन थैले का मुँह बाँधकर वे उसे एक निर्धारित जगह रख आते हैं। कचरा ढोने वाले लोग आते है और उसे ट्रकों में भरकर ले जाते हैं।

गंदगी के नाम पर मुझे न तो यहाँ की सड़कों पर और न ही घरों में कहीं कोई छोटा सा कागज का टुकड़ा तक कहीं दिखाई पड़ता था। जिस तरह यहाँ के घर साफ-सुथरे रहते हैं उसी तरह यहाँ की सड़कें, बाजार, बस अड्डे और रेलवे स्टेशन जैसी भीड़-भाड़ वाली जगहें भी साफ देखा। यहाँ का आकाश भी एकदम साफ रहता है। उसमें धुआँ या धूल गर्द का कहीं नामोनिशान तक नहीं दिखता। चाँद निकलता है तो वह काफी बड़ा दिखता है। लगता है सोने की सुनहली, बड़ी परात, आकाश में टांग दिया गया है। सुबह का सूरज भी उसी तरह, बड़ी सोने की परात की तरह टंगा दिखाई पड़ता है।

थोड़े ही दिनों में मुझे यहाँ, सब कुछ एकदम धुला पुँछा, और साफ सुथरा क्यों रहता है? इसका राज मेरी समझ में आ गया था। यहाँ का आकाश और समूचा पर्यावरण इसलिए साफ सुथरा रहता है कि यहाँ की जमीन और पहाड़, घास और पेड़ों से ढंपे हुए हैं। तीन चार दिनों के अंतराल पर, यहाँ पानी बरसता रहता है इसलिए यहाँ के आकाश में धूल धक्कड़ होने की कहीं गुंजाइश नहीं होती। पर्यावरण में सबसे ज्यादा प्रदूषण कल कारखानों से होता है। खास करके उन कारखानों से जो कोयले से चलते है। यहाँ पर मुझे कहीं भी कारखानों की धुआँ उगलती चिमनियाँ नहीं दिखीं। पहले तो मैंने अनुमान लगाया था कि यहाँ पर बड़े कारखाने होंगे ही नहीं लेकिन बाद में मुझे पता चला कि यहाँ पर छोटे बड़े सभी तरह के कारखाने पूरे स्विटजरलैंड में लगे हैं और वे संख्या में बहुत है लेकिन वे कारखाने, कोयले के ईधन से नहीं, बल्कि बिजली से चलते हैं। बिजली यहाँ, अणु ईधन और पहाड़ों के पानी से पैदा की जाती है। यहाँ लोग अणु और पानी से इतनी ज्यादा बिजली पैदा करते हैं कि अपनी जरूरतें पूरी करने के बाद, उनके पास इतनी बिजली बची रहती है कि उसे वे जर्मनी और इटली जैसे पड़ोसी देशों को बेचते हैं। घर के मल जैसे कचरों को वे नदियों में बहने को नहीं छोड़ देते। उन्हें बहाने के पहले वे तब तक उसे साफ करते हैं जब तक वह पीने लायक नहीं हो जाता। इसलिए यहाँ के नालों और झीलों का पानी इतना साफ और पारदर्शी होता है कि आठ-दस फीट गहरे पानी के नीचे की जमीन एकदम साफ दिखाई पड़ती है।

यहाँ सीवेज के मल की औद्योगिक तथा दूसरे घरेलू कचरों की साफ सफाई और निस्तारण की कैसी व्यवस्था है यह तो मैंने नहीं देखा, लेकिन आदमी जहाँ रहे और खासकर भीड़-भाड़ वाली जगहों पर गंदगी और कचरा न हो, यह कैसे संभव है? लेकिन यहाँ दुकानों से लेकर बाजारों तक, बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों पर तथा झीलों के किनारे, जहाँ लोगों की भीड़ होती है वहाँ भी, सब जगह इतना साफ है कि, कागज का एक टुकड़ा जमीन पर पड़ा न दिखे, यह प्रश्न, किसी पहेली की तरह, मेरी जेहन में चक्कर काट रहा था? लेकिन मुझे अपने इस प्रश्न का जवाब, थोड़े ही दिनों में खुद ब खुद मिल गया था। जो कुछ मैंने यहाँ देखा था, वह यह नहीं था कि यहाँ के लोग बड़े सफाई पसंद है इसलिए यहाँ चारों तरफ सब कुछ एकदम साफ सुथरा और चक चक करता रहता है। या कि यहाँ की व्यवस्था इतनी मुस्तैद रहती है कि अगर, कागज का एक छोटा सा टुकड़ा किसी ने फेंक दिया तो, साफ करने वाले उसे दौड़कर उठा लेते हैं। ऐसी व्यवस्था यहाँ मुझे कहीं दिखाई ही नहीं दी। दरअसल यहाँ की सफाई का राज यह था, कि यहाँ के लोग, न तो खुद कागज का एक छोटा सा भी टुकड़ा जमीन पर फेंकतें हैं और न ही ऐसा करने वालों को वे बर्दाश्त ही करते हैं। यहाँ सड़कों के किनारे तथा दूसरे भीड़ भाड़ वाली जगहों में कूड़ेदान रखे हुए होते है। लोग कचरे को कहीं फेंकतें नहीं, बल्कि जगह-जगह लगे कचरे के डिब्बों में डाल देते है। यदि किसी को अगल-बगल कोई कचरे का डिब्बा नहीं दिखा, तो वह कचरा कागज में लपेट कर अपनी जेब में डाल लेता है और उसे जहाँ कचरे का डिब्बा दिखता है उसमें डाल देता है। अगर कहीं कचरे का डिब्बा नहीं दिखा तो वह उसे अपने घर ले जाता है। कचरे को जहाँ तहाँ फेंकना यहाँ कानूनन जुर्म है। ऐसा करना भारत में भी कानूनी अपराध है लेकिन यहाँ लोग, पान और खैनी मुँह में भरे रहेंगे और चलते-चलते कहीं भी पच्च से थूक देंगे। उनका थूक किसके ऊपर पड़ेगा और जिसके ऊपर पड़ेगा उसकी क्या हालत होगी इसका उन्हें जरा सा भी ख्याल नहीं रहता। यदि उन्हें इसके लिए किसी ने टोंक दिया, तो वे उससे माफी मांगने की बजाए मरने मारने पर उतारू हो जाते है जैसे ऐसा करना उनका जन्मसिद्ध अधिकार हो। सार्वजनिक जगहों पर लोग क्या करते हैं उसे बताने की जरूरत नहीं है। अपने घर का कचरा अपनी चहार दीवारी से बाहर सड़क पर उछाल देते हैं या ऊपर छत से नीचे फेंक देते हैं। ऐसा करते समय वे थोड़ा सा भी नहीं सोचते कि सड़क से कोई गुजर रहा होगा। लेकिन स्विटजरलैंड में न तो यहाँ का कानून और न ही यहाँ के लोग और समाज ही ऐसी टुच्ची हरकत बर्दाश्त करता है। यहाँ पर तो लोग इतना तक करते हैं कि जब वे अपने कुत्तों को लेकर सड़कों पर घूमने निकलते हैं तो छोटी सी खुरपी और पालीथीन का बैग अपने साथ रखते हैं। ऐसा वे इसलिए करते हैं कि कुत्ता यदि रास्ते में टट्टी कर दे, तो, उसकी गंदगी खुले में पड़ी न रह जाय इसके लिए वे उसका मल खुरपी से उठाकर पालीथीन में रख लेते हैं और जिस जगह कचरे का डिब्बा मिला उसमें जाकर डाल देते हैं। एक भारतीय परिवार, जो स्विटजरलैण्ड में रहता था उसने मुझे अपना एक अनुभव सुनाया था, वाकया कुछ यूँ था कि एक दिन सज्जन अपने परिवार के साथ कार में कहीं घूमने जा रहे थे। रास्ते में उनके एक बच्चे को टट्टी लग गई। उनकी पत्नी ने सोचा इसे किसी झाड़ी की ओट में बैठा कर फारिग करवा देते है। वे उसे एक झाड़ी की ओट में बैठा कर खुद उससे थोड़ा हटकर खड़ी हो गई। इसी बीच उधर से एक स्विस नागरिक अपनी कार से गुजर रहा था। बच्चे को झाड़ी की ओट में बैठा देख वह समझ गया कि बच्चा वहाँ टट्टी कर रहा है। अपनी गाड़ी रोक कर वह आदमी बाहर निकला था और उन्हें घूरता खड़ा हो गया था। बोला उसने कुछ नहीं। थोड़ी देर उन्हें घूरने के बाद वह वापस अपनी कार में बैठा था और चला गया था। तो ऐसे हैं यहाँ के लोग। मैं भी महीने भर से ऊपर स्विटजरलैण्ड में रहा लेकिन एक भी आदमी को खुले में, भारत की तरह सू सू, करते नहीं देखा।

राइन फाल देखने के बाद हम लोग घर पहुँचे। नहा धोकर खाना खाने के बाद आराम करने के लिए बिस्तरे पर लेटा तो नींद आ गई। सोकर उठा, तो उस समय शाम के साढ़े सात बज रहे थे। लेकिन उस समय सूरज अभी भी पश्चिम में काफी ऊपर चमक रहा था और चारों तरफ धूप थी। चाय पानी के बाद हम लोग ड्राइंग रूम में बैठकर काफी देर तक गप्पें मारते रहे थे। इसके बाद बहू रसोई में जुट गई थी। सूरज अभी भी पश्चिम में चमक रहा था और रात होने में अभी काफी वक्त था। दरअसल गर्मियों में यहाँ दस साढ़े दस बजे सूरज अस्त होता है। मेरे मन में आया कि थोड़ा बाहर निकल कर सड़क पर चहल कदमी कर आऊँ। घर से निकलकर सड़क के किनारे चलता, थोड़ा आगे बढ़ा, तो सामने एक गोलंबर था। उस गोलंबर पर चारों तरफ से सड़कें आकर मिल रही थी और उस पर ट्रैफिक काफी था। सड़क के दूसरी तरफ, थोड़ी दूर पर मुझे एक पार्क दिखा था। सोचा, था चलकर थोड़ी देर पार्क में बैठ कर वापस घर चला आऊँगा। अनजानी जगह में मैं ज्यादा दूर नहीं जाना चाहता था। गोलंबर पर सिगनल आदि कुछ नहीं था। सड़क पार करने के लिये मैं उसके किनारे की एक जगह पर खड़ा होकर इंतजार करने लग गया था कि, जैसे ही ट्रैफिक कम होगी और मुझे मौका मिलेगा, मैं भागकर सड़क की दूसरी तरफ चला जाऊँगा। मेरे मन में इस बात का डर भी था कि, सड़क पार करते समय कहीं मुझे किसी तरफ से आती तेज रफ्तार कार रौंदती निकल ना जाए। मैं जैसे ही सड़क के किनारे खड़ा हुआ था, देखा चारों तरफ का ट्रैफिक एकदम थम गया है। मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया था। मैं उहापोह में था कि सड़क पार करूँ या नहीं। इसी उहापोह में थोड़ी देर गुजर गया था तो मेरी दाहिनी तरफ करीब तीन-चार गज दूर अपनी कार रोके खड़ा एक आदमी, अपनी कार धीरे-धीरे चलाता हुआ मेरे पास आया था और मुझे इशारे से कहा था, कि आप रोड पार कर लीजिए। उसके इशारा करने के बाद मैं भाग कर दूसरी तरफ पहुँच गया था। मेरे सड़क की दूसरी पटरी पर पहुँचते ही ट्रैफिक फिर पूर्ववत चलने लग गया था। लेकिन वहाँ खड़ा होकर मैंने देखा था कि इतनी देर में चारों तरफ की सड़कों पर गाड़ियों की लंबी लाइने लग गई थी। मेरी अज्ञानता के चलते सैकड़ों गाड़ियाँ वहाँ काफी देर तक रूकी रही थी। लेकिन मेरी इस हरकत पर न तो किसी ने हार्न बजाया था और न ही मुझ पर चीखा चिल्लाया था।

भला भारत में ऐसा होना संभव है?

*******************

(क्रमशः अगले अंक में जारी...)

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(सोमेश शेखर चन्द्र यूको बैंक में अधिकारी पद से सेवानिवृत्ति पश्चात् स्वतंत्र लेखन करते हैं)

रचनाकार संपर्क :

सोमेश शेखर चन्द्र

(आर ए मिश्र)

2284/4 शास्त्रीनगर, सुलतान पुर उप्र 228001

***********************

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. अच्छा लगा, लेखक व प्रस्तुतकर्ता दोनो का आभार

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  2. रतलमी जी नम्स्कार,
    "स्वर्ग, जहाँ आदमी बसता है" इस मे सोमेश शेखर चन्द्र जी के साथ जो फ्रैंकफुर्त हवाई अड्डे पर हुआ, वो शायेद उन की गलतफ़हमी के कारण हुआ,
    मे २७ साल से जर्मनी मे हू, लेकिन ऎसा ना सुना ना देखा,टॉयलेट हर १० कदम पर हे,भाषा की वजह से सोमेस जी को मुश्किल हुई,वेसे जर्मनी के एयरपोर्ट यूरोप मे एक नम्बर हे,पीने का पानी तो खरीद्ना पड्ता हे, सो उन मशिनो पर विदेशिओ के लिए सिक्के छाप्पे हे हर चीज की कीमत के,ओर खुले(बाकी पेसे )€,ओर cent उसी मशीन से या साथ लगी मशिन से मिल जाते हे,जर्मन लोग अपनी मात्र भाषा से प्यार करते हे,हमारी तरहा से नही... यह लोग एन्ग्लिश ओर अन्य भाषा जानते हे,लेकिन मान से अपनी भाषा बोलते हे, सोमेस जी से माफ़ी चहुगा, अगर उन्हे बुरा लगे,ध्न्य्वाद
    राज

    जवाब देंहटाएं
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नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद 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आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र 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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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रचनाकार: स्वर्ग, जहाँ आदमी बसता है
स्वर्ग, जहाँ आदमी बसता है
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