-संजय द्विवेदी संपादक, हरिभूमि रायपुर, छत्तीसगढ़ रविवार की सुबह एक सूरज उग रहा था तो दूसरा डूब रहा था। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर क...
-संजय द्विवेदी
संपादक, हरिभूमि
रायपुर, छत्तीसगढ़
रविवार की सुबह एक सूरज उग रहा था तो दूसरा डूब रहा था। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के निधन की खबर सही अर्थों में एक ऐसी दुखद सूचना है जो लंबे समय तक समूचे राजनीतिक क्षेत्र को रुलाती रहेगी। राजनीति में लोकतांत्रिक असहमति के प्रतीक के रूप में चंद्रशेखर ने जो जगह बनाई उसे भर पाने वाला दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आता। लोकतंत्र का बेहद जरूरी तत्व असहमति आज की राजनीति में बेमानी सा हो गया है। ऐसे समय में भी चंद्रशेखर जिस जीवटता और सादगी के साथ अनेक प्रश्नों पर अपनी असहमति जताते थे तो लगता था कि हमारा लोकतंत्र निरंतर प्रखर हो रहा है।
अपनी जिद और अपने सच के लिए लगातार लड़ने वाले चंद्रशेखर पिछले तीन महीने से मौत से लड़ रहे थे। ठीक उसी तरह जैसे वे व्यवस्था से लड़ते रहे। 1 जुलाई, 1927 को बलिया में जन्मे चंद्रशेखर ने जो रास्ता चुना था वह उनकी अपनी पसंद था। शायद इसीलिए वे आखिरी समय पर अपनी विचारधारा और अपनी सोच को बिना समझौतों के जिंदा रख पाए। वास्तव में चंद्रशेखर भारतीय राजनीति के उन चुनिंदा लोगों में थे , जिनके मन में भारतीय समाज के प्रति गहरी समझदारी और संवेदना उपस्थित थी। वे आम आदमी से लेकर बौध्दिक वर्गों तक से संवाद करने की कला के महारथी थे। पिछले पांच दशक से ज्यादा समय की राजनीतिक यात्रा में वे हमेशा बेबाक बोलने , अपनी कहने और अलग दिखने की कोशिश करते दिखे।
सही अर्थों में वे भारतीय राजनीति में असहमति की राजनीति के प्रतीक थे। कोई भी राष्ट्रीय सवाल हो उनकी राय हमेशा अलग और विशिष्ट नजर आई। उनके पास सिर्फ विचारों की पूंजी ही नहीं , एक ऐसा राजनीतिक औदार्य था जहां वे किसी के साथ भी खड़े होने का साहस दिखा सकते थे। अपने सत्य स्वयं तय करना और उन्हें पारिभाषित करना उनकी सर्वथा निजी शैली थी। वे संतुष्ट होना जानते ही नहीं थे। इसीलिए 1962 से प्रारंभ हुई उनकी राजनीतिक यात्रा में व्यापक संघर्ष हैं और उससे उपजी सफलताएं हैं। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से कांग्रेस फिर कांग्रेस को छोड़कर जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आपातकाल के खिलाफ संघर्ष उन्हें महत्वपूर्ण बनाता है। वे कांग्रेस छोड़कर इंदिरा गांधी की आलोचना करते नजर आए , वीपी सिंह को अपना नेता मानने से इंकार कर दिया, फिर राजीव गांधी के समर्थन से सरकार बनाई और राजीव के भी खिलाफ हो गए। अपनी इसी असहमति की राजनीति के चलते वे ताजिंदगी गंभीरता से सुने जाते रहे।
नौजवानी के दिनों में वे युवा विक्षोभ के प्रतीक माने जाते रहे। युवा तुर्क की तिकड़ी मोहन धारिया , कृष्णकांत और रामधन के बीच वे भी एक महत्वपूर्ण नाम थे। एक समय में इंदिरा गांधी के विश्वस्त और प्रमुख समर्थक के नाते और बाद में उनके घोर विरोधी के रूप में उनकी भूमिका रही। लोकनायक जयप्रकाश के आशीर्वाद से वे जनता पार्टी के अध्यक्ष बने , इसके साथ ही वे भारतीय राजनीति के अपरिहार्य नाम बन गए। इस बीच 1977 से लेकर 1990 में प्रधानमंत्री बनने तक की उनकी यात्रा प्रखर विरोधी राजनेता की भावयात्रा है। जहां असहमति और विरोध की राजनीति के अलावा कुछ भी नहीं है। 1990 में प्रधानमंत्री का पद पाकर निश्चय ही उन्होंने कोई ऊंचाई नहीं पाई। सिर्फ 4 महीने के लिए पद स्वीकार कर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया जिसे हम याद कर सकें। फिर भी उनके चेहरे से एक नितांत भारतीय व्यक्तित्व की पहचान झलकती थी। वे बोलते थे तो ऐसा लगता था कि कोई अपना देश करोड़ों वंचित लोगों की वाणी को स्वर दे रहा है। उनकी गंगा-जमुनी दाढ़ी और धोती-कुर्ते में लिपटा उनका व्यक्तित्व सहजता और निष्कपटता की कहानी बयान करता था।
आचार्य नरेंद्र देव और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के व्यक्तित्व से उन्होंने बहुत कुछ ग्रहण किया। बलिया जिले के एक छोटे से गांव से आए चंद्रशेखर ने दिल्ली आकर नौकरशाही , व्यवसाय, पत्रकारिता से लेकर प्रभु वर्गों और जिलों-जिलों तक अपने लोग खड़े किए। ये लोग चंद्रशेखर से सीधे जुड़े थे। पार्टी में अध्यक्ष और सरकार में प्रधानमंत्री इन दो पदों के अलावा शेष पदों पर उनकी अनाशक्ति हमेशा व्यक्त होती रही। इसका यह कारण कतई नहीं था कि वे सत्ता में बने नहीं रहना चाहते थे। अगर ऐसा होता तो वे सर्वोच्च सत्ता की ओर संतृष्ण निगाहों से क्यों देखते ? निस्संदेह वे भारतीय राजनीति की अगुवाई करना चाहते थे। किन्तु उनके लिए किसी के नेतृत्व में काम कर पाना सहज नहीं था। इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और विश्वनाथ प्रताप सिंह से हुए मतभेदों को इस संदर्भ में देखा जा सकता है। पार्टी में भी रामकृष्ण हेगड़े से लेकर रामजेठमलानी तक से उनके संघर्ष सड़क पर भी आ गए। सही अर्थों में चंद्रशेखर का व्यक्तित्व विरोधाभासों की गाथा है। विरोधाभासों की यह अति ही उन्हें विवादों में बनाए रखती थी। व्यक्तिगत संबंधों को निभाना उन्हें खूब आता था।
शुभचिंतकों की चिंता उनका स्वभाविक गुण था। बिना लाग-लपेट के अपनी बात कहने का साहस ऐसा कि वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की प्रशंसा भी कर सकते थे तो अटल बिहारी वाजपेयी को अपना गुरु भी बता सकते थे। स्वदेशी जागरण मंच के कार्यक्रमों में शिरकत भी कर सकते थे , वहीं एक आयोजन में गुजरात दंगों के बाद नरेंद्र मोदी को न हटाने के लिए वाजपेयी जी को खरी-खरी भी सुना सकते थे। राजनीतिक औदार्यता, राष्ट्रीय विचारों और सवालों पर एकजुटता का भाव जो घटता जा रहा है वे इसे रोकना चाहते थे। बाद के दिनों में वे बेहद अकेले हो गए थे फिर भी उन्हें 'वनमैन आर्मी' कहा जाता था। उनकी अपनी अकेली उपस्थिति से ही भारतीय राजनीति और संसद को एक गंभीरता मिल जाती थी। वे अकेले भले पड़ गए थे पर उनके विचारों की तल्खी कम नहीं हुई थी। आज जब भारतीय राजनीति अनेक विकृतियों का चौतरफा शिकार दिखती है ऐसे समय में चंद्रशेखर जैसे खरी-खरी कहने वाले राजनेता की याद बहुत स्वभाविक और मार्मिक हो उठती है।
विनम्र श्रद्धांजलि.
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