-डॉ० मधु सन्धु जीवन सुरक्षा और संरक्षण पाने और देने के प्रयासों में बीत जाता है और सांध्यबेला में आकर हम पाते हैं कि सब कुछ बंद मुठ्ठ...
-डॉ० मधु सन्धु
जीवन सुरक्षा और संरक्षण पाने और देने के प्रयासों में बीत जाता है और सांध्यबेला में आकर हम पाते हैं कि सब कुछ बंद मुठ्ठियों से फिसल चुका है। यह प्रावधान भी है, नियम भी और नियति भी। बुढ़ापा जीवन की प्रत्येक उत्पाद्य शक्ति सोख लेता है। भारतीय धर्म और दर्शन (मनु स्मृति) संन्यास और वानप्रस्थ के ग्लोरिफिकेशन को जब महत्व देता है, तो सारी आचार संहिता स्पष्ट हो जाती है। जिंदगी भर मरते-खपते रहो, कमाते-जोड़ते रहो, संजोते- बनाते रहो, दूसरों के लिए हर पल क्रियाशील रहो और जीवन के अंतिम दिनों में इंद्रियों के दुर्बल और निष्क्रिय पड़ जाने पर जंगलों में ठेल दिए जाओ। निःसंदेह दीर्घ जीवन दीर्घ अभिशाप का ही पर्याय है। हिन्दी कहानी में वृद्धों की समस्याओं को अनेक परिप्रेक्ष्यों में चित्रित किया गया है।
परिवार में वृद्ध/वृद्धाओं की अवमूल्यित स्थिति का चित्रण अनेक संदर्भों में मिलता है। वृद्धों की जायदाद हड़पने का रिवाज इस देश में नया नहीं है। इस विसंगति पर कहानी यात्रा के आरम्भिक दिनों में ( बूढ़ी काकी -सन् १९२१) प्रेमचन्द ने लिखा था।
बूढ़ी काकी१ कहानी के बुद्धिराम और रूपा का विचार है कि बूढ़ी काकी का काम ही उत्पात मचाना है। समस्या न काकी के स्वास्थ्य की है, न उसके पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन की, समस्या उसकी स्वादेंद्रिय की है। इस समस्या का जन्म उसी दिन हो गया था, जिस दिन इस अमीर विधवा बुढ़िया ने बेटों की मृत्यु के बाद सारी जायदाद भतीजे बुद्धिराम के नाम लिख दी थी।
कहानी के बुद्धिराम और रूपा का विचार है कि बूढ़ी काकी का काम ही उत्पात मचाना है। संपत्ति हस्तांणतरणोंपरान्त मूल जैविक जरूरतें यानी भोजन भी समस्या बन जाता है। वे फालतू तो हैं ही, उनसे पागलों सा व्यवहार भी किया जाता है। बेटा बहू अपमानित करते हैं और बच्चे चुटकियां काटते हैं, उन पर पानी की कुल्ली कर देते हैं। काकी सिर्फ गालियां दे सकती है, कृपाण सी जिह्वा चला सकती है या आर्त्तनाद कर सकती है, बिलख-बिलख कर रो सकती है। काकी की सम्पत्ति हथिया कर उसी से घर में पोते का तिलक समारोह हो सकता है, शहनाइयां बज सकती हैं, भाट विरदावलियां गा सकते हैं, मेहमानों की सेवा एवं आव-भगत के लिए नाई बुलाए जा सकते हैं, हलवाइयों से तरह-तरह के पकवान एवं पूरियां बनवाई जा सकती हैं। भूखे कुत्ते की तरह काकी पोते के संस्कार समारोह में हलवाई के पास क्या आ बैठती है कि बहू भरी सभा में अपमानित करती है। बुद्धिराम घसीटते हुए कोठरी में पटक आता है। कारण- 'जिसकी कोठी दाने उसके कमले (मंदबुद्धि) भी सयाने।` इसी कारण यह क्षुधातुर, हतज्ञान बुढ़िया कूड़े से जूठन बीन कर खाने को अभिशप्त है। प्रेमचन्द ने भी बार-बार बूढ़ी काकी की स्वादेंद्रिय की बात कर उसके साथ न्याय नहीं किया। जैसे- बुढ़ापा तृष्णारोग का अंतिम समय है, जब सम्पूर्ण इच्छाएं एक ही केन्द्र पर आ लगती हैं।२
उषा प्रियम्वदा की वापसी३ वृद्ध पुरुषों का दर्द प्रस्तुत करने वाली प्रथम सशक्त कहानी है। पैंतीस साल परिवार का पोषण करने वाले, स्वयं छोटे-छोटे स्टेशनों पर रहकर उनके लिए शहर में हर सुविधा जुटाने वाले गजाधर बाबू को रिटायरमेंट के बाद कमाने वाले पुत्र से लेकर पढ़ने वाले पुत्र तक, बेटी से लेकर बहू तक, यहाँ तक कि पत्नी भी परिवार का हिस्सा मानने से इन्कार कर देती है। उनके आने से हंसते-खेलते परिवार में शोक की लहर सी दौड़ जाती है। उनके लिए न घर में जगह है, न दिलों में। रोक-टोक तो बर्दाश्त से बाहर है। बड़े बेटे अमर का सिहांसन हिल जाता है। कहता है- बूढ़े आदमी हैं, चुपचाप पड़े रहें, हर चीज मे दखल क्यों देते हैं।४ वह अलग होने की सोचता है । नरेन्द्र पढ़ाई की दुहाई देता है। बसंती मुंह लपेटे पड़ी रहती है। पत्नी के पास सिर्फ शिकायतें हैं। इतना फालतूपन, इतनी असंगति, इतना व्यर्थताबोध-मानों कल तक धनोपार्जन का आधार गजाधर बाबू फालतू सामान में बदल जाते हैं। उनकी स्थिति की प्रतीक उनकी चारपाई है, जो कभी ड्राईंग रूम और कभी रजाइयों, अचार के मर्तबानों के बीच पहुंच जाती है। बाजारवादी, उपयोगितावादी सोच ने रिश्तों का कायाकल्प कर दिया है।
चन्द्रकिशोर जायसवाल की मानबोध बाबू५ में गाड़ी में मिले दो बुजु्रर्ग यात्रियों के संदर्भ में वृद्धों की पारिवारिक -सामाजिक स्थिति पर प्रकाश डाला गया है। जायदाद वाले वृद्ध अगर गांव में रहें तो वहॉं जीवन की मूलभूत जरूरतें भी पूरी नहीं हो पाती। सब बेचकर बेटों के पास महानगरों में चले आए तो सारी राशि उनकी हथेली पर रखनी होगी। यदि ऐसा नहीं करते तो उन्हें घातीबाप, पापीबाप, कठबाप कहा जाएगा। बीच बाजार में अगर कोई गिरकर बेहोश हो जाए तो कोई अस्पताल पहुँचाने वाला तक नहीं मिलेगा।
बुजुर्गों और बच्चों की अकसर आपस में खूब बनती है। मां-बाप के कटु अनुशासन और बड़े भाई-बहनों की मार-पीट से छुटकारा दादा-दादी, नाना-नानी ही दिलाते हैं। वे बच्चों के लिए मित्र और काउंसलर की भूमिका निभाते हैं। प्रेमचन्द की बूढ़ी काकी६ की लाड़ली के लिए नानी का कमरा रक्षागार है। लाड़ली अपने दानों भाइयों के भय से अपने हिस्से की मिठाई, चबेना काकी के पास बैठकर खाया करती है। बुजुर्ग बच्चों को शिष्टाचार, धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों से परिचित कराते हैं। उन्हें पारिवारिक इतिहास से अवगत कराते हैं। उनके मानसिक विकास में सहायक बनते हैं और हमारे प्रवासी भारतीय बच्चों को इसकी बहुत जरूरत है।
बुजुर्ग पेड़ भले ही फल न दे, उसका साया तो रहता ही है। सुषम बेदी की झाड़ ७ में अमेरिका में जन्मे सात वर्षीय समीर को भारतीयता से अवगत कराने, अमेरिका में रहकर भी भारतीय जीवन से थोड़ा बहुत परिचित कराने, घरेलू जीवन के स्नेह-ममत्व से सराबोर करने के लिए उसकी ममी अन्विता समीर की नानी मालती सक्सेना को भारत से बुलाती है। लेकिन इस बच्चे को नानी से कहीं अधिक कन्वीनिएंट बेबी सिटर लगती है। उसके पास दिल लगाने के लिए टी० वी० है, वी० डी० ओ० गेम्ज़ हैं, बेसबाल, फुटबाल, बास्कैटबाल की गेम्ज़ हैं, खाने के लिए फास्ट फूड है, कम्पनी के लिए बेबी सिटर है। उसके लिए नानी दूसरी दुनिया की चीज़ है। उसे न उसके बनाए खाने में रुचि है, न उसकी ड्रेस सेंस जँचती है, न रोक-टोक, न स्नेह के आवेग-क्योंकि वह कहीं से भी नानी की तरह इमोशनल या कमजोर नहीं है। सात समन्दर पार से नानी का आना नानी को भावुक कर सकता है, दौहित्रा तो मात्रा नानी को झेल रहा है।
वृद्धावस्था में दोस्तों की बहुत जरूरत होती है। दोस्ती हर घुटन को लयात्मक बना देती है। भीष्म साहनी की यादें८ में यादों की तिजोरी खुलते ही लखमी और गोमा किलकने लगती हैं। वैसे घर-बाहर के लोग वृद्धों के दोस्तों की भी भरपूर उपेक्षा ही करते हैं। भीष्म साहनी की चीफ की दावत९ में मॉं की स्थिति घर के फालतू सामान सी हो गई है। उसे किसी से भी बात करने की इजाजत नहीं। प्रत्येक अवसर पर सहेलियों से दूर रखने का हर सम्भव प्रयास किया जाता है। समलिंगी मैत्री तो थोड़ी -बहुत बर्दाश्त की जा सकती है, समस्या तब आती है, जब मैत्री विषमलिंगी से जुड़ जाए। यह भारतवर्ष है। ऋषियों-मुनियों की धरती है। मर्यादा पुरुषोत्तम की धरती है। वृद्धों के लिए एक कोड ऑफ कन्डक्ट निश्चित है। वे कथा-कीर्तन करें, मंदिर-गुरुद्वारे जाएं, माला फेरें, तीर्थाटन करें, कुत्ते बिल्ली के साथ समय काट लें, पुर्नविवाह बिल्कुल नहीं कर सकते। वैसे यहाँ के बुजुर्ग भी भिन्नलिंगी मैत्री को गुनाह ही मानते हैं। सुषम बेदी की गुनाहगार१० की रत्ना पूरे परिवार के जोर देने पर भी इस गुनाह के लिए अपने को तैयार नहीं कर पाती। उसे अकेलापन मंजूर है, लेकिन अमरीकसिंह दीप की तीर्थाटन११ की बेटों, बेटियों, नाती-नातिनों वाली तिरपन-चौवन वर्षीय विधवा सुदेश पर पुरुष के साथ वृन्दावन तार्थाटन के लिए क्या जाती है कि बेटे साँपों की तरह फुंफकारने लगते हैं । घर की एक-एक इंट गुस्से में बेहया, कुलटा, कुलच्छिनी चीखने लगती है । एक ही गूँज अनुगूँज बन जाती है-मार डालो, काट डालो, फूँक डालो । कहते हैं कि वृद्धों को सुबह-शाम सैर करनी चाहिए। पुस्तकें-पत्रिकाएं पढ़नी चाहिए। बागवानी में रूचि रखनी चाहिए। संगीत या कम्प्यूटर से मन बहलाना चाहिए, लेकिन इस देश में बेटों वाली विधवा को अपने ढंग से जीने का कोई अधिकार नहीं । क्योंकि बेटों को बुढ़िया, बीमार, पुरखिन, संजीदा, झुर्रियोंदार चेहरे वाली माँ चाहिए । सफेद, बुझे, धूमिल रंगों की साड़ियां पहनने वाली, घंटों पूजा-अर्चना करने वाली, तीज त्योहार पर व्रत रखने वाली, मंदिर में प्रवचन सुनने वाली, मृत्यु को अपनी प्रिय सहेली समझने वाली बुढ़िया माँ चाहिए । उन्हें न मार्निंग वॉक पर जाने वाली, न योगा करने वाली, न जगजीत-चित्रा, नुसरत फ़तेह अली खान की स्वर लहरियां सुनने वाली माँ चाहिए और न रामायण में पुरुष मित्र के पत्रा संभालकर रखने वाली माँ चाहिए । बेटे बहुएं यह सब पता चलते ही म्यान से निकली वह तलवार बन जाते हैं, जो खून पीकर ही वापिस म्यान में जाती है । वृन्दावन गई जीती जागती ममी का दाह संस्कार कर दिया जाता है । छत के ठीक बीचों-बीच ममी की सारी किताबें, पत्रिकाएं, इश्किया कैसेट्स, डायरी, प्रेमपत्रा, कविताएं, ग्रीटिंग्ज़ इकट्ठी करके उन्हें मुखाग्नि दी जाती है हो । ममी की अशोक वाटिका उजाड़ी जाती है । सारे फूल नोच डाले जाते हैं, पौधे उखाड़ फेंके जाते है, गमले तोड़ दिए जाते हैं । वृद्धा/प्रौढ़ा और वह भी बेटों वाली-अमरीक सिंह दीप स्पष्ट करते हैं कि वह अपने लिए कोई पल जी ले यह बेटे-बहुओं को पचेगा नहीं ।
मनीषा कुलश्रेष्ठ की प्रेतकामना१२ में बम्बई के सी-बीच पर बने तीन कमरों के बड़े फ्लैट में रिटायर्ड विधुर पिता टूटी दीवार से झरते सीमेंट सा भुरभुरा जीवन व्यतीत कर रहे हैं और बेटा महीनों बाद कभी खबर लेने आ जाता है। कभी वे जे० एन० यू० में एन्थ्रोपालोजी के विभागाध्यक्ष थे। विदेश के चक्कर लगते रहते थे और अणिमा जैसी रिसर्च स्कॉलर विद्वता के कारण उन पर मरती थी। आज बेटा इसी शहर में अलग रहता है। बेटी कलकत्ता में है। पत्नी की मृत्यु हो चुकी है। उनके ईद-गिर्द न समाज है, न परिवार, न प्रतिष्ठा। ऐसे में अमेरिका से प्रवासी सप्ताह के लिए पुरानी छात्रा अणिमा लौटती है और डॉ० पंत के प्रेत जीवन में कामनाएं ऐसे लहराती हैं कि दोनों में शारीरिक संबंध कायम हो जाता है। पापा की इस नई दुनिया को देख बेटे के पैर दस-दस मन के भारी हो जाते हैं। सारी श्रद्धा, प्यार और मोह निथर आते हैं।
संबंधगत अकेलापन वृद्धों को गोद-गोद कर खा रहा है। कृष्णा अग्निहोत्री की यह क्या जगह है दोस्तो१३ की संगीतकार ऋतु के पास न पति है, न प्रेमी, न बच्चे। यह औरत प्रेमी की ऐय्याशियों को ढोती रही है। पति की मृत्यु के बाद बच्चे उसके मूवी या टी० वी० देखने, संगीत सुनने या रियाज करने, रेडियो प्रोग्राम देने या फोन करने, किसी शादी-विवाह में जाने तक पर पाबंदी लगा देते हैं। यहाँ तक कि उसे साज बेच कम्प्यूटर खरीदने के लिए कहा जाता है।
प्रतिभा प्रवास की अगर यही गति रही तो वे दिन दूर नहीं जब यह पुण्य भारत भूमि वृद्ध भूमि बन जाएगी। राजी सेठ की इन दिनों १४ में बच्चे विदेश में रह रहे हैं। जब बेटे-बेटियां स्थिति-नियति, रोजी-रोटी के चक्कर में परदेश चले जाते हैं, तो अकेले छूट चुके वृद्ध माता पिता के जीवन में अकेलापन, शून्यता और संत्रास घिर आता है। वृद्धों को भी बच्चों का संरक्षण चाहिए। कहानी के वृद्ध माता-पिता अकेले ही नहीं, संत्रस्त भी है। पिता को अखबार की खबर पढ़कर लगता है कि मृत्यु से पहले ही वे चोर डाकुओं के हाथों मृत्यु का शिकार हो जाएंगे। नौकर की उपस्थिति, पड़ोसी का दो महीने के लिए नीदरलैंड जाना, पत्नी की बेफिक्री-सब उन्हें अस्त व्यस्त कर देते हैं। भरा पूरा घर अभिशाप लगता है। क्या वे पहरेदार हैं ? पत्नी का बच्चों का पक्ष लेना उन्हें भाता नहीं। बार-बार एक ही ख्याल आता है कि उन्हें चोर हत्यारों के लिए यहाँ डाल रखा है। अगर बच्चों को माँ बाप का दर्द होता तो अपने पास न ले जाते। वे संतान की ताजा दम जवानी के पहलू में दुबक कर चैन से जीना चाहते हैं। किसी विकेकानंद, रजनीश, परमहंस की पुस्तक में मन नहीं लगता। भयहीनता संत महात्माओं के लिए होती होगी। वृद्धों का केयर टेकर रूप निर्मल वर्मा की जाले १५ में मिलता है। भाई अकेले इस बंगले में रहते हैं। मानों वे प्रहरी, चौकीदार या रखवाले हों। बहनों की शादियों और मां, भाभी की मुत्यु के बाद से भाई अकेले यहाँ रह रहे हैं। वे अकेले रहते-रहते उकता चुके हैं। खाली कमरों में चक्कर लगाते ऊब चुके हैं। वे इस घर से छुटकारा चाहते हैं इसीलिए उन्होंने आज तीनों बहनों को घर बेचने के लिए बुलाया है। राजी सेठ की मार्था का देश१६ में बेटे के विदेश चले जाने के बाद उसके पत्रों का इन्तजार करती मां अपने को इतना उपेक्षित महसूस करती है कि उसके लौट आने पर भी उसके जाने के इन्तजार में रहती है।
एक रिपोर्ट के अनुसार एक रिटायर्ड बूढ़ा आदमी सप्ताह में ९१ घण्टे और एक बूढ़ी औरत ७२ घण्टे खाली रहती है। यह समय बिताना वृद्धों के लिए समस्या है। भारतीय स्त्री तो घरेलू कामकाज में अपने को व्यस्त रखने के ढंग जानती है, ज्यादा समस्या पुरुषों के लिए है। सुषम बेदी की नाते१७ में वर्षों पहले बेटा राज अमेरिका में जाकर सैटल हो गया था । धीरे-धीरे दोनों भाइयों को भी उसने बुला लिया । उसका लांग आइलैंड के हरे भरे इलाके में पाँच बेडरूम वाला दो एकड़ का घर है । जब-जब राज माला इंडिया आते हैं, नाते रिश्ते के सारे लोग माँ-बाप को ले जाने पर जोर देते हैं। अमेरिका में रह रही माला को भी लगता है कि बच्चों के पास दादा-दादी होने ही चाहिए । वे पहले माँ और फिर पिता को ले जाते हैं । माँ बहू के साथ छोटी मोटी झड़पें हो जाने के बावजूद वहाँ खुश हैं । वह बेटे, बहू, बच्चों के साथ ही रहना चाहती है । चण्डीगढ़ की कोठी बेचने या किराए पर चढ़ाने का सोचती है । जबकि ६७ वर्षीय अड़ियल पिता एडजस्ट न कर पाने के कारण भारत लौट आते है ।
सफर के अंतिम पड़ाव पर आकर भी कई बार अयाचित स्थितियां रास्ता रोक कर खड़ी हो जाती हैं। मोहन राकेश की मलबे का मालिक१८ में एक वृद्धा इस -उस से पूछती भटक रही है कि क्या वह विभाजन के दंगों की भेंट चढ़ चुके अपने बेटे की जायदाद की वारिस हो सकती है। तरुण भटनागर की फोटो का सच१९ में इकलौता बेटा सेकेंड लेफि्टनेंट जीवेन्द्र माथुर एक अम्बुश में मारा जाता है। सरकार से पैसे मिलने हैं। आदेश आ चुके है। सारे डाक्युमेंटस बेटे के पास ही थे। तिहत्तर वर्षीय पिता सरकारी दफतरों के चक्कर लगा रहे हैं। क्लर्कों की चापलूसी कर रहे हैं, लेकिन उनके पास ऐसा कोई प्रमाण नहीं जो सिद्ध कर सके कि वही पिता हैं। इस भटकन के कारण भीगे कपड़ों की तरह, मृत शरीर की तरह मन भारी रहता है। राधेश्याम की पेंशन२० के श्री निवास भारती सत्तर की उम्र में सौ रूपया मासिक पेंशन पाने के लिए साल भर सरकारी दफतरों के चक्कर काटते हैं।
आज भले ही विश्व जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा बूढ़ों ने घेर लिया हो। सबसे वृद्ध का नाम गिनीज़ बुक ऑफ वर्ड रिकार्ड में लिखा जा रहा हो, परिवारों में वृद्ध त्रासद जीवन ही जी रहे हैं। ७० से १०० वर्ष के बुजुर्गों पर बर्लिन एजिंग स्टडी की एक रिसर्च के अनुसार आंकड़े कहते हैं कि १५ : वृद्धों में जीवन के प्रति उदासीनता और थकावट है। पांच प्रतिशत लोग मरना चाहते हैं और ०.५ प्रतिशत में आत्महत्या के साफ लक्षण दिखाई देते हैं। सूर्यबाला की सांझवती २१ वृद्धों के फालतूपन के अहसास की कहानी है। अस्सी वर्षीय वृद्ध अपनी बहत्तर वर्षीय पत्नी को मिलने सात काले कोस पैदल चलकर पहुँचता है हालाँकि बेटे के पास कार ड्राइवर सब कुछ है, लेकिन अपने पत्नी बच्चों के लिए, वृद्ध पिता के लिए नहीं। वह उस बेटे के घर आता है, जहां वह रह रही है। नौकर भी जानता है कि वह किस से मिलने आया है, इसीलिए नौकर सुखराम उसे ठीक जगह पहुँचा देता है। इनके तीन बेटे हैं। देश विदेश में चक्कर लगाते रहते हैं, लेकिन माँ बाप को उन्होंनेे बाँटा हुआ है। किसी बेटे में दम नहीं कि मॉं-बाप दोनों को इकट्ठा अपने पास रख सके।
बीमारी और बुढ़ापे में चोली-दामन का संबंध है। निर्मल वर्मा की बीच बहस में२२
में बीमार पिता अस्पताल में है। डाक्टरों की घोषणा कि 'वह कभी भी मर सकता है` के बावजूद वह जिंदा है। सभी उनके जाने की प्रतीक्षा में हैं। केयरटेकर बेटा झुंझलाया रहता है, बहस करता रहता है। अपने बच्चों की छाया तले अस्पताल में अन्तिम सॉंसें गिन रहा वृद्ध अत्यन्त बौना महसूस करता है। आत्मीयता के रिश्ते तनाव ने बुहार दिए हैं।
वृद्धों के भी अन्यान्य रूप इस देश में मिलते हैं। वे पीड़ित नहीं पीड़क भी है। अति कामुक और मर्यादाहीन भी हैं। ययाति पुत्र पुरु को बाप को अपनी जवानी देनी पड़ी थी। बहुपत्नीवादी पिता के लिए भीष्म को आजीवन ब्रह्मचारी रहना पड़ा था। पिता के आदेश ने नचिकेता को यमलोक भेज दिया था। ब्रह्मा की काम क्षुधाओं ने बाप-बेटी की मर्यादा तार-तार कर दी थी। जौगर पार्क की कहानी अथवा अमिताभ बच्चन और जिया आज जिस सुनहले परदे पर निशब्द में भारत के चिर किशोर पुरुष को स्वर दे रहे हैं, वह कहानियों में भी जिंदा है। मुशर्रफ आलम जौकी की बाप और बेटा२३ भी ऐसे ही कुंठित बाप के मन का विश्लेषण करती हैं। होता यूँ है कि शादी के बाद पति और पिता बनते ही पुरुष सभ्यता और मर्यादा से बंध जाते हैं । पत्नी, सुखद घरेलू जीवन, बच्चे और शराफत का सिक्का ही सब कुछ बन जाते हैं । बाप का मतलब ही एक फिक्रमंद, जल्लादनुमा, गुस्सैल, आदर्शवादी पुरुष है । बाप बनते ही बच्चे भविष्य बन जाते हैं । कहानी ढलती उम्र के बाप के अंदर लौट रहे किशोर पुरुष की है । उसका पूरा जिस्म वायलन बन जाता है । हाथ तबला हो जाते हैं । इस परिवर्तन को देखकर पत्नी सोचती है, शायद यह युवा बेटी पिंकी के विवाह की चिंता की समस्या है या पति को कोई जोरदार रिश्वत मिली होगी पर बेटा जानता है कि बाप रूमानी हो गया है । वह बाथरूम में गाना गाने लगा है । एक रोज तो बेटा बाप को उसी रेस्टरां में बेटी पिंकी की उम्र की लड़की के साथ अति रूमानी मुद्रा में देख भी लेता है और अपनी गर्ल फ्रेंड को ले बाहर आ जाता है । बाप को लड़की के सपने आने लगते हैं । वह सपने में लड़की के साथ बलात्कार भी कर डालता है, पर देखता है कि जिस लड़की के साथ उसने बलात्कार किया है, वह तो उसी की बेटी पिंकी है । उस लड़की के साथ से ढेर सारी खुशियां बटोरने के बाद बाप वीतरागी हो जाता है । जुर्म साबित होते ही वह अग्निपरीक्षा से गुजरता है और घर वालों की नजर में पहले जैसा बनने का यत्न करने लगता है ।
अपनों पर अविश्वास वृद्धों का स्वभाव बन जाता है। जान छिड़कने वाले अपनों पर संशय और परायों पर विश्वास करना उन्हें भाता है। आभासिंह की कहानी ऐसे आएगा कल, बिनु२४ की माताजी पति की मृत्यु के बाद अकेले जीवन बिता सकती हैं, वृन्दावन जा सकती हैं, वृद्धाश्रम में रह सकती हैं, पर गरीब बेटे के पास रहना उन्हें पसन्द नहीं। अचानक बीमार पड़ने पर यही गोद लिया बेटा, बहू, पोते अपनी समस्त आर्थिक विपन्नता के बावजूद जी तोड़ सेवा से उन्हें स्वस्थ कर देते हैं। माताजी के पास मकान भी है, जेवरों की पोटली भी है, बैंक बैलेंस भी है, लेकिन वे जेवरों की पोटली बेटे-बहू को देने की बजाय उन सहेलियों को देती हैं, जिनका मन इस धन को पा बेइमान हो उठता है।
१९९९ अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध वर्ष के रूप में मनाया गया। हर वर्ष अक्टूबर में वृद्ध दिवस भी मनाया जाता है। जबकि कहानियां बताती हैं कि वृद्ध जायदाद पर बैठे सॉंप हैं। रिटायर्ड बूढ़ों की दखलंदाजी बर्दाश्त से बाहर है । आज के बाजारवादी/ उपयोगितावादी युग में उनका करें क्या? घातीबाप, पापीबाप, कठबाप बीच बाजार में गिरे मिल सकते हैं। यही बूढ़े बच्चों के लिए संरक्षक भी होते है। उनका कमरा उनके लिए रक्षागार है। प्रवासी बच्चों को सांस्कृतिक विरासत नाना-नानी, दादा-दादी ही सौंप सकते हैं, पर अगर वे चाहें तो ? वृद्धावस्था में दोस्तों की बहुत जरूरत होती है, लेकिन घर के लोग उनके दोस्तों को कभी बर्दाश्त नहीं करते। वे तो पति-पत्नी को भी बॉंटकर रखते हैं कि कहीं इकट्ठे हो गए तो पता नहीं कौन सा कहर टूट पड़ेगा। विदेशों में अस्सी-पचासी साल तक लोग शादी कर-कर के सामान्य जीवन जीते हैं, जब कि भारत में कोई बूढ़ा एक पल भी अपने लिए जी ले, उसे परिवार से बहिष्कृत कर दिया जाता है। वाणिज्यशास्त्र वृद्धों के जीवन मूल्यों से बड़ा है। हर कहानी वृद्धों की मुत्यु का इन्तजार कर रही संतान को लेकर है। गांवों से शहरों और शहरों से विदेश में प्रतिभा-प्रवास ने वृद्धों को जायदाद के पहरेदार बना कर रख दिया है। बीच के रिश्ते मृत प्राय: हैं। बड़ी बड़ी समस्याएं उभर रही हैं। वृद्ध अगर बेटों के पास रहते हैं, तो उन्हें नम्बर दो, तीन, चार की हैसियत स्वीकारनी होगी। वे मात्रा किसी के मां-बाप, नाना-नानी, दादा-दादी हैं। इस स्तर पर औरतें ज्यादा सहज होती हैं। वे अपने को ढाल लेती हैं। वातावरण से समझौते ही नहीं करती, उनमें रच-बस भी जाती हैं। कानून तो नित्य बनते हैं, लेकिन रास्ते के व्यवधानों से जूझना वृद्धावस्था के बस की बात नहीं। कहीं वृद्ध पेंशन के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगा रहे हैं और कही बेटे की मृत्यु के उपरान्त उसके पैसे लेने के लिए। वृद्धों के सनकी और पीड़क रूप भी कम नहीं।
संदर्भ:
१ इन्द्र नाथ मदान, प्रेमचन्द की श्रेष्ठ कहानियां, नई दिल्ली, हिन्द पॉकेट बुक्स.
२ वही.
३ उषा प्रियंवदा, ज़िंदगी और गुलाब के फूल, काशी, भारतीय ज्ञानपीठ, १९६१ण्
४ वही.
५ चन्द्रकिशोर जायसवाल, मानबोध बाबू, हंस, दिसम्बर, २००६.
६ इन्द्र नाथ मदान, प्रेमचन्द की श्रेष्ठ कहानियां, नई दिल्ली, हिन्द पॉकेट बुक्स.
७ सुषम बेदी, चिड़िया और चील, दिल्ली, अभिरूचि, १९९७.
८ भीष्म साहनी, यादें, श्रेष्ठ कहानियां, दिल्ली,
९ वही, चीफ की दावत, कहानी, जनवरी, १९५६.
१० सुषम बेदी, गुनाहगार, सड़क की लय, दिल्ली, नेशनल, २००७.
११ अमरीकसिंह दीप, हंस, दिल्ली, अक्षर प्रकाशन, मार्च १९९९
१२ मनीषा कुलश्रेष्ठ, प्रेतकामना, हंस, जनवरी, २००५.
१३ कृष्णा अग्निहोत्री, यह क्या जगह है दोस्तो, जयपुर, नेशनल, २००७.
१४ राजी सेठ, इन दिनों, यह कहानी नहीं, दिल्ली, ज्ञानपीठ, १९९९.
१५ निर्मल वर्मा, जाले, सूखा और अन्य कहानियां, दिल्ली, राजकमल, १९९५.
१६ राजी सेठ, मार्था का देश, धर्मयुग, बम्बई,जून, १९९५.
१७ सुषम बेदी, नाते, चिड़िया और चील, दिल्ली, अभिरूचि, १९९७.
१८ पोहन राकेश, मलबे का मालिक, मोहन राकेश की सम्पूर्ण कहानियां, दिल्ली, राजपाल,१९९६.
१९ तरुण भटनागर, फोटो का सच, हंस, दिसम्बर,२००६
२० राधेश्याम, पेंशन, मधुमती, मार्च, २००३.
२१ सूर्यबाला, सांझवती, इंडिया टुडे, साहित्य वार्षिकी, १९९३.
२२ निर्मल वर्मा, बीच बहस में, संभावना, दिल्ली, १९७३.
२३ मुशर्रफ आलम जौकी, बाप और बेटा, हंस, अक्षर प्रकाशन, दिल्ली, दिसम्बर, १९९८.
२४ आभासिंह, ऐसे आएगा कल, बिनु , समकालीन भारतीय साहित्य,, नई दिल्ली, मई-जून, २००६.
कहानी में वृद्ध: सांध्यबेला की त्रासदियां
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अच्छी कोशिश है
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