-डॉ. मधुकर पाडवी श्री रामाकान्त रथ उडिसा के वरिष्ठतम आई.ए.एस. अधिकारी होने के साथ-साथ उडिया के एक शीर्षस्थ कवि भी है। उनके अब तक आठ कवि...
-डॉ. मधुकर पाडवी
श्री रामाकान्त रथ उडिसा के वरिष्ठतम आई.ए.एस. अधिकारी होने के साथ-साथ उडिया के एक शीर्षस्थ कवि भी है। उनके अब तक आठ कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं। उनका काव्य संग्रह सप्तम ऋतु 1978 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हुआ है। उसके बाद भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित खंडकाव्य 'श्री राधा' उनकी बहुचर्चित कृति है। प्रस्तुत कृति परिपक्व संवेदनशीलता, प्रगाढ मानवीय चेतना, प्रतीकात्मक भाषा-लालित्य और काव्य-शिल्प के कारण न केवल उडिया की बल्कि भारतीय भाषा की भी एक अमूल्य कृति है।
प्रस्तुत काव्य का शीर्षक 'श्री राधा' है और राधा का नाम आते ही अनायास ही हमारे सामने राधा-कृष्ण का अलौकिक स्वरूप आ जाता है। निस्संदेह प्रस्तुत काव्य में वही श्री राधा है, परंतु कवि ने उसके चरित्र को यहां जिस तरह से प्रस्तुत किया है वही हमारे लिए वैचारिक संकट का कारण बना है। डॉ. अर्जुन शतपति के शब्दों में कहें तो - 'ओडिया कवि श्री रमाकान्त रथ की काव्य अंर्तयात्रा की महान उपलब्धि उनकी श्री राधा काव्य-कृति है। काव्य का शीर्षक इसलिए सार्थक लगता है कि इसमें श्री राधा ही है। यह शब्द ही हमारे वैचारिक संकट का कारण बन जाता है क्योंकि यह वह राधा है, जो हमारी जनचेतना में रची-बसी राधा से भिन्न होते हुए भी अभिन्न है। इसमें दो मत नहीं है कि भारतीय सांस्कृतिक, धार्मिक, नैतिक और सामाजिक चेतना में राधा एक उदात्त कृति है जिसके साथ नारी के औदार्य, सौंदर्य, सुख, हर्षोल्लास आदि जुड़े हैं। इसलिए तात्त्वि अवबोधन हेतु स्वयं कवि ने काव्य के पृष्ठबंध में लम्बी बहस छेड़ी है जिसमें उनके द्वारा सृजित राधा के स्वरूप पर आलोकपात किया है।'1
श्री राधा काव्य का केन्द्रीय चरित्र राधा है, परन्तु यहां जिस राधा का कवि ने उल्लेख किया है उसका चरित्र परम्परागत राधा के चरित्र से भिन्न है और कवि ने स्वयं उस पर सवाल उठाये हैं। कवि ने काव्य के पृष्ठबंध में इसको लेकर लम्बी बहस छेड़ी है। उनका पहला सवाल राधा के स्वरूप को लेकर है और इसको स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि 'मैं ऐसी चिड़चिड़ी राधा की कल्पना नहीं कर सकता जो कृष्ण को वृंदावन छोड़ने के लिए, उस पर निष्ठा न रखने के लिए तथा उसके प्रति उदासीन रहने के लिए उससे कहती हो, ऐसा कोई भी आचरण उसके लिए अप्रासंगिक है। प्रारंभ से ही वह ऐसी आशा नहीं पाले रखती। कुंठित होकर निराश होने की भी उसके लिए कोई संभवना नहीं है। अगर वह निराश हो सकती है तो केवल इसलिए कि कृष्ण को जिस सहानुभूति की आवश्यकता थी, वह उसे न दे सकी। न दे पाने की पीड़ा कुछ लोगों के लिए न ले पाने की पीड़ा से बड़ी होती है।'2 राधा को प्रेम की इस उदात्त स्थिति को प्राप्त करने से पहले जिन-जिन स्थितियों से गुजरना पडा होगा तथा उसकी क्या मन: स्थिति रही होगी उसका कवि ने बहुत गहराई से विवेचन किया है। साधारणतया संसार के प्रेमीजनों का लक्ष्य मिलन होता है किन्तु यहां पर राधा कृष्ण के मिलन की ऐसी कोई संभावना ही नहीं हैं। कवि ने पूर्वबंध में इसका उल्लेख करते हुए लिखा है - 'राधा-कृष्ण की प्रेमकथा विश्व की किसी भी प्रेमकथा से भिन्न है, अन्य कथाओं में यदि परिस्थितियां कुछ भिन्न होती और दूसरे लोग उनके प्रेम को समझने का प्रयास करते या कम से कम उनके रास्ते में बााधाएं पैदा न करते तो प्रेमी प्रेमिका का मिलन संभव था। पर राधा और कृष्ण के संबंधों में ऐसी कोई संभवना कभी रही ही नहीं। जब वे एक दूसरे से मिले, राधा का विवाह हो चुका था। कृष्ण के साथ उसका संबंध ऐसा था कि उसके साथ रहने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। यदि उन्हें लोगों का सहयोग मिलता, तब भी उनका विवाह नहीं हो सकता था। राधा निश्चित रूप से यह बात जानती होगी, तब भी अगर वह अपने जीवन की अंतिम सांस तक कृष्ण को चाहती रही तो स्पष्ट है कि यह सब वह बिना किसी भ्रम के करती रही। कृष्ण के साथ अपने संबंधों का आधार उसने सांसारिक रूप से एक-दसरे के साथ रहने की बजाए कुछ और बनाया जो इससे कहीं श्रेष्ठ था। सफलता निम् श्रेणी के मनस छोटी-छोटी तुष्टियों की प्राप्ति से बाधित नहीं होते, वे इन्हें केवल छोटे-छोटे परिणाम मानकर एक ओर कर देते हैं। वे जानते हैं कि ये तुष्टियां मिलने के साथ समाप्त भी हो जायेगी और उस कामना के मार्ग से भटकायेंगी और उससे दूर करेंगी। जब कि शुद्ध कामना ऐसी अविच्छिन्न यात्रा है जिसमें यदि इसके कभी न समाप्त होने की निराशा है तो साथ ही इस गौरव का बोध भी है कि इस यात्रा में उसने छोटे-छोटे विकल्पों को स्वीकार नहीं किया।'3 और राधा के द्वारा इस स्थिति का स्वीकार करने से पूर्व उसे जो तपस्या करनी पडी होगी उसका अनुभव राधा के अलावा कौन कर सकता है! कवि के शब्दों में- 'पहले तो कभी छाती
आज की तरह धुक्धुक् नहीं करती थी, भला
मैं क्या जानूं, मेरे जीवन काल
अथवा यमुना जाने की राह की मोड़ पर होगा
कैसा अपदस्थ होने का योग, अथवा अन्य सभी
संबंधों को उजाड ड़ालने वाले संबंध
मेरी जरा, मृत्यु, व्याधि आदि की
राह हॅसते हुए रोक लेंगे।'4
पर राधा का यह स्वरूप उसके पौराणिक रूप से मेल नहीं खाता है। कवि ने राधा का एक नया ही रूप यहां प्रस्तुत किया है। राधा सांसारिकता के तमाम सुख-दुखों से ऊपर उठ चुकी है और यह स्थिति एकदम उसके जीवन में आ गई हो ऐसा नहीं हैं। कवि ने पूर्वबंध में इसकी चर्चा करते हुए लिखा है - 'एक ऐसा क्षण अवश्य आया होगा जब राधा सांसारिकता से ऊपर उठ गयी होगी और अपनी कामनाओं तथा उनके फलीभूत न हो पाने के विश्वास से उत्पन्न पीडा के अनुभव से उसने स्वयं को परे कर लिया होगा। इसके बाद वह क्षण आया होगा, जब पहली बार उसके लिए कामना तथा उसका फलीभूत होना युगपत क्रियाएं बन गयी होंगी और वही क्षण उसके लिए अखंड आनंद का क्षण बन गया होगा।'5 इस प्रकार प्रस्तुत काव्य में राधा-कृष्ण के शाश्वत प्रेम का रहस्य कवि ने उद्धाटित किया है। अर्जुन शतपति के शब्दों में 'कवि ने पहला सवाल उठाया है राधा के स्वरूप को लेकर। उनका दावा है कि उनके काव्य का उपजीव्य राधा तो है, पर राधा की समग्रता नहीं है। राधा एक अवस्था है जिसकी प्रसिद्धि पुराणों और किंवदन्तियों में नहीं है। 'जिस समय राधा ने असामान्य बनना शुरु किया, खूब सूरत बनने लगी एवं अनन्य बनकर अपने को अर्थपूर्ण करने लगी। ठीक उसी वक्त और ठौर मेरी संवेदना वापस आ गई।' भारतीय वाङ्मय आज तक जिस राधा को समेटता अया है, कवि का उससे कोई लेना-देना नहीं हैं।'5
जहां तक श्री राधा काव्य के स्वरूप का प्रश् है - कुछ विद्वान इसे खंड काव्य मानते हैं तो कुछ विद्वान मुक्तक प्रबंध अथवा प्रबंध मुक्तक। प्रस्तुत काव्य स्वरूप को लेकर डॉ. अर्जुन शतपति का विचार अधिक समीचीन लगता है - प्रस्तुत काव्य में प्रबंध-मुक्तक या मुक्तक-प्रबंध की विशेषताएं प्राप्त होती है। आधुनिक भारतीय काव्य दृष्टि से प्राचीन स्वरूप ओझल हो चुका है। न तो सांप्रतिक काव्य में सर्ग विन्यास है और न अध्यायीकरण। 'श्री राधा' आधुनिक काव्य है और इसमें समय-समय पर लिखी गई इकसठ कविताएं संकलित हैं। ये कविताएं दोनों प्रबंधात्मकता और मुक्तक कविता का अहसास दिलाती हैं। फिर भी प्रबंधात्मकता की शैली छायी रहती है। यह एक नायिका प्रधान काव्य है। राधा की मानसिकता का वर्णन शुरू से अंत तक मिलता है। वह असामान्य प्रेयसी प्रत्येक छंद में वर्तमान हैं। नायिका अपने मुंह से अपनी दशा का वर्णन करती है और अपने को असामान्य स्थिति में पहुंचा देती हैं। अत: इसे स्वगतोक्ति प्रधान काव्य कहा जाय तो शायद ही अत्युक्ति होगी।'6
'श्री राधा' काव्य 61 कविताओं का संकलन है, पर इसे कोई मुक्तक प्रबंध कहना चाहे तो कह सकता है। और इस आधुनिक काव्य के लिए प्राचीन काव्य परिपाटी के कुछ सिद्धांताें के साथ थोड़ा समझौता करते हैं तो इसे खंड काव्य की कोटि में रखा जा सकता है। कथानक की दृष्टि से देखें तो कवि ने राधा-कृष्ण के शाश्वत प्रेम को अपने काव्य का उपजीव्य बनाया है। कृष्ण के जीवन में राधा का स्थान और राधा के जीवन में कृष्ण का स्थान अनन्य है। कृष्ण राधा के बिना अधूरे हैं, चूंकि राधा ही कृष्ण की शक्ति व प्रकृति भी है। अत: वह कृष्ण से भिन्न कैसे हो सकती है। पर इस वैष्णवी भावना को स्वीकार कर लेते हैं तो राधा की उस चाहत का क्या होगा? प्रेम में यही चाहत मिलन के आनंद का कारण बनती है और मिलन के बाद विरह का अवसर भी आ सकता है, उसका क्या करें! और जिस प्रेम में मिलन के बाद विरह निश्चित है तो इस तरह के मिलन को क्या करें? यहां राधा की इस भाव भूमि को समझ लेना उचित होगा। राधा कृष्ण के जीवन में आयी उससे पहले उसका विवाह हो हो गया था पर कृष्ण के इस तरह उसके जीवन में आने के कारण उसके जीवन का अंधकार मिट गया और जैसे एक नयी सुबह का आगमन हुआ। पर एक विवाहिता इस तरह किसी पराए पुरुष के लिए तड़पती-छटपटाती रहे, इसमें औचित्य कितना? और संभवत: कवि ने इसी कारण दैहिक मिलन के बजाय मनोमिलन का औचित्य देखा! तभी तो राधा कृष्ण को मन ही मन चाहती है, कृष्ण के साथ उसका मिलन शरीर नहीं, बल्कि स्मृतिजन्य मिलन है, इसकी बराबर अनुभूति की जा सकती है जैसे निगुण संतों के यहां होता है।
काव्य की शुरूआत सुबह के साथ हुई है। राधा के जीवन में अब तक जैसे अंधेरा था, पर उसके जीवन में कृष्ण के आगमन से नया सवेरा हुआ है। राधा के लिए यह सवेरा अलग तरह का है। कवि के शब्दों में -
'अन्य सभी सुबहों से आज की सुबह
न जाने लगती है क्यों अलग-अलग।
धूप में यह कैसा दुस्साहस! आज हवा में
अन्यमनस्कता जो नहीं है पहले-सी।
मानो लौटा हो प्रवासी प्रेमी, रह रहा हो
आसपास कहीं छदम वेश लिए।
कितनी बारिश, कितनी भयंकर बिजलियों की कौंध थी कल
रात भर! कैसे पर्वताकार थे बादल
फूल-पत्ते झड ग़ए, मैंने स्वयं को स्वयं ही
जी-जान से दुबका लिया, कहीं बिजलियों की
झिलमिलाती पुकार न बज उठे मेरे कानों में!
अपने नि:शब्द अथवा अर्थहीन शब्दों के
साम्राज्य की अंतिम घडी में
कल का अंधेरा यदि रक्त से सना जूझ रहा होगा,
उसकीजो नाम मात्र स्मृति है वह
कब तक रहेगी बिन बुझे?' 7
यहां जैसे राधा का अतीत और वर्तमान एक साथ साकार हो उठा है। कृष्ण के आगमन से पहले का जीवन और बाद का जीवन कल की रात और आज की सुबह में देखा जा सकता है। राधा का जीवन कल तक कृष्ण के बिना निस्सार था, पर अब 'मानो लौटा हो प्रवासी प्रेमी, रह रहा हो आसपास कहीं छदम वेश लिए।' आज की सुबह ने राधा की जीवन दृष्टि ही बदल डाली। 'अब दिखने लगी है अलग-अलग-सी नदी, नदी के उस पार के वन, कब तक भला न बदलता मेरा पांडुर गगन-पवन?' काव्य में कृष्ण चिंतन का लंबा सिलसिला चलता है। कृष्ण का चिंतन करते हुए राधा को लगता है कि 'ये पैर तो मेरे नहीं, मेरी सारी आशा हताशा का इतिहास मेरा नहीं, पति, घरबार गोष्ठ भर गाय गोरू, कुछ भी नहीं है मेरे यह जीना नहीं हैं मेरा, जो मृत्यु एक दिन अवश्य आएगी, वह भी नहीं है मेरी।' 'यह है राधा का कृष्ण प्रेम। ऐसा भाग्य किसी-किसी का ही होता है जहां अपने प्रियतम के लिए जीवन के साथ मृत्यु तक समर्पित किया जाता है! और अपने लिए सिर्फ रीतापन रह जाता है, बावजूद इसके जीवन का वह शाश्वत आनंद बना रहता है! यानि पीडा में भी आनंद। और यही अद्भूत स्थिति राधा की है। तभी तो वह एक जगह पर कहती है - तुम्हें समर्पित कर दी मैंने शरीर की कठिनता, भार-भार पुरानी आदत, भय भ्राति, सुख-दुख, जरा और मृत्यु, उसके पश्चात्, पिघलकर ब्रह्माण्ड पर बह गयी मानो मैं हूं पर्वत के भीतर तुरंत-मुक्त चंद्र की किरण।' इस स्थिति को कवि ने अन्यत्र व्यक्त करते हुए कहा है - 'तुम यदि वायदा करके न आते किसी रात, मैं यदि रह जाती अपना वैधव्य विलापती रो रहे क्षणों के बीच, वे सब निश्चिह्न हो गए होते लंबी सांसो में, भोर के उजाले में तब भी मैं अगले दिन न खीजती न रूठती अपने ललाट, वक्षस्थल यौवन की दिशा-दिशान्तरों के सजा देती समूचे सृष्टि के फूलों पर, मन को समझाती कि तुम जिस वक्त तुम नहीं होते तब होते खूब निकट हो, इसलिए क्या फर्क पडता है केवल एक रात्रि की लक्ष्यभ्रष्टता में?'
राधा के कृष्ण वर्ण प्रियतम धीरे-धीरे निराकार हो जायेंगे, भले ही उन्हें पा नहीं सकेगी, पर तब भी वह उन्हें भूल नहीं पायेगी- 'तुम्हें न भूल सकूंगी न ही पा सकूंगी और आंखों से आंसू सूख गया होगा तुम्हारे और मेरे एक साथ रहने के दिन न होंगे तुम्हारे और मेरे अलग-अलग रहने के दिन ही तो होंगे चंद्र, तारा, वृक्ष, लता, नदी पहले की भांति जड़ बने होंगे, अगर अचानक उष्मा आये कभी भी खून में अपने आप शीतल होगी तरल राख बन बहती जाएगी नस-नस में मेरी।' राधा अपने इस सांवरे प्रियतम के लिए अपने पति व समाज समेत सबकी ओर से दिये जाने वाले हर दुख को झेलती है। क्योंकि कृष्ण उसकी नस-नस में समा गये हैं। ठीक उसी तरह जैसे सूर के यहां 'तिरसे व्है के अडै है।' यहां तक कि अंत में एक दिन उसके पास कृष्ण के अवसान के समाचार आते हैं तब भी उस सांवरे की शाश्वतता में विश्वास व्यक्त करते हुए वह कहती है - 'अब नहीं हो तुम किसी के पिता पुत्र स्वामी हमारे विदा के दिन की पूर्व रात्रि-सा आज तुम पूर्ण चंचल हो, ध्वनि-सा छेड देते हो, छू देते हो मेरी कुवांरी निर्जनता, मेरे रो पडने पर, गुदगुदी करते हो निस्पंद मेरे देखते रहने पर।' 'राधा ने अपने प्रियतम को पीडा में पाया है। दुनिया की नंजर में भले ही कृष्ण का अवसान हआ हो पर राधा का कृष्ण कभी मर ही नहीं सकता और तभी तो वह अंत में कहती है - कोई नहीं जानता तुम जीवित हो, इसलिए मेरी नदी आने की राह में पीछे-पीछे र्कोई नहीं आयेगा, वे सभी मुझे भूल जाएंगे या सोये रहेंगे गहरी नींद जब तुम्हें भींचकर पकडी होऊंगी अपनी छाती में, जब मेरे सर्वांग पर तुम्हारा हाथ फिर रहा होगा, जब बाधा देने या कुछ कहने की मुझ में सामर्थ्य नहीं होगी, जब मर नहीं पा रही होऊंगी और जीना भी होगा पूर्ण असंभव।' राधा-कृष्ण का इस तरह का मिलन जैसे जीवन और मृत्यु का अद्भूत संगम है। यही तो है काव्य की कथा।
श्री राधा काव्य में रहस्यानुभूति का आभास मिलता है। रहस्यभाव के साथ स्वप्, जिज्ञासा, प्रतीक्षा व रति इत्यादि भाव देखने को मिलते हैं। कहते हैं, प्रत्येक जैविक सत्ता में काम की प्रवृति होती हैं। अत: राधा में भी इस तरह की प्रवृति होना नैसर्गिक बात हो सकती है, परंतु प्रस्तुत काव्य में कहीं भी राधा की कामुकता, कामुक उत्सुकता एवं उन्मत्तता नहीं हैं। डॉ. अर्जुन शतपति इसकी स्पष्टता करते हुए कहते हैं - 'कामना और कामुकता के बीच फासला इतना छोटा है कि महज कामना में कामुकता की भ्रांति पैदा हो सकती है। विरह की कुछ दशाएं राधा में भी देखी जाती है, परंतु प्राचीन और मध्यकालीन शास्त्रीयता का आरोप करना उचित नहीं लगता। यह नि:सन्देह कहा जा सकता है कि राधा मध्यकालीन नायिका नहीं है। राधा कृष्ण आलंबन विभाव है। यमुना का किनारा और चांदनी रात उद्दीपन विभाव हैं। समूचे काव्य में अनेकों बार नदी और रात का वर्णन हुआ है।'
'श्री राधा' काव्य में प्रकृति का अद्भूत चित्रण किया गया है। जैसे राधा-कृष्ण स्वरूप अभिन्न है वैसे ही यहां प्रकृति को इस काव्य से अलग नहीं किया जा सकता। आकाश, बादल, बिजली, नदी, वृक्ष, रात, सुबह, शाम, अंधकार, बारिश आदि का अत्यंत प्रभावशाली ढंग से कवि ने वर्णन किया है।
भाषा शिल्प की दृष्टि से भी 'श्री राधा' काव्य उत्तम कोटि का काव्य ठहरता है। डॉ. अर्जुन शतपति के शब्दों में कहें तो 'कवि रमाकान्त रथ की भाषा में सम्मोहन है; लालित्य है, छन्दहीन छन्द पाठक को आगे बढ़ने के लिए विवश करते हैं। भाषा ऊपर से दुर्बोध-सी लगती है, पर उसकी परतें अपने आप खुलती जाती हैं। कवि ने उडिया भाषा में शब्दिक अभिव्यंजना का नया प्रयोग किया है। ठेठ उडिया शब्दों को जनजीवन से बटोकर उनमें सहज अर्थवत्ता भर देने में कवि की सफलता निर्विवाद है। श्री राधा की भाषा विशिष्ट है। लंबे अरसे तक कवि सच्चिदानंद राउत राय की भाषा-शैली का अनुसरण किया गया था। किन्तु आज श्री राधा की अभिव्यक्ति कला का अनुसरण करने वाला हर गली में मिल जाएगा। काव्य के बिंब और प्रतीक एकदम से नए प्रतीक नहीं होते। परिचित बिंबों में नवीन भाव व्यंजना इसकी खूबी है। काव्य-शिल्प बेजोड़ है।'8
निष्काम प्रेम की अवतरणा प्रस्तुत काव्य का महान उद्देश्य है। कृष्ण राधा के इष्ट हैं, तो राधा भी कृष्ण की आराध्य देवी है। राधा के बिना कृष्ण अधूरे हैं। कवि ने संभवत: राधा के दैवी रूप का अस्वीकार करते हुए उसके मानवीय रूप को अधिक ग्रहणीय समझकर मानवीय और दैवी गुणोॆ का संगम उसमें दिखाया है। संक्षेप में कहें तो कवि रमाकान्त रथ ने 'श्री राधा' काव्य की राधा में मानवीय अतृप्ति और दैवी संपन्नता को एक साथ अवतरित किया है।
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रचनाकार संपर्क - डॉ. मधुकर पाडवी
अध्यक्ष, हिंदी विभाग,
एम.टी.बी.आर्ट्स कॉलेज, सुरत (गुजरात)
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