प्रथम किश्त | द्वितीय किश्त | तृतीय किश्त यात्रा - वृत्तांत -सोमेश शेखर चन्द्र स्टेशन के मीटिंग प्वाइंट पर तिवारी जी थोड़ी ही देर ...
प्रथम किश्त | द्वितीय किश्त | तृतीय किश्त
यात्रा - वृत्तांत
-सोमेश शेखर चन्द्र
स्टेशन के मीटिंग प्वाइंट पर तिवारी जी थोड़ी ही देर में मुझे तलाशते मेरे पास पहुँच गये थे। मुझे उस समय लघुशंका लगी थी मैंने तिवारी जी से बताया तो वे मुझे ऊपर के तल्ले से लेकर नीचे के तल्ले पर काफी घुमाते हुए उस जगह पर ले गये जहाँ टायलेट था। स्टेशन के नीचे तल्ले पर दिल्ली की पालिका बाजार की तरह ढेरों दुकानें थी जिसमें तरह-तरह के समान सजे हुए थे। दुकानों के चलते नीचे के तल्ले पर काफी भीड़ थी। यहाँ पर टायलेट में लघुशंका से फारिग होने के लिए मशीन में एक फ्रैंक डालने से टायलेट का दरवाजा खुलता था। पाँच फ्रैंक डालने से संडास का दरवाजा खुलता था और बारह फ्रैंक डालने से वह दरवाजा खुलता था जिसमें नहाने धोने की पूरी व्यवस्था थी। टायलेट से बाहर निकला तो तिवारी जी से कहा यह तो बहुत मंहगा है। इस पर उनका जबाब था कि यहाँ के टायलेटो में जिस तरह फाइव स्टार होटलों की तरह की सुविधा और सफाई की व्यवस्था है ऐसी व्यवस्था के लिए ५-१० फ्रैंक खर्च कर देना हमें अखरता नहीं है। तिवारी जी के साथ मैं स्टेशन से बाहर निकला तो वे मुझे लेकर स्टेशन के ठीक बगल से बहती नहर के ऊपर बने पुल पर ले गये थे। पुल के ऊपर खड़ा होकर मैंने देखा था नहर में बहता पानी इतना साफ और पारदर्शी था कि १०-१२ फिट नीचे की जमीन एकदम साफ दिखाई दे रही थी। तिवारी जी ने बताया कि यहाँ पर शहरों के सीवेज का मल और कचरा, नदियों और झीलों में नहीं बहाया जाता। उसे बहाने के पहले वे इसे साफ करके, पूरी तरह ट्रीट करते हैं और जब वह पीने लायक शुद्ध हो जाता है तभी वे उसे नदियों और झीलों में छोड़ते हैं। तिवारी जी ने मुझे बताया कि ज्यूरिख रेलवे स्टेशन, जब इंजन कोयले से चलते थे उस समय, इस नहर तक फैला था लेकिन बिजली का इंजन आने के बाद इन लोगों ने यहाँ की पटरियाँ उखाड़ कर यहाँ पर रास्ता और कार पार्किंग की जगह बना दिया है। स्टेशन की बिल्डिंग, शुरू शुरू में जिस तरह की बनी थी उसका बाहरी स्वरूप अभी भी वैसा ही है। परिवर्तन जो कुछ हुआ है भीतरी हिस्से में हुआ है। ज्यूरिख रेलवे स्टेशन दो तल्लोंे में है इसके नीचे और ऊपर के दोनों तल्लों में ट्रेनों का आवागमन होता है। यहाँ ट्रेनों के इंजन या पटरी बदलने का झंझट नहीं है। ट्रेनों के आगे और पीछे दोनों तरफ इंजन लगे होते हैं प्लेटफार्म पर ट्रेन पहुँचती है तो ड्राइवर उतरकर आगे की ओर चला जाता है और समय होने पर ट्रेन लेकर अपने गन्तव्य की तरफ चल पड़ता है। ट्रेन में सिर्फ एक ही ड्राइवर होता है जो ट्रेन लेकर अप डाउन करता रहता है।
स्टेशन की इमारत देखने में, किसी बड़ी चर्च की तरह खूबसूरत लगती थी। वह काफी पुरानी होने के बावजूद, काफी साफ सुथरी और वैभवपूर्ण लगती थी। दाहिने हाथ की तरफ उसी तरह की तीन-चार इमारतें और थी उसमें से एक पुराने पोस्ट आफिस की थी और एक यहाँ की एसेम्बली की थी। तिवारी जी ने मुझे बताया कि यहाँ पर राजशाही कभी भी नहीं रही थी। हमेशा ही प्रजातंत्र रहा था। इसलिए दूसरे मुल्कों की तरह यहाँ के शासकों ने बड़ी इमारतें नहीं बनाया था। मुझे लेकर तिवारी जी नहर के दूसरी तरफ गये। नहर के दूसरे किनारे पर कईयों मोटे तनों वाले सुर्रे छतनार पेड़ों का एक झुरमुट था। उसके नीचे लोगों के बैठने के लिए तीन चार बेंचें लगी हुई थी। उस समय उन बेंचों पर और नीचे घास वाली जमीन पर ३०-३५ की संख्या में १८ से २५ वर्ष की उम्र के बीच के लड़के और लड़कियाँ बैठे, खाने के साथ दारू पी रहे थे। देख रहे हैं इन्हें? तिवारी जी वहाँ बैठे लड़के लड़कियों की तरफ मेरा ध्यान खींचते हुए मुझे बताया था कि ये लड़के लड़कियाँ यहाँ के लाखैरा हैं, कह सकते हैं कि बिगड़े हुए लोग हैं। उनके बताने पर मैं उन्हें बड़े ध्यान से देखा था। वे लोग काफी हृष्ट पुष्ट और साफ सुथरे थे। इन्हें देखने से लगता था कि वे सम्भ्रान्त घर के लड़के लड़कियाँ हैं। वैसे यहाँ का हर आदमी सम्भ्रान्त ही दिखता है। वे लोग होटल से खाने का सामान और दारू की बोतल खरीदकर यहाँ लाये हुये थे और वहीं एक साथ बैठकर खा पी रहे थे। उनके चेहरे से लगता था कि वे लोग काफी पी रखे हैं और पूरी तरह नशे में हैं। लेकिन उनमें से कोई भी न तो इधर उधर लुढ़क रहा था और न ही किसी तरह का शोर शराबा या धमा चौकड़ी ही कर रहा था। सब लाखैरे थे और नशे में धुत थे लेकिन सब अपनी गरिमा और मर्यादा में थे। खाने पीने में वे इस कदर मशगूल थे और अपने में ही मस्त थे जैसे उन्हें इस दुनिया जहान से कोई मतलब ही न हो।
तिवारी जी ने मुझे बताया था कि, इन लखैरों को भी यहाँ की सरकार, हर महीने खासा पैसा, भत्ते के रूप में देती है। तिवारी जी की बात सुनकर मैं चौंक उठा था। लखैरों को दारू पीने और उनकी मौज मस्ती के लिए यहाँ की सरकार उन्हें हर महीने भत्ते देती है? तिवारी जी से मैं अपनी हैरानगी प्रकट करते हुए उनसे पूछा था तो वे पहले की तरह एकदम सहज ही रहे थे। उन्होंने मुझे बताया था कि देखिए हर समाज और देश में कुछ प्रतिशत लोग ऐसे होते हैं जो निहायत निकम्मे और गैर जिम्मेदार किस्म के होते हैं। ऐसे लोग यद्यपि की किसी समाज के लिए भार स्वरूप होते हैं फिर भी समाज उन्हें बर्दाश्त करता है। यहाँ की सरकार यह बात अच्छी तरह समझती है। ऐसे लोगों को अगर इनके हाल पर छोड़ दिया जाये तो ये लोग या तो अपने घरों के समान बेंचकर मौज करेंगे या बाहर चोरी चकारी करेंगे। इन्हें अगर जेल में भी डाल दिया जाये तो वहाँ भी ये लोग सरकार का ही सिर दर्द बने रहेंगे। इसलिए यहाँ की सरकार इन लोगों को इतने पैसे दे देती है कि ये लोग खायें पियें और मस्त रहें, लेकिन हमेशा अपनी मर्यादा में रहकर। सब, इस बात के प्रति सचेत भी रहते हैं कि उनके किसी काम से दूसरे को तकलीफ न हों। लखैरों तक के बारे में यहाँ की सरकार और समाज की ऐसी व्यावहारिक सोच और इस सोच के पीछे का उनका तर्क सुनकर मुझे अजीब जरूर लगा था लेकिन मैं इससे अपने को असहमत नहीं कर पाया था। छोटी सी छोटी समस्या का कितना तार्किक और गहन विश्लेषण करके लोग उसका ऐसा व्यवहारिक निदान खोज लिए हैं इसे समझकर मैं दंग था। लड़के लड़कियाँ दारू पी रखी थी और वे नशे में थी लेकिन हम लोगों को अपनी तरफ देखता देख न तो उनको अपने कृत्य पर कोई पाश्चाताप हो रहा था और न ही वे लोग इस पर कोई प्रतिक्रिया ही व्यक्त किये थे। उड़ती नजरों से वे हमारी तरफ देखकर, फिर अपने में मस्त हो गये थे जैसे वे हमें बता रहे हों कि देखिए और हमें जी भर कर देखिए हम जो हैं वही हैं और जैसे हैं उसी में खुश हैं। हमें लेकर आप लोग परेशान हो रहें हों तो आप बेशक परेशान हो लीजिए, लेकिन इससे हम पर कोई असर नहीं होने का। तिवारी जी की अपनी गाड़ी थी लेकिन कुछ दिन पहले उनका कार से एक्सीडेंट हो गया था, इसलिए वे गाड़ी नहीं चलाते थे वहाँ थोड़ी देर बिताकर हम लोग बस पकड़े थे और तिवारी जी के साथ उनके घर आ गये थे। तिवारी जी प्रोफेसर रह चुके थे तो जाहिर सी बात थी कि वे काफी पढ़े लिखे थे लेकिन अपने पास वे मोबाइल नहीं रखते थे। इसका कारण उन्होंने बताया था कि इसमें कैसे कैसे तो सिस्टम होते हैं वह मेरी समझ में नहीं आता। कम्प्यूटर के इस युग में वे कम्प्यूटर पर भी कभी काम नहीं करते थे। कौन इस झंझट में पड़े उनका कहना था । यही हाल अपने यहाँ लालू जी का था जब वे बिहार के चीफ मिनिस्टर थे तो कम्प्यूटर को वे वाहियात की चीज समझते थे। दूसरी छोटी छोटी जगहों पर लोगों ने कम्प्यूटर लगा लिया था, लेकिन बिहार में वे कम्प्यूटर को वाहियात सी चीज कहकर उससे दूर ही रहे थे। शायद यही होता है किसी भी नई चीज को युवतियाँ और युवक बड़ी जल्दी अख्तियार कर लेते हैं लेकिन पुराने लोग अपने पुराने ढर्रे पर इतने रूढ़ हो चुके होते हैं कि नई चीज को अख्तियार करना उन्हें बड़ी जहमत वाला काम लगता है। बस पड़ाव से तिवारी जी का घर नजदीक ही था। इसलिए हम दोनों बस से उतरकर पैदल ही बोलते बतियाते उनके घर तक आये थे। उनके घर के पास ही एक स्कूल था जिसमें सेकेण्डरी तक बच्चे बच्चियों की पढ़ाई होती थी। शनिवार का दिन था इसलिए स्कूल बन्द था। तिवारी जी मुझे स्कूल दिखाने ले गये थे। काफी लम्बी चौड़ी जगह पर स्कूल की एक तल्ली इमारत थी जिसमें बच्चों के खेलने के लिए फुटबाल, हॉकी, बालीबाल का अलग-अलग कोर्ट था। स्कूल में बच्चों की शिक्षा के साथ-साथ खेलने का अच्छा प्रबन्ध था। साग सब्जियों और फूल की लम्बी चौड़ी क्यारियाँ थी जिसे बच्चे खुद अपने हाथों से लगाये थे। उसकी निराई गुड़ाई से लेकर सींचना पातना सभी काम बच्चों के ही जिम्मे था। एक तरफ सेब और चेरी के पेड़ के बगीचे थे। दूसरी तरफ मूली गाजर टमाटर और सलाद पत्ते से भरी क्यारियाँ थी। तरह-तरह के रंग बिरंगे फूलों के पौधे स्कूल के चारों तरफ बड़े सलीके से लगाये हुए थे और वे उस समय फूलों से लदे हुए थे। स्कूल के बरामदों में बच्चों द्वारा उकेरे चित्र, बोर्ड में लगाकर रखे हुए थे। स्कूल में संगीत की शिक्षा भी बच्चों को दी जाती थी। सब मिलाकर स्कूल मुझे काफी अच्छा लगा था। स्कूल की क्यारियाँ बगीचे और इसके बरामदों में घुमाने के बाद तिवारी जी मुझे लेकर अपने घर आ गये थे। स्विटजरलैंड में पहाड़ियों और झीलों के चलते रिहायशी घर बनाने के लिए जमीन थोड़ी बचती है इसलिए यहाँ पर जमीन तल्लों में बिकती हैं तिवारी जी का मकान ऊपर के तल्ले में था। यहाँ पर किसी भी तल्ले में कोई घर बनवाये उसे वह अपने तरीके से और नक्शे डिजाइन से बनवा सकता है।
तिवारी जी का घर काफी लम्बा चौड़ा था और काफी खुला खुला भी था। घर के भीतर उनके, भारत के देवी देवताओं की कईयों मूर्तियां रखी हुई थी दीवालों पर जगह-जगह दर्शनीय स्थलों और प्राकृतिक दृश्यों वाले चित्र लगे हुए थे। एक जगह भगवान बुद्ध की तो एक दूसरी जगह गणेश जी की बड़ी मूर्ति पूरी तरह सजाकर रखी हुई थी। सब मिलाकर तिवारी जी का पूरा घर, मन्दिर और घर का मिला जुला रूप था। तिवारी जी सिर्फ खुद ही नहीं बल्कि उनकी पत्नी और बच्चे पूरी तरह शाकाहारी थे। यहाँ तक कि वे लोग लहसुन प्याज तक नहीं खाते थे। उन्हें दो बच्चे थे। बड़ा बेटा था, उसका नाम कृष्ण था और बेटी छोटी थी उसका नाम तुलसी था। तुलसी उस समय घर में थी और कृष्णा खेलने गया हुआ था। मेरे पहुंचने पर तुलसी ने मुझे दोनों हाथ जोड़कर ढेठ भारतीय अंदाज में नमस्ते किया था। तुलसी की उम्र ११ के आसपास रही होगी। तिवारी जी मुझे लेकर बरामदे में पड़े सोफे पर बैठे थे। मैं उनके घर गया था इसको लेकर वे काफी खुश थे। तुलसी मेरे लिए जग में पानी और एक तस्तरी में कुछ चाकलेट लेकर आई थी। गदबदी और गलगुथ तुलसी, देखने में खूबसूरत गुड़िया की तरह लगती थी। उस समय वह फ्राक में थी। पानी पीने के बाद तुलसी हमारे लिए चाय बनाकर लाई थी। चाय पी कर मैं निश्चित होकर बैठा था तो मैंने तिवारी जी से पूछा था कि तिवारी जी मैं स्विटजरलैंड पूरा तो नहीं देखा लेकिन जितना देखा हूं इसे देख कर अभिभूत हूँ आप यह बताइये कि आप यहां कैसे पहुंचे। हालांकि मैं तिवारी जी के बारे में ढेर सारी बते जानता था लेकिन बात शुरू करने के लिए मैं उनकी व्यक्तिगत जिदंगी से ही शुरू किया था। बनारस की अपनी प्रारंभिक पढ़ाई शुरू करके वे इलाहाबाद युनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र से एम. ए. किये थे। भारत में किसी कालेज में प्रोफेसर हुए और वहीं से जर्मनी की एक युनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र पढ़ाने के लिए उन्हें नियुक्ति मिली। जर्मन युनिवर्सिटी में उनकी पत्नी उनकी छात्रा थीं। उन्होंने उससे शादी किया, उसे घर लेकर आये, उनकी विरादरी वालों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। उनके भाईयों की नजर उनकी सम्पत्ति पर थी इसलिए वे लोग भी उनके साथ बुरी तरह पेश आने लगे थे। इस सब के चलते तिवारी जी खीझकर भारत छोड़कर, स्विटजरलैंड आ गये थे, और यहीं के होकर रह गये थे। पत्नी उनकी इतनी सहयोगी थी कि, तिवारी जी के किसी भी निर्णय में उसने कभी हस्तक्षेप नहीं किया। इसके बाद मैंने तिवारी जी से पूछा कि तिवारी जी यह बात मेरे लिए एक पहेली की तरह है कि पिछले दो विश्वयुद्ध हुए और दोनों का कारण और केन्द्र बिन्दु युरोप ही था। दोनों विश्व युद्धों में योरोप करीब-करीब तवाह ही हो गया था। दो महायुद्धों के पहले भी, पृथ्वी पर कभी दो देशो में, कभी दो राजाओं और दो धर्मों में, और कभी दो सभ्यताओं के बीच युद्ध होते ही रहते थे। लेकिन स्विटजरलैंड कभी भी युद्ध में नहीं उलझा। हिटलर जैसा शासक, ठीक उसकी सरहद पर बैठा था लेकिन उसने भी स्विटजरलैंड को बक्स दिया। मानता हूं कि स्विटजरलैंड, हर लफड़े से अपने को तटस्थ रखा था। वह कभी भी इसका या उसका पक्ष नहीं लिया, लेकिन सिर्फ इतने से ही कोई देश, या फिर कोई आदमी, चाहे कि अपनी जिन्दगी निर्द्वंद और अपनी शर्त पर जी ले ऐसा होना सम्भव नहीं है। फिर भी स्विटजरलैंड अपनी शर्तो पर, स्वतंन्त्र, आज तक जी रहा है यह कैसे सम्भव हो सका है? और उससे बड़ी पहेली मेरे लिए यह है कि, स्विटजरलैंड की न तो अपनी ज्यादा पुलिस है और न ही उतनी संख्या में यहां मिलिट्री ही है। जैसा मैंने सुना है कि स्विटजरलैंड में पुलिस और मिलिट्री दोनों को मिलाकर कुल सात हजार की संख्या है। ऐसे में स्विटजरलैंड का अपनी शर्त पर जीना किसी चमत्कार की तरह ही लगता है। तिवारी जी मेरा प्रश्न सुनकर थोड़ी देर चुप रहकर सोचने लग गये थे। मुझे लगा यह बड़ा नाजुक प्रश्न है और इसका जबाब वे दें या नहीं दें इसी सोच में पडे हुए हैं। तिवारी जी मेरे प्रश्न का उत्तर देने में अगर आपको कोई दिक्कत होती है तो इसे यहीं ड्राप कर दीजिए। तिवारी जी को चुप देखकर मैने उनसे कहा था। अरे नहीं ..... वैसी कोई बात नहीं है दरअसल एक ही सांस में आपने इतनी सारी बातें पूछ लिया है कि मैं इसका जबाब कहां से शुरू करूं यही सोच रहा हूं। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद तिवारी जी ने जो मुझे बताया था वह इस तरह था। आपका कहना एकदम ठीक है, कि कोई भी मुल्क या आदमी, तटस्थ रहकर चाहे कि अपनी जिन्दगी, अपनी शर्तों पर बसर कर ले, यह सम्भव नहीं है। तटस्थता, अपनी शर्त पर जीने का एक बहुत छोटा सा और कमजोर कारण है, लेकिन यह एक कारण तो है ही। अपनी शर्त पर जीने के पीछे जो सबसे महती और ठोस कारण होता है वह है उस देश की अपनी अन्दरूनी ताकत और उस ताकत को विवेक पूर्ण ढंग से उपयोग करना। स्विटजरलैंड की कम तादाद की पुलिस और सेना देखकर आप सोच रहे होंगे कि इतनी कम सेना से यह अपनी रक्षा कैसे करता होगा? लेकिन इन लोगों को उतनी बड़ी मिलिट्री रखने की कोई जरूरत ही नहीं है। यहां का सिस्टम है कि १८ वर्ष की आयु होने पर हर बच्चे को मिलिट्री में जाना होता है। वहां उसे रहना सिर्फ छह हप्ते ही होते है, लेकिन उतने ही दिनों में उसे इस लायक बना दिया जाता है कि वह अपनी और अपने देश दोनों की रक्षा कर सके। दरअसल इस देश के हर घर के नीचे एक तहखाना होता है। उस तहखाने में १०-१५ लोगों के हफ्ते भर का खाना रख दिया जाता है। इसकी जिम्मेदारी यहाँ की काउन्टी पर होती है। वह बिना नागा, हर हफ्ते तैयार खाना लाकर घर के तहखाने में रख देती है। हफ्ता बीतने के बाद वह उस खाने को बदल देती है। घर के तहखाने में ही स्टेनगन से लेकर और भी दूसरे हथियार कारतूसों के साथ रखे होते हैं कि यदि कभी जरूरत पड़ जाये तो लोग उसका इस्तेमाल कर सकें। घर के नीचे तहखाना इस तरह का बनाया जाता है कि अगर कोई एटमबम भी गिरा दे तो लोग तहखाने में छुपकर अपनी जान बचा लेंगे। यहाँ के लोग और सरकार दानों जानती है कि युद्ध नहीं होगा लेकिन वे इसके लिए चौबीसों घंटे तैयार रहते हैं। अब आप ही बताइए जो देश युद्ध के लिए हमेशा तैयार रहे और इसका हर आदमी सिपाही हो, उस पर कोई आँख उठाने की हिम्मत कैसे करेगा। दूसरी बात आपने जो पूछा कि हिटलर जैसे शासक ठीक इसके बार्डर पर हाने के बावजूद और उसके पहले भी दुनिया के हर हिस्से में अक्सर मारकाट मची ही रहती थी फिर भी स्विटजरलैंड युद्ध से अछूता ही रहा था क्यों? इसका कारण भी यही है कि वह हमेशा युद्ध के लिए तैयार रहता है, दूसरी बात यह कि यहाँ के लोग काफी होशियार हैं। पैसा इनके पास अकूत है सिर्फ इसके बैंकों में ही नहीं बल्कि पर्यटन और अपने उद्योग से यह अकूत पैसा अर्जित करता है। उद्योग में तो यह इतना आगे है कि युद्ध में जितनी भी मशीन, राकेट से लेकर एयरफोर्स के लड़ाकू विमानों, समुद्री पनडुब्बी तक में जो सबसे बारीक और कम्प्लिकेटेड पुर्जे लगते हैं, यहाँ तक कि अंतरिक्ष में भेजे जाने वाले उपग्रहों तक के पार्ट पुर्जे, जिसे दुनिया का कोई भी देश नहीं बना पाता, उसे स्विटजरलैंड बनाता है और इतने बारीक पुर्जे बनाकर वह उनकी मुँहमांगी कीमत वसूल करता है और लगातार वसूलता ही रहता है। ऐसे में आप बताइए उसके पास पैसे की कभी कमी होगी क्या? दूसरी बात यह कि दुनिया का कोई भी देश इसे नाराज करके या इसके साथ छेड़खानी करके जिंदा रह सकेगा? नहीं रह सकेगा। तिवारी जी की बात से मैं पूरी तरह सहमत था। वैसे भी दुनिया के लोग यहाँ की बैंकों में पैसा चुराकर जमा करके रखते हैं। उन पैसों में ज्यादातर पैसा तो जमा करने वाले के मरने या अपदस्थ हो जाने पर, यहीं पड़ा रह जाता है, ऐसे में लोग, इसके खिलाफ कभी कुछ करने की हिम्मत नहीं करते होंगे। हालांकि तिवारी जी ने मुझसे यह बात नहीं कहा था यह मेरा खुद का अनुमान था।
एक प्रश्न आपका, कि हिटलर जैसा शासक इसके बार्डर पर बैठा था फिर भी इसको वह नहीं हड़पा तो इसके पीछे जो कारण था वह यह था कि जर्मनी के पास इतना बड़ा युद्ध लड़ने के लिए पैसे कहाँ थे। युद्ध में जितना भी पैसा हिटलर ने खर्च किया था हथियार से लेकर हवाई जहाज और सैनिकों पर, करीब करीब सारा पैसा उसे स्विटजरलैंड ने दिया था। स्विटजरलैंड ने हिटलर को युद्ध के लिए जो पैसे दिए थे उसकी शर्त यह नहीं थी कि हिटलर इस देश पर आक्रमण नहीं करेगा बल्कि इसने उसे जितना भी पैसे दिए थे वह अपनी शर्त पर दिए थे और युद्ध खत्म होने के बाद उसने जर्मनी से सारे पैसे मय सूद के वसूल भी किए थे। हिटलर यहूदियों को मारने के बाद उनके दाँत में मढ़े सोने इसीलिए निकलवा लेता था कि इससे वह स्विटजरलैंड से लिया गया कर्ज अदा कर सके ऐसे में आप ही बताइए हिटलर की हिम्मत थी जो स्विटजरलैंड पर आक्रमण करता? तिवारी जी की बात सुनकर इतने दिनों तक यहाँ के लोगों की सरलता देखकर उनके प्रति, मेरी जो धारणा बनी थी वह एकदम उलट गई थी। यहाँ के लोग माना कि कांइया, धूर्त और धोखेबाज नहीं हैं, (जो अमूमन आदमी की फितरत होती है) लेकिन किसी की कमजोर नस पकड़कर, सारे माहौल को अपने अनुकूल बना लेने की गहरी पकड़ तो उनमें है ही। इसके अलावा, वे अपने स्तर पर आर्थिक, सामाजिक और पूरे मुल्क के स्तर पर बुद्धि और तकनीक में इतने सक्षम है कि उनकी तरफ कोई कुदृष्टि डालने की हिम्मत ही नहीं कर सकता और सबसे बड़ी बात तो यह है कि चाहे अपनी बैंकों में लोगों द्वारा जमा पैसों के चलते या अपनी सूक्ष्म तकनीक के बूते हर देश की कमजोर नसें जो इन्होंने पकड़ रक्खा है इसको लेकर इसे कोई छेड़ कर नाराज करने की गलती करेगा तो कैसे करेगा? भारत में लोग पश्चिमी सभ्यता के बारे में काफी उल्टी पुल्टी बातें करते हैं। यहाँ आने के पहले मेरे भीतर भी पश्चिमी सभ्यता को लेकर कोई अच्छी धारणा नहीं थी। लेकिन यहाँ इतने दिनों रहकर जो कुछ मैंने देखा समझा था मुझे यहाँ की सभ्यता में कोई ऐसी खामी नजर नहीं आई जिसके बिना पर मैं यह कह सकूँ कि यहाँ की सभ्यता हमारी सभ्यता से किसी भी तरह घटिया दर्जे की है उलट इसके यहाँ के लोगों की सरलता, ईमानदारी हर क्षेत्र में उनकी बारीक पकड़, बच्चों का लालन-पालन पति-पत्नी के बीच का सम्बन्ध काफी वैज्ञानिक और समझदारी पूर्ण लगा। फिर भी तिवारी जी से मैंने पूछ लिया था कि आप भारत की सभ्यता की तुलना पश्चिम की सभ्यता से किस तरह करते हैं। मेरे इस प्रश्न के जबाब में तिवारी जी ने कहा कि, किसी दो चीज की तुलना तब की जाती है जब वे दोनों चीजें एक ही स्वरूप की और समान धर्मी हों। दोनों सभ्यताओं में कहीं कोई मेल ही नहीं है तो उसकी तुलना कैसे की जा सकती है? भारत की सामाजिक व्यवस्था पुरूष श्रेष्ठ है। वहाँ पर बच्चे जब तक अपने पैरों पर खड़े नहीं हो जाते वे माँ बाप पर पूरी तरह आश्रित होते हैं। शादी ब्याह के मामले में भी वहाँ माँ बाप का पूरा हस्तक्षेप होता है जबकि यहाँ पर बच्चों के पैदा होने के साथ ही सारी व्यवस्था, चाहे वह पारिवारिक हो, सामाजिक हो या शिक्षा की, ऐसी है कि वे इतने सक्षम हो जाएँ, कि अपने से ताल्लुक रखने वाले और अपनी जिन्दगी के सारे निर्णय खुद ले सके। जब बच्चे छोटे होते हैं तो उनकी देखभाल और पालन पोषण की जिम्मेदारी माँ बाप पर होती है। इसके अलावा माँ बाप, उन पर अपनी इच्छा नहीं थोप सकते। उन्हें दण्ड देने या उनके साथ कोई जोर जबरदस्ती करने का हक, माँ बाप के पास नहीं होता। यहाँ पर बच्चे पांच साल के बाद ही स्कूल जा सकते है। पांचवीं कक्षा पास करने पर हर बच्चे की ग्रेडिंग होती है। जिस बच्चे का अच्छा ग्रेड होता है वे डाक्टर इंजीनियर संनिटाइस्ट, मैनेजर बनते हैं। जो बच्चे मध्यम वर्ग के होते हैं वे नर्स क्लर्क और इसी तरह के दूसरे काम करते हैं और जिन बच्चों का ग्रेड, निम्न होता है वे मिस्त्री ड्राइवर जैसे मोटे काम करते हैं। लेकिन सब की शिक्षा ऐसी होती है कि वे सक्षम बनें। यहाँ लड़का लड़की में कोई भेद नहीं है। लड़की को लड़कों के बराबर ही पूरी स्वतंत्रता मिली हुई है। इसलिए जब लड़के लड़कियाँ बड़े हो जाते हैं तो वे शादी ब्याह अपनी पसन्द से करते हैं। लड़के लड़कियों में परस्पर मिलने जुलने पर कोई पाबंदी नहीं है इस तरह भारत का समाज यहाँ के समाज से एकदम भिन्न है। एक बात तिवारी जी ने जिस पर काफी जोर देकर कहा वह यह कि भारत में लोग पश्चिमी सभ्यता में निहित स्वछन्दता और लड़के- लड़कियों के परस्पर मिलने जुलने को खराब कहते हैं लेकिन वे यहाँ की असल स्थितियों को नहीं समझते, इसलिए ऐसा कहते हैं। पूरब के लोग अगर यहाँ की सभ्यता की इस खासियत को भ्रष्ट और घृणास्पद कहते हैं तो मैं तो कहूँगा कि उसी पैमाने पर अगर दिल्ली, बम्बई, बैंगलोर और दूसरी जगहों की लड़कियों की बात करें तो वे यहाँ की लड़कियों से ज्यादा उन्मुक्त और स्वछन्द हैं। यहाँ के लड़के लड़कियों को आपस में मिलने, बोलने बतियाने और टहलने घूमने की छूट है फिर भी वे पूरी तरह अपनी मर्यादा में रहते हैं। जबकि भारत में लड़के, लड़कियों पर तमाम तरह के बन्धन है समाज का भी, और माँ-बाप का भी फिर भी वे यहाँ की लड़कियों से ज्यादा उन्मुक्त है। बुरा मत मानिएगा यह सब किसी की बुराई करने के उद्देश्य से नहीं कह रहा हूं। मैं दोनों जगह की सभी चीजें गहराई से जानता हूँ इसलिए आपको समझाने के लिए ऐसा बता रहा हूँ। यह बात ऐसा मैं इसलिए भी कह रहा हूँ कि आपने इसके बारे में मुझसे पूछा है इसलिए। दरअसल तिवारी जी सभ्यताओं की बात पर थोड़ा उत्तेजित हो उठे थे वैसे बात उनकी सही थी। जिस तरह हर आदमी अपनी सोच को अकाट्य और उचित तथा दूसरे की सोच को गलत और घटिया कहकर अपनी श्रेष्ठता साबित करने में जुटा रहता है, ठीक वैसे ही मानसिकता उसमें अपने धर्म और सभ्यता को लेकर भी होती है। तिवारी जी उस समय अपनी रौ में थे । उन्होंने कहा कि आज जितनी छेड़छाड़ जोर जबरदस्ती और बलात्कार की घटनायें भारत में होती हैं यहाँ ऐसी कोई घटना कभी सुनाई ही नहीं देती। इसके पीछे जो कारण है, वह यह नहीं है कि, यहाँ के लड़के लड़कियाँ सेक्स के मामले में स्वछन्द और उन्मुक्त है इसलिए यहाँ बलात्कार जैसी घटना नहीं होती। यहाँ के लड़के लड़कियाँ उन्मुक्त और स्वछन्द होने के बावजूद, पूरी तरह अपनी मर्यादा में रहते हैं। वे इतने स्ट्रांग और बोल्ड होते हैं कि, क्या मजाल जो कोई लड़का या लड़की, एक दूसरे की मर्जी के खिलाफ, कोई अभद्र व्यवहार कर दें। उन्हें अपनी जिन्दगी खुद ही सेव करना होता है, इसलिए एक दूसरे को समझने के लिए वे आपस में मेलजोल करके एक दूसरे को अच्छी तरह समझ लेते हैं उसके बाद ही कोई निर्णय लेते हैं। तिवारी जी ने आगे बताया था कि यहाँ शादियाँ कान्ट्रैक्ट है जबकि भारत में शादियाँ बन्धन है। यहाँ पर पति या पत्नी, कन्ट्रैक्ट की शर्ते पूरी नहीं की, तो एक दूसरे से अलग हो जाने के लिए स्वतंत्र हैं जबकि भारत में पति पत्नी, शादी के बन्धन में बंधने के बाद, सारी तरह की दुसवारियों के बावजूद, आपसी सम्बन्ध बनाये रखने को बाध्य हैं आप दोनों सभ्यताओं की तुलना किस आधार पर करियेगा? तुलना तो दो पैरलल चीजों की होती है। जब दोनों की सभ्यतायें एक दूसरे से एकदम अलग और विपरीत दिशाओं की हैं तो उनकी तुलना कैसे करियेगा?
बातचीत की दौरान तिवारी जी ने मुझसे पूछा था आप खाने में कैसा खाना पसन्द करेंगे? मैंने उन्हें बताया था मैं सब तरह के खाने पसन्द करता हूँ जो भी मिल जायेगा खा लूँगा। दोपहर के खाने का समय हो चुका था। खाने में अपने यहाँ, जिस तरह दाल, सब्जी, रोटी, सलाद, अचार, पापड़ खीर, रायता जैसे भर थाली का व्यंजन बनता है वैसे व्यंजनों की भीड़ यहाँ नहीं होती और न ही वैसा तेल मसाले का प्रयोग ही लोग करते हैं। सीधा सादा कोई एक चीज, कुकर में डालकर उबाल लिये और उसे उतार कर उसमें नमक और मिर्च बुरक कर खाना खा लेते हैं। तिवारी जी खाने की मेरी पसन्द पूछ कर वहाँ से उठे थे, और कुकर में आटे की छोटी छोटी चिप्पियोंनुमा कोई, वहाँ की स्थानीय चीज, चूल्हें पर चढ़ाकर, फिर मेरे पास आकर बैठ गए थे। तुलसी को उन्होंने कह दिया था कि तीन सीटी के बाद वह उसे चूल्हे से उतार लेगी। खाने का समय हो गया था तुलसी को भी भूख लग चुकी थी। मैं, तुलसी और तिवारी जी, खाने की टेबल पर बैठ चुके थे। खाने में आटे की उबली टिक्की पर थोड़ा सॉस नमक और गोल मिर्च डालकर, तिवारी जी ने तीन प्लेटों में परोस दिया था। अंगूर और सेब का रस अलग अलग गिलासों में रख दिये थे। सेब, चेरी और केला एक बास्केट में टेबल पर पहले से ही रख दिया गया था। कृष्णा अभी तक खेलकर नहीं लौटा था इसको लेकर तिवारी जी थोड़ा उत्तेजित थे और इसकी शिकायत तुलसी से कर रहे थे।
खाना खा चुकने के बाद तिवारी जी, एक फोल्डिंग खटिया, अपने बैठक में डाल दिये थे। आइये हम लोग यहाँ बैठकर बातें करते हैं। मुझे देखकर तिवारी जी का मन कहा होगा, कि जिस तरह भारत में लोग, गाँव में पेड़ के नीचे खटिया डालकर बैठते हैं और गप्पें मारते हैं उसी तरह बैठकर गप्पें मारें। हम दोनों खटिया पर पाल्थी मारकर बैठ गये थे। उनके घर में, गांव की तरह पाल्थी मारकर खटिया पर बैठना मुझे भी बहुत अच्छा लगा था। तिवारी जी ने मुझे बताया था कि जिस तरह हम लोग यहाँ पर पाल्थी मारकर खटिया पर बैठे हैं, यहाँ के लोगों के लिए इस तरह बैठना घोर असभ्यता का सूचक है। मैंने कहा जगह जगह की बात है। तिवारी जी ने मुझे यहाँ की एक और बात बताया था और वह यह कि यहाँ के लोग खाने के बाद डकार नहीं लेते। डकार लेना भी यहाँ के लोग घोर असभ्यता मानते हैं। तिवारी जी की बात सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ था। खाने के साथ जो हवा पेट में गई रहती है वह डकार के जरिए, खाने के बाद, अक्सर बाहर आ जाती है। हम भारतीय डकार मारने में जरा भी कंजूसी नहीं करते। कईयों लोग तो खाने के बाद इतनी लम्बी डकारें लेते हैं कि पास पड़ोस के घरों तक उनकी डकारें सुनाई पड़ जाती है। मुझे तिवारी जी की इस बात पर विश्वास नहीं हुआ था। यह कैसे सम्भव था कि इन लोगों को खाने के बाद डकार आती ही नहीं है। मैंने तिवारी जी से ठेठ गवई भाषा में पूछा था, कहो भइया यहाँ के लोगों को खाने के बाद डकार आती ही नहीं है? आती है तिवारी जी ने मुझे बताया था। फिर डकार आने पर वे क्या करते हैं? तिवारी जी ने बताया था कि डकार आने पर वे उसे पता नहीं कैसे, मुँह डुलाकर भीतर लील जाते हैं और डकार बाहर निकलने ही नहीं देते।
कृष्णा खेलकर घर लौटा था तो वह सीधा अपने कमरे में घुस गया था। वह काफी थका हुआ था इसलिए आते ही बिस्तर पर लेट गया था। तुलसी, तिवारी जी के पास आकर उन्हें सूचित की थी कि कृष्णा आ गया है। एक तो कृष्णा अभी तक खाया नहीं था दूसरे तिवारी जी उसे मुझसे मिलवाना चाहते थे इसलिए उन्होंने कृष्णा को वहीं से आवाज दिया था। कृष्णा के देरी से आने से वे थोड़ा खफा भी थे। इसकी माँ इसे बिगाड़ कर रख दी है वे खुद से बड़बड़ाये थे। लेकिन उनके बुलाने पर जब कृष्णा उनके पास आया था तो वे उसे कुछ भी नहीं बोले थे। देखो बेटे कौन तो आया हुआ है। उन्होंने मेरे बारे में उसे बताया था तो कृष्णा अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ाकर हैलो कहकर मुझसे हाथ मिलाया था। १४-१५ वर्ष का कृष्णा, यहाँ के लड़कों की तुलना में काफी दुबला था। उसके सिर के बाल लड़कियों की तरह लम्बे थे और वह तुलसी की तुलना में मुझे लापरवाह जैसा दिखा था। तुलसी में आत्मीयता थी। छोटी थी इसलिए माँ बाप की वह लाड़ली भी थी। बच्चे जब छोटे होते हैं, चाहे वह भाई हो या बहन आपस में उनमें कम ही पटती है। छोटा, माँ बाप का ज्यादा प्रिय होता है। यह बात तुलसी और कृष्णा में भी थी। तुलसी बाप की मुँह लगी थी और वह कृष्णा की उनसे शिकायत करने से नहीं चूकती थी। कृष्णा के भीतर भी तुलसी के प्रति उसी तरह की प्रतिद्वन्द्विता का भाव था।
तिवारी जी को शायद उम्मीद थी कि कृष्णा मेरा पांव छूकर या अपने दोनों हाथ जोड़कर मुझे प्रणाम करेगा लेकिन जब उसने मुझसे आगे बढ़कर हैलो किया था तो उनको अच्छा नहीं लगा था। उन्होंने उसे इशारा भी किया था कि वह पांव छूकर प्रणाम करें लेकिन वह तिवारी जी के इशारों को अनदेखी कर दिया था। तिवारी जी ने कृष्णा की प्रशंसा करने के लहजे में मुझसे बताया था कि जानते हैं कृष्णा बड़ा अच्छा गिटार बजाता है। स्विटजरलैंड में इसके कईयों कंसर्ट हो चुके हैं। जर्मनी में भी यह अपना प्रोग्राम कर चुका है। थोड़े ही दिनों यह कनाडा, अपना प्रोग्राम करने जाने वाला है। सुनकर मुझे बड़ी खुशी हुई थी। मैंने कृष्णा की पीठ थपथपाकर उसे अपनी कला में शिखर छूने की कामना की थी। क्या तुम अंकल जी को गिटार बजाकर नहीं सुना दोगे? तिवारी जी ने, उससे, मुझे गिटार सुनाने की मनुहार किया था। नो पापा आई एम सो टायर्ड और अभी मेरा गिटार बजाने का मूड भी नहीं है। अच्छा ठीक है वहाँ खाना रखा है निकाल कर खा लो। थोड़ी देर में खा लूँगा अभी मैं आराम करना चाहता हूँ और कृष्णा वहाँ से चला गया था। कृष्णा के जाने के बाद तिवारी जी, उसके व्यवहार से आहत से दिखे थे। उन्होंने कहा इसका मूड नहीं है इसलिए मैं इस पर किसी भी काम के लिए दबाव नहीं दे सकता। यही है यहाँ की असलियत जबकि भारत में माँ बाप के बात की अवहेलना करना बच्चों के बस का नहीं है लेकिन यहाँ के बच्चे अपने मन के बादशाह होते हैं। अगर उनकी मर्जी कुछ करने की नहीं है तो वे नहीं करेंगे। तुलसी वहीं बगल में खड़ी थी उसने भी कृष्णा को थोड़ा ही सही, गिटार बजा देने के लिए कहा था। कृष्णा से यह बात उसने, पापा की चापलूसी के लिए भी किया था। लेकिन कृष्णा ने उसे डांट दिया था। माहौल उस समय थोड़ा असहज हो उठा था। इसे हल्का करने के लिए मैंने तुलसी से कहा था सुना है तुम बहुत अच्छा गाती हो तुम्हीं कुछ सुनाओ। तुलसी बड़ी खुशी मन से मुझे, ऊं जै जगदीश हरे सुनाई थी बहुत अच्छा, तुम मुझे यहाँ का कोई अच्छा सा गीत गाकर सुनाओ, तुलसी ने कोई स्थानीय गीत गाकर मुझे सुनाया था जो जर्मन में था, उसकी राग और गला अच्छा था गीत भी सुरीला था, लेकिन मेरे पल्ले कुछ भी नहीं पड़ा था। तुलसी को गाता सुनकर कृष्णा भी अपना गिटार लेकर आ गया था। वह अपना गिटार बजाने लगा तो तुलसी एक झॉझ अन्दर से उठा लाई थी और उस पर ताल देने लग गई थी। कृष्णा गिटार पर ऊं जय जगदीश हरे की धुन बजाया जो काफी सुरीला था। तुलसी उसपर ताल दे रही थी लेकिन, गलतियाँ ज्यादा कर रही थी इसके चलते कृष्णा को बजाने में परेशानी हो रही थी। फिर उसने गिटार पर जाज बजाया। मेरी समझ में कुछ नहीं आया था लेकिन अच्छा लगा था। कृष्णा ने मुझे बताया था कि मेरी एक मण्डली है और इसमें कईयों तरह के वाद्य बजाने वाले लोग हैं जब तक पूरी मण्डली न रहे बजाने में मजा नहीं आता। मैं कृष्णा के गिटार बजाने की भरपूर तारीफ किया था। १४-१५ साल की छोटी सी उम्र में उसने संगीत में इतनी महारत हासिल कर लिया था उसकी यह उपलब्धि, काबिले तारीफ भी थी।
शाम करीब साढ़े पांच बजे तिवारी जी की पत्नी, अपनी दुकान पर बन्द करके घर आई। सलवार कुर्ता पहने थी वे । यहाँ की ज्यादातर औरतें जीन्स या पैंट शर्ट पहनती है लेकिन तिवारी जी की पत्नी से जब भी मुलाकात हुई थी, उन्हें सलवार कुर्ते में ही देखा था। सलवार कुर्ता उन पर फबता भी था। वे बड़ी सुलझी हुई महिला थीं हसमुख और आकर्षक चेहरा। प्योर स्विस थी, वे लेकिन वे न सिर्फ अपने चेहरे मोहरे से, बल्कि अपनी वेशभूषा से भी, सम्पूर्ण भारतीय दिखती थी। उनके पूरे वजूद से, शालीनता टपकती थी जिसे देख श्रद्धा होती थी। जिस समय वे घर पर पहुँची थी, हम लोग खटिया पर उसी तरह पाल्थी मारकर बैठे हुए थे। मैंने तिवारी जी से कहा हम लोगों को इस तरह देखकर उन्हें बुरा तो नहीं लगेगा? तिवारी जी मेरी बात सुनकर जोर से हँसे थे और बोले थे अरे नहीं उन्हें यह सब बुरा नहीं लगता और बुरा लगे भी तो मेरी बला से। मुझे इसी तरह बैठने में आनन्द मिलता है तो मैं ऐसा ही बैठूँगा। किसी को बुरा लगे तो लगता रहे। मुझे उम्मीद थी कि तिवारी जी की पत्नी उनकी बात पर कोई प्रतिक्रिया जरूर व्यक्त करेगी, लेकिन वे, उनकी बात सुनकर वहाँ से मुस्कराती हुई हट गई थी। दरअसल बात यह थी कि मिसेज तिवारी हिन्दी समझती ही नहीं थी और तिवारी जी का जब मन होता था वे इसी तरह हिन्दी में बोलकर, उनका मखौल उड़ाते थे। बेटे ने मुझे बताया कि एकदफा तिवारी जी सपरिवार मेरे घर पर खाने पर आमंत्रित थे। तिवारी जी का, पत्नी के साथ कभी तकरार हुई होगी उसी समय उन्होंने उनको कहा होगा कि तुम औरतों की समझ में तो कोई बात आती ही नहीं। उन्होंने बात ही बात में भारत में प्रचलित यह मसला बोल दिया था कि भैंस के आगे बीन बजावे भैंस खड़ी पगुराय। मिसेज तिवारी वह मसला याद कर ली थी। बेटे के घर जब वे खाने पर आयी थी तो उन्होंने इसका मतलब बेटे से पूँछ लिया था। बेटा समझ गया था कि तिवारी जी यह बात, जब पत्नी पर गुस्सा हुये होंगे उस समय कह दिये होंगे उसने उन्हें इसका मतलब समझाते हुए बताया था कि यह मसला लोग भारत में किसी की प्रशंसा करना होता है तब बोलते हैं। यह बड़ी अच्छी बात है इसमें खराब कुछ भी नहीं है। कोई आदमी पत्नी के साथ तकरार के समय गुस्से में उसकी प्रशंसा में तो कोई बात नहीं ही बोलेगा। यह बात मिसेज तिवारी को भी पता थी लेकिन वे लोगों को हॅसाने के लिए इसी तरह की बातें चुन चुनकर अपने भीतर रखे रहती थी और ऐसे मौको पर उसका मतलब पूँछ कर माहौल को खुशनुमा बना देती थी। तिवारी जी ने उसी समय बताया था कि हम दोनों में जब किसी बात को लेकर तकरार होती है तो मैं हिन्दी पर उतर आता हूँ। ऐसा करने से मैं अपने भीतर की भड़ास भी निकाल लेता हूँ और पत्नी की समझ में न आने के चलते उसे मेरी बात बुरी भी नहीं लगती और मैं जो कहना चाहता हूँ वह समझ भी जाती है।
तिवारी जी ने पत्नी से कहा कि वह चाय वाय पीकर तैयार हो ले इन्हें हम लोग स्टेशन छोड़ आते हैं। तिवारी जी की पत्नी हम लोगों के पास से अपने कमरे में चली गई थी। उनके जाने के बाद तिवारी जी ने मुझसे पूछा था कि आपको स्विटजरलैंड के बारे में और कुछ जानना है? मैंने उनसे पूछा, यहाँ के लोग काफी होशियार एवं सुलझे हुए हैं फिर भी वे काफी सीधे और सरल है दोनों बातें एक साथ सम्भव कैसे है? मेरे इस प्रश्न के जबाब में तिवारी जी ने मुझे बताया था कि जिस तरह अपने यहाँ पहाड़ों के लोग सीधे और सरल होते हैं और मैदानी इलाके में जैसे बढिए तो वहाँ के लोगों में तमाम तरह की चलाकियाँ, धूर्तता और मक्कारी आ जाती है वैसा ही यहाँ पर भी है। चूंकि स्विटजरलैंड पूरा का पूरा पहाड़ी है इसलिए यहाँ के सभी लोग सहज, सीधे और सरल हैं। दूसरी बात यह कि, यहाँ पर समाज के हर तबके में धन और संसाधनों का इतने वैज्ञानिक और व्यवहारिक तरीके से वितरण की व्यवस्था है कि वंचित यहाँ कोई है ही नहीं। अमीर और गरीब के बीच की कोई बड़ी खाई नहीं है धर्म सबका एक है इसलिए धार्मिक टकराव भी यहाँ नहीं है। सब सुशिक्षित है इसलिए सब अपने अधिकार और कर्तव्य के प्रति न सिर्फ जागरूक है बल्कि उनके आचरण में वह पूरी तरह समाहित हैं। शासक और आम लोगों में कोई फर्क नहीं है यहाँ तमाम निर्णयों और क्रियाकलापों में आम लोगों तक की बराबर की हिस्सेदारी है इसलिए कभी किसी टकराव की स्थिति ही नहीं पैदा होती।
तिवारी जी की पत्नी आधे घंटे में चाय पानी करके हम लोगों के पास आ गई थी। चलते समय मैंने तिवारी जी को उनकी मेहमान नवाजी के लिए उनका शुक्रिया अदा किया था। सचमुच तिवारी जी मुझे जितना आनन्द आपके घर आकर मिला उतना आनन्द मुझे यहाँ कही नहीं मिला। मैंने मिसेज तिवारी से कहा तिवारी जी से मिलकर मुझे बड़ा अच्छा लगा। आपके दोनों बच्चे काफी सुसभ्य और बुद्धिमान है। तुलसी और कृष्णा को आपने अच्छी ट्रेनिंग दिया है। तुलसी का ग्रेडिंग 'ए` है। वह डाक्टर बनना चाहती है और वह डाक्टर बनेगी भी, आप उसे डाक्टरी की शिक्षा के साथ किसी योग गुरू से शिक्षा जरूर दिलवाइयेगा। जरूर दिलवाऊँगी। उन्होंने मुझसे कहा था और अपने घर आने के लिए मेरा शुक्रिया किया था। उन्होंने मुझसे कहा कि आपके आने से मेरे पति को आपसे हिन्दी में बातें करने का मौका मिला इससे मुझे काफी खुशी हुई। रास्ते में मैंने उनसे फिर कहा कि स्विटजरलैंड की धरती यहाँ के लोग बहुत अच्छे हैं मैं यहाँ के लोगों के रहन-सहन बात व्यवहार तौर तरीकों और इनकी समृद्धि देखकर अभिभूत हूँ। मैं यहाँ से बड़ा सुखद अनुभव लेकर अपने देश लौटूँगा। मिसेज तिवारी ने इस पर कहा कि आपका ऐसा आंकलन ही हमारी पूँजी है। इसके लिए उन्होंने मुझसे अपनी कृतज्ञता व्यक्त की। तिवारी जी के घर का माहौल पूरा भारतीय था वे लोग पूरी तरह शाकाहारी थे यहाँ तक कि उनके घर में लोग प्याज लहसुन तक नहीं खाते थे। बच्चों का नाम भी उन्होंने भारतीय रखा था। इस सबसे जाहिर था कि तिवारी जी की भारतीय मूल्यों में कितनी आस्था थी लेकिन इस सबके बावजूद, उन्होंने अपने बच्चों और पत्नी को हिन्दी नहीं सिखाया था और वे आपस में अंग्रेजी में बातें करते थे। मैंने इसका कारण तिवारी जी से जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि यह सम्भव नहीं था। ऐसा करने से बच्चों पर काफी बोझ बढ़ जाता था। आपने मिसेज को भी तो हिन्दी नहीं सिखाया? इस पर तिवारी जी ने अपनी पत्नी पर, जो उस समय कार चला रही थी, उसकी तरफ देखकर हँसते हुए कटाक्ष किया था, इस शेरनी को मैं हिन्दी सिखाकर अपनी जान हतवाता क्या? मिसेज, तिवारी जी का आशय समझ गई थी उन्होंने अपनी कुहनी से बगल बैठे तिवारी जी को हुरियाकर उन्हें यह बता दी थी कि तुम मुझे शेरनी कह रहे हो न? तिवारी जी, पत्नी की कुहनी से, अपने को बचाते हुए मुझे बताया था कि आपने अपने यहाँ का शेर और बिल्ली का किस्सा तो जरूर सुना होगा। बिल्ली शेर की मौसी कहलाती है उसने शेर को अपनी सारी चालाकियाँ सिखा चुकी तो शेर समझा मुझे इसने अपने सारे हुनर सिखा दिए हैं अब इसकी मुझे कोई जरूरत नहीं है और वह बिल्ली को खा जाने का मन बनाया और उसे दबोचने के लिए ज्यों ही उस पर झपट्टा मारा बिल्ली कूदकर पेड़ पर चढ़ गई थी। अब आपने समझ लिया कि इस शेरनी को मैंने हिन्दी क्यों नहीं सिखाया। मिसेज तिवारी, उनकी पूरी बात समझ रही थी और वे उन्हें शेरनी कहने पर फिर उनकी तरफ अपनी कुहनी बढ़ाकर तिवारी जी को बता दी थी कि तुम मुझे अपनी सारी पेचें नहीं सिखाये हो, ठीक है लेकिन तुम्हारे न सिखाने के बावजूद मैं तुम्हारी सभी पेंचे जानती हूँ।
स्विटजरलैंड में सामान बहुत महंगे हैं। एक दिन एक स्टोर मैं मैं केले खरीद रहा था तो एक सज्जन जो स्विस थे लेकिन उन्हें, भारत के बारे में पूरी जानकारी थी मेरे पास आकर खड़े हो गये थे और अंग्रेजी में कहने लगे, देखते हैं यहाँ का भाव। यहाँ दो फ्रैंक में एक केला बिक रहा है जबकि भारत में दो फ्रैंक में पाँच दर्जन केले खरीद सकते हैं। टमाटर आठ फ्रैंक का आधा किलो । सेब चार फ्रैंक का आधा किलो, मूली गाजर? मैंने कहा, क्या कीजिएगा सर यह स्विटजरलैंड है।
स्विटजरलैंड में अनगिनत तरह के खूबसूरत फूल देखने को मिलते हैं लेकिन किसी भी फूल में सुगंध नहीं होती। खाने में जो स्वाद भारत में बने खाने में होता है, भारत से आयातित उसी आटा, चावल, दाल और मसालों से खाना बनाने पर उसमें वैसा स्वाद नहीं आता। फलों में जो मिठास और खुशबू भारत के फलों में होती है, करीब करीब सभी फल और सब्जियाँ स्विटजरलैंड में मिलती हैं लेकिन उनमें वह स्वाद, मिठास और खुशबू नहीं होती। लोगों की, जैसी आत्मीयता और अपनापन और सहयोग भारत में मिलता है वैसी आत्मीयता स्विटजरलैंड में देखने को नहीं मिलती। कोई आदमी किसी विपत्ति में पड़ गया हो भारत में दस हाथ उसकी मदद में आगे बढ़ आयेंगे लेकिन यहाँ पर कोई विपत्ति में पड़ा है तो देखते हुए भी लोग खुद आगे बढ़कर उसकी मदद नहीं करेंगे, जब तक कि वह उनकी मदद के लिए उनको गुहारेगा नहीं या मदद करने को इच्छुक व्यक्ति विपत्ति में पड़े व्यक्ति से मदद करने के लिए उसकी इजाजत नहीं पा लेगा। ऐसा इसलिए यहाँ होता होगा कि यहाँ के लोगों में खुद्दारी ज्यादा है। अगल बगल के घरों में पड़ोसी एक दूसरे को पहचानते तक नहीं। कोई पड़ोसी बीमार पड़ गया या मर गया या अपने घर में घायल पड़ा तड़प रहा हो फिर भी कोई उसे देखने नहीं जायेगा। ज्यादा से ज्यादा लोग इतना भर कर देंगे कि पुलिस और इमरजेन्सी को फोन करके इसकी सूचना दे देंगे। वे लोग उसको, उपचार के लिए, अस्पताल पहुँचाने की जहमत तक नहीं करेंगे। यह सब बातें मैं, भारत में जैसा होता है उसके उलट यहाँ क्या होता है यह बता रहा हूँ। जैसा तिवारी जी ने मुझे बताया था कि दो सभ्यताओं की तुलना तब की जाती है जब दोनों पैरलल हो। उसी तरह यहाँ जो होता है यहाँ की रीति नीति के हिसाब से होता है। एक दफा ट्रेन में जा रहा था तो हमारे सामने की सीट पर चार युवा बैठे थे वे आपस में मित्र थे। उनकी बातों से मुझे ऐसा ही लगा था। उनमें से एक आदमी अपने साथ खाने की कोई चीज लिया था। उसे उसने अपनी बैग से निकालकर खाने लग गया था। साथ बैठे मित्रों को उसने उसमें से शेयर करने की पूछने तक की जहमत नहीं किया था। थोड़ी देर के बाद ठेले में सामान बेचने वाला आया था तो, उनमें से एक ने सैंडविच जैसी चीज खरीदकर खाना शुरू कर दिया था। उसने भी दूसरों से शेयर करने की बात नहीं किया था। यहाँ ट्रेनों में खाने पीने की चीजें ठेलों में रखकर बेचने की प्रथा है। बेटे से जब मैंने इस बात की चर्चा किया था तो उसने मुझे बताया था कि खाने पीने की चीजें या और कोई चीज मिल बैठकर खाने की प्रथा यहाँ नहीं है। अगर कोई आदमी अपने पैसे से दूसरे को कुछ खिलाना चाहें, तो वे मना नहीं करेंगे और खा लेंगे, लेकिन अगला सोचे कि मैंने इसे खिलाया है तो यह भी मुझे खिलायेगा उसका ऐसा सोचना बेकार है।
तिवारी जी यहाँ के हर सिस्टम को, यहाँ की कहकर उसका औचित्य साबित करने में कोई कोताही नहीं किये थे। उनका कहना था कि जैसा भारत में होता है वैसा यहाँ होने की कोई जरूरत ही नहीं है। इनका सामाजिक ताना-बाना और सोच और व्यवस्था एकदम अलग तरह की है इसलिए भारत की किसी भी चीज से यहाँ की तुलना की ही नहीं जा सकती। तिवारी जी यहाँ की हर चीज जैसी है उसे स्वीकार भी कर लिये थे और उससे संतुष्ट भी थे लेकिन अपने घर में खटिया पर बैठकर बातें करते समय एक समय ऐसा आया था जब वे एक बात बताते समय काफी व्यथित हो उठे थे बड़ी व्यथा के साथ उन्होंने मुझे बताया था कि अपने यहाँ पति या पत्नी में से अगर कोई बीमार पड़ जाये तो दूसरा परेशान हो उठता है। पति ने अगर खाना नहीं खाया है तो पत्नी बेचैन हो उठती है उसी तरह यदि पत्नी भूखी हो तो पति बेहाल हो जाता है लेकिन यहाँ पर पति के बीमार पड़ने पर पत्नी उसे हास्पिटल पहुँचाने के लिए एम्बुलेंस बुलाकर उसे अस्पताल पहुँचवा देगी, लेकिन उसके सिरहाने बैठकर उसकी सेवा सुश्रूषा नहीं करती। पति खाना खा रहा है तो वह पत्नी से नहीं पूछेगा तुमने खाना खा लिया या भूखी हो? उसी तरह पत्नी भी बेधड़क होकर पति के बगल बैठकर अकेले खाना खा लेगी लेकिन पति से यह नहीं पूछेगी कि तुम मर रहे हो या जिन्दा हो। खाना खाये हो या भूखे हो?
भारत में पारिवारिकता और सामूहिकता है यहाँ पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता है यहाँ पर बेटे का विवाह होते ही माँ बाप उसे अपने से अलग कर देते है। यहाँ की माँएं कहती है कि एक ही किचन में दो औरतों का निभना असम्भव है। हम लोग पश्चिम वालों की इस बात को लेकर आलोचना भी करते हैं कि यहाँ के बच्चों को अपने माँ-बाप की फिकर ही नहीं होती। लेकिन यहाँ की ऐसी ही परम्परा है कि माँ-बाप खुद ही बच्चों को अपने साथ नहीं रखते।
यहाँ लोकतंत्र बहुत सबल है अपनी सारी व्यवस्था का संचालन यहाँ की पंचायतें करती हैं। जिस तरह अपने यहाँ प्रान्तीय एसेम्बलियाँ करती हैं उसी तरह यहाँ की पंचायतें अपनी सुरक्षा से लेकर, सुख सुविधा तथा विकास से सम्बन्धित हर कार्य खुद करती हैं। इसके लिए संसाधन की उगाही रिहायशी घरों से लेकर बाजार में बिकने वाली वस्तुओं पर टैक्स लगाकर वे खुद करती हैं। उनके निर्णय में न तो प्रान्त का और न ही देश के किसी संस्था या आदमी का हस्तक्षेप होता है। यहाँ निर्णय, पंचायत में बैठे सदस्य नहीं करते हैं बल्कि रोजमर्रा के कामों के इतर, अगर कोई नया काम करना होता है जैसे कोई नई सड़क बनवाना हुआ, तो उस क्षेत्र के लोगों की राय शुमारी करके उनकी सहमति और राय लेने के बाद ही सड़क का निर्माण शुरू होगा। यहाँ की पंचायतें अपने में स्वायत्तशासी है और एक स्वतंत्र गर्वनमेंट की तरह काम करती है। अपने यहाँ कार, टी०वी०, फ्रिज जैसे घरेलू सामान लोग खरीदते है और जब वह खराब हो जाता है तो उसका रिपेयर करवा कर उसे वर्षों व्यवहार करते हैं। यहाँ कोई सामान खराब हो गया तो लोग उसको फेंक देते हैं। यहाँ सामानों को रिपेयर करने की दुकानें नहीं होती अगर कोई रिपेयर करवाना भी चाहे तो रिपेयर का खर्च उसके नये सामान के दाम से ज्यादा पड़ जाता है।
यहाँ पर चोरी डकैती, बेईमानी, छिनतई हत्या या बलात्कार जैसी घटनाएँ कभी सुनाई ही नहीं पड़ती और न ही किसी में किसी तरह की प्रतिद्वंद्विता या टकराव ही होता है। यहाँ लोग रात बिरात, कहीं भी और कभी भी आते जाते हैं और निर्द्वंद्व घूमते हैं। यहाँ के लड़के लड़कियाँ स्वतंत्र है। झील के किनारे औरतें ब्रा और पैन्टी पहनकर तथा पुरूष एक जांघिया पहनकर खुले बदन धूप सेंकते हैं। सार्वजनिक स्थलों पर भी कोई कोई लड़की, काफी कम कपड़ों में घूमती है लेकिन उन्हें देखकर मन में कोई विकार पैदा नहीं होता। कोई लड़का या लड़की यहाँ पर छेड़छाड़ जैसी घृष्ट या अभद्र हरकत करते नहीं दिखता। भारत में पुरूष और लड़के विपरीत सेक्स के प्रति आक्रामक होते हैं यहाँ मुझे लड़कियाँ लड़कों की तुलना में ज्यादा स्मार्ट और आक्रामक दिखीं जबकि लड़के शान्त और ठंडे दिखे।
स्विटजरलैंड पृथ्वी का स्वर्ग है। महीने भर से ऊपर इस देश में रहकर जितना तक मैं उसे समझ सका था उसके आधार पर मैं बिना किसी संकोच के और दृढ़ता से कहता हूँ यह देश सचमुच पृथ्वी का स्वर्ग है। पृथ्वी का स्वर्ग स्विटजरलैंड, इसलिए नहीं है कि यहाँ पर पहाड़ है, झीले हैं बर्फ ढॅपी खूबसूरत पहाड़ों की चोटियाँ हैं। यहाँ के लोगों और प्रकृति दोनों के रंग बिरंगे नायाब फूलों से इसका श्रृंगार किया हुआ है। स्विटजरलैंड को स्वर्ग कहने के पीछे, मेरे मन में यह बात भी नहीं है कि यहाँ की हवा और पानी निर्मल और स्वच्छ है, कि यहाँ के लोग निष्कपट सीधे और सरल हैं। मैं स्विटजरलैंड को इसलिए भी स्वर्ग नहीं कहा कि, लोगों में स्वर्ग की जैसी अवधारणा है, वैसा ही यहाँ सबकुछ है इसलिए यह स्वर्ग है। नहीं, अगर इन कारणों के आधार पर स्विटजरलैंड को पृथ्वी का स्वर्ग कहें तो अपने यहाँ कश्मीर से लेकर अरूणांचल तक तथा और भी दूसरी जगहों में वह सब कुछ मौजूद है जो स्विटजरलैंड में है।
स्विटजरलैंड की सबसे अच्छी खासियत मुझे जो लगी वह थी यहाँ के लोगों की जीवन की गहरी समझ। प्रकृति ने जितनी खूबसूरती इस भूखण्ड को दी है उसी परिणाम में उसने उन्हें जिन्दगी की समझ भी दिया है जिसके चलते वे मानवता के चरम पर पहुँच चुके है। वे यह तक समझते हैं कि हर समाज और देश में लोगों का कुछ प्रतिशत ऐसा भी होता है जो निहायत काहिल और गैर जिम्मेदार होता है। ऐसे वर्ग के लोगों को न तो अपनी फिकर होती है और न ही समाज या देश की। खाओ पियो और ऐश करो ही उनका असूल है। ऐसे लोगों को, पृथ्वी का कोई भी समाज अच्छा नहीं कहता है। वे बिगड़े हुए लोग होते है और हर कोई उनको हेय नजरों से देखता है और उनकी अवहेलना करता है। लेकिन स्विटजरलैंड में, ऐसे लोगों को, सरकार भरपूर पैसा देती है और समाज उन्हें अपनाये रखता है। इसी बात को अगर यूँ कहा जाये तो ज्यादा ठीक रहेगा यहाँ के लोग और व्यवस्था अपने बिगड़े हुए बच्चों तक का उतना ही सम्मान करती है जितना देश के प्रधानमंत्री और अन्य विशिष्ट जनों का सम्मान करती है। ऐसे लोग अपनी जिन्दगी जीने के लिए उसी तरह स्वतंत्र है जैसा दूसरे लोग। क्या ऐसा ही स्वर्ग में नहीं होता होगा। दूसरी सबसे बड़ी बात जो शायद स्वर्ग में ही सम्भव है वह यह है कि यहाँ के किसान अपनी उपज टोकरियों में रखकर, उसके भाव लिखकर तराजू बांट रख देते हैं। यहाँ खरीददार आते हैं जितना समान लेना होता है तौल कर लेते हैं और उसकी जितनी कीमत हुई उतना पैसा उनके बक्से में डालकर चले जाते है। लोगों में इस हद की निस्पृहता, पृथ्वी के मानव में तो संभव नहीं होता। ऐसा होना स्वर्ग में ही सम्भव है। पृथ्वी के करीब करीब सभी धर्मों में अपने अपने तरीके से स्वर्ग की अवधारणा की गई है और सबकी कमोवेश अवधारणा यह है कि, स्वर्ग में बैठे लोग निर्द्वन्द्व होते है और वे वहाँ का वैभव भोगकर उसका आनन्द लेते हैं। लेकिन लोग, धर्मों में कही गई, इसके पहले की, एक बात भूल जाते हैं कि, स्वर्ग किसी दूसरे लोक में नहीं बल्कि इसी पृथ्वी पर होता है और स्वर्ग प्राप्त करने के पहले, लोगों को बड़ी कठिन तपस्या से गुजरना होता है। तपस्यारत होकर लोग, जब अपने भीतर की मूलवृत्ति झूठ बोलना, दूसरे को धोखा देना, लोभ और अहंकार से मुक्ति पा लेते हैं तभी वे स्वर्ग के अधिकारी होते हैं। इसका मतलब यह होता है, कि पृथ्वी पर भी कहीं स्वर्ग नहीं होता। बल्कि तपस्यारत होकर लोगों को इसका निर्माण करना होता है। मनुष्य जब तक अपनी मूल वृत्तियों में फंसा हुआ रहता है। तब तक वह नरक में पड़ा रहता है जब वह तपस्यारत होकर अपनी मूल वृत्तियों से मुक्ति पा लेता है तब वह न सिर्फ अपने लिये बल्कि दूसरों के लिए स्वर्ग निर्माण की भूमि तैयार कर देता है। लेकिन कोई एक अकेला चाहे कि तपस्यारत होकर स्वर्ग का निर्माण कर लें यह सम्भव नहीं है। सभी आम और खास जब तपस्यारत होगा तभी स्वर्ग का निर्माण होगा। स्विटजरलैंड के लोगों को देखने से लगता है कि यहाँ के लोग, यह बात अच्छी तरह से जानते है कि जब कोई आदमी या समूह कुछ करता है तो उसमें भी उसकी मूल वृत्तियाँ उसके साथ सक्रिय रहती है इसलिए वह जो कुछ करता है उसमें वास्तविकता कम और दिखावा ज्यादा होता है। करने से तपस्या उसमें से खारिज हुई रहती है इसलिए यहाँ के लोग तपस्या करते नहीं हैं बल्कि, वे पूरी तरह कर्मयोगी हैं और उनके कर्मों में तपस्या सहज ही चलती रहती है। यहाँ के लोगों में जैसी निष्पृहता और तटस्थता मुझे देखने को मिली वैसी ही निष्पृहता यहाँ की हवा माटी और पानी में समायी हुई है। जिसके चलते यहाँ की गलियाँ झीले पहाड़ और यहाँ तक कि जंगल तक माँ की गोद की तरह निरापद आत्मीय और ममत्व भरे लगते हैं।
स्विटजरलैंड के लोग यह भी जानते हैं कि जिस स्वर्ग का निर्माण घोर तपस्या के बल पर किया जाता है उसका वैभव, बैठकर भोगने की वस्तु नहीं है। स्वर्ग का वैभव बैठकर भोगने से अकर्मण्यता और काहिली आती है और अकर्मण्यता और काहिली का मतलब है विनाश की प्राप्ति। वे लोग यह भी जानते हैं कि स्वर्ग का वैभव अक्षुण्ण रखने के लिए सतत तपस्यारत रहने की जरूरत होती है।
मैं इतने दिनों तक इनके बीच रहकर जो समझा हूँ वह यह कि स्वर्ग निर्माण के मूल में, जिस तपस्या की बात सभ्यताओं में कही गई है उसकी परिभाषा तथा उसके करने की जैसी विधि बताई गई है उसके बरक्स तपस्या की इनकी जो परिभाषा है तथा करने की शैली है वह दूसरी सभ्यताओं की परिभाषा और कार्यशैली, दोनों से, एकदम भिन्न तरह की है। इसका कारण यह है कि यहाँ लोग, जिन्दगी की बारीक से बारीक चीज बड़ी गहराई से समझते हैं इसीलिए उसी बारीकी से उन्होंने तपस्या को अपने तरीके से परिभाषित किया है। वे जानते हैं कि तपस्या करने वाली चीज नहीं है बल्कि यह सुरति है। वे यह भी जानते हैं कि सुरति से स्वर्ग का निर्माण तो किया जा सकता है लेकिन उसे अक्षुण्ण नहीं रखा जा सकता। इसको अक्षुण्ण रखने के लिए लोगों में शौर्य और पराक्रम का होना आवश्यक है। स्थिर मन संतुलित बुद्धि और विवेकशीलता के साथ खुला दिमाग भी स्वर्ग की अक्षुण्णता के लिए जरूरी है। उससे भी ज्यादा विज्ञान, चाहे मन का हो या देह का, प्रकृति का हो या समाज का, जीव, रसायन या भौतिक विज्ञान हो सभी आम और खास में उसकी अच्छी समझ और उसका दैनिक जीवन में विवेक पूर्ण उपयोग, स्वर्ग के अक्षुण्ण रखने का आधार स्तम्भ है। इस सबसे ज्यादा स्वर्ग को अक्षुण्ण रखने के लिए जो सबसे महत्वपूर्ण और अहम चीज होती है वह है लोगों की खुदी और खुद्दारी, जो यहाँ के लोगों में चरम पर है, जिसके चलते वे दुनिया की परवाह नहीं करते और वे उसके साथ अपनी शर्तों पर जीते हैं। यूरोप का सबसे छोटा देश स्विटजरलैंड है। बड़े और समर्थ देशों ने मिलकर यूरोपीय यूनियन बनाया है। लेकिन स्विटजरलैंड उनमें शामिल होकर, अपनी खुद्दारी से समझौता नहीं किया। उनको देखकर मैं यही समझा हूँ कि जैसा वे सोचते और करते हैं तपस्या की वही असल परिभाषा भी है और उसके करने की विधि और शैली भी वहीं है। जैसा वे अपने कर्मों और व्यवहार में दिखते हैं ठीक वैसा ही वे भीतर से भी है। एक तपस्वी भी, जब अपनी तपस्या से सिद्धि प्राप्त कर लेता है तो उसके भी अन्तर और बाह्य में वही एकरूपता आ जाती है, जैसा कि यहाँ के लोगों में देखने को मिलती है और जिस भूभाग का हर बासिन्दा, सहज और सरल हो और वही सरलता, सहज रूप में, उसके आचरण और व्यवहार से टपकती हो तो वह भूभाग निश्चित ही स्वर्ग है।
(समाप्त)
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रचनाकार संपर्क-
सोमेश शेखर चन्द्र
(आर ए मिश्र)
2284/4 शास्त्री नगर
सुलतानपुर, उप्र 228001
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abahut achha yatra vritant. Aur Aakhiri bhag to sabse achha tha. Kaash hum hindustan ke log isse kuch seekhen.
जवाब देंहटाएंरवि जी बहुत अच्छा लगा यात्रा वृतांत...भारत में और विदेश में जो फ़र्क है वह तो रहेगा ही हमेशा...हमारे देश की सभ्यता संकृति के आगे तो ईश्वर भी नतमस्तक हो जाते है..बस एक ही कमी है यहाँ भेद-भाव,छूआ-छूत,धर्म के नाम पर पाखंड बहुत फ़ैल रहा है,नदियों नालो को तो गन्दा नाला बना कर छोड़ दिया गया है,चारो तरफ़ भुखमरी,
जवाब देंहटाएंबिमारी का आतंक है,...सब कुछ होकर भी लोग खुश नही रहते,नशे के शिकार बहुत है मगर नशे के मारे अपनी मान-मर्यादा सब भूल जाते है...
बहुत अच्छा लेखन है आपका,साफ़ सरल भाषा...आशा करती हूँ भविष्य में आपसे कुछ सीख पाऊँगी...
सुनीता(शानू)
Ek baar jab padhna shauru kiya to jab tak ant tak nahi padha ,rukne ka mann nahi hua.Bahut hi achhi tarah se vritant kiya hai aapne.har ek cheez ko kaafi baarikiyon se dekha aur bataya hai.Padhte samay laga ki jaise main un jagahon ko dekh rahi hoon.aagey aur bhi padhne ko milega aisi ashaa rakhti hoon.
जवाब देंहटाएंBahut achcha description hai Switzerland ka. Kafi baareeki se padha hai aur dekha hai aapney. Prasana kar deney wala lekh
जवाब देंहटाएंLekhak aur prastutkarta ko kotishah dhanyawad aur itnee achee lekh ke liye mubarakbad
जवाब देंहटाएंApkey ankhon dekha vritant aur commentar, sath hee wahan per rahney waley logon ke barey main batlana aur wahan per basey bharatiya logon ka desh prem aur atmiyata dekhkar man gadgad ho utha
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