प्रथम किश्त | द्वितीय किश्त | अंतिम किश्त यात्रा - वृत्तांत -सोमेश शेखर चन्द्र स्विटजरलैंड की अपनी कोई भाषा नहीं है यहाँ जर्मन, इट...
प्रथम किश्त | द्वितीय किश्त | अंतिम किश्त
यात्रा - वृत्तांत
-सोमेश शेखर चन्द्र
स्विटजरलैंड की अपनी कोई भाषा नहीं है यहाँ जर्मन, इटालियन और फ्रैंच भाषा बोली जाती है अंग्रेजी के अखबार या मैगजीन तो यहाँ देखने को नहीं मिलते। यहाँ के लोग अंग्रेजी न तो बोलते हैं न समझते हैं। सीएनएन चैनल से अंग्रेजी समाचार मिल जाते थे इसके अलावा हमारे पढ़ने लायक वहाँ कुछ भी नहीं मिलता था और जो मिलता था वह हमारी समझ के बाहर था। ज्यूरिख जाकर सोचा कि चलकर यहाँ से पढ़ने लायक कोई किताब खरीद लें। यहाँ एक किताब की दुकान थी जिसमें सिर्फ अंग्रेजी की किताबें ही बिकती थी। यहाँ दुकानों और बाजार में घूमते समय भारतीय और भारत में बने सामानों को देखने की मन में लालसा हमेशा रहती थी। भारतीय तो कहीं कहीं देखने को मुझे मिल जाते थे। लेकिन भारत में बने सामान किसी भी दुकान में नहीं दिखे सिवाय ज्यूरिख के भारतीय स्टोरों में बिकते सामानों के। पुस्तक की दुकान में भी मुझे, किसी भी तरह की किसी भी भारतीय लेखक या भारत से सम्बन्धित किसी भी विषय की पुस्तक की तलाश थी लेकिन मुझे उस दुकान में ऐसी एक भी पुस्तक नहीं दिखी। हाँ एक किताब भारत के जादू पर थी। लेकिन उसका दाम इतना ज्यादा था कि उसे खरीदने की मेरी हिम्मत नहीं पड़ी थी। जापान, रूस, अमेरिका, इटली, जर्मनी, अफ्रीका, चीन, मुस्लिम देशों यहाँ तक कि ताइवान, थाईलैंड, वियतनाम, श्री लंका जैसे छोटे छोटे देशों से सम्बन्धित किताबें सेल्फ में लगी हुई थी लेकिन भारत के सम्बन्ध में मुझे एक को छोड़कर दूसरी कोई किताब देखने को नहीं मिली।
तिवारी जी से मिलने के लिए उनकी दुकान में गया उनकी दुकान पुराने ज्यूरिख के काफी भीतर एक गली में थी। पुराने ज्यूरिख की गलियाँ ठीक अपने बनारस की तरह संकरी और व्यस्त हैं। पुराने मकान सबके सब पत्थर के बने हैं और वे चार-पांच तल्लों से ज्यादा ऊँचे नहीं हैं। इन गलियों में दुकानें हैं और लोगों की भीड़ भाड़ वैसे ही होती है जिस तरह बनारस की गलियों में होती है। इन गलियों में कारें नहीं चल सकती इसलिए लोग अपनी कारें दूर किसी स्टैण्ड में लगा देते हैं। भीतर यहाँ इतनी गलियों पर गलियां हैं कि अंजान आदमी दिन भर भटकता रहे। गलियों से गुजरते समय हम लोग एक ऐसी इमारत के सामने पहुँचे, जिसमें ज्यूरिख के तीन प्रशासक १११८ से लेकर ११५८ तक रह चुके थे। उस बिल्डिंग की बाहरी दीवार पर प्रशासकों के नाम और उनके प्रशासन की अवधि लिखा हुआ था।
तिवारी जी उस समय अपनी दुकान में बैठे थे । हमें देखते ही वे खिल उठे थे । अपनी सीट से उठकर वे आगे बढ़कर हम लोगों का बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किये थे। बच्चे आगे बढ़कर उनका पांव छूकर आशीर्वाद लिये थे। स्विटजरलैंड में कहीं भी, दुकानों में अपने यहाँ की तरह लोगों के बैठने के लिए कुर्सियाँ नहीं होती। तिवारी जी की भी दुकान में हमारे बैठने लायक कोई जगह नहीं थी। उनकी मेज के सामने काठ का एक बक्सा पड़ा था उसी पर उन्होंने हमें बैठाया। तिवारी जी की उम्र ४५ के आसपास रही होगी देखने में वे काफी सुदर्शन और संभ्रांत लगते थे। प्रारंभिक कुशल क्षेम की पूछताछ के बाद मैंने तिवारी जी से कहा कि स्विटजरलैंड की खूबसूरती के बारे में जितना सुना था यह उससे ज्यादा ही खूबसूरत हैं यहाँ की व्यवस्था देखकर मैं चकित हूँ किसी भी जगह मुझे थोड़ी भी अव्यवस्था नहीं दिखी। लोग यहाँ के इतने संभ्रांत हैं लेकिन उनमें कोई अकड़ या ऐंठ नहीं है। यहाँ के लोग काफी सीधे और सरल भी हैं जीवन के हर क्षेत्र में कितने सिस्टमेटिक ईमानदार और समर्पित हैं सब अविश्वसनीय लगता है। सबसे ज्यादा मुझे यहाँ की जिस एक बात ने प्रभावित किया वह है यहाँ का प्रजातंत्र। गाँव से लेकर शहर तक की सारी व्यवस्था यहाँ की पंचायतों के जिम्मे है, अपने संसाधनों की उगाही से लेकर अन्तिम प्रबंध तक हर स्तर पर वे स्वतंत्र हैं और उनके अपने निर्णय में न तो उन्हें किसी का अनुमोदन लेना होता है और न ही उनके कार्य में बाहरी किसी तंत्र का हस्तक्षेप और दखल होता है अगर एक छोटी सड़क का भी निर्माण करवाना हुआ तो इसके लिए वे आमजन की राय जानने के लिए वोटिंग करवाते हैं किसी बाहरी आदमी को नागरिकता देने की बात आती है तो भी यहाँ का तंत्र राय शुमारी करके लोगों की राय लेता है।
उस सबके अलावे, मेरे मन में, जो एक सबसे बड़ी बात जानने की जिज्ञासा थी, वह यह थी, कि १०० वर्षों के भीतर दो विश्वयुद्ध हुए और दोनों का केन्द्र कमोवेश योरोप रहा था। हिटलर जैसा शासक स्विटजरलैंड की सीमा के पास बैठा था। पुराने समय में तो पृथ्वी पर वर्चस्व को लेकर मारकाट मची ही रहती थी। कहीं दो सभ्यताओं के बीच तो कहीं दो धर्मों के बीच, तो कहीं दो राजाओं में एक दूसरे को परास्त कर उसकी भूमि, संपत्ति, स्त्रियों को जीतने के लिए खून खराबा होता रहता था। लेकिन स्विटजरलैंड का इतिहास इन सभी युद्धों से अछूता रहा था। आज भी स्विटजरलैंड, योरोप में रहते हुए भी, योरोपियन यूनियन में शामिल नहीं है। वह पहले भी अपनी शान और शर्तों पर जिया था और आज भी तमाम दबावों को दरकिनार करके अपनी शर्त पर और स्वतंत्र जी रहा है। इस प्रश्न के अलावे मैं और भी ढेर सारी बातें आपसे स्विटजरलैंड के बारे में जानना चाहता हूँ। तिवारी जी ने कहा मैं इस समय जिस जगह बैठा हूँ वे सब बातें करने की जगह नहीं है। शनिवार के दिन आप मेरे घर पर सपरिवार आइए वहीं हम लोग बैठकर सारी बातें करेंगे। तिवारी जी की बात मुझे ठीक जँची थी। किसी को भला, अपनी दुकान में बैठकर, मेरे अनगिनत प्रश्नों के समाधान का समय कैसे रहेगा। फिर भी अपनी व्यस्तता में भी उन्होंने मुझे बताया कि हमारे यहाँ प्रशासन में सात विभाग है और सभी विभागों के अपने अपने प्रधानमंत्री है। यानी कि सात प्रधानमंत्री ? मेरा तिवारी जी से प्रश्न था। हाँ । भारत में साधारण एम०एल०ए० के पीछे कम से कम एक गनर चलता है मंत्री और मुख्यमंत्री के पीछे तो गाड़ियों और सिक्योरिटी वालों का काफिला ही चलता है जिधर से वे गुजर रहे हों पूरा रोड खाली हो जाता है और इस्कोर्टों की हाऊँ हाऊँ करती साइरनें पूरे शहर को, उनके चलने की इत्तिला करती चलती हैं। लेकिन यहाँ वैसा नहीं है यहाँ पर प्राइम मिनिस्टर आम आदमियों की तरह ही अपने बाल बच्चों के साथ दुकानों में जाकर सामान खरीदते हैं रेस्तराँ में खाना खाते हैं और पार्कों मैदानों में घूमते टहलते हैं। तिवारी जी ने बताया कि इस समय के तीन चार प्राइम मिनिस्टर मेरे मित्र हैं वे मुझसे मिलने इसी दुकान में आते हैं और जब वे आते हैं तो मैं उन्हें इसी काठ के बक्से पर बैठाता हूँ। तिवारी जी से मैंने कहा कि जब प्राइम मिनिस्टर ही आपके दोस्त हैं तो आपकी तो हर जगह अच्छी होल्ड होगी? तिवारी जी मेरे कहने का आशय समझ गए थे। उन्होंने कहा यहाँ किसी भी काम के लिए किसी सोर्स सिफारिश या किसी के आगे पीछे करने की जरूरत नहीं पड़ती। यहाँ जो नियम है उसके भीतर लोगों का काम होगा और तुरंत होगा और नियम में नहीं है तो उसे प्राइम मिनिस्टर भी चाहे कि करवा लें तब भी नहीं होगा। हर आदमी नियम जानता है इसलिए वह नियम के विरूद्ध कोई काम करने की कभी सोचता ही नहीं। तिवारी जी ने मुझे बताया कि हम लोग दुकान किये हुए हैं जितनी बिक्री होती है पूरा विवरण सहित यानी कि कितने फ्रैंक का सामान साल भर में बेचा उसमें अपनी लागत निकालकर प्राफिट की राशि पर जितना टैक्स बनता है टैक्स डिपार्टमेंट में जमा कर देते हैं। डिपार्टमेंट वाले दूसरे ही दिन यदि हमने ज्यादा टैक्स जमा कर दिया है तो रिफंड का चेक दे देते हैं और यदि कम जमा किये तो इसकी सूचना हमें दे देते हैं हम उतने का चेक उन्हें दे देते हैं। यह तो बड़ा अच्छा सिस्टम है, लेकिन क्या लोग यहाँ टैक्स की चोरी नहीं करते? नहीं करते, एकदम नहीं करते तिवारी जी का जवाब था। तिवारी जी ने यह भी बताया कि यहाँ पर लोग, किसी भी तरह की चोरी नहीं करते और जो चोरी वे करते भी है सरकार उसे जानती है और लोगों को उतनी तक की चोरी करने के लिए सरकार की तरफ से छूट मिली हुई है। पांच बजे यहाँ के लोग अपनी दुकान बंद कर देते है। पांच बजने के पहले तिवारी जी की पत्नी उन्हें लेने के लिए आ गई थी। तिवारी जी की पत्नी आम स्विस महिलाओं की तरह काफी खूबसूरत और भरी पुरी थी। वे सलवार और कुर्ता पहन रखी थीं। हमें देखते ही उन्होंने अपने दोनों हाथ जोड़कर हमारा अभिवादन किया था और हमसे हमारा कुशल क्षेम पूछी थी। वे बड़ी हंसमुख और व्यवहार कुशल महिला थी।
तिवारी जी की दुकान से निकला तो तय हुआ कि हम लोग शाम का खाना चलकर किसी रेस्तराँ में खाएँ। जितनी मंहगाई यहाँ पर है उसे देखकर मैंने हिसाब लगाया कि रेस्तराँ में खाने पर बेकार का अभी दस पंद्रह हजार खर्च हो जाएंगे इसलिए हम किसी भी रेस्तराँ में घुसने को तैयार नहीं थे। रेस्तराँ में न खाने के पीछे एक कारण और भी था कि यहाँ पर हर रेस्तराँ में मांस पकता है इसलिए मैं और खासकर पत्नी, इसके लिए तैयार नहीं थी। लेकिन बच्चे हमें एक ऐसी जगह ले गये जहाँ इटालियन ड्रेसिंग का रेस्तराँ था। इसमें मांस नहीं बनता था और जो कुछ भी मिलता था सब साग सब्जियों और फलों से तैयार चीजें मिलती थी।
स्विट्जरलैण्ड वासियों के भोजन में इतना ताम-झाम और वेराइटी नहीं होती जैसा भारतीय रसोई में होता है। यहां के लोग बिना मिर्च मसाले का बड़ा सीधा-साधा भोजन करते हैं। अगर मीट खाना हुआ तो बाजार से कटा पिटा एकदम तैयार किया मीट ले आते हैं कुकर में पकाते हैं उसपर नमक और गोल मिर्च और सास डालकर खा लेते हैं। खाने के बाद ए लोग फल का रस, आसक्रीम या चाकलेट ले लेते हैं बस इतने में ही इनका खाना पूरा हो जाता है।
इटालियन रेस्तराँ में टेबुलों पर तली हुई आलू के टुकड़े एक परात में, दूसरी में उबले अस्पार्गस, कटे खीरे मकई के ताजे कोची दाने, पत्तों के सलाद, दही में कटे फल डालकर तैयार रायता, चेरी, स्ट्राबेरी सेब के कटे फलों का मिश्रण, अलग-अलग परातों में सजा कर रखा हुआ था। एक तरफ, केला खरबूज, अंगूर, सेब चेरी तथा दूसरे फल काटकर रखे हुए थे। एक तरफ सेब अंगूर संतरा और दूसरे फलों के ताजे रस जग में रखे हुए थे। एक टेबुल पर बड़ी, मझोली और छोटी साइज की प्लेटें रखी हुई थी। जो जिस साइज की प्लेट लेना चाहे उठाकर अपने से, अपनी पसंद की सामग्री प्लेटों में भर ले। प्लेट की साइज के हिसाब से सबके दाम तय थे। फलों के रस का दाम गिलास के हिसाब से अलग से देना होता था। हम लोग बड़ी प्लेटें लेकर अपनी पसंद का ड्रेसिंग लिए और उसे खा कर फलों का रस पी कर पूरी तरह तृप्त होकर बाहर निकले। वहां की व्यवस्था और एक दम ताजी ड्रेसिंग काफी स्वादिष्ट और अच्छी लगी।
शनिवार के दिन मौसम एक दम साफ था उस दिन हम लोग जुगल बर्ग जाने का कार्यक्रम बना लिए। जुगल बर्ग ऊँची पहाड़ी पर चार पांच किलो मीटर के समतल क्षेत्र में स्थित है। ऊपर जाने के लिए यहाँ केबल कार की व्यवस्था है। जुग से बस पकड़ कर हम लोग जुगल बर्ग गए। जुगल बर्ग के रास्ते के दोनों तरफ ऊँचे-ऊँचे चीड़ के पेड़ थे और उनमें गुच्छेदार पीले फूल खिले हुए थे जो देखने में काफी खूबसूरत दिखते थे, चीड़ के अलावे दूसरे तीन चार तरह के ऊँचे-ऊँचे पेड़ सड़क के दोनों तरफ खड़े थे। बीच बीच में पहाड़ की ढलानों पर लोगों के रिहायशी खूब सूरत मकान भी थे। जैसे -जैसे बस, ऊँचाई पर जा रही थी, ऊपर से, झील, दूर दूर तक फैली बर्फ से ढपी पहाड़ की चोटियाँ दिखाई देने लगी थी। ऊंचाई पर चढ़ने के कारण हवा का दबाव कम होने के चलते हमारे, कानो में पटर पुटुर होने लग गया था।
हम बस के अंतिम पड़ाव पर जाकर उतर गए थे। बस यहाँ से आगे नहीं जाती थी। यहाँ से पहाड़ की चढाई शुरू हो जाती थी। ऊपर पहाड़ी पर जाने के लिए यहीं पर केबल कार मिलती थी।
केबल कार पकड़ने के लिए हम स्टेशन पर पहुंचे तो वह कार प्लेट फार्म पर लगी थी । रेल के छोटे डिब्बे की साइज की केबल कार में बैठने के लिए काठ की बेंचें लगी हुई थी और इसके चारों तरफ शीशे लगे हुए थे। देखने में यह काफी खूबसूरत और साफ सुथरी थी। इसको चलाने के लिए मीटर गेज की सिंगल रेल लाइन थी। सीमेंटेड जमीन पर, इसकी पटरियॉं कसी हुई थी। जिस जगह प्लेट फार्म था इससे दस गज आगे बढ़ते ही पहाड़ की खड़ी चढ़ाई शुरू हो जाती थी। पहाड़ की चढ़ाई पर चढ़ती रेल लाइन देख कर मन में दहशत सी होने लग गई थी कि जिस तरह की इसकी चढ़ाई है इसमें अगर कोई हादसा घट गया तो आदमी की हड्डिंयाँ भी ढूंढने पर नहीं मिलेंगी। टिकट कटाकर हम लोग कार में बैठ गए। कार अपने निर्धारित समय पर चल पड़ी थी। मुझे यह देख कर बड़ा ताज्जुब हुआ कि कार के भीतर कार चलाने वाला कोई ड्राइवर ही नहीं है फिर भी हमारी कार अपने रास्ते पर चलने लग गई है। अरे इसमें कहीं पर कोई इंजन या मोटर भी तो नहीं है। मैं अपनी सीट से उठकर आगे पीछे जितना देख सकता था सब जगह ध्यान देकर देखा कि इसका भला इंजन या मोटर कहाँ है? लेकिन वह न तो मुझे कहीं दिखा था ओर न ही उसकी मुझे कोई आवाज ही सुनाई पड़ी थी। कार में दर असल एक केबल लगा हुआ था जो उसे खींचकर ऊपर लिए जा रहा थी। सोचा इसका संचालन और नियंत्रण ऊपर लगी मशीन से होता होगा। मैं चुप मारकर अपनी सीट पर बैठ गया। कार चढ़ाई पर चढ़ती जा रही थी। इसमें पंद्रह बीस की संख्या में स्त्री पुरूष और बच्चे सवार थे। कार की पटरी के बगल सीढ़ियों से बना रास्ता भी ऊपर चढ़ता चला गया था। पटरी के दोनों बगल दूर दूर तक मोटे तने वाले पेड़ खड़े थे। नीचे कुछ दूर पर झील थी जिसमें नावें खिलौने की तरह तैरती दिखती थी।
आधे रास्ते पर पहुंचने पर देखा एक केबल कार ऊपर से नीचे की तरफ उतरी चली आ रही थी। ऊपर से आती कार देख कर मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ। पटरी तो एक ही है यह दूसरी कार भला किस पटरी पर आ रही है? लेकिन थोड़ी ही देर में मेरी इस शंका का समाधान हो गया था। दोनों कारें जब एक जगह पहुँची थी तो हमारी कार दाहिनी तरफ और ऊपर से आती कार बांयी तरफ होकर एक दूसरे को पार कर गई थी। दरअसल उस जगह पर इन्होंने दो पटरियाँ बिछा रखा था और पटरियों के बदलने का अंकगणित इतना खॉटी था कि एक का दूसरे से टकराने की कहीं कोई गुजांइश ही नहीं थी। वहाँ पर विरोधी दिशा से आती कारों को पटरियाँ बदलने के लिए कोई आदमी भी नहीं था। इस जगह के बाद चढ़ाई काफी खड़ी हो गई थी लेकिन कार की रफ्तार एकदम पहले जैसी ही थी और वह बड़े आराम से ऊपर चढ़ती चली आ रही थी। ऊपर पहुँचकर कार उसी तरह के एक ढंलुवे प्लेटफार्म पर जाकर खड़ी हो गई थी। हम लोग कार से निकलकर बाहर आये थे। लेकिन जैसा मैंने सोचा था कि कार चलाने के लिए इसकी मशीनें ऊपर लगी होंगी, वैसा ऊपर कुछ भी नहीं था सिर्फ रेल की पहिया की तरह ऊपर एक पहिया लगी थी जिसमें कार की केबल पिरोई हुई थी इसके अलावा वहाँ कुछ भी नहीं था। दरअसल केबल कार चलाने के लिए किसी इंजन या मोटर का प्रयोग ही नहीं किया गया था। केबल कार का समूचा संचालन पहाड़ की चढ़ाई के फोर्स का इस्तेमाल करके किया गया था। समूची व्यवस्था को संचालित करने के लिए उन्होंने जितनी बारीक इंजीनियरिंग का इस्तेमाल किया था। उसे देखकर मैं दंग रह गया था। उन्होंने किया यह था कि एक ही केबल में दोनों कारों को बांध दिया था। ऊपर वाली कार जब नीचे उतरती थी तो ढलान के चलते वह अपनी ताकत के बूतें नीचे वाली कार को ऊपर खींचने लगती थी। पहाड़ की ढलान उन्होंने इस तरह काटकर बनाया था और उसमें सेटीमीटर की अकुरेसी के साथ केबल पहना रखा था कि चढ़ाई या उतराई के समय दोनों कारें जब एक दूसरे को बीच में क्रास करती थी तो दोनों अपनी-अपनी लाइनों पर चली जाती थी। इस तरह केबल कार का संचालन, सहज ढंग से और एकदम निरापद, वर्षो से होता चला आ रहा था। इसमें ड्राइवर इसलिए नहीं होता था कि सारी व्यवस्था का संचालन रिमोट से नीचे स्टेशन से होता था। केबल कार जिसमें हम बैठकर ऊपर जा रहे थे वह बीच में एक जगह रोक दी गई थी कारण था कार की ट्रैक पर एक प्लास्टिक की बाल्टी गिरी हुई थी और उसे कन्ट्रोल रूम में लगे कैमरे ने देख लिया था। उसे ट्रैक से हटाने के लिए, कार मैं बैठकर एक आदमी नीचे से ऊपर गया था। जहाँ बाल्टी पड़ी थी कार वहाँ रूकी थी, उस आदमी ने ट्रैक से बाल्टी उठाकर कार में रखा था और कार चल पड़ी थी। यह सब इतना आसानी से हुआ था कि देखकर मैं चकित था और उससे ज्यादा चकित था इन लोगों की इंजीनियरिंग देखकर।
ऊपर चार पाँच किलोमीटर का क्षेत्र समतल भूभाग था। यहीं पर एक पब्लिक स्कूल था। मुझे बताया गया कि इस स्कूल में जार्ज बुश जूनियर के विरोध में राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ चुके जान केरी इस स्कूल में पढ़े थे। स्कूल की इमारत तीन तल्ले की थी। इसके बगल गोल्फ, फुटबाल, बैडमिंटन और टेनिस खेलने का मैदान था। थोड़ी ही दूर पर एक तालाब था। जिसके किनारों पर घास उगी हुई थी। एक जगह गौशाला थी जिसमें पंद्रह बीस गाएँ बाड़ के अंदर घूम रही थी और गौशाला की बगल में ही एक घुड़साल थी। घुड़साल में सात आठ घोड़े बाहर चर रहे थे। घोड़े यहाँ के ऊँचे तो थे लेकिन देखभाल के अभाव में वे काफी कृश और कमजोर दिखते थे। गाएँ भी किसानों की गायों की तरह स्वस्थ नहीं थी। स्कूल के मैदान के बीच से एक पतली सड़क आगे चली गयी थी। जहाँ स्कूल का कैंपस खत्म होता था वहीं पर लकड़ी के लट्ठे को काटकर मुँह फाड़े घड़ियाल की आकृति देकर उसके भीतर से पानी गुजार दिया था और इसके मुँह से पानी की पतली धार हमेशा बहती रहती थी। हम लोग वहीं पर पानी पिए। बगल में लकड़ी के लट्ठों से घेर कर सण्डास बनाया हुआ था । बाहर से देखने से लगता था कि लकड़ी के लटठों से धेर कर सण्डास के लिए पर्दा कर दिया गया है। लेकिन भीतर इसके बड़ा संभ्रांत टायलेट और बाथरूम बनाया हुआ था। जिसमें गरम और ठंडे पानी के नल, टिसू पेपर हाथ सुखाने के लिए ब्लोवर जैसी मशीनें लगी हुई थी।
वहाँ थोड़ी देर बेंच पर बैठने के बाद हम लोग आगे बढ़ गये। ऊपर बड़ी संख्या में बच्चे और सभी उम्र के औरत पुरूष घूमने के लिए आये हुए थे। ज्यादा उम्र दराज जोड़े ऊँचाई पर चढ़ने के लिए छड़ियाँ लिये हुये थे और वे बड़ी गर्म जोशी से पहाड़ी में सैर कर रहे थे। युवक और युवतियाँ ओलंपिक की सायकिल रेस में जिस तरह की साइकिलों पर खिलाड़ी रेस करते हैं उसी तरह की साइकिल पर, वैसा ही हेलमेट पहन कर साइकिल रेस कर रहे थे। बच्चे पांव में गराड़ी लगी स्केटे बांधकर सर्र सर्र रोड पर दौड़ लगा रहे थे। एकदम छोटे बच्चों के खेलने के लिए बीच बीच में झूले और तारो पर सरकने वाली छोटी डोलियाँ लगी हुई थी जिसमें बैठकर वे झूल और सरक रहे थे। सड़क के किनारे किनारे थोड़ी थोड़ी दूर पर पेड़ के तनों पर काठ के मगरमच्छ, बाज, उल्लू, गुबरैले की बड़ी सजीव आकृति बनाकर बैठा दिए थे। वहीं से थोड़ी ही दूर पर बर्फ से ढंकी एक चोटी चमकती हुई हमारे एकदम पास दीखती सी लगी थी। सोचा गया था कि हम लोग चलकर उस चोटी तक जाते है लेकिन काफी दूर निकल जाने के बाद हमारा रास्ता दूसरी तरफ मुड़ गया था इसलिए चोटी की तरफ जाने का कोई उपाय नहीं था। यहाँ भी कईयों लंबे चौड़े खेत थे जिसमें छोटे-छोटे पीले फूलों से अंटी ऊंची घास थी। एक तरफ छोटी पहाड़ी थी जिस पर चीड़ के ऊँचे ऊँचे पेड़ खड़े थे। ऊपर काफी देर सैर सपाटा करने के बाद हम लोग वापस नीचे आ गए थे। यह जगह घूमने फिरने के लिए बहुत अच्छी थी। वैसे किसी भी घूमने की जगह पर जवान औरत मर्द, युवक युवतियाँ और बच्चे तो हर जगह दिखाई पड़ते है लेकिन अस्सी नब्बे साल की उम्र के औरत मर्द के जोड़ों को इतनी बेफिक्री से इतनी ऊँची जगह पर बड़े आराम से टहलते घूमते, ऊँचाइयाँ चढ़ते देखना हम लोगों को विस्मयकारी लगता था।
यहाँ के लोग काफी स्वस्थ और चुस्त होते हैं इसका तीन कारण मुझे समझ में आया। पहला कारण तो यह कि यहाँ के लोग, फल, दूध, मांस जैसे पौष्टिक भोजन करते है जो पूरी तरह शुद्ध और प्राकृतिक होता है। दूसरे यहाँ के लोग इतना चलते फिरते और दौड़ धूप करते है कि उनका शरीर स्वस्थ और चुस्त होता है उन्हें अलग से कोई व्यायाम या शारीरिक श्रम करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। यहाँ की सारी योजनाएँ, सड़क और यातायात, इसी को ध्यान में रखकर बनाया गया है। लोग स्वस्थ और चुस्त रहे इसके लिए तो यहाँ की काउंटी यहाँ तक करती है कि गर्मियों में हर सुबह ट्रक में साइकिलें भरकर झील के किनारे और दूसरी घूमने की जगह पर खड़ी कर देते है। साइकिलें नि:शुल्क दिन भर के लिए बांट दी जाती हैं जिसे जरूरत हो यहाँ से साइकिल ले लें दिन भर चलाएं और शाम को वापस कर दें। वैसे भी लोग साइकिल यहाँ खूब चलाते है। हर आम जगह में साइकिल रखने के स्टैंड होते है। लोग वहाँ अपनी साइकिलें खड़ी करके, अपने काम पर या घूमने फिरने चले जाते है। चोरी चकारी जैसी घटना कभी होती नहीं इसलिए लोगों को इसकी कोई चिंता नहीं होती।
वैसे तो स्विटजरलैंड की हर जगह घूमने फिरने और देखने लायक है लेकिन यहाँ आकर अगर टिटलिस न देखा गया तो समझिए स्विटजरलैंड देखा ही नहीं गया। जुग से ट्रेन पकड़कर हम लोग लूजर्न पहुँचे। लूजर्न यहाँ का रेलवे जंक्शन है काफी बड़ी झील यहाँ भी है यहाँ पर टूरिस्टों के लिए बड़े-बड़े होटल हैं। लूजर्न से हम दूसरी ट्रेन पकड़ लिए थे जो हमें काफी दूर ले जाकर एक स्टेशन पर छोड़ दी थी। इसी स्टेशन से टिटलिस जाने के लिए दो डिब्बों वाली छोटी ट्रेन मिलती थी। स्विटजरलैंड में जब से आया था, पहली दफा देखा, छोटी ट्रेन जिसे पकड़कर हमें टिटलिस जाना था, यह दस मिनट लेट थी। आल्पस पहाड़ की दूसरी सबसे ऊँची चोटी टिटलिस है। यहाँ पहुंचने के लिए ट्रेन की सुविधा तो है ही इसके अलावे यहाँ कार तथा टूरिस्टों को ले आने, ले जाने वाली बड़ी बसें चलती हैं। टिटलिस सिर्फ पहाड़ की चोटी ही नहीं है यहाँ भी लोगों ने अपने रहने के लिए आशियाना बना रखा है। बच्चों का स्कूल खेलने का मैदान बाजार और दुकानें सब कुछ है यहाँ। टिटलिस हालॉकि बड़ी ऊँचाई पर बसा है और उसकी चोटी तो रिहायशी जगह से काफी ऊँचाई पर है लेकिन पहाड़ की चोटी पर पहुंचने के लिए इन लोगों ने बड़ी दूर से व्यवस्था बनाया हुआ है। उनकी व्यवस्था ऐसी है कि हर आयु वर्ग का आदमी इसकी बर्फ से ढॅपी चोटी के शीर्ष पर बिना किसी मशक्कत या बाधा के आसानी से पहुँच जाए।
केबल कार में हम बैठ चुके थे और उसके संचालन का पूरा तंत्र समझ लिए थे लेकिन दो डिब्बों वाली छोटी, मीटर गेज पर चलने वाली ट्रेन इतनी खड़ी चढ़ाई पर, इतनी आसानी से चढ़ती चली जा रही थी कि इसे देखकर मुझे डर के साथ-साथ रोमांच हो रहा था। बिजली से चलने वाली ट्रेन मीटर गेज की लाइन की, सीमेंटेड रास्ते पर बिछी पटरियों पर चल रही थी। इसके डिब्बे के चारों तरफ शीशे लगे हुए थे जिसके चलते नजदीक और दूर दूर तक पसरा सौंदर्य बड़े अच्छे से दिखता था। पटरियों के बगल झुकी फूल से लदी डालियों को हम आसानी से छू सकते थे। डिब्बा एकदम बंद नहीं था। इसकी कांच की खिड़की खोलकर हम अपना सिर बाहर निकालकर चारों तरफ फैली खूबसूरत वादियाँ और पहाड़ की स्वच्छ शीतल हवा का आनंद भी ले रहे थे। लेकिन यह ट्रेन इतनी ऊँचाई पर इतनी आसानी से चढ़ती चली जा रही थी यह बात मेरे लिए काफी विस्मयकारी थी। इन लोगों ने पहाड़ के पानी से बिजली बनाने के लिए बीच-बीच में कईयों जगह टरबाइन लगा रखा है। देखने से पता नहीं चलता था कि यहाँ कोई पावर हाउस लगा हुआ है लेकिन रास्ते में मुझे कईयों जगह वैसे पावर हाउस दिखे थे। छोटी सी छोटी जगह के पानी का बिजली बनाने के लिए इन्होंने जैसा उपयोग किया है वह एक चमत्कार ही लगता है। किया उन्होंने ऐसा है कि जिस जगह से पहाड़ का पानी गिरता है इस पानी को वे, चार पांच मोटी मोटी पाइपों से गुजार कर टरबाइन तक पहुँचाते हैं और बड़ी थोड़ी सी जगह में बिना पहाड़ को काटे या कोई बांध बनाए टरबाइन चलाकर बिजली पैदा करते हैं।
हमारी ट्रेन अपने अंतिम पड़ाव पर निर्विघ्न पहुँच गई थी। लेकिन चढ़ने के समय माना कि इसे ऊँचाई पर चढ़ना था इसलिए यह बिना किसी हादसे के ऊपर चढ़ आई, लेकिन जब यह उतनी ही ढलुवा उतराई पर उतरने लगेगी तब? यह बात सोचकर ही मेरे रोगटें खड़े हो जाते थे। लेकिन उतरते समय भी यह उतनी ही आसानी से नीचे उतर रही थी। चढ़ाई पर चढ़ते समय या उतरते समय जिस सरलता से यह चल रही थी इसका रहस्य मेरी समझ में तब आया था जब मैं खिड़की से बाहर सिर निकाल कर इसके पहियों को देखा था। दरअसल इन लोगों ने रेल की दो पटरियों के बीच एक तीसरी पटरी बिछा रखा था और यह पटरी वहाँ वहाँ लगी थी जहाँ इसे खड़ी चढ़ाई चढ़ना होता था या नीचे उतरना होता था। होता यूँ था कि जब ट्रेन नीचे की तरफ उतर रही होती या कि चढ़ाई पर चढ़ रही होती तो डिब्बों के नीचे लगे बड़े और दांतेदार पिनियन नीचे उतरकर, बीच वाली पटरी को दोनों तरफ से पकड़ लेते थे और वे उसे उसकी पूरी चढ़ाई और उतरायी पर पटरी को पूरी तरफ मजबूती के साथ पकड़े घूमते रहते थे। इसमें लगे दॉतेदार जंडैल पिनियन न सिर्फ पूरी गाड़ी को बेलगाम होने से संभालते थे बल्कि उसकी चढ़ाई के समय उसको अतिरिक्त ताकत भरकर उसको ऊपर की तरफ ढकेलते थे। उसी तरह जब ट्रेन नीचे उतर रही होती उस समय भी यही जबड़े बीच की पटरी को पकड़े ट्रेन को पूरी तरह काबू में रखते। टिटलिस में यद्यपि कि धूप थी लेकिन हवा काफी ठंडी थी। स्टेशन से थोड़ी दूर पर ही पहाड़ की चोटी पर जाने के लिए रोप लाइन थी। इसमें डोलियाँ लगी थी। डोलियाँ समूची रोप लाइन में इतनी संख्या में थी कि एक डोली आती उसका दरवाजा खुलता लोग उसमें बैठते डोली का दरवाजा अपने आप बंद हो जाता और डोली यात्रियों को लेकर आगे बढ़ जाती। एक डोली के आगे बढ़ते ही दूसरी डोली प्लेटफार्म पर आकर लग जाती। यहाँ पर टिकट काउंटर पर टिकट कांटने वाला एक स्टाफ बैठा हुआ था। इसके अलावे वहाँ दूसरा कोई स्टाफ नहीं था। जिस समय हम लोग ऊपर चढ़ने के लिए प्लेटफार्म पर पहुँचे थे उस समय तीन बज चुके थे इसलिए ऊपर जाने वालों की भीड़ कम थी। सुबह के गए लोग उतने समय में, लौटती डोलियों में बैठकर नीचे आ रहे थे। हम लोग भी एक डोली में बैठकर ऊपर के लिए चल पड़े थे। लोहे के तार का रस्सा जिसमें डोली जाकर बॅध जाती थी वह काफी मोटा था और बड़े ऊँचे ऊँचे ट्रेसल में लगी पहियों के सहारे चल रहा था। डोली शीशे से चारों तरफ से बंद थी। उसमें बैठकर बड़ी दूर तक सब कुछ दिखाई पड़ता था। ट्रेसल जिसमें रस्से सरक रहे थे वे इतने ऊँचे थे कि उस ऊँचाई से एकदम नीचे बने घर खिलौने की तरह दिखते थे। एक पहाड़ी तक जाकर इस डोली से उतरकर उसी प्लेटफार्म से दूसरी डोली और आगे जाकर उसी तरह के प्लेटफार्म से तीसरी डोली में बैठकर एक ऐसे प्लेटफार्म पर पहुँचना होता था जहाँ डोलियाँ नहीं चलती थी। बल्कि एक बड़ा पिंजरेनुमा गंडोला चलता था। इस गंडोले में पचास आदमियों के खड़ा होने लायक जगह थी। गंडोला ठीक पिंजरेनुमा था ऊपर वह गुबंदनुमा था और बीच में गोल था। इसकी फर्श लोहे की चद्दरों की थी और उस पर कार्पेट बिछा था। इसके चारो तरफ पकड़कर खड़ा होने के लिए रेलिंगें लगी हुई थी। बीच में लोहे की पाइप का एक गोल खंभा था। चारो तरफ यह शीशे से ढॅपा था। सबसे बड़ी खासियत इसकी यह थी कि यह गोल गोल घूमता था इसलिए हिंदी में इसे गंडोला कहा गया है। इसमें खड़ा होकर दूर तक फैली आल्पस पहाड़ की बर्फ से ढॅपी चोटियाँ दिखाई पड़ती थी। इसी लाइन के ठीक बगल करीब सौ गज की दूरी पर एक और रोप लाइन जाती थी। यहाँ के लोग और पर्यटक जिन्हें स्केटिंग करना होता था वे बगल की दूसरी डोली से ऊपर जाकर वहाँ बर्फ पर स्केटिंग करते थे। गंडोले में बैठकर पहाड़ की बर्फीली ढलान पर स्केटिंग करते कईयों लोग दिखाई पड़ रहे थे। इतनी ऊँचाई पर बर्फ से ढॅपी पहाड़ की चोटियॉ देखने से बड़ा रोमांच हो रहा था। इतनी खड़ी ढलाई पर लोगों को बर्फ पर सरकते देख, मन आश्चर्य से भर उठता था कि आदमी कितना जीवट वाला और खतरे का प्रेमी होता है कि इतनी ऊँचाई पर हमें सुरक्षित गंडोले के भीतर डर लग रहा था लेकिन लोग थे कि उनको अपनी जान की परवाह ही नहीं थी और वे उतनी खतरनाक और बेहद ढलवॉं बर्फ पर बड़े मजे से स्केटिंग कर रहे थे।
गंडोले के भीतर एक जगह हिंदी में लिखा था विश्व के पहले गडोंले में आपका स्वागत है। यही बात दूसरी भाषाओं में भी लिखा हुआ था। इस गंडोले के भीतर से हम एक प्लेटफार्म पर पहुँचे। पच्चीस फुट लंबे चौडे इस प्लेटफार्म पर खडा होकर इटली फ्रांस जर्मनी और आस्ट्रिया की तरफ दूर-दूर तक बर्फ से ढॅपी शांत और सूर्य की रोशनी में चमकती गरिमामयी पहाड़ी की चोटियाँ दिखाई पड़ती थी। यहाँ पर चारों तरफ गहन शांत पसरी हुई थी। हवा भी उस समय एक दम शांत थी। हम लोग थोड़ी देर तक प्लेटफार्म पर खड़े चारों तरफ पसरे वैभव और आल्पस पहाड़ की गरिमामयी शांत चोटियों को देखते रहे थे। प्लेटफार्म की बगल ही एक छोटा सा तीन तल्ले में फैला काटेज था। इस काटेज के भीतर एक रेस्तराँ और स्टूडियो था। स्टूडियो में इन्स्टेट फोटोग्राफी की व्यवस्था थी। यहाँ स्विस परिधान में खिंची कईयों तस्वीरें बोर्ड में लगी थी इसमें से एक फोटो किसी वॉलीबुड अभिनेत्री की लगी थी। बाहर प्लेटफार्म पर अगल-बगल टीने के दो कट आउट लगे थे। कट आउट के पीछे अपना चेहरा उसके सिर वाली जगह में रखकर फोटो खिंचवाया। फोटो मिली तो उसे देखने के लगता था हम पति पत्नी बर्फ का सूट पहन कर बर्फीली चोटी पर खड़े हैं। प्लेटफार्म ३०२० मीटर की ऊँचाई पर स्थित था।
प्लेटफार्म से थोड़ी ही दूर पर पाँच सौ मीटर की ऊँचाई पर आल्पस पहाड़ की दूसरी सबसे ऊँची चोटी थी। वहाँ जाने के लिए वैसी कोई सुविधा नहीं थी वह इसलिए कि लोग बर्फ के रास्ते चलकर पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी के शीर्ष पर पैदल जाएँ। ऊपर चोटी के शीर्ष पर भी एक प्लेटफार्म बना था। हम लोगों को एक तो काफी देर हो चुकी थी दूसरे बर्फ में चलकर पहाड़ के शीर्ष पर पहुंचने की हमारी हिम्मत नहीं थी इसलिए हम लोग वहीं प्लेटफार्म पर लगी दूरबीन से ऊपर का तथा चारों तरफ फैले सौंदर्य निहार कर वापस लौट पड़े थे। आल्पस पहाड़ के शीर्ष पर खड़ा होकर जो जादुई सौंदर्य मैंने देखा था उससे मैं मंत्रमुग्ध था और उससे ज्यादा मुझे मंत्रमुग्ध किया था शीर्ष तक पहुंचने के लिए की गई इनकी व्यवस्था। जिस आसानी से मैं इतनी ऊँची चोटी के शीर्ष पर पहुँचा था। अपने जीवन में मैं ऐसा करने की कभी सोच भी नहीं सकता था। इसलिए इसकी चोटी पर चढ़ना और वहाँ से इसके वैभव को देखना मुझे किसी अच्छे स्वप्न देखने जैसा लग रहा था। और इसे देखकर मैं बुरी तरह रोमांचित था। गंडाले से उतरते समय हमारा बैग जिसमें कैमरा, छाता, कुछ खाने पीने की चीजें, गर्म कपड़े और पत्नी का पर्स रखा हुआ था वह गंडाले में छूट गया था। इसको लेकर हमें चिंता हो रही थी। वहाँ के एक स्टाफ को इसकी सूचना दिया तो उसने हमें आश्वस्त किया था कि आप एकदम निश्चिंत रहें वापसी के समय आपको आपका सामान प्लेटफार्म नंबर तीन पर मिल जायेगा। लड़के ने हमें बताया कि यहाँ हमारा सामान कतई गुम नहीं होगा न ही उसके साथ कोई छेड़छाड़ करेगा। उसने मुझे बताया कि उसका पर्स जिसमें उसके पैसे क्रेडिट कार्ड थे दो दफा कहीं गिर गया था और दोनों दफा पुलिस उसे पर्स में रखे मेरे पते पर मेरे घर पहुँचा गई थी और उसमें मैंने जो कुछ रखा था, पैसे रूपये सहित सब कुछ वैसे का वैसा रखा मिला था। उसी तरह से इस दफा भी जब हम प्लेटफार्म नंबर तीन पर पहुँचे थे तो हमारा बैग ऊपर उठाए एक स्टाफ हम लोगों का इन्तजार करता खड़ा था।
गंडोले में वापस लौटते समय तीस-चालीस की तादाद में ऊपर से लौटते सैलानी थे। उनमें अधिकतर चीनी थे। हमें मिलाकर करीब सात-आठ भारतीय औरत मर्द अपने बच्चों के साथ थे। चीनियों के जत्थे में हर उम्र के करीब बीस-पच्चीस लोग थे। गंडोले में बैठा स्टाफ काफी हंसमुख और मजाकिया था। उसने चीनियों से पूछा आप लोग चीन से हैं या जापान से? उन्होने बताया हम सभी चीन से हैं। इसके बाद उसने एक सी०ड़ी० चला दिया था जिसमें चीन का कोई प्रसिद्ध गाना बजने लगा था। गाना सुनते ही चीनियों के चेहरे खिल उठे थे और सभी चीनी मिलकर उस गाने को जोर-जोर से गाने लग गये थे। समवेत स्वर में गाते चीनियों का गीत उसका, सुर और ताल बड़ा सुरीला था। समझ में हमारे कुछ भी नहीं आ रहा था लेकिन उसका संगीत इतना सुरीला था कि उस पर गंडोले में मौजूद सारे लोग मस्ती में डूब गये थे और सारा माहौल जश्न मनाने जैसा हो गया था। गंडोला अपने स्वाभाविक चाल में सरकता चला जा रहा था कि इसी बीच वह तेज का झटका खाकर इतनी तेजी से नीचे को सरका था कि भीतर खड़े सारे लोगों की सॉसे ही थम गई थी और दूसरे ही क्षण लोगों की चुप्पी हाहाकार में बदल गई थी। हमें लगा, भीषण भूचाल आ गया है जिसके चलते गंड़ोला झटके खाने लग गया है। लेकिन दूसरे ही क्षण वह पूर्ववत अपनी रफ्तार में चलने लग गया था। लोगों की उड़ चुकी जान में अभी थोड़ी जान आई ही थी कि गंड़ोला फिर उसी तरह झटके खाकर नीचे की तरफ फिसला था और इस दफा भी उसमें मौजूद सभी लोगों के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी थी। लेकिन जो कुछ गंडोले के साथ ताबड़ तोड़ दो दफा हुआ था वह न तो भूचाल के कारण हुआ था और न ही किसी मशीनी खराबी के चलते। लोगो में, गंडोले को ऊँचाई से गिरने जैसी स्थिति पैदा करके, रोमांच पैदा करने के लिए ऐसा किया गया था। इसके बाद गंडोला जब भी ऊँचाई से नीचे की तरफ सरकता भीतर बैठे लोग समझ जाते और जोर से ओ % % % की आवाज निकाल कर नीचे गिरने का जश्न मनाते। अपने अंतिम पड़ाव तक पहुँचते पहुँचते गंडोला कईयों दफा इसी तरह झटके खाकर नीचे सरका था। शुरू शुरू में तो गंडोले में हम लोगों के साथ चलता स्टाफ, गंडोला नीचे सरकने पर, खुद परेशान हो उठने की मुद्रा अख्तियार कर लेता था। लेकिन उसके बाद, यह जानते हुए भी कि गंडोला झटके के साथ नीचे उतारा जा रहा है लोगों में जो दहशत भर जाती उनके दहशत जदा चेहरे देखकर, वह मंद मंद मुस्कुराता जैसे कह रहा होता देखा स्विटजरलैंड के लोगों की इंजीनियरिंग का कमाल?
स्टेशन पर पहुँचा तो देखा वहाँ रेल में कार्यरत दो तीन भारतीय हमारी तरफ आ रहे हैं। हमें देखकर वे जोर जोर से हिंदी में बातें करने लग गए थे जैसे हमें बता रहे हो कि हम भी भारतीय है और स्विटजरलैंड की धरती पर काम करते हैं। हमारी ट्रेन प्लेट फार्म पर लगी हुई थी इसलिए उनसे बात करने का समय नहीं था नहीं तो, कम से कम उनसे इतना तो जानने का मन तो था ही कि, उनसे पूछूं कि वे लोग भारत के किस जगह से है? ट्रेन में बैठा तो देखा आठ दस भारतीय औरत मर्द और बच्चे ''ट्रेन खड़ी है`` का हल्ला मचाते इधर लपके आ रहे थे। वे सब ट्रेन के भीतर ऐसे कूद-कूद कर चढ़ रहे थे और दौड़ दौड़ कर सीटें लूट रहे थे जिस तरह लोग भारत की ट्रेनों में जनरल डिब्बों में चढ़ने के लिए धक्कम धुक्की करते हैं और भीतर पहुँचकर सीटे लूटने पर उतावले होते है।
हड़बड़ी में वे टिकट नहीं लिए थे। एक चेकर ट्रेन में चढ़ा वह लोगों का टिकट काटने लगा तो लोग जैसा भारत में करते है वैसे ही कुछ ले देकर अपना काम बना लेने की फिराक में थे लेकिन ऐसा यहाँ होता नहीं है। टिकट काटने वाला स्टाफ उनकी इस मानसिकता पर हँस रहा था। स्विटजरलैंड एकदम निरापद देश है रात के दो बजे तक लड़के-लड़कियाँ, औरत-मर्द गलियों में चलते दिख जाते हैं लेकिन कभी चोरी डकैती छिनतई या जोर-जबर्दस्ती की कोई घटना सुनाई नहीं पड़ती। यहाँ की औरतें जिनके बच्चे छोटे होते हैं दूकानों में जाती हैं तो अपनी साइकिल से जाती है। साइकिल की बगल या पीछे की तरफ एक डोलची में जिसमें पहिया लगी होती है। उसे अपनी साइकिल में जोड़ लेती हैं और पीछे एक लाल पताका बाँध लेती हैं जो यह सूचित करता है कि साइकिल में बच्चा है उसे वे बड़े आराम से चलाती दूकानों में जाती है। जिसके दो बच्चे होते हैं वे दो डोलचियाँ दोनों बगल बाँध लेती हैं या एक बड़ी डोलची जिसमें दो बच्चे बैठने की जगह होती है उसमें बैठा कर ले जाती हैं। सात-आठ साल के बच्चे प्लास्टिक की चौड़ी पट्टी जिसमें आगे पीछे दो पहिया लगी होती है और साइकिल की तरह उसमें हैंडिल लगा होता है उसे सड़क के किनारे दौड़ा-दौड़ कर खेलते हैं और उसी पर खड़े होकर उसे स्पीड में दौड़ाते हुए स्कूल जाते हैं। थोड़ा और बड़े बच्चे दोनों पाँवों में गराड़ी लगी स्केट दोनों पाँवों में बाँधकर सड़क पर तेजी से दौड़ लगाते स्कूल जाते देखा।
एक दिन हम लाग ज्यूरिख से थोड़ी दूर हटकर एक जगह जहाँ इलेक्ट्रानिक सामानों की एक बड़ी दूकान थी वहाँ गए। दूकान सचमुच बड़ी थी और दो बीघे में फैले एक बड़े मकान के पूरे फ्लोर पर थी। इस दूकान में कम्प्यूटर से लेकर बड़ी दूरबीनें और टी०वी०, ड़ी०वी०ड़ी० जैसे घरेलू व्यवहार के सामानों से लेकर घर की सुरक्षा में लगने वाले तमाम तरह के उपकरण आलों में रखे हुए थे। सबसे अच्छा मुझे यही विभाग लगा। इसमें एक ऐसा उपकरण था जिसे यदि घर के दरवाजे पर लगा दिया जाए तो घर की बाउण्ड्री में किसी के अनाधिकार प्रवेश करते ही उस उपकरण में लगी घंटी अपने आप ही बजने लग जाती थी। इसी तरह के छोटे-बड़े और कईयों तरह के घर, कार, दूकान की सुरक्षा के उपयोग के उपकरण वहाँ रखे हुए थे। हम लोग घर की सुरक्षा वाले उपकरण खरीदे भी लेकिन भारत में लावारिस बिल्लियाँ, कुत्ते, गाय, भैंस, गधे, घोड़े घरों के आसपास घूमते ही रहते हैं ऐसे में इस तरह के उपकरण घर में लगाने से सिर्फ सिरदर्द बढ़ने के सिवा और कोई फायदा नहीं था। एक दूसरे फ्लोर पर कृषि कार्य के लिए छोटी बड़ी मशीनें और टूल रखे हुए थे। छोटे पेड़ों की टहनियाँ काटने का सरौता, ग्लू लगा चूहा पकड़ने का मैट और खेत की निराई गुड़ाई करने के लिए पंजे की तरह बना एक उपकरण खरीदा जो हमारे बहुत काम का था। बच्चों के लिए पीढ़ेदार झूला और कुछ खिलौने खरीदा। वैसे दाम उनके इतने ज्यादा थे कि उन्हें खरीदने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। हम लोग दूकान में घूम रहे थे तो उसी समय एक जगह चींय-चींय सायरन बजने लग गया था। सायरन बजते ही दूकान के कईयों स्टाफ उस तरफ दौड़ पड़े थे हुआ यूँ था कि कोई आदमी वहाँ रखे किसी सामान को हाथ लगा दिया था जिसके चलते सायरन बजने लग गया था। वह आदमी सायरन बजते ही अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर डरा हुआ अपनी जगह पर खड़ा हो गया था। यहाँ पर लोग दूकानों में जाते हैं अपने बैग के साथ लेकिन उनमें ईमानदारी इतनी है कि बिना पैसे दिए कोई छोटा सा भी सामान नहीं उठाता और न ही दूकान से बाहर निकलते समय दूकान का कोई स्टाफ उसे टोकता ही है। बावजूद इसके दूकानों में जगह-जगह खुफिया कैमरे लगे होते हैं कि अगर किसी ने कोई सामान चुपके से अपने बैग में डाल लिया तो वह इन कैमरों की आँखों से नहीं बच पायेगा। इसमें लगा सिस्टम तुरंत हल्ला मचाना शुरू कर देगा। इसी तरह का वाकया एक दिन और भी हमारी आँखों के सामने घटा था। उस दिन हम एक जूते-चप्पलों की दूकान में घूम रहे थे। दूकान के काउन्टर पर चार-पाँच आदमी पैसा भुगतान करने के लिये लाइन में खड़े थे एक आदमी जो सबसे पीछे था वह अपनी बारी में थोड़ा देरी होते देख बड़े आराम से लाइन से थोड़ा हटकर निकलने वाले गेट के पास आकर खड़ा हो गया था उसके इतना करते ही हूई-हूई करके सायरन बजने लग गया था। आदमी जो बड़े आराम से और सुस्ती से गेट के पास खड़ा था वह हड़बड़ा उठा था और भाग कर काउन्टर के पास लगी लाइन में आकर खड़ा हो गया था।
मिसेज ह्यूमनर बेटे की पहले की मकान मालकिन थीं। वैसे मैं स्विटजरलैंड काफी घूम चुका था लेकिन यहाँ के किसी वासिन्दे से भेंट नहीं हुई थी। यहाँ के किसी मूल वासिन्दे से मिलने की बड़ी इच्छा थी। ह्यूमनर बीमार थीं उनकी गर्दन के पीछे कोई तकलीफ थी जिसका उन्होंने आपरेशन करवाया हुआ था। दूसरी बड़ी बात थी कि उनकी दो बिल्लियाँ कहीं भाग गयी थी जिसके चलते वे बड़ी गमगीन थी। उन्हें ढूंढने के लिये वे दोनों बिल्लियों की फोटो के साथ अखबार में इश्तहार दे रखी थी। लोगों की सूचना के लिए खास-खास जगहों पर उनकी फोटो बंटवा दी थी। बिल्लियों को ढूंढने के लिए वे खुद भी जगह-जगह घूमी थीं लेकिन बिल्लियाँ न तो लौट कर आई थीं और न ही किसी को मिली ही थीं जो उन्हें उनके घर पहुँचा आता। मिसेज ह्यूमनर की बिल्लियाँ इसी तरह पहले भी कईयों दफा गुम हुई थी लेकिन हफ्ते दो हफ्ते में वे वापस लौट आई थीं लेकिन इस दफा बिल्लियों को गायब हुए महीनों गुजर गए थे इसके चलते वे बेहद दुखी थीं। यद्यपि कि उनको पता था कि उनकी बिल्लियाँ अब वापस नहीं लौटेगीं फिर भी जब उनके खाने और नाश्ते का समय होता था तो वे अपने घर की ऊँची जगहों पर खड़ी होकर उनका नाम लेकर पुकार पुकार कर उन्हें बुलाती और बुलाते बुलाते रोने लग जाती। बेटे को, अपनी बिल्लियों के भाग जाने की सूचना फोन पर देते समय भी वे रोने लग गई थीं।
दरअसल यहाँ पर लोगों को कुत्ते बिल्लियों को पालने का शौक नहीं बल्कि वे उनके जीवन का एक जरूरी और अहम हिस्सा जैसे होती हैं। उन्हें वे अपने बच्चों से भी ज्यादा चाहते हैं, और उसी तरह उनकी देखभाल और पालन-पोषण करते हैं। डिस्कवरी चैनल पर लोगों का अपने कुत्ते बिल्लियों से लगाव और उनकी साज संवार रखरखाव देखभाल देखा था लेकिन रूहानी तौर पर वे उनसे इस कदर जुड़े होते हैं कि उनके भाग जाने पर उन्हें लगे कि उनके शरीर से उनकी आत्मा ही भाग गई है, यह बात मैं यहाँ आकर देखा। बेटे ने हम लोगों के भारत से स्विटजरलैंड आने की सूचना मिसेज ह्यूमनर को फोन पर दिया था, तो उन्होंने उससे आग्रह किया था कि वह हम लोगों को लेकर एक दिन उनके घर जरूर आये। मिसेज ह्यूमनर की बीमारी, उनकी बिल्लियों का घर छोड़ का भाग जाना और उनका हम लोगों को अपने घर आने का आग्रह जैसे एक ही साथ कईयों कारण जुट चुके थे। इसलिए एक दिन हम लोगों ने उनके यहाँ जाने का कार्यक्रम बना डाला था। उनका घर पहाड़ की ऊँचाई पर था वहाँ तक बस नहीं जाती थी। इसलिए सोचा यह गया था कि वहाँ जाने के लिए कार बुक कर लिया जाये तो ठीक रहेगा। लड़के की कार थोड़े ही दिन पहले एक एक्सीडेंट में पूरी तरह टूट गई थी उसकी मरम्मत में कार की कीमत से भी ज्यादा पैसे लगते थे इसलिए उसके उसे अपने इन्श्योरेन्स कं० को दे दिया था। यहाँ पर किसी कार का एसीडेंट हो जाये और उससे किसी को जानी नुकसान न हुआ हो तो अपने यहाँ की तरह पुलिस वाले उसकी पकड़ धकड़ करने, कार थाने कोतवाली ले जाकर कार मालिक को परेशान करने, और ले देकर छोड़ देने जैसा काम नहीं करते। सबसे पहले तो वे लोग लफड़े से बचने के लिए खुद ही टूट फूट का पैसा ले देकर मामले को आपस में ही सलटा लेते हैं और इन्श्योरेन्स वाले को सूचित करके उसकी क्षतिपूर्ति ले लेते हैं। अगर पुलिस आई भी तो वह कहीं पर खड़े खड़े मौका मुआयना करके इन्श्योरेन्स वाले को कितने प्रतिशत तक की कार में टूट फूट हुई लिखकर दे देते हैं और इन्श्योरेन्स वाले उसी प्रतिशत में क्षतिपूर्ति कर देते हैं। बेटे ने भी, जिसकी कार से उसकी कार भिड़ी थी वहीं पर उसे उसकी कार के टूट का पैसा देकर, उसे सुलटा लिया था। मिसेज ह्यूमनर का घर पहाड़ी पर काफी ऊँचाई पर था इसलिए उनके यहाँ पहुंचने के लिए किराये पर कार लेना जरूरी हो गया था। जब कार किराये पर लिया ही है तो सोचा यह गया था कि, ह्यूमनर के घर से निकलकर हम लोग एक और दर्शनीय स्थल निदवाल्देन, जो हमारे घर से काफी दूर था और वहाँ हम नहीं जा सके थे वहाँ भी घूम आयेंगे।
यहाँ पर कारें किराये पर घंटे के हिसाब से मिलती हैं। अपने यहाँ की तरह यहाँ किराये की कार न तो कोई देने वाला बैठा होता है न उनका भाड़ा किराया लेने वाला ही होता है। वापसी पर कार लेने वाला भी कोई नहीं होता। लोग खास रंग से कारें रंग कर स्टेशन के बगल या निर्धारित स्टैण्ड पर लगा रखते हैं। जिसको कार लेने की जरूरत होती है वह स्टैण्ड पर जाता है कम्प्यूटर में अपना पूरा नाम पता फीड करके जिस कार को लेना हो उसका नम्बर फीड करके जितने घंटे के लिए कार लेना हो निर्धारित पैसा वहाँ क्रेडिट कार्ड से नगद कम्प्यूटर में डाल देने पर एक आईकार्ड निकल आता है उस कार्ड को कार के सामने के शीशे के भीतर लगी मशीन की तरफ दिखा देने से कार का दरवाजा खुल जाता है। भीतर कार की चाभी रखी होती है उसे लेकर कार स्टार्ट करते हैं और घूमने निकल जाते हैं। हाँ एक बात का उन्हें ध्यान रखना जरूरी होता है कि कार का जितने घंटे का पैसा भुगतान किया हुआ है उसके भीतर ही कार को लाकर उसके स्टैण्ड में जहाँ से लेकर कार चले थे वहीं खड़ी करके कार से बाहर निकल आना होता है अगर ऐसा नहीं किया तो जितने घंटे का भुगतान किया हुआ है वह समय समाप्त होते ही कार का दरवाजा अपने आप बंद हो जायेगा और कार चलना बंद हो जायेगी। मान लिया कि कोई निर्धारित समय के भीतर कार स्टैण्ड पर नहीं खड़ी कर सका तो उसे कार में ही लगी मशीन में पैसे डालकर उसके भाड़े का समय पहले से ही बढ़ा लेना होगा। ड्राइवर के साथ कार किराए पर लेने पर काफी मंहगी पड़ती है फिर भी ड्राइवर के साथ भी कारें लेने की यहाँ सुविधा है।
किसी के घर किसी काम से या उससे मिलने जाना हो, तो यहाँ का सिस्टम यह है कि उससे पहले से अपाइटमेंट ले लेना जरूरी होता है। बिना अगले की इजाजत और समय लिए कोई किसी का कितना भी मित्र क्यों न हो, उसके यहाँ नहीं जाता और वह भी, उसने जितने बजे का समय दिया हुआ होता है, उसी समय पर पहुँचना जरूरी होता है। दूसरी एक बात और यहाँ है कि कोई यहाँ चाहे कितना भी बीमार क्यों न हो, उसके मित्र या अपने लोग तक उससे मिलने के लिए अस्पताल या उसके घर में, अपने यहाँ की तरह, नहीं पहुँचते। यहाँ के लोगों का मानना है कि किसी बीमार को देखने जाने का मतलब है उसकी शांति में खलल पैदा करना।
मिसेज ह्यूमनर ने हमें ग्यारह बजे का समय दिया था। हम लोग ठीक ग्यारह बजे उनके घर पहुँच गए थे। उस समय वे हमारे पहुंचने के इंतजार में बैठी हुई थी। घर की घंटी बजते ही वे निकल कर बाहर आई थी। बरामदे में उनके चार-पाँच प्लास्टिक की कुर्सियाँ पड़ी हुई थी और बीच में उसी तरह प्लास्टिक का एक टेबुल था। हमें उन्होंने वहीं बैठाया था। हमें देखकर बेटे से उन्होने कहा था आपके पैरेन्टस काफी यंग लगते हैं। मिसेज ह्यूमनर बेटे से जर्मन में बातें करती थी। वे थोड़ी मोड़ी अंग्रेजी भी बोल लेती थी। उम्र उनकी पचहत्तर के करीब रही होगी लेकिन चेहरे पर उनके न तो झुर्री थी और न ही शरीर उनकी कहीं से झुकी लगती थी। उम्र की छाप चेहरे पर जरूर थी लेकिन वे काफी स्मार्ट थी। दरमियाना कद, भरी पूरी शरीर, काफी हसमुख थी और इस उम्र में भी वे काफी खूबसूरत दिखती थी। ह्यूमनर के पति सरकारी नौकरी में थे और काफी अरसे पहले उनका स्वर्गवास हो चुका था। ह्यूमनर की एक जवान बेटी थी जिसका अपने पति से तलाक हो चुका था और वह दूसरी जगह अकेली रहती थी। वह बस चलाती थी। उसे कोई सन्तान नहीं थी। माँ बेटी में बैठती नहीं थी इसलिए वह, माँ के पास बहुत कम आती थी और जब कभी माँ से मिलने आती थी तो दोनों में काफी झगड़ा होता था। मिसेज ह्यूमनर खुद पहले किसी होटल में खाना पकाने का काम करती थी। उनका ज्यूरिख में १०-११ कमरों का अपार्टमेंट था जिससे उन्हें हर महीने किराये से काफी पैसा मिल जाया करता था। पति का और उनका अर्जित किया हुआ काफी पैसा भी उनके पास था। पहाड़ की इस ऊँचाई पर उन्होंने अपने रहने के लिए अपना मकान खुद बनवाया हुआ था। छोटे से उसके मकान में दो तल्ले थे। एक में वे खुद रहती थी दूसरा भाड़े पर लगा रखी थी। मकान के चारों तरफ उनके काफी खाली जमीन थी जिसमें वे फूल लगा रखी थी। एक तरफ उनका स्विमिंग पूल था। इतनी उम्र में भी मिसेज ह्यूमनर टेनिस खेलती थी हेल्थ क्लब जाती थी और नियम से अपने स्विमिंग पूल में तैरती थी। घर के चारों तरफ वे तरह तरह के फूल लगा रखी थी। चेरी और सेब के कईयों पेड़ उनके बगीचे में थे जो उस समय सफेद और गुलाबी फूलों से लदे थे। मिसेज ह्यूमनर सारा दिन अपने बगीचे की क्यारियों में जुटी रहती थी। इसलिए उनके सारे बगीचे में रंग बिरंगे कईयों तरह के फूल खिले हुए थे। सब्जी के लिए, अपने बगान की क्यारियों में टमाटर मूली और सलाद पत्ते रोप रखी थी। मिसेज ह्यूमनर का थोड़े ही दिनों पहले, गर्दन के पीछे का आपरेशन हुआ था। उनकी बिल्लियाँ भी घर छोड़कर भाग खड़ी हुई थी। जिनके लिए वे अक्सर रोती कलपती रहती थी। वे विधवा थी और इनकी इकलौती बेटी उनसे अलग रहती थी इन सब बातों को लेकर मेरे भीतर मिसेज ह्यूमनर की जो तस्वीर उभर रही थी वह यह थी कि वे निहायत लहीम सहीम तरह की औरत होगी। जईफी के चलते वे चलने फिरने में भी असमर्थ होगी। अकेले पन के चलते अपनी जिदंगी वे किसी तरह काट रही होगी। लेकिन कमरे से निकलकर जो औरत, हमारे सामने खड़ी हुई थी उसके चेहरे पर जैसी ताजगी और खिलदड़ापन था उसे देखकर मैं दंग रह गया था। ह्यूमनर के चेहरे पर या उनके पूरे वजूद में कही भी, जरा सा कोई गम या अवसाद विषाद जैसी कोई चीज मुझे नहीं दिखी थी। इसके उलट उन्हें देखने से लगता था कि वे जिदंगी के एक एक लमहे को भरपूर जी कर उसके आखिरी कतरे तक को, आनंद और खुशियाली से इतना पूरित कर रखी है कि, दुख, असंतोष अवसाद विषाद या और किसी तरह की दुख देने वाली बातें उनके ईद गिर्द भी नहीं फटकती होगी। मिसेज ह्यूमनर दरवाजा खोलकर बाहर निकली थी तो वे मुस्कराकर हमारा स्वागत करती आगे, बढ़कर हमसे हाथ मिलाई थी। अंग्रेजी बोलने में उन्हें दिक्कत होती थी इसलिए हमारी उनसे जो भी बात होती थी बेटे के माध्यम से ही होती थी। बेटे ने ह्यूमनर के बारे में हमें काफी कुछ बता रखा था। इसलिए उनसे बात करके उनके बारे में कुछ जानने समझने का कोई मतलब नहीं था। वे ज्यादा समय बेटे से ही बातें करती रही थी मैंने उनसे पूछा था कि उनका जो आपरेशन हुआ था वह अब कैसा है तथा उनकी अब कैसी तबीयत है। जबाब में वे बड़ी बेफिक्री से मुझे बताई थी कि, वे एकदम चंगी एवं स्वस्थ है। आपरेशन करवाने के थोड़े दिन पहले ही वे कैरेबियन देशों का भ्रमण करके आयी थी और दो महीने बाद, वे अफ्रीकीा देशों के भ्रमण पर निकलने वाली थी। बिल्लियों के गुम होने के बारे में उनसे हमदर्दी प्रकट करने के लिए मैं उदासी ओढ़ते हुए जब अपना चेहरा लटका लिया था तब भी वे हँसती रही थी जैसे बिल्लियों के गुम होने जैसी कोई घटना हुई ही न हो फिर बहू की तरफ कटाक्ष करती हुई उन्होंने बेटे से कहा था कि सैंड़ी मारगरेट रात भर तुम्हें, कमरे में तलाशती है। ह्यूमनर की बात सुनकर बहू झेंप गई थी। सैंड़ी वे लड़के को कहती थी मारगरेट उनकी एक बिल्ली का नाम था जो बेटे के बिस्तरे में रात में आकर दुबक कर सो जाया करती थी। बहू को चिढ़ाने के लिए, शुरू शुरू में ह्यूमनर उसके साथ मजाक करती कि जैसे मारगरेट कोई बिल्ली नहीं बल्कि लड़की है। शुरू शुरू में बहू उनका मजाक नहीं समझती थी और उनकी बात पर परेशान हो उठती थी। वही मजाक उन्होंने बहू की तरफ कटाक्ष करके किया था तो सब लोग हो हो करके हँसने लगे थे। बहू भी। बाद में बहू ने हमें बताया था कि ह्यूमनर मुझे चिढ़ाने के लिए ऐसा कहती थी और मैं चिढ़ती भी थी।
मिसेज ह्यूमनर ने बेटे को बताया था कि जब वे बाहर गई हुई थी तो, उनकी बिल्लियों को उनका पड़ोसी अपने घर में बुलाकर उन्हें मार दिया था। यह बात उनके दूसरे पड़ोसी ने उनसे बताया था। क्योंकि एक दिन, उसने पड़ोसी के घर में बिल्लियों के चीखने चिल्लाने की आवाजें सुना था। दरअसल मिसेज ह्यूमनर का अपने पड़ोसी से झगड़ा था। दोनों में झगड़े का कारण यह था कि मिसेज ह्यूमनर के बगीचे के पेड़ की कुछ डालियाँ पड़ोसी के बगीचे की तरफ बढ़ गई थी और इसी को लेकर दोनों कोर्ट में मुकदमा लड़ रहे थे। पड़ोसी चाहे जिस देश के हों आपस में उनकी कम ही पटती है और दो पड़ोसियों में झगड़ा हो तो लगाने बुझाने वाले हर जगह मिल जाते हैं। ह्यूमनर हम लोगों के नाश्ते के लिए सलाद के पत्ते टमाटर और खीरा डालकर सैंडविच तथा ताजे सेब और अंगूर का रस दो जारों में डालकर लायी थी। थोड़ी देर बाद वे ताजी मछली की पतली फॉकें, पाव रोटी के अन्दर डालकर पपीता और चेरी अलग-अलग प्लेटों में रखकर लाई थी। बेटे ने बता रखा था कि हम लोग शाकाहारी हैं इसलिए हमारे खाने में वे मांस शामिल नहीं की थी। वे समझती थी कि मछली का भोजन मांसाहार में नहीं आता। जब हम लोगों ने उन्हें बताया था कि मछली, अंडा सबकुछ मांसाहार में आता है तो सुनकर उन्हें ताज्जुब हुआ था। मिसेज ह्यूमनर भारत दो तीन दफा हो आई थी। इसलिए वे भारत के बारे में काफी कुछ जानती थी। मैंने उनसे पूछा कि आपको भारत कैसा लगा? तो उन्होंने बताया था कि भारत अच्छी जगह है लेकिन वहाँ के लोग टूरिस्टो को देखकर मक्खियों की तरह उनके पीछे लगकर परेशान करते रहते हैं। लूटने पिटने, यहाँ तक कि वहाँ जान का भी खतरा रहता है उनकी यह बात मुझे अच्छी नहीं लगी थी। भारत के बारे में टूरिस्टों की ऐसी राय सुनकर दुख हुआ था। बाद में मुझे पता चला कि जो टूरिस्ट एक बार भारत आता है वह लौटने पर दूसरों को बताता है कि सब जगह जाओ लेकिन भारत मत जाओ।
ह्यूमनर के घर से निकलकर हम लोग निदवाल्देन की पहाड़ियाँ देखने चले गये थे। सचमुच यहाँ की पहाड़ियों को प्रकृति ने जिस खूबसूरती से तराश कर कहीं नुकीली तो कहीं दूसरी आकृति देकर चित्रकारी सीकर रखा है उसकी खूबसूरती देखते ही बनती है। स्लेटी रंग की चट्टानों के बीच में कहीं-कहीं लाल और चूने रंग के पत्थरों का सामंजस्य देख लगता है प्रकृति उन्हें बनाने और संवारने के लिए किसी और को नहीं भेजा था बल्कि खुद चितेरे का काम किया है। हम लोग कार में घूम-घूम कर कुशल संगतराश के हाथो और तूलिका के सिद्ध हस्त चितेरे द्वारा चित्रलिखित शांत सुंदर और वैभव पूर्ण पहाड़ियों का सौन्दर्य निहारते काफी दूर घूम आये थे। स्विटजरलैंड में हर जगह अलग अलग तरह का अनोखा सौन्दर्य बिखरा पड़ा है। कहीं झील के रूप में तो कहीं बर्फ से ढंकी पहाड़ियों के रूप में और कहीं तराशे और चित्र उकेरे पहाड़ी चट्टानों के रूप में। यहाँ की रिहायशी बस्तियाँ और शहर, बासिन्दे और पशु पक्षी, सबको देखकर लगता है कि प्रकृति इस भूभाग पर खास मेहरबान है। भाड़े की कार का समय पांच बजे खत्म हो जाता था। उसके पहले उसे स्टैण्ड में खड़ा कर देना जरूरी था। समय हाथ में कम था इसलिए बेटा कार को डेढ़ सौ मील प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ाना शुरू किया था। यहाँ की सड़कें और हाइवे इतने सपाट और बाधा रहित हैं कि कार इतनी रफ्तार में दौड़ रही थी फिर भी थोड़ा सा भी झटका या अनियंत्रण और किसी तरह की बाधा समूचे रास्ते में कहीं नहीं मिली थी। कार समूचे रास्ते इस तरह दौड़ रही थी जैसे वह जमीन पर नहीं बल्कि हवा में उड़ी जा रही हो। हम लोग समय से पांच मिनट पहले ही स्टैण्ड पर पहुँच गये थे। शाम के समय मिसेज ह्यूमनर का फोन आया था। वे हमें उनके घर जाने के लिए धन्यवाद दी थी। उन्होंने बताया था कि हम लोगों का, उनके घर जाना उन्हें बहुत अच्छा लगा। यहाँ के लोगों की एक आदत मुझे बहुत अच्छी लगी थी कि वे हर आदमी को उसके सुकृत का धन्यवाद करना नहीं भूलते। जीवन के उबड़ खाबड़ रास्ते को सुगम बनाना हो तो दूसरे को धन्यवाद कहना और उसके कृत्य पर कृतज्ञता व्यक्त करना सम्बन्धों में रस पैदा करने का अमोघ मंत्र है। और यह मंत्र यहाँ के लोग अच्छी तरह जानते हैं ।
तिवारी जी से जितनी देर की मुलाकात हुई थी उससे, न तो उनका मन भरा था और न ही मेरा ही मन भरा था। तिवारी जी का आग्रह था कि हम लोग उनके घर जरूर आयें। तिवारी जी स्विटजरलैंड के नागरिक थे और वे यहाँ काफी दिनों से रहते थे इसलिए स्विटजरलैंड के बारे में जितना वे जानते और बता सकते थे उतना दूसरा कोई नहीं बता सकता था। मैं तिवारी जी से हिन्दी में खुलकर बातें भी कर सकता था और उनसे हर तरह के प्रश्न भी पूँछ सकता था। मेरे मन में यहाँ का सामाजिक तानाबाना प्रशासन, रीति रिवाज, राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था के बारे में ढेर सारी बातें जानने की जिज्ञासा थी। इसलिए अपने पूरे परिवार के साथ नहीं बल्कि एक शनिवार के दिन अकेले ही उनके घर गया था। तिवारी जी शनिवार के दिन कहीं आते जाते नहीं थे और वे सारा दिन अपने बच्चों के साथ अपने घर में ही बिताना पसन्द करते थे। मैंने उन्हें बताया था कि बच्चे किसी दूसरे काम में व्यस्त होने के चलते आपके यहाँ नहीं आ पायेंगे, हाँ मुझे अकेले फुरसत है लेकिन मैं अकेले आपके घर तक नहीं पहुँच पाऊँगा। इस पर उन्होंने मुझे ज्यूरिख तक ट्रेन से आकर स्टेशन के मीटिंग प्वाइंट पर इन्तजार करने को कहा था। वहाँ पहुँचकर वे मुझे ले लेंगे। जैसा उन्होंने समझाया था मैं ट्रेन से उतरकर स्टेशन के मीटिंग प्वाइंट पर पहुँचकर उनका इन्तजार करने लग गया था। पाँच मिनट के भीतर ही तिवारी जी मीटिंग प्वाइंट पर मुझे लेने पहुँच गये थे। यहाँ के स्टेशनों पर अपने यहाँ की तरह प्लेटफार्म का टिकट नहीं लगता और वहाँ आकर कोई भी घूम फिर सकता है। यहाँ स्टेशन दो तल्ले का है और ऊपर नीचे आने जाने के लिए एलीवेटर की सीढ़ियां हमेशा घूमती रहती है। स्टेशन पर तीन चार लड़के जो स्विस नहीं लगते थे, मटरगस्ती करते हुए घूम रहे थे तीन चार पुलिसवाले, जिनके हाथ में स्टेनगनें थीं और उसकी बैरल ऊपर की तरफ उठाये सीढ़ियों की तरफ जा रहे थे, उन्हें देखकर वे लड़के आहिस्ते से वहाँ से खिसक लिये थे। स्विटजरलैंड की पुलिस सूट के ऊपर पीला जैकेट पहनती हैं इतने दिनों में मैं पुलिस वालों को यहाँ दूसरी दफा देखा था यहाँ के लोग पुलिस वालों से काफी डरते हैं। एक दिन कार से लौट रहा था तो पता चला कि आगे कोई एक्सीडेंट हो गया है पुलिस वाले उस जगह को प्लास्टिक की लम्बे पट्टे से घेर रखे थे। बेटा गाड़ी उस तरफ से न ले जाकर वापस मोड़ा और घूमकर दूसरे रास्ते से निकाला था। मैंने उससे पूछा था तुमने तो कोई गलती किया नहीं है फिर तुम्हें क्या डर है? उसने मुझे बताया था कि यहाँ के लोग पुलिस से बहुत डरते हैं लेकिन क्यों? मेरे पूछने पर उसने बताया था कि यह तो मैं भी नहीं जानता लेकिन जब यहाँ के वासिन्दे पुलिस से डरते हैं तो मुझे भी डरना चाहिए।
यहाँ पर कोई एक्सीडेंट हो जाता है तो यहाँ के लोग इसकी सूचना तुरन्त पुलिस को दे देते हैं। नजदीक की पुलिस सूचना पाते ही घटना स्थल पर पहुँच जाती है और घायल को तुरन्त अस्पताल पहुँचाती हैं। अगर घायल के उपचार लायक वहाँ नजदीक में अच्छा अस्पताल न हुआ तो वे उसकी हालत के मुताबिक उसे ऐसे अस्पताल में ले जाते हैं जहाँ ट्रामा के मरीज की अच्छी देखभाल और दवा दारू हो सके। घायल को अस्पताल तक पहुँचाने के लिए यहाँ की पुलिस हेलीकाप्टर तक का इस्तेमाल करने से नहीं चूकती। स्विटजरलैंड में पुलिस वाले बहुत कम देखने को मिलते हैं लेकिन दुर्घटना होने पर फायरबिग्रेड, एम्बुलेंस और इमरजेन्सी सर्विस की गाडियाँ अक्सर रोड पर हाउँ हाउँ करती दौड़ती नजर आ जाती है।
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(क्रमशः अगले किश्त में जारी...)
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wonderful. forceful and live in easy to understand language. While reading I felt my self travelling in real time.
जवाब देंहटाएंI recommend all to read it.