प्रथम किश्त | तृतीय किश्त | अंतिम किश्त यात्रा - वृत्तांत -सोमेश शेखर चन्द्र दरअसल यहाँ रोड, जहाँ से पार करने की व्यवस्था होती है व...
प्रथम किश्त | तृतीय किश्त | अंतिम किश्त
यात्रा - वृत्तांत
-सोमेश शेखर चन्द्र
दरअसल यहाँ रोड, जहाँ से पार करने की व्यवस्था होती है वहाँ सड़कों पर पीले रंग की जेब्रा लाइनें बनी होती है और दोनों पटरियों पर पोल गड़े होते हैं। पोल में लाल रंग की ढक्कनदार एक स्विच लगी होती है और उसी में थोड़ा ऊपर तीन बत्तियाँ लगी होती है। इन बत्तियों में से, एक बत्ती का रूख, सड़क की एक तरफ होता है और दूसरी का सड़क की दूसरी तरफ, तीसरी बत्ती का रूख दोनों पोलों के बीच की बत्तियों के आमने सामने होता है और उसमें सड़क पर चलते आदमी की आकृति बनी हुई होती है। सड़क के इस पटरी या उस पटरी से आदमी की आकृति की बत्ती दिखाई पड़ती है, उसमें बने आदमी की आकृति जब लाल रंग की रहती है तो इसका मतलब होता है कि किसी को सड़क पार करने की इजाजत नहीं है। पोल में लगे स्विच दबाने से थोड़ी देर में बत्ती में बनी आकृति हरी हो जाती है और दोनों तरफ लगी बत्तियाँ लाल हो जाती है। यही वह समय है जिसमें पैदलियों को सड़क पार कर लेने की इजाजत है। किसी को सड़क पार करना हो तो जेब्रा लाइन से ही सड़क पार करने की इजाजत है। सड़क पार करने की यह व्यवस्था स्विटजरलैंड की सभी सड़कों पर होती है। नेशनल हाइवे पर इसकी व्यवस्था नहीं होती।
सड़क की दूसरी तरफ से मुझे जो पार्क दिखा था वह पार्क नहीं था। दरअसल वहाँ एक बड़ा काम्प्लेक्स था जिसमें डाक्टरों के क्लिनिक, दुकानें, दफ्तर और हेल्थ क्लब थे। उसी काम्प्लेक्स की बगल, काफी लम्बी चौड़ी जगह में तीन तल्लों का एक वृद्धाश्रम था। उन्हीं काम्प्लेक्सों की खूबसूरती के लिए, वहाँ एक बड़ा सा लान बना था जिसमें मखमली घास लगी थी। बीच बीच में बौने छतनार पेड़ थे। लान के किनारे-किनारे फूल लगे हुए थे। मैं लॉन के पास गया तो वहाँ मुझे एक भी आदमी नहीं दिखा था। छोटे रास्ते से काम्प्लेक्स में लोग आ जा रहे थे लेकिन मुझे लॉन में कोई भी बैठा नहीं दिखा था। यह सोचकर कि, लान में बैठकर, मैं फिर एक नया गुनाह न कर बैठूँ, इसलिए मैं लान में बैठने का अपना इरादा बदलकर, वहीं थोड़ी देर खड़ा रहा था। उस समय काम्प्लेक्स के भीतर के सभी संस्थान बंद थे। सिर्फ एक हेयर ड्रेसिंग की दुकान खुली थी। बगल के वृद्धाश्रम में लोग, दो तल्ले और नीचे के एक बड़े हाल में खाना खा रहे थे। स्विटरजरलैंड की सरकार, अपने सीनियर सिटीजंस को भरपूर पेंशन देती है। इतनी कि उसमें उनके खाने पीने, और दवादारू से लेकर दूसरी सभी जरूरतें पूरी हो जाएँ। वैसे ज्यादातर वृद्ध अपने घरों में ही रहते हैं लेकिन, जिन्हें अपने घरों में अकेले रहना अच्छा नहीं लगता, वे वृद्धाश्रम में चले जाते हैं। इन आश्रमों में उनके लिए अखबार, पुस्तकें, डाक्टरी सुविधा से लेकर भोजन आदि सभी तरह की सहूलियतें उपलब्ध होती है। अंधेरा होने लगा तो आश्रम के कमरों की सारी बत्तियाँ बुझ गई थी। इसका मतलब था वे लोग सोने चले गए थे। मैं अपने घर वापस आ गया था।
मुझे वृद्धाश्रम देखकर यहाँ की व्यवस्था देखने की बड़ी इच्छा थी लेकिन इसे देखने का कोई उपाय नहीं था। एक दिन सुबह साढ़े दस बजे के करीब मैं आश्रम के पास से गुजर रहा था तो देखा बूढ़ी औरतें, तीन-तीन, चार-चार की गोल में, आश्रम से निकलकर कही जा रही थीं। पुरूषों की भी वैसी ही दो तीन गोल थी। मुझे यह देखकर बड़ी हैरानी हुई थी कि पैंसठ-सत्तर वर्ष की उम्र से लेकर नब्बे पंचानवें वर्ष की उम्र के बूढ़े बूढ़ियों के चेहरों पर, न तो कहीं कोई अवसाद था न विषाद था। उम्र की छाप झुर्रियों के रूप में उनके वजूद को ढंप जरूर ली थी लेकिन वे सबके सब खुश थे और आपस में हंसी ठिठोली कर रहे थे। अपनी इस उम्र को भी वे ईश्वर की नेमत समझ कर, इसे भरपूर भोगकर इसका आनंद ले रहे थे। खूबसूरत तो यहाँ के लोग ऐसे ही होते हैं लंबी उम्र के बावजूद उनके चेहरों पर ताजगी, गरिमामयी लावण्य और सौम्यता पसरी हुई थी। इस उम्र में पहुँचे लोगों के प्रति, हम लोगों का अमूनन ख्याल यह होता है कि वे समाज और अपने आत्मीयों से कटे होने के चलते, इन लोगों में निरीहता और घुटन होती होगी लेकिन उन लोगों को देखने से मुझे लगा था कि वे अपनी जिंदगी से बेहद खुश और संतुष्ट हैं। इतनी उम्र में भी मैंने किसी को झुके हुए नहीं देखा। न तो किसी के दांत झड़े थे और न ही किसी की आँख पर चश्मा चढ़ा था। सबसे अच्छा मुझे यह लगा कि नव्वे-पंचानवे की उम्र में पहुँची महिलाएँ अपने होठों पर लिपस्टिक लगाए पूरी तरह सजी गुजी हुई थीं। पुरूष सफारी सूट, कोट पैंट में पूरा अपटूडेट दिखते थे। उनके कपड़ों पर कहीं जरा सी शिकन या किर्च नहीं थी। दरअसल ये लोग सुबह का नाश्ता या खाना खाकर झुंडों में बाजार निकल जाते हैं। कोई झील के किनारे, तो कोई दुकानों और सड़कों पर घूमता रहता है।
यहाँ से निकलकर ज्यादातर लोग बैंक में जाते है पांच दस फ्रैक निकालते हैं और दुकानों में घुस कर कोई दो केले, कोई एक सेब, और कोई सौ ग्राम अंगूर या बिस्कुट टाफियाँ खरीदता है। बाजारों में, झीलों के किनारे टहलते घूमते और खरीदी करते इनका ढेर सारा समय आराम से कट जाता है। मैं रास्ते में जा रहा था तो एक बैंक के काउंटर पर बड़ी़ संख्या में लाइन में लगे ऐसे ही लोगों को देखा था और उन्हीं लोगों को दुकानों से केले और सेब तथा दूसरे फल खरीदते देखा था। यहाँ की एक बात, जिसे देखकर मैं सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ था, वह यह थी कि यहाँ के लोग किसी की दया और सहायता की न तो अपेक्षा करते हैं और न ही उसे लेना उन्हें पसंद ही है। पास में खड़ा आदमी देख रहा है कि, किसी को उसकी मदद की जरूरत है, फिर भी वह खुद से आगे बढ़कर, उसकी मदद नहीं करेगा। मदद के लिए आगे आने के पहले, उससे यह पूछेगा, ``कि क्या मैं आपकी मदद करूँ? लेकिन जब तक उसे इसकी इजाजत नहीं मिल जाती, वह उसको छुएगा भी नहीं। यह यहाँ की संस्कृति है। वैसे यहाँ हर तरह का लाचार आदमी आत्मनिर्भर रहे इसके लिए तरह-तरह के उपकरण और आम जगहों में वैसी सहूलियतें उपलब्ध होती हैं। यहाँ जब बस अपने पड़ाव पर रूकती है तो गेट खुलने के साथ पूरी बस दाहिनी तरफ झुक जाती है इतना कि कोई भी उसमें आसानी से चढ़ उतर ले। ट्रेनें स्टेशन पर रूकती है तो डिब्बों के गेट खुलने के साथ, लोहे का एक पीढ़ा डिब्बे से बाहर निकलकर प्लेटफार्म से सट जाता है। इस पीढ़े के चलते लोगों को ट्रेन में चढ़ने के लिए पावदान पर चढ़ने उतरने जैसी कोई मशक्कत नहीं करनी पड़ती। लोग उतनी ही असानी से और निरापद डिब्बों में चढ़ते उतरते हैं जैसे वे अपने घर के दरवाजे पार कर रहे हों।
एक आदमी जिसके दोनों पांवों में तकलीफ थी और उम्र उसकी अस्सी साल से ऊपर रही होगी। उसे, अपने यहाँ छोटे बच्चे जब चलना सीखते हैं, तो लोग काठ की तीन पहियों वाली उढ़कन पकड़ा देते हैं जिसे पकड़कर वह बड़ी आसानी से चल लेता है, उसी तरह की एक तिनपहिया के सहारे उस आदमी को बड़े मजे में चलते देखा। एक आदमी जिसके दोनों पांव बेकार थे उसे बैटरी से चलने वाली एक छोटी गाड़ी में घूमते देखा।
स्विटजरलैंड पहुंचने के दूसरे दिन इतवार था। आसमान भी उस दिन एकदम साफ था। हम लोग खाना पीना करके जुग के लिए निकल पड़े। स्विटजरलैंड बड़ा छोटा सा देश है लेकिन इसमें तेईस प्रांत हैं। कोई प्रांत तो यहाँ का इतना छोटा है कि ऊँची पहाड़ी पर चढ़कर देखने से पूरा प्रांत दिखाई पड़ता है। हम लोगों को स्विटजरलैंड में कुछ दिन रहना था इसलिए मंथली पास बनवा लिए थे। पास साथ में रहने से टिकट का भाड़ा आधा लगता है। यहाँ एक ही टिकट पर बस और ट्रेन दोनों से सफर किया जा सकता है। वैसे किराया यहाँ काफी महंगा है दो किलोमीटर के सफर के लिए सात आठ फ्रैंक यानी कि करीब पौने तीन सौ रूपए देने पड़ जाते हैं। हम लोग ट्रेन से जुग गए। जिस जगह हम रहते थे वहाँ से जुग मुश्किल से ढाई किलोमीटर रहा होगा लेकिन इतनी ही दूर में ट्रेन के चार पांच स्टापेज थे। यहाँ के स्टेशनों पर किसी भी तरह का कोई रेलवे स्टाफ नहीं रहता। जिस तरह अपने यहाँ स्टेशनों पर वजन लेने की मशीन लगी होती है उसी तरह यहाँ पर मशीनें लगी होती है। उसमें सिक्का या नोट डालकर लोग टिकट निकाल लेते है। बिना टिकट के लोग ट्रेनों में चढ़ते ही नहीं। यदि कोई बिना टिकट के ट्रेन में चढ़ गया तो टिकट चेकर उसे टिकट काटकर दे देता है। ट्रेन में सिर्फ दो ही स्टाफ होते है एक टिकट चेकर दूसरा ड्राइवर। इसके अलावा न तो रेलवे स्टेशन पर और न ही ट्रेन में कोई स्टाफ होता है। चार पांच डिब्बे की ट्रेन में दोनों तरफ इंजन लगे होते है। ड्राइवर आखिरी स्टेशन पर पहुँचता है तो आगे के इंजन से उतरकर पीछे के इंजन में चला जाता है और समय होने पर अपनी ट्रेन लेकर चल पड़ता है, एक ही ड्राइवर अपनी ड्युटी के दौरान ट्रेन एक सिरे से दूसरे सिरे तक लाता ले जाता रहता है। यहाँ के लोग सिगरेट बहुत पीते हैं इसलिए सिगरेट पीने वालों के लिए ट्रेन में एक अलग डिब्बा ही होता है। कुछ ट्रेनें ऐसी होती हैं जिसमें बिना टिकट के चढ़ने की इजाजत नहीं होती। ऐसी ट्रेनों में कोई चढ़ गया तो उसे भाड़े के साथ अस्सी फ्रैंक का फाइन भरना पड़ जाता है। अपने यहाँ की मेट्रो ट्रेनों की तरह ही, यहाँ की ट्रेनों के डिब्बे पूरी तरह बंद होते हैं और स्टेशन पहुंचने के पहले उसी तरह पहले ही सूचना दे दी जाती है। ट्रेनें यहाँ दो तल्ले की होती है। ट्रेन के रास्ते में कहीं कोई सिगनल भी नहीं होता। ऐसा यहाँ इसलिए संभव है कि यहाँ की लाइनों पर माल गाड़ियाँ नहीं दिखाई पड़ती, और न ही रेल लाइनों का ऐसा जाल है जैसा भारत में है। इसलिए यहाँ ट्रेनों का रास्ता एकदम निर्विघ्न होता है और ट्रेनें निर्बाध दौड़ती रहती हैं।
यहाँ की ट्रेनें बाहर और भीतर दोनों से काफी साफ सुथरी होती है। डिब्बों के भीतर फर्श पर कालीन की तरह का कोई कपड़ा लगा होता है। सीटें गद्देदार और उन पर छींट के आकर्षक कवर लगे होते है। ट्रेनें और बसें दोनों यहाँ इतनी समय की पाबंद है कि वे सेकंड की सुई के हिसाब से चलती है। यानी कि ट्रेन या बस जब स्टेशन पर रूकती है तो सेंकड की सुई साठ पर होती है। ट्रेनों और बसों की समय की यह पाबंदी देख मैं चकित था। वे भला सेकंड भर के लिए आगे पीछे क्यों नहीं होती? आदमी जिस काम को कर रहा होता है उसमें दस पांच सेकंड आगे पीछे हो जाना बड़ी मामूली बात होती है लेकिन यहाँ ऐसा नहीं होता क्यों? अपने इस प्रश्न का जवाब आखिर मैंने एक दिन ढूँढ ही लिया था। दरअसल उस दिन, मैं जुग से वापस अपने घर लौट रहा था। बस में भीड़ थी और काफी लोग खड़े थे। मैं भी बस में घुस कर ड्राइवर की सीट के ठीक पीछे खड़ा हो गया था। मैंने देखा कि ड्राइवर यहाँ सिर्फ बसें चलाते हैं और उसका नियंत्रण उनके हाथ में होता है बाकी का सारा काम कम्प्यूटर से नियंत्रित होता है। स्टापेज आने के पहले बस के भीतर लगे सिस्टम से अपने आप लोगों को इसकी सूचना प्रसारित हो जाती है। इसके अलावे भी, बस में एक जगह बीच में, इलेक्ट्रानिक बोर्ड लगा होता है जिसमें समय के साथ-साथ अगले स्टापेज की सूचना चमक रही होती है। बस अपने स्टापेज पर खड़ी होती है और जैसे उसके खुलने का समय हुआ, उसका गेट अपने आप बंद हो जाता है। ड्राइवर के सामने कम्प्यूटरनुमा लगे बोर्ड की घंटी बजती है और बस आगे बढ़ जाती है। बस के स्टियरिंग में किसी तरह के गियर बदलने का प्रावधान नहीं देखा। मुझे लगता है बस की स्पीड आदि का सारा नियंत्रण उसी कम्प्यूटरनुमा बक्से से होता है। ड्राइवर सिर्फ स्टियरिंग थामे चलता है। ड्राइवर के ठीक पीछे खड़ा होकर मैं जो समझ पाया था, वह यह था, कि स्विटजरलैंड की सारी बसों और ट्रेनों का संचालन किसी कम्प्यूटर के सर्वर से होता है जहाँ से सारी बसें और ट्रेनें संचालित और नियंत्रित होती है। अगर ऐसा नहीं होता तो बसों और ट्रेनों का इतना अच्छा संचालन आदमी के बस का तो नहीं है।
ट्रेनों की तरह बसें भी यहाँ की काफी संभ्रात होती है। इसमें चारों तरफ शीशे लगे होते हैं जिसके भीतर से अगल बगल दूर तक सब कुछ दिखाई पड़ता है। बाहर से देखने से बस के भीतर बैठे लोग काफी संभ्रात दिखते है। ड्राइवर पूरे सूटेड बूटेड और टाई पहने होते है। उन्हें देखकर लगता है वे बस के ड्राइवर नहीं बल्कि किसी कंपनी के डाइरेक्टर हो। यहाँ की सड़कों पर बस का एकदम अलग लेन ही होता है। इसी लेन से सटा, कारों के आने जाने का लेन होता है और सबसे किनारे साइकिल सवारों और पैदलियों के लिए, दोनों पटरियों पर एक एक लेन अलग से होता है। किसी भी लेन का ट्रैफिक दूसरे लेन का अतिक्रमण नहीं करता इसलिए सारा ट्रैफिक निर्बाध चलता रहता है।
ट्रेन से हम लोग जुग पहुँचे। ट्रेन से उतरकर पैदल चलते यहाँ की सड़कों, इमारतों, दुकानों को देखते झील पर गए। यहाँ गगनचुंबी इमारतें नहीं थी। स्विटजरलैंड में कहीं भी गगनचुंबी इमारतें नहीं दिखाई देती। इमारतों की ऊँचाई चार-पांच तल्लों से ज्यादा नहीं होती। भीतर सजी दुकानें काफी आकर्षक दिखती थी। सभी दुकानों में, बिकने वाले सामान रैंकों और स्टैडों में सजे होते हैं साथ में हर सामान के दाम उसके साथ या खांचों में लिखा होता है। ग्राहक अपनी पसंद के सामान उठाते हैं, सब्जी भाजी जैसे तौल के सामान के लिए, तौल मशीन लगी होती है, पालिथीन में सामान डालकर लोग तौल मशीन पर रखते हैं, उस सामान का कोड नंबर दबाते है सामान के वजन और उसके दाम के साथ एक स्लिप बाहर निकलती है जिसकी पीठ पर गोंद लगी होती है। लोग पैकेट पर उसे चिपकाकर काउंटर पर आते हैं वहाँ एक स्टाफ बैठा होता है और उसकी बगल में एक रोल करता प्लेटफार्म लगा होता है। लोग लाइन में लगकर अपने नंबर आने पर अपने सामान प्लेटफार्म पर रखते हैं वहाँ बैठा स्टाफ चिप्पक को एक टार्चनुमा कम्प्यूटर टार्च के सामने रखता है ट्रिंग की आवाज के साथ, सामान का दाम कम्प्यूटर में पंच हो जाता है। इस तरह से काउंटर पर बैठा स्टाफ कितना भी सामान हो, एक मिनट के भीतर निपटा देता है। नगद पैसा देना होता है तो लोग नकद पैसा देकर, नहीं तो क्रेडिट कार्ड से सामान का भुगतान करते हैं और सामान लेकर चले जाते हैं। यहाँ दुकानों में काउंटर पर बैठे स्टाफ के सिवा और कोई स्टाफ नहीं देखा। यहाँ न तो कोई दिखाने वाला होता है और न ही बताने वाला ही होता है। भारत में इस तरह की दुकानों में लोग गेट पर ही थैले और बैग धरवा लेते है लेकिन यहाँ पर लोग अपने सारे बैग, पर्स, झोले लेकर दुकानों में आते जाते रहते हैं कोई उनके बैगों के बारे में न तो कुछ पूछता है और न ही शक करता है।
झील के किनारे पहुँचा तो वहाँ का मनोहारी दृश्य देखकर मन मुग्ध हो गया था। हम लोग झील के किनारे किनारे एक दफा चक्कर लगा आए थे। वहाँ पर एक जगह गोलंबरनुमा जगह में एक छोटा सा झाड़ियों से आच्छादित चिड़िया घर बना था। जिसमें तरह-तरह के खूबसूरत पक्षी रखे हुए थे। ब्राजील के रंग बिरंगे तोते बतखे और दूसरे तमाम तरह के छोटे बड़े पंरिदों को कुलेल करते और तरह-तरह की आवाजें निकालते देख, मन खुश हो गया था। झील के किनारे किनारे चार फुट चौड़ी सीमेंटेड पगडंड़ी थी और उसके किनारे किनारे फूल के दरख्त लगे हुए थे। दरख्तों की टहनियाँ काटकर उसे छतरीनुमा आकार दे दिया गया था। इन दरख्तों में लाल, पीले, बैगनी रंग के फूल खिले हुए थे। हरी पत्तियों के बीच चटक रंग के फूलों से लदे वृक्षों की कतार रास्ते के दोनों तरफ थी। इन कतारों के बीच चलते हुए बड़ी अजीब तरह की अनुभूति हो रही थी। सड़क के किनारे के वृक्षों के बाद लान था जिसमें हरी मखमली दूब कालीन की तरह बिछी थी। लान में जगह-जगह बैठने के लिए बेंचें लगी थी। कुछ लोग अपने परिवार के साथ लान में और बेंचों पर बैठे हुए थे और बच्चे धमा चौकड़ी कर रहे थे। झील के किनारे, लम्बी गर्दन वाली बड़ी बतखों के दो तीन जोड़े अपनी एक टांग पर खड़ी थी। इन बतखों का पंख बैगनी रंग का था और उनकी आँखों के पास नीले और लाल रंग का धारियाँ थी। उनकी पूरी शरीर पर और खासकर चोंच और आँखों के पास रंगों का संयोजन ऐसा था कि वे देखने में बड़ी ही खूबसूरत दिखती थी। पानी में भी ऐसी ही खूबसूरत बतख़ें, जो आकार में अपने यहाँ की छोटी बतखों की तरह थी तैर रही थी, झील के किनारे इंजन से चलने वाली दो बड़ी नावें थी। जिसमें लोग बैठकर दूर तक फैली झील और इसके किनारों पर पसरे सौन्दर्य का आनन्द ले सकते थे। एक आदमी के बैठने वाली इंजन वाली बोटें थी, जिसमें बैठकर लोग बड़ी स्पीड में, उसे झील में दौड़ा रहे थे। चार-पांच लोगों के एक साथ बैठकर चप्पू और पांव के पैडल से चलने वाली नावें भी थी। हम लोग पैडिल से चलने वाली एक वोट किराए पर लेकर झील के किनारे-किनारे बड़ी दूर तक घूम आये थे। झील के किनारे ही यहाँ का संसद भवन था। यह भवन पत्थरों का बना था और वह गेरूआं रंग का था। देखने में वह भवन बड़ा भव्य लगता था। वैसे यहाँ की सारी इमारतें काफी खूबसूरत और भव्य दिखती हैं लेकिन संसद भवन की खूबसूरती देखते ही बनती थी। झील के किनारे के लान में कईयों पुरूष और औरतें एकदम कम कपड़ों में खुली बदन बैठे सूरज की किरणों से अपनी देह सेक रहे थे। दरअसल यहाँ पर साल के छ: महीने बर्फ पड़ती है और धरती बर्फ से ढंकी रहती है गर्मी के मौसम में भी प्राय: बरसात ही होती रहती है। इसलिए खुला मौसम यहाँ बहुत कम मिलता है। मौसम साफ होते ही लोग धूप सेकने के लिए और सैर सपाटे के लिए अपने परिवार के साथ, झील की तरफ दौड़ पड़ते हैं। सूर्य की धूप न मिलने के चलते, यहाँ के लोगों को बिटामिन ड़ी की कमी होती है। इसकी भरपाई के लिए यहाँ, जगह-जगह सोलरियम होता है लेकिन जब सूर्य की धूप सीधा मिल रही हो तो लोग उसका फायदा लेने से क्यों चूकेगें? वैसे यहाँ पर भीड़-भाड़ और आम जगहों में आलिंगन या चुम्बन करते जोड़े नहीं दिखते लेकिन झीलों के किनारे ऐसा करते कईयों लड़के लड़कियों को देखा। वे लोग यहीं के होते हैं या हनीमून पर आये जोड़े होते है कह सकना मुश्किल होता है।
हम लोग काफी देर वहाँ बिताने के बाद वापस लौट रहे थे तो देखा मैक्सिको से आए, आदिवासियों का एक ट्रूप वहाँ की स्थानीय वेश-भूषा में सजे संवरे अपने नृत्य प्रस्तुत कर रहे थे। वे अपने यहाँ के नागालैण्ड के लोगों की तरह पशुओं की खाल कमर में लपेट रखे थे। पांव में कनेर की कौडिल्लों की तरह का, वहाँ के किसी फल का, घुटनों से पांव तक घुंघरू बांधे हुए थे। सिर पर चिड़ियों के पंखों का कलगीदार टोप पहन रखे थे। वाद्य उनका नागालैण्ड के वाद्यों की तरह था। इन वाद्यों की धुन पर लोगों ने बड़ा मोहक नृत्य प्रस्तुत किया था। अपने यहां की लिटरेचर की किताबें और वहाँ की आदिवासी औरतें और पुरुष अपने गले, हाथ, पांव में छोटे-छोटे पत्थरों के, रंगीन मनकों जड़े जेवर पहनते हैं, वह सब बेच रहे थे। इच्छा हुई कि वहाँ से एक किताब खरीद लूं लेकिन वह सब जर्मन भाषा में थी इसलिए मन मसोस कर रह गया।
शनिवार और रविवार को दिन, यदि साफ रहा, तो यहाँ के लोग अपने बाल-बच्चों के साथ झीलों और पहाड़ों की तरफ उमड़ पड़ते हैं। यहाँ का मौसम विभाग, अगले हफ्ते भर की बड़ी सटीक भविष्यवाणी कर देता है। लोग अपने कम्प्यूटर पर या टी०वी० पर, इसकी जानकारी पहले ही लेकर, सप्ताहांत की योजना बना रखते हैं। झीलों पर पिकनिक से लेकर नौका बिहार, पैराशूट से ऊँचाई से उड़ना, बड़े गैस गुब्बारों में बैठकर ऊपर से यहाँ का सौन्दर्य निहारना, छोटी जहाजनुमा क्रूजर, जो काफी नीचे उड़ता है उसमें परिवार सहित उड़कर स्विटजरलैंड के दूरस्थ, खूबसूरत पहाड़ों, बर्फ से ढंकी चोटियों और इसके झीलों और शहरों का नजारा ऊपर से देखकर आनन्द लेते हैं। यह सारी सुविधायें पर्यटकों के लिए भी सहज उपलब्ध होती है। इसके लिए इन्हें अच्छा पैसा खर्चने की जरूरत होती है।
स्विटजरलैंड, पृथ्वी की वैसे ही, बड़ी खूबसूरत जगह है लेकिन इसकी खूबसूरती में जो चार चांद लगा देती है, वह है यहाँ के लोगों का अपना पर्यावरण और सारा माहौल खूबसूरत बनाने की सनक। यहाँ के लोग अपने घरों के सामने और पीछे की खाली जगहें, तरह-तरह के नायाब और खूबसूरत फूल के पौधों से भर देते हैं। यहाँ तक कि अपने घरों की दीवारों पर लतरदार फूलों के पौधे चढ़ा देते हैं। गर्मी के मौसम में, जो यहाँ का बसन्त ऋतु होता है, चारों तरफ फूलों की प्रदर्शनी सी लगी दिखाई पड़ती है। मकान यहाँ के वैसे ही खूबसूरत दिखते हैं ऊपर से जब उनके चारों तरफ, तरह-तरह के रंग-बिरंगे, चटक और सोख रंग के फूल गहगहा, जाते हैं तो घरों की खूबसूरती देखते ही बनती है। उन्हें देख लगता है, लोगों में अपना घर सबसे ज्यादा खूबसूरत दिखाने की होड़ लगी हुई है। रेल के किनारे की खाली जगहों, झील के किनारे, शॉपिंग सेन्टरों और काम्पलेक्सों के ईद-गिर्द, फूल ही फूल दिखाई पड़ते हैं। यहाँ तक कि, जहाँ दो सड़कें आकर मिलती हैं उसके मिलान की जगह पर यदि, थोड़ी सी भी खाली जमीन पड़ी होती है, तो उस पर भी, यहाँ का सरकारी प्रबंध, फूल के पौधे लगा देता है।
हमारे घर से थोड़ी दूर पर, फूलों की एक नर्सरी थी। हम लोग एक दिन नर्सरी देखने पहुंच गये। करीब एकड़ भर में फैली इस नर्सरी में, अलग-अलग तरह के आकार और बनावट के फूल देख मैं दंग रह गया था कोई फूल, कलमदान की तरह पतला और ऊपर जाकर उसी तरह नुकीला था तो कोई गुल्लक की तरह का था। किसी किसी फूल में, तो एक ही फूल में से दूसरा फूल और दूसरे फूल में से तीसरा फूल झुमके की तरह निकला झूल रहा था और हर फूल एक दूसरे से एकदम अलग तरह के रंग का था। एक फूल में तो स्पष्ट शिवलिंग सा बना हुआ था और उसी में से एक लम्बी पखुड़ी निकलकर शिवलिंग के ऊपर नागराज की तरह अपना फन पसारे खड़ा था। गुलाब, गेंदा जैसे आम फूलों की दसहों किस्में और सभी किस्में, एक दूसरे से एकदम अलग थी। अपने यहाँ तालाबों में जलकुम्भी जैसे वाहियात से फूल की, वहाँ कई किस्में देखा, जिसमें लाल, गुलाबी, बैगनी, पीले फूल खिले थे। नर्सरी में इतने तरह के फूल देखकर, इस बात का सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है कि यहाँ के लोगों को, सिर्फ फूलों का शौक ही नहीं है, बल्कि, उनका फूल विज्ञान इतना विकसित है कि वे बड़े साधारण से फूल का, विज्ञान के जरिए, उसके रंग और आकार बदलने में समर्थ है। उन्हें देखने से यह भी लगता है कि, फूलों की नई, खूबसूरत और नायाब प्रजातियां, यहाँ के लोग प्रयोगशालाओं में विकसित करने में जुटे रहते हैं।
यहाँ की दुकानों में भी फूल के गुलदस्ते, बुके और गमलों में खिले तरह-तरह के नायाब और चटक रंग के फूल, बिकने के लिए सजे रहते हैं। खिले फूलों के ऊपर वैसी ही खूबसूरत तितलियाँ, पंख पसारे उड़ती दिखती है। हालांकि तितलियाँ बनावटी होती है और वे, उन्हें पतले तार में बांधकर फूलों के ऊपर इस तरह सजा देते हैं लगता है वे सचमुच की फूलों पर बैठने को आतुर है। जिस कलात्मक ढंग से यहाँ के लोग फूलों को सजाये रखते हैं, उसे देखकर, मन कहता है कि सबके सब खरीदकर घर ले चलूँ। इन लोगों को हर चीज की कितनी गहरी समझ है और लोगों को कायल कैसे कर दिया जाय कि वे उसे बिना खरीदे वहाँ से न हटे, उनका प्रबंधन और लोगों के रूचि की पकड़ देख, चकित रह जाना पड़ता है। यहाँ के बच्चे और बच्चियों, को घर से लेकर बाहर तक और स्कूलों में शुरू से ही ऐसी शिक्षा और संस्कार दिये जाते हैं कि बड़ा होकर वे स्वावलम्बी हो सके। माता-पिता, बच्चों के साथ उनकी शादी तक ही साथ रहते हैं। शादी हो जाने के बाद बच्चे खुद ही माँ-बाप से अलग हो जाते है। यहाँ की मांओं की मान्यता है कि किचन में एक साथ, दो औरतें नहीं निभ सकती हैं। इनके पारिवारिक संसार का सारा तानाबाना इसी मान्यता पर बुना हुआ होता है। इसीलिए यहाँ के बच्चों पर, माँ-बाप या समाज का कोई दबाव नहीं होता। बच्चे अपनी जिन्दगी अपने तरीके से जीने के लिए स्वतंत्र है। यही कारण है कि यहाँ के लड़के लड़कियों को शुरू से ही, आपस में मिलने-जुलने, घूमने फिरने की पूरी आजादी होती है। आजादी का मतलब हम भारतीय जिस एक चीज से लगाते है वह है सेक्स की आजादी और इस सेक्स की आजादी में भी, हमारे दिमाग में एक बात खास होती है कि, यहाँ के किशोर किशोरियां सेक्स के मामले में इतने उच्छश्रृंखल और उन्मुक्त होते है कि वे शादी के पहले, कईयों लड़के लड़कियों के साथ, हम बिस्तर हो चुके होते हैं। यह धारणा हममें इसलिए है कि, हम पश्चिमी फिल्मों में वैसा ही देखते हैं और लोग भी जब पश्चिमी सभ्यता की बात करते हैं तो वे हमें यही सुनाकर भारतीय सभ्यता को अच्छा और पश्चिमी सभ्यता को निहायत अधम और भ्रष्ट बताते हैं। स्विटजरलैंड आने के पहले, मेरा भी ख्याल पश्चिम वालों के बारे में कुछ इसी तरह का था। लेकिन यहाँ के पारिवारिक और सामाजिक मानदंडों को समझने के बाद और जो कुछ जैसा मैं यहाँ देखा हूँ, उसे देखकर मेरी पूर्व की सारी धारणा ही बदल गई है। यहाँ किशोर किशोरियां इतने मर्यादित, सुसभ्य और सुसंस्कृत है और वे इतने बोल्ड हैं कि, कोई लड़का किसी लड़की के साथ या लड़की किसी लड़के के साथ, उसकी मर्जी के बगैर, कोई धृष्ट हरकत करने की सोच भी ले, यह सम्भव नहीं है। दरअसल हम पश्चिम को अपने मानदंडो और मानसिकता की तराजू पर तौलते है और उसका विश्लेषण करके उस पर अपनी राय बनाते हैं और हमारी मानसिकता यह है कि लड़की निहायत कमजोर जीव होती है इसलिए उसे सुरक्षित रखने के लिए, उसपर तमाम तरह की पाबंदियाँ लगाकर रखना जरूरी है। यहाँ की मानसिकता जैसी है, ऐसा करने और सोचने के लिए हम मजबूर भी है। लड़कियाँ जिस तरह से, घर से बाहर असुरक्षित होती है और उनके ऊपर फिकरें कसे जाते हैं, अभद्रता की जाती है यहाँ तक कि उनके साथ बलात्कार तक कर दिया जाता है ऐसे में उन्हें सुरक्षित रखने के लिए, उनके चारों तरफ सुरक्षा का घेरा रखना और उन्हें बंधेज में रखना हमारी मजबूरी है। लेकिन स्विटजरलैंड में मैं, न तो विवाहित औरत मर्दों को उन्मुक्त और मनमौजी हरकतों में लिप्त देखा और न ही किशोर किशोरियों को ही। यहाँ पर पति-पत्नी के सम्बन्धों में उसी तरह का रस, मिठास, उष्मा, एक दूसरे के प्रति निष्ठा और वफादारी देखा जैसे भारत में पति-पत्नी के बीच होता है। किशोर किशोरियां आपस मिलते जुलते हैं खेलते कूदते हैं हँसी ठिठोली करते हैं लेकिन उन्हें कोई उन्मुक्त और बेलगाम हरकत करते नहीं देखा। अपने यहाँ लड़कियाँ सिकुड़ी मुकड़ी चलती हैं लेकिन यहाँ मैंने लड़कियों को ठीक उसके उलट देखा। यहाँ की लड़कियाँ बोल्ड, स्मार्ट और आक्रामक होती हैं। उनकी तुलना में लड़के ही शांत और ठण्डे होते हैं। यहाँ के लड़के लड़कियाँ आपस में कितना खुले और बेहिचक होते हैं इसे मैं जब एक दिन बस में सफर कर रहा था तब देखा। उस समय दिन के तीन बज रहे थे। मैं घर से जुग जा रहा था उसी समय स्कूलों की छुट्टी हुई थी। बस एक स्टाप पर खड़ी हुई तो बारह से पन्द्रह वर्ष के स्कूली लड़के लड़कियों का एक झुण्ड बस में चढ़ गया। झुण्ड में एक लड़का ठोंगे में चिप्स जैसी कोई चीज लिये था और वह उसे खा रहा था। लड़कियों के हाथ में आइसक्रीम की कैण्डियाँ थी और वे उसे खा रही थी। दो तीन लड़कियाँ लड़के के ठोंगे से चिप्स हथिया लेने की फिराक में थी और लड़का उनसे अपनी चिप्स छीनने से बचाने का पूरा प्रयास कर रहा था। यह खेल उन लोगों के बीच थोड़ी देर तक चला। इसके बाद लड़का ठोंगे से, थोड़ी चिप्स निकालकर, एक लड़की के मुँह में डालने के लिए हाथ बढ़ाया लड़की उसे खाने के लिए अपना मुँह खोली, तो लड़का चिप्स उसके मुँह में डालने की बजाय अपने मुँह में डाल लिया लेकिन लड़की ने इस बीच नीचे से ठोंगे में अपना हाथ डाल ढेर सारी चिप्स निकालकर लड़के को छका दिया था।
यहाँ के औरत और मर्द काफी खूबसूरत होते हैं। पुरुषों की औसत लम्बाई छ: फुट और औरतों की पौने छ: फुट होती होगी यहाँ के किशोर किशोरियों की खूबसूरती देखते ही बनती है। चेहरा ललछौंटा और गोर भभूका होता है। आँखे नीली, बाल काले नहीं भूरे होते हैं। किसी किसी के गाल तो सेब की तरह उभरे और लाल होते हैं और वे देखने में इतना खूबसूरत लगते हैं लगता है जैसे बनाने वाला बड़ी फुरसत में बैठकर उसे बड़े इत्मीनान से बनाया है। छोटे बच्चों की खूबसूरती और भी अलौकिक होती है। वैसे बच्चे पृथ्वी के चाहे जिस भाग के हों उन्हें देखकर मन गदगद हो उठता है। लेकिन यहाँ के बच्चों की खूबसूरती बड़ी निराली होती है। नीली और भूरी आँखें गुलाब की तरह लाल और कोमल चेहरा लाल-लाल गल गुथों को देखकर मन कहता है उन्हें उठाकर गोदी में बैठा लें। अपने यहाँ की तरह यहाँ के माँ-बाप अपने बच्चों को मारने-पीटने जैसा शारीरिक दंड नहीं दे सकते और न ही बच्चों को किसी भी तरह प्रताड़ित ही कर सकते हैं यहाँ कानून उन्हें इसकी इजाजत ही नहीं देता है। अगर कोई माँ-बाप, अपने बच्चों के साथ किसी भी तरह की ज्यादती करता है तो उसे जेल भेज दिया जाता है।
भारत की तरह यहाँ की औरतें और मर्द भी काफी बातूनी होते हैं। साथ चलते अपने लोगों के साथ वे खुलकर बतियाने के साथ खूब हँसी ठिठोली करते चलते हैं और खुलकर हँसते हैं। एक दिन ट्रेन में जा रहा था तो हमारी सीट के सामने दो औरतें बैठी हुई थी और तीसरी खड़ी थी और वे तीनों आपस में जोर-जोर से बतिया रही थी। उन्हें इस तरह बतियाते देख पहले तो मैं समझा, वे तीनों सहेलियाँ या पड़ोसिनें होगी लेकिन एक स्टेशन आया तो सीट पर बैठी दो औरतें उतर गई थीं और तीसरी वहाँ, उसी तरह खड़ी रही थी। उसी स्टेशन पर एक दूसरी औरत चढ़ी और वह खड़ी औरत के पास खाली सीट पर बैठ गई थी गाड़ी छूटते ही दोनों औरतों में थोड़ा संवाद हुआ और वे दोनों आपस में इस तरह बतियाने लगी जैसे आपस में सहेली हों।
शाम को खाना-पीना करने के बाद रात होने में काफी देर रहती थी। इसलिए हमलोग अक्सर घूमने निकल जाया करते थे। एक दिन हम लोग, कालोनियों की तरफ न जाकर पहाड़ी की तरफ निकल गये, जिस तरफ किसानों के घर और खेत थे। यहाँ के किसान गाय, भेड़े और घोड़े पालते हैं। किसानों के घर भी, यहाँ के दूसरे सभी घरों की तरह, लकड़ी के बने होते हैं और वे उसी तरह सम्भ्रान्त दिखते हैं जैसे आम घर दिखते हैं। अपने खेतों को वे तार की बाड़ से घेर देते हैं और उसी में अपने जानवर चरने के लिए छोड़ देते है। यहाँ पर मैंने कही भी कुत्ता, बिल्ली, भेड़ या गाय अपने यहाँ की तरह छुट्टा सड़कों पर, बाजारों में घूमते नहीं देखा। एक खेत में किसी किसान की गायें और भेड़े चर रही थी। यहाँ की गायें और भेड़े बहुत ऊँची नहीं होती। मुझे यह देखकर ताज्जुब हुआ था कि खेत में जितनी भी गायें, भेड़े और उनके बच्चे चर रहे थे उनमें बड़ों के रंग कद-काठी और शारीरिक बनावट एक ही तरह की थी जैसे उन सबको एक ही साँचे में ढालकर निकाला गया हो। गायों की ऊँचाई मुश्किल से चार फिट की रही होगी लेकिन वे अपने लम्बाई और चौड़ाई दोनों में बराबर थी, काफी मोटी और ठॅसी हुई देह वाली वे गाएँ देखने में बड़ी खूबसूरत दिखती थी। जिन गायों के बच्चे थे उनके थन जमीन छू रहे थे और काफी बड़े आकार के थे। भेड़ें भी उसी तरह ठिगने कद की थी लेकिन वे काफी मोटी और ऊन से लदी हुई थीं।
यहाँ पर किसान अपने खेतों में गेहूँ, चावल जैसी खाने की चीजें नहीं उगाते। ज्यादातर किसान अपने खेतों में घास उगाते हैं या फलों और सब्जियों की खेती करते है। कारण इसका है कि यहाँ पर साल के छ: महीने बर्फ पड़ती है इसलिए ठंड़ी के समय जब धरती बर्फ से ढंप जाती है, तो उस समय, पशुओं के लिए चारा मिलना मुश्किल हो जाता है। स्विटजरलैंड में फलों में सेब, चेरी, स्ट्राबेरी का प्रचुर उत्पादन होता है साथ ही यहाँ पर दूध भी प्रचुर होता है। इतनी प्रचुरता के बावजूद दूध और फल तथा उनसे बनी चीजें और फलों के रस सस्ते नहीं होते। यहाँ के किसान अपने खेतों में पैदा फल, सब्जी तथा गाय के दूध या तो बाजार को सप्लाई कर देते हैं या उन्हें अपने दरवाजे पर रखकर बेचते हैं। किसान या उनके परिवार का कोई आदमी दूध फल और सब्जियाँ बैठकर नहीं बेचता। वे उसे अपने दरवाजे पर लगाकर रख देते हैं उसके वजन के हिसाब से उसके दाम लिख देते हैं। तौल मशीन भी वहीं रख देते हैं खरीदने वाला जाता है अपनी जरूरत की चीज तौल कर लेता है और उसकी कीमत वहीं लगे बक्से नुमा गल्ले में डालकर चला आता है। यहाँ के लोग कितने ईमानदार होते हैं इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है। अपनी आँखों से देखने के लिए मैं एक दिन इसी तरह के एक किसान के घर पहुँचा वहाँ सेब और स्ट्राबेरी, दो टोकरियों में रखे हुए थे। बाजार के भाव से उनका दाम काफी कम था। हम एक पैकेट चेरी और एक पैकेट सेब लेकर घर आ गये। इसी तरह एक दिन हम एक किसान के यहाँ दूध खरीदने गये। किसान का घर, हमारे घर से दो स्टेशन दूर था। किसान अपने दरवाजे के सामने गाय की एक बड़ी मूर्ति लगा रखा था। गाय की मूर्ति इतनी बड़ी थी कि वह दूर से दिखाई पड़ती थी। दूध उसने फ्रिज में रख रखा था दो फ्रैंक में एक लीटर दूध जितने लीटर की जिसे जरूरत हो उतने फ्रैंक उस फ्रिज में लगे छेद में डालकर उसी में लगी एक बटन दबाने से निर्धारित मात्रा में दूध फ्रिज की टोंटी से बाहर निकल जाता था। ग्राहकों की सहूलियत के लिए वहीं पर उसने एक-एक लीटर की कईयों प्लास्टिक की बोतलें रख दिया था। किसान अपने घर के ऊपरी भाग में रहता था नीचे वह अपने जानवर रखता था। किसान या उसके परिवार का कोई भी सदस्य उस समय वहाँ मुझे नहीं दिखा। न ही वहाँ उसके जानवर ही थे। उसके घर के नीचे के हिस्से में थोड़ा हुलककर देखा तो भीतर अपने यहाँ के गोहालों की तरह उसके भी गोहाल थे। एक तरफ उसके खेती के औजार रखे हुए थे और पीछे के खुले बरामदे में कटी घास के गठ्ठर रखे हुए थे।
हमारे घर के ठीक सामने ही किसी किसान का लम्बा चौड़ा खेत था। जिस दिन हम वहाँ पहुँचे थे पूरा खेत जई की तरह करीब दो फुट ऊंची घास से भरा था। एक दिन देखा किसान वह घास ट्रैक्टर के पीछे बंधी मशीन से काट रहा है समूचे खेत की घास उसने पहले मशीन से काटकर खेत में कतार से छोड़ दिया था, फिर एक एक कतार की घास मशीन में लगे किसी यंत्र से उठाकर उसी मशीन में ही लगे किसी दूसरे यंत्र से गठ्ठर बनाकर छोड़ दिया था। जब खेत की सारी घास उसने बड़े गठ्ठरों में बांध लिया था तो वह उन्हें मशीन, से ही उठाकर अपनी ट्रैक्टर ट्राली में लादकर घर ले गया था। दूसरे दिन उसने अपने ट्रैक्टर के पीछे एक टैंकर बांधकर लाया था। टैंकर में कम्पोस्ट खाद थी और वह काफी गीली थी। टैंकर के पीछे लगी एक मोटी पाइप से टैंकर की खाद निकलती थी और उसी पाइप से एक और लंबी पाइप जुड़ी हुई थी जिसमें मोटे छेद थे और उसमें से गीली खाद निकलकर खेत में गिर जाती थी। इसी विधि से किसान अपने समूचे खेत में करीब घंटे भर में खाद बिखेर कर चला गया था। यहाँ कृषि का सारा काम मशीनों से होता है।
हमारा डेरा अपार्टमेंट के चौथे तल्ले पर था उसमें एक छोटी बालकनी थी। सुबह मैं अपने नित्यकर्म से निवृत होकर अपनी बालकनी में बैठ जाता था। वहाँ से दूर तक फैली बर्फ से ढंकी पहाड़ों की चोटियाँ दिखाई पड़ती थी। सुबह, सूर्य कीे किरणें जब पहाड़ की बर्फ से ढंकी चोटियों पर पड़ती थी तो लगता था उन पर चाँदी की पर्त ओढ़ा दी गई है। आकाश छूती नुकीली और दूर तक फैली चाँदी की दहकती चोटियाँ, इतना वैभवशाली और भव्य दिखती थी, कि उनकी छटा देखते ही बनती थी। इसी तरह का दृश्य भारत में दक्षिण दिशा से दिल्ली जाते विमानों से दिखाई पड़ता है। दूर काफी दूर हिमालय की बर्फ से ढंकी चोटियों पर जब सूर्य की किरणें पड़ रही होती हैं तो वहाँ भी ठीक ऐसी ही छटा बिखर रही होती है। मनाली में भी सुबह बर्फ ढंपी चोटियाँ इसी तरह दिखाई पड़ती हैं हमारी बालकनी से काफी दूर, एक ढलवा जमीन का टुकड़ा दिखाई पड़ता था। वह जमीन मुझे काफी आकर्षित करती थी। कारण उसका यह था कि मेरे ननिहाल के गाँव से थोड़ा हटकर, एक छोटी नदी बहती है। नदी के आस-पास काफी दूर की जमीन इसी तरह ढलवा थी और उस पर आम और महुआ के बड़े बड़े छतार कईयों पेड़ थे।
यहाँ की जमीन पर भी इसी तरह के काफी ऊँचे घने कईयों पेड़ थे। उन्हें देख, मन करता था कि वहाँ पहुँच जाऊँ। एक दिन आखिर मैं उस जगह को देखने के उद्देश्य से, अपने घर से, पैदल ही निकल पड़ा था। काफी दूर जाने के बाद जब बस्ती खत्म हुई थी तो, उसके बाद किसानों के खेत और बगीचे शुरू हो गए थे। आगे देखा तो जिस सड़क से मैं जा रहा था उस पर जाने से, मुझे काफी घूम कर जाना होता, इसलिए मैं एक पुल के पास से, वहाँ जल्दी पहुंचने के लिए, एक शार्टकट रास्ता पकड़ लिया था। इस रास्ते की बगल एक बोर्ड पर घोड़े की तस्वीर बनी थी। रास्ते के बाईं तरफ, एक नाला बह रहा था। उस नाले के दोनों तरफ घनी झाड़ियाँ थी। बीच बीच में ऊँचे घने पेड़ भी थे। रास्ते के दाहिनी तरफ किसानों के खेत थे जिसमें घास उगी थी। हरी घास के बीच, छोटे छोटे फूल खिले हुए थे। बगल में ही दूसरा खेत था जिसकी घास काट ली गयी थी और उसकी जड़ों से नए कल्ले निकल रहे थे। फ्रैंकफुर्त से हमारा विमान जब ज्यूरिख हवाई अड्डे पर उतरने को था तो वह काफी नीचे आकर एक घुमाव लिया था। उस समय विमान की खिड़की से नीचे का सब कुछ बड़ा साफ दिखाई पड़ता था। झीलें, वृक्षों से आच्छादित पहाड़ियाँ, किसानों के बगीचे, विमान की खिड़की स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। जहाँ पहाड़, झील और पेड़ों का झुरमुट नहीं था। उस भूभाग पर, ऊपर से देखने से लगता था कि, पीले रंग का काफी लंबा चौड़ा कालीन बिछा हुआ है और पीले कालीनों के बीच, उतने ही लंबे चौड़े आकार के हरे रंग के कालीन बिछे हुए हैं। उस दृश्य को देखने से लगता था कि यहाँ की धरती पर किसी कुशल चितेरे ने अल्पना बनाया हुआ है जिसमें उसने पीले और हरे रंग बड़े ही कलात्मक ढंग से भर रखा है। जब मैं मुख्य सड़क छोड़ कर, दस फुट चौड़े, नाले और खेत के बीच से गुजरते रास्ते पर चलने लगा था तो मुझे ऊपर विमान से दिखते उस खूबसूरत दृश्य का राज समझ में आ गया था। दरअसल ऊपर से दिखते पीले रंग के गलीचे किसान के खेत में उगी घास थी जो छोटे छोटे बटनदार पीले फूलों से भरी थी और हरे रंग के गलीचे उन खेतों की थी जिसकी घास किसान ने काट लिया था।
नाले और खेतों के बीच से चलकर जब मैं आगे बढ़ा था तो आगे जगह काफी सूनसान थी। नाले के बगल के झुरमुटों और झाड़ियों के बीच कुलेल करते और चहकते परिंदों के सिवा वहाँ कोई नहीं था। मुझे डर लगी कि इस सुनसान जगह में अगर कोई चोर उचक्का मुझे घेर ले तो यहाँ मेरे गुहार लगाने पर भी कोई सुनने वाला नहीं है। लेकिन मुझे यह सोचकर ढाढस बंधा कि यह भारत नहीं है, यह स्विटजरलैण्ड है और यहाँ चोर उचक्के डकैत या जरायम पेशा व्यक्ति नहीं होते। थोड़ी दूर और आगे बढ़ा था तो देखा, एक बड़े ऊँचे घोड़े पर बैठा कोई चला आ रहा है। घोड़े पर बैठा आदमी घोड़े को दौड़ा नहीं रहा था बल्कि वह उसे बड़ी मस्त चाल में धीरे-धीरे लिए चला आ रहा था। नजदीक पहुंचने पर मैंने घोड़े पर बैठे आदमी को बड़े ध्यान से देखा था। दरअसल वह पुरूष नहीं बल्कि औरत थी। अपने पाँव में वह गमबूट की तरह जूते, घेरदार पैंट और कालरदार धपधपी सफेद शर्ट पहन रखी थी तथा सिर पर हैटनुमा पतली सफेद रंग की टोपी रखे हुए थी। वह काफी खूबसूरत थी और इस शान से घोड़े पर बैठी थी जैसे कोई महारानी हो। जितनी शानदार वह औरत थी उससे ज्यादा शानदार उसका घोड़ा था। भारत में पुलिस और मिलिट्री वालों के शानदार घोड़े में देख चुका हूँ। लेकिन इतना ऊँचा और मोटा पिलंद घोड़ा मैं भारत में कहीं भी नहीं देखा। औरत जब मेरे ठीक सामने पहुँची थी तो वह मुझे देखकर मुस्कराते हुए मेरा अभिवादन की थी। दरअसल यहाँ का यह रिवाज है कि औरत मर्द आपस में एक दूसरे के सामने पड़ने पर, जर्मन में कुछ बोल कर, अभिवादन या विश करते हैं।
थोड़ी दूर और आगे गया था तो उसी तरह की एक दूसरी औरत उसी शान से अपने घोड़े पर बैठी टप्प टप्प टप्प मेरे बगल से गुजर गई थी। इतनी सुनसान जगह पर जो एक बात देख कर मैं हैरान था वह यह थी कि इस रास्ते से दिन भर में मुश्किल से दस बीस लोग ही गुगरते होंगे। लेकिन सड़क के किनारे, किनारे जगह-जगह साफ सुथरी पालिश की हुई बेचें लगी हुई थी और उनकी बगल में उसी तरह के साफ सुथरे चटख हरे रंग के गोल कूड़ेदान गड़े हुए थे। सुनसान रास्ता पार करके मैं आगे बढ़ा, तो उस रास्ते के ऊपर से हाईवे गुजरता था। जिस जगह मैं पहुँचना चाहता था वहाँ पहुंचने के लिए मुझे हाईवे पकड़कर जाना होता और यहाँ पर किसी को हाईवे पर चलने की न तो इजाजत है और नहीं उसकी बगल चलने का कोई रास्ता ही बना होता है इसलिए मैं वहीं से वापस लौट पड़ा था। हाईवे से थोड़ी दूर खड़ा होकर मैंने देखा कि गाड़ियॉ इस पर सुंई, सुंई करती इतनी स्पीड में भाग रही थी कि उनकी रफ्तार देख सड़क के नजदीक जाने की हिम्मत नहीं होती थी। गजब की सपाट सड़कें है यहाँ की, इतनी सपाट कि कारों में जरा सा कहीं झोल नहीं पड़ता था। वे सड़क पर इस तरह भागती हैं जैसे नीचे जमीन नहीं बल्कि पानी की सतह हो। स्पीड उनकी डेढ़ से दौ सौ किलोमीटर प्रति घंटे से ऊपर ही होती है। वापस लौटते समय रास्ते में स्टेडियम पड़ता था। उस स्टेडियम में उस समय शायद किसी खेल का या फंक्शन का आयोजन था वहाँ पर सैकड़ों कारें खड़ी थी और आने वाले अभी आ ही रहे थे। सोचा चलकर वहाँ क्या हो रहा है देखूँ लेकिन वहाँ पर पहुंचने वाला कोई पैदल या साइकिल से नहीं जा रहा था, इसलिए मेरी, स्टेडियम में पैदल जाने की हिम्मत नहीं हुई थी। स्टेडियम के अंदर शोर हो रहा था इससे लगता था कि वहाँ फुटबाल या कोई इसी तरह का खेल चल रहा था। वहाँ पर ड्रेस के ऊपर पीली सदरी पहने एक आदमी कार से पहुंचने वालों को दिशा निर्देश दे रहा था। उससे मैंने अंग्रेजी में पूछा क्या यह स्टेडियम है? लेकिन वह मेरा प्रश्न नहीं समझा था। यहाँ लोग जर्मन ही बोलते है। यहाँ अंग्रेजी बोलने और समझने वाले मुश्किल से मिलते हैं।
शनिवार के दिन हम लोग लूजर्न जाने का कार्यक्रम पहले से ही बना रखे थे। लूजर्न, जुग प्रांत से सटा दूसरा प्रांत है। स्विटजरलैंड के हर प्रांत में एक झील जरूर है या इसी बात को अगर यूँ कहा जाए तो ज्यादा ठीक होगा कि स्विटजरलैंड झीलों के किनारे बसा है। जुग की तरह लूजर्न में भी एक झील है। यह झील काफी बड़ी है और बगल में ही एक पहाड़ है जिसकी चोटियों पर बर्फ जमा थी। यह पहाड़ दूसरे पहाड़ों से काफी ऊँचा है। पहाड़ की ऊँचाई पर रोप लाईन में लगी डोलियों में बैठकर लोग ऊपर शीटल पहाड़ पर जाते हैं और वहाँ सैर सपाटे करते है। हम लोगों का भी, उस दिन लूजर्न घूमने के साथ-साथ शीटल पहाड़ी पर जाने की योजना थी लेकिन खाना पीना करके जब हम लोग जाने के लिए तैयार हुए तो पानी बरसने लगा था। यहाँ इसी तरह होता है। मौसम कब बिगड़ जाए कोई ठिकाना नहीं रहता। बरसात शुरू होते ही यहाँ ठंड काफी बढ़ जाती है इसलिए यहाँ के लोग, बाहर निकलते है तो अपने साथ छाता और कमर में या गले में स्वेटर बाँध रखते हैं। दो घंटे की बरसात के बाद पानी बरसना बंद हो गया था और धूप निकल आई थी। धूप निकलते ही हम लोग ट्रेन से लूजर्न चले गए थे। लूजर्न रेल का बड़ा जंक्शन है। यहाँ से कईयों दिशाओं को ट्रेनें आती जाती है। लूजर्न पहुँचकर हम लोग झील के किनारे थोड़ी देर घूमे। यहाँ भी झील के किनारे के रास्ते के दोनों तरफ जुग की तरह के ही कोमल पत्तियों वाले छतनार पेड़ थे और उसमें रंग बिरंगे फूल लदे हुए थे। यहाँ पर सैलानियों के ठहरने के लिए, झील के किनारे किनारे कईयों होटल हैं। होटलों की इमारतें काफी आकर्षक और भव्य दिखती हैं। झील में सैर करवाने वाली बड़ी छोटी, इंजन से चलने वाली नावें यहाँ भी थी। सबसे ज्यादा देखने वाली जगह यहाँ पहाड़ी के ऊपर थी। हम लोग झील के किनारे घूम रहे थे तो देखा भारतीयों का एक बड़ा झुंड, जिसमें पचीस तीस की संख्या में औरत और मर्द और बच्चे थे, वे सब बड़ी नाव में बैठकर झील में सैर करने के लिए जा रहे थे। मुझे लगा भारतीयों का यह झुंड कंडक्टेड टूर पर स्विटजरलैंड आया हुआ था। एक सरदार जी पूरे झुंड को हांकते हुए, बड़ी नाव की तरफ लिए जा रहे थे। झुंड के कुछ लोगों ने मुझे देखा, मैंने उन्हें देखा लेकिन वे लोग जिस तरह हांक कर नाव की तरफ खदेड़े जा रहे थे, ऐसे में उन्हें, हम लोगों से बात करने की फुर्सत नहीं थी। थोड़ी देर, झील के किनारे घूमने के बाद हम लोग पहाड़ी के ऊपर जाने के लिए चले ही थे कि मौसम फिर बिगड़ गया था और बारिश होने लग गई थी। छाता अपने पास था और गर्म कपड़े हम पहले से ही पहन रखे थे। बरसात से बचने के लिए हम लोग एक इमारत की छज्जे के नीचे खड़े होकर बरसात थमने का इंतजार करने लग गए थे।
थोड़ी देर में ही बरसात रूक गई थी और सूरज चमकने लग गया था। यहाँ पर पहाड़ से उतरकर एक नदी झील में गिरती है। झील के ऊपर सीमेंट का नया पुल बना है इसी पुल के बगल, लकड़ी का, आठ सौ साल पुराना एक और पुल है। इस पुल को लोगों ने आज भी वैसे ही रखा हुआ है, जैसा वह आठ सौ साल पहले था। पुल का फर्श लकड़ी का बना है। पानी के भीतर थोड़ी थोड़ी दूर पर बने पक्के पिलर पर यह पुल टिका है। पुल के दोनों तरफ लकड़ी के लट्ठे लगे हुए है और इसके ऊपर छत है जो इन्हीं लट्ठों के ऊपर टिका है। छत की छाजन लकड़ी की है और ऊपर मिट्टी के चौकोर टाइलों से छाया हुआ है। पुल के भीतर जगह-जगह चौकोर पतले पत्थर या पकी मिट्टी के पट्टे लगे है जिस पर बड़ी खूबसूरत पेंटिंगें की हुई है। किसी किसी जगह केन्वास पर भी पेंटिंगें की हुई है। पुल के ठीक बगल नदी के बीचों बीच एक छोटी मीनार जो उतनी ही पुरानी है जितना पुराना यह पुल है, बनी हुई है। कहते हैं इस मीनार में कैदी रखे जाते थे। लकड़ी के पुल में थोड़ी दूर चलने पर लगता था हम इस पुल के आठ सौ वर्ष पुराने इतिहास के साथ रूबरू हैं।
आठ सौ बरस पहले, यहाँ लोग बकरियाँ और भेड़ें पालते थे। पुल से सटे रोड के दूसरी तरफ एक जगह पर, अपनी भेड़ें चराते एक आदमी की, कांसे की आदमकद मूर्ति बनी हुई है। इस आदमी के हाथ में एक लाठी है। वह ठीक उसी तरह दिखता था जैसे अपने यहाँ के भेड़ पालक, लाठी कंधे पर लिए, अपनी भेड़ बकरियाँ चराते दिखते हैं। चरवाहे के पास, उसकी तीन भेड़े और भेड़ों के दो बच्चे थे। हम लोग उन भेड़ों की पीठ पर बैठ कर कुछ फोटो लिए। वहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक यहूदियों का बड़ा विशाल और भव्य चर्च था। यह चर्च भी काफी पुराना है। बाहर इसके ऊँचे ऊँचे स्तंभ है। चर्च में प्रवेश के लिए ऊँचा खूबसूरत लकड़ी के दरवाजा है जिस पर चारों तरफ खूबसूरत पेंटिंग की हुई है। भीतर इसके, लंबा चौड़ा हाल है जिसमें दो कतारों में लोगों के प्रार्थना करने के लिए पीठ वाली कत्थई रंग में रंगी बेंचें लगी हुई है। चर्च की दीवारों पर और इसकी छत पर, बड़े खूबसूरत चित्र उकेरे गए हैं। इन चित्रों में नीले और सुनहले रंगों के संयोजन से चित्रकारी की गयी है, जो देखने में काफी खूबसूरत लगती है। दीवारों के किनारे किनारे शीशे की बड़ी बड़ी आलमारीनुमा बक्सों में, संतो की मूर्तियाँ रखी हुई हैं। मूर्तियाँ जिस प्लेटफार्म पर रखी हुई हैं वे लकड़ी के बने हैं और उनके पटरों पर, बड़े कलात्मक बेलबूटे बनाये गये हैं। चर्च के भीतर साठ सत्तर आदमी बैठे हुए थे। बावजूद इसके वहाँ गहन शांति थी। भारत में दिल्ली के लोटस टेंपल के भीतर भी ऐसी ही गहन शांति रहती है लेकिन वहाँ पर बाहर घूमते वालंटियर लोगों को भीतर जाकर एकदम शांत रहने को कहते है। यहाँ उस तरह का कोई वालंटियर नहीं था, न ही चर्च का कोई स्टाफ ही लोगों के नियंत्रण के लिये था फिर भी सब कुछ बेहद नियंत्रित और शांत था। चर्च के भीतर, जिस तरह की शांति थी, उसे देखकर लगता था कि ईश्वर साक्षात वहाँ समाधि लगाकर बैठा हुआ है। यदि वहाँ एक भी शब्द किसी ने बोल दिया तो यह उसके शान में गुस्ताखी होगी। चर्च के आखिरी हिस्से पर, एक बड़ा और ऊँचा चबूतरा था। चबूतरे के एक किनारे तीन आदमी वायलिन लिए कुर्सी पर बैठे हुए थे और एक औरत स्टैण्ड पर कोई किताब खोले खड़ी थी। हमारे चर्च के भीतर पहुंचने के समय, वह एकदम शांत थी और स्टैण्ड पर रखी किताब देख रही थी। हम लोग चर्च की लंबाई तक इसकी भव्य कलाकृतियाँ, मूर्तियां और दीवारों, सीढ़ियों पर उकेरे इसके भव्य चित्रों को देखने के बाद, पीछे की एक बेंच पर बैठ गए थे। थोड़ी ही देर में चबूतरे पर खड़ी औरत बाइबिल की कोई ऋचा बड़े सुरीले स्वर में गाना शुरू की थी। उसकी आवाज और उसकी बगल बैठे वायलिन बजाते तीन लोग, जिस सुरीले धुन में वायलिन बजा रहे थे, उसकी लय और तान की जुगलबंदी से जो संगीत, चर्च के भीतर गूँज रहा था वह दिल को सहला सा रहा था। हम लोग बड़ी देर तक उसके रस में विभोर, उसे सुनते रहे थे। चर्च के भीतर व्याप्त चिर शांति, इसकी दीवारों और छत की कलात्मक चित्रकारी, जितना विस्मयकारी रूप से आकर्षक था वह तो था ही, मुझे जो चीज यहाँ सबसे ज्यादा चकित की वह थी कि हम लोग चर्च की सबसे आखिरी बेंच पर बैठे हुए थे फिर भी प्लेटफार्म पर बजता संगीत और सुरीले स्वर में गाती औरत की आवाज इतनी साफ और स्पष्ट थी जैसे वह ठीक हमारे सामने बैठी हुई है। औरत क्या गा रही थी और संगीत का स्वर हमारी समझ में नहीं आ रहा था लेकिन सबकुछ इतना मोहक था कि हमारा वहाँ से उठकर जाने का मन ही नहीं हो रहा था। हम लोगों का चर्च के भीतर काफी वक्त गुजर गया था। पांच बजे के बाद शीटल नहीं जाया जा सकता था इसलिए हम लोग वहीं से वापस घर लौट आये थे।
चार पांच दिनों के अन्दर मैं वहाँ के सारे सिस्टम समझ गया था। इसलिए दोपहर का खाना पीना खत्म करके थोड़ा आराम करता था और पति पत्नी घूमने निकल जाते। कभी दुकानों में घुसकर वहाँ लगे सामानों को देखते कभी रिहायशी इलाकों में घूम-धूम कर चारों तरफ गहगहाए, तरह-तरह के रंग बिरंगे फूल देखते। यहाँ पर भारतीयों की आबादी बहुत कम है। पूरे स्विटजरलैंड में करीब पांच हजार भारतीय रहते हैं। यहाँ श्रीलंका वासी करीब-करीब हर जगह दिखाई दे जाते है। इसका कारण है श्रीलंका में वर्षों से तमिल विद्रोहियों और श्रीलंकाई सेना के बीच चलता घमासान। स्विटजरलैंड युद्ध से त्रस्त लोगों को शरण देता है। इसी के चलते श्रीलंका के काफी तमिल यहाँ आकर शरण ले रखे हैं।
स्विटजरलैंड इतना सम्पन्न देश है फिर भी यहाँ पर भीख मांगने वाले लोग दिखाई पड़ जाते हैं। अपने यहाँ जिस तरह भिखारी दरवाजे दरवाजे फेरी लगाकर भीख मांगते हैं वैसा यहाँ के भिखारी नहीं करते। यहाँ के भिखारी स्टेशनों के नीचे से गुजरने वाले रास्तों पर किसी एक कोने में बैठ जाते हैं सामने प्लास्टिक का कटोरा रखकर वायलिन बजाते रहते हैं जिसको कुछ देना होता है वह कटोरे में 1 - २ फ्रैंक डाल देता है। यहाँ के भिखारी चीथड़ों में नहीं होते और न ही गंदे दिखते हैं। उनके कपड़े और लुक संभ्रांत व्यक्तियों की तरह के ही होते हैं। एक दिन एक सब बे से गुजर रहा था तो नौ दस साल का एक बच्चा एक किनारे बैठा हुआ था उसे देखकर मन द्रवित हो उठा था। सोचा उसे दो फ्रैंक दे दूँ मैं पाकेट से दो फ्रैंक का सिक्का निकालकर उसकी तरफ बढ़ा भी था लेकिन फिर मन में हिसाब लगाया दो फ्रैंक का मतलब अपने यहाँ के छासठ रूपए। इतने रूपए भिखारी को भीख दूँ ? और मैं सिक्का वापस पाकेट में डालकर अपने आगे बढ़े पांव पीछे खींच लिया था। मुझे अपनी तरफ बढ़ता देख लड़के की आँखों में अजीब तरह की चमक आई थी लेकिन मेरे पांव वापस खीचतें ही उसका चेहरा बुझ सा गया था। उस बच्चे का बुझा चेहरा अभी भी रह रहकर मेरी आंखों के सामने टंग जाया करता है और मुझे इस बात का अफसोस होता है कि मैंने उसे दो फ्रैंक दिया क्यों नहीं। वह लड़का स्विस नहीं था वह बोस्निया से था। उसके माँ बाप बोस्निया के खराब हालात के दिनों में यहाँ आए होंगे और अपना पेट भरने के लिए उस बच्चे को भीख मांगने के लिए बैठा देते रहे होंगे।
एक बूढ़ी औरत उसी तरह एक और जगह बैठी वायलिन बजा रही थी। दूसरी एक उम्र दराज औरत उसके वायलिन की तान और लय पर नाच रही थी। वायलिन बजना बंद होने पर उसने उस बूढ़ी की कला का दाद देती उसकी कटोरी में पांच फ्रैंक का एक सिक्का डालकर नाचती हुई चली गई थी। एक जगह पच्चीस तीस वर्ष की उम्र के चार लड़के सूटेड, बूटेड सभी गले में नेक टाई पहने हुए थे। देखने में सबके सब संभ्रांत दिखते थे। दुकानों के एक काम्प्लेक्स के बाहर बेंच पर बैठे वे वायलिन बजा रहे थे लड़के से पूछा सबके सब इतने संभ्रांत दिख रहे हैं उन्हें भला भीख मांगने की क्या जरूरत है? लड़के ने बताया यहाँ पर जिसकी नौकरी छूट जाती है दूसरी नौकरी मिलने तक सरकार उन्हें पहले की तन्ख्वाह का ७५प्रतिशत देती है। वे लोग अपने खाली समय का इसी तरह उपयोग कर रहे हैं इससे इनका समय भी अच्छी तरह बीत जाता है और कुछ आमदनी भी हो जाती है।
एक दिन हम लोगों का ज्यूरिख जाने का कार्यक्रम बना। ज्यूरिख स्विटजरलैंड की वाणिज्यिक राजधानी है। यहाँ के दूसरे शहरों में भारतीयों के रसोई में व्यवहार होने वाले तेल मसाले, आटा चावल, दाल नहीं मिलता। कहीं-कहीं श्रीलंकन तमिल अपनी दुकानें खोल रखे हैं लेकिन वहाँ भी सभी चीजें नहीं मिलती। इसलिए लोग अपने खाने पीने की जरूरी चीजें ज्यूरिख से ही खरीदते हैं। यहाँ पर बसे भारतीयों ने अपनी दुकानें खोल रखे हैं और उसमें वे पूजा पाठ की सामग्री, मसाले, गेहूँ का आटा, अरहर की दाल, आचार से लेकर बर्तन तक सभी सामान रखते हैं। वहाँ एक अग्रवाल स्टोर है। जहाँ पर भारतीय मिठाईयाँ, ढोकला, समोसे चाट तक बेचते हैं। बगल में ही थोड़ी दूर पर एक सरदार जी की दुकान है सरदार जी भारतीय घरों में उपयोग होने वाले सामानों के साथ भारतीय फिल्मों की सी०ड़ी० भी किराये पर देते है।
वैसे स्विटजरलैंड का हर शहर काफी संभ्रांत दिखता है लेकिन ज्यूरिख शहर की शान ही निराली है। यहाँ की दुकानों में तीन-चार लाख रूपयों के ड्रेस शो-विन्डो में लगा देखा। इतना ही नहीं वे कपड़े सिर्फ दिखाने के लिए नहीं लगे थे। यहाँ के ज्यादातर लड़के - लड़कियाँ औरत-मर्द वृद्ध उसी तरह के संभ्रांत और कीमती कपड़े पहने घूम रहे थे। यहाँ की सम्पन्नता यह थी कि मैं लोगों की भीड़ में किसी ऐसे आदमी की तलाश में था जो हम लोगों की तरह साधारण कपड़ों में दिखे लेकिन वैसा वहाँ मुझे कोई नहीं दिखा। वैसे भी यहाँ के हर उम्र के लोग हर जगह बने ठने दिखते हैं।
ज्यूरिख शहर के भीतर ट्रामें चलती हैं ट्रामों बसों और ट्रेन के लिए यहाँ अलग टिकट नहीं होता। एक ही टिकट पर अपनी सुविधानुसार आदमी किसी भी सवारी से सफर कर सकता है। टिकट में समय दिया होता है टिकट कटाने के दो घंटे के भीतर आदमी चाहे तो कहीं भी जाकर उसी टिकट पर वापस लौट सकता है। यहाँ की ट्रामें अपने समय की वैसे ही पाबंद है जैसी यहाँ की ट्रेनें और बसें है। दो डिब्बों की ट्रामों का सारा सिस्टम ट्रेनों की तरह का ही है।
हम लोगों का, ज्यूरिख यूनिवर्सिटी में कुछ काम था। ट्राम में बैठकर यूनिवर्सिटी गए। ज्यूरिख यूनिवर्सिटी की मुख्य बिल्डिंग के ऊपर कंगूरे पर ११५७ लिखा हुआ है। आठ सौ साल पुरानी इसकी इमारत देखने से लगता है यह सौ वर्ष से ज्यादा पुरानी नहीं होगी। इसकी इमारत ललछौंहे रंग के विशाल पत्थरों से बनी है और पत्थर इतनी सफाई से तराशे गए हैं कि उसमें कहीं पर जरा सा भी खुरदुरापन नहीं है। भीतर जाकर इसे देखने का कोई उपाय नहीं था। पूरी यूनिवर्सिटी बड़े लम्बे चौड़े क्षेत्र में बनी है। विभिन्न डिपार्टमेंटों के अलग-अलग परिसर हैं और सब एक ही तरह के पत्थर से बने हैं। इमारतों की वास्तुकला नायाब है और देखने में बड़ा भव्य दिखती है। यूनिवर्सिटी की इमारतों की ऊँचाई चार-पांच तल्लों की है। बाहर ऊँचाई पर, देश के या उस यूनिवर्सिटी के गौरवशाली व्यक्तियों की मूर्ति लगी है और उन मूर्तियों के नीचे सबका नाम लिखा हुआ है। यूनिवर्सिटी से सटकर जो नई इमारतें बनी हैं वे सब आधुनिक हैं और उनमें शीशों का बहुतायत से प्रयोग हुआ है। ज्यूरिख में भी बहुत ऊँची इमारतें नहीं हैं काफी पुराना शहर है ज्यूरिख लेकिन इसकी सभी इमारतें काफी साफ सुथरी संभ्रांत और भव्य दिखती हैं। यहाँ पर सौ साल से ज्यादा की सभी इमारतों को धरोहर के रूप में सुरक्षित रखने का नियम है लोग इमारतों के भीतर जो भी तोड़ फोड़ और फेर बदल कर लें लेकिन बाहरी हिस्सा बदलने की अनुमति किसी को नहीं है। हम लोग सड़क पर घूम कर जिस समय ज्यूरिख शहर की भव्यता निरख रहे थे तो देखा था कि सड़क के फुटपाथ से, सात-आठ की संख्या में पुरूष और औरतों का एक झुंड, ढोल मृदंग और मजीरों की धुन पर हरे कृष्ण, हरे रामा का कीर्तन करते और मस्ती में नाचते गाते चले जा रहे थे। पुरूष अपना सिर मुड़ाये हुए थे और काफी मोटी और लम्बी शिखा रखे हुए थे माथे पर मोटा तिलक लगाए हुए थे उनके साथ की औरतें भी, उसी तरह, अपने माथे पर मोटी तिलक लगाये हुये थी। पुरूष पीले रंग की धोती और फतुही पहने थे और औरतें पीले रंग की साड़ी और झोलदार कमीजें पहनी थी। वे सब हरे कृष्ण के कीर्तन में इतने भावविभोर थे जैसे उन्हें इस दुनिया से कोई मतलब ही न हो। खरीददारी करते और वहाँ के पार्क और सड़कों पर घूमते हमारा काफी वक्त निकल गया था। ज्यूरिख में एक तिवारी जी रहते हैं वे बनारस के आस-पास के किसी गांव के हैं। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से पढ़कर शिक्षा के क्षेत्र में आये और वहीं से जर्मनी की किसी यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर की नौकरी मिली और वे भारत छोड़कर जर्मनी चले गये। जर्मनी में उन्होंने अपने एक स्विस छात्रा से शादी कर लिया। शादी करने के बाद वे दोनों भारत आये लेकिन यहाँ पर उनके अपने लोगों ने, इस बिना पर उन्हें स्वीकार नहीं किया कि उन्होंने विधर्मी से शादी किया है। उनके अपने सगे भाइयों ने उनकी जगह जमीन पर कब्जा कर लिए। सब तरफ से उपेक्षित और पीड़ित तिवारी जी पत्नी के साथ स्विटजरलैंड आ गये और ज्यूरिख में पति-पत्नी मिलकर एक एन्टीक (ऐतिहासिक वस्तुओं) की दुकान खोल लिये। अपनी दुकान में वे भारत के पुराने समय के आम औरत मर्दों से लेकर राजे-महाराजे और उनकी रानियों के जेवर रखे हुए थे। कान का कुण्डल, गले का कण्ठा, बाजूबंद, कंगन, कर्धनी, पाजेब, झाँझ, गोड़हरा, नकबेसर जैसी अति दुर्लभ चीजें तथा अपने यहाँ पुराने मन्दिरों की यक्षिणी, वाराह भगवान, बुद्ध, राम, सीता, लक्ष्मण की पुरानी मूर्तियाँ, बड़ी संख्या में इकट्ठा कर रखे थे। मेरे बच्चों से तिवारी जी की काफी आत्मीयता थी। उन्हें पता था कि हम लोग स्विटजरलैंड आये हुए हैं। एक दिन उन्होंने रात में मुझे फोन किया कि आप मेरे यहाँ सपरिवार आयें। मुझसे बात करते करते कईयों दफा तिवारी जी रूआँसे हो उठे थे। उन्हें इस बात का डर था कि जिस तरह उनकी बिरादरी के लोग विधर्मी लड़की से शादी करने के चलते, उन्हें अस्वीकार कर दिए थे उसी को लेकर मैं भी उनसे दूर ही रहना चाहता हूँ। मैं तिवारी जी के यहाँ जाने की हामी तो भर दिया था लेकिन उनके यहाँ पहुंचने का मौका ही मुझे नहीं मिला था। तिवारी जी, बीच बीच में फोन से मुझसे बात करते और इसी क्रम में एक दिन उन्होंने कह ही दिया था कि मैं जानता हूँ कि आप मेरे यहाँ नहीं आयेंगे। उनकी इसी बात को लेकर जिस दिन हम ज्यूरिख गये थे यह तय करके गये थे कि आज तिवारी जी से जरूर मिलेंगे।
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(क्रमशः अगले किश्त में जारी)
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