आलेख - मनोज सिंह मनुष्य को अपने परिवार, समाज, संस्कृति और देश पर नाज होता है। अमूमन स्वयं पर गर्व होता है, होना चाहिए। इससे हमारे अंदर स्...
- मनोज सिंह
मनुष्य को अपने परिवार, समाज, संस्कृति और देश पर नाज होता है। अमूमन स्वयं पर गर्व होता है, होना चाहिए। इससे हमारे अंदर स्वाभिमान पैदा होता है। यह आत्मविश्वास जगाता है और आत्मसम्मान दिलाता है। ठीक है, मगर न तो इसमें किसी तरह का खोखलापन होना चाहिए न ही कोई अतिशयोक्ति और न ही यह जबरदस्ती थोपा हुआ प्रतीत होना चाहिए। अन्यथा स्वयं की झूठी प्रशंसा के परिणाम सकारात्मक नहीं होते। किसी भी तरह के सुधार की गुंजाइश तो खत्म हो ही जाती है उलटे नुकसान होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
ऐसे दिवास्वप्न में जीने वाले आदमी का, उसके समाज, परिवार, भाषा व सभ्यता का विकास रुक जाता है। अहम् पतन का कारण बनता है और झूठा अहं तो सर्वनाश कर देता है। मगर यह भी सत्य है कि स्वयं को सदा कमजोर व कमतर आंकना भी गलत होता है। अपने बारे में हीन भावना रखना व्यक्तित्व में खोट पैदा करता है जो फिर हर क्षेत्र में इंसान को असफल बनाता है। असल में हकीकत से मुंह चुराना मूर्खता है। और अपनी कमजोरी को स्वीकार करते हुए पहल करना सफलता की पहली पायदान होती है।
इसी संदर्भ में हम जरा सोचें, या हमें अपने देश पर नाज है? या हमें भारतीय होने का अभिमान है? महज भावनाओं में बहकर कुछ कहने मात्र के लिए कहने की आवश्यकता नहीं, कुछ भी उत्तर देने के पूर्व इन बातों पर गौर करें, या हम समाज की वास्तव में चिंता करते हैं? ध्यानपूर्वक चिंतन करें, या हम राष्ट्र के बारे में कभी भी सोचते हैं? या हमें अपनी भाषा से प्यार है? अपने दिल पर हाथ रखकर स्वयं से जवाब माँगें तो मिलेगा, नहीं।
कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़ दें, जब हमारी भावनाएं आहत होकर अचानक जागृत हो उठती हैं तो कुछ समय के लिए ऐसा हो सकता है कि हम देश के लिए मरने-मारने को तैयार हो जायें। अन्यथा हम आमतौर पर `मैं' और `मेरे' में जीते हैं। बड़ी-बड़ी बातें छोड़िए और इन छोटी-छोटी बातों को देखें। हम किसी भी नये व्यक्ति के सामने, अचानक, बेवजह अंग्रेजी बोलना शुरू कर देते हैं और स्वदेशी भाषा को अकसर हेय दृष्टि से देखते हैं। विदेशी सामान को देख आज भी हमारी आंखों में चमक और मुंह में पानी आने लगता है और हम ठंडी आहें भरकर उसे पाने के लिए लालायित होने लगते हैं। वहीं स्वदेशी को हल्का व कचरा समझा जाता है। इतना ही नहीं अब इस आदत को ही देख लें, हम अपने घर का कूड़ा-कर्कट अकसर अपनी चारदीवारी के बाहर फेंक कर बड़े खुश होते हैं। कितने ऐसे हैं जिन्हें इस बात का अहसास है कि बाहर की गंदगी भी हमारे लिये हानिकारक है? कितने हैं जिन्हें घर के अंदर के साथ-साथ बाहर की सफाई की भी चिंता होती है? अपने चारों ओर नजर मार लें, जवाब खुद मिल जाएगा।
सड़क की तो बात ही छोड़िए किसी भी बिल्डिंग के किसी भी कोने में हम आसानी से थूक सकते हैं। हाथ में आई किसी भी अनचाही व अनुपयोगी वस्तु को हम कहीं भी फेंकने में विश्वास करते हैं। सिगरेट के अधजले टुकड़ों को फेंकना तो हमारे स्वभाव में है ही, हां, बहुत समझदार हुए तो जमीन पर उसे रगड़कर बुझा जरूर देते हैं। मगर फर्श के गंदे होने का हमें कोई खयाल नहीं होता। मॉल संस्कृति वालों को अपने उच्च वर्ग के होने का गुरूर हो तो मल्टीप्लेक्स के किसी भी हॉल में जाकर देख लें, पॉपकार्न बिखरे हुए मिलेंगे।
हम आइसक्रीम खाकर कागज के खाली डिब्बों, खाने-पीने की चीजों के प्लास्टिक पैक, पेपर नेपकीन व चाय-कॉफी के पेपर कप को जिस लापरवाही से फेंकते हैं देखकर शर्म आती है। गली के किसी भी मोड़ को पेशाबघर तो खुले मैदान को शौचालय बनाने के लिए तैयार रहने वाले हम भारतीय वातानुकूलित रेस्ट रूम व टॉयलेट को भी अपनी निशानी जरूर दे जाते हैं। उन्हें अगर हम गंदा न कर सके तो उनके दरवाजे, लिफ्ट के अंदर की दीवारों पर अपनी कुंठित मानसिकता को खुलकर प्रदर्शित करते हुए वातावरण को दूषित अवश्य कर देते हैं। इन स्थानों पर चित्रकारी के तमाम प्रयोग किए जाते हैं।
यह सत्य है कि हम अकेले होने पर अपनी बुद्धि का सरलता से उपयोग करते हुए सफल होते हैं। मगर एक से दो होते ही आपस में लड़ने लगते हैं भीड़-सा व्यवहार करने लगते हैं, अव्यवस्थित और अनियंत्रित। तुरंत आपस में राजनीति करने लगते हैं। और फिर एक-दूसरे की टांग खींचना तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। धार्मिक रूप से, गुरुओं के नाम पर, डेरा, पंथ, संप्रदाय में पूरी तरह से बंटा हमारा समाज, दुनिया को धर्म की शिक्षा देने की बात करता है। जबकि दैनिक जीवन में हम कितने अधर्मी हैं, कम से कम हमसे नहीं छुपा।
रंगभेद, जातिभेद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, न जाने कितने भेद और वाद हमारे अंदर कूट-कूट कर भरे हैं। लोकसभा से लेकर कर्मचारी यूनियन व छात्र संगठन के चुनाव में भी इन सबका बोलबाला होता है। गर्व करने में तो कोई हर्ज नहीं मगर प्रजातंत्र की या हालत है बताने की आवश्यकता नहीं। बस भीड़तंत्र है जिसमें जिसकी लाठी उसकी भैंस कहावत खुलकर चरितार्थ होती है। हालात इतने खराब हैं कि हम अपने हिसाब से इतिहास तक लिख डालते हैं। और उसमें भी वाहवाही लूटने से नहीं बचते।
हम अपने अतीत को जबरन स्वर्णिम दिखाने में अधिक ऊर्जा व्यय करते हैं और वर्तमान को खराब कर भविष्य अंधकारमय बनाने में वक्त नहीं लगाते। अपने इतिहास पर लंबी-चौड़ी बात करने वाले हम यह मानने को तैयार नहीं कि हमारा भूतकाल बाहरी आक्रमणों और निरंतर पराजय से भरा हुआ है। कुछ एक राजा को छोड़ दें तो हम कभी भी सफल शासक नहीं बन पाए। यही नहीं अनुशासित, समझदार, जिम्मेवार प्रजा बनना भी हमारे वश में नहीं। हम मात्र एक जनसमूह बनकर रहना पसंद करते हैं जिसे डंडे की नोक पर आसानी से ठीक किया जा सकता है।
नारी शक्ति की पूजा करने वाली सशक्त विचारधारा, समृद्घ व सशक्त संस्कार और प्राचीन सभ्यता होने के बावजूद हम कन्या भ्रूणहत्या में सबसे आगे हैं। यह अंतर्विरोध किसी और समाज में नहीं मिलेगा। हम पढ़ने में विश्वास नहीं रखते। कितने भारतीय हैं जो पुस्तक खरीदते हैं? उत्तर के लिए तुलनात्मक अध्ययन करना हो तो दूर जाने की आवश्यकता नहीं।
ट्रेन, बस या हवाई जहाज के किसी भी प्रतीक्षालय में बैठे एक विदेशी और किसी भारतीय को देख लें, फर्क आसानी से समझ आ जाएगा। दूसरों से अच्छी बातों को ग्रहण करने में कोई बुराई नहीं मगर बाहरी संस्कृति, भाषा, खान-पान के लिए पागल की हद तक लालायित रहना, हमारी गुलाम मानसिकता को प्रदर्शित करता है। जिसमें सीखने की प्रवृत्ति कम निम्न होने का भाव अधिक होता है। गोरे को देखकर हमारा उसके प्रति आकर्षण और मोह, सम्मोहन की हद तक पहुंच जाता है और हम उसके सामान्य व्यक्तित्व से भी वशीभूत हो जाते हैं। वहीं अपनों से हमें कभी-कभी घृणा की हद तक हीन भावना हो जाती है।
हम विदेश जाकर कुछ भी करने को तैयार हैं मगर अपने ही घर में इज्जत की दो रोटी के लिए काम करना हमें मंजूर नहीं। कामसूत्र और खजुराहो के देश में सेक्स को सबसे अधिक रोका और टोका जाता है। इसे संस्कृति, धर्म, सभ्यता व संस्कार के नाम पर छिपाया जाता है। पश्चिमी जीवनशैली को हम भरपूर गाली देते हैं मगर मन ही मन उसे अपनाने की चाहत बनी रहती है।
हम अंदर ही अंदर सेक्स की भूख के लिए पागल रहते हैं। तभी ब्लू फिल्म व हॉट वेबसाइट की सबसे अधिक मांग इस उपमहाद्वीप में ही है। और किसी हीरोइन की हल्की-सी नग्नता हमें सिनेमाघर की ओर खींचकर ले जाती है। हम इस नैसर्गिक प्रेम का स्वाभाविक आनंद नहीं ले पाते और जल्दबाजी में करते हुए बस बच्चे को पैदा करते चले जाते हैं। परिणामस्वरूप जनसंख्या को जिस तीव्रता से हम बढ़ा रहे हैं यह हमारे लिये सबसे अधिक परेशानी का कारण है। मगर हम समझना नहीं चाहते। विश्व शांति की बात करने वाले हम या वास्तव में शांत हैं? या हम इन गुणों के साथ अभिमान पूर्वक इक्कीसवीं शताब्दी के शीर्ष राष्ट्र बन पाएंगे। या हमें उपरोक्त हालात में घमंड करने का हक है?
रचनाकार संपर्क :
मनोज सिंह
४२५३, सेक्टर ३०-ए, चंडीगढ़
Tag मनोज सिंह,आलेख,हिन्दी,भारत
मनोज जी भाइ अब ऐसी भी क्या खता हुई आप सुबह सुबह आईना लेकर आ गये,गर्व करने लायक बता कर पुरा धो डाला कुछ नही छोडा,काश कि हम ५/७% ही सुधर जाये अपने घर से कूडा निकाल कर सडक पर डालने की इस आदत से,
जवाब देंहटाएंमनोज सिंह जी,बहुत ही सटीक लेख लिखा है। आज हमारी दशा ऐसी ही है। हम सब को आत्म-मंथन की जरूरत है।जो शायद हम क्भी नही करेगें।क्यूँकि जब विश्व गुरू बनने के ख्वाब देखने लगेगें और खुद उन को प्रभावित करने की जगह खुद उन से प्रभावित हो रहे हैं। तो घमंड किस बात का?
जवाब देंहटाएंअच्छा लिखा है आपने । आपकी बातें सोचने लायक हैं ।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
आपका विश्लेषण बहुत सटीक है. लिखते रहें, परिवर्तन जरूर आयगा.
जवाब देंहटाएंसाधुवाद
जवाब देंहटाएंहमें जवाब तो मिला नहीं एक पोस्ट और लिख मारी यहाँ पर।
जवाब देंहटाएंराग
sachchai ka mol nahin, chup ho ja kuchh bol nahin, pyar preet chillayega to apna gala gavayega
जवाब देंहटाएंमन के सारे चोर सामने आकर खडे़ हो गये . हम कितने बड़े (बढिया भी) हिप्पोक्रेट हैं ...आपने बता दिया.
जवाब देंहटाएंसंजय