- मनोज सिंह 'चित भी मेरा, पट भी मेरा, अड्डा मेरे बाप का` चोरी और सीनाजोरी की इससे बेहतर मिसाल मिलना मुश्किल है। देशों में अमेरिका पर ...
- मनोज सिंह
'चित भी मेरा, पट भी मेरा, अड्डा मेरे बाप का` चोरी और सीनाजोरी की इससे बेहतर मिसाल मिलना मुश्किल है। देशों में अमेरिका पर यह कहावत पूर्णत: चरितार्थ होती है। अपने मोहल्ले में तो हम भारतीय भी इसमें पीछे नहीं हैं। उपरोक्त कहावत हिंदी में है तो हिंदी प्रदेशों में इसे स्वाभाविक रूप से अधिक प्रासंगिक होना चाहिए। और है भी। उत्तर प्रदेश, बिहार में तो यह आम बात है।
राजनीतिज्ञों का तो इसके भावार्थ पर एकाधिकार शुरू से ही रहा है। चोर जब पुलिस से मिल जाता है तो ताल ठोंककर यह मुहावरा बोलने लगता है। फिल्मों की नायिका निर्माता-निर्देशक से मिलकर नायक को यह झटका दे सकती हैं। आजकल की औरतों के भी मजे हैं मायके में तो धाक पहले से ही थी ससुराल में भी पति के कान खींचकर कब्जा किया जाने लगा है। और अगर कभी पति के लिए प्रेम गीत गाती भी हैं तो बोल यही होते हैं। आदमी भी पीछे कहां रहने वाला, इन चंद शब्दों को बोलने के लिए शराब के दो पैग अंदर और फिर वो शेर की भांति दहाड़ने लगता है। मगर फिर भी, घर पर तो बोल नहीं सकता, उधर चित-पट चाहे जितना मर्जी कर लें अड्डा बीयर बार के मालिक का ही होता है और रही-सही कसर गली का गुंडा पूरी कर देता है।
अड्डा शब्द सुनते ही अवैध-अनैतिक कार्य, विचार और भावनाओं वाले स्थान अपने आप मस्तिष्क से जुड़ने लगते हैं। पता नहीं कहां से यह शब्द आया कि कोई इसे अपना कहने को तैयार नहीं। अंग्रेजी ने इसकी जमकर काट-पीट और सर्जरी करके इसका हुलिया ही बिगाड़ दिया तो हिंदी ने अपने साहित्य के भंडार में इसे जोड़ने से मना कर दिया। अरबी-फारसी ने अन्य की भांति दिल ही दिल पसंद तो किया मगर अपनाने से इंकार कर दिया। इतना सौतेला व्यवहार!! हालत ऐसी कर दी गई कि इसके पास जाना तो सभी चाहते हैं मगर कोठे वाले की औलाद की तरह इसको अपना नाम देने से मना कर देते हैं।
पढ़े-लिखों ने इसको ठेठ गंवार और गुंडे-बदमाशों की जगह बताकर अपने लिये नये नाम ढूंढ़ लिये। पुरानी शराब नये बोतल में। शराब के अड्डे, मयखाना से बार तक पहुंच गये तो नाच-गाने के अड्डों को डिस्को बना दिया गया। वैसे भी अड्डा आम आदमी के लिए है। अत: थोड़ा-थोड़ा कहीं-कहीं बस अड्डा अभी भी चल रहा है। मगर बस स्टैंड जिस रफ्तार से इसे हटा रहा है इससे इसका भविष्य खतरे में है। अंग्रेजी की माया है जो रेलवे ने अपने घर में रेलवे स्टेशन नाम ही रहने दिया। पुराने टैक्सी चालकों के लिए एयरपोर्ट हवाई अड्डा ही रहा, मगर नये लोगों ने शहर के बीचों-बीच बस स्टैंड के बगल में अपने सुरक्षित स्थान को टैक्सी स्टैंड बना दिया। पत्ते और जुए के अड्डे, जुआघर से लेकर क्लब और कैसिनो कहलाने लगे। धर्म के संबंध में भी बड़ी मजेदारी है स्वयं के धर्म के लिए तो पवित्र स्थल और दूसरों के धार्मिक स्थल को धार्मिक गतिविधियों का अड्डा घोषित किया जाने लगा।
अड्डा से इतनी बेरुखी क्यों? सीधी-सी बात है आदमी बदनामी से डरता है। करना तो सब कुछ चाहता है मगर छिपकर। इसीलिए उसने अपने सभी कामों के लिए वैध और नैतिक नाम ढूंढ़ लिये और अड्डे को गलत साबित कर अपनी शब्दावली से हटा दिया। हर शहर में कई तरह के अड्डे अलग-अलग नाम से चल रहे हैं। मुझे तो अड्डा नाम ही पसंद है कम से कम अंदर हो रहे काम की सही जानकारी तो मिल जाती है। अन्यथा मसाज पार्लर, ब्यूटी पार्लर, बिलियर्ड्स कार्नर और सैलून से दिमाग चकरा कर भ्रमित होने लगता है।
सबसे पहला सवाल उठता है अड्डे के स्थान को लेकर। सुनने में थोड़ा मुश्किल लगता है पर जवाब बड़ा आसान है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि किस तरह का अड्डा चाहिए। और उससे पहले बड़ी बात है किसलिये। फिर बारी आती है कि जेब में कितना पैसा है। जब राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक कार्य हों तो शहर के बीचों-बीच अड्डे बनाये जाते हैं। लोगों की भीड़ इकट्ठा करने में आसानी होती है। वैसे बाबाओं के लिए पहाड़, तालाब, नदी का किनारा हो तो ज्यादा चलेगा। लेकिन अनैतिक कार्य हो तो शहर के किसी कोने में, जहां आपको आते-जाते न देखा जा सके। घरवालों से छुपाकर रखना है तो शहर के दूसरे छोर पर या फिर दूसरे शहर में बनाया जाये तो सबसे उपयुक्त है। अवैध काम के लिए भीड़-भाड़ वाली जगह सबसे बेहतर होती है। अवैध और अनैतिक दोनों हो तो फ्लैट या फिर बड़ा बंगला सबसे बढ़िया। बिल्डिंग में घुसने से पहले किसी को अंदाज नहीं कि किस फ्लैट में जा रहा है। बंगले के अंदर पता नहीं क्या हो रहा है। बड़े शहर के फ्लैट के तो मजे ही मजे हैं। छोटे शहर में थोड़ा मुश्किल हो जाती है। युवाओं के लिए सड़क और मार्केट के बीच स्थित अड्डे ज्यादा उपयुक्त और उपयोगी होते हैं। नौजवानों द्वारा तो गर्ल्स कॉलेज या महिला छात्रावास के बाहर किसी भी तरह का अड्डा बना लिया जाता है। वैसे भी जवानी में पैसा और ताकत दोनों होने पर कोई भी अड्डा मुश्किल नहीं। मुसीबत सिर्फ बुड्ढों को आती है।
पुराने जमाने में तो शहर हो या गांव, शराब का अड्डा और जुए का अड्डा अक्सर पास-पास ही होते थे और साथ ही बसंती का अड्डा हो तो इसमें आश्चर्य करने की आवश्यकता नहीं। अधिकांशत: कस्बों के बस अड्डों के आसपास ही इनका ठिकाना होता था अन्यथा इनका पता यहां से जरूर मिल जाया करता था। तांगे वाले और रिक्शेवाले आसानी से ले जाया करते थे। अब जमाना बदल गया है लेकिन फिर भी बचपन हो या जवानी या फिर बुढ़ापा, सभी को कोई न कोई अड्डा चाहिए। घर पर तो आदमी के लिए यह संभव होता नहीं, यहां तो मोहल्ले भर की औरतों का पहले से ही अड्डा होता है। इसीलिए दूसरे उपाय ढूंढने पड़ते हैं। वैसे पान के अड्डे पर सबसे आसानी होती है। सस्ता और टिकाऊ। शहर की सभी ताजा खबरों एवं दूसरे अड्डों की जानकारी के लिए उपयुक्त स्थान। पान-सिगरेट खरीदो या न खरीदो, खड़े-खड़े रेडियो-स्टीरियो पर गाने सुनते हुए सड़क पर आती-जाती सुंदरता का नैनसुख लिया जा सकता है। मगर जबसे टेलीविजन पान की दुकानों पर लगाए जाने लगे हैं थोड़ी मुश्किल हो रही है। टीवी के स्क्रीन पर परोसे जा रहे ग्लैमर को देखकर आंखें खराब करें या फिर रोड पर चले रहे लाइव शो को देखकर दिल खराब करें। दिमाग दोनों ही सूरत में खराब होता है। मगर अब तो पान और पान के अड्डे दोनों नदारद हैं।
उम्र बढ़ती जाती है अड्डों के रूप-रंग और नाम बदलते रहते हैं। अड्डा तो फिर भी चाहिए, कवि को कविता सुनाने का अड्डा, पत्रकार को खबरें और सनसनी ढूंढने का अड्डा, नशेड़ी को नशे का अड्डा, नेता को नेतागिरि का अड्डा तो पहलवान के लिए कुश्ती-कसरत का अड्डा। अब वो जमाने चले गये जब राजा-महाराजाओं के लिए नाच-गानों के अड्डे होते थे। पुलिस ने पत्रकार और टीवी के साथ मिलकर सारे अड्डों के स्वरूप को बदलकर उनके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा दिया, अन्यथा सारे शरीफ खुलेआम बग्घी में बैठकर अड्डों पर जाया करते थे। और उनकी शान होती थी।
काश! हम भी सौ दो सौ साल पहले पैदा होते और किसी के अड्डे पर जा पाते। आज तो यह संभव नहीं। मुश्किल है। खैर, शाम तो गुजारनी है, अड्डा तो ढूंढ़ना ही पड़ेगा। अंत में हमने भी बढ़ी मुश्किल से एक अड्डे की खोज कर ही ली। घर के अंदर ही, सर्वेंट क्वार्टर में। चिंता न करें। यह पढ़ने-लिखने का अड्डा है, जहां मुझे अकेले रहने में मजा आता है। हां, आपके पास किसी और नये अड्डे की जानकारी हो तो जरूर बताएं।
रचनाकार संपर्क:
-मनोज सिंह
४२५/३, सेक्टर ३०-ए, चंडीगढ़
बढ़िया माहौल बनाया अड्डेबाजी का!
जवाब देंहटाएंगुरुदेव बस आप अपना पसंददीदा अड्डा बताना भुल गये,तुरंत बताये ताकी हम भी आपके साथ आपके अड्डे पर पाये जाये.
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