आलेख - डॉ. महेश परिमल आज का दौर रिकॉर्ड का है। एक रिकॉर्ड तैयार करो फिर उसे तोड़ने के लिए दूसरा रिकॉर्ड बनाओ। बस यूं ही एक के ...
- डॉ. महेश परिमल
आज का दौर रिकॉर्ड का है। एक रिकॉर्ड तैयार करो फिर उसे तोड़ने के लिए दूसरा रिकॉर्ड बनाओ। बस यूं ही एक के बाद एक रिकॉर्ड बनाते जाओ और सुर्खियों में छा जाओ। इसमें अब बड़े ही नहीं बच्चे भी शामिल हो गए हैं या यूं कहें कि शामिल कर लिए गए हैं। आज रिकॉर्ड बनाने के लिए लोग क्या-क्या नहीं करते। देखें इन रिकॉर्डों की एक झलक इन सुर्खियों में-
-नन्हे बुधिया द्वारा लगातार 64 किलोमीटर तक दौड़ने का रिकॉर्ड।
-एक बच्ची द्वारा चालीस घंटे तक रोटियाँ सेंकने का रिकॉर्ड।
-सात साल की बच्ची द्वारा भोपाल के बड़े ताल का एक बड़ा हिस्सा बिना रुके तैरकर पार करने का रिकॉर्ड।
-इंदौर की एक बच्ची ने बनाया लगातार गाने का रिकॉर्ड।
-इसी रिकॉर्ड को तोड़ने के लिए खंडवा की एक बच्ची द्वारा लगातार गाने का रिकॉर्ड
-लगातार कई घंटों तक हनुमान चालीसा लिखने का रिकॉर्ड।
हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार 57 प्रतिशत लोगों का मानना है कि बच्चों में रिकॉर्ड बनाने की भावना के पीछे माता-पिता दोषी हैं। समझ में नहीं आता कि इस तरह के रिकॉर्ड बनाकर ये मासूम समाज में किस तरह का बदलाव लाने की सोच रहे हैं। ये मासूम आज अपने पालकों की अपेक्षाओं के बोझ से इतने अधिक लद गए हैं कि कई बार उन्हें अपना आत्मसम्मान ही नहीं, बल्कि अपनी जान भी देनी पड़ रही है। कलकत्ता का ही उदाहरण हमारे सामने है, जिसमें पालक दीपक भट्टाचार्य अपने ही पुत्र विश्वदीप भट्टाचार्य की हत्या के आरोप में इन दिनों जेल में बंद हैं। विश्वदीप टेबल-टेनिस का होनहार खिलाड़ी था। जिला एवं राज्य स्तरीय खेलों में अपने अनूठे प्रदर्शन से उसने कई प्रतियोगिता जीती। होनहार पुत्र को अभिभावकों की तरफ से प्रोत्साहन तो दिया ही जाता है। किंतु विश्वदीप को उनके पिता द्वारा प्रोत्साहन के रूप में पाषविक दबाव मिला। कई बार जब उसका प्रदर्शन ठीक नहीं होता, तब उसके पिता उसे खूब मारते, पिटाई इतनी अधिक हो जाती कि वह दर्द से बिलबिला उठता। अभी कुछ दिन पहले ही एक स्पर्धा में विश्वदीप हार गया।
इससे उसके पिता दीपक भट्टाचार्य ने उससे जमकर प्रेक्टिस करवाई। यह प्रेक्टिस उसे महँगी पड़ी, वह हाँफने लगा। उसकी हालत देखकर उसकी माँ और बहन ने उसे अस्पताल पहुँचाया, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी, डॉक्टर ने विश्वदीप का परीक्षण कर बताया कि विश्वदीप की जान जा चुकी है। उसका नाता इस दुनिया से टूट चुका है। सोचो, उसकी माँ पर क्या गुजरी होगी? उनका एकमात्र कुल दीपक बुझ गया। विश्वदीप की माँ और बहन के ही बयानों के आधार पर दीपक पर पुत्र विश्वदीप की हत्या का आरोप है।
ये एक उदाहरण है, आज के प्रतिस्पर्धी समाज की अतृप्त भूख और प्यास का। इस चक्कर में न जाने कितने मासूम अपने अभिभावकों के अत्याचार का शिकार हो रहे हैं। जहाँ निठारी में हुए मासूमों के जीवन के साथ होने वाले खिलवाड़ की चारों ओर निंदा हो रही है, वहीं अपने ही कुलदीपक को बुझाने की तैयारी करने वालों पर किसी की दृष्टि ही नहीं जा रही है। ये मासूम अपने ही घर में प्रताड़ित हो रहे हैं, अपनों द्वारा ही ठुकराए जा रहे हैं, अपनों से ही प्यार और दुलार के बजाए उन्हें मिल रहा है सख्त अनुशासन के नाम पर पिटाई का तोहफा।
अक्सर ऐसा होता है कि पालक अपनी इच्छाओं को अपने ही संतानों के माध्यम से पूरी करने का सपना देखते हैं। उनका मानना होता है कि जो हम नहीं कर पाए, वह हमारी संतान के माध्यम से हो, तो बुरा क्या है? लेकिन अनजाने में ही वे अपनी संतान पर किस तरह से अपनी अपेक्षाओं का बोझ लाद देते हैं, इसका उन्हें जरा भी आभास नहीं होता। वे समझते हैं कि हमारी अपेक्षाओं को उनकी संतान ने अच्छी तरह से समझा है, इसलिए वे उन पर अनजाने में ही एक प्रकार का दबाव बनाने लग जाते हैं। यही अनजाना दबाव ही मासूमों पर किस कदर भारी पड़ता है, यह उपरोक्त उदाहरण से ही स्पष्ट है।
भोपाल के ताल को काफी हद तक तैरकर पार करने वाली नन्हीं मासूम रिकॉर्ड बनाने के दौरान लगातार रोती और चीखती रही, पर उसकी मासूम चीखें ताल की लहरों में ही खो गई। उसके अभिभावकों पर उन चीख़ों का कोई असर नहीं हुआ। वे तो उस सात साल की मासूम से रिकॉर्ड बनवाना चाहते थे। रोटियाँ सेंकने वाली मासूम लगातार गैस के सम्पर्क में आने से बेहोश हो गई, पर उसका बेहोश होना उनके पालकों को होश में नहीं ला पाया। इसी तरह लगातार गाने का रिकॉर्ड बनाने वाली किशोरी की स्वर नलिका में कुछ खराबी आ गई, पर इस खराबी ने भी उनके अभिभावकों को सावधान नहीं किया। ये कैसा जुनून है, जिसकी चकाचौंध तो पालकों के भीतर है, पर भेंट उनके मासूम चढ़ते हैं।
आने वाला समय उन अभिभावकों के लिए चेतावनी भरा है, जो अपने बच्चों पर अपनी अपेक्षाओं और इच्छाओं का बोझ लाद रहे हैं। अभी तो मानव अधिकार आयोग का ध्यान इस दिशा में नहीं गया है। उधर मेनका गांधी भले ही जानवरों पर होने वाले अत्याचारों पर अखबारों में स्तंभ लिख रही हों, पर सच तो यह है कि घर की ही चारदीवारी के भीतर सिसकते और छटपटाते मासूमों की अनसुनी चीख़ों को कोई समझने को ही तैयार नहीं है। यही हाल रहा और पालकों अपने मासूमों पर अत्याचार करते रहे, तो वह दिन दूर नहीं, जब अनसुनी चीख़ों का शोर सोए हुए समाज को झिंझोड़कर रख दे। पालकों से यही आग्रह है कि मासूमों पर अपेक्षाओं का बोझ लादने के पहले यह सोच लें-
अभी तो ये कोरी मिट्टी है
अभी तो इसमें पानी डालना है
अभी तो इसे ठीक से सानना है
अभी तो इसे एक आकार देना है
मत रौंदो इसे अपने क्रूर हाथों से
इन्हीं हाथों से सहलाना अभी बाकी है
टूटती हुई जिंदगियों को जोड़ना अभी बाकी है।
रचनाकार संपर्क :
- डॉ. महेश परिमल
403 भवानी परिसर, इंद्रपुरी भेल भोपाल।
(0755) 2682258
E-mail: maheshparimal@India.com
Tag desitoons,desitoonz,humour,desicartoons
मेरा शहर तो रिकाँर्डधारकों का शहर है.इसी संबंध में भोपाल में हुई एक घटना की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं...बात का पसेमंज़र वही है जो आपके लेख का उन्वान है.ख्यात गीतकार और फ़िल्मकार गुलज़ार साहब कुछ बरसों पूर्व भोपाल तशरीफ़ लाए थे.कई लोग आए उनसे मिलने वहाँ जहाँ गुलज़ार साहब ठहरे थे.एक दम्पत्ति भी आए ..साथ में एक नन्हीं सी बिटिया बड़ी प्यारी सी.मां ने गुलज़ार साहब से कहा ..ये बिटिया बहुत अच्छा गाती है और अभी हाल ही में इसने लगातार चार घंटे का प्रोग्राम पेश किया था..गुलज़ार साहब ने पूछा आप मुझसे क्या चाहते हैं ..अब पिता बोले..सर..हम चाहते हैं आपका शुभाशीष क्योंकि अब हम इसे लगातार चौबीस घंटे गवाने वाले है.गुलज़ार साहब जैसे संवेदनशील कवि और लेखक ने कहा आप जो करना चाहते हैं वह सब तो ठीक है लेकिन इसे गुड्डे-गुड्डियों का खेल मत छीनियेगा..वरना इसके बचपन की हत्या हो जाएगी.कहने के मायने यही कि तमाम आर्थिक विवशताओं के माता-पिता को चाहिये के वे अपने बच्चों के मासूम बचपन को न रौंदें.प्रतिस्पर्धा के माहौल में हम अपने बच्चों से कुछ ज़्यादा ही अपेक्षा करने लगे हैं ..डाँक्टरी,इंजीनियरिंग और दीगर पढा़इयों के बीच वो का़ग़ज़ की कश्ती कहीं डूब न जाए.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंनिजी विद्यालयों में आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण बच्चों पर जो भार लादा जा रहा उसके कारण दसहजारों घरों में मासूम एवं असहाय बच्चों के साथ रोज यही मारपीट होती है. बच्चों पर अनावश्यक भार लादने के विरोध में आन्दोलन होना चाहिये.
जवाब देंहटाएंआपका मेल पता नही मालूम था इसलिये यहाँ सम्पर्क करने की कोशिश कर रहा हूँ , मैं आपकी पोस्ट लगभग रोज पढता हूँ ... मैं जानना चाहता हूँ कि क्या इन्टरनेट पर ३-४ घंटे काम कर के कोई आमदनी का सार्थक जरिया निकाला जा सकता है .... आप मुझे इस बाबत उचित सलाह दें मेरे मेल इद है sajeevsarathie@gmail.com
जवाब देंहटाएंसारथी जी,
जवाब देंहटाएंयह इस बात पर निर्भर करता है कि आप इंटरनेट पर किस तरह का कार्य इन घंटों में करना चाहते हैं. यदि आपका कहना है कि ब्लॉग के जरिए, तो हिन्दी ब्लॉग के जरिए तो अभी नहीं, परंतु भविष्य में उम्मीदें अवश्य हैं.
इस संबंध में अमित अग्रवाल के लिखे दो पोस्ट अवश्य पढ़ें. उन्होंने अपनी बढ़िया नौकरी छोड़ दी और सिर्फ ब्लॉग के जरिए शानदार, गर्व करने लायक आय अर्जित कर रहे हैं.
मैं कितना कमाता हूँ?
हिन्दी ब्लॉगर कभी कमा भी सकते हैं ?
आजकल बच्चे माता पिता और स्कूल के लिएअ एक प्रोजेक्ट हो गए हैं जिन पर इंवेस्टमेंट की जाती है और उसके रिटर्न का इंतजार किया जाता है ! हर अभिभावक अपने अच्चे को सबसे आगे देखना चाहता है ! बच्चा क्या चाहता है यह सोचने का रिवाज अब नहीं रह गया ! वयस्कों के समाज में शोषित बच्चे...
जवाब देंहटाएं