कविताएँ शिरीष कुमार मौर्य की नई कविताएँ पगडंडियाँ ( वागर्थ - अगस्त 2005 में प्रकाशित) उन्हें कोई नहीं बुहारता बिना किसी रख-रख...
कविताएँ
शिरीष कुमार मौर्य की नई कविताएँ
पगडंडियाँ
(वागर्थ - अगस्त 2005 में प्रकाशित)
उन्हें कोई नहीं बुहारता
बिना किसी रख-रखाव के ही
वे बची रहती हैं हमेशा
मनुष्यों में पैदल चलने की इच्छा और ज़रूरत उन्हें बनाए रखती है
दुनिया भर की
वैभवशाली सड़कों के बीच भी
वे खुद-ब-खुद बन जाती हैं
उनके लिए सरकार को कोई बजट नहीं लाना पड़ता
वे ठेकेदारों और अभियंताओं के
समय-सिद्ध हुनर का इस्तेमाल भी
नहीं करतीं
वे निकल आती हैं थोड़ी-सी जगह में भी
अपने लायक़ जगह तलाशती हुई
उन्हें सिर्फ एक आदमी भर की
राह चाहिए
उन पर से होकर नहीं गुज़रतीं
सेनाएं
विरोध-प्रदर्शन, शोभा-यात्राएँ और जुलूस
दंगाई भी अपने लिए
राजनीति का राजमार्ग
तलाशते हैं
उनके कारण कभी नहीं काटे जाते पेड़
बल्कि खुद उन पर ही
जब तब
होता रहता है झाड़ियों का अतिक्रमण
लेकिन वे बनी रहती हैं
आने-जाने वाले हटाते रहते हैं काँटे
घास भी जगह छोड़कर
उगती है
इतिहास गवाह है
कि जब भी किसी ने किया महाभिनिष्क्रमण
उसे हमेशा एक पगडंडी मिली
जिस पर चला गया वह
जीवन और दुनिया के उत्स
तलाशने
इन पर खुरों के निशान होते हैं
और घंटियों की लुप्त हो रही
आवाज़ें
ये अफ्रीका के सबाना में मिल जायेंगी
ध्यान से देखेंगे तो मैक्सिको के वर्षा वनों में भी
दिख जायेंगी
किसी लुप्त होती मानव-जाति का पता
बताती
तिब्बत के दर्रों में होंगी
और सिंधु के किनारे भी
हमारे मुल्क में तो आधी जगहें ऐसी हैं
जहां आप जा ही नहीं सकते
उनके बिना
कहीं बर्फ ढांक लेगी इन्हें
कहीं रेत
लेकिन जहां भी जायेंगे मनुष्य
ये साथ ज़रूर जायेंगी
बचपन में
दादी से सुनी कहानियों पर यक़ीन करूँ तो
यही वे जादुई राहें होंगी
जो एक दिन
दुनिया भर में भटके हुए मनुष्यों को
उनके घर
वापस लायेंगी।
आरती
(प्रगतिशील वसुधा - अंक 72 में प्रकाशित)
अपने बचपन की शामों में
मैं मंदिर से निकलता
उसका प्रकाश देखता था
ढेर सारे अपरिचित-अर्द्धपरिचित लोगों का वह
दैनिक समूह-गान
समवेत स्वर में बजते घंटे-घड़ियाल
जिन्हें सुनकर
एक झुरझुरी सी होती थी
बहुत बाद में बंद हो गयी वह आरती
मंदिर में कोई संत आ विराजे
माइक पर वे अकेले ही गाते थे अपना बेसुरा गान
चेले कोशिश भर आवाज़ मिलाते थे
सुनते थे हाथ जोड़कर बैठे
धर्म-भीरू शुभाकांक्षी भक्तजन
पहले भी कुछ ख़ास नहीं था मंदिरों में
मेरे लिए
अब वह भी नहीं रहा
सोचता हूँ
कैसा विचित्र है यह दुख
जो मेरा कभी नहीं था
पर मैंने भी सहा !
इटारसी-भुसावल पैसिंजर
तालबेहट स्टेशन मध्य रेल्वे
(वागर्थ - अगस्त 2005 में प्रकाशित)
अभी रेल आएंगी एक के बाद एक
गुंजाती हुई आसपास की हरेक चीज़ को
अपनी रफ्तार के शोर से
आएंगी लेकिन रुकेंगी नहीं
इस जगह को बेमतलब बनाती हुई
पटरियों को झिंझोड़ती
चली जाएंगी
भारतीय रेल्वे की समय-सारणी तक में
अपना अस्तित्व न बचा पाने वाले
इस छोटे से स्टेशन पर
किसी भी रेल का रुकना एक घटना की तरह होगा
मुल्क की कुछ सबसे तेज़ गाड़ियां
गुज़रती हैं यहाँ
उन सबको राह देती
हर जगह रुकती
पिटती
थम-थमकर आएगी
झाँसी से आती
वाया इटारसी भुसावल को जाती
अपने-अपने छोटे-छोटे ग़रीब पड़ावों के बीच
कोशिश भर रफ्तार पकड़ती
हर लाल-पीले सिगनल को
शीश नवाती
पांच पुराने खंखड़ डिब्बों वाली
पैसिंजर गाड़ी
लोग भी होंगे चढ़ने-उतरने वाले
कंधों पर पेटी-बक्सा गट्ठर-बिस्तर लादे
आदमी-औरतें, बूढ़े और बच्चे
मेहनतकश
उन्हीं को डपटेगा
जी0आर0पी0 का अतुलित बलशाली
आत्ममुग्ध सिपाही
पकड़ेगा टी0सी0 भी
अपने गुदड़ों में जब कोई टिकट
ढूंढता रह जाएगा
;;;
उन्हें बहुत दूर नहीं जाना होता
जो चलते हैं पैसिंजर से
बस इस गांव से उस गांव
या फिर
कोई निकट का पड़ोसी शहर
उन्हें नहीं पता कि हमारे इस मुल्क में
कहां से आती हैं पटरियां
कहां तक जाती हैं?
गहरे नीले मैले-चीकट कपड़ों में उन्हें खटखटाते
क्या ढूंढते हैं
रेलवे के कुछेक बेहतर कर्तव्यशील कर्मचारी
वे नहीं जानते
पर देखते उन्हें कुछ भय और उत्सुकता से
अकसर
वे उनसे प्रभावित होते हैं
;;;
राजधानी के फर्स्ट ए0सी0 में बैठा बैंगलोर जाता यात्री
कभी नहीं जान पाएगा
कि वह जो खड़ी थी रुक कर राह देती उसकी रेल को
एक नामालूम स्टेशन पर
लोगों से भरी एक छोटी सी गाड़ी
उसमें बैठे लोग भी यात्री ही थे
दरअसल
उन्होंने ही करनी थीं जीवन की असली यात्राएं
बहुत दूर न जाते हुए भी
कोई मजूरी करने जाता था शहर को
कोई पास गांव से बिटिया विदा कराने
कोई जाता था बहन-बहनोई का झगड़ा निबटाने
बच्चे चूँकि बिना टिकट जा सकते थे इसलिए जाते थे हर कहीं
उनमें से अधिकांश की अपने स्कूल से
जीवन भर की छुट्टी थी
;;;
यह आज सुबह चली है
कल सुबह पहुँचेगी
बीच में मिलेगी वापस लौट रही अपनी बहन से
राह में ही कहीं रात भी होगी
लोग बदल जाएंगे
भाषा भी बदल जाएगी
थोड़ा-बहुत भूगोल भी बदलेगा
चाय के लिए पुकारती आवाज़ें वैसी ही रहेंगीं
वैसा ही रह-रहकर स्टेशन-स्टेशन शीश नवाना
खुद रुक कर
तेज़ भागती दुनिया को राह दिखाना
डिब्बे और भी जर्जर होते जाएंगे इसके
मुसाफिर कुछ और ग़रीब
दुनिया आती जाएगी क़रीब
और क़रीब
पर बढ़ते जाएंगे कुछ फासले
बहुत आसपास एक दूसरे चिपक कर बैठे होंगे लोग
लेकिन अकसर रह जाएंगे बिना मिले
रोशनी नीले कांच से छनकर
और हवा पाइपों से होकर आएगी
या फिर हर जगह
ऐसी ही खूब खुली
दिन में धूप और रात में तारों की टिमक से भरी
हवादार खिड़की होगी
अभी फैसला होना बाक़ी है यह
दुनिया आख़िर
कैसी होगी? किसकी होगी?
तसला
(प्रगतिशील वसुधा - अंक 72 में प्रकाशित)
वह मुझे धरती की तरह लगता है
जिसे उठाए
इतने सधे कदमों से चढ़ती-चली जाती हैं
बाँस के टट्टरों पर
कुछ साँवली और उदास औरतें
उसमें क्या नहीं समा जाता
एक बार तो अपने दुधमुँहे बच्चे को ही
उसमें लिटाए
चली जा रही थी एक औरत
तब वह उसके हृदय की तरह था
अच्छे से माँज धोकर आटा भी गूँधा जा सकता है
उसमें
उसी को उल्टा धर आग पर
सेंकी जा सकती हैं रोटियाँ
यह मैंने कल शाम देखा
उसमें औज़ारों की-सी चमक नहीं होती
कोई धार
कोई भारीपन नहीं
बहुत विनम्र होता है वह
औज़ारों में कभी गिना ही नहीं जाता
जबकि
उसी पर लदकर आती हैं इमारतें
जब वे ख़ालिस ईंट-गारा होती हैं
उन्हें ढोने वाली औरतें उन्हें ढोती रहती हैं
अविराम
चढ़ती जाती है ईट पर ईट
गारा भर-भर के उन्हें जोड़ना जारी रहता है
तब तसला
तसला नहीं रहता
एक पक्षी में बदल जाता है
एक काले और भारी पक्षी में
जिसे हम सिरों के ऊपर उड़ता हुआ देखते हैं
कभी अपनी कोई अधूरी इच्छा
ऐसे ही किसी तसले में रखकर देखिए
जैसे वे औरतें रखती हैं अपना बच्चा
या जैसे गुँधा हुआ आटा रख दिया जाता है
या फिर सुलगा ली जाती है जाड़ों की रात में कोई आग
उसी में धरकर
वो बच्चा
एक दिन बड़ा हो जायेगा
मेहनतकश बनेगा
अपने माँ-बाप की तरह
उस आटे की भी रोटियाँ सिंक जायेंगी
और उस बच्चे का पेट भरेंगी
और वह आग
वह तो तसले में ही नहीं
उस और उस जैसे कई बच्चों के
दिलों में जलेगी
जानना चाहते हैं
तो देखिए-
उस आग की रोशनी में देखिए
क्या आपकी इच्छाएँ भी
कभी फलेगी?
-2005-
जेब काटने वाली औरत
(प्रगतिशील वसुधा - अंक 72 में प्रकाशित)
मुझे बहुत हैरानी हुई यह जानकर
कि वह एक औरत थी
जिसने दस दिन पहले मेरी जेब काटी थी
बस अड्डे पर
रोडवेज़ की एक पुरानी जर्जर बस में
थाने से एक सिपाही ख़बर लाया
और साथ में मेरा ख़ाली बटुआ भी
जो भीतर की परतों में
मेरे पहचान-पत्र के बचे रहने से
पहचाना गया
कैसी होगी वह औरत
जो जेब काटती है सोचा मैंने
मुझे इसमें भी
सदैव सेवा को तत्पर पुलिस की
कोई शरारत लगी
पता नहीं किस फेर में
मैं थाने चला गया उस औरत को देखने
मेरी कल्पना को ध्वस्त करती
वह एक ख़ामोश लेकिन तेज़-तर्रार औरत थी
तीस-पैंतीस बरस की
सलीके का सलवार-कुर्ता पहने
उसे किसी बात का कोई भय नहीं था
पुलिस वाले
बार-बार रंडी कहकर पुकारते थे
उसे
और वह निर्विकार ताकती थी थानाध्यक्ष के पीछे लगी
अब तक साबुत बची
गाँधी जी की
लाठीधारी एक पुरानी तस्वीर को
उसके पास ऐसे बीस-पचीस बटुए निकले थे
साहब के कृपापात्र
तेज़ी-से अंदर-बाहर जाते एक अत्यंत गतिशील हवलदार ने
बतलाया मुझको
मुझे दिखाई दिए वे दृश्य
बसों के
जहाँ मजबूरी में लोलुप पुरुषों के बगलवाली सीट पर
बैठ जाने की इजाजत माँगती
और बैठ जाने के बाद लगातार कसमसाती रहती थीं
कुछ औरतें
यह भी उन्हीं में से होगी
शायद
अपनी ज़िन्दगी की लगातार विवशता में
जगह-जगह भटकते
इसने खुद ही ईजाद किया होगा
ऐसे हालात में
उन कामी पुरुषों और अपनी वंचित दुनिया को
अनायास ही जोड़ देने वाला
यह विचित्र और कारगर तरीका
मुझे याद आती हैं
घरों में पति की जेब से पैसे निकालती वे औरतें
जिनके पास
किसी एक जेब की विशिष्ट सुविधा है
यह भले ही मज़ाक लगे
पर उस एक जेब से ही तो चलता है संसार
उस औरत का
पूरी होती हैं ज़रूरतें
उसकी और बच्चों की
हमारे औसत भारतीय समाज में
उसी के वज़न से तो मापी जाती है
हैसियत
उसके आदमी की
इतने सारे लोगों की जेब काटती
उस औरत को देख
बहुत अंदर कहीं महसूस हुआ मुझे
क्या सचमुच इतनी जेबविहीन है उसकी ज़िन्दगी
दुनिया में
कहीं कोई जेब नहीं क्या
जिसमें वो झाँक सके
निस्संकोच
बिना अपराधी बने
मुझे नहीं मालूम उसका क्या हुआ
सिगरेट के गाढ़े धुएं के पीछे से
अनवरत देखते
थानाध्यक्ष के अर्धनिमीलित नेत्रों ने
उसके बारे में
आख़िर क्या फैसला लिया?
मुझे नहीं पता
मैं तो बस देख सका था
पुलिस की गालियों और अंदरूनी जाँच-पड़ताल के
आसन्न संकट से बेपरवाह
उस औरत को
जो अपने किए पर कतई शर्मिन्दा नहीं थी
मुझे लगता था
बेआवाज़
भीतर ही कहीं बदल रहा था हमारा संसार
हर दिन
कुछ और क्रूर होता हुआ
या फिर
अपने पतियों की जेब टटोलने की सुविधा से लैस
औरतों की दुनिया में
चुक गई थीं
उसकी ही सारी सम्भावनाएँ
और वंचना की सबसे करुण कथा को कहती
जेब काटते हुए भी
जैसे वह ज़िन्दा नहीं थी
क्या वाकई
वह अपने किए पर कतई
शर्मिन्दा नहीं थी?
2005
राहु
(वागर्थ - अप्रैल अंक में प्रकाशित)
वह क्या है?
खुद की मेहनत से पाए अमृत की चाह में
कलम किया हुआ
एक सर !
देवताओं के इस नए अहद में
उसका नाम
ईराक भी हो सकता है
2006
बेटे के साथ दुनिया
(वागर्थ - अप्रैल अंक में प्रकाशित)
उसे आए अभी पाँच ही बरस हुए हैं
और हम दोनों को बत्तीस
लेकिन हम उतनी नहीं दिखा पाते
दुनिया उसे
अकसर वही उठाता है उँगली
किसी भी परिचित या अनजान चीज़ की तरफ
कुछ ही समय पहले वह खड़ा हुआ था धरती पर
पहली बार
उसे बेहद कोमल और जीवन्त चीज़ की तरह इस्तेमाल करता हुआ
डगमगाते चलते थे उसके पाँव
जिन्हें अब वह जमा चुका
हमारी भाषा सीखने से पहले
उसने न जाने कितनी भाषाएँ बोली
हमें कुछ न समझता देख
खीझ कर
अकसर ही हाथ-पाँवों से समझायी
अपनी बात
वह रोया खूब चीख-चीखकर
और हँसा दुनिया की सबसे बेदाग हँसी
उसे चोट लगी तो दुनिया थम गई
पहली बार स्कूल गया तो हमने किया उसके लौटने तक
जीवन का सबसे लम्बा इन्तज़ार
बिस्तर पर उसे अपने बीच सोता देख पत्नी ने कई-कई बार कहा-
देखो तो
दरअसल हमने किया
कितना खूबसूरत प्यार!
हम सोच ही नहीं पाते
कि हम कभी उसके बिना भी थे
इस विपुला पृथ्वी पर
उसी के साथ तो हमारी दुनिया ने आकार लिया
उसके लिए बेहद जोश से भरे ये दिल
काँपते भी हैं कभी-कभी
आने वाली दुनिया में उसके किन्हीं अनजान
मुश्किल दिनों के बारे में
सोचकर
हम शायद कभी रचकर नहीं दे सकेंगे उसे
दुनिया अपने हिसाब की
निरापद और सुकून से भरी
अपने सफ़र तो वही तय करेगा
और एक दिन हमारे बाद
अपने साथ
बेहद चुपचाप
हमारी भी दुनिया रचेगा
फिलहाल तो बैठा दिखाई देता है
बिलानागा
पिता की पसन्दीदा कुर्सी पर
कुछ गुनगुनाता
घर के उस इकलौते तानाशाह को
अपदस्थ करता हुआ!
टीकाराम पोखरियाल की वसन्तकथा
(नया ज्ञानोदय - मई युवा पीढ़ी अंक में प्रकाशित)
उस दूरस्थ पहाड़ी इलाके में कँपकँपाती सर्दियों के बाद
आते वसन्त में खुलते थे स्कूल
जब धरती पर साफ सुनाई दे जाती थी
कुदरत के कदमों की आवाज़
गाँव-गाँव से उमड़ते आते
संगी
साथी
यार
सुदीर्घ शीतावकाश से उकताए
अपनी उसी छोटी-सी व्यस्त दुनिया को तलाशते
9 किलोमीटर दूर से आता था टीकाराम पोखरियाल
आया जब इस बार तो हर बार से अलग
उसकी आंखों में
जैसे पहली बार जागने का
प्रकाश था
सत्रह की उमर में
अपनी असम्भव-सी तीस वर्षीया प्रेयसी के वैभव में डूबा-डूबा
वह किसी और ही लोक की कहानियाँ लेकर आया था
हमारे खेलकूद
और स्थानीय स्तर पर दादागिरी स्थापित करने के उन थोड़े से
अनमोल दिनों में
यह हमारे संसार में सपनों की आमद थी
हमारी दुबली-पतली देहों में उफनती दूसरी किसी ज्यादा मजबूत और पकी हुई
देह के
हमलावर सपनों की आमद
घेरकर सुनते उसे हम जैसे आपे में नहीं थे
उन्हीं दिनों हममें से ज्यादातर ने पहली बार घुटवाई थी
अपनी वह पहली-पहली
सुकोमल
भूरी रोयेंदार दाढ़ी
बारहवीं में पढ़ता
हमारा पूरा गिरोह अचानक ही कतराने लगा था
बड़े-बुजुर्गों के राह में मिल जाने से
जब एक बेलगाम छिछोरेपन और ढेर सारी खिलखिलाहट के बीच
जबरदस्ती ओढ़नी पड़ जाती थी
विद्यार्थीनुमा गम्भीरता
सबसे ज्यादा उपेक्षित थीं तो हमारी कक्षा की वे दो अनमोल लड़कियाँ
जिनके हाथों से अचानक ही निकल गया था
हमारी लालसाओं का वह ककड़ी-सा कच्चा आलम्बन
जिसके सहारे वे आतीं थीं हर रोज
अपनी नई-नई खूबसूरत दुनिया पर सान चढ़ातीं
अब हमें उनमें कोई दिलचस्पी नहीं थी
टीका हमें दूसरी ही राह दिखाता था जो ज्यादा प्रशस्त और रोमांच से भरी थी
हम आकुल थे जानने को उस स्त्री के बारे में
जो दिव्य थी
दुनियावी तिलिस्म से भरी
बहुत खुली हुई लगभग नग्न भाषा में भी रह जाता था
जिसके बारे में
कुछ न कुछ अनबूझा - अनजाना
टीका के जीवन में पहली बार आया था वसन्त इतने सारे फूलों के साथ
और हम सब भी सुन सकते थे उसके इस आगमन की
उन्मादित पदचाप
लेकिन अपने पूरे उभार तक आकर भी आने वाले मौसमों के लिए
धरती की भीतरी परतों में कुछ न कुछ सहेजकर
एक दिन उतर ही जाता है
वसन्त
उस बरस भी वह उतरा हमारे आगे एक नया आकाश खोलते हुए
जिसमें तैरते रुई जैसे सम्मोहक बादलों के पार
हमारे जीवन का सूर्य अपनी पूरी आग के साथ तमतमाता था
अब हमें उन्हीं धूप भरी राहों पर जाना था
टीका भी गया एक दिन ऐसे ही
उस उतरते वसन्त में
लैंसडाउन छावनी की भरती में अपनी किस्मत आजमाने
कड़क पहाड़ी हाथ-पाँव वाला वह नौजवान
लौटा एक अजीब-सी अपरिचित प्रौढ़ मुस्कान के साथ
हम सबमें सबसे पहले उसी ने विदा ली
उसकी वह वसन्तकथा मँडरायी कुछ समय तक
बाद के मौसमों पर भी
किसी रहस्यमय साये-सी
फिर धूमिल होती गई
हम सोचने लगे
फिर से उन्हीं दो लड़कियों के बारे में
और सच कहें तो अब हमारे पास उतना भी वक्त नहीं था
हम दाखिल हो रहे थे एक के बाद एक
अपने जीवन की निजता में
छूट रहे थे हमारे गाँव
आगे की पढ़ाई-लिखाई के वास्ते हमें दूर-दूर तक जाना था
और कई तो टीका की ही तरह
फौज में जाने को आतुर थे
यों हम दूर होते गए
आपस में खोज-ख़बर लेना भी धीरे-धीरे कम होता गया
अपने जीवन में पन्द्रह साल और जुड़ जाने के बाद
आज सोचता हँ मैं
कि उस वसन्तकथा में हमने जो जाना वह तो हमारा पक्ष था
दरअसल वही तो हम जानना चाहते थे
उस समय और उस उमर में
हमने कभी नहीं जाना उस औरत का पक्ष जो हमारे लिए
एक नया संसार बनकर आयी थी
क्या टीकाराम पोखरियाल की वसन्तकथा का
कोई समानान्तर पक्ष भी था ?
उस औरत के वसन्त को किसने देखा ?
क्या वह कभी आया भी
उस परित्यक्ता के जीवन में जो कुलटा कहलाती लौट आयी थी
अपने पुंसत्वहीन पति के घर से
देह की खोज में लगे बटमारों और घाघ कोतवालों से
किसी तरह बचते हुए उसने
खुद को
एक अनुभवहीन साफदिल किशोर के आगे
समर्पित किया
क्या टीका सचमुच उसके जीवन में पहला वसन्त था
जो टिक सका बस कुछ ही देर
पहाड़ी ढलानों पर लगातार फिसलते पाँवों-सा ?
पन्द्रह बरस बाद अभी गाँव जाने पर
जाना मैंने कि टीका ने बसाया हम सबकी ही तरह
अपना घरबार
बच्चे हुए चार
दो मर गए प्रसूति के दौरान
बचे हुए दो दस और बारह के हैं
कुछ ही समय में वह लौट आयेगा
पेंशन पर
फौज में अपनी तयशुदा न्यूनतम सेवा के बाद
कहलायेगा
रिटायर्ड सूबेदार
वह स्त्री भी बाद तक रही टीका के गाँव में
कुछ साल उसने भी उसका बसता घरबार देखा
फिर चली गई दिल्ली
गाँव की किसी नवविवाहिता नौकरीपेशा वधू के साथ
चौका-बरतन-कपड़े निबटाने
उसका बसता घरबार निभाने
यह क्या कर रहा हँ मैं ?
अपराध है भंग करना उस परम गोपनीयता को
जिसकी कसम टीका ने हम सबसे उस कथा को कहने से पहले ली थी
उससे भी ली थी उसकी प्रेयसी ने
पर वह निभा नहीं पाया
और न मैं
इस नई सहस्त्राब्दी और नए समय के पतझड़ में करता हूँ याद
पन्द्रह बरस पुराना
जीवन की पहली हरी कोंपलों वाला
वह छोटा-सा वसन्तकाल
जिसमें उतना ही छोटा वह सहजीवन टीका और उसकी दुस्साहसी प्रेयसी का
आपस में बाँटता कुछ दुर्लभ और आदिम पल
उसी प्रेम के
जिसके बारे में अभी पढ़ा अपने प्रिय कवि वीरेन डंगवाल का
यह कथन कि ' वह तुझे खुश और तबाह करेगा! '
स्मृतियों के कोलाहल में घिरा लगभग बुदबुदाते हुए
मैं बस इतना ही कहूँगा
बड़े भाई !
जीवन अगर फला तो इसी तबाही के बीच ही कहीं फलेगा
2006
रचनाकार संपर्क -
शिरीष कुमार मौर्य, अलका होटल से ऊपर, गाँधी चौक, रानीखेत -263 645 (उत्तराखंड)
Phone- 09412963674, e-mail : shirish.mourya@rediffmail.com
Tag शिरीष कुमार मौर्य,कविता,रचनाकार,हिन्दी
शिरीष भाई की पगडंडियां हमारे बाप-दादाओं के पैर के ज़ख़्मों को सहलाती है.यह भी अहसास करवाती है कि हमें कितनी आसानी से जीवन के राजमार्ग मिल गये हैं...ईमानदारी से लिखी गई कविता अवाम की आवाज़ होती है.लगता है अरे ये तो हमारे या हमारे अग्रजों के लिये ही तो कहा जा रहा है.जीवन में पगडंडियों का क्या मोल है और वे कितनी अनमोल हैं हम सबके लिये ....इस बात का बेबाक बयान है शिरीष भाई आपकी कविता.
जवाब देंहटाएंसाधुवाद ...अ सं ख्य.