कुंकणा बोली के लोक-गीत

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आलेख ...


आलेख - डॉ. उत्तम पटेल

कुंकणा जाति दक्षिणी गुजरात की एक महत्त्वपूर्ण जनजाति है। ये लोग महाराष्ट्र के कोंकण प्रांत से गुजरात में आये थे, ऐसा माना जाता है। कोंकण प्रदेश से आये होने के कारण इन्हें कुंकणा तथा इनकी बोली को कुंकणा बोली कहते हैं।

एक अन्य मत के अनुसार- जुना जमानामां जे लोक दरेन मेरला रहत तेहला दरेन मेर रहनार इसां आखाय जहतां। दरेन मेर रहनेल लोकां माटे फारसीमां कोंकणा आखायता। ते वरहुन आपणे लोकोनां नांव कुंकणा पडनेल आहा। अर्थात् प्राचीन समय में समुद्र किनारे रहनेवाले लोगों को कोंकणा कहा जाता था। फारसी भाषा में समुद्र के किनारे रहनेवालों को कोंकणा कहते हैं। उसी पर से अपनी जाति का नाम कुंकणा पड़ा हुआ है।

इस जनजाति के लोग धरमपुर, वांसदा, आहवा-डांग, कपराडा (गुजरात के दक्षिणी विस्तार) तथा महाराष्ट्र के नासिक, धूलिया तथा थाणे जिलों में रहते हैं। प्राचीन काल में नर्मदा के दक्षिणी तट से लेकर कोंकण प्रांत के क्षेत्र को अपरांत प्रांत कहा जाता था और इस प्रांत की उत्तरी सीमा दक्षिणी गुजरात के नवसारी क्षेत्र तक फैली हुई थी। इसलिए इस जनजाति को इस क्षेत्र की मूल निवासी (आदिवासी) मानी जाती है।

दक्षिणी गुजरात के कपराडा तालुका में रहनेवाले आदिवासियों का काम-धंधे, मजदूरी,लेन-देन आदि के संबंध में धरमपुर से अधिक जुड़ाव पेंठ-नासिक से है। और वैसे भी कपराडा-सुथारपाड़ा क्षेत्र भौगोलिक दृष्टि से नासिक से जुड़े हुए हैं। इस दृष्टि से भी गुजरात के इस सीमांत प्रदेश के लोगों का संबंध गुजराती भाषा से अधिक मराठी भाषा से है। यही कारण है कि इस बोली में मराठी भाषा के शब्दों की अधिकता है।

कुंकणा बोली लोक-साहित्य की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण बोली है। इसमें लोक-कथाओं, लोक-गीतों की मौखिक परंपरा आज भी जीवित है। जिसके संकलन के प्रयास जारी हैं। प्रस्तुत हैं इस बोली के लोक-गीत-

गाव झोपी गयात सारा, रातना वाजी गयात बारा

झोपडीमां चीमनी पेटीर नीय मालाग झोपन लागय...

झोपडीमां चीमनी पेटीर नीय मालाग...

पहले मूळानी पहली रात

गोष्ठी नवे-नवे रंगन्यात

आजु बाजु कोन सासयनीय मालाग झोपन लागय...

झोपडीमां चीमनी पेटीर नीय मालाग...

चांद उगी उनाय वर भारी उजाय पडना भार

ठंडा ठंडा वारा सासनीय मालाग झोपन लागय...

रात करय किर किर, रहु नको तु दुर दुर

गली म कुतरा भुकीय नय, मालाग झोपन लागये...

झोपडीमां चीमनी पेटीर नीय मालाग...

आता बोलाय नीईय रात, रही जाईर मुदानी वात

रहु नको घरमां सीसनीय मालाग झोपन लागय।

झोपडीमां चीमनी पेटीर नीय मालाग...

अनुवाद: गाँव सारा सो गया है, रात के बारह बज गये । झोंपड़ी में दिया जल रहा है। मुझे तो नींद आ रही है। झोंपड़ी में दिया जल रहा है।मुझे तो नींद आ रही है।शादी का पहला गौना, गौने की पहली रात, बात नये नये रंगों की (मन में नये नये भाव हैं- सुहाग रात के कारण)। आजु-बाजु से किसी प्रकार की आवाज नहीं आती (सब सो गये हैं)। मुझे तो नींद आ रही है। (पूनो का) चाँद चल-चलकर (आकाश में) उपर चढ़ गया है। चाँदनी फैली हुई है। शीतल शीतल बयार बह रही है। मुझे तो नींद आ रही है। रात्रि किरर... किरर... कर रही है। ( हे प्रियतम) तू मुझसे दूर दूर न रह। गली में कुत्ते भौंक रहे हैं। मुझे तो नींद आ रही है। झोंपड़ी में दिया जल रहा है। मुझे तो नींद आ रही है। अब तो रात बितने को है, मुद्दे (शारीरिक मिलन) की बात रह जायेगी । तू घर में ही क्यों छिपा रहता है (मेरे पास क्यों नहीं आता)। मुझे तो नींद आ रही है।

विशेषताएँ: 1. प्रस्तुत गीत में नई नवेली दुल्हन की मनोदशा का सुंदर चित्रण है। आदिवासियों में प्रथा है कि शादी के दिन तो दुल्हन के साथ उसकी सखी-सहेलियाँ भी उसके ससुराल जाती है। जो हमेशा उसके साथ ही रहेगी ताकि उसे ससुराल में अजनबीपन महसूस न हो। परिणाम उस रात दुल्हा अपनी सुहाग रात तो मन ही नहीं सकता। दूसरे दिन, अगर दूसरे दिन मुहूर्त अच्छा न हो तो एक-दो दिनों के बाद जब मुहूर्त अच्छा होगा उस दिन दुल्ही-पक्ष के लोग वहाँ आयेंगे और उसे अपने साथ ले जायेंगे। उसके बाद दो-तीन दिनों के बाद अच्छे मुहूर्त के दिन दुल्हा अपने किसी संबंधी या मित्र के साथ दुल्ही को गौना करने आयेगा। उस दिन दुल्ही ससुराल जायेगी। यह रात उसकी सुहाग रात होगी।

2. वह अपने पति की राह देख रही है। सब सो गये हैं, उसे भी नींद आने लगी है किन्तु सेज पर वह अकेली है। मन सपनों से भरा है। आज तो पति के तन-मन से मिलन होगा। घर में मद्धिम-मद्धिम दीपक जल रहा है। मध्य रात्रि हो चुकी है, चाँद भी मध्याकाश में पहुँच गया है, चाँदनी खिली है, शीतल बयार चल रही है किन्तु वह अकेली है। इसलिए वह मन ही मन पति से कहती है कि अब तो आ जाओ, नहीं तो यह रात बीत जायेगी।

दुल्हे के मन में जो संकोच है उसके परिणाम स्वरूप वह दुल्ही के पास नहीं जा रहा है। अथवा घर में कोई जाग तो नहीं रहा है? गांवों में गरीबी के कारण घर बड़े नहीं होते घर का अधिकतर हिस्सा खुला होता है। परिणाम नव विवाहित के लिए अलग कमरा नहीं होता। इसलिए सुहागरात के दिन घर के अन्य सदस्य जान-बूझकर बाहर सोयेंगे ताकि उन्हें पूरा मौका मिल सकें।

3. दुल्ही सयानी है और शायद दुल्हा नासमझ।

4. ग्राम्य-प्रकृति का सजीव व चित्रात्मक वर्णन इस गीत में है। साथ में गाँव की रात्रि का जीवंत वर्णन- चाँदनी रात, गाँव का सोना, शीतल बयार का बहना, घर में ढीबरी का जलना, गली में कुत्तों का भौंकना, रात्रि का किरर... किरर... बहना- दर्शनीय है।

5. प्रस्तुत गीत काव्यात्मक है। ग्रामीणों के कवि ह्रृदय की अनुभूत्यात्मक अभिव्यक्ति इसमें है। डॉ.नामवर सिंह के मतानुसार- साहित्य की भाषा में जो सृजनशीलता आती है वह लोकभाषा से आती है। क्योंकि लोकभाषा सृजनशील होती है, सृजनात्मक होती है। उसी से शक्ति लेकर साहित्य अपने रूढ घिसे प्रतीकों और रूपकों से मुक्त होती हुई सृजनशीलता की ओर अग्रसर होता है। ... क्योंकि लोकभाषा के निर्माण करनेवाले सृजनशील हैं, जो लोक है, जो मेहनत करनेवाला है, वही सृजनशील होता है। उत्पादन और सृजन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए जो सामाजिक मूल्यों, नैतिक मूल्यों और आर्थिक मूल्यों का निर्माता है, वही सौंदर्य के मूल्यों का, कला के मूल्यों का, साहित्य के मूल्यों का निर्माता है।(आलोचक के मुख से, पृ.23)

केम्ब चे पाहेंखलहुन साले

निघले सात नयी,

साले निघले सात नयी।

निघले सात नयीव साले (2)

चालले झरा झरी,

साले चालले झरा झरी।

चालले झराझरीव साले,

चालले झरा झरी,

साले चालले झरा झरी।

केम्ब चे ...

पार नार दोनही नयी,

भेगुवर भेगे झाले,

साले भेगुवर भेगे झाले।

भेगुवर भेगे झालेव साले,

भेगु त कीगळली,

साले भेगु त कीगळली।

केम्ब चे ...

भेगु त कीगळली व साले,

तुगलेनी जबान दिलह,

साले तुंगलेनी जबान दिलह।

बायको वरहुन कायव जासी,

मरदा वरहुन ये,

साले मरदा वरहुन ये।

केम्ब चे ...

जसी च हलपन टाक व साले,

तसा च तूगला वाढ,

जराक नमता पड रे पाठी चे भावा,

निरुगडी संयदान टाकुं दे।

केम्ब चे ...

जराक नमता पड रे पाठी चे भावा,

वाळहोंट संयदान टाकुं दे,

माल वाळहोंठ संयदान टाकुं दे।

जराक नमता पड रे पाठी चे भावा,

मांछी संयदान टाकुं दे,

माल मांछी संयदान टाकुं दे।

केम्ब चे ...

जराक नमता पड रे पाठी चे भावा,

फोंफेड संयदान टाकुं दे,

माल फोंफेड संयदान टाकुं दे।

जराक नमता पड रे पाठी चे भावा,

छिंपे संयदान टाकुं दे,

माल छिंपे संयदान टाकुं दे।

केम्ब चे ...

जराक नमता पड रे पाठी चे भावा,

फेदरा संयदान टाकुं दे,

माल फेदरा संयदान टाकुं दे।

जराक नमता पड रे पाठी चे भावा,

दिंवडां संयदान टाकुं दे,

माल दिंवडां संयदान टाकुं दे।

केम्ब चे ...

जराक नमता पड रे पाठी चे भावा,

सेनोरी संयदान टाकुं दे,

माल सेनोरी संयदान टाकुं दे।

केम्ब चे पाहेंखलहुन साले

निघले सात नयी,

साले निघले सात नयी।

निघले सात नयीव साले,

चालले झरा झरी,

साले चालले झरा झरी।

चालले झरा झरीव साले,

दरे चे दिपाखलहुन,

साले दरे चे दिपाखलहुन।

केम्ब चे पाहेंखलहुन साले

निघले सात नयी,

साले निघले सात नयी।

अनुवाद: ( एक सखी दूसरी से कहती है ) - केम्ब नामक पहाड़ की तलहटी से सात नदियाँ - पार, नार, कोलक, तान, मान, पथरी और दमणगंगा - निकली हैं। इनमें पार व नार नदियाँ साथ-साथ बहतीं हैं। इनके मार्ग में दो पर्वत भेगु और तुगला पड़ते हैं। पार ने पहले भेगु पर चढ़ने की कोशिश की। किन्तु भेगु पहाड़ ने नारी जाति के होने के कारण पुकार मचा दी। जो तुगला पहाड़ ने सुनी। उसने पार से कहा कि तुम नारी पर से जाने का प्रयत्न क्यों कर रही हो? तुम्हें जाना ही है तो मुझ (मर्द) पर से क्यों नहीं जातीं। और पार तुगला पर चढ़ने का प्रयत्न करती है। किन्तु तुगला समुद्रकी लहरों के समान ऊँचा होता जाता है। परिणाम वह चढ़ नहीं पाती। अत: वह पहाड़ से बिनती करती है कि हे मेरे छोटे भाई ! थोड़ा तो झुक ताकि मैं ऊपर चढ़ सकूँ। पहाड़ थोड़ा झुकता है और पार नदी उस पर से बहने लगती है। वह चाहती है कि उसके निशान पहाड़ पर हमेशा बने रहे। अत: बहते-बहते वह तुगला पहाड़ पर पेड़, रेत, मछली, फोफडे (मछली की तरह का एक जीव), शंख, नील (पानी के ऊपर उगने वाली एक वनस्पति), साँप (पानी में रहनेवाले), सेनोरी (नदी तट में रेत में उगने वाली एक वनस्पति) आदि छोड़कर समुद्र से मिलने चल पड़ती है।

विशेषताएँ:

1. प्रस्तुत गीत विवाह-गीत है। यह वारली समाज का लोकप्रिय गीत है क्योंकि इसमें पार व नार नदियों तथा भेगु व तुगला पहाड़ों का वर्णन है। धरमपुर से दक्षिण-पूर्व में लगभग 15 कि. मी. की दूरी पर धामणी नामक जंगल है। धामणी और उसके पास के गाँव वेरी भवाडा की सीमा पर नार नदी पार में समा जाती है।

2. मान्यता है कि महाराष्ट्र के केम्ब नामक पहाड़ से सात नदियाँ निकलीं, जिनमें पार व नार के अतिरिक्त अन्य पाँच नदियाँ हैं। ये सब पश्चिम की ओर बहती हैं। आगे जाकर धामणी और वेरी भवाडा के पास पार और नार एक हो जाती हैं। ऐसी मान्यता है कि वर्षा के मौसम में बाढ़ आने पर पार या नार एक-दूसरे की राह देखती हैं और दोनों में से कोई एक धीरे आ रही हो तो दूसरी बिना उसे मिले आगे नहीं बढ़ती। अर्थात् अगर पार धामणी तक बहते-बहते आ गई हो तो जहाँ तक नार बहते-बहते धामणी तक नहीं आयेगी, पार उसकी राह देखती रुकी रहेगी। और नार के आने के बाद ही दोनों मिलकर आगे बहेगी। और अगर इनमें से कोई एक नदी दूसरी की, बिना राह देखे ही आगे बढ़ जाय, तो मान्यता है कि वह साल अच्छा नहीं जाता अर्थात् उस साल अतिवृष्टि होगी या अकाल पडेगा या महामारी फैलेगी।

लोगों का ऐसा भी मानना है कि पार नदी भेगु पहाड़ को तोड़कर कपराड़ा (वलसाड़ जिले का एक तालुका। यह धरमपुर ही का विस्तार था। तब धरमपुर एशिया का सबसे बड़ा तालुका था। कुछ साल हुए कपराड़ा को तालुके का दर्जा दिया गया है।) से होकर आगे कोलक नदी को मिलने वाली थी। (कोलक केम्ब से ही निकली थी किन्तु उसका स्वरूप अंत:सलिला का था। इसका स्रोत आज के कपराडा तालुका के कोलवेरा गाँव में स्थित एक पहाड़ में रहनेवाले चूहों के बिल से फूटा था। चूहे को ये लोग कोळवो कहते हैं। कोळवे के बिल से निकली होने के कारण इस नदी का नाम कोळब पडा। पहाड़ का नाम भी यही पड़ा। कोळब शब्द प्रयत्न-लाघव के कारण कोलक में परिवर्तित हो गया।) किन्तु जब पार ने भेगु पर से जाने का प्रयत्न किया तो उसने चीख-पुकार मचा दी। यह पुकार तुगला नामक पहाड़ ने सुनी और उसने पार से कहा कि भेगु तो तेरी ही जाति का है। अगर तुझे जाना ही है तो मुझ पर से होकर जा। और पार तुगला की ओर बढ़ने लगी। तुगला के पास जाकर उसने उस पर चढ़ना शुरू किया। जैसे-जैसे वह आगे बढ़ती तुगला भी ऊपर उठता जाता। पार बार-बार प्रयत्न करने पर भी तुगला पर नहीं चढ़ पाई। अंतत: पराजय स्वीकार कर, पहाड़ को भाई! कहकर उसने बिनती की कि भाई! थोड़ा झुक जाओ, ताकि मैं कुछ निशान तो छोड़ जाऊँ। तब तुगला झुका और पार नदी निशान छोड़कर आगे जाकर समुद्र में समा गई। आज भी तुगला पहाड़ पर पार के निशान देखने मिलते हैं।

3. पहाड़ी विस्तार में रहनेवाले आदिवासियों का नदी, पहाड़ आदि प्राकृतिक तत्वों से कितना प्रगाढ़ संबंध है, वह इस गीत में दर्शनीय है।

4. भाई-बहन के संबंध की प्रगाढ़ता इसमें दर्शनीय है। पार द्वारा तुगला को छोटा भाई कहने पर वह झुक जाता है। पुरुष का अहम् भाई शब्द सुनकर कैसे विगलित हो जाता है !

5. पार और नार का यह गीत गाने वाले इन आदिवासियों में गजब की एकता है। वे भी इन नदियों की तरह साथी की राह देखकर साथ में ही आगे बढ़ते हैं।

रचनाकार परिचय - डॉ. उत्तम पटेल,

अध्यक्ष, हिंदी विभाग, वनराज कॉलेज,

धरमपुर-396 050, जि.वलसाड, गुजरात

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COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. उत्तम पटेल जी,
    पहले तो घर की यह छवि देखकर ही मजा आ गया। ऐसी झोपड़ी पर करोड़ों महलों को वारूं।

    फिर इस बोली के बारे में जानकारी अच्छी लगी। और बोली की मिठास- क्या कहने? और गीत के भाव? अति सुन्दर।

    अन्तरजाल नहीं होता तो शायद ऐसी चीज नहीं मिलती। साधुवाद!

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  2. बेनामी11:00 pm

    अनुनाद सिंह जी, घर की छवि रवि जी पसंद है, अतः वे साधुवाद के अधिकारी हैं। मेरे पास आदिवासी जीवन से जुड़े बहुत सारे फोटो हैं, किन्तु मैं दे नहीं पाया। सधन्य़वाद।
    - उत्तम पटेल

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रचनाकार: कुंकणा बोली के लोक-गीत
कुंकणा बोली के लोक-गीत
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