कहानी इंटेलैक्चुअल - डॉ 0 मधु संधु "अनिरुद्ध !" "यस सर" "क्या कर रहे थे ?" "कहिए सर" ...
कहानी
इंटेलैक्चुअल
- डॉ0 मधु संधु
"अनिरुद्ध !"
"यस सर"
"क्या कर रहे थे ?"
"कहिए सर"
"विभागीय पुस्तकालय तक जाना"
"यस सर"
"वहां से 'रिफयूज़ी एण्ड पोलिटिक्स' पर मनीष सारावगी का थीसिस अपने नाम इशू करवा लेना"
"यस सर"
"घर पहुँचा आना मैं आज बंगाल सिविल सर्विसिज की सलेक्शन पर जा रहा हूँ परसों मुझे मिनिस्टरी ऑफ इंडिया की एक मीटिंग में जाना है बृहस्पति को लौटूंगा"
बृहस्पति को अनिरुद्ध स्वयं ही आ धमकता है.
"कब लौटे सर ?"
"बस, रात को ही आ गया था अच्छा ! तुम ऐसे करो, यह थीसिस ले जाओ इसका तृतीय अध्याय टाइपिस्ट से कहो डेढ़ दो घंटे में टाइप कर दे"
"ऊपर का शीर्षक यह रहा, यहाँ मेरा नाम, यह मेरा सम्पर्क. उसे कहना कि इस अध्याय का कोई शीर्षक या उपशीर्षक टाइप न करें, सिर्फ गद्यांश ही बदलें"
"सर ! वे तो आज विभागीय एजेंडा टाइप कर रहे हैं। बहुत व्यस्त है"
"कोई बात नहीं, वह इन्कार नहीं कर सकता उसके कई काम करवाता रहता हूँ"
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"लिंक पत्रिका ने 'भूमण्डलीकरण का विश्व राजनीति पर प्रभाव' के तीन अंक निकाले हैं
पुस्तकालय से लेते आना"
"सर !"
"कल मेरा रिफरैशर में भूमण्डलीकरण को लेकर लेक्चर है"
और फिर कभी न खत्म होने वाला सिलसिला.
"फ्रिज का ट्रांसफारमर खराब हो गया है"
"टी0 वी0 की पिक्चर के कलर ठीक नहीं आ रहे"
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"अनिरुद्ध ! चार सौ पचपन पेपर आए हैं, दस दिन में वापिस करने हैं. देखकर चेकिंग असिस्टैंट की जगह साइन कर देना"
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"अनिरुद्ध ! यह दो पेपर सैट करने हैं 'बुक्स लवर' से मेरा नाम लेकर तीन चार सहायक पुस्तकें लेकर सेट कर देना"
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"अनिरुद्ध ! यह पी एच0 -डी0 के थीसिस की मास्टर रिपोर्ट है इसमें इस थीसिस का नाम भरकर टाइप करवा देना।"
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"अगले सप्ताह पटना विश्वविद्यालय में लेक्चर है। 'रिसर्च' पत्रिका का मई 2006 का अंक ले आना. उसमें उत्तर भारत की पटियाला यूनिवर्सिटी के किसी प्रो0 का एक अच्छा आर्टिकल है दिल्ली से कलकत्ता की फ़्लाइट पर मैंने रास्ते में देखा था उसे शीर्षक और लेखक के नाम पर सफेद पेपर रख या फ़्लूइड लगाकर फोटोस्टेट करवा लाना"
सर की वाणी में जोश और आत्मविश्वास है। उन्हें हर बात को अपना बनाकर कहना आता है हर पंक्ति के साथ जोड़ देते हैं- मैं तो कहता हूँ, मेरी अवधारणा है, मुझे तो लगता है, मैंने देखा है, मेरे विचार में, मैं मानता हूँ.
सर जी तोड़ मेहनत इसलिए नहीं करते कि उनमें मज़दूरों के संस्कार नहीं हैं लेकिन वे आलसी भी नहीं हैं कर्मठ एवं उद्योगी पुरुष हैं, भले ही उनकी कर्मठता की लाइन भिन्न है वे आठ-नौ घण्टे की गहरी नींद लेते हैं। सुबह-8शाम सैर को जाते हैं जमकर पीते और गपियाते हैं अपनी और परिवार की सुख-समृद्धि एवं मित्रों की उन्नति में जुटे रहते हैं बहुत पहले ही उन्होंने जान लिया था कि विश्व विद्यालयीन शिक्षा जगत में परिश्रम का कोई महत्व नहीं शोध करने वाले वर्षों लगे रहते हैं। ये आत्मकेंद्रित अध्यापक प्राध्यापक इस गलत फहमी से जूझते रहते हैं कि उन्होंने सोलह साल में चालीस पेपर लिख लिए या उनकी छह किताबें प्रकाशित हो गई उन्हें हर समय इस या उस काम का तनाव रहता है जबकि सच्चाई यह है कि इन विश्वविद्यालयों में उन आचार्यों का प्रभुत्व रहता है, जो एक ओर भिन्न पत्रा-पत्रिकाओं के सम्पर्क में रहते हैं और दूसरी ओर रोज रात को सम्पादकों प्रकाशकों से दो घण्टे चुटीली भाषा में बतियाते हैं.
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अनिरुद्ध को लगता कि कहीं वह डिप्रैशन में तो नहीं चला जाएगा इतने बड़े देश में उसके लिए कहीं कोई नौकरी नहीं, कोई धंधा नहीं, रोटी-रोजी का कोई बंदोबस्त नहीं , जीने का कोई आर्थिक आधार नहीं पिछले एक वर्ष से वह पाकेट से पैसे खर्च करके चाकरी कर रहा है अंदर के खाते से पता चला कि सर का रेट भले ही उसकी पाकेट से बाहर हो, पर सर वायदे के पक्के हैं वे किश्तों में नहीं लेते पीएच0 डी0 के बीस, कच्ची नौकरी के दस, पक्की नौकरी के तीस अगर कोई साल दो साल सर के पर्सनल काम कर दे तो उसे रिडक्शन भी मिल सकता है पर हिम्मत जवाब दे चुकी थी उन दिनों सर सिलीगुड़ी के फ्लैट की चर्चा किया करते थे जब तक माँ थी, गांव के घर का मतलब था न उसे वहां रहना था, न जाना था औने-पौने यानी पच्यासी हजार का घर बेच उसने पचास हजार का सर की ओर से ड्राफ़्ट बनवा उन्हें गदगद कर दिया और साथ ही सर के आशीर्वादों की पिटारी खुल गई.
"अनिरुद्ध! यह रही तुम्हारी अनुक्रमणिका"
यानी चार पंक्तियों के चार अध्याय- कोई उपशीर्षक नहीं.
"नोट करो -
प्रथम अध्याय-
1979 में सबमिट डॉ0 पुरी के थीसिस के पृ0से पृ0 तक टाइप करवा लो
द्वितीय अध्याय-
डॉ0 चैटर्जी ने अभी-अभी एक छात्रा को पी0 एच0 डी0 करवाई है उससे देखने के लिए सी0 डी0 ले लो और चौथा अध्याय अपनी हार्ड डिस्क में डाउनलोड कर लो"
"सर"
"अरे ! करोड़ों रुपए की फिल्में बनती हैं और उनके रिलीज़ होने से पहले ही उनकी सी0 डी0 चोरी हो जाती है यह तो माइनर बात है"
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तृतीय अध्याय-
विभागाध्यक्ष के पच्चीस वर्ष पुराने थीसिस का अन्तिम अध्याय
चतुर्थ अध्याय
और तो और प्रीफेस, एपीलॉग, सहायक ग्रंथ सूची, कृतज्ञता ज्ञापन, मौलिकता संबंधी सर्टिफिकेटों की तो वे सी0 डी0 ही पकड़ा देते हैं.
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देखते-देखते थीसिस सबमिट होता है वायवा होता है डिग्री मिलती है और इसी बीच पन्द्रह हजार में सर दो पुस्तकें भी छपवा देते हैं नौकरी भी सीधी प्रोबेशन पर मिलती है समय आराम से कटने लगता है.
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इसी बीच पता नहीं कैसे विभागाध्यक्ष को पता चल गया और सब गड़बड़ा गया लेकिन ऐसी भी आफत आ सकती है, यह तो अनिरुद्ध ने कभी सोचा भी न था जिसे गॉड फादर बना खरीदा था, वही साथ छोड़ गया होश तो उस दिन आया जिस दिन एक ओर विभागाध्यक्ष द्वारा वकील के जरिए नोटिस मिला और दूसरी ओर उसे प्रोबेशन की नौकरी पर कन्फर्म करने की बजाय टर्मिनेट कर दिया गया और तीसरी ओर पता चला कि जिस दलाल ने उससे पचासी हजार का मकान खरीदा था, उसने उसे पेंट करवाकर पौने तीन लाख में बेच दिया.
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रचनाकार संपर्क -
प्रो0 डॉ0 मधु सन्धु ,
बी-14, गुरुनानक देव विश्वविद्यालय,
अमृतसर-143005, पंजाब
Tag मधु संधु,कहानी,इंटेलैक्चुअल,रचनाकार
रवि जी,आज के सच को उजागर करती ये कहानी पढ कर लगा जैसे कोई हमारे आस-पास घटनें वाली घट्ना का आँखों देखा हाल ब्यान कर रहा हॊ।आज के समाज का आईना दिखाने के लिए धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंरविजी, यह कहानी नहीं हकीकत है । फर्क केवल यह है कि इसके अन्त जैसा अन्त बहुत कम अनिरूध्दों को होता है । सारे के सारे अनिरूध्द एकजुट हो गए हैं । शिकायत करे तो कौन करे । सब के सब एक ही हमाम के नंगे जो हैं । इसके अन्त से तसल्ली मिली । बुरे काम का बुरा नतीजा ।
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