संकलन व प्रस्तुति : - विष्णु बैरागी कुछ शेर (राहत इन्दौरी) तूफ़ानों से आँख मिलाओ, सैलाबों पर वार करो मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर के द...
- विष्णु बैरागी
कुछ शेर (राहत इन्दौरी)
तूफ़ानों से आँख मिलाओ, सैलाबों पर वार करो
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर के दरिया पार करो
फूलों की दुकानें खोलो, खुशबू का व्यापार करो
इश्क खता है तो, ये खता एक बार नहीं, सौ बार करो
किसने दस्तक दी, दिल पे, ये कौन है
आप तो अन्दर हैं, बाहर कौन है
कभी दिमाग, कभी दिल, कभी जिगर में रहो
ये सब तुम्हारे ही घर हैं, किसी भी घर में रहो
जुबां तो खोल, नजर तो मिला, जवाब तो दे
मैं कितनी बार लुटा हूँ, हिसाब तो दे
तेरे बदन की लिखावट में है उतार चढ़ाव
मैं तुझको कैसे पढ़ूं, मुझे किताब तो दे
ये हादसा तो किसी दिन गुजरने वाला था
मैं बच भी जाता तो एक रोज मरने वाला था
मेरा नसीब, मेरे हाथ कट गए वरना
मैं तेरी माँग में सिन्दूर भरने वाला था
जाके कोई कह दे, शोलों से, चिंगारी से
फूल इस बार खिले हैं, बड़ी तैयारी से
बादशाहों से भी फेंके हुए सिक्के न लिए
हमने खैरात भी मांगी है तो खुद्दारी से
शेर (हुल्लड़ मुरादाबादी)
मिल रहा था भीख में, सिक्का मुझे सम्मान का
मैं नहीं तैयार था, झुक कर उठाने के लिए
ग़ज़ल (राहत इन्दौरी)
आज हम दोनों को फुरसत है, चलो इश्क करें
इश्क दोनों की जरूरत है, चलो इश्क करें
इसमें नुकसान का खतरा ही नहीं रहता है
ये मुनाफ़े की तिजारत है, चलो इश्क करें
आप हिन्दू, मैं मुसलमाँ, ये ईसाई, वो सिख
यार छोड़ो ये सियासत है, चलो इश्क करें
ग़ज़ल (राहत इन्दौरी)
अंगुलियां यूँ न सब पर उठाया करो
खर्च करने से पहले कमाया करो
जिन्दगी क्या है, खुद ही समझ जाओगे
बारिशों में पतंगें उड़ाया करो
शाम के बाद जब तुम सहर देख लो
कुछ फ़कीरों को खाना खिलाया करो
दोस्तों से मुलाकात के नाम पर
नीम की पत्तियाँ चबाया करो
चाँद-सूरज कहाँ, अपनी मंजिल कहाँ
ऐसे वैसों को, मुँह न लगाया करो
घर उसी का सही, तुम भी हकदार हो
रोज आया करो, रोज जाया करो
ग़ज़ल (राहत इन्दौरी)
रोज तारों की नुमाइश में खलल पड़ता है
चाँद पागल है, अंधेरे में निकल पड़ता है
उसकी याद आई, साँसों जरा आहिस्ता चलो
धड़कनों से भी इबादत में खलल पड़ता है
समन्दरों के सफर में हवा चलाता है
जहाज खुद नहीं चलता, खुदा चलाता है
तुझको खबर नहीं, मेले में घूमने वाले
तेरी दूकान कोई दूसरा चलाता है
ये लोग पाँव नहीं, जहन से चलते हैं
उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है
ग़ज़ल (राहत इन्दौरी)
बीमार को मरज की दवा देनी चाहिए
मैं पीना चाहता हूँ, पिला देनी चाहिए
अल्लाह बरकतों से नवाजेगा इश्क में
है जितनी पूंजी पास, लगा देनी चाहिए
मैं ताज हूँ तो, ताज को सर पर संवारें लोग
मैं खाक हूँ तो खाक उड़ा देनी चाहिए
ग़ज़ल (राहत इन्दौरी)
उसकी कत्थई आँखों में है, जन्तर-मन्तर सब
चाकू-वाकू, छुरियाँ-वुरियाँ, खंजर-वंजर सब
जिस दिन से तुम रूठी, मुझसे रूठे-रूठे हैं
चादर-वादर, तकिया-वकिया, बिस्तर-विस्तर सब
मुझसे बिछड़ कर वो कहाँ पहले जैसी है
ढीले पड़ गए कपड़े-वपड़े, जेवर-वेवर सब
आखिर मैं किस दिन डूबूँगा, फिकरें करते हैं
दरिया-वरिया, कश्ती-वश्ती, लंगर-वंगर सब
किसी अनाम शायर का शेर
खुशबू को फैलने का बहुत शौक है मगर
मुमकिन नहीं हवाओं से रिश्ता बनाए बगैर
'सदा अम्बालवी' की, सूफीयाना मिजाज की रचना -
दौलत जहाँ की मुझको तू मेरे खुदा न दे
पूरी हों सब जरूरतें इसके सिवा न दे
औकात भूल जाऊँ मैं अपनी जहाँ पहुँच
हरगिज मेरे खुदा मुझे वो मर्तबा न दे
धड़के तमाम उम्र मेरा दिल तेरे लिए
वरना तू धड़कनों को कोई सिलसिला न दे
कुछ फुटकर शेर
जुल्फ घटा बनके लहराए, आँख कँवल हो जाए
शायर तुझको पल भर सोचे और ग़ज़ल हो जाए
ये जितने हुस्न वाले हैं, मेरी तस्बीह के दाने हैं
नजर में फिरते रहते हैं, इबादत हो ही जाती है
मैं उसकी आँखों से छलकी शराब पीता हूँ
गरीब होकर भी महँगी शराब पीता हूँ
जब सायादार थे, जमाने के काम आए
जब सूखने लगे, जलाने के काम आए
हैं दोस्त साँप की मानिन्द मुझसे लिपटे हुए
मेरा वजूद ही चन्दन है क्या किया जाए
कितने खुदगर्ज हैं ऊँचे मकानों के मकीं
अहले फुटपाथ का सूरज भी छुपा लेते हैं
बावफा इतना कि माँगो तो जान भी दे दे
जहीन इतना है कि हर बार टाल देता है
प्रख्यात शायर मनव्वर राना के कुछ शेर
हमारे फन की बदौलत हमें तलाश करे
मजा तो जब है कि शोहरत हमें तलाश करे
सरके का कोई शेर ग़ज़ल में नहीं रखा
हमने किसी लौंडी को महल में नहीं रखा
मिट्टी का बदन कर दिया मिट्टी के हवाले
मिट्टी को किसी ताजमहल में नहीं रखा
ये सर बुलन्द होते ही शाने से कट गया
मैं मोहतरम हुआ तो जमाने से कट गया
माँ आज मुझको छोड़ गाँव चली गई
मैं आज अपने आईनाखाने से कट गया
जूड़े की शान बढ़ गई महफिल महक उठी
मगर ये फूल अपने घराने से कट गया
इस पेड़ से किसी को शिकायत न थी मगर
ये पेड़ सिर्फ बीच में आने से कट गया
आलमारी से पुराने खत उसके निकल आए
फिर से मेरे चेहरे पर ये दाने निकल आए
माँ बैठ के तकती थी जहाँ से मेरा रस्ता
मिट्टी हटाते ही खजाने निकल आए
उदास रहने को अच्छा नहीं बताता है
कोई भी जहर को मीठा नहीं बताता है
कल अपने आप को देखा था माँ की आँखों में
ये आईना हमें बूढ़ा नहीं बताता है
मैं ने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना
मुफलिसी पासे शराफत नहीं रहने देगी
ये हवा पेड़ सलामत नहीं रहने देगी
कुछ नहीं होगा तो आँचल में छुपा लेगी मुझे
माँ कभी सर पे खुली छत नहीं रहने देगी
ये देख कर पतंगें भी हैरान हो गईं
अब तो छतें भी हिन्दू-मुसलमान हो गईं
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चित्र - द म्यूजिशियन - 04 - विजेंद्र विज की कलाकृति.
Tag विष्णु बैरागी,शेर,ग़ज़ल,गजल
वाह आदरणीय आपने तो पूरा गुलदस्ता बना कर ही पेश कर दिया और इस गुलद्स्ते के सभी फूल पसंद आए।
जवाब देंहटाएंमस्त।
शुक्रिया!!!
बहुत ही उम्दा शेरों का गुलदस्ता है, संकलन कर्ता धन्यवाद के पात्र हैं।
जवाब देंहटाएं*** राजीव रंजन प्रसाद
बहुत ही बढिया !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा चयन .
जवाब देंहटाएंआपका धन्यवाद रवि भाईसाहब।
जवाब देंहटाएंshayar ne apni kalam se sare jaha ke jajbat utare hai
जवाब देंहटाएंबहुत खूब!
जवाब देंहटाएंसभी शे'र व गजल बहुत ही उम्दा थे पर संकलन बहुत कम दायरे में है।
जवाब देंहटाएंवाह ,,, लाजवाब
जवाब देंहटाएंbest shayari here
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