योगेंद्र दत्त की दो व्यंग्य रचनाएँ - सभ्य लोग - योगेंद्र दत्त अब वे इस समारोह में मिले थे। सालों बाद। जब मैं पहुंचा तो वे कह रहे थ...
योगेंद्र दत्त की दो व्यंग्य रचनाएँ -
सभ्य लोग
- योगेंद्र दत्त
अब वे इस समारोह में मिले थे। सालों बाद। जब मैं पहुंचा तो वे कह रहे थे ''हमारा समाज अभी बहुत पिछड़ा हुआ है।`` मुझे आश्वस्ति का सा भाव प्राप्त हुआ। सामाजिक सरोकार वालों के बीच ही हूं, यह सोचकर सहज सा लगा। मुझे ऐसे लोग अच्छे लगते हैं। वे ऐसी बातें करने में दक्ष होते हैं कि चाहे तो सुनने वाला अंगारों पर दौड़ जाए और चाहे तो देश को आग में जलते देख कर भी चैन की बंसी बजाए। फौरी और स्थूल दायित्व का बोध प्राय: अनिवार्य नहीं होता। कुछ को यह बोध होता है, उनके मैं बहुत निकट नहीं जाता। हीनता का बोध दे जाते हैं ऐसे लोग।
मेरे पहुंचने पर सहज ही मिलने-चिलने की औपचारिकता सी हुई और विषय बदल गया। अब बात व्यक्तिगत, स्थूल विषयों पर होने लगी थी। महाकाव्यों का स्थान खंडकाव्यों ने ले लिया था। नारी कल्याण, शिक्षा व्यवस्था, दलितोद्घार के प्रसंग स्थगित हो गए थे।
समारोह विराट महानगर की अपेक्षाओं के अनुरूप एक लघुतर भवन में था। जगह कम थी। शायद इसीलिए वे कुछ उद्विग्न से दिखायी दिए। ऐसे स्थान पर न तो कोई सत्ता की बात कर सकता है न कानाफूसी। सत्ता के विमर्श के लिए परिधि का विमर्श महत्वपूर्ण हो जाता है। कोने में सत्ता की बात करने में संकोच होता है। जगह की लघुता के अनुरूप पात्रों के मस्तिष्क भी छोटे हो जाते हैं। सत्ता के विस्तार का फलक पूरा पसर नहीं पाता। यही कानाफूसी के लिए भी सही है। उसके लिए निस्सीम शून्य की अपेक्षा होती है। कुल मिलाकर यह उनके लिए पहचान के संकट का भूगोल था।
उनका नाम हर्षवर्धन पांडेय था पर जातिसूचक नाम के स्थान पर `सुकुमार' लिखने लगे थे। कॉलेज में प्रवक्ता थे और खुद को प्रोफेसर मानते थे। उन्होंने लिखा कुछ न था पर लिखने और पढ़े जाने वालों से खुद को ज्यादा मेधावान मानते थे। संस्कृत पढ़ाते थे इसलिए साहित्य सम्मेलनों में जा चुके थे। चार-पांच कविताएं लिखी थीं जिन्हें अपने घर में रस-रंजन के अवसर पर मित्रों को सुना कर कवि के रूप में प्रतिष्ठा पा चुके थे। कविताओं को एक-दो पत्रिकाओं में भेजा तो सधन्यवाद लौट आयीं। इसे वे साहित्य की क्षति मानते थे। प्रगतिशीलता और क्रांतिकारिता के चलन को यान में रखते हुए युवावस्था में मजदूर वर्ग की मुक्ति, किसानों की उन्नति, स्त्री समानता और मानव मूल्यों की स्थापना के आंदोलनों में संलग्न रह चुके थे। बकौल उन्हीं के, उन्हें ''अपने लिए कभी कुछ करने का मौका ही नहीं मिला।`` सदा व्यस्त रहे।
समारोह स्थल पर मैं कन्या पक्ष के कुछ परिचितों के साथ औपचारिक रूप से दायित्वबद्घ दिखने की चेष्टा कर रहा था। कोई अपनी बात समाप्त करने के बाद मेरी ओर उड़ती सी नजर डालते हुए अतिरिक्त सहमति के लिए कह देता, ''क्यों, है कि नहीं?`` या ''क्या समझे!`` तो मैं फौरन गर्दन हिला कर सहमति दे देता और यह सोचकर खुश होता कि मेरा आना सार्थक हो गया। मुझे भीतर का आदमी जाना गया है। इसी स्वांग के दौरान पीछे से उनकी वही बात फिर सुनाई पड़ी ''हां, हमारे लोग अभी बहुत पिछड़े हुए हैं।``
मैंने उनको लक्ष्य करके कहा, '' क्यों भई, क्या हो गया?``
''यही कि हमारे लोग अभी इतने नहीं बढ़ पाए हैं। देखो कहां फंसे खड़े हैं।``
''इस बात से तो कोई आपत्ति नहीं परंतु दिल्ली में बड़े बारात घर आसानी से मिलते कहां हैं।``
''नहीं, मैं बारात घर की बात नहीं कर रहा हूं। देखिए न यहां इतनी देर से खड़े हैं। कोई पानी तक को नहीं पूछता।``
एक मित्र ने कहा, ''नहीं सुकुमार जी, स्टैंडिंग सिस्टम तो ऐसा ही होता यहां तो सब खुद ही पानी लेते हैं। हम सबने तो पी भी लिया।`` उसने इस भाव से कहा था मानो उसमें औरों की सहमति भी निहित हो। फिर भी उसने मानवश कहा, ''इसमें क्या है, मैं लाए देता हूं।``
सुकुमार जी थोडा व्यथित हुए। अभी खाली हुई एक कुर्सी की ओर लपकते हुए बोले,
''अरे नहीं, मैं अपनी बात नहीं कर रहा हूं। इनकी भी तो कोई सभ्यता होगी।`` उन्होंने वर पक्ष के लोगों की ओर संकेत करते हुए कहा।
अब समझ में आया कि मानव सभ्यता को विलाप के लिए बाय क्यों किया जा रहा था। उन्हें नोटिस जो नहीं किया गया था। किसी ने अभी तक उन्हें यह नहीं कहा था कि `अहोभाग्य, आप हमारे द्वार पधारे।'
आखिरकार उनके लिए एक बैरे को बुलाया गया और उन्होंने अपने कंठ को नम किया। एक घूंट। बस। मानो किसी सम्राट ने कलाकंद की थाल को छूकर दासों को संकेत कर दिया हो, `लो छू दिया। जाओ गरीबों में बांट दो।' जैसे सम्राट दासों से आंख मिलाने में अपनी हेठी मानते होंगे वैसे ही उन्होंने भी बैरे को दृष्टिपात के योग्य नहीं माना। बैरा चला गया। उनके कंठ को अनावश्यक और आहत अंतस को आवश्यक शीतलता मिल गयी।
बैरा समझदार था। देखते ही उनकी कमजोरी भांप गया था। थोड़ी देर में उनके लिए कॉफी ले आया। उन्होंने संतोष के भाव से पी। कुछ क्षण पश्चात हल्का नाश्ता भी वहीं हाजिर किया गया। ज्यादातर लोग खानपान का उद्यम खुद ही संभाल रहे थे परंतु वे वहीं जमे रहे। कुछ अन्य मित्र भी उनके साथ आ बैठे। उन्होंने भी सुकुमार जी के संक्रामक आलस्य को ओढ़ते हुए इसी मुद्रा को अपना स्थायी भाव बना लिया था। वे भी वहां से हिलने वाले नहीं थे। उनके लिए भी माल आने लगा।
सुकुमार जी सत्ता का केंद्र बन चुके थे। उन्होंने अपने ईद-गिर्द महत्व और प्रासंगिकता का आभामंडल रच लिया था। साथ बैठे लोगों को वे सत्ता के निकट होने का दंभ और अज्ञानता का अहसास बांट रहे थे।
तीसरा रसगुल्ला मुंह में रखा और अपनी बात जारी रखते हुए बोले,
''जब तक समाज के सभी वर्ग प्रगति नहीं करेंगे तब तक देश प्रगति नहीं कर सकता। इसके लिए आवश्यक है कि हमारे लोग शिष्ट हों, परिश्रम करें। हमारे लोग आगे ही नहीं बढ़ना चाहते।``
एक सज्जन ने उनकी बात बीच में ही काटते हुए कहा, ''जब अवसर ही न होंगे तो?``
''बात अवसरों की नहीं साहस की है। डॉ अम्बेडकर ने कहा था, हमारे लोगों में साहस नहीं है।``
माहिर बैठकबाज़ की तरह उन्होंने भी एक महापुरुष का नाम लेकर सबको निरुत्तर करने का दांव खेल डाला था। इस वक्तव्य अपेक्षित असर हुआ। वे जरा ठहर कर लोगों के चेहरे पर अपनी विजय के चिन्हों का अध्ययन करने लगे। वे मुंह खोलकर अपने एकाख्यान को आगे बढ़ाने ही वाले थे कि एक दुर्घटना हो गई। उनके श्रोताओं में एक मित्र कथित दलित जाति से भी था। बोला,
''अम्बेडकर ने यह बात दलितोद्घार के प्रसंग में कही थी।``
''वही तो मैं भी कह रहा हूं।`` यह उनका दूसरा दांव था। शत्रु को भी अपने पक्ष में दिखाने का दांव। असहमति को भी सहमति दर्शाने का दांव। ''दलितों में, स्त्रियों में, मजदूरों में, साहस नहीं है। डॉ अम्बेडकर ने कहा था जिस दिन दलित घृणित कार्य करना बंद कर देंगे, उसी दिन समाज को उनकी अनिवार्यता का बोध होगा और वे दलितों का सम्मान करने लगेंगे। उन्हें अपना लेंगे।``
अपने जन्म की जाति व धर्म को छोड़कर बौद्घ धर्म अपना चुके चंद्रप्रकाश नाम के उस मित्र ने कहा,
''लेकिन वे भला और क्या साहस करें। अवसर हैं नहीं और आप उनसे रोजी-रोटी का जरिया भी छोड़ने की बात कह रहे हैं। उनकी बेहतरी के लिए समग्र स्तर पर प्रयास करना होगा। सिर्फ काम छोड़ देने से बात नहीं बनेगी। उन्हें वैकल्पिक काम भी देना होगा। और वैसे भी, वे जो काम करते हैं उसे कोई और करके बताए तो मैं उसे साहसी मानूं। आप करेंगे इस काम को?``
चंद्रप्रकाश ने उनके आभामंडल को बो दिया था। लोग उनकी बातों को सुन तो अब भी रहे थे पर अब वैसा कौतूहल नहीं था। सब मुस्कुराते हुए सभा में जमे हुए थे और मौका मिलते ही कोई किसी के कान में फूंक सी भी मार देता था।
यह उनकी सत्ता को खुली चुनौती थी। सुकुमार जी ने बेचैनी को छिपाने का प्रयास किए बिना, संरक्षक भाव से कहा, ''माई डियर, मैं भी यही कह रहा हूं।`` उन्होंने चंद्रप्रकाश को एक बार फिर अपने पाले में खींचने का प्रयास करते हुए कहा। किंतु अब वे रक्षात्मक मुद्रा में थे। निराशा के भाव से उन्होंने तीसरा दांव चला। चंद्रप्रकाश को नादान बालक साबित करते हुए उन्होंने कहा ''तुम मेरी बात का मतलब नहीं समझे। मेरे पास आओ, मैं समझाता हूं।``
चंद्रप्रकाश ने समझने से इनकार कर दिया। टोक कर बोला,
''अच्छा छोड़िए। ये बताइए अगर दलित मौजूदा काम छोड़ दें तो करेंगे क्या? आप दिलाएंगे उन्हें कोई काम? सामाजिक प्रतिष्ठा की तो बात ही छोड़ दीजिए।``
''अरे! इसके लिए तो उन्हें आंदोलन करना होगा भाई। स्वाभिमान से आगे बढ़ना होगा।``
अब बहस इन्हीं दोनों के बीच सिमट चुकी थी। एक भुक्तभोगी था जो मुक्ति के लिए छटपटा रहा था और दूसरा मुक्ति के सिद्घांतों का भोग लगा रहा था। चंद्रप्रकाश बोला,
''तो आप क्या करेंगे?``
''हम भी योगदान देंगे। पीछे थोड़े हटेंगे। तुम्हें क्या लगता है, हम विरोध करेंगे! हर संभव सहायता और समर्थन देंगे।`इसमें किसी को संदेह नहीं था कि वे विरोध नहीं करेंगे। जब आरक्षण का आंदोलन जोरों पर था तो उन्होंने चुपचाप दूसरे विश्वविद्यालय में नाम लिखा लिया था। विरोध नहीं किया था, किसी का भी।
''पर अब तक तो आपने ऐसा नहीं किया।``
''करेगे न भई, करेंगे। समय आएगा तोकरेंगे।``
अब उनके भीतर का उपदेशक डूब मरना चाहता था। उन्होंने अपने चेहरे पर व्यस्तता का भाव पैदा करते हुए रसगुल्ले के डोंगे में हाथ डाला। रसगुल्ले खत्म हो चुके थे। तीन उंगलियां डूबी रह गईं। रसगुल्ला हाथ नहीं लगा। `छि! ये क्या किया।' वाले भाव के साथ उन्होंने हाथ बाहर खींच लिया। अब प्रासंगिक बने रहने का भाव ओढे़ रहना बेवकूफी थी। उन्होंने समर्पण करते हुए कहा,
''नहीं, तुम्हारे सवाल गंभीर हैं। कभी लंबी बात करेंगे इन पर।``
बैरा उन्हीं की ओर आ रहा था। उन्हें लगा हमला कर देगा। उन्होंने उसे हमले का मौका नहीं दिया। उसे अनदेखा करते हुए खुद ही उठे और शाही पनीर, दाल मखनी आदि व्यंजनों की मेजों की ओर लपक लिए। उन्हें गंवारों के बीच अपनी सभ्यता की रक्षा करनी थी। चाहे पलायन के ही मार्ग से।
मैंने चंद्रप्रकाश का हाथ पकड़कर चुटकी ली,
''क्या यार, आज तो तुमने उन्हें परेशान कर डाला। कहीं ग्लानि से मर न जाएं। हत्या का अभियोग तुम्हीं पर लगेगा।``
''कुछ नहीं होगा। ऐसे लोग ग्लानि जैसे आदिम विचारों से परेशान नहीं होते। ऐसा होता तो रोज हजार और मरते। ये सभ्य लोग हैं।``
(१२-२-७)बहादुर आदमी
- योगेंद्र दत्त
''आप जैसा डरपोक आदमी मैंने नहीं देखा।``
राधेश्याम जी ने ऐसा तब कहा जब मैंने यह स्पष्ट कर दिया कि मैं उनकी बात से सहमत नहीं हूं।
बैठक साधारण विषयों पर हो रही थी। मसलन, कुंजड़ों को मोहल्ले के बाहर बैठने दिया जाए या नहीं। मछली वालों को कितनी दूर तक हटवाने की दरख्वास्त दी जाए (उनसे गंध बहुत आती है)। नगरपालिका कर्मियों को दायित्व का बोध कराया जाए आदि। राधेश्यामजी तत्काल निर्णय और सख्त कदमों की अनिवार्यता पर बल दे रहे थे। मैंने तनाव के आसार देखते हुए कहा कि इस बारे में कुछ दिन बाद दोबारा बात कर ली जाए तो बेहतर होगा। राधेश्याम जी को मेरी बात बुरी लगी।
यह जानने लायक बात नहीं है कि असहमत होना विरोधी पक्ष की नजर में कायरता होता है। प्रमाण देने वाला ताकतवर हो तो निश्चय ही।
मुझे उनका वक्तव्य सुनकर खुद से ही घृणा होने लगी। किसी झगड़े से बचने के लिए बीच का रास्ता ढूंढ लेना वीरता की बात तो नहीं ही है। फिर भी निंदा हरेक को बुरी लगती है सो मुझे भी चुभी।
बैठक के बाद गिले-शिकवे का औचित्य नहीं था। मैंने बात बदलने के लिए पूछा,
''और सुनाइए क्या चल रहा है आजकल?``
''बस आजकल तो एक ही काम है। बिटिया की शादी।`` उन्होंने जरा गंभीरता से कहा।
''क्या बात है, कुछ परेशान लग रहे हैं।`` मैंने कहा।
''क्या बताएं सज्जनता का कोई मोल ही नहीं है।``
उनकी बात सुनकर मैं भी उत्सुक हो उठा। भला ऐसी क्या बात थी कि जो दुनिया को वीरता के पदक बांटता फिरता है वही आज परेशान है। उसे सज्जनता की क्या परेशानी। समरथ को नहीं दोस गुसांई। संसार भर के दुर्जन सज्जन कहलाते हैं। सज्जन भले सज्जन न कहलाएं।
औपचारिकता निभाना अपने आप में एक फर्ज होता है। मैं सज्जन सही पर सामाजिक आदमी होने के नाते फर्ज तो निभाना ही था। मैंने उन्हें निपटाने की गरज से कहा, बल्कि मुंह से निकल गया,
'' क्यों क्या हुआ।``
''अरे क्या कहें!``
''हां ये भी है। हर बात कही नहीं जाती।``
''आप भी न।``
झिड़का पर इस बार उन्होंने मुझे कायर नहीं कहा। आत्मतोष का भाव तो उनके चेहरे पर अब भी दिख रहा था पर अबकी उन्होंने मुझे कायर नहीं कहा। यही मेरे लिए उपलब्धि की बात थी। लगा आज मैं भी वीरों की पांत में खड़ा हूं। उनके साथ। दिलासा प्राय: अपनी इच्छा का परिणाम होती है और चाहे कितनी भी क्षणभंगुर हो, अच्छी लगती है। उनकी प्यार भरी झिड़की भी अच्छी लगी।
''यू आर सो इनोसेंट!``
उन्होंने मुझसे अपनापन जताया।
''देखिए न, लड़के वालों को इक्यावन हजार दे दिए। अब कहते हैं कि बड़े बेटे की सगाई में सवा लाख आए थे।`''मतलब...`` मेरी बात पूरी नहीं होने दी उन्होंने।
''और क्या! सवा लाख मांग रहे हैं।``
''बुरी बात है।``
''सो तो है ही।``
वे सर्वानुमति के बाद भी बेचैन से थे। मुझे लगा उनकी बेचैनी गहरी है। कुछ तो करना ही होगा। मैंने उन्हें कॉफी का आमंत्रण दे डाला।
''हद है।``
''सो तो है ही।``
''हां।``
हम घर के दालान में पहुंच गए थे।
''सोचिए...``
उन्होंने एक ही शब्द बोला. स्वाभाविक है वे और भी कहना चाहते थे। शब्द नहीं मिल रहे थे।
''वही तो... स्वगत में उन्होंने कहा।
मैं अभी भी चुप रहा। पता था वे खुद ही बोलेंगे। सदा उपदेश देने वाला आदमी समाज की इस विकृत मानसिकता पर भला चुप क्यों रहेगा। उनके सारे मूल्यों का हनन हो रहा था। वे तो दहेज प्रथा, बालक-बालिका विवाह के घोर विरोधी थे। उनके भाषण अकसर मुझे हीनता का बोध कराते थे।
''आप तो कुछ बोल ही नहीं रहे हैं।`` उन्होंने मुझे कोंचते हुए कहा।
''क्या बोलूं। दुनिया ऐसी ही है।`` मैंने विह्वल होते हुए कहा।
''अरे नहीं सब ऐसे नहीं हैं। मैं उनमें नहीं हूं जो हाथ पर हाथ धरे हार मान लें।``
''सो तो है।``
''क्या आप भी! सो तो है, सो तो है की रट लगाए हुए हैं।``
''सो तो है। ओह, पता ही नहीं चला। ....मैं आपके बारे में ही सोच रहा था।``
''वही तो! मैं भी सोच से बाहर नहीं निकल पा रहा हूं। कहां से लाऊं इतने पैसे।``
''देखिए आपके सिद्घांत बहुत ऊंचे हैं। मुझे पता है आप उनसे समझौता नहीं कर सकते। लेकिन कोई मार्ग तो निकालना ही होगा।`` मैंने दिखावे के लिए नहीं कहा था। मुझे सचमुच चिंता होने लगी थी। मेरी बेटी भी अब सयानी हो चली थी।
''सो तो है।`` इस बार उन्होंने कहा।
मैं चौंक पड़ा। उनके पास शब्द चुक रहे थे।
हम मोढ़े पर बैठ गए। अनचाहे ही इधर-उधर की कुछ बातें होने लगी। वे बेचैन थे।
घुमा-फिरा कर बात वहीं आ गई जिससे उनका जी भटकाने के लिए कॉफी का व्यापार जोड़ा जा रहा था।
''आप ही बताइए। क्या यह अच्छी बात है।``
''कौन सी बात।``
उनको बेचैन देखकर जो कुछ अनजानी सी खुशी हो रही थी उसके वश मैं भूल ही गया कि वे कुछ और भी कहना चाहते हैं।
अब मुझे समझ में आने लगा था। दुनिया के हर विषय पर जो वे कहते रहे हैं वह झूठ है या सच, छद्म है या वास्तविकता, उसमें वह हमेशा साफगो रहे थे। आज वे दुविधा में थे। आज वह अपने बारे में बात कर रहे थे। हर आदमी के जीवन के अंतर्विरोधी पक्ष होते हैं। पर अपनी हीनता के बोध ने मुझे उनके भीतर भी अंतर्विरोध हो सकते हैं इस आशंका से भी हीन कर दिया था। उन्हीं का चमत्कार था ये भी।
बहरहाल, जैसे ही मैंने कहा ''कौन सी बात``, उनकी गर्दन अनायास ही मेरी ओर घूम गयी। मेरा अपराध अक्षम्य था।
''आपको क्या गरज है। कोई चाहे मरे चाहे जिए। आप तो सदा घरघुस्सू रहे हैं। कभी दुनिया देखी है आपने। कितनी परेशानियां हैं। जैसे-तैसे आदमी पैसे जमा करता है। कहां-कहां से पैसे नहीं जमा किए मैंने। आपने जिंदगी में किया क्या है। यहां लोगों की कितनी मदद करता हूं। आपको क्या पता। आप तो बस मौन रमाइए। पारसाल लड़के की शादी की थी। जो पैसे मिले थे उन्हीं को जोड़ रहा था। स्नातक उद्यमी योजना में कॉलेज के लड़कों को लाइसेंस दिलाया था। कोई सेठ ले जाता तो आप मुझे गाली देते। उसके थोड़े से पैसे मिले थे। इन सबको मिलाकर लड़के के लिए मकान खरीदना था। ऊपर से घर के खर्चे हैं, दुनियादारी है। अब यह सारा पैसा मैं दहेज में दे दूं! मैं कायर नहीं हूं कि सिद्घांतों का यूं गला घोंट दूं।``
उन्होंने शाप देते हुए कहा ''जान लीजिए, मैं दहेज प्रथा और अपव्यय का घोर विरोधी हूं।``
इन तीखे वचनों को सुनकर मेरी किशोर बेटी बाहर आ गई। उसे लगा झगड़ा हो गया है।
''क्या हुआ पिताजी?``
''कुछ नहीं बेटा, यह सिद्घांतों की बात है। वीरों का जीवन ऐसा ही होता है।``
तब तक राधेश्यामजी तनतनाते हुए सैंडल की बद्दी खींचते दालान के पार जा चुके थे।
दस-बारह दिन बाद पान वाले ने समाचार दिया ''आदमी हो तो राधेश्यामजी जैसा। दमदार और खरलड़की की शादी में पूरे एक लाख एक हजार दिए हैं। वो भी मांगने पर। आदमी हो तो ऐसा हिम्मती और जबान का पक्का! है कि नहीं।``
''सो तो है।`` मैंने पान लिया, ढाई रुपए थमाए और घर की ओर चल दिया। मुझे घर जाकर बेटी को भारतीय संस्कृति का अध्याय पढ़ाना था। मेरे पास लाख रुपए नहीं थे।
(11-2-07)
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रवि,
जवाब देंहटाएंये नाम कुछ जाना-पहचाना लगता है, कौन हैं ये साहब, क्या करते हैं? अच्छा लिखते हैं, लेकिन परेशान दीखते हैं।
ravikant
रविकांत,
जवाब देंहटाएंआपने बिलकुल सही पहचाना. ये वही, अच्छा लिखने वाले परेशान साहब हैं :)