वीरेन्द्र जैन की छः व्यंग्य रचनाएं

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छः व्यंग्य रचनाएं - वीरेन्द्र जैन 1 क्या फेंकूं क्या जोड़ रखूं ? हरिवंशराय बच्चन, जिनकी कीर्ति पताका अब उनके काब्य संसार से...

छः व्यंग्य रचनाएं

- वीरेन्द्र जैन


1 क्या फेंकूं क्या जोड़ रखूं ?

हरिवंशराय बच्चन, जिनकी कीर्ति पताका अब उनके काब्य संसार से अधिक एक स्टार कलाकार के पिता होने के कारण फड़फड़ा रही है, ने अपनी आत्म कथा का शीर्षक दिया है - क्या भूलूं क्या याद करूं। उनकी इस मन:स्थिति की कल्पना हम प्रतिवर्ष दीवाली पूर्व किये जाने वाले सफाई अभियान के दौरान करते हैं। नई आर्थिक नीति का सांप हमारे घर में ऐसा घुस गया है कि हम जीवन मरण के झूले में लगातार झूल रहे हैं। नई आर्थिक नीतियों के अनुसार हमने न केवल अपने दरवाजे खोले अपितु खिडकियों रोशनदानों सहित चौखटें भी निकाल कर फैंक दीं जिससे दुनिया का बाजार दनादन घुसा चला आया और हमें आदमी से ग्राहक बना डाला । अब हमारा केवल एक काम रह गया है कि कमाना और खरीदना । बाजार से गुजरने पर इतनी लुभावनी वस्तुएं नजर आती हैं कि मैं उन्हें खरीदने का लोभ संवरण नहीं कर पाता। उपयोग हो या ना हो पर खरीदने का आनन्द भी तो अपना महत्व रखता है- सोचो तो ऊंचा सोचो।

इन नयी नयी सामग्रियों की पैकिंग का तो क्या कहना। बहुरंगी ग्लेजी गत्ते का मजबूत डिब्बा उसके अन्दर थर्मोकाल के सांचे में सुरक्षित रूप से फिट किया गया सामान इतना सम्हाल के रखा गया होता है जैसे कोई मां गर्भ में अपने बच्चे को रखती है भले ही जन्म के बाद वह कुपुत्र निकले पर माता कुमाता नहीं होती है। कई बार तो मन करता है कि सामान फैंक दिया जाये पर डिब्बा सम्भाल कर रख लिया जाये ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत पर काम आवे। दीवाली का आगमन ऐसे सामान के प्रति बड़ी कड़ी प्रतीक्षा की घड़ी होती है। छोटे छोटे फ्लेट इन डिब्बों से पूरे भर जाते हैं। दीवाली पर इन्हें बाहर निकाला जाता है पोंछा जाता है और सोचा जाता है कि रखूं या फैकूं। क्या भूलूं क्या याद करूं की तरह असमंजस रहता है। वैसे आजकल यूज एण्ड थ्रो का जमाना है पर हम हिन्दुस्थानी मध्यम वर्गीय लोगों से फेंका कुछ नहीं जाता। हमारे यहाँ ऐसे डाटपैन सैकड़ों की संख्या में मिल जायेगे जिनकी रिफिल खत्म हो गयी है। और रिफिल बदलने वाली बनावट नहीं है, पर पड़े हैं तो पड़े हैं। न किसी काम के हैं और ना ही फेंके जाते है। ढेरों किताबें है जिनकों पढ़ने का कभी समय नहीं मिला पर रद्दी में बेचने की हिम्मत नहीं होती। अंग्रेजों के समय में लोग जेल जाया करते थे, जहां उन्हें लिखने और पढ़ने का समय मिल जाता था पर आजकल के जेलों में जगह ही खाली नहीं रहती कि पढ़ने लिखने वालों को अवसर दिया जा सके। इसलिए किताब बिना पढ़ी रह जाती हैं। पुराना ब्लैक एण्ड व्हाइट टीवी क़ो कोई पांच सौ रूपये में भी नहीं खरीदना चाहता है जबकि इतना पैसा तो उसे शोरूम से घर लाने और पड़ोसियों को मिठाई खिलाने में ही लग गया था। अगर कुछ वर्ष और रह गया तो उल्टे पांच सौ रूपया देकर ही उठवाना पड़ेगा। पुराने जूते, खराब हो गयी टार्च, कपड़े के फटने से बेकार हो गये छाते, बच्चे की साइकिल गुमी हुई चाबियों वाले ताले, सेमिनारों में मिलें फोल्डर और स्मारिकाएं, बरातों में मिले गिफ्ट आइटम, जो न केवल दाम में कम है अपितु जिनके काम में भी दम नहीं है। बिल्कुल वही हाल है कि -

चन्द तस्वीरे-बुतां, चन्द हसीनां के खतूत

बाद मरने के मेरे घर से ये सामां निकला

रद्दीवाला तक कह देता है कि छोटे छोटे कागज अलग कर लीजिए इनका हमारे यहां कोई काम नहीं है। ये इकट्ठे होते रहते है तथा मरने के बाद ही बाहर निकलते हैं (वैसे सामान तो कुछ और भी निकला होगा पर एक शेर में आखिर कितना सामान आ सकता हैं। )

इन सामानों का क्या करूं ? प्लास्टिक के आधार पर पीतल जैसी धातु के चमकीले स्मृति चिन्ह दर्जनों रखे हैं। कई स्मृति चिन्हों की तो स्मृतियों ही खो गयी है कि ये कब किसके द्वारा क्यों मिला था। अगर इन्हें बेचने जायेगे तो खरीददार समझेगा कि बाबूजी ने शायद जुआ या सट्टा खेल लिया है जो अब स्मृति चिन्हों को बेचने की नौबत आ गयी है। ऐसी दशा में वह इतने कम दाम लगायेगा कि अपमान के कई और घूंट बिना चखने के पीने पड़ जायेगे। वे केवल इस उपयोग के रह गये है कि गाहे बगाहे इनकी धूल पोंछते रहो। कई बार अतिथियों को दिखाने की फूहड कोशिश की तो वे बोले कि हमारे घर तो आपके यहाँ से दुगने पड़े हैं और दुगनी धूल खा रहे है।

एक जमाना तो ऐसा था प्लास्टिक की पन्नियों को भी सम्हाल के रखा जाता था। जो दुकानदार इन पन्नियों मं सामान बेचता था उसकी बिक्री बढ़ जाती थी। अब यही पन्नियां, पत्नियों की तरह आफत की पुड़ियां बन गयी है। कई फोटो एलबम है जिनमें बचपन से लेकर पचपन तक के चित्र डार्विन के विकासवाद की पुस्तक - बन्दर से आदमी बनने की विकास यात्रा की तरह सजे हुऐ हैं। निधड़ नंग धड़ंग स्वरूप में नहलायें जाने से लेकर सिर के गंजे होने तक के चित्रों की गैलरी सजी है। कभी लगता था कि वह दिन भी आयेगा जब लोग अखबार के पन्नों पर इनकी झांकी सजायेंगे पर अब इस शेख चिल्लीपन पर खुद ही हंसी आती है। इन्हें फेंकने का जो काम भविष्य में कोई और करेगा वही काम खुद करने में हाथ कांपते है।

धूल उड़ाने के लिए खरीदा गया वैक्यूम क्लीनर खुद ही धूल खा रहा है। कई तरह के वाइपर जिन पर खुद ही पोंछा लगाने की जरूरत महसूस होती है। मकड़ी छुडाने वाले झाडू पर मकड़ी के जाले लग गये हैं। बाथरूम में फ्रैशनर की केवल डिब्बियॉ टंगी रह गयी हैं। फ्रैशनर की टिकिया खरीदते समय वह फालतू खर्च की तरह लगती है पर डिब्बी फैंकी नहीं जाती। मेलों, ठेलों से खरीदे गये कई तरह के अचार मुरब्बे चटनियों और चूरन इस प्रतीक्षा में है कि कब खराब होकर सड़ने लगें तब फैके जावें।

जिस तरह आत्मा शरीर को नहीं छोडना चाहती बिल्कुल उसी तरह बेकार हो गयी सामग्रियॉ छूटती नहीं हैं। कहना ही पड़ेगा- क्या फेकूं ? क्या जोड़ रखूं ?

2 बच्चे और गड्ढे

जैसे यह तय करना मुश्किल है कि मुर्गी पहले आयी या अण्डा उसी तरह यह तय करना भी कठिन है कि गड्ढों में गिराने के लिए बच्चे पैदा किए जाते हैं या पैदा हो गये बच्चे को गिराने के लिए गड्ढे खोदे जाते हैं । बहरहाल कुछ भी हो पर जो परिणाम मुर्गी और अण्डों का होता है वही आजकल बच्चों और गड्ढों का होने लगा है। महीने में कोई सप्ताह ऐसा नहीं होता जिसमें कोई बच्चा किसी गड्ढे में गिर गर राष्ट्रीय समाचार न बनता हों। राष्ट्रीय समाचार बनने को व्याकुल कई नेता और कवि तो गड्ढों के आस पास ही घूमते पाये गये है। ताकि किसी तरह राष्ट्रीय समाचारों का हिस्सा बन सकें। पर यह गड्ढों की संकीर्णता ही रही कि उन्होने इन मोटी अकल वालों को अपने अन्तर में नहीं समेटा। वे बेचारे हत्या में फंसे रिश्वत में फंसे, सवाल पूछने में फंसे, सांसद निधि के दान में फंसे, कबूतरबाजी में फंसे, डकैती, चोरी, अपहरण, मारपीट, साम्प्रदायिक बलवों में फंसे, पर गड्ढों में नहीं फंस पाये।

गड्ढों में बच्चे ही फंसे।

लोग बच्चे दर बच्चे पैदा करते रहे और योजनाएं बनाते रहे, इसे डाक्टर बनायेंगे, इसे इंजीनियर बनाएंगे, इसे वकील बनाएंगे और इस चौथे वाले को गड्ढे में फंसने के लिए छोड़ देंगे। अगर सचमुच फंस गया और कुछ चैनलों की टीआरपी बढ़वा दी तो हो सकता है यह डाक्टरों, इंजीनियरों व वकीलों से कई गुना कमाई बचपन में ही करके गड्ढे से बाहर निकले। सरकार ने भले ही बालश्रम के खिलाफ कानून बना कर मुक्ति पा ली हो और होटलों, ढ़ाबों, मोबाईल मैकेनिकों की दुकानों पर काम करने वालों को काम से छुड़ा कर भूखा मरने के लिए छोड़ दिया हो पर गड्ढे तो खुले छोड़ रखे हैं। अगर कोई काम नहीं है तो गड्ढों में ही गिर लो- चौबीस घंटे समाचार देने वाले चैनलों को कुछ काम ही मिलेगा। गड्ढे में कैमरा डाल कर वे इस छोटे सद्दाम की डैथ का लाइव टेलीकास्ट दिखाते रहेंगे।

ईसा मसीह ने कहा था कि स्वर्ग के दरवाजे उनके लिए खुलें है। जिनके ह्रदय बच्चों की तरह हैं पर यह मामला उन बड़े बूढों के लिए है जो अपनी लम्बी उम्र के बाद भी अपना ह्रदय बच्चों की तरह रख सकें। जो अभी बच्चे ही हैं उनके लिए स्वर्ग के दरवाजे खोलने के लिए हमें कुछ करना होता है सों हमने गड्ढे खोद रखे है। हमारे गॉव देहात, बिलियर्ड की टेबिल जैसे हो गये हैं जिसके चारों कोनों पर गड्ढे हैं जिनमें हम गोल गोल रंगीन गेंदों जैसे बच्चों को गिराने के लिए ठेलते रहते है।

जो बच्चे ऐसे गड्ढों में गिरने से बच जातें उनके लिए बड़ी बड़ी कोठियॉ बनवा ही जाती हैं जो निठारी गॉव जैसे बच्चों को बुला बुला कर गड्ढों में दबाते रहते हैं लगता है नालों पर सरकार इसीलिए अतिक्रमण कराती रहती है और नालों की सफाई नहीं करवाती। कुछ राज्य सरकारें पाठ्यक्रम बदलवा रही हैं और हो सकता है कि अगले पाठ्यक्रम में गणित के परचों में कुछ ऐसे सवाल हों-

' यदि एक नाले की सफाई से बीच बच्चों के कंकाल निकल सकते हैं तो पूरे नोएडा के नालों की सफाई कराने पर कितने बच्चों के कंकाल निकलेंगे? नोएडा में कुल कितने नाले हैं यह वहाँ के निगम वालों को भी पता नहीं है।

नगर निगम अपनी आय में वृद्वि करने के लिए मेडिकल कालेजों को नरकंकाल सप्लाई करने के ठेके ले सकती है। बस उसे नालों की नियमित सफाई करानी पड़ेगी। पर ऐसा कराने पर चिकनगुनिया फैलाने वाले मच्छर और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दवाएं बिकवाने वाले झोलाछाप डाक्टर नाराज हो सकते हैं।

3 करारोपण की संभावनाएं

वित्त मंत्री चिदम्बरम ने अपने बहुआयामी बजट प्रस्तावों से भले ही सबको चारों खाने चित कर दिया हो पर कुछ ऐसे भी छूट गये हैं जिनको टेक्स के दायरे में लाना चाहिए था। देर आयद दुरस्त आमद के फार्मूले का प्रयोग करते हुए निकट भविष्य में वे अपनी भूल सुधार सकते हैं। मैं यहाँ सूची दे रहा हूँ ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत पर काम आवे।

डंक शल्यक्रिया कर अर्थात स्टिंग आपरेशन टेक्स:- यह कर प्रत्येक स्टिंग आपरेशन करने वाले पत्रकार पर ठोका जा सकता है। आजकल डंक विहीन पत्रकारों को कोई नहीं पूछता इसलिए सारे पत्रकार हिडन कैमरा लिए हुये डंक उठाये घूम रहें है। ऐसे प्रत्येक पत्रकार पर टेक्स लगाया जा सकता है तथा स्टिंग आपरेशन करने के बाद उस कार्यवाही को न दिखाये जाने पर दुहरा कर लगाया जा सकता है।

वाहन पर प्रेस लिखवाने का कर:- इन दिनों प्रेस लिखे वाहनों की संख्या 'पुलिस' लिख वाहनों से पचास गुनी अधिक हो गयी है इसलिए इन वाहनों के मालिकों पर प्रेस पर लगा कर प्रेसर बनाया जा सकता है। जिस ट्रक के पीछे कोई शेर न लिखा हो उसका चालान काट कर राजस्व में वृद्वि की जा सकती है।

संसद निधि जारी करने पर कर:-जो जनप्रतिनिधि अपनी सांसद निधि से सार्वजनिक कार्य के लिए स्वीकृति देते हैं उनके द्वारा स्वीकृत की गयी राशि पर कर लगाया जा सकता है। जो उचित समय तक अपनी राशि खर्च न कर पाते हों उन पर ' उपयोग न होने का कर ' लगाया जा सकता है।

सवाल पूछने का कर:- संसद में पूछे गये सवालों पर बाजार भाव से करारोपण लगाया जा सकता है। सार्वजनिक हित और व्यक्ति विशेष हित में पूछे गये प्रश्नों पर कर की दरें भिन्न भिन्न हो सकती हैं। सवाल लगाकर सदन में उपस्थित न होने वाले सदस्यों से दोहरी दर पर कर लगाया जा सकता है।

थाना विशेष पद स्थापना कर:- जिस तरह क्षेत्र विशेष में विशेष भत्ते दिये जाते है उसी तरह कर भी लगाये जा सकते हैं क्रीमी लेयर वाले मलाईदार थानों में पदस्थापना कराने वाले पुलिस कर्मियों पर वेतन से चार गुना कर लगाया जा सकता है तथा सूखे थानों को सूखा राहत दी जा सकती है।

आरटीओ पद स्थापना कर:- पुलिस कर्मियों की ट्रैफिक में डियूटी लगने पर विशेष कर लगाया जा सकता है जहाँ गाड़ियों धुऑ नहीं धन उगलती हैं। इसमें भी अगर नाकों पर डयूटी है तो कर्मचारी नाक वाला हो जाता है इसलिए उस पर विशेष उपकर लगाया जा सकता है।

गवाही से मुकरने पर कर:- जो गवाह पुलिस से डर कर गवाहों में नाम लिखा लेते है और आरोपी से कर अदालत में मुकर जाते हैं उन पर 'डर कर' लगाया जा सकता है। जो गवाह प्रकरण चलने के जितने दिन बाद मुकरता है उस पर उस कर का दण्डात्मक ब्याज वसूला जा सकता है।

सन्देह का लाभ मिलने पर कर:- जब हर तरह के लाभों पर कर लगाया जा सकता है तो सन्देह के लाभ पर कर क्यों नहीं लगाया जाना चाहिए जबकि इस तरह से लाभान्वित होने वालों की संख्या में होती है।

मुकदमें की तारीख बढ़ने पर कर:- यह कर मुकदमें के आरोपियों पर लगाया जा सकता है। इससे आरोपियों को जेल से बाहर रहने व अपना धंधा करते रहने के अवसर मिलते हैं इस लाभ को कर के दायरे में लाया जा सकता है।

एनकाउन्टर पर कर:- अपराधियों को अदालत से छूट जाने से बचाने के लिए उसे इस भव बन्धन से छुड़ा देने वाले एनकाउन्टर विशेषज्ञों को करके दायरे में लाया जा सकता है।

टेलीफोन टेप न होने पर कर- जो लोग टेलीफोन धारक हैं वे रसमयी बातें करके अपनी आरती उतरवा सकते हैं। इस अवसर पर यदि उनके टेलीफोन टेप न होने की सुविधा पर कर लगाया जा सकता है।

मेरे पिटारे में अभी बहुत सारे उपाय और शेष हैं पर डर यह है कि बिना मांगी सलाह देने पर यदि कर लग दिया गया तो मैं परेशानी में आ सकता हूँ इसलिए अभी इतना ही।

4 कम कपड़ों की क्रान्ति

लोगों के चेहरे मुस्कराते है पर राम भरोसे जब दूर की कौड़ी लाता है तो उसकी चाल तक मुस्काराने लगती है। आज जब वह इसी चाल से आता दिखा तो मुझे लगा कि उसके दिमाग की पाकिट में जरूर कोई खास माल भर चुका है। आते ही उसने पूछा कि राष्ट्रीय सम्मान कौन कौन से हैं। मैंने अपने ज्ञान की सीमा के अनुसार बता दिये। फिर उसने पूछा कि इनमें सर्वोच्च कौन सा है। मैंने वह भी बता दिया और पूछ लिया कि उसे कौन सा मिलने जा रहा है। इस पर वह आंखे तरेरता हुआ बोला कि वह उन अभिनेत्रियों को दिलाने की सिफारिश करने जा रहा है जो कम से कम वस्त्र पहिन कर देश का भला करने में जुटी है।

' तुम अपने भले को देश का भला बताने वाली नेताओं जैसी चालाकी क्यों कर

रहे हों ? मेरा सवाल था।

' मैं देश से कम वाले स्तर पर कभी सोचता ही नहीं हूँ ' उसने मुझे न लिखने

लायक गाली देते हुए कहा।

' कम वस्त्रों की अप-संस्कृति में देश का कौन सा भला है ? मैंने भी उसी तेवर

से पूछा।

' नये नेय विचार बुद्विजीवियों को ही आते है। उसने कहाँ फिर बोला - देखो पहला लाभ तो यह है कि कम कपड़ों से देश में कपड़ों की बचत होती है। जब सात मीटर कपड़ों की जगह सत्तर सेंटीमीटर से काम चल सकता हो तो ' सारी विच नारी है। कि नारी बिच सारी हैं ' वाली गुत्थी में क्यो उलझा जायें। कम कपड़ों से गहने पहनने की जरूरत नहीं पड़ती और नारी यथावत आकर्षक बनी रहती है। गहने नहीं पहिनने से चैन खींच ले जाने का खतरा नहीं रहता इसलिए अपराधों में कमी आती है जिससे सरकार की छवि सुधरती है। कम वस्त्र पहिनने वाली नारी को अधिक सौन्दर्य प्रसाधनों के उपयोग बौर ब्यूटी पार्लरों में जाने की बारम्बारता से छुटकारा मिल जाता है। क्योंकि लोग उसके चेहरे की ओर कम ही देखते हैं। शरीर में धूप हवा लगते रहने से उसका प्राकृतिक विकास होता है। रोग कूप स्वस्थ और स्वच्छ रखने के प्रति प्रेरणा मिलती है। हमारी पम्पराएं भी इतनी बहु आयामी है कि हम अपनी सुविधानुसार उन्हें चुन कर अपने को परम्परा से जुड़ा हुआ बतला सकते हैं। अपने पौराणिक नायकों का उदाहरण देते हुऐ कलैन्डरों में छपे उनके फोटो दिखा सकते हैं तथा अपनी संस्कृति रक्षा वाली आर्दश बातें कर सकते है।

कम कपड़ों वाले समाज में अश्लील फिल्में और पीत पत्रकारिता पिट जाती है क्योंकि छलिया बनाने वाले माध्यम साक्षात संजीव के आगे कैसे टिक सकते हैं। कम वस्त्रों से नारियों को मिलने वाले प्रेम प्रस्तावों से मुक्ति दिला सकती है। कम कपड़े अपरिग्रह की ओर अग्रसर करते दिखते हैं व इस तरह धार्मिक संदेश देते हैं।

अभिनेत्रियॉ अफसोस करती होंगी कि उनके परमपिता परमात्मा ने देह को इतनी छोटी क्यों बनाया कि उसके उधारडने की सीमाएं जल्दी ही समाप्त हो जाती हैं और तरह तरह से उखाडनें के बाद समझ में नहीं आता कि अब कैसे कहाँ से उधाड़ा जायें पिंडलियॉ, जॉघें, पेट, पीठ, नाभि गरदन, बाहुए, सीना आदि के बाद ऐसा क्षेत्र नहीं बचता जिसे दिखाया जा सके। शरीर का क्षेत्रफल विशाल होता तो बहुत मदद मिलती है।

व्यक्तित्व विकास में भी कम वस्त्रों की बहुत बड़ी भूमिका होती है। बड़ी दाढ़ी रखने वाले टेनिस खिलाड़ी की स्कर्ट ही नापत रहते हैं और वह टेनिस की गेंद उनके मुंह पर मारती रहती है। स्कर्ट नापने के चक्कर में वे बेचारे खेल ही नहीं देख पाते। घूघंट और बुर्के में रहकर टेनिस नहीं खेली जा सकती।

कपड़ों की केचुली को उतार फेंकने वाले लोग ही सच्चे स्वंत्रत लोग हैं जो चादरें उतार कर ज्यों की त्यों रखते जा रहें हैं। उन्हें पुरूस्कृत और सम्मानित किया जाना जरूरी है।' कहते कहते राम भरोसे के चेहरे पर चमक आ गयी थी।

5 झूठ बोलती प्रार्थनाएं

भक्त आरती गा रहा है-

जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा

अन्धन खो आंख देत, कोढिन को काया

बांझन खों पुत्र देत निर्धन को माया।

ऐसा लगता है जैसे गणेश जी ने आरती लिखने के लिए किसी राजनीतिक दल के घोषणा पत्र लिखने वाले को अनुबंधित करा दिया हो और वह लिख रहा हो कि प्रतिवर्ष एक करोड़ लोगों को रोजगार दिया जायेगा तथा प्रत्येक गांव में पीने को पानी की सुचारू व्यवस्था की जावेगी, सारे गांवों को सड़कों से जोड़ने में करोडों रूपये लगाये जायेगें व उन पर प्रधानमंत्री के फोटो सहित होर्डिग लगाये जायेगे, विकलांगों को आरक्षित कोटे का बैकलाग भरा जायेगा आदि। यनि जिसके पास जो कमी है वह पूरी किये जाने का लालच जगा के वोट झटक लो।

मैं एक अंधे को पिछले इस वर्ष से गणेश उत्सव में यही आरती गाते देख रहा हूँ पर आंख की तो छोडिये उसकी घड़ी तक कोई चुरा कर ले गया पर उसने गाना नहीं छोड़ा कि अन्धन खो आंख देत । गणेश जी यदि कोढ़ियों को काया देना शुरू कर दें तो बहुत उत्तम होगा वैसे मुझे या मेरे आस पास के किसी व्यक्ति को ऐसी कोई शिकायत नहीं है पर मेरा एक दुश्मन ' एमड़ीटी ख़ाओं कुष्ठ मिटाओ करता हुआ कुष्ठ निवारण मिशन में नौकरी पर लग गया है और गणेश जी कोढिन को काया दे दे तो उसकी नौकरी से छुट्टी हो जायेगी। पर असल में ऐसा होता नहीं है कई बार तो आरती गाने वालों को कुष्ठ होते तो देखा है पर आरती गा कर काया पाता हुआ कोई कोढ़ी नहीं मिला।

यदि लढुअन कौ भोग लगाने के बाद संत सेवा करते रहें तो अंधन खों आंख देने की फुरसत किसे मिलेगी और क्या मिलनी चाहिए। पत्नी पैर दबाती रहे तो आदमी को भी शेष नाग पर लेट हुये नींद आ जाये, देवताओं की तो बात ही और है। हमारे देवता वैसे भी सोने के लिए मशहूर हैं और मूर्ख जानता समझती है कि वे समाधि में हैं जिसमें केवल मुद्रा का फर्क होता है। चिड़िया तो पेड़ पै बैठे बैठे सो लेती है और घोड़ा खड़े सो लेता है पर उसे तो हम नहीं कहते कि वह समाधि में हैं। श्रद्वा ऐसी ही चीज होती है जो भोजन को भोग में और सोने को समाधि का सम्मान प्रदान करती है। वर्षाऋतृ में देवता सोते हैं तो फिर वर्षा बाद ही उठते हैं और उनके उठने वाले दिन देवोत्थान एकादशी का त्यौहार मनाया जाता है। जिन्हें रोज सुबह सुबह उठ कर काम पर जाना पड़ता है उनके लिए तो रोज ही एकादशी होती है। लम्बे सोने की सुविधा देवताओं को ही प्राप्त है।

वैसे तो मेरे मुहल्ले में कई गोबर गणेश मिल जाते हैं। मैं उनकी बात नहीं करता पर मुझे लगता है कि देवताओं में भी एकाधिक गणेश हुऐ हैं। शायद यही करण है उनकी अलग पहचान बताने के लिए आरती गाने वालों ने आरती में ही उनकी बल्दियत बताना जरूरी समझा है। वह कहता है कि - माता जा की पारवती, पिता महादेवा - अर्थात आप किसी दूसरे गणेश की जय मत करने लग जाना।

प्रार्थनाओं में अपने आराध्य की अतिरंजित स्तुति ही काफी नहीं होती अपितु दूसरे देवताओं की छवि खराब करना भी जरूरी समझा जाता है। कांग्रेस और भाजपा में भले ही एक ही पार्टी के सदस्य रहते हों पर गुट और नेता तो अलग अलग होते हैं। हर गुट के सदस्य को अपने नेता की प्रशंसा और दूसरे गुट के नेता की निन्दा अनिवार्य होती है। तुलसीदास ने भी ज्ञान गुण सागर हनुमान जी की हनुमान चालीसा में स्तुति करते हुऐ दूसरे देवताओं की छवि भी अंकित करने की कोशिश की है। वे कहते है कि:-

और देवता चिन्त न घरई

हनुमत वीर सदा सुख करई

अर्थात नेताओं की तरह दूसरे देवता तो ध्यान नहीं देते पर हनुमत वीर सदा ही सुख करते हैं। रामचरित्र मानस को स्वान्त: सुखाय घोषित करने वाले तुलसीदास अपनी पुस्तक की विशेषताएं बताते हुए कहते है कि ' जो यह पढ़े हनुमान चालिसा होय सिद्व साकी गौरी सा अर्थात रेपिडैक्स खरीदिये और सौ दिन में अंगेजी सीखिये।

ऐलोपेथी के प्रचार में एक प्रार्थना ने बहुत सहायता की है। मेरे एक एमबीबीएस मित्र अपने क्लीनिक में जय जगदीश हरे की प्रार्थना का चार्ट भी अन्य चार्टो की तरह लटकाये हुऐ है जिनमें शरीर को चीर फाड़ कर भीतरी अंग दर्शाए गये है। जब मैंने उनसे कारण पूछा तो वे बोले यह हमारी प्रचार नीति का मुख्य गीत है जिसमें भक्त जनन के संकट पल में दूर करने वाले हरे जगदीश की स्तुति की गयी है। इस प्रार्थना के कारण भक्त लम्बे समय वाली आयुर्वेदिक या होम्योपैथिक चिकित्सा पद्वति के चक्कर में नहीं फंसता। वह संकट को पल में दूर करने वाली ऐलोपैथी के पास ही दौड़ा चला आता है। वो जमाने लद गये जब भक्त को भरोसा था तथा वह मानता था कि- कबहुं दीन दयाल के भनक परेगी कान। अब तो वो आके कहता है कि डाक्टर साब आप दीन दयाल के कानों में मशीन फिट कर दो ताकि वे जल्दी सुन लिया करें।

मैं अपने सफाई कर्मचारी देवीदयाल को कट्टर जैन मानता हूँ क्योंकि जब शाम को वह नगरपालिका इंसपेक्टर को गाली देता हुआ निकलता है उसी समय मेरी पत्नी एक जैन प्रार्थना का कैसिट लगा कर भजन सुनती है जिसमें कहा गया है कि - मन में हो सो वचन उचरियें, वचन होय सो तन सों करिये। इन्सपेक्टर साहब की मॉ स्वर्गवासी हो चुकी हैं तथा बहिन कोई है नहीं अन्यथा बहुत सम्भव था कि वह वचन को कर्म में परिवर्तित करने की कोशिश करता हुआ सच्चा जैन साबित होता। मैं शाम को बाजार जा रहा होता हूँ तभी जैन भजन का वह भाग बजता है जिसमें कहाँ गयाहै कि ' संसार में विषबेल नारी तज गये योगीश्वरा' तब मैं पत्नी की ओर नहीं देखता।

6 घर से ये सामां निकले

मैं अपना घर देख रहा हूँ- पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण ही क्या दसों दिशाओं से देखना चाह रहा हूँ , पर पाताल दिशा से देखे जाने की सुविधा नहीं है इसलिए नौ दिशाओं से ही देख पा रहा हूँ। यह मेरा घर है कोई बाबरी मस्जिद के ध्वंसावशेषों पर बना मंदिर तो है नहीं कि जापानी तकनीकी द्वारा जो नहीं है उसका भी दृश्य दिखायी दे जाये, जमीन के अन्दर से।

साहित्यकारों पर ही आरोप लगाया जाता रहा है कि वे ऐसे भाव जगत में खोये रहते है कि अपना घर नहीं देखते, पर मैं ऐसी टिप्पणी से सहमत नहीं हूँ। साहित्यकारों ने न केवल अपने घर देखे हैं अपितु प्रमाण स्वरूप घर देखने की घटना से जन्में भावों को अंकित करके टंकित भी करा लिया है। मिर्जा गालिब अगर अपना घर नहीं देखते होते तो कैसे लिखते -

दरो दीवार पर उग आया है सब्जा गालिब

हम बियांवां में हैं और घर में बहार आयी है

हिन्दी के मिर्जा गालिब दुष्यंत कुमार ने भी लिखा है कि '

आज वीरान अपना घर देखा

तो कई बार झांक कर देखा

यदि शायर घर नहीं देखते होते तो यह कैसे लिखते कि-

सारी दुनिया घूम कर आया मगर

मुझको अपना घर बहुत अच्छा लगा।

मुझे तो लगता है कि ' लौट के बुद्धू घर को आये वाली कहावत भी किसी कवि के सम्मान में ही लिखी गयी होगी। इस मान्यता पर तब और भी भरोसा हो गया जब तक भाषा विज्ञानी ने बताया कि बुद्धू शब्द बुद्ध के प्रति द्वेष प्रकट करने की दृष्टि से ही बिगाड़ा गया शब्द है और बुद्धिमान से जुड़ता है।

मैं अपने घर को घूर-घूर कर इसलिए देख रहा हूँ क्योंकि यह मेरा घर होकर भी मेरा घर नहीं है क्योंकि इसकी मिल्कियत के कागज अर्थात रजिस्ट्री मेरे पास नहीं हैं। वह हो भी नहीं सकती क्योंकि ये किराये का घर है और मकान मालिक इसे खाली कराना चाहता है। वह इसलिए खाली नहीं करा रहा है कि मैं उसका कई महीनों का किराया टांग लेता हूँ या लटका देता हूँ और न ही मैं बार-बार मकान को ठीक कराने की शिकायतें किराये के भुगतान के समय करता हूँ अपितु इसलिए खाली कराना चाहता है कि वह मुझसे डर गया है। वैसे मैं कोई गुण्डा, मवाली या निराला की तरह पहलवान नहीं हूँ कि वह मुझसे डरने लगे पर पिछले दिनों कुछ ऐसा घट गया कि वह मुझसे डरने लगा । दरअसल हुआ यह कि मेरे लेखों की पुस्तक एक प्रकाशन ने इसलिए छाप दी क्योंकि उसे अगले महीने होने वाले पुस्तक मेले में भाग लेना था, जिसके लिए बीस- पच्चीस नई पुस्तकें आवश्यक थीं। बड़े-बड़े लेखक गच्चा दे गये सो वो मजबूरी में मेरे चक्कर में फंस गया। आंकड़ा कुछ ऐसा फिट बैठा कि उस पुस्तक पर एक पुरस्कार भी घोषित हो गया। ( बाद में पता लगा कि आंकड़ा प्रकाशक ने फिट करवाया था। ताकि उसकी किताब तो बिक सके )। इस पुरस्कार की घोषणा के बाद दो चार लाल बत्ती की गाड़ी वाले मुझे बधाई देने आये। मकान मालिक पड़ोस में ही रहता था। उसने यह नजारा देखा तो वह डर गया। सोचा होगा कि कैसे आदमी को मकान दिया है यदि कल के दिन इसने खाली करने में आना कानी की तो पहलवान पत्थर सिंह की सेवाएं भी काम नहीं आयेंगी। इसलिए इसे धीरे से खिसकाओ!

एक दिन विनम्र भाव से मेरे पास आया और बोला कविराज एक जरूरी बात करनी है।

' फर्माइये ' मैंने पूछा।

' अब बात तो मेरे घर की है पर बता ही दूं- बात यह है कि मेरी पत्नी और बहू में

अनबन बहुत बढ़ गई है सो सोचता हूँ कि बहू बेटे को अलग ही कर दूॅ॥

' यह तो उचित है' मैंने बिना सोचे समझे निर्णय दिया।

' आप थोड़ी मदद कीजिए'

' आदेश करें ' दूसरे की महिलाओं से गुफ्तगू करने के लोलुप मन ने अपनी सेवाएं प्रस्तुत करने में देर नहीं की।

' आप दूसरा घर देख लें तो इस मकान में उनको शिफ्ट कर दूं'!' उसने असली मंतव्य प्रकट कर दिया। मैं अपनी सलाह पर पछताया - फिर सोचा कि बहाना कुछ भी हो पर बात तो वही आनी थी। सो कहा - ठीक है एक दो महीने का समय दीजिए।

गैर साहित्यिक मित्रों के सहयोग से दूसरा मकान मिल गया है और मुझे मीर का वो शेर याद आ रहा है-

चन्द तस्वीरे बुतां, चन्द हसीनों के खतूत

बाद मरने के मेरे घर से ये सामां निकला

और मैं सोच रहा हूँ कि मेरे इस किराये के घर से मेरा सामान कैसे निकालेगा। दस वर्षों में घर के अन्दर रहते रहते ही सामान इतना फैल गया कि बाहर निकलने में समस्या पैदा कर सकता है। मकान मालिक से दरवाजा तोड़ने के लिए कहूँगा तो वो गुस्सा होकर सामान तोड़ने की सलाह देगा आंगन से छत पर ले जाकर गली में उतारू तो बिजली, टेलीफोन और टी वी क़ेबिल के तार बाधा बनेंगे।

शायर का सामान मरने के बाद ही निकले तो ठीक रहता है। फिर डायनिंग टेबिल, डबलबैड, आलमारी वगैरह कोई 'तस्वीरे-बुतां' या 'चन्द हसीनों के खतूत' तो हैं नहीं कि इधर शायर मरा, और उधर उसका सामान निकला! अब तो मरने के पहले भी सामान निकलने के अवसर आते ही रहते हैं। उनके दीवान ही बिना बिके उनके घर में पड़े रहते है जिन्हें दीमकों से बचाने के लिए बक्सों में भर कर रखना पड़ता है। ऐसे भारी भारी सामान कैसे निकलेंगे।

जहाँ एक ओर शायर को यह खुशी भी रहती है कि इस बहाने से उसके संकलन धूप और उजाला तो देख सकेगे वहीं दूसरी और यथार्थ की चकाचौंध उसे खयालों की दुनिया से वास्तविक धरातल पर ला पटकती है और वह घर को चारों ओर से इस तरह देखने लगता है कि जिन्दा रहते हुऐ यह सामां कैसे निकले ?

मैं भी ऐसे ही देख रहा हूँ।

रचनाकार परिचय व संपर्क


- वीरेन्द्र जैन

पता 21 5 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र 462023

फोन 0755-2602432 मोबाइल 9425674629

शिक्षा विज्ञान स्नातक एवं अर्थशास्त्र में एमए

जन्मतिथि 12 जून 1949

कार्य लेखक, राज्यस्तरीय अधिमान्यता प्राप्त पत्रकार एवं सामाजिक कार्य करने की दृष्टि से 29 वर्ष पंजाब नैशनल बैंक में अधिकारी पद पर कार्य करने के बाद सन 2000 में स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति

मूल निवास पुरानी जेल के पीछे दतिया मप्र 475661

फोन 07522-233212

कार्यस्थल बैंक सेवा में मध्यप्रदेश में हरपालपुर,जबलपुर,दतिया इन्दरगढ घीरपुरा,भोपाल, उत्तरप्रदेश में बैनीगंज, हाथरस, गाजियाबाद, कानपुर, राजस्थान में भरतपुर, आन्ध्रप्रदेश में हैदराबाद, महाराष्ट्र में नागपुर में पदस्थ रहे व बैंक निराक्षक के रूप में उत्तर प्रदेश में मथुरा, लखनउ, बाराबंकी बुदांयु, बिल्सी तथा बिहार में भागलपुर व गया में अल्पकाल रहने व जानने का अवसर मिला। लेखक सम्मेलनों व सेमिनारों में देश भर के प्रमुख स्थलों में जाने का व देखने का मौका मिला।

लेखन सन 1969 से हिन्दी की राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं से लेखन प्रारम्भ किया और प्रमुख रूप से धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, माधुरी, ब्लिट्ज, नवभारत टाइम्स में प्रकाशित होने के कारण देश भर में पहचाने गये। सेवानिवृत्ति के बाद पूरे समय लेखन व पत्रकारिता में जुटने के बाद दैनिक भास्कर, जनसत्ता ,लोकमत समाचार, राष्ट्रीय सहारा, नवभारत, दैनिक जागरण, नईदुनिया,राज्य की नई दुनिया राज ऐक्सप्रैस, आचरण, स्वतंत्रवार्ता, अमर उजाला लोकजतन, लोकलहर, समेत हंस, सम्बोधन, नया ज्ञानोदय, उद्भावना, उत्तरगाथा, सरिता, समग्रदृष्टि, आकंठ, व्यंग्य यात्रा, लफ्ज दक्षिण समाचार,अट्टहास, आलेख संवाद, जनमतस्वर जैसी साहित्यक-वैचारिक पत्रिकाओं समेत हमसमवेत फीचर ऐजेन्सी के माध्यम से जो दो सौ समाचार पत्रों को आलेख भेजती है, द्वाराएक सौ से अधिक आलेख जारी किये गये। इस दौरान सात सौ से अधिक लेख प्रकाशित।

प्रकाशन

व्यंग्य की चार पुस्तकें प्रकाशित 1 एक लुहार की पराग प्रकाशन दिल्ली

2 देखन में छोटे लगें एकता प्रकाशन दतिया

3 हम्माम के बाहर भी आलेख प्रकाशन दिल्ली

4 अस्पताल का उद्घाटन आलेख प्रकाशन दिल्ली

सुप्रसिद्ध हास्यकवि काका हाथरसी के साथ संयुक्त रूप से एक पुस्तक स्टार पाकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित होने के साथ दस से अधिक मानक संकलनों के सहयोगी रचनाकार कई राष्ट्रीय स्तर के कवि सम्मेलनों में काव्यपाठ ।

सामाजिक कार्य साक्षरता कार्यक्रमों,समेत भारत ज्ञानविज्ञान समिति,जनवादी लेखकसंघ समेत अनेक गैर सरकारी संगठनों के कार्यों में सहयोग। साम्प्रदायिकता का सक्रिय व मुखर विरोध हेतु अनेक प्रर्दशनों व सेमिनारों में सक्रिय भागीदारी। सम्प्रति जनवादी लेखक संघ भोपाल इकाई के अध्यक्ष पद की जिम्मेवारी।

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COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. भाइ साहेब इतनी अच्छी रचनाये अगर थॊडी थोडी रोज मिलती तो मजा आ जाता एक ही दिन मे ढेर सारी अपच न हो जाये इसलिये अगले पाच दिन तक पढने का इरादा बना रहा हू
    पहली टिप्पणी टिपिया रहा हू
    कया फ़ेकू क्या जीड रखू वाकई रचना नही हर घर( भारतीय विदेशो मे तो यूज एंड थ्रो चलता है)व्यथा कथा है काम से ज्यादा बेकाम की वस्तुओ का अंबार
    चाहे दो साल मे एक बार काम आये पर रखेगे जरुर
    बाकी रोज क्रम से एक

    जवाब देंहटाएं
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नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद 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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ 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रचनाकार: वीरेन्द्र जैन की छः व्यंग्य रचनाएं
वीरेन्द्र जैन की छः व्यंग्य रचनाएं
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