कहानी पत्तल - मुकेश पोपली 'आप मेरे साथ आइए ।' चंदनदास के कंधे पर हाथ रखते हुए किसी ने कहा था । वे जवाब देना चाहते ...
कहानी
पत्तल
- मुकेश पोपली
'आप मेरे साथ आइए ।' चंदनदास के कंधे पर हाथ रखते हुए किसी ने कहा था । वे जवाब देना चाहते थे, चौंक से गए और जवाब नहीं दे पाए । उनके सामने एक भद्र पुरुष थे ।
'अरे, आपने मुझे पहचाना नहीं ? मैं कृपाशंकर, आपके समधी जी का मित्र,' वह उनकी जिज्ञासा शांत करते हुए बोले, 'और यह सभी मेरे परिवार के सदस्य हैं, मेरी पत्नी शीला, अभय मेरा पुत्र और बहू अंजना, बाकी सब अंदर हैं हॉल में ।' उन्होंने पास में खड़े सभी लोगों से परिचय कराते हुए कहा ।
सभी लोग हाथ जोड़कर खड़े हुए थे, कृपाशंकर के बेटे और बहू ने उनके और उनकी पत्नी शारदा जो उनकी बगल में ही खड़ी थी, के पांव भी छू लिए थे । दोनों ने सहज ही आशीर्वाद उन्हें दिया था ।
'आप मुझे भूल गए हैं, लेकिन मैं आपको कभी भी नहीं भूला । अभी आपको बाहर आते देखा तो मैं आपके पीछे-पीछे चला आया ।' कृपाशंकर उनका हाथ अपने हाथ में लेते हुए बोले, 'जिस होटल के बाहर हम खड़े हैं, यह अपना ही समझो, मगर आइए मैं आपको अपने गरीबखाने की ओर ले चलता हूं जो बस इस होटल के पीछे की तरफ है, अगर आप वहां अपने पवित्र कदम रखेंगे तो आप का एहसान होगा और ' चंदनदास ने कृपाशंकर के मुंह पर हाथ रख दिया था । अब उनके स्मृति-पटल पर पुराने चित्र उभरने लगे और उन्हें धीरे-धीरे सब कुछ याद आने लगा ।
पत्तल अर्थात् थाली की जगह उपयोग में लाने के लिए बनाया गया पेड़ के पत्तों का पात्र । देखते ही देखते पत्तल पड़ चुकी थी । परसने वाले भी अपने-अपने पात्र संभाल रहे थे । एक के हाथ में दाल के सीरा (हलवा) था तो दूसरे के हाथ में गुलाब से भी गहरे रंग के गरम-गरम गुलाब जामुन से भरा पात्र था । परसने वाले एक और लड़के ने बड़ी मुस्तैदी से अपने हाथ में काजू की बर्फी से भरा भगोना (बड़ा खुला बर्तन) संभाला हुआ था । चारों तरफ गट्टे, सांगरी और ग्वारबाटे की सब्जियों के साथ-साथ आम और कैर के अचार की खुशबू पूरे पंडाल में फैली हुई थी । अतिथिगण बैठ चुके थे । कुछ ही क्षणों में मिठाई से भरे पात्रों में से वह लड़के सब की पत्तल में सामने बैठे अतिथियों की उम्र और उनकी तंदुरुस्ती देख कर मिठाईयां रखते जा रहे थे ।
इस भोज का आयोजन चंदनदास ने अपने पौत्र के नामकरण के अवसर पर किया था और अपने समधी जी के रिश्तेदारों के साथ-साथ उनके मित्र-परिवारों को भी आमंत्रित किया था । अपने पुत्र के विवाह पर तो वह कोई विशेष आयोजन कर नहीं पाए थे, अब जब उनका पोता हुआ तो इन्होंने गांव में ही इस आयोजन को किए जाने की बात पुत्र को कही । पुत्र चाहता था कि वह जहां नौकरी करता है, वहां इस आयोजन को बहुत ही अच्छे तरीके से किया जा सकता है । वह मानते थे कि बहुत से कारण हैं परन्तु उनके भीतर यह भी इच्छा थी कि हम अपनी जमीन से जुड़े रहें और परिवार की परम्पराओं को पालन भी हो जाए । आखिर गांव में भी तो कई परिवार ऐसे हैं जिनके यहां चंदनदास जाते रहे हैं, इससे बढ़िया मौका उन्हें और नहीं मिल सकता था गांव वालों को अपने घर पर आमंत्रित करते का । बच्चों में अच्छे संस्कार हमेशा बने रहें, वे इसके भी पक्षधर थे ।
अभी भोजन आरंभ नहीं किया गया था । चंदनदास ने समधी जी के सामने जा कर हाथ जोड़े और उनके साथ आए मित्रों में से एक मित्र के सामने एक पहेली बांधी । दरअसल पहेली की एक परम्परा थी और इस परम्परा का उद्देश्य मात्र मनोरंजन था । एक कहावत भी है पत्तल बांधना जिसका अर्थ होता है कोई पहेली पूछकर उसे हल करने के पहले भोजन न करने की कसम देना । जिस मित्र से पहेली पूछी गई वह उनके समधी जी के लंगोटिया यार भी थे और उनका अपने शहर में एक अलग रुतबा था, उनकी एक अलग पहचान थी । ऐसी परम्परा का सामना उन्हें पहले कभी नहीं करना पड़ा था क्योंकि शहरों में तो पत्तलें बहुत पहले ही उठ चुकी है। और उनका स्थान तरह-तरह की क्रॉकरी ने ले लिया है । खैर, शहरों में तो खाना खाने के ढंग भी बदल गए हैं और फिर शहरी लोगों के पास वक्त भी कहां होता है कि पहेलियों या चुटकुलों में अपना समय बर्बाद करें । वहीं क्रॉकरी बार-बार धोकर रख दी जाती है, जल्दी-जल्दी में खाना निगला जाता है और फिर नमस्ते और गुड-नाईट । लेकिन गांवों में अभी भी बहुत कुछ परम्पराएं बाकी थी, कुछ रीति-रिवाज अभी भी निभाए जाते थे । आखिर यही तो मौके होते हैं आपस में छेड़-छाड़ और हंसी-ठिठोली के । पहेली के लिए वह मित्र अर्थात् कृपाशंकर तैयार थे ।
पत्तल बांधने में एक प्रश्न चंदनदास ने पूछा था कि संसार में सबसे अधिक आदर किस का किया जाता है ? सभी अतिथियों की आंखें कृपाशंकर पर आ टिकी थी । वैसे खुसर-पुसर होने लगी थी, लेकिन सभी जानते थे कि जवाब केवल उन मित्र को ही देना है । कुछ ही देर में मित्रवर ने सबको शांत करते हुए अपना जवाब दिया और सभी ने एक स्वर में हुंकारा भरा । चंदनदास ने भी बड़े आदर के साथ कृपाशंकर के सामने हाथ जोड़े और अपने हाथों से मिठाई का एक टुकड़ा उनके मुंह में डालते हुए सबसे भोजन प्रारंभ करने की प्रार्थना की । मित्रवर ने जवाब दिया था 'अनाज' । सच ही है, जो व्यक्ति अनाज का आदर नहीं करते, उन्हें अनाज भी निराश करता है ।
चंदनदास के समधी जी यद्यपि स्वयं इस जवाब से संतुष्ट नहीं थे, लेकिन अपने परम मित्र का निरादर भी करना नहीं चाहते थे । अगर उनसे यह पहेली पूछी गई होती तो वह निश्चित रुप से अनाज की जगह इसका जवाब देते 'पैसा', पैसा अर्थात् धन । वह सबसे बड़ा रुपया के सिद्धांत के पक्षधर थे । समधी जी के लिए पैसा ही सब-कुछ था तभी तो उन्होंने चंदनदास के पुत्र दामोदर, आई.ए.एस. को अपना दामाद चुना था । हालांकि उनकी लड़की के लिए अच्छे वर का मिलना कोई बड़ी बात नहीं थी क्योंकि उनकी बेटी विद्या थी भी बहुत सुंदर । लेकिन कहीं भी विवाह करने का मतलब था एक मोटी रकम का खर्च होना । चंदनदास ने न तो कुछ दहेज मांगा था और नहीं समधी जी ने कुछ विशेष देने की योजना बनाई, फिर दामोदर ने भी कोई मांग नहीं की थी, जैसा बाप वैसा बेटा ।
पोते का नामकरण हो जाने के तीन-चार रोज बाद ही दामोदर की छुट्टियां समाप्त हो रही थी । यह तय हुआ कि बहू के साथ गांव की ही किसी अनुभवी औरत को भी भेज दिया जाए ताकि बच्चे का भी पूरा ध्यान रखा जा सके । लेकिन कुछ ही दिनों बाद वह औरत वापस गांव आ गई और उसने बताया कि बहू जी की मां और बहन ने दामोदर बेटे की कोठी में ही डेरा जमा लिया है और सारे नौकरों पर वह हुक्म भी चलाने लगी है, उसके साथ भी कुछ अच्छा व्यवहार नहीं किया गया, इसलिए उसने तो वहां से निकलने में ही भलाई समझी । पहले तो उसकी बात किसी ने मानी नहीं, मगर दो-तीन महीने बाद भी जब दामोदर का कोई खत नहीं आया तब उन्हें लगा कि कहीं न कहीं गड़बड़ है । इस बीच उन्होंने दो-तीन खत लिखे थे, मगर जवाब एक का ही आया कि सब ठीक है ।
चंदनदास सब कुछ भूलकर अपनी दुनिया में मस्त हो गए थे । पत्नी शारदा को भी उन्होंने समझा दिया था कि वह समझ ले कि बेटा विलायत चला गया है या कहीं खो गया है, ईश्वर ने चाहा तो एक दिन वापस लौटकर आ जाएगा ।
देखते ही देखते समय गुजरता गया । दोनों के दिलों में कभी-कभी हूक उठती थी, पता नहीं वह कहां होगा, कैसा होगा ? पोता गुड्डू भी बड़ा हो गया होगा, बस वह दोनों उसे घुटनों के बल चलता हुआ नहीं देख सके, उसकी तुतलाती जबान से दादा-दादी का संबोधन नहीं सुन सके, उसका बालहठ नहीं देख सके और उसके खिलौनों को टूटता हुआ नहीं देख सके । कितनी सुंदर बहू है उनकी, कहीं किसी की नजर न लग जाए । ऐसा भी क्या कि बहू ने कभी एक खत भी नहीं लिखा जबकि यहां से गई थी तब तो जार-जार आंसू बहाए थे उसने ।
बहुत बरसों बाद आज जब डाकिये ने उनका नाम पुकारा तो अपनी डाक लेकर बैठक में आ गए । शारदा देवी उनके लिए लस्सी का गिलास लेकर बैठी हुई थी, 'यह तो किसी का निमंत्रण पत्र लगता है, कहां से आया है ?' चंदनदास कुछ देर तक निमंत्रण पत्र को हाथ में लेकर देखते रहे और फिर उनकी आंखें आश्चर्य से फैलती चली गई, 'दामोदर की अम्मा, यह मैं क्या देख रहा हूं ? मुझे तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा ।'
'ऐसा भी क्या है? निमंत्रण पत्र ही तो है, शादी-ब्याह, नामकरण कितने ही तो समारोह होते हैं, किसका है यह तो बताओ ?' शारदा देवी स्वयं भी आश्चर्यचकित हो रही थी कि आज इतने बरसों बाद उसे दामोदर की अम्मा वाला संबोधन सुनने को मिला था, एक वात्सल्य उसके मन में जाग गया था ।
'आदरणीय बाबा, आप के स्वास्थ्य की मंगल कामना करते हुए आपको शुभ समाचार देना चाहता हूं कि आगामी बाईस अप्रैल को आपका पोता रोहित अर्थात गुड्डू दस साल का होने जा रहा है । अभी वह पाँचवी कक्षा में एक अंग्रेजी स्कूल में यहां पढ़ रहा है । गर्मी की छुट्टियों के बाद उसका शिमला के एक स्कूल में दाखिला करवाने का विचार है । इसलिए वह चाहता है कि उसका जन्मदिन बहुत ही धूमधाम के साथ मनाया जाए । जब उसे हमने यह बताया कि बाबा और अम्मा को भी बुलाएंगे, तब से ही आपसे मिलने की रट लगाए बैठा है । अपनी व्यस्तताओं के चलते हम कोशिश करते हुए भी आपसे मिलने नहीं आ पाए । चंडीगढ़ तक आने के लिए गांव से सीधी गाड़ी आती है । आप अपने आने की तारीख मुझे वापसी में लिख दें । आपकी बहू विद्या भी आप दोनों को बहुत याद करती रहती है और आप को यह जानकर भी खुशी होगी कि दो साल पहले उसने एक लक्ष्मी को जन्म दिया था जो अब तो बहुत सी बातें करती है । आशा है गांव में सब ठीक-ठाक होगा । आपके खत का इंतजार रहेगा । मैं तो अभी भी बहुत व्यस्त रहता हूं, इसलिए यहां सारा काम आप को ही संभालना है । आपका पुत्र, दामोदर ।' खत पढ़ते-पढ़ते चंदनदास की आंखें गीली हो आई थी और शारदा देवी भी कितनी देर तक मुंह पर कपड़ा रखे रही थी ।
दोनों खुशी से फूले नहीं समा रहे थे, आखिर अपना खून उन्हें बुला रहा था । दोनों दामोदर, बहू और बच्चों की बातें करने लगे और चंडीगढ़ जाने के लिए तैयारी करने लगे । कब जाएंगे, क्या-क्या ले जाना होगा, पीछे घर की देखभाल, पशुओं के लिए चारा-पानी, बहुत से काम थे और कितने बरसों बाद घर से अचानक निकलने की तैयारी करना इतना आसान भी नहीं होता । चंदनदास ने खत के जवाब में लिख दिया था कि वह किसी प्रकार की चिंता न करे, वह और शारदा दोनों दो दिन पहले पहुंच जाएंगे ।
बहुत चहल-पहल थी दामोदर के बंगले में । वह स्वयं तो स्टेशन पर नहीं आ सका था, मगर बहू गाड़ी ले कर आ गई थी ड्राइवर के साथ । दोनों को एक अलग कमरा दे दिया गया था । दिन भर नौकरों का आना-जाना लगा रहा । कभी यह तो कभी वह, दो बजे के लगभग बहू उन्हें खाने के लिए कहने आई तो शारदा देवी से रहा नहीं गया, 'बहू, गुड़िया कहां है, उससे मिलने को बहुत मन कर रहा है । यह देखो, मैं उसके लिए सोने का कड़ा बनवा कर लाई हूं गांव से और यह कुछ कपड़े भी गरीबों में बांटने के लिए ।
सोने का कड़ा हाथ में लेते हुए वह बोली, 'मांजी, दरअसल बात यह है कि कल ही उसकी मासी आई हुई थी, यहां से कोई एक सौ किलोमीटर की दूरी पर उनका फार्म हाउस है, बच्ची है न तो मैंने मना भी नहीं किया, बार-बार कह रही थी कि मुझे इनके साथ जाना है । गुड्डू के जन्मदिन पर आ जाएगी । दो दिन की ही तो बात है । फिर आप जी भर कर उसके साथ खेलना । गुड्डू अभी स्कूल से आने ही वाला है, उसके पापा भी पांच बजे आ जाएंगे । अभी थोड़ी देर पहले ही पूछ रहे थे और कह रहे थे कि उन्हें कोई तकलीफ न हो । आप अभी चलिए, खाना ठंडा हो रहा है ।'
शारदा देवी का सारा उत्साह ठंडा पड़ गया था । उन दोनों ने बुझे मन से खाना खाया । थोड़ी देर में ही गुड्डू आ गया । बिल्कुल दामोदर पर गया था वह । वैसा ही कद, वैसी ही काठी, वैसे ही बाल । एक पल तो दोनों को लगा कि छोटा दामोदर ही खड़ा है । चंदनदास ने उसे अपनी बांहों में भर लिया था और शारदा देवी भी आशीष देने लगी थी ।
'ओ माई गॉड.......दादू, यू आर लूकिंग वैरा ओल्ड, एंड दादी यू, यू टू, हाउ ग्रे हेयर ऑफ यू बोथ, मे आई सजैस्ट यू टू यूज हेयर डाई, यू विल बी लूक एज अमिताभ अंकल एंड दादी यूअर फेस रियली वैरी गुड बट देअर इज नो मेकअप, माई नानी....' गुड्डू फर्राटे से बोले जा रहा था ।
'रोहित, व्हाट इज दिस ? गो इनसाइड एंड चेंज यूनिफार्म, दे आर नॉट गोइंग एनीव्हेयर, सी दैम इन इवनिंग ।' बहू ने उसे डपट दिया था ।
वह उछलता-कूदता चला गया था अंदर की ओर । दोनों के चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कान थी और दिल कह रहा था कि कहीं कुछ खो गया है । यह बच्चों की कैसी तालीम है जो बड़ों का आदर, उनका मान-सम्मान सब कुछ खत्म कर रही है । वह सफर की थकान मिटाने का कह कर अपने कमरे में आ गए । नींद तो उनकी आंखों से कोसों दूर थी, पहले भी और अब यहां आकर भी ।
शाम को दामोदर आ तो गया था लेकिन दो-चार साधारण से सवाल-जवाब हुए और वह वापस चला गया । कहीं से अर्जेंट कॉल थी । दो दिन बहुत ही मुश्किल से उन्होंने गुजारे । इस बीच उनका गुड्डू से भी मिलना दो-तीन बार ही हुआ और वह भी पांच-दस मिनट के लिए स्कूल आते-जाते । चंदनदास को आश्चर्य हो रहा था कि खत में तो लिखा था कि सारा काम आपको ही संभालना है, मगर उनसे किसी काम के लिए पूछा ही नहीं जा रहा था और न ही यह लग रहा था कि यहां पर कोई जन्मदिन का समारोह होना है ।
इस बीच उन्हें यह खबर मिल गई थी कि जन्मदिन का आयोजन किसी होटल में रखा गया है । आज की पीढ़ी शायद यही सब कुछ करना चाहती है, धूम-धड़ाका, शोर-शराबा, दिखावटीपन, बेहूदा हरकतें और न जाने क्या-क्या ? उन्हें याद आ रहा था कि किस तरह से वह दामोदर का जन्म-दिन मनाते थे, सुबह उठते ही उसके हाथों चौक में लगे तुलसी के पौधे पर दिया जलवाते थे, शारदा मांजी के साथ मिलकर ढेर सारे मीठे और दूसरे पकवान बनवाया करती थी, मंदिर में जा कर प्रसाद चढ़ाया जाता था, पशु-पक्षियों को भोजन खिलाया जाता था, निर्धनों में अनाज बांटा जाता था । गांव के बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद लिया जाता था उनके पैर छूकर । अब सब कुछ केवल रस्म थी और हर कोई अपने-अपने तरीके से इस रस्म को निभा रहा था । सब के पास वक्त की कमी है और सबको केवल अपना-अपना स्वार्थ दिखाई दे रहा है, न मन से दुआएं रही हैं और न ही आदर और प्यार ।
शाम के समय होटल में चहल-पहल देखकर वह हैरान थे । बहुत बड़ी संख्या में गाड़ियां बाहर सड़क पर खड़ी थी, पूरे होटल की बिल्डिंग पर रोशनी की गई थी । अंदर हाल में भी न जाने कितने गुब्बारे इधर-उधर लगे हुए थे । तेज संगीत बज रहा था, डी.जे. की धुनों पर बच्चे, किशोर और किशोरियां थिरक रहे थे और उनके मां-बाप एक दूसरे के पहनावे को निहार रहे थे । कोई किसी के गहनों की तारीफ कर रहा था तो कोई अपने ऑफिस के बारे में बात कर रहा था । बिना मांगे शेयर मार्केट और सरकारी नीतियों के बारे में एक दूसरे को सलाह दी जा रही थी । कुल मिला कर यह लग रहा था कि लोगों को आपस में मिलने का बहाना चाहिए था । आयोजन में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने की होड़ मची हुई थी । सभी लोग सूट-बूट में थे, केवल चंदनदास ही थे जिन्होंने धोती-कुरता डाल रखा था । उन्हें देखकर सभी लोग कानाफूसी करते थे ।
कुछ समय बाद केक काटने की घोषणा हुई तो सभी बच्चे और कुछ दूसरे लोग मंचनुमा एक ऊंची जगह पर इकट्ठे होने लगे । एक बड़ी सी मेज पर रंगबिरंगी मोमबत्तियों की रोशनी से सजा हुआ केक जैसे ही रोहित ने काटा, कैमरे जगमगाने लगे, 'हैप्पी बर्थडे टू यू . . . .' गाया जाने लगा । सभी उसे 'हैप्पी बर्थडे', 'मैनी-मैनी हैप्पी रिटर्न ऑफ द डे', 'जन्मदिन मुबारक हो', कहते हुए उपहार देते जा रहे थे और रोहित सब को 'थैंक्स' बोलता जा रहा था ।
उसके पास ही उसकी नानी और नाना भी खड़े थे । चंदनदास और शारदा देवी भी अपने पोते को इस अवसर पर गोद में उठा लेना चाहते थे, मगर भीड़ थी कि छंटने का नाम ही नहीं ले रही थी । शारदा देवी की इच्छा थी कि वह उसे अपने हाथों से उसे सूजी का हलवा खिला दे जो कि उसने शाम को ही बनाया था । आखिर कुछ देर बाद जब वह रोहित तक पहुंचे तो शारदा ने उसके मुंह में थोड़ा सा हलवा डालते हुए उसे ढेर सारे आशीर्वाद दे डाले लेकिन दूसरे ही पल उनके समधी जी बोल उठे- 'हलवा नहीं, उसे कोई गिफ्ट दीजिए' तो चंदनदास ने अपने गले से सोने की चैन उतारकर रोहित के गले में डाल दी और बोले, 'यह संभाल कर रखना बेटा, यह अपने परिवार की निशानी है और इस परिवार की रौनक तुम से ही है । अपने कुल का नाम रोशन करना ।' कहते-कहते उनकी आंखें भर आई और उसके मुंह को चूमते हुए वह दोनों नीचे उतर आए ।
अब सब लोगों ने डाइनिंग हॉल की तरफ जाना शुरु कर दिया था । प्लेटों और चम्मच की खनखनाहट सुनाई देने लगी थी । बच्चों ने आइसक्रीम कॉर्नर पर धावा बोल दिया था । चंदनदास और शारदा दोनों कुछ देर तक तो यह सब देखते रहे और फिर वहां के माहौल से अपरिचित से होते हुए बाहर की तरफ आ गए थे ।
चंदनदास जब कृपाशंकर के साथ उनके घर पहुंचे तो उन्हें अपनी आंखों पर ही विश्वास नहीं हुआ । जितने शांत कृपाशंकर थे उतनी ही सादगी से उनका घर लग रहा था । कोई ताम-झाम नहीं, साधारण सा सोफा और एक सामान्य सी दिखने वाली मेज के अलावा कमरे में दो-चार कुर्सियां थी । कमरे में एक कोने में ग्रामोफोन था तो दीवारों पर एक-दो तस्वीरें देवताओं की और बीच में एक प्राकृतिक दृश्य वाली पेंटिंग थी जिस पर उनकी बहू का नाम कोने में दिख रहा था ।
'मैं दिखावा बिल्कुल पसंद नहीं करता चंदनदास जी', कृपाशंकर पूरे कमरे में नजर डालते के पश्चात् हैरान होते हुए चंदनदास से कह रहे थे, 'और यह सब मैंने आपसे ही ग्रहण किया है ।' एक बार फिर चंदनदास की आंखों में आश्चर्य अपना स्थान बना रहा था ।
'जी हां, आपके गांव से आने के पश्चात् मैंने अपने आपको बहुत बदला और बच्चों को भी सादा जीवन सिखाने की कोशिश की', कृपाशंकर ने उनकी जिज्ञासा शांत करते हुए कहा, 'होटल मेरा व्यवसाय है, वहां सब-कुछ वह मुझे रखना पड़ता है जो मेरे ग्राहकों को चाहिए, लेकिन घर और व्यवसाय में फर्क तो होता है न । आप के आशीर्वाद से मैं अपने परिवार के साथ बहुत खुश हूं और आप की पत्तल बांधने की पहेली मुझे आज तक याद है । अब आप कुछ देर आराम करिए और भोजन अभी तैयार हुआ जाता है । मैं आपकी पत्तल नहीं बांधूंगा । आप मेरे अतिथि नहीं, मेरे बड़े भाई हैं । यह आपका ही घर है और मुझे विश्वास है कि आप यहां रहने के लिए मना नहीं करेंगे । आप जब कहेंगे मैं स्वयं परिवार के साथ आपके गांव चलूंगा ।' जवाब में चंदनदास ने कृपाशंकर को गले लगा लिया था ।
चंदनदास और शारदा दोनों महसूस कर रहे थे अपने और पराये का फर्क । उन्हें लग रहा था कि दामोदर और बहू के लिए वह पुरानी और छेदों वाली पत्तल बन चुके थे और कृपाशंकर ने उसी पत्तल को दोबारा तैयार करने की कसम उठा ली थी ।
रचनाकार संपर्क - मुकेश पोपली
सहायक प्रबंधक(राजभाषा)
भारतीय स्टेट बैंक
स्थानीय प्रधान कार्यालय
नई दिल्ली
ई-संपर्क : mukesh11popli@yahoo.com
m.popli@sbi.co.in
(भारतीय स्टेट बैंक, राजभाषा विभाग, कारपोरेट केन्द्र, मुंबई की तिमाही पत्रिका 'प्रयास' के वर्ष 18 अंक 3, 2007 में पूर्व प्रकाशित)
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एक मार्मिक और सत्य दर्शन कराती यह कहानी आज का सच है। मै यह नही कहता कि नयी पीढी गलत है ।लेकिन जो सुख अपने संस्कारों को निभाते हुए मिलता है वह इस उधार की जीवन शैली मे नही होता।
जवाब देंहटाएंकहानी बदलते समाज का चित्र प्रस्तुत करती है। मुकेशजी को धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंरविजी
जवाब देंहटाएंआपको धन्यवाद एक अच्छी कहानी पढ़वाने के लिये.
"पत्तल" पढ़ कर मन िवगलित हो गया । एेसी देशाज् कहानियां तो अब "लुप्त हो रही प्रजाति" वाली हो गई हैं । इसके जरिए आपने राजस्थान की सैर तो कराई ही, अपनी मिट्टी की गमक से रोम रोम सराबोर हो उठा । सीमेण्ट के जंगलों से निकाल कर खेतों की मेड़ की सैर कराने के लिए शुक्रिया ।
जवाब देंहटाएंरवि भाईसाहब, इस कहानी को पोस्ट करने के लिए धन्यवाद।
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