कहानी बाहर वाली कब्रें 0 कमल...
कहानी
बाहर वाली कब्रें
0 कमल
'ये पुराने जमाने के राजा-महाराजा अपने किलों के मुख्य द्वार का रास्ता ऐसा टेढ़ा-मेढ़ा क्यों बनाते थे? आजकल तो प्रवेश के रास्ते कितने सुन्दर, चौड़े और सीधे होते हैं।'
'इस एन्टरेंस, मेरा मतलब है, मुख्य द्वार पर इतने बड़े-बड़े लोहे के नुकीले कील क्यों लगे हैं?'
ऐसे ही कई उत्सुक प्रश्न प्रतीक के लिए हैरानी का कारण बन रहे थे। मगर इससे पहले कि वह पूछे, उसका गाईड तत्परता से प्रश्नों का उत्तर दिये जा रहा था। मानों उसे पहले ही पता चल जाता हो, प्रतीक का अगला प्रश्न क्या होगा?
''साब जी, ये कोई साधारण दरवाज्जा नहीं फत्तो (फतेह) दरवाज्जा है। इससे हो कर आप जिस किले में घुस रहे हैं सारी दुनिया उसे 'कोहिनूर का ञ्र' के नाम से जानती है। कोहिनूर हीरा जानते हैं न!''
''हां भई जानता हूँ। वही मनहूस हीरा न, जो जिसके भी पास गया उसे बर्बाद कर गया ...।'' प्रतीक बोला।
''नक्को साबँ, हीरा कभी मनहूस नहीं होता। वो भी तो हमें पालने वाली इसी धरती के गर्भ से निकलता है। बर्बाद होने वाले तो अपनी बुराइयों के कारण हुए थे या उन गरीब-आहों के कारण जिन पर उन्होंने अत्याचार किये थे।'' गाईड ने बात बीच में ही काटते हुए कहा, ''खैर वह कहानी फिर कभी, पहले आपके सवालों का जवाब। आपके दोनों ही सवालों का जवाब एक है- हाथी! हमलावरों के हाथी से बचने के लिए दरवाजे पर लोहे के नुकीले कील लगाए जाते थे। उस जमाने में जब कोई राजा आक्रमण करता तो उसे किले का मुख्य द्वार तोड़ कर ही भीतर जाने का रास्ता बनाना पड़ता था। इस काम में हाथियों से आसानी होती थी। अब हाथी को जोर का धक्का लगाने के लिए तो दौड़ कर ही आना पड़ता न! हमले में हाथी दूर से सीधा न दौड़ कर आ सके और द्वार ना टूटे जब्भी रास्ता टेढ़ा और दरवाजे पर कील लगाए जाते थे। इस पूरे किले में नौ दरवाजे हैं और हर एक दरवाजा अलग-अलग नाम और खासियत रखता है।''
''लेकिन इतनी सुरक्षा के बावजूद हमले तो तब भी हुआ करते थे और किले वाले राजा हारते रहते थे।'' गाईड के साथ चल रहे प्रतीक ने मानों उसे छेड़ा, ''तुम्हारे राजा लोग तो अक्सर ही आपस में लड़ते-झगड़ते रहते थे। बात-बे-बात किसी का भी सर कलम कर देते थे, है न?''
''अब साब जी बड़े लोगाँ की बाताँ तो अलग ही होती हैं न! हां, उनकी लड़ाइयों के बारे में आप ठीक कह रहे हैं। लेकिन हमले और लड़ाइयां होती रहती थी, तभी तो चीजें भी बदलती रहीं वरना ये किला कभी भी पत्थरों का न बन पाता। सबसे पहले वारंगल के उस राजा ने इसे मिट्टी का ही बनवाया था। फिर जब कई सालों बाद सुल्तान ने अपनी स्वतंत्रता की धोषणा की तब इसे मजबूत पक्की दीवारों वाले किले में तब्दील किया था।''
प्रतीक उसकी बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था। वह पिछले तीन दिनों से उस शहर में जापानी गार्डन, हाइटेक सिटी, फिल्म सिटी, विकसित सागर तट जैसी आधुनिक जगहों को देखता रहा था। लेकिन रहस्य-रोमाँच वाला वैसा आनंद केवल एक ही जगह मिल पाया था, जब वह पिछली शाम निजाम के म्यूजियम में इटली के कलाकार जी.बी. बेन्जोनी की बनाई संगमरमर की प्रसिद्ध कलाकृति 'वेल्ड रेबेका' देख रहा था। आश्चर्यजनक किन्तु सत्य होने की सीमा को स्पर्श करती खूबसूरत कलाकृति! जिसका आधा चेहरा घूंघट में था। लगता था मानों सांचे में ढले बदन वाली सुंदरी अभी मुस्करा देगी। उसे देखते हुए प्रतीक की धमनियों में रक्त प्रवाह अचानक ही तेज हो गया था। वैसी ही रोमाँचक अनुभूति उसे अब वहां सदियों पुराने किले में मिल रही थी। हमारा अतीत कितना भव्य था और सुंदर भी। मुख्य द्वार से घुसते ही भीतर की छत बहुत ऊँची हो गई, बिल्कुल गुंबदनुमा।
गाईड ने उसे रोकते हुए कहा, '' आजकल तो फोन, पेजर और मोबाइल न जाने क्या-क्या आ गये हैं। जब ये सब नहीं था साब जी, तब उन लोगां का काम कैसे चलता था, देखिए।'' कहते हुए उसने एक खास अंदाज में ताली बजाई। ताली की आवाज दूर तक गूँजती चली गई, ''देखा, ऐसी ही ताली से यहां वाला पहरेदार भीतर के पहरेदारों को सावधान किया करता था।''
प्रतीक ने भी वैसी ताली बजाने का प्रयत्न किया, लेकिन यह देख कर हैरान रह गया कि वैसी गूँज वाली ताली एक खास जगह पर खड़े होने से ही बज रही है।
बांयी तरफ वाले रास्ते से हो कर वे लोग किले के खुले भाग में आ गये जिसके तीन तरफ इमारतें बनी थीं। इस बार ताली का वैसा ही कारनामा गाईड ने जब खुले में कर दिखाया तो वह चौंका। मुख्य द्वार पर तो माना ऊँचे गुंबज के कारण ताली की आवाज गूँजी थी मगर वैसी ही गूँज अब खुले में सुन कर उसका आश्चर्य बढ़ गया।
''वो सामने बेगम महल है। यहां खड़े पहरेदार ताली बजा कर बेगम-महल की औरतों को सावधान करते थे कि कोई बाहरी आ रहा है, वे परदा कर लें। उधर उस तरफ बेगम साहिबा रहा करती थीं।'' बांयी तरफ लंबा-सा हॉलनुमा कक्ष दिखाते हुए वह बोला, ''इसमें किले के सारे हथियार और असलाह गोला-बारूद वगैरह रखा जाता था।''
पुराने से उस किले में जैसे-जैसे प्रतीक अंदर घुस रहा था, इतिहास अपनी विभिन्न शक्लों और ढेर सारे रंगों में उनके सामने किसी तिलिस्म की तरह खुलता जा रहा था।
गाईड अपने नॉन-स्टाप खास अंदाज में लगातार बोल रहा था, ''उस जमाने में तो बिजली बत्ती नहीं थी। शाम ढले कमरों को रौशन करने का भी उनका अपना खास प्रबंध था। इन दीवारों में बने ताखों को ध्यान से देखिए, यहां एक शम्मादान रौशन किया जाता था और बाकी जगहों में खास कोणों पर रखे शीशों द्वारा एक ही शम्मा से पूरा कमरा रौशन हो जाया करता। ...देख लीजिए ध्वनि के साथ-साथ वे लोग प्रकाश के परावर्तन सिद्धांत से भी बखूबी वाकिफ थे।''
उस जगह से निकल वे एक बड़े से हॉल में आ पहुंचे। आस-पास खड़े ढेर सारे खंभे और सामने की तरफ नीची छत के साथ-साथ काफी आगे तक निकल आयी बालकोनी-सी बनी थी।
गाईड उस जगह रुक कर बालकोनी की तरफ इशारा करते हुए बोला, ''वहां ऊपर बैठ कर बादशाह हुजूर आने-जाने वाले लोगों से मुखातिब हुआ करते थे। मुजरिम को सजा भी यहीं सुनाई जाती थी। इस जगह की खास बात यह है कि यहां खड़ा व्यक्ति वहां ऊपर बैठे बादशाह या बेगम का चेहरा नहीं देख सकता था। जबकि वहां से बादशाह न सिर्फ उसे अच्छी तरह देख सकते थे, बल्कि उसकी हर हरकत पर आसानी से नजर भी रख सकते थे। यहां खड़े व्यक्ति की जरा भी हरकत का पता तुरंत चल जाता था। ये देखिए...'' कहते हुए उसने अपनी कमीज को नीचे से पकड़ कर सामने की ओर खींचा और दूसरे हाथ की तर्जनी अंगुली से उस खिंचे कपड़े पर चोट की। कपड़े पर की गई वो मामूली-सी चोट वहां किसी बम की तरह गूंज गई, ''देखा! यहां खड़े शख्स की किसी भी हरकत या संभावित हमले से बादशाह पूरी तरह महफूज था।''
सामने संकरी सीढ़ियां खुले में ऊपर पहाड़ी-नुमा टीले की ओर जा रही थीं।
''वहां ऊपर दरबार-ए-आम था, साब जी! शाही लोगाँ इन्हीं सीढ़ियों से ऊपर जाते थे।'' गाईड बता रहा था।
दिन भर में ये लोग कितना बोल लेते होंगे। प्रतीक ने अनुमान लगाना चाहा था, ''तुम बोलते बहुत ज्यादा हो, थकते नहीं?''
''साब जी, हम ज्यादा बोलेंगा नईं, तो खाएंगा कैसे?''
अब तक वे लगभग आधी चढ़ाई तय कर चुके थे।
''यह चढ़ाई बहुत तीखी है। वे राजसी लोग कैसे चढ़ पाते थे? मैं तो इतनी दूर आने में ही थक गया।'' किनारे के एक बड़े पत्थर का सहारा लेता वह रुका, ''...शायद इसलिए कि वे लोग शाही खाना खाते थे। मेरी तरह केवल फास्ट फूड नहीं।''
''नक्को साब जी वे लोगाँ पैदल नहीं चढ़ते थे। पालकी में बैठ कर ऊपर जाते थे। उनकी पालकी ढोने वालों का चुनाव बड़ी सावधानी से किया जाता। चढ़ाई वाली तरफ छोटे कद के और दूसरी तरफ ऊँचे कद वाले आदमी होते थे ताकि पालकी एक सीध में रह कर ऊपर चढ़े।''
पालकी ढोने वालों को अलग कद का होना चाहिए, इस बात की तरफ तो प्रतीक का ध्यान ही नहीं गया था। वाकई वे लोग काफी समझदार थे।
गर्मी और पसीने की चिचिपाहट में ऊपर पहुँचते ही जिस पहली चीज ने उसका स्वागत किया वो थे, ठंडी हवा के झोंके। उन झोंकों की शीतलता ने उस पर नये का सा सुहावना असर किया।
तभी वहाँ खड़े एक पर्यटक की आवाज उसे सुनाई दी, ''अरे वाह, क्या नजारा है। लग रहा है जैसे सारा शहर मेरे कदमों तले है।''
प्रतीक ने जब चारों तरफ नजरें फैलाईं तो एक तरफ दूर तक फैला, अब का आधुनिक और विशाल शहर तथा दूसरी तरफ दूर तक फैली खूबसूरत प्राकृतिक दृश्यों की मंत्रमुग्ध करती सुंदरता उसके सामने इठला रही थी। उसने पुन: पलट कर उस पर्यटक को देखा, ऐसे सुंदर, कलात्मक और नर्मो-नाजुक दृश्य से इसके भीतर कैसे सामंतवादी विचार आ रहे हैं? ज़रूर वह मानसिक रूप से बीमार है।
प्रतीक के लिए तो आस-पास की पूरी दुनियाँ बदल कर खूबसूरत हो गई थी। ऊंची-ऊंची इमारतों, चौड़ी सड़कों, खुले समंदरी किनारों वाला दूर तक फैला शहर उसकी आंखों के रास्ते उतरकर रफ्ता-रफ्ता उसके दिल में समा रहा था। वह दृश्य उसके लिए अभूतपूर्व था। वैसा दृश्य शहर की भागमभाग में कहां मिलता है? उसके दिल में यही ख्याल आ रहा था कि काश वक्त थम जाए और जब तक वह चाहे, थमा रहे। लेकिन इतने खूबसूरत केवल ख्वाब हुआ करते हैं! वह भी तो उसका एक ख्वाब ही था न!
हम लोग कितनी भी कृत्रिम सुंदरता, ठंढक देने वाले ए.सी. या तेज रौशनी वाली व्यवस्था कर लें, परन्तु हवा का एक ठंढा झोंका, प्राकृतिक सुंदरता का एक जल्वा और सूर्य की रोशनी हमेशा ही इन सब कृत्रिमताओं पर भारी पड़ जाते हैं। प्रतीक एक तरफ ठंडी घनी छांव में कमर सीधी करने के लिए लेट गया। शायद गाईड के लिए वह बात नई न थी इसलिए वह भी एक तरफ बैठ कर सुस्ताने लगा। गर्मी और थकान से चूर प्रतीक पर शीतल हवा के झोंके कुछ ज्यादा ही मेहरबान थे। उस पर खुमारी छाने लगी। शीघ्र ही वह गहरी नींद के सपनों में खोता चला गया था।
सपने में जब उसकी आंख खुली तो अंधेरा काफी घिर चुका था। आंख खुलने पर एक पल को वह समझ ही नहीं पाया कि कहां पड़ा है। कुछ चेतन्य हुआ तो हड़बड़ा कर उठ बैठा। उस पुराने किले के दरबार की दीवारें उसे अचानक ही भयावह लगने लगीं। कलाई घड़ी की रेडियम लाइट रात के नौ बजा रही थी। सबसे पहले उसे रोहित का ख्याल आया। ओफ्...होटल के कमरे में लौट कर वह परेशान हो रहा होगा। हम दोनों को वापस वहां शाम सात बजे तक पहुँच जाना था।
वे दोनों विगत तीन दिनों से बिजनेस के सिलसिले में उस शहर आये हुए थे। आज दोपहर तक उनके सारे काम निपट चुके थे। कल सुबह की ट्रेन से उन्हें वापस लौट जाना है। केवल उनका बिजनेस ही एक था, बाकी रूचियां भिन्न। इसीलिए तो रोहित फिल्म देखने निकल गया था। प्रतीक ने उसे किला देखने के लिए कहा और बताया कि वहां पर विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा मिला था। इसलिए वह भी फिल्म का प्रोग्राम छोड़ कर उसके साथ चले, ऐसा मौका बार-बार नहीं आता। लेकिन रोहित के उत्तर ने उसे निराश किया था।
''तब तो आज एक कोहिनूर तुम भी ले आना। मगर सॉरी डियर, मुझे तो वहां पुराने बेढंगे पत्थरों और ऊट-पटांग अतीत के सिवा कुछ नहीं मिलेगा। और हाँ, जरा बच के रहना इन पुराने किलों, कब्रों में बड़ी सुन्दर प्रेतनियां होती हैं। कहीं किसी ऐतिहासिक शहजादी के प्रेम-जाल में न फँस जाना।''
वह गुनगुनाता हुआ फिल्म देखने निकल गया था। उन दोनों के बीच यह तय रहा कि डिनर के लिए रात आठ बजे से पहले होटल लौट आना है।
उसे अपने आस-पास कोई भी न दिखा। गाईड भी न था। वह उसे नींद में छोड़ कर अपने पैसे लिए बिना ही क्यों चला गया? गाईड ने उसे उठाया क्यों नहीं? वह गाईड पर खीझता-झल्लाता उठ कर नीचे की सीढ़ियों की ओर लपका, जो दरबार के आंगन-नुमा खुले हिस्से में उतरती थीं। वहां से पत्थरों की चौड़ी-चौड़ी सीढ़ियां किले के मुख्य द्वार की ओर उतर जाती हैं, जिसे गाईड ने फतेह दरवाजा बतलाया था। चारों ओर डरावना अंधेरा था। वह स्वयं पर झुंझलाने लगा कि थकान और गर्मी से राहत पाने के लिए ठंडी हवा में क्यों लेटा था? दरअसल कड़ी धूप और झुलसाती गर्मी में दो-तीन किलोमीटर में फैले उस किले के सबसे ऊपर स्थित राज-दरबार में वह जब पहुंचा तो ठंडी हवाओं ने उसमें आलस्य भर दिया था। वरना ऐसी गड़बड़ कभी ना होती।
आंगन-नुमा खुले तक तो वह ठीक-ठाक उतर गया। मगर उसके आगे का रास्ता वह भटक गया। बड़े-बड़े पत्थरों और ऊँची-ऊँची झाड़ियों के बीच रात के अंधेरे में उसे नीचे जाने वाली सीढ़ियां नहीं मिली रही थीं। अलबत्ता नीचे जाने का रास्ता ढूंढते-ढूंढते न जाने कब वह उस खतरनाक किनारे तक आ पहुंचा था।
''नक्को साब जी! उधर से नहीं, इधर से जाने का न!'' ऐन मौके पर प्रतीक के कानों में वह तीखा वाक्य पड़ा।
उसे लगा पीछे से किसी ने उसका कंधा पकड़ लिया हो। न सिर्फ कंधों पर उसका स्पर्श, बल्कि प्रतीक को संबोधित करने वाली आवाज़ भी बड़ी सर्द थी। उसने मुड़ कर देखा तो मद्धिम चांदनी में जो शख्स कुछ दूर खड़ा दिखा, उसकी वेश-भूषा चौंकाने वाली थी। शरीर पर सैनिक की वर्दी, कमर पर लटकती तलवार, पीठ पर ढाल। उसे लगा मानों पिछली शाम देखे निजाम के म्यूजियम से कोई सैनिक निकल आया हो। कोई और स्थिति होती तो वह ठहाका मार कर हंस पड़ता, लेकिन अभी तो वह स्वयं ही कठिनाई में था। उसने सोचा शायद वहां का नाइट गार्ड हो। वह उसकी बताई दिशा में मुड़ गया। इस क्रम में पैर की ठोकर से एक पत्थर लग कर फिसलते हुए नीचे गहरी खाई में जा गिरा। उफ्फ ...अगर इसने वक्त पर पहुंच कर मुझे रोका ना होता तो मेरा भी यही हश्र होना था, सोच कर एक भयभीत सिहरन प्रतीक की रीढ़ में दौड़ती चली गई।
''थैंक्यू...थैंक्यू वेरी मच!'' उसने कृतज्ञता प्रकट की।
अंधकार में डूबे किले में उसके लिए वह किसी देवदूत की तरह प्रकट हुआ था। तेज़ बहती ठंडी हवाओं ने उसे अपने होने का पुन: अहसास कराया। इन्हीं ठंडी हवाओं ने तो उसकी नींद तोड़ी थी वरना न जाने कब तक सोया रहता।
''तुम कौन हो? अचानक कहां से आ गये? मैं तो बड़ी देर से मदद के लिए किसी को तलाश रहा था।'' प्रतीक ने अटकते-अटकते पूछा।
''मैं तो भोत पैले से ही आप को देख रहा था। मैंने सोचा आप किल्ला देखने आये हो। मैं अब्भी भी नहीं आता साब। मगर आप तो खाई में ही जा पड़ने को थे।'' उसने जवाब दिया।
''हां, किला ही देखने आया था। लेकिन शांतिदायी और ऐसे दिलकश माहौल ने सब कुछ भूला दिया। जरा-सा क्या लेटा, आंख ही लग गई।''
''चलिए मैं आप को किल्ला दिखाता हूं।'' उसकी आवाज कुछ अजीब ढंग से गूँज रही थी।
''नहीं, नहीं। अब तो तुम मुझे बाहर जाने का रास्ता बता दो बस।''
''चलिए तो, रास्ता भी बता दूंगा।'' वह आगे-आगे चलने लगा, ''वो राजाओं-बादशाहों का जमाना था। बादशाह, राजा जानते हैं न!'' फिर बिना जवाब सुने ही उसने बोलना जारी रखा, ''बादशाहों का असली मतलब क्या होता है, आज के समय में आप ठीक से नहीं जान सकते। आज-कल वे नहीं होते न इसीलिए। लेकिन उस जमाने की तो बात ही कुछ और थी। बादशाह जो भी चाहता, जो भी कहता वही होता था। न उससे सूत भर इधर न सूत भर उधर, समझे साब जी। इसी जगह पर उनका दरबार लगा करता था। बादशाह और बेगम की सवारियां पालकी में ऊपर आतीं। अभी हम लोग जिस रास्ते से नीचे उतर रहे हैं, वो आम लोगों के आने-जाने का रास्ता था।''
''यहां से बेगम-महल का नजारा बड़ा हसीन दिखता है, दिन में चढ़ते समय मैंने देखा था।'' प्रतीक ने उसे टोका।
वह धीमे से हंसा, ''खुश किस्मत हो जो इस जमाने में हो। वो जमाना होता तो उधर देख लेने भर की गुस्ताखी के कारण तुम्हारा सर कलम हो चुका होता। ऊपर आते लोगों को हमेशा सीढ़ियों पर नज़रें गड़ा कर चलने का हुक्म था। नज़र उधर गई कि गर्दन धड़ से अलग। यही शाही हुक्म था। एक बार ऐसे ही शाही हुक्म की तामील में एक गुस्ताख की गर्दन धड़ से अलग करने वाले सैनिक की तलवार से खुश हो कर बादशाह ने उसे खासतौर से शहजादी की हिफाजत में लगा दिया था। शहजादी बड़ी हसीन थी, ख्वाब सी खूबसूरत। रंग-रूप ऐसा कि उसके सामने चांदनी भी फीकी पड़ जाए, आवाज ऐसी कि कोयल भी उसके सामने बोलते शर्माए। वह जिधर से निकल जाती मानों उधर फूल ही फूल खिल उठते, खुशबुएं बिखरने लगतीं, रोशनियों में इंद्रधनुषी रंग घुल जाते...।''
''तुम तो ऐसे बोल रहे हो, जैसे वह सब तुमने भी देखा हो!'' प्रतीक ने उसे टोका। उसे अब उसकी बातों में मजा आने लगा था।
''रोशनी देखने के बाद सूरज को देखना जरूरी तो नहीं साब। फिर मैं तो अदना-सा मुलाजिम हूँ, मेरी क्या औकात कि मैं शहजादी को देखूं। लेकिन सब कहते हैं वो शहजादी सूरत ही नहीं सीरत की भी हसीन थी। तभी तो उसकी दासियां और वह हिफाजती सैनिक, सभी उसका पूरा ख्याल रखते, उसे हमेशा खुश रखते। उसकी खुशी से बादशाह और बेगम भी खुश रहते। मगर किसे पता था, सबकी वह खुशी जल्द ही छिन जाएगी! ठीक ही कहा जाता है, अच्छे लोगों को अल्लाह जल्दी बुला लेता है। एक बार की बात है, वह ऐसी बीमार पड़ी कि हकीम, वैद सब बेकार हो गये। न कोई भी दवा काम आयी न दुआ और देखते ही देखते शहजादी अल्लाह को प्यारी हो गई।'' बोलते-बोलते वह अचानक ही चुप हो गया था, मानों कुछ याद कर रहा हो।
''फिर, फिर क्या हुआ?''
''बस उसके बाद ही तो ठीक नहीं हुआ। जाने क्यों बादशाह को लगा कि शहजादी को मरने के बाद भी देख-भाल की जरूरत पड़ेगी। जिन्दा शहजादी की सेवा और हिफाजत की बात तो ठीक है लेकिन भला मुर्दे को सेवा और हिफाजत की क्या ज़रुरत? लेकिन बादशाह ने हुक्म दिया कि शहजादी की देखभाल करने वाले हर शख्स को मार कर उसकी कब्र के आस-पास दफना दिया जाए। बादशाह का वह हुक्म उन सभी मुलाजिमों के लिए कहर था जो शहजादी की देख-भाल में लगे रहते थे। मगर वे सब खामोश थे, किसी के भी विरोध करने का कोई प्रश्न न था। भला बादशाह की मुखालफत कोई कैसे करता? कुछ भले वजीरों ने समझाने का प्रयत्न किया, लेकिन बादशाह नहीं माना। अंतत: उसने शहजादी की देखभाल और हिफाजत करने वाले दास-दासियों और उस सैनिक, सब को मरवा डाला। और उन्हें भी शहजादी के मकबरे के आस-पास दफना दिया।''
''क्या?'' प्रतीक अवाक् रह गया।
''जानते हैं साब जी, उस सैनिक की गर्भवती पत्नी तब पूरे दिनों से थी। जिस दिन उसे कत्ल किया गया, उसी दिन वह एक सुंदर बेटे का बाप बना था। माँ की गोद में आने के बाद बच्चा जिस चीज को सबसे पहले तलाशता है, वह बाप ही तो होता है। पत्नी भी पति की गोद में बच्चे को डाल कर दुनियां का सबसे बड़ा सुख पाती है। लेकिन उस सैनिक के साथ वैसा ना हो पाया। सिर्फ इसलिए न कि बादशाह की इच्छा न थी। और फिर कुछ दिनों बाद जब पत्नी बेटे को बाप की कब्र पर ले कर आयी तो माथा नवा कर उठा न सकी उस दिन पति की जुदायी का गम बेटे के मोह से ज्यादा हो गया था...बेटा हमेशा हमेशा के लिए अकेला हो कर रह गया था।
एक दासी तो अपनी अंधी माँ का एकमात्र सहारा थी। उसका बाप और इकलौता भाई पहले ही बादशाह के लिए लड़ी एक लड़ाई में मारे गये थे। दासी की माँ पहले से अंधी न थी, अपने पति और बेटे के गम में रोती ऑंखें अपना नूर खो बैठी थीं। वह तो बेटी की देख-भाल ने उसे तब तक बचाए रखा था। जरा सोचिए साब, दासी की मौत के बाद उसकी माँ का क्या हाल हुआ होगा? उन सभी लोगों की लगभग एक जैसी ही कहानियाँ थीं, जो शहजादी के साथ दफनाने के लिए मार डाले गये। लेकिन उन आम लोगों की क्या बिसात थी कि वे विरोध करते। ऐसी होती थी तब के राजाओं की इच्छाएं! शहजादी की देख-भाल करने वालों की कब्रें पहले बनायी गईं थीं, मरे तो वे बाद में थे।''
''ओ गॉड, हाऊ ब्रुटल!' प्रतीक ने बेचैन सांस ली, ''कितने बर्बर थे पहले के शासक, बिल्कुल जानवर! एक मरी शहजादी के लिए कितने निरपराध लोगों को बेवजह मरवा डाला।''
न जाने उसकी बात सैनिक वेश-धारी को क्यों बुरी लगी, उसका स्वर कुछ तल्ख हो गया, ''अच्छा साब जी आप लोगाँ तो सभ्य बन गये ना! अब तो आप लोगाँ को वैसे नहीं मारा जाता!''
''हां, अब कोई वैसी बर्बरता नहीं कर सकता है। अब न वैसे बादशाह होते हैं न उनकी वैसी बर्बर इच्छाएं।'' उसने जवाब दिया।
''तो फिर कभी जात-पात के नाम पर, कभी मंदिर-मस्जिद के नाम पर कभी पानी तो कभी तेल के नाम पर आप सभ्य लोगाँ किसकी इच्छा से मरते रहते हो?'' उसके स्वर में व्यंग था, ''ना साब जी, जो कब्रें सदियों पहले यहां बाहर बनी थीं, तुम्हारी आज वाली कब्रें भी उन्हीं की अगली कड़ियाँ हैं। हां, एक फर्क ज़रूर है। तब विरोध ना करने वालों की कब्रें बनती थीं, अब विरोध करने वालों की कब्रें बनती हैं। इसके सिवा जरा भी तो फर्क नहीं है इन दो अलग-अलग कालों में बनी कब्रों में। बताइए न साब जी, कभी देशों के बंटवारे तो कभी आत्मघाती विस्फोट। कहीं अयोध्या, तो कहीं गोधरा-गुजरात, फिलिस्तीन, गाजा, सर्बिया और अफगानिस्तान कहां नहीं हैं वैसी कब्रें ?''
प्रतीक खामोश रह गया। पुराने सैनिक की वेश-भूषा वाले से ऐसे किसी हमले के लिए वह कतई तैयार न था।
''चलो माना कि तब बादशाह होते थे, उनका हुक्म जैसे खुदा का फरमान। अब तो बादशाह नहीं होते, फिर क्यों सरयू का पानी और गुजरात की धरती का रंग बेगुनाहों के खून से लाल कर दिया जाता है? क्यों एक आदमी के इशारे पर ईराक के रेगिस्तान में सैकड़ों कब्रें बना दी जाती हैं? छोड़ो साब, क्यों अपनी जम्हूरियत का झूठा दम भरते हो? जम्हूरियत कभी भी जम्हूरियत का कत्ल नहीं करती। अगर सच में ही जम्हूरियत है, तब क्यों नहीं रुकता कब्रों के बनने का यह भयानक सिलसिला? बोलो साब जी...बोलो ना...। कब्रें तो केवल अपनी मौत मरने वालों के लिए बननी चाहिए न! कब्रें बनाने के लिए तो लोगों को मत मारो!!''
उसकी आवाज से दर्द निकल कर प्रतीक की धमनियों में घुसता जा रहा था। वह असहज महसूस करने लगा, ''यार, तुम तो मेरे पीछे ही पड़ गये। तुम्हें क्या लगता है, इन सब के लिए मैं जिम्मेदार हूं? मैंने तुम्हें रास्ता बताने के लिए क्या कह दिया तुम तो पूरा लेक्चर ही पिलाने पर तुल गये। भला तुम मुझे ये सब क्यों बता रहे हो? मैं क्या करुंगा यह सब जान कर?''
''माफ करना साब जी, मुझे आप औरों से कुछ अलग लगे थे। सब सैलानी तो मकबरों के भीतर वाली कब्रों के बारे में ही पूछते हैं। आप जैसे लोग अक्सर नहीं आते, जो बाहर धूप, आंधी, पानी में बनी उन मामूली कब्रों के बारे पूछते हों। मैं जब भी आप जैसे किसी इंसान को देखता हूं तो अपना दर्द नहीं संभाल पाता। बस जी में एक ही बात आती है कि कोई दूसरा वो दर्द न झेले जैसा दर्द तब हम लोगों ने झेला था। माफ करें हुजूर, मैं तो केवल आपको शाही मकबरों के भीतर की कब्रों और बाहर खुले आकाश तले बनी मामूली कब्रों का फर्क बताने आया था और न जाने क्या-क्या ले बैठा। दरअसल मेरी कब्र के पास से गुजरते हुए दिन में आपने पूछा था न कि ये कब्रें बाहर क्यों हैं? मगर आपका गाईड आपको ठीक-ठीक उत्तर नहीं दे सका था। आप उसके उत्तर से असंतुष्ट रह गये थे।''
उसकी बात सुन कर प्रतीक बुरी तरह चौंका, ''क्या कहा तुमने? तुम्हारी कब्र के पास ...? कौन हो तुम? यहां के गार्ड नहीं हो क्या?'' डर का तीव्र अहसास उसकी रीढ़ से होता हुआ उसके पूरे बदन में फैलने लगा था।
''हां साब जी, मैं उसी कब्र का सैनिक हूं। अब्भी आपने मेरे को बरोबर पहचाना। बादशाह और शहजादी का वही चहेता सैनिक।'' अब उसकी आवाज डरावनी लग रही थी।
''क्या...? तुम उस कब्र से निकल कर आये हो?'' प्रतीक का चेहरा भय से पीला पड़ गया।
''हां!'' उसने जवाब दिया।
''ओ गॉड! तब से मैं एक भूत से बातें कर रहा था। भ...भ...भूत...भूत!...बचाओ...बचाओ!'' चीखते हुए वह मुड़ा और तेजी से सीढ़ियों पर नीचे की ओर दौड़ने लगा।
''नक्को साब जी, ऐसे नहीं आराम से जाने का। चोट लग जाएगी।'' वह सैनिक पीछे से चिल्लाया, ''मेरे से आपको डरने का नहीं। मैं आपको कोई नुकसान नहीं पहुंचाने को। ऐसे मत दौड़ो, गिर जाओगे...।''
लेकिन प्रतीक को अब उसकी बातें सुनने का होश कहां था। भयभीत और बदहवास वह तेजी से नीचे उतरता जा रहा था। अभी वह कठिनाई से दस कदम ही दौड़ा होगा कि उसके कदम लड़खड़ा गये और वह फिसल कर सीड़ियों पर गिर पड़ा...। उसका शरीर तेजी से सीढ़ियों पर नीचे की ओर लुढ़कने लगा।
''उठिये, उठिये साब जी! और कितना सोयेंगे? अभी नीचे भी उतरना है। थोड़ी देर में 'लाइट एण्ड साऊंड' यो का समय हो जाएगा।'' गाइड ने जब उसका कंधा थपथपाया, वह नींद में बड़बड़ा रहा था।
आंख खुलते ही सपने वाली रात और बाहर वाली कब्रों के सैनिक का तिलिस्म टूट चुका था। उसने कलाई-घड़ी पर नजर डाली। दस मिनट! केवल दस मिनट के ही ख्वाब में इतना कुछ? हां शायद, ख्वाब ही था। उसने गर्दन को जोर से झटका। लेकिन ख्वाब इतना सच क्यों लग रहा है?
प्रतीक ने अपना सर इधर-उधर घुमा कर सपने वाले सैनिक को ढूंढना चाहा। परन्तु किला देखने आये चहकते, मुस्कराते लोगों के सिवा कहीं कुछ न था। फिर भी न जाने क्यों उसे अनुभव हो रहा था, मानों वह सैनिक अभी भी कहीं आस-पास खड़ा उससे कह रहा हो, ''साब जी, कब्रें केवल अपनी मौत मरने वालों के लिए बनाओ! कब्रें बनाने के लिए तो लोगों को मत मारो!!''
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रचनाकार संपर्क :- (कमल)
डी-1/1, मेघदूत अपार्टमेंट्स,
मरीन ड्राइव रोड, पो.-कदमा,
जमशेदपुर--831005 (झारखंड)
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Tag कहानी,कमल,बाहर वाली कब्रें,हिन्दी
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