(राजा रवि वर्मा) (न्यायालयीन आदेश के कारण हुसैन फिर चर्चा में हैं. कलाकारों की कलाकृतियों ने अकसर लोगों की अवधारणाओं को चोटें पहुँचाई...
(न्यायालयीन आदेश के कारण हुसैन फिर चर्चा में हैं. कलाकारों की कलाकृतियों ने अकसर लोगों की अवधारणाओं को चोटें पहुँचाई हैं. राजा रवि वर्मा की बहुत सी कलाकृतियाँ भी इसी तरह की रही हैं. उनकी कला और उनके व्यक्तित्व के बारे में बयान कर रहे हैं प्रसिद्ध कलाकार प्रभु जोशी)
- प्रभु जोशी
(नई दुनिया में पूर्वप्रकाशित, रविवार, 29 अप्रैल 2007)
राजा रवि वर्मा (1848-1906) को कला-दृष्टि चाहे खारिज करती रहे, लेकिन वे भारतीय कला संसार के ऐसे अनश्वर नागरिक हैं, जिनकी कृतियों में हमारा पौराणिक अतीत हमेशा समकालीन बनकर साँस लेता रहेगा।
चित्रकार राजा रवि वर्मा जयंती पर विशेष
प्रस्तुत है एक चित्रकार द्वारा उनका पुनर्स्मरण-
चित्रकार राजा रवि वर्मा पर लिखते हुए मुझे लगभग आधी शताब्दी के पहले के वक्त का वह हिस्सा याद आ रहा है, जिसमें ईश्वर से मेरे तअल्लुकात आज की तरह खराब नहीं हुए थे। अलबत्ता इसके उलट यह था कि मेरे संकटों के 'महाघोर समय में, वह खुद पहल करता और इमदाद के लिए आगे आ जाता था। मसलन, जब कभी मेरे बस्ते से पेंसिल गुम जाती, पानी-पोते की शीशी फूट जाती या फिर कंचों के खेल में तकरीबन हारने की नौबत आ जाती। तब मैं क्षण भर ठिठक के आँख मूँद कर बुदबुदाते हुए ईश्वर को बेकरीरी के साथ याद करता- और, वह घर की अल्मारी में रखे 'गीताप्रेस गोरखपुर के कल्याणों के चित्रों में से कमोबेश भागकर आता और मेरी बंद पलकों के नीचे तथास्तु की मुद्रा में मुस्करा कर गायब हो जाता। मैं आँखें खोलकर फिर से खेल में स्वयं को एकाग्र करता और धीरे-धीरे हारने की 'कगार से ऊपर उठकर जीत के शिखर पर चढ जाता। दोस्त 'जै-जैकार कर उठते, जो मुझे अपनी जीत से ज्यादा ईश्वर की जय-जयकार लगती। कभी-कभार, कंचों और कबड्डियों से बचे वक्त में फटी-पुरानी निकरों और थेगलेदार कमीजों में रहने वाले मेरे दोस्तों की जिज्ञासा बलवती हो जाती और वे पूछते कि आँख मूँदने पर क्या मुझे 'भगवान दिख जाते हैं? और दिखते हैं तो वे कैसे हैं?
मैं उन्हें फटाफट भगवान की आबादी उनके कुनबे और शक्ल सूरत के बारे में ऐसे रोचक और प्रामाणिक ब्योरे देता कि वे सबके सब हतप्रभ रह जाते, क्योंकि मेरे तमाम दोस्तों के पास ईश्वर की शिनाख्त के रूप में गाँव में सिंदूर से पुते पत्थर और पेडों के तनों के पास गडे, अनगढ आकार भर थे, जबकि मेरे द्वारा दिए गए विवरण एकदम अलौकिक थे, क्योंकि उनमें भगवान के पंखुरियों से होंठ थे। कमलनाल-सी कोमल कलाइयाँ। गुलाबी तलवों वाले पैर। कुल मिलाकर 'नख से शिख तक दिव्यता का सृजन करने वाली कमनीय काया। मुझे आज भीयाद है कि मैंने जब राधाजी के रूप का बखान किया था तो मेरा सहपाठी प्रहलाद रोमांचित होकर बेसाख्ता बोला था-'प्रभु, म्हारे राधाजी दिखी जाए तो हूँ तो उन्के छू लूँ और बस मरी जऊँ।
दरअस्ल, भगवानों के हुलियों के बखान की कूवत मुझमें पिता द्वारा गीताप्रेस गोरखपुर से मँगवाई गई कोई आधा दर्जन उन चित्रावलियों से आई थी, जिनमें तमाम अवतारों के ढेरों चित्र थे, मैंने धीरे-धीरे करके अपने सभी दोस्तों को वे चित्रावलियाँ दिखाईं और बाद इसके हम सारे के सारे दोस्त उन अलौकिक भगवानों को निकट से जानने वालों में हो गए। हमारे लिए वे चित्र ही ईश्वर के चेहरे-मोहरे और कद-काठी के सर्वथा प्रामाणिक और अंतिम दस्तावेज थे।
हम अपनी नींदों में भी उनके साथ रहने लगे थे, लेकिन तभी एक दिन अचानक हम सबको गहरी ठेस लगी। उस ठेस से मेरे भीतर एक अजीब-सी बेकाबू रुलाई उठी, जो आज तक मेरे भीतर जीवित है। मेरे ही नहीं, मेरे से पहले पैदा हुए कई-कई लोगों के भीतर भी बचपन की कुछेक रुलाइयाँ जीवित होंगी। उस ठेस में जितना दु:ख था, साथ ही साथ उतना ही विस्मय भी था। हुआ यों कि गाँव में सतनारायण महाराज के यहाँ काँच में मढा हुआ कोई बडा-सा चित्र उज्जैन से लाया गया था। खबर सब दूर हो गई थी। मैं भी अपने दोस्तों के साथ उस चित्र को देखने गया। हमने देखा और हमारे भीतर के अलौकिक संसार में अफरा-तफरी मच गई। हमने एक-दूसरे की तरफ हक्के-बक्के होकर देखा। सामने टँगे चित्र में दिखाई दे रहीं 'राधाजी तो कोई दूसरी ही 'राधाजी थी। न तो पंखुरी जैसे होंठ, न चिंतामणि-सी अलौकिक देह।
न दिव्य और दीप्त त्वचा, बल्कि उनकी त्वचा, उलटे हमारे घर की बँइराओं जैसी थी, जिससे पसीना भी टपकता है। विस्मय करने वाली बात यह थी कि जैसे कृष्ण की बगल में 'राधाजी की जगह पडोस वाली 'मनोरमा भाभी ही साडी लपेट कर बैठ गई है? और ये ल्लो! उन्होंने हडबडी में पल्ला भी उल्टा ले लिया है।
कृष्ण भी मेरे पास की चित्रावलियों जैसे 'प्रकट हो सकने वाले कृष्ण नहीं थे- देवत्व से बिलकुल रहित। वे 'राधाजी की तरफ कुछ ऐसी दृष्टि से देख रहे थे कि यदि हम लोगों ने उनकी तरफ से भी तनिक आँखें फेरी कि वे मौके का लाभ उठाकर राधाजी के गाल को चूम लेंगे। उनके बजाय, शर्म हमें आने लगी। हम चुपचाप मुँह लटका कर लौट रहे थे। हम सबों को एक नए और अपरिचित से दु:ख ने घेर लिया था। उस चित्र ने हमारी अभी तक की अवधारणा को संदिग्ध कर दिया था।
वास्तव में वह चित्र कोई सामान्य चित्र नहीं था, बल्कि यथार्थवादी शैली में बनाई गई राजा रवि वर्मा की चित्र कृति थी, जिसके सामने हम सब पड गए थे। ठेस चित्र ने नहीं, 'यथार्थ ने पहुँचाई थी। क्योंकि, गोकुल का लीलाधारी कृष्ण, अपना 'दिव्यत्व खोकर पाँच फुट छ: इंच के निहायत ही सामान्य मनुष्य की तरह सामने चित्र में खडा था। यह कला में ईश्वर से उसकी अलौकिकता का अपहरण था। राधा में भी 'पावनता के स्थान पर एक किस्म की 'ऐन्द्रिकता थी। 'आभा और 'आलोक के बजाय देह केंद्र में आ गई थी। कृष्ण की आँख में प्रेम का दैहिक चरितार्थ प्रकट हो रहा था। भगवान हमारे देखे भगवान से छोटा और सामान्य (लिटिल-लेस-देन गॉड) हो गया था।
बहरहाल, इस चित्र ने मेरे कल्पना लोक को छठे दशक के उत्तरार्ध्द में संकटग्रस्त किया था, लेकिन वास्तव में तो ऐसा संकट उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध्द में समूचे भारतीय कला जगत ने अनुभव किया था, क्योंकि राजा रवि वर्मा भारतीय कला जगत में एक ऐसे समय में अवतरित हुए थे, जब कला के सिर्फ दो छोर थे एक तो था, 'शास्त्र; जो सामंतयुगीन उच्चवर्ग के अधीन था और दूसरा था 'लोक; जो ग्रामीण जनसमुदाय के बीच ही अपना सर्वस्व जोडे हुए था।
शास्त्र के नाम पर दो-तीन स्पष्ट वर्गीकरण थे। मसलन चित्रांकन की राजपूत शैली तथा मुगल कलमकारी। लेकिन, दोनों शैलियाँ ही अपने शानदार अतीत का वैभव खोना शुरू कर चुकी थीं। ईस्ट इंडिया कंपनी के बढते वर्चस्व ने सामंतयुगीन सत्ता को इतना युध्दरत बना दिया था कि कलाओं के परंपरागत संरक्षण का काम उनके लिए अब दूसरे क्रम पर था। हालाँकि भारतीय चित्रकला बंगाल स्कूल के जरिए अपनी अस्मिता की तलाश में जापान की जलरंग पध्दति (वाश तकनीक) को अपनाकर एक नई सौंदर्य दृष्टि रचने के लिए संघर्षरत थी। कहना चाहिए कि यह एक किस्म का नया उदयकाल था।
ठीक इसी काल संधि पर त्रिवेन्द्रम से पच्चीस किमी दूर किल्लीमनूर से निकल कर त्रावणकोर पहुँच कर एक पच्चीस वर्षीय युवक वियना की चित्र प्रदर्शनी में स्वर्ण पदक हासिल करता है। उन्नीसवीं सदी के योरपीय यथार्थवादी शैली में वह ऐसी दक्षता के साथ काम करता है कि समूचेकला जगत को हतप्रभ कर देता है। इसमें भी उल्लेखनीय बात यह थी कि उसने कला के किसी भी संस्थान से अकादमिक शिक्षा ग्रहण नहीं की थी। वह पूरी तरह आत्म दीक्षित कलाकार ही था, जबकि वह निष्णात जलरंगों में था और तैलरंगों को वही भारत में पहली बार इस्तेमाल कर रहा था। उसने वीणा बजाती हुई एक भारतीय स्त्री का चित्रांकन किया था। रंग की 'स्प्रेस क्रिएटिंग प्रापर्टी का जो दोहन उसने किया था, वह किसी भी महत्वाकांक्षी चितेरे के लिएर् ईष्या का कारण बन सकता था और हुआ भी यही कि भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के 'कमीशंड आटस्टों ने इस चित्रकार को ताउम्र अहमियत नहीं दी- और, कहने की जरूरत नहीं कि यह चित्रकार था, राजा रवि वर्मा।
राजा रवि वर्मा जन्म से राजा नहीं थे, लेकिन उन्हें उनकी अद्भुत प्रतिभा ने अंतत: राजा बना दिया। हालाँकि वे एक बेहद सुरुचि संपन्न परिवार में ही जन्मे थे, जहाँ साहित्य और कला की अत्यंत परिष्कृत समझ और अभिजात दृष्टि थी। माँ उमा अम्बा तथा पिता इजुमाविल नील कांतनभट्टत्रिपाद की संतान राजा रवि वर्मा की प्रतिभा की पहचान पहली बार उनके चाचा ने की थी। एक दफा 'राजा रवि वर्मा राजभवन की दीवार पर तंजोर शैली में चित्रांकन कर रहे थे। और बीच में थोडी देर के लिए काम छोडकर उन्हें अन्यत्र जाना पडा। जब बाहर से लौटकर आएतो उन्होंने आश्चर्य से देखा कि उनके मात्र चौदह वर्षीय भतीजे ने न केवल उसमें रंग भर दिए हैं, बल्कि चित्र का शेष रेखांकन भी पूरा कर दिया है। उन्होंने बालक को भावातिरेक में गले लगा लिया। बस यही वह क्षण था जिसमें चाचा ने तय किया कि वे बालक को एक मशहूरचितेरा बनाकर रहेंगे। वे बालक राजा रवि वर्मा को किल्लीमनूर से त्रावणकोर के महाराजा अयिल्लम तिरुनल के पास ले गए, जहाँ उसने राजा प्रासाद के दरबारी चित्रकार रामास्वामी नायकर से जलरंग चित्रकारी सीखी।
राजा रवि वर्मा के लिए ये समय कठिन तपस्या का समय था। एक ओर जहाँ उन्हें जलरंग जैसे माध्यम में दक्षता हासिल करना थी, वहीं दूसरी ओर रेखांकन के शास्त्रीय पक्ष का पर्याप्त अध्ययन करना था। परिणामस्वरूप उन्होंने मलयालम और संस्कृत के ग्रंथों को खंगाल डाला। विष्णु धर्मोत्तर पुराण के चित्र सूत्र, मूतशास्त्र तथा संस्कृत नाटकों के गहन अध्ययन ने उनमें समझ, संवेदना और सौंदर्य दृष्टि के विकास में एक विराट आधार भूमि का काम किया। यहाँ तक कि बाद में राजा रवि वर्मा ने संस्कृत के छंदों में कविताएँ भी लिखीं। इस तरह रंग औरशब्द दोनों के मर्म को जानने के साथ ही साथ उन्होंने संगीत के स्वरों को भी समझा। कथकली की कई मुद्राओं को उन्होंने एक कलाकार की दृष्टि से आत्मसात किया। इसी बीच एक दिन मद्रास के एक अखबार में तैलरंगों का एक विज्ञापन छपा।
यह माध्यम उनके लिए नितांत अपरिचित और चुनौतीपूर्ण था। चाचा राजा-राजा रवि वर्मा ने युवा भतीजे के लिए तैलरंगों को उपलब्ध कराया, लेकिन दिक्कत ये थी कि वे उसके इस्तेमाल की तकनीक से अनभिज्ञ थे। उन्होंने त्रावणकोर के दरबार में पोर्ट्रेट (व्यक्ति) चित्र बनाने के लिए आए एक ब्रिटिश चित्रकार थियोडोर जेनेसन से आग्रह किया कि वे उन्हें तैल रंगों में काम करना सिखाएँ, लेकिन जलरंग में राजा रवि वर्मा द्वारा किए गए काम को देख कर वह यह जान चुका था कि इसे तैलरंग का उपयोग सिखाना स्वयंभू के लिए एक खतरा मोल लेना होगा। बहरहाल, ईर्ष्यावश उसने स्पष्ट इंकार कर दिया। उसने कहा कि वह उसके द्वारा बनाए चित्रों को तो देख सकता है, लेकिन रंग-संयोजन और रंग मिश्रण के समय वह किसी को भी अंदर आने की अनुमति नहीं देगा। उनकी आगामी संभावनाओं का आकलन करते हुए रामास्वामी नायकी ने भी तैलरंग के वापरने की तकनीक बताने से इंकार कर दिया। नतीजतन, युवा राजा रवि वर्मा ने स्वयं ही सब कुछ सीख लिया और कुछ दिनों में महाराजा तथा महारानी का चित्र बना दिया।
भारतीय परंपरागत चित्र शैली में मूलत: चित्रांकन में कागज की सतह पर एक आयामी ही काम होता था। वे 'चित्रलेख से थे, क्योंकि उनको देखकर यह नहीं बताया जा सकता था कि चित्रकार ने उस चित्र को किस जगह से देखकर बनाया है। वे 'सीन फ्रॉम नो व्हेयर थे, जबकियोरपीय यथार्थवाद में एक स्पष्ट पर्सपैक्टिव उभरता था, उसमें छाया और प्रकाश के बीच चीजों को देखने की अनिवार्यता थी।
इसके अध्ययन के लिए उन्होंने पद्मानाभनपुर के मलाबार स्कूल ऑफ पेटिंग में दाखिला लेना चाहा, लेकिन निराशा ही हाथ लगी। बाद में उन्होंने स्वयं ही उस विचार को त्याग दिया तथा महाराजा की मदद से रॉयल अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिकाओं और पुस्तकों को मँगवाया और बहुत बारीकी से स्वयं योरपीय कलाकारों की तकनीक और चित्र भाषा को समझ कर काम करना शुरू किया। लार्ड हर्बर्ड ने युवा राजा रवि वर्मा के काम को अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में भेजा और जब उन्हें स्वर्ण पदक मिला तो सारा दृश्य ही बदल गया। यहाँ तक कि डयूक ऑफ बकिंघम ने राजा रवि वर्मा द्वारा चित्रित 'शकुंतला खरीदी। तब तक उनके सामने एक मार्ग स्पष्ट हो गया था कि उन्हें अपनी प्रतिभा को नाथकर कला की किस दिशा में मोडना है। ये वह कालखंड था, जब औपनिवेशक सत्ता के विरुद्ध एक धीमी लपट लगभग सारे देश में उठ रही थी, क्योंकि भारतीयों को लग रहा था कि वे अपनी अस्मिता खो रहे हैं। उसकी तलाश में सिर्फ गर्दन मोडकर पीछे देखा जा सकता था।
निकट अतीत गडबड था, सुदूर अतीत ऊर्जा देता था। शायद यही वह द्वंद्व था, जिसने राजा रवि वर्मा को अपने चित्रों के विषयों को निर्धारित करने में एक बडी और निर्णायक भूमिका अदा की। उन्होंने संस्कृत नाटकों, गीत, गोविन्दम् और रसमंजरी से मदद ली और योरपीय'न्यू क्लासिकल रियलिज्म की संभावनाओं का दोहन करते हुए भारतीय पुराकथाओं और देवी-देवताओं का चित्रण आरंभ किया। किंचित इसी कारण स्त्रियों की काया कुछ-कुछ पृथुल बनने लगीं, लेकिन, रंग व्यवहार में उनकी क्षमताएँ रेम्ब्राँ, गोया या टिशियन से रत्तीभर कम नहीं थीं। अभी भी गोया की नेकेड माजा, रेम्ब्राँ की 'सास्किया या टिशियन की वीनस ऑफ अबनो से राजा रवि वर्मा की किसी भी निवर्सना की तुलना की जा सकती है।
निश्चय ही पुराकथाओं और देवी-देवताओं का चित्रण आसान नहीं था, क्योंकि उनके आभूषण और वस्त्रविन्यास के साथ ही साथ उस परिवेश और काल को भी समाहित करना था। राजा रवि वर्मा ने महाराष्ट्रीयन नौगज की साडी को देवियों का वस्त्र बनाया। आलोचकों ने राजा रवि वर्मा की बहुत आक्रामकता के साथ आलोचना की। उनका तर्क था कि क्या तब ऐसा वस्त्र संभव था। फिर साडी के साथ एक स्थानीयता भी आ रही थी। राजा रवि वर्मा ने वसंत सेना नामक चित्र में नौगज वाली साडी को पहली बार ऐसा रूप दिया था कि धीरे-धीरे वह भारतीय स्त्री की सार्वदेशीय पोशाख बन गई। बाद में इसी उल्टे पल्ले वाली साडी को रवीन्द्रनाथ टैगोर की भाभी ज्ञानदानंदिनी ने पहनकर सर्वस्वीकृत बना दिया। राजा रवि वर्मा सुबह चार बजे उठकर अपने चित्र बनाते थे। एक नीम अंधेरे और नीम उजाले के बीच बैठकर वे घंटों अपने बनाएचित्र को देखा करते थे। उनकी कृतियाँ धीरे-धीरे पूरे देश में लोकप्रिय होने लगी, जबकि कलाजगत उन्हें निरंतर निरस्त कर रहा था।
उन्होंने शांतनु और मत्स्यगंधा, नल-दमयंती, श्रीकृष्ण-देवकी, अर्जुन-सुभद्रा, विश्वामित्र-मेनका जैसे जो चित्र बनाए उन्होंने एक नया ही सौंदर्य शास्त्र रचा, लेकिन उन्हें भीतर कहीं यह बात सालती थी कि कलाकार और कला समीक्षक उनके काम को निरस्त कर रहे हैं। अत: उन्होंने अपने छोटे भाई के साथ उत्तर भारत की यात्रा की और उन्होंने चित्र में भूदृश्य भी चित्रित करना शुरू किया। बहरहाल, चित्र में पृष्ठभूमि के रूप में जो लैंडस्केप होते, वह उनके अनुज किया करते थे। इस बीच दीवान शेषशय्या ने टी. माधवराव के जरिए राजा रवि वर्मा को बडौदा के सयाजीराव महाराज से मिलवाया, जहाँ रहकर उन्होंने पोर्ट्रेट तो किए ही, देवी-देवताओं को विषय बनाकर कई चित्रकृतियाँ बनाईं। उनकी कृतियों से प्रभावित होकर स्वामी विवेकानंद ने 'वर्ल्ड रिलीजन कांग्रेस ऑफ शिकागो में उनके चित्र प्रदर्शनार्थ मँगवाए, जहाँ उन्हें पदक भी प्रदान किए गए। जहाँ भारत में उनके द्वारा चित्रित स्त्री की देह को कामना की सृष्टि करने वाली कहके निरादृत किया जा रहा था, बाहर उनकी इस विशिष्टता की सराहना की गई। कहा जाता है कि स्त्री चित्रण में जिस मॉडल की वे सहायता लेते थे, धीरे-धीरे वह उनके जीवन में इस कदर दाखिल हो गई कि उनके सरस्वती और लक्ष्मी के चित्रों में प्रकारांतर से उन्होंने उसी सुंगधी नाम की स्त्री की मुखाकृतियाँ बनाईं। सुगंधी या सुगनीबाई से उनका जो राजात्मक संबंध बना, उसको लेकर केतन मेहता और शाजी एन करुण ने हिन्दी फिल्म बनाने की घोषणा भी की थी, जिसमें सुंगधी की भूमिका के लिए माधुरी दीक्षित को प्रस्तावित किया गया था।
दरअस्ल, अपने जीवन के आखिरी वर्षों में मुंबई आए और उन्होंने 1894 में अपनी चित्रकृतियों के छापे बनाकर अधिकतम लोगों के पास अधिकतम पहुँचने का संकल्प लिया। मुंबई के लोनावाला में उन्होंने जर्मनी से तकनीशियन और छपाई मशीन मँगवाई। उनके लिए इन्ग्रेविंगका काम धुण्डीराज गोविंद किया करते थे, लेकिन धीरे-धीरे घाटा बढता गया और उन्हें छापाखाना बंद करना पडा। धुण्डीराज गोविंद बाद में दादा फालके के नाम से जाने गए। लेकिन, उनके स्वप्न को आधा-अधूरा ही सही, लेकिन सही अर्थों में कण-कण वाले भगवान, को घर-घर में भगवान के रूप में साकार कर दिया। यह एक किस्म का नया डोमेस्टिकेशन ऑफ गॉड था। मंदिर से उठाकर भगवान को राजा रवि वर्मा ने सामान्य आदमी के घर की बैठक का स्थायी नागरिक बना दिया।
सारे देवी-देवता घर के सदस्य की तरह भारतीय घरों में दाखिल हो गए। उनके इसी प्रयास के कारण उन्हें कैलेंडर आटस्ट कहकर फिर नए तरीके से खारिज किया जाने लगा। लेकिन, जितनी कला जगत में उनकी अस्वीकृति बढ रही थी, जनता में वे उतने ही अधिक स्वीकृत हो रहे थे। जनता में उनकी इस पहुँच को ईस्ट इंडिया कंपनी भी पसंद नहीं कर रही थी। खासकर, जब उन्होंने शिवाजी और बाल गंगाधर तिलक के व्यक्ति चित्र बनाए तो वे आंदोलनकारी लोगों के बीच भी सम्मानजनक दृष्टि से देखे जाने लगे।
सीता को दी पौत्री सी मुखाकृति
उम्र के आखिरी वर्षों में निश्चय ही वे अपनी ख्याति के चरम पर थे। उन्हें एशिया का रेम्ब्राँ कहा जाने लगा था, लेकिन उन्हें लग रहा था कि कला का मर्म तो वे अब समझने लगे हैं, लेकिन घंटों एक जगह खडे होकर दिन-रात के काम ने उनकी देह को तोडना शुरू कर दियाथा। इसी बीच उन्हें तब के राजरोग कहे जाने वाले मधुमेह ने घेर लिया था। वे थकने लगे थे। उन्हें विदेशों से आमंत्रण आते थे, लेकिन समुद्र यात्रा न करने वाली उस पुरानी अवधारणा के चलते उन्होंने तमाम आमंत्रण ठुकरा दिए। वे देश में रहकर ही दुनिया भर का हो जाना चाहते थे। इस उम्र तक वे वास्तव में ही राजा हो चुके थे। उनकी दो-दो पोतियाँ राजघराने में ब्याहकर राजरानियाँ बन चुकी थीं। वे सेतुलक्ष्मी को बहुत प्यार भी करते थे, जो छोटी पोती थी। रावण द्वारा सीता के हरण के चित्रण में उन्होंने सीता की मुखाकृति अपनी इसी पोती की ली थी।
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नई दुनिया से साभार. मूल लेख यहां (गैर यूनिकोडित) देखें
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आपने बहुत प्यारी और अच्छी जानकारी दी है. कभी कभी मुझे आपसे जलन होती है कि आप एसे इतना सारा कैसे छांट लेते हैं, लिख लेते हैं, समेट लेते हैं?
जवाब देंहटाएंधन्यवाद रवि भाईसाहब। राजा सहब की कुछ तस्वीरें शायद हैदराबाद म्यूज़ियम में देखने को मिली थीं। उनका अपना क्लास था।
जवाब देंहटाएंरवी जी आप हमारी रोजाना की खुराक मे शामिल हो पर बन्धु कल कहा हो आये थे,
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