मुझे कुछ याद नहीं ( मूल गुजराती उपन्यास मने कांई याद नथी का अनुवाद) लेखक - हरिसिंह दोडिया परिचय जन्म: 23 जून...
मुझे कुछ याद नहीं
(मूल गुजराती उपन्यास मने कांई याद नथी का अनुवाद)
लेखक - हरिसिंह दोडिया
परिचय
जन्म: 23 जून, 1936,धरमपुर में
शिक्षा: कक्षा 8 तक
नौकरी: सर्कल इन्सपेक्टर, धरमपुर, 1957- से 1994 तक।
प्रकाशित पुस्तकें: मेघश्याम (कहानी-संकलन) धूम्रपुतळी, मने कांई याद नथी,
श्वेत स्वर्ग काळो रस्तो (उपन्यास), मृत्यु लोक
(नाटक)
शीघ्र प्रकाश्य: वळांक, चंदन, हरियाळी, मन मस्तानुं माने ना (उपन्यास)
पचास से अधिक कहानियाँ।
पुरस्कार: धरमपुर गौरव-1999
32 कहानियाँ पुरस्कृत।
अनुवाद: पानी में मीन प्यासी कहानी का तेलुगु और हिंदी
में तथा गुजराती की पुरस्कृत कहानियाँ में प्रकाशित।
सम्पर्क: श्री हरिनिवास, जेल रोड, पो. धरमपुर,
जिला. वलसाड-396 050 (गुजरात)।
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अनुवादक - डॉ. उत्तम पटेल
जन्म: 1 जून, 1961
वलसाड के अटगाँव में।
शिक्षा: एम.ए.; बी.एड्.; एम.फिल्.; पी-एच.डी.
लेखन: प्रकर, शाश्वत साहित्य दर्पण, समकालीन भारतीय साहित्य, रंगायन, राजभाषा, राजभाषा भारती, रचना-कर्म, तादर्थ्य, लोकगुर्जरी, ताप्तीलोक,
गुजरात मित्र, प्रतिनिधि आदि पत्र -पत्रिकाओं में तथा वेब दुनिया.कॉम इंटरनेट पोर्टल पर संशोधात्मक, समीक्षात्मक तथा लोक-साहित्यिक लेखों का प्रकाशन।
लेखन-कार्य हिंदी व गुजराती में।
प्रकाशित पुस्तकें: ऑंचलिक उपन्यासों में ग्राम्य-जीवन
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यासों में कृषक-जीवन
साहित्य-विवेचना (गुजरात हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत)
शीघ्र प्रकाश्य: हिंदी के ऑंचलिक उपन्यास
दक्षिणी गुजरात के लोक-गीत
कुंकणां बोलीनां लोक-गीतो (गुजराती)।
सम्पर्क: 14-बी, अवधूतनगर, नगारिया, पो. धरमपुर,
जिला. वलसाड -396 050 (गुजरात)
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1
पीले पंखवाले पंछियों का एक छोटा समूह उसके सिर पर से तेज़ी से पसार हो गया।
कुछ देर तक वह नीले-हरे आकाश की ओर देखता रहा। देर के बाद उसे ख्याल आया कि तीव्रता से पसरते पंखों के पीले रंग के अंदर कत्थई छींट थे। शायद छोटे छोटे बिंदु थे और इसके कारण पंखों की भात बहुत ही सुंदर, शायद शब्दों में वर्णित न हो सके वैसी सुंदर लग रही थी। उसने अभी ही पंखों का रंग देखा था। उस रंग को, पंछियों के पीले पीले पंखों को, पंख के आकार को, उस आकार के बीच के कत्थई बिदुओं को कभी न भूल पायेगा, कभी भी नहीं।
उसे खिलखिलाकर हँसने का मन हुआ और वह मुक्तता से हँसा।
हास्य की प्रतिध्वनियाँ छोटी-बड़ी पहाड़ियों के बीच देर तक गूँजती रहीं...एक दूसरी पहाड़ियों की तलहटी के बीच टकरा कर इधर-उधर फैलती रहीं...प्रवाही की तरह पसरती रहीं।
वह देर तक आवाज सुनता रहा। छोटी-बड़ी पहाड़ी के बीच बह कर विलुप्त होती जा रही अपनी ही आवाज को पहचानने की उसने कोशिश की।
कुछ देर के बाद उसे खयाल आया कि अपनी ही प्रतिध्वनि को शायद खुद ही पहचान नहीं पाता।
उसने अपनी ही आवाज को खोजने की व्यर्थ कोशिश की, इधर-उधर, उपर-नीचे, चारों ओर, लगभग सभी ओर देख लिया।
प्रतिध्वनि शांत हो चुकी थी। दूसरी कोई आवाज न सुनाई दे रही थी।
पहाड़ियों को पार कर वह ध्वनि शायद दूर चली गई थी। क्योंकि अब तो उस ध्वनि का कोई अता-पता ही न था।
जोर से पुकार मचाने की अंदरुनी इच्छा को उसने प्रयत्न पूर्वक रोका।
अपनी ये सारी चेष्टाओं को कोई छिपकर देख तो नहीं रहा है, कुछ ऐसा ही सोचकर वह बैठा था। वहाँ से दिखते और आँखों के अंदर समा जाते सभी ऊँचे-नीचे प्रदेशों को वह ध्यान से देखता रहा।
कुछ देर तक वह स्वयं का ही अवलोकन करता रहा।
अंत में वह जब इस निर्णय पर पहुँचा कि उसे कोई नहीं देख रहा है तब आनंदित हो उठा। किन्तु आनंद की रेखाएँ पलभर ही में उसके चेहरे से विलुप्त हो गई।
उसका निरीक्षण योग्य न था।
उसे कोई देख रहा था।
शायद तीव्र नजर से देख रहा था।
खुद का अवलोकन योग्य न था और जिस वक्त आनंद की मात्रा उसके मन में बढ़ रही थी ठीक उसी वक्त उसे वह दृश्य दिखा था।
मजा नहीं आ रहा था फिर भी वह हँसना चाह रहा था। किन्तु वह नहीं हँसा।
वह पहाड़ी की चोटी के एक पत्थर पर आराम से बैठा।
सूरज उग चुका था। पूरब की ओर फैलती किरणें वहाँ तक आ पहुँची थीं। दूर-दूर दिखती खाई का घना कोहरा आकाश की ओर उड़ रहा था और रंग बिखर रहे थे।
सुबह की नर्म धूप रोचक लग रही थी।
आज तो मज़ा आ रहा था। हरी-हरी पहाड़ियों के ऊँचे-नीचे स्थान यहाँ से स्पष्ट दिख पड़ते थे। कहीं -कहीं वृक्षों की घटाएँ थीं। उसके अतिरिक्त यह सारा विस्तार खुला था।
दोनों आँखों में समा सके उतना दृश्य वह देख लेता था।
ऊँची पहाड़ियों पर वह एक ऐसे स्थान पर बैठा था कि जहाँ से अधिकतर प्रदेश दिखाई दे।
पूरब की ओर नीचे पहाड़ियों के बीच कुछ मैदान थे और उन मैदानों में यहाँ की प्रजा बहुत ही चैन से जी रही थी। जमीन के कुछ टुकडे खेती के लायक थे। कुछ उबड-खाबड टुकडों को यहाँ के लोगों ने कड़े परिश्रम से खेती योग्य बनाये थे और उसकी फसल बहुत मिठासवाली होती थी।
यहाँ से दूर-दूर दिखते फूलों ने उसका ध्यान खींचा।
फूलों की पंखुडियाँ पीली थीं और उन पंखुड़ियों के बीच एक कत्थई बिंदु होने का उसे आभास हुआ। उसे पीले पंख वाले पंछी याद आये। वह स्वयं पीले पंखों के कत्थई छींट को कभी भी नहीं भूल पायेगा ऐसा उसने मन ही मन सोचा।
वह अभी भी सोच ही में था कि फडफडाहट सुनाई दी।
यकायक उसकी नजरें उधर दौड़ गईं।
और तब उसे ख्याल आया कि वह किसी सोच में पड़ गया था।
कुछ क्षण पहले उसे कोई देख तो नहीं रहा है न, के ख्याल से उसने चारों ओर नज़र फेर कर देख लिया था।
किन्तु अपने अवलोकन के निर्णय में गलत ठहरा था।
उसे कोई देख रहा था।
बहुत ध्यान से देख रहा था।
ताकते हुए सिर इधर-उधर घुमाकर कोई देख रहा था।
और अपने निरीक्षण को बहुत देर के बाद अंतिम घडी में उसने पकड़ लिया था। कुछ क्षण वह स्वयं उस निरीक्षण का निरीक्षण करता रहा। अब वह सच्चा था और खुद की सच्चाई स्वीकारते वह किसी सोच में पड़ गया था।
कोई उसे देख रहा है, कोई उसे ताक रहा है, बहुत ध्यान से देख रहा है, यह देख उसके आनंद की मात्रा मानो कम हो गई।
और बाद में वह किसी दूसरी सोच में पड़ गया था।
सामने की पहाड़ी के एक वृक्ष पर से अभी भी यदि पंख की फडफडाहट न सुनाई देती तो वह किसी सोच में यहाँ ही बैठा रहा होता।
किन्तु पंखों की फडकन से उसका मन भी फडफडा उठा।
पहाड़ी कौए ने एक बार फिर उसकी ओर देख सिर को इधर-उधर घुमाया और उड़ गया।
उसे वह पहाड़ी कौआ कब से देख रहा होगा, उसका कोई अंदाज वह न लगा पाया। वह तो बस, अंतिम घड़ी तक यही मान रहा था कि उसे कोई नहीं देख रहा है। और ऐसे ही विचार से एक उग्र पुकार लगाने की उसे इच्छा हुई। किन्तु वह ऐसा न कर सका था और वहीं उस पहाड़ी कौए की ओर उसका ध्यान गया था। पहाड़ी कौआ न जाने क्यों किसी भी प्रकार की आवाज किये बिना उसकी ओर देखा करता था। सिर घुमा घुमाकर देखता था।
फिर पहाड़ी कौआ उड़ गया था।
उसने मेरी ओर ताक कर क्या देखा होगा ?
वह इस प्रदेश में नया ही था, यह सच था किन्तु आखिर वह भी इस मैदानी प्रदेश के मनुष्य जैसा एक मनुष्य ही तो था न !
उसने खुद को देखा।
उसके पैर की धार पर एक पीली तितली हवा में तिरती-तिरती आ बैठी।
वह स्वयं पत्थर का पुतला बन बैठा रहा।
उसकी दोनों आँखें तितली को ताक रही थीं।
पीले कोमल कोमल पंख, दोनों पंखों के बीच सफेद शरीर और पीले पंखों के बीच कत्थई रंग के बिंदु।
मजा आ रहा था।
दिमाग में, उसने पैर को स्थिर रखा था, उसके विचार आ रहे थे।और ऐसा कुछ हो रहा था जो समझ में नहीं आ रहा था। किन्तु अब तो पैर हिल उठेगा...अभी हिलेगा...थोडा सीधा हो पायेगा, थोडा खींच पाऊँगा...
और सचमुच में पैर हिल गया।
चंचल तितली पलभर में उड़ गई।
उड़ती उड़ती मैदानी खेतों की ओर चली गई।
उसने आँखों से तितली को पकड़ना चाहा किन्तु पकड़ न पाया।
आँखों से तितली को पकड़ने की कोशिश फिर उसने न की। यों ही वह पूरब की ओर देखता रहा।
सूरज की किरणें उस पर पड़ने लगी थीं। शरीर से ठंड कोहरे की तरह उड़ रही थी और बैठने में मजा आ रहा था।
बेड टी लेकर वह निकला था। अब तो नाश्ते की तैयारी हो रही होगी। मैदानी इलाके का कोई बटलर टेबल सजा रहा होगा। मुझे देख वह हँस देगा। मैं भी हँस दूँगा। फिर उसकी पीठ में चपत मारने दौड़ेगा। किन्तु वहाँ बगीचे में पिताजी आ जायेंगे। वे कड़ी नजर से थोड़ी देर देखेंगे। नज़र में घुड़की होगी। स्वयं नींबू की फाँक जैसी आँखों को पढ़ लेगा...रोयल फेमिली का एक युवा लड़का बटलर के साथ खींचातानी करेगा ? आश्चर्य... आश्चर्य... आश्चर्य... नवीन आश्चर्य...!
वह नज़र झुका देगा। कुछ कहेगा नहीं और सीधे दूसरे कमरे में चले जाने की कोशिश करेगा। किन्तु वहीं तो एक पुष्ट और घनी आवाज हवा में तिरती उसके कान में पड़ेगी... बीजेन्द्र...
बिना जाने ही मुँह खुल जायेगा और मुँह से अनजाने में ही आवाज निकल जायेगी... ‘जी'...
बाद में एक कर्कश आवाज़ सुनाई देगी। उसके साथ ही साथ उसे लक्ष्य करके कुछ कहा जायेगा और वह नास्ते के टेबल के पास पहुँच जायेगा।
गर्म गर्म भाप कै कर रही कीटली, तुरंत तल कर लायी गई आमलेट, ब्रेड के टुकडे और बर्फ जैसा बटर...
मुँह में आया पानी वह निगल गया। वैसे तो पिताजी का स्वभाव खराब न था। किन्तु जिसने सारी जिंदगी हुकम दिये हो, ऑडर किये हो उससे यकायक नर्म तो हुआ ही नहीं जा सकता न।
किन्तु यहाँ भी... इस मस्त मज़े की पहाड़ी के बीच भी ?
बीजेन्द्र को कुछ समझ में नहीं आया। नासमझ होकर फिर एक बार उसने हरी पहाड़ियों की ओर देख लिया।
हरी हरी पहाड़ियों के बीच आकर भी मनुष्य अपनी कठोरता कैसे कायम रख सकता होगा, वह समझ न पाया। यहाँ के इस समस्त वातावरण में कहीं भी कठोरता या क्रोध का आभास नहीं होता था। जहाँ देखो वहाँ बस शांति...शांति... और शांति...।
चारों ओर फैली शांति उसे ऐसे तो भा गई कि उठने का जी ही नहीं हो रहा था। मन ही मन वह कामना कर रहा था कि कोमल कोमल पीले पीले पंखों वाली एक तितली आकर उसके पैर पर बैठ जाय। इस बार यदि ऐसा होगा तो वह अपने आपसे शर्त लगाने को तैयार था कि इस बार वह ज़रा भी नहीं हिलेगा, पैर जरा-सा भी नहीं खींचेगा, अरे ! पलक भी नहीं झपगायेगा। साँस भी ऐसे लेगा कि खुद को भी पता न चले।
पीले पंखोंवाली तितली के विचारमात्र से वह यकायक स्थिर हो गया था। जैसे बैठा था वैसे ही बैठे रहा। पलकें झपकाना भी भूल गया था और साँस लेना, छोड़ना सब भूल गया था। कुछ देर के बाद वह हँस पड़ा।
किन्तु हँसते-हँसते ही रुक गया।
पीले पंखोंवाली एक तितली उसके बहुत पास आकर तुरंत दूर दूर उड़ गई।
इस बार उसने आँखों से पीछा न किया।
मन ही मन अफसोस हो रहा था, यदि वह हँसा न होता तो तितली शायद उसके पैर पर बैठी होती। पिता जी सच ही कहते थे...युवा मनुष्य और उच्च परिवार की स्त्री को बार-बार हँसना नहीं चाहिये। और हँसने की भी सीमा होनी चाहिये। इंसान का हँसना तो एक ऐसी बात थी, जो पशु-पंखी भी नहीं करते।
बीजेन्द्र को यकायक बादशाह की याद आयी।
बादशाह, क्या कभी भी हँसता नहीं था ?
शायद हँसता होगा, किन्तु पिताजी को देख यकायक अकड जाता था। दुम हिलाना भी भूल जाता था। उसका सारा स्वरूप बदल जाता था। वह भी पिताजी को, उनके रूआब को, उनके स्वभाव को शायद अच्छी तरह जानता था।
बीजेन्द्र को बादशाह के केशवाली जैसे लंबे-लंबे बालों पर हाथ फेरने का जी हुआ।
बड़ा अच्छा कुत्ता था।
उसके साथ तो थोड़े ही समय में बहुत हिलमिल गया था।
वह यहाँ आया तब कम्पाउन्ड के दरवाजे पर हाथों लिखा टँगा साइन बोर्ड ‘कुत्ते से सावधान ' पढ़ना मानो वह भूल ही गया हो वैसे सीधा फ्लेट जैसे मकान में घुस गया था। किन्तु कुत्ता शांत था। बगीचे के पत्थरवाली बैंच पर बैठ जीभ से शरीर को चाट रहा था। थोड़ी देर के लिए उसने अंदर आये बीजेन्द्र की ओर देखा। फिर मानो कुछ हुआ ही न हो वैसे शरीर को चाटने लगा। बीजेन्द्र ने पुराने साइन बोर्ड को देखा जो आगे ही रखा था। जानने के बावजूद ध्यान से पढ़ा। बी.राठौर के बाद न जाने कितने अक्षरोंवाली लंबी-लंबी उपाधि पढ़ने वह नहीं रुका, कोलबेल पर ऊंगली दबाई थी। कुछ देर बाद एक युवा ने दरवाजा खोला था। वह हँसा था। किन्तु बाद में गलती के एहसास से हँसना रोक दिया था। पिता जी, बसवेश्वरसिंह को हँसी से बहुत चिढ़ थी। उनके सामने कोई हँस दे, वह उन्हें हरगिज पसंद न था और हँसनेवाले के मुँह पर ही कुछ कह देते थे।
बसवेश्वरसिंह राठौर जब नौकरी पर थे तब गलती से उनके सामने हँसने वाले, उनके नीचे के तबके के लोग सस्पेंड हुए थे। अरे, कुछ तो नौकरी से डिसमिस हो गये थे। इसलिए ऐसा कहते सुनाई पड़ता था कि बसवेश्वरसिंह राठौर के सामने हँसने का मतलब है मौत को निमंत्रण देना।
करीब-करीब सारे लोग जान गये थे। इसलिए उनके बंगले के आजूबाजू के लोग भी उनका लिहाज रखते हो, वैसे हँसना टालते थे। बीजेन्द्र यह जानने के बाद भी गलती से हँस देता था। जानबूझ कर जोर से हँसना तो वह पिताजी के साथ रहा उतने समय ही में भूल चुका था। किन्तु आज वह हँसना चाह रहा था। हरी पहाडियाँ, पीले पंखवाले पंछी, कोमल कोमल तितलियाँ, उसे ध्यान से देख कर उड़ने वाला पहाड़ी कौआ... सब बीजेन्द्र को हँसा रहे थे, खिलखिलाकर हँसा रहे थे। मुक्त रूप से हँसने के लिए प्रेरित कर रहे थे। और इसलिए एक बार वह खिलखिलाकर हँसा था। अभी कुछ देर पहले उसके मुख से हास्य फूट निकला था और उसके प्रतिघोष एक-दूसरे से टकराते-टकराते टूट कर बिखर गये थे।
मनुष्य को हँसना चाहिये...जोर जोर से हँसना चाहिये। कोई रोक दे तब भी...कोई रोक दे तब भी...
एक बार फिर उसने हँसना चाहा किन्तु मुँह ही न खुला। हँस न पाने पर उसने चाहा कि जोर से पुकार मचाये।
किन्तु पुकार भी न मचा पाया।
उसने मन ही मन सोचा कि पिता जी कहते थे वैसे, सचमुच, बचपन उस पसार हो चुके प्रतिघोष की तरह लुप्त हो चुका है, दूर-दूर निकल गया है। कुछ क्षण पूर्व ही अपने पैर पर बैठकर उड़ गई कोमल कोमल पीले पंख वाली तितली के समान आँखों से ओझल हो गया था।
अफसोस... वह बचपन अब कभी भी लौटकर न आयेगा।
पीले पंखों में कत्थई छींट वाले पंछी पसार हो चुके थे। उसके हास्य की प्रतिध्वनि दूर-दूर चली गई थी। पीली तितली सदा के लिए उड़ गई थी। और पहाड़ी कौआ...
बीजेन्द्र अपने चलते-खेलते विचारों से बाहर निकले उसके पहले ही उसकी पीठ में एक मजबूत हाथ की चपत पड़ी।
वह चमका। हिल उठा। जिस पत्थर पर वह बैठा था उसकी दूसरी ओर धीरे से वह घुमा। क्रोध से उसने देखा। पिता जी वोकिंग स्टीक के साथ खड़े थे। अकेले पिता जी ही नहीं, किन्तु बसवेश्वरसिंह राठौर भी खड़े थे।
और बीजेन्द्र के हरियाले वन से पीली तितली उड़ गई। दूर-दूर चली गई।
2
बीजेन्द्र हँसना चाहता था किन्तु बसवेश्वरसिंह राठौर को देखते ही उसने हँसना टाला। मन में खेल रहे विचार क्षण भर में गायब हो गये।
आहिस्ते से वह खड़ा हुआ। ऊँची पहाड़ी पर दो पुरुष खड़े थे।
बसवेश्वरसिंह राठौर ने मन ही मन बेटे की ऊँचाई नापने का प्रयत्न किया। परंतु नाप लेने का मजा नहीं आया। बीजेन्द्र जहाँ खड़ा था वह जमीन ढलानवाली थी। वहाँ सामान्य खड्डे जैसे लग रहे थे। अंदाज लिया नहीं जा रहा था।
‘बीजू इधर आ।'
बीजेन्द्र दो कदम में ही उनके पास आ लगा।
‘मुझसे तू आधा इंच ऊँचा है... देख...बराबर देख... '
उसने ध्यान से देखा किन्तु सिर के उपर से पीले पंख वाले पंछियों का एक समूह पसार हो गया और उसके साथ ही उसकी नजर उस ओर चली गई।
पंछी नीचे की ओर चले गये हैं- का अनुमान उसने लगाया। ‘जी शिकार खेलने को करता है?' बसवेश्वर सिंह राठौर ने पूछा।
बीजेन्द्र ने कोई उत्तर न दिया।
‘कारतूस के एक बार से मैं ऐसे आठ-दस पंछियों को बिंध सकता हूँ।'
दूर पहुँच चुके पंछियों की ओर देख उन्होंने कहा। फिर पुत्र को मौन देख कहा- ‘तू कितने पंछियों को बिंध सकेगा ? '
‘एक भी नहीं... '
‘क्या ? 'गर्जना जैसी एक घनी आवाज छोटी पहाड़ियों से टकराकर प्रतिघोष करती रही।
‘सचमुच, मैं यों ही एक भी पंछी को नहीं मारूँगा'।
‘कितने काम बिना कारण करने पड़ते हैं। शिकार खेलना तो शौक की बात है। पंछियों का झुंड जा रहा हो तब ऐसी पहाड़ी पर खड़े रहकर बिंधने का मजा ही कुछ ओर होता है। मासूम आठ-दस पंछी तो बिंधे जाकर तड़प मरेंगे'।
‘क्या यहाँ शेर-चित्ते रहते हैं ? ' बीजेन्द्र ने तलहटी की ओर देखकर पूछा।
‘नहीं'।
‘शेर-चित्ते का शिकार करने में मुझे मजा आयेगा'।
‘पंछियों के शिकार में मजा नहीं ? '
‘नहीं'।
पल पल मौन में बह रहे थे।
सूरज उपर चढ आया था। खाई की ओर का कोहरा अब लगभग पूरा उड़ गया था।
‘मुझे एक बात की अत्यंत खुशी है... ' बसवेश्वरसिंह ने जानबूझकर वाक्य अधूरा छोड दिया।
बीजेन्द्र ने तलहटी की ओर से नजर घुमा कर पिता के मुँह पर केन्द्रित की। मजा किरकिरा हो गया था। यहाँ का एकांत उसकी आँखों में बस चुका था। यदि वह अकेला होता तो कितनी बार तक सोचकर देखा होता।
‘मुझे इस बात की बहुत खुशी है कि तेरी हाईट मुझसे भी अधिक है। कम से कम आधा इंच'।
‘एक इंच से अधिक... ' बीजेन्द्र कह कर चुप हो गया।
‘मेरी हाईट पाँच फिट दस इंच, तेरी ? '
‘पाँच फिट सवा ग्यारह इंच... '
‘गुड...वेरी गुड...माय सन...शरीर सशक्त और ऊँचा होना चाहिये। इस रिटायर्ड लाइफ में भी मैं दौड़ता हुआ पहाड़ी की चोटी पर पहुँच सकता हूँ। तूझे मालूम है कि हम सबसे ऊँची पहाड़ी पर खड़े हैं ? '
‘नहीं, मुझे इस प्रदेश का अधिक अनुभव नहीं है। किन्तु यह जगह बहुत सुहावनी है'।
‘शिकार के लिए श्रेष्ठ... मैंने तुझे अभी ही तो कहा था कि पंछियों के झुंड को बिंधने में मजा आयेगा। ऐसी पहाड़ी पर खड़े होकर शिकार करने में.. '
बीजेन्द्र ने कोई जवाब न दिया। पहाड़ी कौआ बैठा था उस वृक्ष को उसने अकारण देख लिया। अभी इस ऊँची पहाड़ी से दौड़ कर उतर जाने की उसे इच्छा होने लगी।
किन्तु पिताजी पास ही खड़े थे। खानदान की रीतियाँ बड़ी विचित्र थीं। मम्मी रीतियों के नागचूल में फँसकर ही शायद जल्द चल बसी होगी, या तो हँसने की मनाही, बाहर टहलने की मनाही, किसी के साथ बोलने की मनाही...खानदानी के काले रूमाल के नीचे सारी मनाही थीं। उसने तो मम्मी को देखा न था। किसी ने कहा था कि जन्म देकर उसने सदा के लिए आँखें बंद कर ली थीं।
मम्मी की तस्वीर देखने की उत्कंठा उसके मन में हुई।
बड़ी फ्रेमवाली तस्वीर उसकी आँखों के आगे तिरने लगी। समय मानो जम गया था और जमे समय के आकार पर मौन सवार हो चुका था।
बसवेश्वरसिंह भी न जाने किसी गहरी सोच में डूब गये थे। कुछ पल कोई कुछ न बोला। यहाँ की हवा में मैदानी इलाके की ओर से सोंघी सोंघी एक सुगंध बहते-बहते आ रही थी।
बीजेन्द्र ने पिताजी की ओर देखा। दोनों आँखों से वह अपने आप को बराबर देख रहे थे।
‘तेरी छुट्टी कितने दिनों की है ? '
‘तीन महीनों की'।
‘उसके बाद ? '
‘उसके बाद जहाँ डयूटी लगे वहीं'।
‘अभी तो युद्ध की कोई संभावना नहीं है'।
‘फिर भी सीमा पर जाना पड़ेगा'।
‘वह मुझे मालूम है। 30 साल तक भारतीय सेना की सेवा मैंने की है। युवा अफसर... '
अब 30 साल तक मैं करूँगा...उसके बाद दूसरे 30 साल तक मेरा बेटा, ऐसे ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी के विचार बीजेन्द्र को आ गये किन्तु वह कुछ नहीं बोला और मन ही मन सोचता रहा।
सैनिक स्कूल में बहुत साल बिता दिये थे। शिक्षा पूरी होने को थी। वैसे तो कोई विशेष मुश्किल न थी। किन्तु जब वह अकेला होता था तब न जाने कितने विचार उसे परेशान कर देते थे।
मम्मी की बरसों पहले की मृत्यु के बाद पिताजी ने उसकी बहुत देखभाल की थी। वे स्वयं युवा थे फिर भी पुनर्विवाह न करने की खानदानी इज्जत थी। उन्होंने दूसरी शादी नहीं की थी।
बीजेन्द्र को बहुत सारे विचार एक साथ परेशान कर गये।
वह देखता रहा, सोचता रहा।
वैसे उसकी इच्छा सैनिक स्कूल में जाने की न थी। पिताजी का जीवन उसने कुछ तबको में देखा था। यह सब उसे पसंद न था। किन्तु पसंद आये या न आये वह उसकी इच्छा की बात न थी। पिताजी की बात रखने के लिए वह सैनिक स्कूल में भर्ती हो गया था।
सेना के अफसरों को बराबर शिक्षा दे कर तैयार करना पड़ता है। कुछ सालों तक अलग-अलग प्रकार की शिक्षा दी जाती है।
उसे भी सभी प्रकार की शिक्षा मिल चुकी थी। ड्यूटी पर हाजिर होने से पहले की छुट्टियाँ मनाने वह हाल ही में अपने पिताजी बसवेश्वरसिंह राठौर के इस नये विस्तार के निवास पर आया था।
वैसे तो यह प्रदेश बहुत ही मनमोहक था। कुछ घंटों के वास के दरम्यान इससे एक संबंध स्थापित हो गया था। बस, मजा आ रहा था। जहाँ देखो वहाँ पहाड़ी...पहाड़ी और पहाड़ी...। सारा इलाका ही पहाड़ियों से भरा-पूरा। और यहाँ के ‘पीली' पंछी तो गजब के थे। उनके पंख कितने सुंदर थे। पीले पीले रंगों के बीच कत्थई रंग के छींटे।
फिर एक बार वह पंख पसारकर उड़ते ‘पीली' पंछियों की कल्पना कर बैठा।
संतोष हो रहा था, उसने महसूसा।
वह मौन खड़ा रहा।
वैसे भी बसवेश्वरसिंह राठौर के आगे वह अधिक नहीं बोलता था। पूछा जाय उतने उत्तर। ओर अधिक कोई बात नहीं। इसलिए तो अभी वह शांत खड़ा था। और पंछियों के बारे में सोचकर सांत्वना पा रहा था।
‘अब हमें चलना चाहिये'। बसवेश्वरसिंह राठौर ने कहा और कुछ भी पूछे बिना सामने की ओर चलने लगे।
बीजेन्द्र कुछ पल खड़ा रहा। इधर-उधर देखा, और पिताजी के पीछे पीछे चलने लगा।
कल सबेरे वह वापस यहाँ आयेगा, फिर अकेले वह बैठेगा, फिर पहाड़ी कौआ आयेगा...
पीली तितली उसके पैर पर बैठेगी...पीले और कत्थई रंग के पंखवाले ‘पीली' पंछी समूह में घूमेंगे ओर वह देखा करेगा।
ढलान वेग से उतर गया। शरीर का समतोलन बराबर रखना पड़ा था।
दो पहाड़ियों के बीच से आगे बढते दोनों कोलतार के रास्ते पर आ पहुँचे।
बसवेश्वरसिंह राठौर कुछ देर तक रास्ते के किनारे पर खड़े रहे।
रास्ता शांत था।
कोई खास आवाजाही न थी।
बहुत बडे पशु को निगल कर पड़े जंगली अजगर की तरह रास्ता दिख रहा था। दोनों किनारों पर फोरेस्ट डिपार्टमेंट की ओर से बोये गये वृक्ष बढ़ निकले थे। रास्ता दूर चला जा रहा था।
बीजेन्द्र ने देखा, इस रास्ते पर दौड़ने का मजा आ सकता है, सोच वह मन ही मन खुश हो उठा। वह अकेला होता तो शायद दो-तीन किलोमीटर दौड़ आता। किन्तु इस रास्ते पर आ गये, अच्छा ही हुआ। अब कल यहाँ आ पायेगा, टहल पायेगा।
वह यह सोच ही रहा था कि बसवेश्वरसिंह चलने लगे।
उसने देखा। पीछे पीछे खींचा जाता हो वैसे वह भी चलता रहा।
पिता जी बहुत आगे निकल गये थे, वह रास्ते के किनारे वाला बोर्ड ध्यान से पढ़ने लगा।
जलपाईगुरी- 130 किलोमीटर।
बोर्ड पढकर वह आगे बढने लगा।
किसी की कार खड़ी थी।
उसके पिता बसवेश्वरसिंह राठौर भी वहीं खड़े थे।
शायद सभी उसी की प्रतीक्षा कर रहे होंगे।
किसी भी प्रकार की परवाह न हो वैसे वह धीरे धीरे कार के पास आकर खड़ा रहा।
दो स्त्रियाँ रास्ते के बाजू में खड़ी थीं। एक अधेड़ पुरुष कार स्टार्ट करने की कोशिश कर रहा था। मैदानी आबादी यहाँ से थोड़ी दूर थी। दूसरा कोई भी वाहन दिखाई न दे रहा था। हाई वे की ट्रकें दोपहर के बाद कतार में पसार होती थीं। किन्तु सबेरे तो यात्रियों के अतिरिक्त कोई नहीं जाता था।
बसवेश्वरसिंह खड़े रहे।
कार स्टार्ट नहीं हो रही थी।
घायल हिंसक प्राणी की आखिरी घुड़कन के समान गाड़ी थोड़ी-सी आवाज करके बोडी थरथराकर रह जाती थी।
‘बेटरी वीक है। वायरिंग देखना होगा'। बीजेन्द्र ने पीछे खड़े-खड़े ही कहा।
‘हाँ, बराबर है, मेरा भी यही मानना है'। कह बसवेश्वरसिंह राठौर स्वयं गाड़ी खोलने लगे।
दोनों स्त्रियाँ देखती रहीं, परेशान होती रहीं। उनसे ज्यादा परेशानी तो शायद बीजेन्द्र को हो रही थी।
आज तक का अकेलापन अभी उसे ही नहीं, बसवेश्वरसिंह को भी मानो परेशान कर रहा था। स्त्रियों के कारण दिल में पता नहीं कुछ-कुछ हो रहा था।
बीजेन्द्र उस ओर देखना न चाहता था फिर भी देख बैठा। युवा लगने वाली वह एक युवती साड़ी के छोर को घुमाकर, उसे देख रही हो, वैसा महसूस कर वह नीचे देखने लगा।
चुपके चुपके बातें हो रही थी। अंदर वायरिंग देखा जा रहा था।
समय का प्रवाह बह रहा था।
परेशानी बढ़ती जा रही थी।
वहीं अधेड़ उम्र का वह पुरुष जोर से हँस दिया और बसवेश्वरसिंह राठौर खीज पड़े, गंदे हाथों को कपड़े से पोंछने की परवाह किये बिना सीधे रास्ते पर चल पड़े।
‘कोई जोर से हंस दे तब वे ऐसे ही चिढते हैं। ऐसी उनकी आदत है। पहले सेना में थे, मेजर थे। अब अवकाश प्राप्त है, रिटायर्ड जीवन जी रहे हैं। यहाँ थोड़ी दूरी पर फ्लेट जैसे अपने मकान में रहते हैं। उन्हें हँसी अच्छी नहीं लगती'।
‘अकेले आदमियों की ऐसी आदत होती ही है'। उस युवती ने कहा। उसका चेहरा कोमल हँसी से भर उठा था।
बीजेन्द्र का मन करने लगा कि यदि उसका चले तो उस लड़की को सामने बैठाकर उसकी हँसी सदा देखता रहे, बस, देखा करे। पीले पंखोंवाले पंछियों को वह जैसे देखता था वैसे ही इस हँसी को भी देखा करे, पीता रहे।
किन्तु...किन्तु...किन्तु...
उसका मन दूर दूर दौड़ना चाहता था। किन्तु वह वैसा न कर पाया। दो-तीन महीने के बाद उसे दस हजार की तनख्वाह मिलने लगेगी। न जाने कितने लोगों का वह बॉस होगा। उसे बहुत सचेत होकर रहना पड़ेगा।
यों ही वह रास्ते के किनारे की ओर देख बैठा। दोनों स्त्रियों की नजर अपनी ओर देख, लगा शायद वे उनकी ही बात कर रही हैं।
वह गाड़ी रिपेयर करने के लिए रुका।
मन में स्त्रियों के विचार उठ रहे थे।
स्त्रियों के बारे में वह बहुत कम जानता था। स्त्रियों के बीच किसी भी रूप में रहने का उसे मौका ही नहीं मिला था। अपने माँ-बाप की वह अकेली संतान थी। मम्मी उसे जन्म देकर चार घँटे ही में मर गई थी। वह कठोर अनुशासन के बीच बड़ा होता गया और सैनिक स्कूल में उसकी भर्ती कर दी गई।
वह युवती किसी कारण से खिलखिलाकर हँस पड़ी। बीजेन्द्र ने उसकी ओर देखा। वह भी खिलखिलाकर हँसना चाहता था किन्तु हँस न पाया।
कितने प्रयत्नों के बाद गाड़ी धक्के देने से स्टार्ट हुई। वह दोनों स्त्रियाँ बैठ गई। अधेड़ उम्र के पुरुष ने पते का कार्ड दिया और गाड़ी आगे बढ़ी।
बीजेन्द्र का ऊँचा उठा दाहिना हाथ कुछ देर तक वैसे ही रहा।
आज स्त्री को उसने निकट से देखा था। बहुत नजदीक से देखा था।
‘स्त्री, स्त्री, स्त्री...' ऐसा ही कुछ रटता हुआ सीधे रास्ते जा रहा था तब कोरी स्लेट जैसे उसके मन के भीतर स्त्री बहुत तीव्रता से उग रही थी।
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3
वह घर पहुँचा तब पसीने से सराबोर हो चुका था।
वातावरण में नमी थी फिर भी उसने ठण्डा पानी माँगा।
नहाकर वह नीचे नाश्ते के टेबल के पास पहुँच गया।
किटली से गर्म भाप बाहर निकल रही थी। पिताजी कॉफी में सुगर मिला रहे थे। नौकर आमलेट के टुकड़े कर रहा था।
बीजेन्द्र ने अपनी ओर ट्रे खींची फिर एक अखबार उठाकर यों ही देखने लगा।
विज्ञापन की स्त्री को वह देखता रहा। कुछ देर बाद नाश्ता किये बिना ऐसे ही खड़ा होकर अपने कमरे में चला गया।
सफेद दीवारों की ओर वह यों ही देखता रहा। छोटे टेबल पर सूटकेस की चाबी पड़ी थी। अकारण उसने उठा ली और पलंग के पास की सफेद दीवार पर स्त्री का चित्र बनाने लगा।
यहाँ उसका यह दूसरा दिन था।
तीन महीने की लगभग नब्बे दिनों की छुट्टी यहाँ मनानी थी। यहाँ, जहाँ एक भी स्त्री न थी।
उसे लगा कि यहाँ आकर बहुत बड़ी गलती की है।
आँखें बंद कर उसने करवट ली।
एक घंटे पहले उसने एक स्त्री को देखा था। बहुत नजदीक से देखा था। उसने गाड़ी को दुरस्त किया था। कितने स्नेह से उन दोनों ने निमंत्रण दिया था। आने को कहा था।
बीजेन्द्र का एक हाथ अभी भी हिलने उठ रहा था।
और उसके ऊँचे उठे हाथ में नौकर एक लिफाफा रख गया।
पहले तो वह चमका। उसकी सारी सृष्टि नष्ट हो गई। किन्तु डाक का निशानवाला लिफाफा देख वह पीठ के बल सीधा हुआ।
बसवेश्वरसिंह राठौर का पता देख वह सोच में पड़ गया।
अंदर से कागज़ निकाल वह पढ़ने लगा।
पिताजी के किसी सगे ने भेजा था। अंदर बहुत सारी बातें थीं। साथ में उसकी शादी की बात भी लिखी थी। शादी बीजेन्द्रसिंह राठौर की।
शादी के बारे में उसने आज तक सोचा ही न था। आज भी गंभीरता से न सोचता। किन्तु आज तो उसने स्त्री को देखा था, बहुत नजदीक से देखा था। और उसे देखने के बाद उसके दिमाग में स्त्री छा गई थी।
उसे आश्चर्य हो रहा था। वह सोच भी न पा रहा था। आज ऐसा क्यों हो गया, वह कल्पना भी न कर पाया। और इसीलिए तो वह सोच रहा था कि आज वह स्त्री न मिली होती तो हर बार की तरह उसने लिफाफा फेंक दिया होता। उसने शादी करने से मना कर दिया था। शादी है क्या? एक फौज़ी के जीवन में स्त्री का स्थान ही कहाँ होता है ?
किन्तु आज कुछ ओर ही हो रहा था।
स्त्री की जरूरत थी। वह आजतक शादी की बात ठुकराता रहा था। पिताजी ने अपनी रीति से कोशिश की थी। किन्तु उसने कोई उत्तर न दिया था। हर वक्त की तरह बसवेश्वरसिंह राठौर ने अपने पते पर आये लिफाफे को पढ़, उसे भेजा था।
बीजेन्द्र पत्र को फिर से पढ़ने लगा।
शादी की बात स्पष्ट रूप से लिखी गई थी। उसके साथ जिसकी शादी होनेवाली है उस युवती के बारे में बताया गया था।
पढ़ने में उसे मजा आ रहा था।
एक बार...दो बार...तीन बार... वह पत्र पढ़ता ही गया और शादी के बारे में सोचने लगा।
खाना खाने में मन नहीं लग रहा था।
नाश्ता उसने किया न था।
और वह शादी के बारे में सोचने लगा। सोचते सोचते कब नींद आ गई, पता न लगा। किन्तु कान के पास हो रहे शोर से उसकी नींद यकायक टूटी।
उसके हाथ से पत्र गिर गया था। और बसवेश्वरसिंह स्वयं उसे जगा रहे थे।
वह यकायक खड़ा हो गया।
‘डाइनींग टेबल पर मैं तुम्हारी राह देख रहा हूँ'। - कह वे जैसे आये थे वैसे चले गये।
बीजेन्द्र डाइनींग टेबल के पास आकर बैठ गया। सब चुप थे। मौन का एक बादल छाया रहा। बसवेश्वरसिंह के चेहरे पर एक फौजी अफसर का मोहरा सदा की भाँति आज भी था।
बीजेन्द्र बिना कारण हँसना चाहता था। इस बार वह अपने मन को संयमित न रख सका। वह हँस पड़ा। अकेले ...अकेले... और कुछ पलों तक हँसता रहा।
बसवेश्वरसिंह के चेहरे की रेखाएँ ओर अधिक उग्र होती गईं। काँच के नक्काशी से युक्त चिनाई प्लेट में रखे सुगंधी पुलाव से भाप निकल रही थी। पका चिकन बड़ी तश्तरी में रखा था और उसकी सुगंध डाइनींग टेबल के चारों ओर फैल चुकी थी।
वहाँ ही बीजेन्द्र मन ही मन हँस दिया। बस यों ही वह हँस दिया। सामने पिता बैठे थे फिर भी वह अपने मन पर काबू न रख सका।
वह अकेले ही हँस रहा था।
बसवेश्वरसिंह राठौर का चेहरा ओर अधिक उग्र हुआ और मुख की रेखाएँ और अधिक तंग हुई। सुगंधयुक्त पुलाव से उसका मन उठ गया। बड़ी तश्तरी में रखे चिकन की ओर उसने देखा तक नहीं। गोद में बिछे नेपकीन से उन्होंने मूँछें पोंछीं। आँखों से गर्म-गर्म ज्वालामुखी बह रहा था।
बीजेन्द्र को मालूम था। पिता गुस्सा करने जा रहे हैं, उसे मालूम था। इसलिए वह चुपचाप खाने लगा।
वहाँ तो डाइनींग टेबल पर बसवेश्वरसिंह राठौर मुक्का मारने लगे। परिणाम काँच का गिलास ढल गया।
‘बीजेन्द्र, तू अब सैनिक स्कूल का स्टुडन्ट नहीं है... तू एक अफसर है...याद है न तुझे तेरा सर्टिफिकेट ? '
‘हाँ'।
‘तो फिर पागल की तरह हँसना ये क्या अनुशासन है ? '
‘तुझे पता होना चाहिये कि तू एक बड़ा अफसर है। तेरे सिर पर बहुत सारी जिम्मेवारियाँ आनेवाली हैं। दिन-ब-दिन तुझे आगे बढ़ना है। और भगवान की कृपा होगी तो मैं यही देखना चाहता हूँ कि मेरा यह इकलौटा पुत्र भारत का महान सेनापति बनें...सरसेनापति हों'।
बीजेन्द्र का ध्यान इधर था ही नहीं। पहाड़ी के वृक्ष पर बैठे कौए की उसे याद आई। कितनी तीव्रता से वह गर्दन घुमा घुमा कर देख रहा था। उसने निरीक्षण द्वारा यह बात जानी थी।
कमाल का था पहाड़ी कौआ ।
वह फिर हँस दिया।
और उसके साथ ही बसवेश्वरसिंह की भयानक गर्जना डाइनींग हॉल को हिला गई।
‘वोट नोन्सेन्स...तुझे समझना चाहिये। यू आर कमान्डर... फिर कमान्डर ऑव चीफ...और उसके बाद... '
तेज नजरों से उन्होंने देखा।
बीजेन्द्र की हँसी विलीन हो गई थी। पहाड़ी कौआ पहाड़ी के वृक्ष से उड़ गया था। ‘पीली' पंछियों का पीले पंखों में कत्थई छींटवाला समूह सिर से गुजर गया था। कोमल कोमल पीले पंखोंवाली तितली दूर दूर उड़ गई थी।
और उसके साथ ही उसे खयाल आया कि वह तो यों ही अकेला अकेला हँस रहा था। और पिताजी गुस्सा गये।
‘तेरे हाथ के नीचे न जाने कितने लोग रहेंगे। तेरे कहे अनुसार सब काम करेंगे। तेरा ऑडर उनके लिए वज्रलेख होगा। तुझे बार बार हँसना छोडना होगा...मुझे तुझ पर बड़ी आशा है। पाँच फिट सवा ग्यारह ऊँचे मेरे इकलौते बेटे के लिए मैं सब कुछ कर चुका हूँ। और उसकी तरक्की देखने के लिए जिंदा हूँ... '
बीजेन्द्र को लगा कि पिताजी का गुस्सा अभी तक शांत नहीं हुआ है। कब उनका दिमाग फिर जायेगा, कहा नहीं जा सकता।
वह चुप ही रहा। चुपचाप खाता रहा।
बसवेश्वरसिंह राठौर बोलते रहे। बोलते वक्त उनका चेहरा कठोर होता जा रहा था। आँखों की झुरियों में बिना कारण परेशानी, अकेले आदमी का अकेलापन, फौजी अफसर की भयानक क्रूरता, हँसी के प्रति तिरस्कार, और ऐसा ही बहुत कुछ छिप कर बैठा था वह बीजेन्द्र जानता था। किन्तु वह स्वयं भी मानो मजबूर था।
वह खुद पिता से अलग रहता था तब एक कोमल भाव हमेशा के लिए बसवेश्वरसिंह के प्रति रहता था। उस भाव को वह सींचा करता, स्नेह किया करता था। किन्तु उसकी नज़र के सामने जैसे ही पिता जी खड़े हो जाते वह भाव प्रकाश को देख जैसे अंधकार भाग जाता है वैसे दूर दूर भाग जाता।
आखिर उसका कारण क्या होगा ?
आज से ही नहीं, बहुत पहले से, बरसों से, महीनों से, दिनों से वह सोच रहा था। किन्तु अब तक कोई रास्ता नहीं निकाल पाया था।
यहाँ से, इस पहाड़ी इलाके के पिता जी के निवासस्थान से दूर दूर दिल्ली या देहरादून चला जायेगा तब वह भाव फिर से उसके मन में फूट निकलेगा। और लता की तरह आगे ही आगे फैलता जायेगा।
बीजेन्द्र आराम से सुगंधयुक्त पुलाव खा रहा था। वह सोच में ही था कि फिर गर्जना सुनाई दी।
पुलाव से नज़र हटाकर उसने देखा।
बादशाह दुम हिलाते हिलाते डाइनींग टेबल के नीचे घुम रहा था। पैर सूँध रहा था।
बीजेन्द्र ने पैर ही से प्यार जताया। बादशाह पैर को चाट एक छलाँग लगाकर टेबल पर आ गया।
बादशाह ने पुलाव की ओर देखा। बड़ी तश्तरी में रखे चिकन को देखा। फिर लार टपकाती हुई जीभ को मुँह पर फेर बसवेश्वरसिंह राठौर की ओर।
उनकी आँखों में आग थी, नींबु की फाँक जैसी आँखें मानो बोल रही थीं। अकेले बादशाह की ओर नहीं, शायद बीजेन्द्र की ओर भी वे शब्द समांतर बह रहे थे। बादशाह उन आँखों की ओर देख बीजेन्द्र की ओर देखता था। फिर दुम हिलाता था। और बी. राठौर की आँखें शब्दों को व्यक्त कर रही थीं... ‘तेरी यह मजाल... आज तूने भी अनुशासन तोडा...तुझे हो क्या गया है ? बीजेन्द्र आया तब से तू भी...तू भी... '
बसवेश्वरसिंह राठौर की आँखों से आग निकल रही थी। किन्तु बादशाह तो बीजेन्द्र की ओर देख चिकन की तश्तरी में मुँह डाल चुका था।
‘चस...चस...बचाक...बचाक...तड्म... '
बादशाह मजे से खा रहा था।
‘बादशाह... '
बसवेश्वरसिंह राठौर की गर्जना से सारा वातावरण काँप उठा किन्तु बादशाह पर उसका कोई असर न था।
गर्जना के साथ वह क्षणार्ध रूका और बेफिकर हो, देखता हो वैसे बसवेश्वरसिंह राठौर की ओर देखा। मुँह पर लाल लाल जीभ फेरकर बीजेन्द्र की ओर मुँह फेर दुम हिलायी।
बादशाह कुछ हुआ ही न हो वैसे मजे से चिकन उडा रहा था।
‘नहीं...नहीं...ऐसा नहीं हो सकता... ' की गंभीर आवाज के साथ बसवेश्वरसिंह कुर्सी से खड़े हो गये। उनका भारी शरीर काँप रहा था। आँखें तो मानो फटी जा रही थीं। आवाज भी फट गई थी।
वे डाइनींग होल से बाहर निकल गये। बादशाह एक बड़ी हड्डी को अपने मजबूत दातों से चबाकर खाने की कोशिश कर रहा था।
वहीं तो रायफल का बार हुआ। और बीजेन्द्र ने देखा कि अल्शेशियन बादशाह डाइनींग टेबल से दूर फेंका जाकर पीली दीवार से टकराकर फ्लोरिंग पर तड़प रहा है।
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4
बादशाह ने बीजेन्द्र की ओर देख दुम हिलाने की कोशिश की, उसकी आँखों से पानी बहने लगा और अंतिम खींच के साथ ही मर गया।
लहू घीरे घीरे जमता गया। कहीं से मक्खियाँ आयी। उन मक्खियों को बीजेन्द्र देखता रहा।
नौकर आया। अलेशेशियन कुत्ते के शब को उसने खींचा तो मक्खियाँ भिनभिनाकर एक बार उड़ गई...और वापस जमे लहू पर बैठ गई...लहू के दाग साफ कर दिये गये...डाइनींग टेबल स्वच्छ किया गया। नौकर आया, गया। वापस आया। किन्तु बीजेन्द्रü वैसे ही बैठा रहा।
उसी टेबल पर चाय रखी गई। वह खड़ा हुआ। खिड़की के पास गया। बाहर की पहाडिंयों की ओर सूरज ढल रहा था। खिड़की से कूद बाहर जाने की इच्छा उसने रोक दी। पास के दरवाजे से बाहर निकल पहाड़ियों की ओर चलने लगा।
लाल मिट्टी वाला रास्ता हरी पहाड़ियों के बीच कुंकुम की तरह शोभायमान हो रहा था। ढलते सूरज की किरणों में सब निर्मल लग रहा था।
पहाड़ियों को देखते हुए वह ढलान चढ गया। दूसरी ओर उतरना था।
तीव्र गति से वह पहाड़ी से उतरा।
फिर थोड़ी देर रुका।
नीचे वाले भाग की ओर खुदी गई ताज़ा मिट्टी देख उसके पैर उस ओर बढ़ने लगे।
लाल मिट्टी की ओर देखा। खुदी गई जगह अलग ही दिख रही थी।
यकायक अल्शेशियन कुत्ते का शब उसे याद आ गया।
खुदी गई लाल मिट्टी के पास वह बैठ पड़ा।
यहाँ, इस जगह पर ही शायद बादशाह को दफनाया गया होगा।
गङ्ढे की सारी मिट्टी निकल देने का मन होने लगा। उसने इधर-उधर देखा।
चारों ओर कोई नहीं था।
चारों ओर छोटी-बड़ी हरी हरी पहाड़ियाँ मौन खड़ी थीं।
निकट के एक छोटे वृक्ष पर उसने ध्यान से देखा।
पहाड़ी कौआ देखने की संभावना गलत थी।
मिट्टी को निकाले बिना ही वह खड़ा हुआ। हथेली की लालिमा देख दूसरी ढलान चढने लगा।
ऊपर पहुँचकर उसने सूरज को देखा।
फिर दौड़ते हुए वह ढलान उतर गया।
अब सूरज न दिखता था।
सामने की पहाड़ी पर यों ही चढ़ने लगा।
उपर कुछ पल रुका रहा।
लाल दिखता सूरज का गोला गोल गोल घूमता है कि नहीं, जानने के लिए वह सूरज की ओर देखता रहा।
कुछ समझ में नहीं आया। आँखें खुली ही थीं। चारों ओर प्रकाश फैला था फिर भी अंधकार... गाढ अंधकार आँखों के सामने उभर रहा था, दूसरा कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। हरी हरी पहाड़ियाँ, लाल मिट्टीवाला रास्ता, अल्शेशियन को दफनाया था वह जगह, पहाड़ी कौआ, पीली तितली, ‘पीली' पंछियों का समूह...कुछ भी नज़र न आता था। कुछ भी नहीं...कुछ भी नहीं।
दोनों आँखें खुली थीं। सूरज डूबा नहीं था, किरणें फैली थीं। फिर भी आँखों के सामने उभर रही कालिमा से कुछ सूझ नहीं रहा था।
वह बैठ पड़ा।
एक प्रकार के डर से मानो वह कालिमा भाग गई।
अब आँखों के सामने लाल रंग के बिंदु...पीले रंग, सब दिखने लगे।
उसे मजा आ रहा था।
दोनों आँखें उसने मसलीं। देर तक मसलता रहा।
ऑंख से पानी झरने लगा।
कुछ देर बाद हरी पहाड़ियाँ देख वह आनंदित हो उठा।
अब थोड़ी देर के बाद ‘पीली' पंछियों का समूह कत्थई छींटवाले पीले पंखों को पसारता हुआ आयेगा। उसके सिर पर से पसार हो जायेगा। वह देखा करेगा। सूरज डूबेगा...किरणें पिघल जायेगी। अंधकार फैल जायेगा...वहाँ तक वह बैठा रहेगा, देखता रहेगा।
कोमल पंखवाली पीली तितली, पहाड़ी कौआ, सभी की राह वह देखा करेगा। उसके बाद खड़ा हो जिस ढलान पर वह चढा है उससे उतरेगा। तलहटी के अंधकार को चीर वह दूसरे ढलान पर चढेगा...उतरेगा...फिर अल्शेशियन को जहाँ दफनाया है वहाँ खड़ा रहेगा और फिर दूर दूर दिखती दीपक की रोशनी की ओर आगे बढ़ेगा।
यहाँ अंधेरे में बैठकर विस्तृत आकाश के असंख्य सितारे गिन-गिन कर भूल जाने का मजा आयेगा-सोच उसके चेहरा हँसी से भर उठा।
सूरज अब एक ऊँची पहाड़ी के पीछे छिप गया था।
पीले पंखवाले ‘पीली' पंछियों का एक झुंड पसार हुआ, किन्तु दूर से।
वह देखता रहा।
तितली कहीं भी नज़र नहीं आ रही थी।
पहाड़ी कौआ शायद आज जल्दी घोंसले में चला गया हो।
यहाँ से सीधे जाकर सामने की दिशामें चलकर बाई ओर मुड़ जाने की इच्छा उसे हुई। आगे कोलतार का रास्ता था। सबेरे छोटा बोर्ड उसने पढ़ा था। जलपाईगुरी-130 किलोमीटर...शाम को ट्रकों का हल्ला...और...
दोनों स्त्रियाँ उसे याद आ गईं।
स्त्री के संग अधिकतर पुरुष सालों गुजार देते हैं, ऐसा उसने सुना था। ट्रेनिंग के बीच शादी करके झूठे टेलिग्राम करवाकर छुट्टी लेकर पवन की गति से भागनेवाले युवा अफसरों को उसने देखा था।
किन्तु उस वक्त उसे पता ही न था। वह तो स्त्रियों के पीछे दौड़नेवाले उन अफसरों के प्रति घृणा, तिरस्कार और नफरत का ही भाव था। दूसरा कुछ नहीं।
वैसे तो वह स्वयं ही गलत था। जीवन के गणित की गिनती वह गलत कर रहा था।
किन्तु आज तो उसने स्त्री को देखा था। बहुत निकट से देखा था। और उसके मन में स्थित तिरस्कार मोम की तरह पिघल पानी पानी हो गया था।
जन्म से आजतक शायद वह स्त्री के निकट रहा ही न था। आज वह उसके पास पहुँच गया था।
जन्म तिथि उसने याद कर ली।
चौबीसवाँ साल बीत रहा था।
चौबीस चौबीस सालों तक, सौ महीनों तक, हजारों दिनों तक, लाखों मिनटों तक, करोडों सेकन्डों तक वह स्त्री से वंचित रहा था। इतने सालों तक वह स्त्री को जान ही न पाया था, पहचान ही न पाया था।
और आज यकायक एक स्त्री उसके सामने खड़ी थी।
कार के बिगड जाने के कारण रास्ते के किनारे खड़ी अति सुंदर युवती उसे फिर से याद आयी।
उस दिन उस सुंदर युवती को उसने ध्यानपूर्वक देखा था। उसके शरीर के एक-एक मरोड़ को रसपूर्वक देखे थे। मजा आ गया था। मन कर रहा था कि उसे हाथों में उठा दौड़ता रहता, बस, दौड़ता रहता, दौड़ता रहता...
किन्तु...
ज्वाला मुखी जैसे गर्म उच्छवास को जोर से त्याग उसने ऊँची पहाड़ियों की धार की ओर देखा।
सूरज लगभग डूब चुका था। उजास कम ही था। उसके सिर के उपर से ‘पीली' पंछियों का समूह पसार हो गया था। पहाड़ी कौआ भी छोटे वृक्ष की डाल पर क्षणभर बैठ उड़ गया था।
अनंत आकाश से उतर रहे अंधकार की ओर देख उसने खड़े होने चाहा। उसने एक हाथ को, आधार के रूप में खुरदरी धरती पर रखा भी। किन्तु सिर पर से पंख फैला कर जा रहे ‘पीली' पंछियों ने उसे रोका।
वह श्यामल आकाश की ओर देखता ही रह गया।
‘पीली' पंछियों का समूह तीव्रता से गुजर गया।
पंखों के रंग ही को पहचान पाया।
अंधेरा हो चुका था।
बीजेन्द्र अफसोस करने लगा।
‘ऐसे अंधकार में यदि वह युवती मिलती तो ? '
‘पीली' पंछियों के अनदेखे पंख उसे याद आये।
एक बार फिर अफसोस करने लगा।
वह सोच ही में था कि वे ‘पीली' पंछियों, उनके खुलते-बंद होते कत्थई रंग के छींटवाले पीले पंख, अंधकार के कारण अफसोस, सुंदर युवती... और ऐसे ही मनभावन विचारों में खोया था कि वहाँ उसकी गोद में एक छोटा लिफाफा आ गिरा।
वह चौंका।
पीछे पिताजी-बसवेश्वरसिंह खड़े थे।
बीजेन्द्र ने छोटा लिफाफा खोला। वैसे तो वह खुला ही था। अंदर से एक फोटोग्राफ निकल पड़ा।
फोटो को हाथ में ले ध्यानपूर्वक देखने की कोशिश की। ताक-ताककर देखा। किसी युवती का आकार सामने आ गया या आभास मात्र हुआ ? कुछ पता न चला। किन्तु कुछ क्षण पूर्व ही वह सुंदर युवती के बारे में सोच रहा था, वह सोच ओस बिंदु की तरह फैल गई। मन के हरेक हिस्से में मोती जैसे बिंदु फैल गये थे और उन हरेक बिंदुओं में सुंदर युवती दिख रही थी। सुंदर स्त्री। रास्ते के किनारे खड़ी युवती ही थी।
बीजेन्द्र ने फोटो फिर हाथ में लिया। सितारों ने कोई साथ न दिया। आँखें भी पीछे हट गई। वहीं तो बसवेश्वरसिंह राठौर ने लाइटर से चिरुट जलायी। उस थोड़े पीले प्रकाश में उसने आँखें खींची किन्तु पीली रोशनी अब बुझ चुकी थी। धुऑं गोल हो पीछे की पहाड़ी की ओर मुड़ रहा था।
‘उस पत्र के साथ यह फोटो भी आया है। पसंद आये तो कहना'। - कह बसवेश्वरसिंह राठौर प्रगाढ होते जा रहे अंधकार के बीच से रास्ता खोज आगे चलने लगे।
बीजेन्द्र पिता जी की परछाई-सी आकृति को देखता रहा। फिर खड़ा हुआ। वह तेजी से ढलान उतर गया।
मकान पर पहुँच सबसे पहला काम उसने फोटो देखने का किया।
ड्रोइंग रूम में जलती एक विशिष्ट प्रकार की चिमनी के उज्जवल प्रकाश की ओर उस फोटो को धर दोनों आँखें उसने स्थिर कीं।
वह चौंक उठा। खुशी से थरथरा उठा। जोर से साँस वह ले बैठा। दोनों आँखें अनजाने ही में बंद हो गई।
आज सुबह कोलतार के रास्ते के किनारे देखी युवती उनकी पलकों में बंद हो गई थी।
सुंदर युवती, सुंदर चेहरा, चढ़ती जवानी, सब उसकी बंद पलकों के सामने बाढ की तरह दौड़ आया। और मस्त मजे की बाढ़ में वह बहने लगा।
(क्रमश : - शेष अगले अंक में)
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