- मनोज सिंह हिंदी भाषा की एक विशेषता है जो देखने-सुनने में तो बड़ी सामान्य व साधारण लगती है परंतु है बहुत महत्वपूर्ण। इसमें बड़ी सहजता से ह...
- मनोज सिंह
हिंदी भाषा की एक विशेषता है जो देखने-सुनने में तो बड़ी सामान्य व साधारण लगती है परंतु है बहुत महत्वपूर्ण। इसमें बड़ी सहजता से हर एक संज्ञा को, लिंग-भेद करने वाली प्रक्रिया के द्वारा, स्त्री व पुरुष वर्ग में विभाजित कर, उसका मानवीकरण कर दिया जाता है। उदाहरणार्थ 'नदी बहती है' तो 'नाला बहता है', 'चांद छिपता है' तो 'चांदनी खेलती है'। और इस तरह से जाने-अनजाने ही लिंग वाचक शब्दों द्वारा निर्जीव वस्तुओं में जान फूंक दी जाती है। प्राकृतिक संसाधन हो या मनुष्य की खोज या फिर विज्ञान का आविष्कार, आकाशीय पिंड हो या ईश्वरीय शक्ति या फिर मानवीय भावना, हर एक के गुण-दोष, व्यवहार व आम प्रचलन की सहायता से, उसकी लिंगता परिभाषित की गयी है।
ध्यान से देखें तो इस तरह से उनमें मानवीय गुण स्थापित किए गए हैं। संवेदनाएं भरी गयी। और परिणामस्वरूप संपूर्ण ब्रह्मांड सजीव हो उठा।
हिंदी साहित्य में कविता स्त्रीलिंग है। विश्लेषण करें तो यह फिर ठीक भी लगता है। कविता में नारी का प्रतिबिंब है। यह स्त्री गुण से परिपूर्ण है। कविता, काव्य, पद्य... लेखन की इस प्राचीनतम विधा को विश्व साहित्य की जननी भी कहा जा सकता है। गुण-अवगुण, रूप-स्वरूप, नाम-पहचान हर तरह से नारी और कविता में अनगिनत समानताएं हैं। जिसकी सूची लंबी है, मगर सुंदरता को निर्विवाद रूप से प्रथम क्रमांक पर रखा जा सकता है। दोनों से ही अनूठे सौंदर्य की अपेक्षा की जाती है। और यही इनकी पहचान भी है। कविता और नारी के कल्पना मात्र से कोमलता का भाव मस्तिष्कपटल पर प्रमुखता से उभरता है।
दोनों के मूल गुणों में विद्यमान तथ्य व तत्व एक से हैं। दोनों की नींव एक-सी है तो दोनों के विकासक्रम की कहानी भी एक जैसी है। काव्य में जहां नारी के लक्षण प्रबल है वहीं स्त्री का जीवन कविता की तरह बाह्य रूप से सरल परंतु वास्तविकता में गहरा व अर्थपूर्ण है। कविता जहां लय, ताल व सुर से पहचानी जाती है तो नारी के व्यक्तित्व में एक नदी-सा प्रवाह होता है।
काव्य शास्त्र का इतिहास लंबा, सुनहरा और महान रहा है। यह आदिकाल से धर्म, साहित्य और समाज का स्थायी स्तंभ है, संस्कृति का वाहक है। नारी तो फिर स्वयं अपने आप में संपूर्ण सभ्यता है और सदैव पूजनीय रही है। हिंदू धार्मिक ग्रंथ गीता, रामायण और वेद पद्य विधा में लिखे गये तो धर्म में देवियों का विशिष्ट स्थान है। अमूमन अन्य धर्मों व साहित्य में भी यही स्थिति है। सर्वशक्तिमान ईश्वर में नारी स्वरूप को देखा जाता रहा है। राजवंश की पहचान में मां का नाम प्रमुखता से लिया जाता था तो राजदरबार कवियों से जाने जाते थे।
मध्ययुगीन काल व आधुनिक समाज को देख लें स्त्री आज भी परिवार का केंद्र बिंदु है, ठीक उसी तरह कविता साहित्य के नाभि में है। रूप-स्वरूप व नाम, समय, स्थान व काल के साथ-साथ बेशक बदल जाते हों, परंतु कभी दोहे, चौपाई, मुक्तक, श्लोक तो कभी आयतें, शायरी, गजलें व कव्वाली ने संगीत संग मिलकर आम जनों के दिलो-दिमाग पर गहरी छाप छोड़ी है। जो फिर संस्कृति का मूल आधार बनी। आज के व्यावसायिक दौर में किसी भी धर्म, पंथ, सम्प्रदाय के गुरु की सभा, प्रवचन या मंडली में चले जायें, गीत-संगीत-भजन अवश्य सुनने को मिलेगा। पोयट्री की केमिस्ट्री पश्चिम में भी कमाल की आशिकी करती है। कारण है कविता मन से लिखी जाती है और पाठक के हृदय को छू लेती है। ठीक ही तो है, नारी किसी पुरुष को प्यार से देखभर ले तो ऋषि-मुनि अपनी तपस्या छोड़ सकते हैं।
'जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि' बिल्कुल ठीक कहा गया है। कविता में असीमित संभावनाएं है। जिसे सामान्य रूप से नहीं कहा जा सकता उसे कविता के माध्यम से आसानी से कह दिया जाता है। कुछ शब्दों में अनंत का भाव लिये, नारी की तरह ही जितनी परतें खोलो उतने अर्थ निकलते चले जाते हैं। भावनाओं और विचारों, विद्रोह व आसक्ति का सशक्त माध्यम। युवाओं में जोश भर देने के लिए वीररस में डूबी कविता। प्रेम का उन्मुक्त प्रदर्शन तो शब्दबाणों से घायल करती कविता। ठीक इसी तरह औरत प्रेम की ठंडी छांव है तो दिन में तारे भी दिखा सकती है। पुरुष को आगे बढ़ने के लिए, संघर्ष के लिए प्रेरित भी कर सकती है। स्वर्ग और नरक का अद्भुत संगम। दु:ख-दर्द में टूट रही कविता, श्रोता को रुला सकती है तो औरत के आंसू पत्थर को पिघला सकते हैं। कविता और नारी, दोनों ही, आदमी को सोचने पर मजबूर कर देती है। मिनटों में दार्शनिक बना सकती है।
नया-नया लेखक सबसे पहले कविता की रचना ही करता है। प्राकृतिक रूप से हरेक के दिल में कवि का निवास होता है। हर प्रेमी गीत अवश्य गुनगुनाता है। शायरी के बिना इश्क संभव नहीं और जवां दिल को इसकी तरंगे स्पंदित करती रहती हैं। दूसरी तरफ मनुष्य का पहला संपर्क नारी से ही होता है, मां के रूप में। जननी, सृष्टि का उद्गम स्थल, जीवन का प्रारंभ यहीं से होता है और फिर जीवनपर्यंत अनेक रूपों, संबंधों व नाम के माध्यम से निरंतर चलता रहता है। कविता के बिना साहित्य का कोई अस्तित्व नहीं तो नारी के बिना नर की कल्पना करना भी व्यर्थ है। कविता रस में डूबी होती है तो नारी के बिना जीवन नीरस है। कम शब्दों में अधिक कहना कविता की पहचान है तो औरत का ज्यादा बोलना कभी पसंद नहीं किया जाता। यह अवगुण उस पर सदा आरोपित रहा है। हां, मौन एक शस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। कविता पाठ का सुरीलापन कानों में रस घोलता है तो ऐसी मान्यता है कि ऊंची आवाज में बोलना नारी को शोभा नहीं देता। जितना कविता को छंद व अलंकार द्वारा सजाया जाता है, उतना ही नारी भी शृंगार में डूबी होती है।
यह दीगर बात है कि कृत्रिम आभूषण के स्थान पर प्राकृतिक उपाय उसे अधिक सुंदरता प्रदान करते हैं। ऐसा ही कुछ कविता के साथ भी होता है। प्रकृति के प्रतीक, शब्द बनकर बड़े स्वाभाविक ढंग से कविता का सौंदर्य बढ़ा देते हैं। अकसर नारी सुंदर दिखने के लिए अधिक से अधिक सजने की कोशिश तो जरूर करती है जो फिर कभी-कभी उसकी कमजोरी तक बन जाती है। वो यह भूल जाती है कि अतिरिक्त शृंगार आंखों को चुभता है। जिस तरह से प्राकृतिक सुंदरता चांदनी की तरह चारों ओर फैलकर अपना प्रभाव जमा जाती है उसी तरह से सीमित शब्दों व मात्राओं में लिखी गयी संतुलित व सरल कविता पाठकों के दिल पर राज करती है।
आज की कविता छंद मुक्त है। कहीं-कहीं आधुनिकता के लिबास में रसहीन होती जा रही है। आधुनिक कविता को समझना मुश्किल है और यह आम जन के दिलों से दूर हो चुकी है। अकसर आरोप लगाया जाता है कि आज कल पद्य को गद्य के रूप में लिखा जाने लगा है जिससे वो अपनी पहचान खो रही है। कहीं उपरोक्त वक्तव्य आज की नारी के संदर्भ में भी उतना ही सत्य तो नहीं, जितना कविता के लिए प्रमाणित किया जाता है?
रचनाकार संपर्क - मनोज सिंह
425/3, सेक्टर 30-ए, चंडीगढ़
Tag आलेख,कविता और नारी,मनोज सिंह,रचनाकार
बढ़िया, रवि भाई. अच्छा लगा जानकर.
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