चलते तो अच्छा था ईरान और आज़रबाईजान के यात्रा संस्मरण - असग़र वजाहत अनुक्रम यहाँ देखें 19 स्वर्ग के द्वार की ओर आस्त्रा में पता च...
चलते तो अच्छा था
ईरान और आज़रबाईजान के यात्रा संस्मरण
- असग़र वजाहत
19
स्वर्ग के द्वार की ओर
आस्त्रा में पता चला कि शाम चार बजे तबरेज़ के लिए बस मिलेगी। सुबह कमरे से निकला और सोचा आस्त्रा के वे हलके देखे जायें जो अब नहीं देख पाया हूं। फिर ख्याल आया कि क्यों न दाढ़ी बनवा ली जाये। नाई की दुकान पहुंच गया। परिचय देने पर नाई महोदय खुश हो गये। कस्बे के अनुसार दुकान काफ़ी साफ़ आधुनिक और सजी हुई थी। पैसे भी उन्होंने ठीक ही लिए। पचास रुपये यानी दस हज़ार रियाल। फिर सोचा क्यों ने ईरान का एक अच्छा-सा नक्शा ले लिया जाये। एक बुक सेलर की दुकान पर आया। परिचय कराया। उन्होंने एक नक्शा दिखाया। फ़ारसी में था पर ज़ाहिर है शहरों के नाम पढ़ सकता था। ले लिया। दाम पूछे तो दुकानदार महोदय ने शरमाते हुए कहा कि नहीं आपसे पैसे नहीं लूंगा। मेरे तरफ़ से उपहार है। ऐसे मौकों पर मेरी फ़ारसी में अनूदित कहानियों की पुस्तिका काम आती है, मैंने फौरन उसकी एक प्रति निकाल कर उन्हें भेंट कर दी, उनका कार्ड मांगा, अपना दिया और बाहर निकल आया।
आस्त्रा का एक चक्कर लगाया। स्कूलों की नयी और अच्छी इमारतें दिखाई दीं। अस्पताल नज़र पड़े। सड़कें साफ़ और अच्छी हालत में देखी। सोचने पर मजबूर होना पड़ा कि व्यवस्था है और विकास के कार्यों में पैसा लगाया जा रहा है। अपने देश जैसा हाल नहीं है।
दो बजे आस्त्रा के बस अड्डे पहुंच गया। टिकट लेने की कोशिश की तो पता लगा अभी नहीं मिलेगा। वेटिंग हाल में बैठ गया। पास की बेंचों पर एक मोटे से बूढ़े व्यक्ति से परिचय हुआ। इकराम नाम बताया। मैंने अपने बारे में बताया। कहानियों की पुस्तिका दी। पता चला बूढ़े पहले बस ड्राइवर थे। अब रिटायर हो चुके हैं और तबरेज़ में रहते हैं। मैंने इकराम से पूछा कि तबरेज़ में मैं किसी अच्छे और सस्ते मेहमानपिज़ीर ( मुसाफिरखाने) में ठहरना चाहता हूं। उन्होंने पक्का विश्वास दिलाया कि वे सब कर देंगे। कुछ देर बाद उनकी लड़की सबके लिए जूस खरीदकर लायी और मुझे भी दिया। अब अकरम से ही नहीं उनके परिवार से मेरी बातें होने लगीं। टूटी-फूटी फ़ारसी काम आने लगी। कहीं-कहीं गाड़ी अटक भी जाती थी। उनकी पत्नी ने हाथ की भंगिमा से नृत्य की मुद्रा बताई और कहा कि हिन्दी फिल्मों में नायिकाएँ 'हिजाब' नहीं करतीं और बहुत सुंदर लगती हैं। उन्होंने अपनी सिर पर ओढ़े गये हिजाब पर हाथ लगाकर कहा कि यह उन्हें अच्छा नहीं लगता, पर मजबूरी है। बातें फिल्मों पर होने लगी। उनकी एक लड़की ने पूछा कि भारतीय अभिनेत्रियों के बाल इतने लंबे और खूबसूरत कैसे होते हैं? मैं ज़ाहिर है इस क्षेत्र का जानकार नहीं हूं लेकिन कोई न कोई जवाब तो देना ही था। मैंने कहा यह पानी के प्रभाव के कारण होता है। लड़की पूरी तरह कन्विंस हो गयी। बोली- 'तासीरे आब'। मैंने कहा- 'बेशक' फिर शाहरुख खान वगैरा के बारे में बात होने लगी। सोचा भारत ने और कुछ किया हो या न किया हो लेकिन फिल्म उद्योग के जरिये तो नाम कमाया ही है। आस्त्रा के बाज़ार में भी मैंने हिन्दी फिल्मों की सी.डी. बिकते हुए देखी थीं।
तबरेज़ जाने वाली बस में मेरा चढ़ना या चढ़ाया जाना काफ़ी नाटकीय रहा जो मेरी समझ में नहीं आया। मैं बस जाने से दो घंटे पहले आ गया था और टिकट खरीदना चाहता था पर यह कह कर टिकट नहीं दिया गया कि अभी बहुत जल्दी है। लेकिन जब बस छूटने के दो मिनट पहले मुझे बस पर चढ़ने की अनुमति मिली और वह भी इस तरह जैसे मेरे ऊपर बड़ी मेहरबानी की जा रही हो।
बस पर साथ बैठे एक युवक से परिचय हुआ जो कम्प्यूटर इंजीनियर हैं। बहुत मामूली और थोड़ी-थोड़ी अंग्रेज़ी में दो चार बातें हुई। बस बिल्कुल नयी दिशा में जा रही थी। मुझे यह जानकारी न थी कि तबरेज के रास्ते में सहन्द पहाड़ों की श्रृंखला पड़ेगी। धीरे-धीरे बस पहाड़ों पर चढ़ना शुरू हो गयी। परिदृश्य बदलने लगा। शाम घिर आई थी। पहाड़ लगातार सुंदर होते चले गये। मैं यह देखने और समझने की कोशिश करने लगा कि ये पहाड़ हिमालय से कितना और किस तरह भिन्न हैं। पहली बात जो समझ में आयी वह थी कि इन पहाड़ों का एक लंबा सिलसिला है तथा पहाड़ ऊंचे होते हुए पूरे परिवेश को ढंक नहीं लेते बल्कि दूर-दूर तक साफ़ दिखाई देता है। हमारे यहां पहाड़ी रास्तों पर चलते हुए प्राय: पहाड़ या घाटियां दिखाई पड़ती है लेकिन इन पहाड़ों पर दूर-दूर तक फैले ऊंचे पहाड़ों पर हरी-घास के मैदान नज़र आते हैं। निश्चित रूप से पहाड़ बहुत सुंदर थे। बस तेज़ी से ऊंचाई तय कर रही थी। सड़क के इधर-उधर, जंगलों और घास के मैदानों में पिकनिक मनाने वाले बड़ी तादाद में मौजूद थे और इसी के साथ-साथ प्लास्टिक कचरा भी बिखरा पड़ा था। एक बात और समझ में नहीं आई कि पिकनिक करने वाले प्राय: सड़क के किनारे ही गाड़ियां खड़ी करके बैठ जाते हैं वे कुछ अंदर जंगल के अंदर पहाड़ों के ऊपर क्यों नहीं जाते?
अधिक ऊंचाई पर पहुंचे तो कोहरे के बादल हमारे बिल्कुल पास आ गये। ठण्ड बढ़ गयी और पूरा परिदृश्य फैलता हुआ सा महसूस होने लगा। अंधेरा होते-होते बस पहाड़ की ऊंची चोटियों से नीचे उतरने लगी। अब चारों ओर अंधेरा था निपट अंधेरा. . . यह अंधेरा तब तक रहा जब तक कि दूर तबरेज़ की रौशनियां नहीं दिखाई देने लगी। ऊंचाई से लगता था कि रौशनियों का एक समुद्र है जिसका न ओर है न छोर।
आस्त्रा से फ़ोन-वोन करने के बाद भी तबरेज़ में मेरा कोई ठहरने का इंतिज़ाम नहीं हो पाया था। यानी 'सस्पेंस' था कि कहां ठहरुंगा। सहयात्री ने कुछ आश्वासन दिया था। तबरेज़ के विशाल बस अड्डे पर जब बस रुकी तो मित्र भूतपूर्व बस ड्राइवर इकराम और उनका परिवार लापता हो चुका था। मैं सहयात्री के साथ खड़ा था हैरान और परेशान।
तबरेज़ बस अड्डे के टैक्सी स्टैण्ड पर आये तो वहां क़यामत का सा हिसाब-किताब था। कोई नियम नहीं, कोई कायदा नहीं। एक अनार सौ बीमार. . .काफ़ी देर के बाद मैं सहयात्री और तीन अन्य लोग एक टैक्सी में बैठ गये। सहयात्री ने बताया कि मैं इन लोगों के साथ जो यहां मजदूरी करने आये हैं, किसी मुसाफिरख़ाने में ठहर सकता हूं। एक कमरे में चार लोग रहेंगे तो मुझे कम पैसा देना पड़ेगा। मैं तैयार हो गया। लेकिन होटल वाले ने यह योजना फ़ेल कर दी और कहा कि चूंकि मैं विदेशी हूं इसलिए देशी लोगों के साथ नहीं रह सकता। फिर भी चालीस हज़ार दीनार में कमरा मिला। अब पेट का सवाल पैदा हुआ। साढ़े दस बज रहे थे। नीचे भागा और एक बंद होती दुकान से टिनबंद मछली और रोटी ले आया।
मिथकों और इतिहास का शहर तबरेज़ अपने बुनियादी चरित्र में ईरान के दूसरे शहरों से काफ़ी अलग लगता है। यह 'आज़री' यानी तुर्की और ईरानी सम्मिश्रण से जन्मी संस्कृति का सबसे बड़ा प्रतीक है। शहर ने अपनी सांस्कृतिक अस्मिता बचाए रखने के लिए कई संघर्ष किए हैं और एक अर्थ में यह आज भी जारी है। यही वजह है कि मेरे मित्र ने आस्त्रा से जब तबरेज़ के होटलों में फ़ोन किए थे तो वहां से उत्तर फ़ारसी में नहीं अज़री भाषा में मिले थे। यह शहर भाषाई और सांस्कृतिक संघर्ष के साथ लोकतांत्रिक अधिकारों की लड़ाई में भी आगे रहा है। 18वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में संवैधानिक क्रांति का जन्म भी तबरेज़ में ही हुआ था। इस शहर ने ईरानी शासकों के दमन के साथ-साथ रूस की ज़ारशाही के दमन-चक्र को भी झेला है। अपनी स्थापत्य कला और सौंदर्य शास्त्रीय मानदण्डों के अनुसार भी तबरेज का अपना अलग चरित्र है।
होटल से मैं सुबह तड़के ही निकल पड़ा। पुराने शहर को चारों तरफ़ से नये शहर ने घेर रखा है। आज तबरेज़ ईरानी के बड़े औद्योगिक शहरों में गिना जाता है लेकिन मैं तो शहर के उस हिस्से को ही देखना चाहता था जो प्राचीन है। सड़कों पर घूमते हुए चौराहों के करीब उन मज़दूरों की भारी भीड़ दिखाई पड़ी जो दिहाड़ी की तलाश में आये हुए थे। ऐसी भीड़ दूसरे शहरों में नहीं देखी थी। लगा कि आर्थिक रूप से प्रगति करने के बाद भी तबरेज़ में रोज़गार की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है।
सुबह का वक्त होने की वजह से ज्यादातर दुकानें बंद थीं। मुझे कैमरे के फिल्म रोल चाहिए था। सोचा जब तक दुकानें नहीं खुलती तब तक कोई ऐतिहासिक इमारत देखी जाये। तबरेज़ की नीली मस्जिद ;1465 ई. बहुत प्रसिद्ध है। वहां पहुंचा तो देखा एक नयी तरह का खूबसूरत पार्क है जिसमें छोटे-बड़े गोल दर बनाये गये हैं और बीच में बारहवीं शताब्दी के अज़री कवि शिरवानी ख़ाक़ानी की बड़ी सी प्रतिमा लगी हुई है। उसके पीछे एक गोल गुम्बद दिखाई पड़ा जिस पर फिदा हो गया। जो लोग रेखाओं और आकारों के मर्म को समझते हैं वे अच्छी तरह पहचान लेते हैं कि आकार की सुंदरता क्या है। दरअसल आकार की सुंदरता केवल आकार पर ही नहीं बल्कि उसके संतुलन पर निर्भर होती है। आकार अपने 'प्रोपोशन' में कुछ सम्प्रेषित करता है। आकार में छोटा-सा परिवर्तन मतलब किसी विशेष दिशा या भाग पर दिया जाने वाला बल पूरी परिकल्पना को प्रभावित करता है। वह संवेदनाओं को जगाता है और बनाने वाले के सौंदर्यशास्त्रीय सिद्धांतों को उद्धाटित करता है। नीली मस्जिद का गोल गुम्बद बिल्कुल गोल भी नहीं है। यह गोलाई परिचित गोल आकारों से भिन्न है जैसे प्राय: दिखाई देते हैं। अपनी भिन्नता के कारण ही नहीं बल्कि अनुपातिक सुंदरता के कारण यह बहुत आकर्षक हो गया है। लगता है नीली मस्जिद में और कुछ न होता केवल यही गुम्बद होता तो वह अद्वितीय इमारत होती। रोचक यह हे कि नीली मस्जिद का गुम्बद नीला नहीं है, सफेद रंग का है और नया बना लगता है। यह राज़ बाद में खुला कि ईरानी इतिहास के सबसे भयंकर भूकम्प (1727 ई.) में यह गुम्बद सही सलामत बच गया था लेकिन 1773 ई के भूचाल में यह गिर गया था। 1951 में इसे बनाने का काम शुरू किया गया था और आज यह बनकर तैयार है लेकिन पहले जैसे 'शेप' में ही है। हां अभी इसके ऊपर टाइल्स और फ़ारसी कैलीग्राफ़ी का वह काम होना है जो मूल गुम्बद पर था।
गुम्बद देखता हुआ और उसके चित्र खींचता मैं मस्जिद के मुख्य द्वार पर आ गया। एक विशाल दरवाज़ा नज़र आया जिस पर नीले रंग के 'टाइल्स' से कुरान की आयतें और बेलबूटे द्वारा चप्पाकारी की गयी थी। मस्जिद के दरवाज़े पर चार बहुत युवा ईरानी सिपाही बैठे थे। उन्हें देखकर उनसे बात करने का मन बन गया और मैंने टूटी-फूटी फ़ारसी में उनसे परिचय कराया। कुछ बातचीत होने लगी। अपने ऊपर हंसी भी आई कि आये थे मस्जिद देखने और यहां बैठकर ईरानी सिपाहियों से गप्प मारने लगे। बहरहाल, एक सिपाही ने फ़रमाइश कर दी कि उसे हिन्दी फ़िल्मी गानों का कैसेट चाहिए। मैंने उसका पता नोट किया। इतनी देर में वहां करीब तीस-पैंतीस साल का एक आदमी आ गया और अंग्रेज़ी में बोला कि क्या मैं आपकी मदद कर सकता हूं? पूरा परिचय देते हुए उसने अपना कार्ड दिखाया कि वह मान्यता प्राप्त गाइड हैं और मैं चाहूं तो उसकी सेवाएं. . . मैंने मना कर दिया। पर अन्य गाइडों की तरह यह गया नहीं और मेरे लिए दुभाषिये का काम करने लगा। कुछ देर बाद रीज़ा (गाइड का नाम) ने फिर कोशिश की कि मैं उसे गाइड ले लूं, पर मैं तैयार न हुआ। लेकिन अब उससे मेरी सीधी बात होने लगी। उसने कहा कि वह हमदान में किसी भारतीय कंपनी में काम कर चुका है और भारतीय लोगों को बहुत अच्छा मानता है इसलिए वह बिना पैसे लिए भी मेरी मदद करने के लिए तैयार है। मैंने धन्यवाद दिया और उससे पूछा कि 'ईरानी एयर लाइन्स' का ऑफिस यहां कहां है क्योंकि मुझे अपना वापसी की 'डेट' 'कन्फ़र्म' करानी है। वह बोला कि कोई दस मिनट बाद वह स्वयं वहां किसी काम से जा रहा है और मैं चाहूं तो उसके साथ चल सकता हूं। अजनी देश में सहारा। मैंने कहा, बिल्कुल ठीक है और टैक्सी का किराया मैं दूंगा।
रीज़ा जिन्हें मैं आपकी अपनी सहूलियत तथा हिन्दुस्तानी उच्चारण के अंतर्गत रज़ा लिखूंगा मेरे साथ एयर लाइन के ऑफिस गये। वहां मेरा पूरा काम कराया। फिर सवाल यह पैदा हुआ कि रात में मुझे तेहरान जाना है, बस का टिकट रिजर्व कराना है। रज़ा ने यह काम भी कराया। फिर होटल से सामान लेना था ताकि दो बजे दिन के बाद अगले दिन का किराया न लग जाये। इस काम में भी रज़ा ने मदद की। मैं यह समझने की कोशिश कर रहा था कि रज़ा मेरे ऊपर इतनी कृपा क्यों कर रहे हैं कि अपना काम धंधा छोड़कर मेरे साथ लगे हैं। यह रहस्य समझ में नहीं आ रहा था। इस बीच रज़ा से बहुत सी बातें भी हो रही थीं। उन्होंने बताया कि वे अंग्रेजी में बी.ए. आनर्स हैं और एम.ए. करना चाहते हैं। क्या दिल्ली से कर सकते हैं? मैंने उन्हें सलाह दी और जामिया में अपने एक सहयोगी का ई-मेल भी दिया कि रज़ा की मदद करें। आख़िर दोपहर होते-होते हम अच्छे दोस्त बन गये थे। रज़ा ने मेरी इतनी मदद की थी कि मैं उन्हें दोपहर का खाना खिलाने के बारे में सोचने लगा। मैंने उनसे कहा कि हम शहर के केन्द्र में चले, वहां कहीं कबाब खायें और थोड़ा और घूम लें। रज़ा ने कहा कि यहीं, यानी नये शहर के महंगे इलाके में भी बहुत मुनासिब रेस्त्रां है जहां हम खाना खा सकते हैं। वे मुझे लेकर एक रेस्त्रां में गये और ऑर्डर देने से पहले पूछा कि इतनी इतने-इतने पैसे का खाना होगा। जो रक़म उन्होंने बताई थी या मैंने सुनी थी, मुनासिब लगी। खाना आया, कबाब चावल और सूप। अच्छा खाना था। बिल देने हम काउण्टर पर गये तो बताया गया कि तीन लाख रियाल का पेमेंट करना है। मैं प्राय: पचास-हज़ार या उससे कम पैसे में कबाब वगैरा खाया करता था और सोच रहा था कि बिल अगर डेढ़ लाख रियाल भी होगा तो ठीक है। पर यहां तो तीन लाख देना था। मैंने कहा बिल कहां है तो बताया गया कि इस रेस्त्रां में बिल नहीं दिया जाता, रक़म बता दी जाती है।
मैं कुछ हिचकिचाया तो देखा कि रज़ा के तेवर भी बदले हुए हैं और उन्होंने कहा कि बिल तो देना पड़ेगा। मुझे समझते देर नहीं लगी कि रज़ा का दांव चल गया है। कोई रास्ता न था। मैंने पैसे गिनने शुरू किए तो तीन लाख गिन देने के बाद मेरे पास एक रियाल भी न बचा। जबकि मुझे विश्वास था कि मेरे पास जो पैसे हैं वे तेहरान में भी काम आयेंगे। मतलब रज़ा ने मूंड लिया। यह भी लगा कि होटल वाले को वे जानते हैं। शायद बाद में आकर अपना 'हिस्सा' ले जायेंगे या जाने क्या होगा? तीन लाख का बिल चुकाने के बाद मैं बाहर आया तो रज़ा ने कहा अब आपके पास ईरानी करंसी तो बची नहीं है चलिए आपके डालर चेंज करा दूं। यह सुनकर मुझ यक़ीन हो गया कि मैं जब भी जहां भी पेमेण्ट करता था रज़ा मेरे पैसों का हिसाब लगा लेते थे ओर नज़रों ही नज़रों में सब समझ लेते थे। रज़ा का यह कहना कि चलिए आपके डालर चेंज करा दूं मुझे खतरे की घण्टी ही नहीं लगा यह यक़ीन हो गया कि यह आदमी फ़्राड है, ठग है और अब मैं इसके साथ डालर चेंज कराने जाऊंगा तो पता नहीं क्या हो? हो सकता है जाली करंसी दिला दे। हो सकता है कोई डालर लेकर भाग जाये या हो सकता है गैरकानूनी तरीक़े से डालर 'चेंज' कराने के इल्ज़ाम में मुझे फ़र्ज़ी पुलिस का सिपाही पकड़ ले और मेरे सारे डालर मुझसे छीन लिए जायें, यानी कुछ भी हो सकता है। ये सब पर्यटकों के साथ कभी-कभी होता रहता है।
मैंने कुछ नाराज़ होकर रज़ा से कहा कि आपका बहुत-बहुत शुक्रिया, मुझे जब डालर चेंज कराने होंगे तो मैं खुद ही करा लूंगा। कहने को तो मैंने यह कह दिया था लेकिन बैंक कहां है? वहां कैसे जाऊंगा? कौन सा बैंक होगा? ईरान में 'मनी चेंज' काफ़ी मुश्किल है और मेरे पास इतनी ईरानी करंसी भी नहीं है कि रास्ते में चाय-वाय पी सकूं। तो संकट गहराता लगा। पर यह भी लगा कि रज़ा के साथ डालर चेंज कराने का मतलब तो 'मौत' को दावत देना ही होगा।
मैंने रज़ा से कहा- आपने मेरे बहुत मदद की है। आपका आभारी हूं अब कृपया आप अपना काम करें और मुझे अपना काम करने दें, आप जाइये।'
मेरे ऊपर हैरत और घबराहट का पहाड़ टूट पड़ा जब रज़ा ने कहा कि वे मुझे 'अकेला' छोड़कर नहीं जा सकते। वे मेरे साथ ही रहेंगे।
अब जैसे काटो तो खून नहीं, मैं बेहद परेशान हो गया और फिर कहा कि प्लीज़ आप मेरे साथ न रहें, आप जाइये।
रज़ा ने कहा- नहीं मैं आपको यहां अकेला छोड़कर नहीं जा सकता।
सोचा यार बड़ा शातिर आदमी है, हो सकता है इसने यह सोचा हो कि शाम तक मेरे साथ रहेगा और मेरे जाने के पहले यह कहेगा कि मैं दिनभर के लिए उसे गाइड के रूप में 'हायर' किया था। उसने बताया था वह सौ डालर प्रतिदिन लेता है। वह मुझसे सौ डालर मांग सकता था कि उसकी फ़ीस है। अगर उसने यहां ऐसा कहा तो मेरा साथ कौन देगा? मैं भाषा नहीं जानता। वह स्थानीय आदमी है, पंजीकृत गाइड है। उसकी बात सब मान लेंगे और मुझे पता नहीं उसे कितना पैसा देना पड़ जायेगा। चलो जो दिल में है इससे कह दो। देखो क्या होता है।
मैंने कहा- आप दिन भर मेरे साथ इसलिए रहना चाहते हैं कि शाम को कह सकते हैं कि मैंने आपको दिनभर के लिए 'गाइड' के तौर पर 'हायर' किया था और आपकी फ़ीस सौ डालर होती है जो मैं अदा करूं।
यह सुनकर रज़ा हंसने लगा और बोला- नहीं, नहीं. . .मैंने ये नहीं कहूंगा. . .आप गुस्से में आ गये हैं।
_ हां मैं जरूर गुस्से में हूं। आप जानते हैं कि मैं हिन्दुस्तानी हूं। अमरीकन या योरोपियन टूरिस्ट नहीं हूं। आप ये भी जानते हैं कि मैं बस से सफ़र कर रहा हूं। सस्ते होटलों में ठहर रहा हूं. . .यह सब जानते हुए आपने ऐसे रेस्त्रां में खाना खिलवाया जहां तीन लाख का बिल आ गया।
वह बोला, हां मुझे अफ़सोस है कि बिल कुछ ज्यादा आ गया था लेकिन यहां के यही रेट हैं।
मैं कुछ नहीं बोला। उसे एक 'गुडबाई' कहा और एक दिशा को चल दिया लेकिन उसने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। वह मेरे साथ-साथ चलने लगा। मेरे कई बार कहने पर भी उसने चले जाने से इंकार किया। अब मैं समझ नहीं पा रहा था कि रज़ा ऐसा क्यों कर रहा है?
मैं एक पार्क में आकर बेंच पर बैठ गया। वह भी मेरे पास बैठ गया। मैं उठकर चल दिया तो वह भी साथ-साथ चलने लगा। अब तो मेरी घबराहट और गुस्सा दोनों बढ़ने लगे। लेकिन लगा इससे काम नहीं चलेगा पता नहीं इसके क्या इरादे हैं।
रज़ा कहने लगा- 'गुस्सा थूकिए. . .मैं अपने पैसे से आपको घूमा देता हूं।'
_ नहीं शुक्रिया. . .आप जब जाइये।
_ मैं आपको छोड़कर नहीं जाऊंगा. . .आपकी बस ग्यारह बजे रात को जाती है, तब तक मैं आपके साथ रहूंगा।
अब क्या किया जाये। मैं बस अड्डे की तरफ़ पैदल चल निकला। वह भी साथ-साथ चलने लगा। बस अड्डे पर मैं एक सीट पर बैठ गया, वह भी बराबर वाली सीट पर बैठ गया। मेरे बहुत ज्यादा कहने पर कि उसे चले जाना चाहिए। रज़ा ने कहा- ठीक है मैं अभी जा रहा हूं लेकिन आपकी बस जाने से पहले आऊंगा। यह कह वह चला गया।
अब मेरी हालत यह कि जेब में एक पैसा नहीं। पूरी रात का सफ़र। तेहरान पहुंचकर टैक्सी करना पड़ेगी। उसके लिए पैसा नहीं है। रात में कुछ खाना-वाना भी पड़ेगा। डालर चेंज कराये बिना काम ही नहीं चलेगा। मैं उठा और सोचा आसपास कोई बैंक होगा। वहां चलकर डालर चेंज करा लिए जायें। दूर जा भी नहीं सकता था क्योंकि पहली बात यह कि टैक्सी का किराया नहीं था दूसरी बात यह कि पता नहीं कि बैंक कहां है और टैक्सी वाले आमतौर अंग्रेज़ी नहीं जानते। इसलिए पैदल घूमते हुए बैंक खोजना ही एकमात्र रास्ता था।
काफ़ी लंबा चक्कर लगाकर एक बैंक पहुंचा पर उन्होंने कहा कि वे विदेशी मुद्रा में 'डील' नहीं करते फिर किसी बैंक की तलाश में कई किलोमीटर का चक्कर लगाया और कोई बैंक नहीं मिला। अब जैसे-जैसे शाम घिर रही थी संकट भी गहराता दिखाई पड़ रहा था। चाय तक नहीं पी सकता था। पानी नहीं खरीद सकता था। खाने की कौन कहे।
अचानक ख्याल आया कि रज़ा ने कहा है कि वह बस जाने से पहले आयेगा। अगर वह आ गया तो. . .एक अद्भुत विचार आया और अपनी पीठ अपने आप ठोंकने लगा। अब रज़ा का मैं बेसब्री से इंतज़ार करने लगा। मुझे यकीन था कि वह आयेगा। करीब छ: बजे वह आया और उसे देखते ही मैं खुश हो गया। रज़ा ने भी मेरे स्वभाव में आये परिवर्तन को महसूस किया। मैंने उससे बहुत निदामत से कहा_ मुझे कुछ ज्यादा ही गुस्सा आ गया था मैं माफ़ी चाहता हूं।
वह खुश हो गया। हम दोनों एक दुकान में चाय पीने गये, चाय पीते हुए मैंने उससे कहा- तुम्हारे पास अभी इस वक्त ज़ेब में कितने पैसे हैं?
उसने निकाल कर गिने। दस डालर के करीब ईरानी करंसी उसके पास थी।
मैंने कहा_ ये ईरानी करंसी मुझे दे दो और मुझसे दस डालर ले ले लो।
उसने कहा_ दस हज़ार रियाल ;यानी पचास रुपये कम हैं।
मैंने कहा_ कोई बात नहीं. . .दस हज़ार तुम और रखो. . .घर जाने के लिए किराया. . .बाकी पैसे मुझे दे दो।
उससे करीब साठ हज़ार रियाल लेकर मैंने जेब में रखे। उसे दस डालर दिए वह खुश हो गया और मेरा तो पूछना ही क्या?
हम बड़ी प्यार भरी बातें करने लगे। जब बस चलने वाली थी तो उसने कहा कि वह ईरानी और तुर्की संस्कृति के अनुसार मेरा चुम्बन लेकर मुझे विदा करना चाहता है। मुझे लगा यार इसमें कहीं कोई चाल न हो। ख़ैर मैंने अपना पर्स, पासपोर्ट जिन जेबों में रखा था उन्हें अच्छी तरह दबाया और चुम्बन के लिए तैयार हो गया।
20
धर्म के गढ़ में
धर्म और व्यक्ति, धर्म और समाज, धर्म और राजनीति ये तीनों समीकरण धर्म के जिस व्यावहारिक स्वरूप को स्थापित हैं वह एक दूसरे से नितांत भिन्न है, जबकि धर्म इन तीनों समीकरणों के केन्द्र में हैं। निश्चित रूप से व्यक्ति ओर धर्म का समीकरण सहज रूप से बहुत सीधा-साधा है और व्यक्ति के हित और उत्थान को ध्यान में रखता है। धर्म और समाज एक व्यवस्था की मांग करते हैं और धर्म विशेष के मानने वाले अपने को एक समुदाय के रूप में गठित करते हैं। धर्म जब राजनीति के साथ मिल जाता है तो राजनैतिक व्यवस्था को संचालित करता है। रोचक यह है कि धर्म जैसा आध्यात्मिक विषय राजनीति जैसी स्थूल और व्यवहारिक स्थापना से पूरा सामंजस्य स्थापित कर लेता है और धर्म राज्यों का आधार बनता है।
ईरान इस्लामी गणराज्य है। यानी एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था जो इस्लाम के सिद्धांतों पर आधारित है। यह समीकरण राजनीति के क्षेत्र में इस्लाम की स्थापनों से संचालित करता है, पर कठिनाई यह पैदा होती है कि धर्म ग्रंथों के मूलपाठ की व्याख्या करते हुए उन सूत्रों को तलाश करना पड़ता है जो वर्तमान सामाजिक, राजनैतिक स्थितियों के संदर्भ में दिशा दे सकें। इस्लाम 'मसावात' यानी बराबरी पर बहुत जोर देता है। इसके कारण मुझे विश्वास था कि ईरान में इस्लामी क्रांति आने के बाद निश्चित रूप से भूमि सुधार हुए होंगे और तथा ईरान में गरीबों और अमीरों के बीच बहुत बड़ा अंतर न होगा। लेकिन ईरान में मेरे यह दोनों भ्रम टूट गये। बताया गया कि इस्लामी क्रांति के बाद ज़मीन के बंटवारे के सवाल पर धार्मिक नेताओं की राय थी कि यह ग़ैर इस्लामी है। इस कारण ईरान में बहुत बड़े किसानों के पास बेहिसाब भूमि है तथा दूसरी ओर छोटे किसान उजड़ रहे हैं ईरान में ऐसे गांव अक्सर दिखाई पड़ जाते हैं। जो पूरी तरह उजड़ चुके हैं। शहरों में भुखमरी तो नहीं है।
कमजोर, बेसहारा, बेरोज़गार, शोषित और असहाय लोग नहीं या कम नज़र आते हैं पर गरीबी और अमीरी के बीच बहुत बड़ा अंतर ज़रूर दिखाई पड़ता है।
ईरान के धार्मिक शहरों कुम और मशहद, देखकर यह विश्वास पक्का हो गया कि धर्म और धन के बीच एक स्थायी समझौता हो चुका है। धर्म और धनाढ्यता, धर्म और ऐश्वर्य, धर्म और प्रदर्शन का जो रूप देखने को मिलता है वह ईरान ही में नहीं सारे संसार में एक जैसा है। निश्चित रूप से हर धर्म के प्रवर्तक और उनके सच्चे अनुयायी सादगी, सहजता, मानवीयता पर बल देते थे लेकिन आज उनके नाम पर धन का अश्लील प्रदर्शन किया जा रहा है।
ईरान का शहर कुम एक धार्मिक नगर है जो संसार के शिआ मुसलमानों के लिए बहुत महत्व रखता है क्योंकि यहां आठवें इमाम हज़रत रज़ा ;जिनका मक़बरा मशहद में है, की बहन हज़रत मासूमा का मक़बरा है। यह संसार के शिआ मौलवियों की शिक्षा का केन्द्र है। यहीं अयातुल्ला खुमैनी भी रहा करते थे जिन्हें ईरान के रज़ाशाह पहलवी ने देश निकाला की सजा दे दी थी। कहा जाता है कुम में से ही ईरान की धार्मिक राजनीति तय होती है। इस्लामी क्रांति से पहले भी कुम से ही ईरान की राजशाही को चुनौती मिला करती थी।
तेहरान से कुम का रास्ता कोई डेढ़ दो घंटे का है। बस पर दो अफ़ग़ानी मज़दूर लिए गये थे जो अच्छी तरह हिन्दुस्तानी बोलते थे। ये लोग ईरान में ग़ैरकानूनी तौर पर रह रहे थे और मजदूरी करते थे। इनके पास कागज़ात नहीं थे और इन्हें डर लगा रहता था कि पुलिस कहीं इन्हें पकड़ न लें। इनमें से एक ने अपना नाम नादिर अली करीमी बताया था इन्होंने मुझे बस का किराया नहीं देने दिया था। रास्ते में नादिर से काफ़ी बातचीत होती रही। उसने बताया कि ईरान में बहुत तरक्की हो रही है। सरकार जनता पर काफ़ी पैसा खर्च करती है। स्कूल, अस्पताल, सड़कें और बिजली की व्यवस्था अच्छी है। फिर उसने कहा था लेकिन ईरानी हमेशा अपनी सरकार की शिकायत करते रहते हैं। ये एहसान फ़रामोश हैं। इन्हें इतमीनान ही नहीं होता जबकि इनके लिए सरकार बहुत करती है। अफ़गानिस्तान के बारे में उसने बताया कि वहां सब कुछ खत्म हो चुका है।
कुम में हम बस उतरे तो नादिर मुझे एक होटल में ले गया जहां एक कमरा पचास डालर में था। ज़ाहिर है कि यह मेरे लिए बहुत महंगा था। फिर वह मुझे मेरे स्टैण्डर्ड के एक मेहमान पिज़ीर (मुसाफिरख़ाने) में ले गया जहां किराया आठ डालर था। मैं वहां ठहर गया। उसने कहा कि वह शायद कल मुझसे मिल सकेगा।
कमरे में सामान पटक कर मैं बाहर आ गया। चौराहे के बीच में घण्टाघर था और बायीं तरफ़ दूर तक फैली मकबरे तथा मदरसे की इमारत थी। इसके सामने एक सूखी नदी थी जहां गाड़ियों की पार्किंग और टैंट लगाकर रहने की जगह बनाई गयी थी। मैं पहले मक़बरे की तरफ़ बढ़ा। रात हो चुकी थी। मक़बरा और चारों तरफ़ बनी मस्जिदें और इमारतें सफेद रौशनी में जगमगा रही थीं। मुख्य मक़बरे का गुम्बद सोने की तरह दमक रहा था। उसके ऊपर शीशे लगे थे जिनके नीचे से सुनहरा प्रकाश निकल रहा था। सब कुछ बहुत भव्य और शानदार था। पूरी इमारत खासतौर पर मेहराबदार ऊंचे दरवाज़ों और गुम्बदों पर रंगीन टायल्स से बहुत खूबसूरत पारम्परिक डिज़ाइनें तथा कैलीग्राफ़ी के नमूने बने हुए थे।
मुख्य मकबरे में दोनों तरफ़ विशाल मस्जिदें और वे इमारतें हैं जहां धर्म की शिक्षा दी जाती है। मैं एक मस्जिद के अंदर चला गया। जगमगाहट से आंखें चकाचौंध हो गयीं। हर तरफ़ जो था वह चमक रहा था। चप्पे-चप्पे पर भरपूर रौशनी थी। लोगों का आना जाना लगा हुआ था। कुम का रौज़ा महिलाओं के लिए विशेष महत्व रहता है इसलिए बड़ी संख्या में हिजाब किए औरतें जाती और आती दिखाई दे रही थीं। मैं बाहर निकल आया और सोचा कल सुबह कैमरा लेकर आऊंगा।
बाहर सड़कों पर बड़ी चहल-पहल दिखाई दी। मैंने पुल पार किया और अपने होटल के सामने वाले चौराहे से एक ऐसी सड़क पकड़ ली जिस पर दोनों तरफ़ दुकानें थीं। कुम चहल-पहल के बावजूद काफ़ी परम्परावादी ढंग का शहर लगा। वह आधुनिक प्रभाव जो दूसरे शहरों में दिखाई पड़ता है यहां नहीं है। तरह-तरह की दुकानों के पास से गुज़रता मैं रोटी की दुकान के सामने रुक गया। सोचा रात में कुछ खाना तो है ही है क्यों न रोटी खरीद ली जाये। रोटी की दुकान में तरह-तरह की रोटियां रखी थी। ईरानियों से रोटी बनाने का काम सीखना चाहिए। इतने तरह की और इतनी मज़ेदार रोटियां शायद ही और कहीं बनती हों। वजह शायद यह है कि लोग घरों में रोटी नहीं पकाते। रोटी हमेशा बाज़ार से ही खरीदी जाती है।
दो-तीन तरह की रोटियां खरीदने के बाद मैं फिर फुटपाथ पर आ गया। एक छोटी-सी दुकान में देखा कि बड़ी-सी परात में किसी जानवर पक्की खाली रखी है। दुकान के अंदर बैठ लोग खा रहे हैं, मैंने वहीं सुना तो था कि खाल भी पका कर खाई जाती है लेकिन खाने का मौक़ा कभी न मिला था। सोचा हाथ कंगन को आरसी क्या और पढे-लिखे को फ़ारसी क्या। चलो खाते हैं। फिर ख्याल आया कि रोटी तो ले ली है। दुकान में अंदर जगह कम है। देखा कि कुछ-लोग खाल की डिश पैक करा रहे हैं। मैंने भी एक डिब्बे में पैक करा ली। खाल के साथ कुछ पानी जैसी तरी भी थी। अब सवाल यह पैदा हुआ कि इसे होटल के कमरे में खाने के लिए चमचा चाहिए होगा और मेरे पास चमचा नहीं है।
एक चमचा खरीदा कुछ मुश्किल लगा क्योंकि दुकानदार चमचों के सेट बेच रहे थे। बहरहाल खोजने से भगवान तक मिल जाता है। चमचे की औक़ात क्या। एक छोटी-सी बाजार में चमचा मिला और होटल के कमरे में लौट आया। सोचा खा लूं और फिर बाहर टहला जाये। बताया गया था कि शहर में कोई डर नहीं है और रातभर लोग आते-जाते रहते हैं। रौज़ा चौबीस घण्टे खुला रहता है।
होटल के कमरे में खाल खाने लगा। मज़ा कुछ नया और अजीब लगा। सोचा और खाऊं तो शायद अच्छी लगी। और खाई तो खाल से अजीब लेकिन अरुचिकर गंध सी आई। सोचा यार लोग तो बड़ा मज़ा ले-लेकर खा रहे थे, कुछ और खाकर देखो हो सकता है अच्छी लगने लगे। और खाई पर यह जल्दी ही पता चल गया कि चलेगी नहीं। मतलब खा नहीं पाऊंगा। रोटी पनीर के साथ खाकर पानी पी लिया और सोचा खाल वाली डिश बाहर निकलकर कूड़े में डाल दूंगा। अच्छी बात है कि ईरानी न केवल अपने शहर को साफ़ रखते हैं बल्कि जगह-जगह कूड़ा फेंकने के डिब्बे लगाये जाते हैं।
अगले दिन मैं तड़के ही रौजे पर गया। केवल मस्जिद वाले हिस्से में फ़ोटोग्राफ़ी की अनुमति थी। मुख्य रौजे का फ़ोटो नहीं खींचा जा सकता था। रौजे क़ी ज़ियारत की। वहां-वहां भीड़ थी। बाहर आ गया और सड़कों, गलियों में घूमता रहा। इस शहर में इमाम अयातुल्ला ख़ुमैनी के घर को छोड़कर और कोई महत्वपूर्ण चीज़ नहीं है और वह घर पर्यटकों के लिए बंद है। इसलिए होटल से सामान उठाया और बस अड्डे जाने वाली सड़क पर 'सवारी' का इंतिज़ार करने लगा। चलो एक तीर्थ यात्रा पूरी हुई।
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आधी दुनिया
आज अगर कोई संसार कह देता है तो हम मात्रा इस शब्द से प्रभावित नहीं होते क्योंकि विज्ञान और तकनीक ने संसार को बहुत छोटा बना दिया है। पूरे संसार का चक्कर हज़ारों लोग लगा चुके हैं। आज क्या है संसार में जो लुका-छिपा रह गया है? लेकिन सोलहवीं शताब्दी में तो ऐसा नहीं था। संसार का पूरा नक्शा ही नहीं बन सका था। किसी को नहीं पता था कि संसार के ओर छोर क्या हैं? कितने लोग बसते हैं? कितनी तरह के लोग रहते हैं? कितने देश हैं? कितनी नदियां हैं? उस समय का संसार सीमित और अंजान था, कठिन था, चुनौती भरा और रहस्यमय था। उस ज़माने में इस्फ़हान के बारे में कहा जाता था यह शहर 'आधी दुनिया' है इस्फ़हान का सही या मूल उच्चारण निस्फ़ (आधा) और जहान (संसार) है। मतलब यह कि इस्फ़हान देखने का मतलब था कि आधी दुनिया देख ली और आधी दुनिया ही देख पाना असंभव जैसा था उस युग में।
तेहरान से 340 किलोमीटर दक्षिण में इस्फ़हान सैकड़ों वर्षों तक ईरान की राजधानी था। आज राजधानी न होते हुए उसकी हैसियत राजधानी से कम नहीं है। ईरानी संस्कृति तेहरान में नहीं बल्कि इस्फ़हान की रगों में धड़कती है। शहर में अतीत का गौरव ही नहीं बल्कि वर्तमान का सौंदर्य भी है। कला और संस्कृति के क्षेत्र, फिल्म और साहित्य के मैदान में, संगीत और स्थापत्य कला में आज इस्फ़हान आगे है। यहां बाज़ारों में घूमते हुए उस इतिहास को महसूस किया जा सकता है जिसके कारण इस्फ़हान को आध संसार कहा जाता था। सैकड़ों श्रेष्ठ ऐतिहासिक इमारतों, दसियों बाग़ों और प्राचीन बाज़ारों को अपने अंदर समेटे यह शहर क़दम-क़दम पर चौंका देता है। सड़क पर चलते हुए पेड़ों के झुरमुट के पीछे किसी पुरानी इमारत का ऐसा फ़ाटक दिखाई पड़ता है कि पैर अपने आप ठहर जाते हैं। लगता है कि कुछ भी ऐसा नहीं है जिसके पीछे गहरी कलात्मक दृष्टि न हो। दुकानों के बोर्ड और इश्तिहार तक कला कृतियों जैसे लगते हैं। यही वजह है कि यूनेस्को ने इस शहर को विश्व धरोहर की मान्यता दी है।
ढाई हज़ार साल पुराने शहर का एक इतिहास है जिसकी कड़ियां भारत से भी जुड़ती हैं। शेरशाह सूरी से हारने के बाद मुग़ल बादशाह हुमायूं यही आया था और उसे इसी शहर में ईरान के सम्राट शाह अब्बास सफ़वी ने शरण दी थी और पुन: हिन्दुस्तान हासिल करने के लिए फौजी सहायता भी दी थी। ईरान के पुराने यानी इख़ामंशी साम्राज्य ( ई. 700 वर्ष पूर्व ) की स्थापत्य कला से प्रेरित 'चेहेल स्तून' मतलब चालीस खंभों वाले महल में दीवारों पर बड़ी-बड़ी तस्वीरें पेंट की गयी हैं। इनमें से एक तस्वीर में मुगल सम्राट हुमायूं को शाह अब्बास सफ़वी द्वितीय के साथ एक भोज में चित्रित किया गया है।
इस शहर का इतिहास उतना ही पुराना है जितना ईरान का इतिहास है। ईसा से 700 वर्ष पूर्व इख़ामंशी सम्राटों के समय और उसके बाद सासानी साम्राज्य (ई. 200 वर्ष पू.) में इस्फ़हान बड़ा शहर था लेकिन इसका स्वर्ण युग शाह अब्बास सफ़वी के शासन काल से प्रारंभ होता है। शाह अब्बास सफ़वी ने तबरेज़ से अपनी राजधानी इस्फ़हान में स्थापित की थी। उस समय की कई शानदार इमारतें अब भी यहां हैं। उसके बाद सफ़वी सम्राटों की राजधानी इस्फ़हान अफ़ग़ानी हमलों का शिकार होने लगी और अंतत: राजधानी तेहरान चले जाने के कारण यह शहर सम्राट विहीन हो गया।
टैक्सी वाले ने मुझे अमीर कबीर होटल के सामने छोड़ा था। होटल में बताया गया कि एक कमरे का किराया बीस डालर है। मैं धन्यवाद कहकर वापस जाने लगा तो होटल के मालिक ने पूछा कि क्या मैं कमरा 'शेयर' कर सकता हूं। मेरे हां कहने पर बताया कि 'डॉरमेट्री' में मुझे एक 'बेड' कोई दो डालर में मिल सकता है। मैं तैयार हो गया। 'डारमेट्री' बहुत साफ़-सुथरी थी। छ: पलंग बिछे थे। बाक़ायदा बेड कवर वगैरा सब थे। मुझसे एक फ़ॉर्म भराया गया जिसमें लिखा था कि सामान की जिम्मेदारी मेरी ही है और इसी तरह की तमाम बातें थीं। मैंने अपने लिए कोने का एक बेड चुन लिया और सामान रखकर घूमने निकल पड़ा। टूरिस्ट गाइड किताबों से पता चला कि मुख्य और प्राचीन इमारतें करीब ही हैं और उन्हें टहल-घूमकर देखा जा सकता है। पहले तो मैं दिशाहीन होकर घूमने लगा। पुराने कच्ची मिट्टी और लकड़ी के मकान देखे। वैसे दरवाज़े और दर जो अपने यहां पुराने कस्बों और गांवों में होते हैं। कोई दो-तीन किलोमीटर का चक्कर लगा कर मैंने पूछना शुरू किया कि मशहूर इमाम मस्जिद किध्र है। अपने क्षेत्रफ़ल में, संसार के सबसे बड़े अहाते माउ त्सेतुंग स्वायर (बेइजिंग) से कुछ ही छोटा यह 'काम्प्लेक्स' इस्लामी संसार की सबसे बड़ी इमारत है। शाह अब्बास सफ़वी महान ने अपने जीवन की बहुत बड़ी महत्वाकांक्षा के रूप में इसे बनवाया था।
जैसा कि मेरे साथ होता है मैं इस विशाल इमारत में उस द्वार से दाख़िल नहीं हो पाया जो इसका दरवाज़ा है। लेकिन जब मैं इसके अंदर गया तो आधी दुनिया देख लेने के बाद हैरत में पड़ गया। इतनी बड़ी, व्यापक, भव्य और सुंदर इमारत मैंने जीवन में कभी नहीं देखी थी। पहले तो यह समझने में समय लगा कि आख़िर ये है क्या? ये ठीक है कि इसके सिरे पर मस्जिद है। दूसरे सिरे पर कोई मक़बरा है। लेकिन चारों तरफ़ फैला विशाल भवन क्या है? अंदर गया तो पता चला कि इस काम्प्लेक्स की चारदीवारी दरअसल दो मंज़िला है। पहली मंज़िल पर आमने सामने दुकानें हैं और बीच में कोई पचास फुट चौड़ा जैसा रास्ता है। इन दुकानों की इमारतें के साथ-साथ बनी कुछ और इमारतें हैं कहीं-कहीं इमारत तीन मंजिल की है और उनके चौड़े पर कोटे हैं, खुले हुए बरामदेनुमा हाल हैं। ईरानी साज-सज्जा मतलब रंगीन टायल्स लगाकर बेलबूटे बनाना तथा कुरान की आयतों के आधार पर कैलीग्राफ़ी से यह पूरी इमारत सजी है। मैंने विशाल बाज़ार का चक्कर लगाया और मुख्य मस्जिद तक गया। जितना विशाल घेरा है उतनी बड़ी मस्जिद नहीं है और न उतनी प्रभावशाली है।
सफ़वी साम्राज्य की एक और पहचान चालीस खंभोवाली इमारत भी है। एक बाग़ के अंदर बनी इस इमारत को सम्राट ने विशेष आयोजनों के लिए बनवाया था। मुख्य द्वार से अंदर जायें, सामने इमारत नज़र आती है। यह चालीस लकड़ी के खंभों पर खड़ा एक विशाल बरामदा है जिसकी छत पर चित्रकारी की गयी है। विशाल बरामदे के पीछे बड़े-बड़े हाल और कमरे हैं। जिनकी दीवारों पर शाह अब्बास सफ़वी के युग के महत्वपूर्ण युद्धों तथा अन्य महत्वपूर्ण घटनाओं के चित्र उकेरे गये हैं। इन्हें देखना बहुत रोचक है क्योंकि यह जीता जागता इतिहास है, वास्तविक पात्र है, ऐतिहासिक घटनाएं हैं। सामतों के साथ गायक, नर्तकियां, वाद्य बजाने वाले और नौकर चाकर सभी का चित्रण किया गया है। यहीं मैंने एक चित्र मुग़ल सम्राट हुमायूं को भी देखा। चेहेल सुतून देखने के बाद दो संग्रहालय देखे और शाम होते-होते मैं अपनी प्रिय जगह यानी सड़क पर पहुंच गया।
पुराने इस्फ़हान की सड़कें सीधी हैं। जाने और आने के लिए सड़क का विभाज बीच में पार्क बनाकर किया गया है। दुकानों के सामने फुटपाथ हैं जहां हरे भरे पेड़ों और क्यारियों में फूल के पौधों का सिलसिला दुकानों के साथ-साथ जारी रहता है। चौराहों पर पार्क है। आमतौर पर खूबसूरत है। लोगों के बैठने के लिए अच्छा इंतिज़ाम है। मैं एक मुख्य सड़क पर टहलने लगा। रात घिर आई थी। सड़कों पर कारों की संख्या बढ़ गयी थी। चहल-पहल ज्यादा थी। एक दुकान से कुछ खाना खरीदा और पार्क में बैठकर खा लिया।
होटल के कमरे में आया तो देखा पांच खाली बेडों में से तीन पर दो जापानी और एक योरोपीय पर्यटक जमे हुए हैं। दो बेड अब भी खाली थे। मैं सोने की तैयारी कर ही रहा था कि एक जापानी लड़का और एक लड़की कमरे में आ गये। मुझे पक्का यक़ीन था कि पुरुषों की 'डारमेट्री' में लड़कियां नहीं रह सकती। सोचा यह लड़की किसी अलग, किसी लेडीज़ डारमेट्री में रहेगी और यहां अपने मित्र के साथ कुछ समय बिताने आ गयी होगी, चली जायेगी। पर जल्दी ही समझ में आ गया कि लड़की यहीं इसी कमरे में यानी पांच पुरुषों के साथ रहेगी। लड़की ने एक बेड पर अपना स्लीपिंग बैग फैला दिया। कपड़े ठीक करने लगी। छोटी-सी सफ़री घड़ी निकलकर अपनी मेज़ पर रख दी। यह सोचकर कुछ अजीब और नया-सा लगा कि ईरान जैसी कट्टर इस्लामी समाज में यह कैसे संभव है, पर पैसा जो न कराये वह कम है।
रात में एक मद्धिम सी बत्ती जल रही थी लेकिन उसकी रौशनी में जब आंख खुलती थी तो बिस्तर पर लेटी लड़की नज़र आ जाती थी। उसके बाल कभी फैले हुए नजर आते थे, कभी उसका सफेद हाथ बाहर निकला दिखाई देता था, कभी गुड़-मुड़ियाई सी दिखाई पड़ती थी और कभी अपने एक हाथ को तकिया बनाये नज़र आती थी। धीरे-धीरे थकान और रात के सन्नाटे ने अपना काम दिखाया और कमरे में सांसों की आवाज़ के अलावा सब कुछ शांत हो गया। यह सोचते हुए सो गया कि यह घटना अगर पच्चीस तीस साल पहले घटी होती तो जरूर परेशानी होती।
सुबह आंख जल्दी खुल गयी। तैयार होकर बाहर निकल आया। सोचा कहीं चाय पी जाये। दुकानें बंद थीं अचानक एक रेस्त्रांनुमा दुकान खुली नज़र आई। अंदर दो आदमी बैठे थे। शायद यह चाय की दुकान नहीं बल्कि रोटी की दुकान थी। पर सोचा चलो पूछ लेते हैं। चाय मिल जाये तो अच्छा ही है। दरवाज़े पर खड़े होकर पूछा तो एक आदमी ने मना कर दिया। मैं जाने ही वाला था कि दोनों ने इशारा करके मुझे अंदर बुला लिया। उन्हें शायद यह जानने में रुचि पैदा हो गयी थी कि मैं कौन हू, कहां से आया हूं? इन जिज्ञासों के समाधान के लिए मैंने अपनी पुस्तिका उन्हें पेश कर दी।
रोटी की दुकान में बैठे ये दोनों लोग बावर्ची किस्म के लग रहे थे। उनके सामने चाय चढ़ी हुई थी। एक ने चाय निकालकर मुझे दी और शकर के टुकड़ों की तरफ़ इशारा कर दिया। कुछ टूटी फूटी बातें होने लगी। मैंने अपनी पुस्तिका दी। पुस्तिका में मेरा परिचय पढ़कर दोनों खुश हुए और फिर कहानियां पढ़ने लगे। इस पुस्तिका की कहानियों में से एक की पंच लाइन है_ 'आज आदमी बंदर है और बंदर आदमी है।' यह कहानी पढ़ कर एक बावर्ची काफ़ी नाराज़ हो गया। उसने काफ़ी कड़ी आवाज़ में मुझसे पूछा कि क्या वह मुझे बंदर दिखाई पड़ता है? मैं सवाल समझ गया। डारविन का सिद्धांत और मनुष्य की उत्पत्ति के बारे में इस्लामी धारणा के कारण वह नाराज़ हो रहा था। मैंने उससे कहा कि मैं उसे बंदर नहीं, इंसान मानता हूं। इस पर भी वह संतुष्ट हुआ और बोला- 'मेरे दो आंखें, नाक, कान हैं, मेरा चेहरा आदमी जैसा है। क्या मैं तुम्हें बंदर लगता हूं।'
मैंने उससे माफ़ी मांगी और कहा कि वह ठीक कहता है। तब वह बोला कि फिर मैंने यह क्यों लिखा कि आदमी बंदर है और बंदर आदमी है। फ़ारसी भाषा में उसे यह समझाना मेरे लिए असंभव था। मैंने फिर माफ़ी मांगी और चाय के पैसे पूछे। उसने कहा कि पैसा नहीं लेगा। मैं जान बचाकर बाहर भागा और तय किया कि कहानियों की पुस्तिका देकर परिचय प्राप्त करने का काम मुसीबत में भी डाल सकता है।
नदियों पर सुंदर पुल बनाना मध्यकाल में एक चुनौती था। इस्फ़हान अपने सुंदर पुलों के लिए भी जाना जाता है। मैं पूछता पाछता मारान पुल तक पहुंच गया। यानदेह नदी पर सोलहवीं शताब्दी का पुल स्थापत्यकला का बेमिसाल नमूना है। छोटे-छोटे दर बनाकर इस पुल को जोड़ा गया। ट्रैफिक के लिए बंद इस पुल पर बस पैदल चला जा सकता है।
मारान पुल पार करके शहर के दूसरे हिस्से में आ गया जो एक प्रकार से आधुनिक शहर है। नदी के किनारे बने विशाल पार्क में घूमते हुए देखा कि एक पर्यटक अपने स्पीपिंग बैग में पेड़ के नीचे सो रहा है। यह देखकर मज़ा आया। इसलिए जब दो डालर में मैं रात बिता रहा था तो सोच रहा था कि यार बड़े सस्ते में रात काट दी। अब इससे कम क्या हो सकता है? लेकिन सुबह तड़के अमीर कबीर होटल के 'कोर्ट यार्ड' में देखा था कि साइकिल सवार पर्यटकों की साइकिलें कोर्टयार्ड (आँगन) में खड़ी थी और वे खुले आसमान के नीचे अपने स्लीपिंग बैगों में सो रहे थे। मैंने सोचा था कि इन लोगों ने मुझसे भी कम पैसे में रात बिताई होगी। यहां पार्क में एक पर्यटक को पेड़ के नीचे सोता देखा तो यह सोचकर हंसी आयी कि इस पट्ठे ने बिना पैसा खर्च किए ही रात बिता दी। याद आया किसी पर्यटक ने लिखा है कि घूमने के लिए पैसा नहीं बल्कि इच्छाशक्ति चाहिए।
इस्फ़हान की सड़कों पर ही मेरी मुलाकात हिन्दी सिनेमा जगत के सितारों से हुई थी। पोस्टर बेचने वाली एक दुकान पर शाहरुख खान, ऐश्वर्या राय, सनी देओल और पता नहीं जाने कितने हिन्दी फिल्मों के अभिनेताओं के पोस्टर बिक रहे थे। ये तय है कि हिन्दी फिल्मों ने ईरान के बाज़ार पर कब्जा किया हुआ है। नाइट सर्विस बसों में हिंदी फिल्में चलती हैं। हर शहर में हिंदी फिल्मों की सी.डी. मिल जाती है। हर फ़ारसी फ़िल्मी पत्रिका में बॉलीवुड की ख़बरें, तस्वीरें छपती हैं। लोग हिन्दी फिल्मों से न सिर्फ पूरी तरह परिचित हैं बल्कि पसंद करते हैं। इस्फ़हान की सड़क पर हिन्दी फिल्मों के अभिनेताओं की तस्वीर बेचने वाले से बातचीत की कोशिश करता रहा। उसकी तस्वीर खींची और उसका पता लिया। वापस होटल आया तो होटल के मालिक ने कहा कि उनकी पत्नी हिन्दी फ़िल्मी की रसिया है और क्या यह नहीं हो सकता कि वे भारत से हिन्दी फिल्मों की सी.डी. मंगा सकें।
हिन्दी फिल्मों की लोकप्रियता के कई कारण हैं। पहला तो यह कि भारतीय सामाजिक मूल्य और ईरानी सामाजिक मूल्यों में बड़ी समानता है। परिवार को जो महत्व हमारे समाज में है, बड़ों की इज्जत करने की परिपाटी जो यहां है, विवाह की जो जटिलताएं यहां है वे सब ईरानी समाज में भी हैं और इस वजह से हिंदी फिल्में उन्हें पसंद आती है। हॉलीवुड उन्हें दूर लगता है बॉलीवुड करीब लगता है। अपनी पूरी यात्रा के दौरान मुझे लगातार ऐसे लोग मिलते रहे जिन्होंने भारत का नाम आते ही हिन्दी फिल्मों के किसी ऐक्टर का नाम लिया या फिल्म का उल्लेख किया। इस्फ़हान की सड़क पर ही मुझे एक दिलचस्प फ़ारसी फ़िल्मी पत्रिका 'समीन' मिली जो पूरी 'बॉलीवुड' सिनेमा को समर्पित पत्रिका है। इस पत्रिका में हिन्दी फिल्मों के समाचारों के अलावा हिंदी फ़ारसी फ़िल्मी शब्दावली का छोटा शब्दकोश छापा गया था। ईरानियों को यह बताया गया था कि हिंदी फिल्में फ़ारसी में डब किए बिना भी देखी जा सकती हैं क्योंकि हिंदी समझना बहुत सरल है। पत्रिका देखकर आश्चर्य हुआ और सोचा कि हिंदी प्रचार के इस स्वरूप के बारे में हमारे यहां कितने लोग जानते हैं? और हम ईरानियों की इस रुचि के लिए क्या कर रहे हैं? 'समीन' में हिन्दी फिल्मों के गीतों का मूलपाठ और उसका अनुवाद छापा गया था ताकि ईरानी दर्शक गाने भी समझ सके। 'समीन' के अलावा फ़ारसी भाषा की कोई ऐसी फ़िल्मी पत्रिका या अखबार नहीं देखा जिसमें हिन्दी फिल्मों पर समाचार और अभिनेताओं के चित्र न हों। मुख पृष्ठ पर छ: कालम में शाहरुख़ खान के चित्र देखकर लगा कि वाह कम से कम हमारे फिल्म उद्योग ने तो कुछ किया है।
दु:ख की बात यह है कि ईरान में हिन्दी फिल्मों का पूरा व्यापार गैरकानूनी है और हिंदी सिनेमा जगत को उसे एक पैसे का लाभ नहीं होता। करोड़ों की सी.डी. दुबई की ब्लैक मार्केट से ईरान आ जाती हैं और घर-घर पहुंच जाती हैं। फिल्मों के निर्माता कुछ नहीं कर सकते क्योंकि यह भारत सरकार के अधिकार क्षेत्र का मामला है। इस बारे में तेहरान के भारतीय राजदूतावास के एक अधिकारी से बात हुई तो उन्होंने बताया कि ईरान ने कापी राइट संबंधी किसी अंतर्राष्ट्रीय गठबंधन पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं इस कारण कापी राइट का मसला ही नहीं उठाया जा सकता। अब सोचने की बात यह है कि भारत और ईरान के राजनैतिक संबंध तो ठीक ही हैं। इस संबंध में क्या कोई द्विपक्षीय समझौता नहीं हो सकता है? अगर यह हो जाता है तो ईरान की बाज़ार भारतीय फिल्म जगत के लिए खुल जायेंगी। इसके अलावा यह भी सोचने वाली बात है कि ईरानी जनता की हिन्दी फिल्मों में गहरी रुचि के मद्देनजर क्या हम कुछ ऐसी नीतियां और कार्यक्रम बना सकते हैं जिससे दोनों देशों को लाभ हो? उदाहरण के लिए तेहरान या ईरान के अन्य शहरों में हिन्दी फिल्म समारोह आयोजित किए जा सकते हैं। हिन्दी फिल्मों को फ़ारसी में डब करने का काम किया जा सकता है और भी इस तरह की तमाम योजनाएं संभव हैं।
(क्रमश: अगले अंकों में जारी)
Tag असग़र वजाहत,ईरान यात्रा संस्मरण,रचनाकार,हिन्दी
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