चलते तो अच्छा था ईरान और आज़रबाईजान के यात्रा संस्मरण - असग़र वजाहत अनुक्रम यहाँ देखें 13 हवा के शहर में सुबह जल्दी उठ गया। होटल...
चलते तो अच्छा था
ईरान और आज़रबाईजान के यात्रा संस्मरण
- असग़र वजाहत
13
हवा के शहर में
सुबह जल्दी उठ गया। होटल से बाहर आया तो पास ही चाय वाली दुकान में चहल पहल थी। सोचा चाय पी लूं। चाय वाले बूढ़े काला सूट पहने थे और फ़्लैट हैट लगा रखी थी। इस हुलिये में उनका चाय बनाना और लोगों को चाय देना मुझे कुछ अजीब लगा। चाय के साथ लोग, वही गज़ भर लंबी, रोटी के टुकड़े और सूखा पनीर खा रहे थे। मैं भी एक चाय लेकर बैठ गया। एक दो लोग बात करने की कोशिश करने लगे। कुछ बातें हुई भी लेकिन कुछ निकला नहीं। यह देखकर कुछ अजीब सा लगा कि चाय वाले सज्जन ग्राहकों के खाने से बचे रोटी और पनीर सहेजते जा रहे हैं। निश्चित ही यह वह दूसरों को देते होंगे। शायद इनके समाज में 'झूठा' आदि की परिकल्पना नहीं है।
चाय पीकर मुसद्दिक की दुकान गया तो वह बंद थी। सोचा घूम लूं घूमते हुए ख्याल आया कि नाई की दुकान में जाकर दाढ़ी कतरवा ली जाये। नाई की दुकान बहुत साफ़ सुथरी और आधुनिक थी। दस हज़ार रियाल यानी पचास रुपये में दाढ़ी बाल तरशवा कर बाहर आया। मुसद्दिक की दुकान अब भी बंद थी ओर मैं बिना ई-मेल चेक किए बाकू जाना नहीं चाहता था क्योंकि पता नहीं ललित जी वहां हैं या नहीं हैं। कस्बे की सड़कों पर इधर घूमता रहा। ताज़ा फ़लों और सूखे फ़लों की दुकानें, रोटी की दुकाने, बेकरी की दुकानें, दीगर समान ओर अच्छा मंहगा सामान भरा पड़ा था। तीस-पैंतीस हज़ार आबादी वाले इस कस्बे से मैं काफ़ी प्रभावित हुआ। साफ़ सुथरी सड़कें, चौराहों पर ट्रैफ़िक लाइटें, जेबरा लाइनें, नो पार्किंग के बोर्ड, टेलीफ़ोन बूथ, किताबों की कई दुकानें, इंटरनेट की सुविधा, टैक्सी स्टैण्ड, घंटाघर ओर सब से बड़ी बात यह कि स्वस्थ, तन्दुरुस्त और खुशहाल लगने वाले लोग।
ललित जी के दो ई-मेल आये थे। मैंने पहला खोला और पढ़ा। उन्होंने लिखा था कि वे बाकू में ही हैं, मैं आ जाऊं। दूसरा ई-मेल खोलकर पढ़ने की तकलीफ़ मैंने नहीं उठायी। जबकि महत्वपूर्ण जानकारियां दूसरे ई-मेल में थी जिनके न होने के कारण बाकू में मुझे खासा झेलना पड़ा।
होटल से सामान लेकर बार्डर चेक पोस्ट पर आये। यहां ईरानी-कस्टम और एमीग्रेशन के कार्यालय हैं। अधिकतर काम औरतें कर रही थीं। करबी तीन घण्टे बाद यहां से छुट्टी मिली। आगे बढ़े इमारत के बाद एक छोटी सी नदी के इस तरफ़ ईरानी पुलिस की चौकी थी और उस तरफ़ आज़रबाइजान की पुलिस पोस्ट थी। आजरबाइजान कस्टम एमीग्रेशन में गया। अधिकारियों ने देखा, पीठ पर बड़ा-सा बैकपैक उठाये, कंधे पर कैमरा टांगे एक अधेड़ उम्र अजनबी आदमी खड़ा है। मुझसे प्रतीक्षा करने को कहा गया। सब लोग निकल गये। मेरी बारी आयी। मैं केबिन में गया। सामने जो आज़री अधिकारी बैठा था उसके चेहरे पर लिखा था 'मैं घूसखोर हूं'। उसे मुझे दिखाकर अंगूठा बड़ी उंगली पर मसला और कहा- 'टेन डॉलर'।
मैं सब कुछ समझ गया मैं घूस देने पर तैयार नहीं था। वह तथा उसके अन्य साथी बिना घूस के मुझे आज़रबाइजान में दाख़िल करने पर तैयार नहीं थे। कुछ देर तक कहा सुनी होती रही। उसके बाद मैंने ट्रम्प कार्ड यानी बाकू स्थिति भारतीय दूतावास की चिट्ठी उन्हें दिखाई कहा कि मैं औपचारिक, सरकारी तौर पर जा रहा हूं। तब वे पसीजे, मेरे पासपोर्ट पर ठप्पे वग़ैरा लगाये गये और मैं बाहर निकला।
आज़रबाइजान में क़दम रहते ही होश उड़ गये। दरवाजे से निकलकर देखा एक पतला-सा रास्ता, दोनों तरफ़ टीन के शेड में बनी दुकानें, एक आद खाने का सस्ता-सा होटल। अजीब उजाड़ और डरावना माहौल। मैं यह सब देख ही रहा था कि अचानक आठ दस लोगों ने मुझे घेर लिया। इनमें से तीन-चार टैक्सी ड्राइवर थे, दो-तीन 'मनीचेंज' वाले थे, दो-एक होटल के ऐजेण्टनुमा लोग थे। इनमें से हर एक मुझे सामान समैत अपने साथ ले जाना चाहता था। दूर एक पुलिस का सिपाही खड़ा ये सब देख रहा था। मैंने उसकी तरह मदद करने के भाव से देखा, उसने उपेक्षा से मुंह फ़ेर लिया। अब स्थिति यह भी कि मैं न आगे जा सकता था, न पीछे लौट सकता था। सबसे ज़रूरी यह था कि मैं डालर देकर लोकल करन्सी यानी मनात ले लूं। दस हजार मनात को शीरवान कहते हैं जो करीब सत्तर रुपये के बराबर होता है। मैंने चालीस डालर की करन्सी ली और एक बूढे टैक्सी ड्राइवर के साथ यह सोच कर आगे बढ़ा कि अब जो कुछ होना है हो जाये, मैं क्या कर सकता हूं। इन ड्राइवर साहब से मैंने कहा कि मुझे बाकू की बस पकड़नी है, बस अड्डे ले चलो।
बुजुर्ग टैक्सी ड्राइवर बड़े घाघ निकले। कस्बे में एक जगह आकर उन्होंने टैक्सी रोकी और बोलो- नो बस, नो बस। तीसरी जगह भी यही किया तो मैं समझ गया कि बुर्ज़गवार खेल रहे हैं। सोचा देखो कहां तक खेलते हैं फिर उन्होंने एक सुनसान रास्ते पर टैक्सी रोकी, अपनी जेब से पचास हज़ार मानत का नोट निकाला और इशारा और टूटी-फ़ूटी अंग्र्रेजी में समझाया कि मैं उन्हें ऐसे दो नोट दूं तो वे मुझे बाकू की बस तक छोड़ सकते हैं, जो दूर मिलेगी। चूंकि उन्होंने सुनसान जगह टैक्सी रोककर यह बात कही थी इसलिए मैं टैक्सी से उतर जाता तो जाता कहां? मैं तैयार हो गया। उन्होंने कहा कि पैसे मैं उन्हें अभी दे दूं यानी बस अड्डा पहुंचने से पहले। इस पर मुझे गुस्सा आ गया और मैंने 'पुलिस पुलिस'. . .कहा तब ड्राइवर साहब आगे बढ़े।
कस्बे से गुज़रने लगे। जितना प्रभावित मैं ईरान के आस्त्रा से हुआ था। उतना ही निराश मैं आज़रबाइजान के आस्त्रा से हुआ। अजीब उजड़ा-उजड़ा, गरीब, निरीह, और रंगीनविहीन कस्बा लगा। सोवियत ज़माने के बने घर और ईमारतें दूर से पहचानी जाती हैं। वे भी बुरी हालत में थीं और लोग भी काफ़ी गरीब दिखाई दे रहे थे। टैक्सी क़स्बों से गुजरती रही। अचानक एक जगह सामने से आती बनी-सजी एक औरत आती दिखाई दी। बुजुर्ग टैक्सी ड्राइवर ने उसकी तरफ़ इशारा करके संकेतों द्वारा समझाया कि वह वेश्या है और अगर मैं चाहूं तो वे उसे बुला सकते हैं। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि बूढ़े टैक्सी ड्राइवर के दिमाग़ में यह ख्याल इस वक्त क़ैसे आया? क्या मैं ऐसा लगता हूं कि इन हालात में भी मैं किसी वेश्या के पास जाना चाहूंगा। अपनी शकल फिर से देखने की बात सोचने लगा। मैंने उन्हें मना किया।
करीब आधे घंटे बाद टैक्सी एक मुख्य चौराहे पर पहुंची जो टैक्सियों और बसों का अड्डा था। यहां दुकानें भी थी। मैं सुबह का भूखा, प्यासा था और दिन के दो बज रहे थे। दुकान देखकर खुश हो गया। टैक्सी वाले को पचास-पचास हजार के दो नोट देकर मैं उतर आया। बाकू जाने वाली एक मैटाडोर खड़ी थी जिसमें मुझे धर दिया गया। टैक्सी वाले को एक लाख मनात देकर मेरे पास कम ही पैसा बचा था। अब टेंशन यह हुआ कि यहां से बाकू तक का किराया कितना होगा? अगर बस वाले ने भी एक लाख मांग लिये तो मुसीबत हो जायेगी। बहरहाल ऐसा नहीं हुआ। सिर्फ बीस हजार में टिकट दे दिया।
तेल के खेत मैंने पहले कहीं नहीं देखे थे। यहां तेल के खेत देखे। फ़ल और सब्ज़ी की तरह तेल और मोबिल ऑयल बिकते पाया। उसी तरह के पहाड़ जो तेहरान से निकलते हुए दिखाई पड़े थे, दूर तक फैले थे। यहां साथ बैठे लोगों से एक दो बातें करके मैं अच्छी तरह समझ गया कि अज़री में कुछ समझ लेना या फ़ारसी के शब्दों से कुछ काम चला लेना असंभव है। दूसरी तरफ़ सड़क के किनारे लगे बोर्ड भी अपरिचित लिपि में थे। पता नहीं रूसी लिपि थी या तुर्की लिपि थी। मैटाडोर में बैठा एक लड़का मुझसे कुछ बात करने की कोशिश कर रहा था। मैं भी कोशिश में था लेकिन ज्यादा नतीजा नहीं निकल रहा था।
शाम होते-होते बाकू पहुंचे। शहर में सबसे ख़ास बात पूर्व और पश्चिम का मिलन है। मैराडोर ने उतार दिया। साथ यात्रा करने वाले लड़के को मैंने ललितजी के आफ़िस का पता दिखाया। उसने कहा कि वह मैट्रो में मुझे आफ़िस के निकट तक पहुंचा देगा। वहां से टैक्सी ले सकता हूं। ललितजी के आफ़िस पहुंचा तो आफ़िस बंद था। चौकीदार अज़री के अलावा कोई भाषा नहीं जानता था। हां ललित कुमार नाम से यह ज़रूर समझता था कि वह उसकी कंपनी के मालिक का नाम है। बड़ी समस्या पैदा हो गयी। रात घिर आयी थी। आफ़िस भी कुछ सुनसान से इलाके में था। टैक्सियों का भी कोई अता-पता न था। चौकीदार के पास ललितजी के घर का फ़ोन नंबर भी नहीं था। ऐसे कठिन हालात में चौकीदार पड़ोसी को बुला लाया जो थोड़ी अंग्रेजी जानता था उसने ललितजी के आफ़िस में काम करने वाली एक लड़की को फ़ोन किया। लड़की ने ललित जी को बताया कि आपके अतिथि आफ़िस के बाहर खड़े हैं। थोड़ी ही देर में ललित जी अपनी शानदार बी एम डब्ल्यू में आ गये।
बाकू को हवाओं का शहर कहा जाता है। यहां हवाएं खूब तेज़ चलती हैं। जिस मौसम में गया वह अच्छा था, सर्दियों में यही हवाएं जान लेवा हो जाती हैं। लेकिन जान की परवाह कौन करता है? क्योंकि बाकू 'सिल्क रोड' पर बसा एक प्रमुख शहर है। कल्पना कीजिए हज़ारों साल पहले चीन से योरोप का रास्ता कितना कठिन रहा होगा? पश्चिम एशिया अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण संसार के बहुत अधिक कठिन और दुर्गम क्षेत्र माना जाता है। लेकिन रेशम के व्यापारी इन बाधओं को पार करते हज़ारों मील की यात्रा किया करते थे। वे तकलीमकान रेगिस्तान पार करते थे जो संसार का सबसे खतरनाक रेगिस्तान माना जाता है। यहां का मौसम भयानक है। गर्मियों में 40 डिग्री तापमान बढ़कर 50 डिग्री सैल्सियस हो जाता है। रेत की आंधियाँ आमतौर पर चलती रहती है। पानी और बस्तियों का दूर-दूर नामों निशान नहीं है। 'मौत के इस सहरा' को पार करने वाले 'रेशम के व्यापारी' क्या कहे जायेंगे।? साहसिक लोग? लालची लोग? कायर लोग? बहरहाल इन्हें चाहे जो कहिए बाकू इसका गवाह है कि इस तरह के लोग यहां आते थे। आसपास से ही नहीं बल्कि पंजाब और राजपूताना के व्यापारी भी बाकू की सराय में ठहरा करते थे। कभी-कभी मृदंग बजाते साधु, कभी हठयोगी हज़ारों मील की यात्रा करते बाकू पहुंच जाते थे। इस तरह भारतीय व्यापारियों और आध्यात्मिक पुरुषों की पहुंच से बाकू बाहर न था। मैं अपने को क्या मानूं? इसका फैसला पाठक ही करें।
यह मानते हैं कि जहां पैसा पहुंचता है वहां धर्म भी पहुंच जाता है, कला भी पहुंचती है, साहित्य भी पहुंचता है और क्या है जो नहीं पहुंचता। बाकू में धन आया तो सब आ गया।
बाकू मध्यकाल में उस समय महत्वपूर्ण हो गया जब भूचाल के कारण शिरवान से राजधानी बाकू आ गयी थी और लगभग सौ साल तक शहर का विकास होता रहा।
व्यावसायिक नगर के रूप में बाकू की ख्याति बहुत प्राचीन हैं। 1572 में एक ब्रिटिश कम्पनी ने बाकू का दौरा किया और पाया कि यहां तेल का अथाह ख़जाना है। इस तेल के ख़जाने की जानकारी स्थानीय या आसपास के लोगों को पहले से थी और मध्यकाल के विद्वान अब्दुर्रशीद-अल-बाकुवी ने लिखा था कि यहां तरह-तरह का तेल होता है। तेल के अलावा पीले रंग का एक पदार्थ भी मिलता है जो मोमबत्ती की तरह जनता है। अब्दुर्रशीद ने यहां की हवाओं का बड़ा भयावह चित्रण किया है। लिखा है कभी-कभी दुम्बे और घोड़े तक उड़कर समुद्र में पहुंच जाते हैं।
हमारे यहां एक कहावत है 'पढ़े फ़ारसी तेज बेचे तेल, ये देखो क़िस्मत के खेल?' लेकिन तेल बेचना मध्य एशिया या ईरान में अपमानजनक नहीं है। योरोप के देशों में आज़रबाइजान का तेल बेचने के लिए कड़ी प्रतिर्स्पधा थी। यही कारण है कि बाकू योरोप के कई देशों और एशिया के स्थापत्य कला का एक अनोखा संगम है। ब्रिटिश, फ्रेंच, जर्मन, इतालवी कम्पनियों की उपस्थिति शहर को लगातार निखारती रही है।
तेहरान से बाकू आना अपने आप में एक अजीब अनुभव है। लड़कियों को 'हिजाब' में देखने की आदी आंखों की रौशनी बढ़ जाती है। बाकू एक मुक्त शहर लगता है। रहने वाले सब मुसलमान हैं लेकिन इस्लाम या धर्म का कोई आतंक नहीं है। लगता है पूर्वी योरोप को कोई शहर है जिसे उठाकर मध्य एशिया में रख दिया गया है।
आज़रबाइजान जाने से पहले मैं यह मानता था कि मध्य एशिया के इन देशों पर सोवियत संघ ने जो अधिकार जमा लिया था वह बहुत ग़लत था, लेकिन अब यह विश्वास के साथ कह सकता हूं कि ऐसा नहीं है। आज आज़रबाइजान एक पढ़ा-लिखा देश है। अधिकतर आबादी मध्यम वर्ग है। शहरों कस्बों में स्कूल, अस्पताल है, सड़कें हैं, बिजली है। लोगों के दिमाग़ खुले हुए हैं। सफ़ाई-सुथराई है। पर्यावरण के प्रति लोग सचेत हैं। मानवीय संबंध और विशेष रूप से स्त्री पुरुष संबंध सहज और सामान्य है। यह सब कैसे हुआ? इतना तय है कि अगर सोवियत यूनियन के साथ ये देश न होते तो आज उनकी स्थिति लगभग अफ़गानिस्तान जैसी होती। हम यह तो नहीं कह सकते कि आज़ादी हर शर्त पर स्वागत योग्य है लेकिन यह कह सकते हैं कि मनुष्य और समाज का कल्याण ही आज़ादी की पहली शर्त है।
ललित कुमार बाकू में व्यापार करते हैं। आपने देखा होगा कि कुछ लोग किसी विशेष क्षेत्र में बहुत सफ़ल हो जाते हैं लेकिन उनका व्यक्तित्व उस क्षेत्र के अनुकूल नहीं होता। ललित भी ऐसे ही लोगों में हैं। व्यापार में और विशेष रूप से तेल के व्यापार में उन्हें अपार लाभ हुआ है। 'रियल स्टेट' बेज़नेस में उन्होंने करोड़ों डालर कमाया है। मध्य एशिया में ही नहीं योरोप में उनके रेस्त्रां की 'चेन' है लेकिन उन्हें देखकर लगता है कि यह आदमी इतना सफ़ल व्यापारी कैसे हो सकता है क्योंकि वह तो हर समय शेरो-शायरी, संगीत, साहित्य और कलाओं में डूबा रहता है। वह उठते बैठते ग़ज़लों के शेर पढ़ता है वह सपने में 'लूर्व' जाता है। कल्पना में मेंहदी हसन से बतियाता है। सफ़ल व्यापारी के लिए जितना व्यवहारिक होना ज़रूरी है ललित कुमार उतने ही अव्यवहारिक हैं।
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हवा का रुख़
पच्चीस साल पहले ललित कुमार लुधियाना से व्यापार करने तेहरान आये थे। ये शाह का ज़माना था और तेल की खरीद करने वाली कम्पनियां टैंकरों में तेल लेकर बंदरगाह तक ले जाती थीं। ललित कुमार ने तेल ले जाने का एक छोटा-सा ठेका लिया और कारोबार शुरू हो गया। लेकिन ग़ज़ब यह हुआ कि ललित कुमार क्लासिकी फ़ारसी शायरी की गिरफ्त में आ गये। फिरदौसी और हाफ़िज़ का कलाम उनका तकिया कलाम बन गया। व्यापार चलता रहा है और ललित फ़ारसी शायरी और संगीत में रमते चले गये। उन्होंने बताया था_ दस साल पहले पहली बार जब बाकू आया था तो फ्लाइट रात में पहुंची थी। एयरपोर्ट पर अंधेरा था। सर्दियों के दिन थे। हीटिंग भी नहीं थी। रात के वक्त टैक्सियां भी नहीं थीं। हालांकि मेरी होटल में बुकिंग थी लेकिन वहां पहुंच ही नहीं सकता था। रात ओवर कोट में एक ठण्डी कुर्सी पर गुज़ारी। दस साल बाद आज जिस विशाल इमारत के सबसे ऊपरी फ्लोर पर ललित का सुपर डीलक्स फ़्लैट है, वह उन्हीं की है। फ़्लैट में लीविंग रूम, टी.वी. लॉज, बिल्यर्ड रूम, लायब्रेरी, स्वीमिंग पूल, 'सोना' बाथ और टेरिस गार्डेन है।
मुझे ललित जी ने जब वह कमरा दिखाया जहां मुझे रहना था तो लगा कि बस जिंदगी में न कभी ऐसा हुआ था न आगे होगा। इस विशाल डीलक्स फ़्लैट में ललित अकेले रहते हैं। नौकरों के लिए इसी बिल्डिंग में क्वार्टर्स हैं, ड्राईवर, गार्ड, सफ़ाई वाले नौकर, खाना पकाने वाली लड़की और उनका सेक्रेटरी इसी इमारत में हैं। ललित जी बाकू में भी तेल का कारोबार करते हैं। उनके टैंकर तेल लेकर टर्की के बंदरगाहों तक जाते हैं। 'रियल स्टेट' का काम भी कर रहे हैं। रेस्त्रां भी है और अब कई हजार एकड़ पर लाल मिर्च की खेती भी करा रहे हैं।
सुबह आंख खुली तो हल्के संगीत के साथ किसी के गाने की गंभीर आवाज़ सुनाई दी। यह आवाज़ भीमसेन जोशी की आवाज़ की तरह बिलकुल अंतर की गहराईयों से निकलने वाली आवाज़ थी। ध्यान से सुनने पर पता चला कि फ़ारसी में कुछ गाया जा रहा है। आवाज़ कहां से आ रही है, यह अंदाज़ा लगाना चाहता था पर लगा कि शायद कमरे में चारों तरफ़ से आ रही है। बाहर निकला तो लगा यह आवाज़ यहां भी है और लिविंग रूम में गया तो देखा ललित जी अख़बारों के गट्ठर में डूबे हैं मुझे देखकर मुस्कुराये।
_ नींद तो अच्छी आई होगी? उन्होंने कहा।
निश्चय ही पूरे दिन की शारीरिक और साथ-साथ मानसिक मेहनत ने नींद को गहरा किया था।
नाश्ते पर पता चला कि ललित जी पूरी तरह ईरानी आज़री रंग में रच-बस चुके हैं। उन्होंने बताया कि उनके यहां खाना, नाश्ता, चाय सब कुछ अज़री है। जैसा देश वैसा भेस। हमें नाश्ता एक लड़की करा रही थी जिससे मेरा परिचय कराया गया। ललित जी ने उसका नाम ज़ाले बताया। दुबली पहली तीखे नक्शो निगार वाली यह लड़की बड़ी फुर्ती और सम्मान के साथ नाश्ता करा रही थी। लड़की अंग्रेजी बोल रही थी। नाश्ते पर ललित जी ने बताया कि आज़रबाईजान की पुरानी इमारतें और प्राचीन शहर कई सौ साल पहले भूकम्प में नष्ट हो चुके हैं। अब भी कुछ इमारतें बची हैं उन्हें देखा जा सकता है। उन्होंने यह भी बताया कि आज़रबाईजान देखना है तो मुझे छोटे कस्बों में जाना चाहिए जहां इस देश का इतिहास है।
नाश्ते के बाद मैंने उनसे पूछा कि ये तो बताइये ये संगीत और गायन कैसा था जो मैंने उठते ही सुना था।
ललित जी हंसने लगे। बोले, मैं हर रोज़ सुबह हाफ़िज़ की एक ग़ज़ल सुनता हूं। यहां पूरे फ़्लैट में एक साउण्ड सिस्टम है जो हर कोने में आवाज़ को इस तरह पहुंचाता है कि लगता है कि आवाज वहीं से आ रही है। आज सुबह आप हाफ़िज़ शीराज़ी की ग़ज़ल सुन रहे थे।
नाश्ते के बाद ललित जी आफ़िस चले गये। वे मेरा आज का प्रोग्राम बना गये थे। वह यह था कि ज़ाले, वही लड़की जो हमें नाश्ता करा रही थी, मुझे शहर घुमाने ले जायेगी।
अजनबी शहर में घूमने का एक मज़ा है और अजनबी लड़की के साथ अजनबी शहर घूमने का अपना अलग मज़ा है। ज़ाले ने ललित जी का हुक्म सुनाते हुए कहा था_ सर ने कहा है कि आपको पुराना शहर घुमाया जाये। मैंने टैक्सी बुला ली है। हम पुराने शहर जायेंगे। उसके बाद आपको किसी चायख़ाने में मुरब्बे के साथ चाय पिलाऊंगी। फिर हम लंच तक घर आ जायेंगे। साहब लंच घर पर ही करते हैं। आपके लिए आज घर में आज़री मछली पकाई जायेगी और उसके साथ न्यूडल्स होंगे और. . .।
टैक्सी ड्राइवर एक बहुत सजीला नौजवान था। मैंने सोचा ये कितना अच्छा मौक़ा है, मैं ज़ाले की मदद से टैक्सी ड्राइवर से बातचीत कर सकता हूं लेकिन पहले तो ज़ाले से ही परिचय प्राप्त किया जाये। ज़ाले ग्रेजुएट है। अंग्रेजी में बी.ए. किया है। उसके बाद किसी स्कूल में पढ़ाती थी। वहां काम बहुत था और नौकरी पक्की नहीं थी इसलिए अब ललित जी के यहां काम करती है, ललित जी के यहां काम करती है, ललित जी उसे बेटी की तरह मानते हैं। उसके जन्म दिन पर उसके घर जाते हैं। वहीं खाना खाते हैं। उसे चमत्कृत कर देने वाले उपहार देते हैं। ज़ाले की अभी शादी नहीं हुई है। एक लड़का है जिससे वह प्रेम करती है। पर किसी को उस लड़के के बारे में कुछ मालूम नहीं है। कहती है जब तक विवाह नहीं हो जाता वह लड़के के बारे में किसी को नहीं बतायेगी। ज़ाले धार्मिक है वह शिआ मुसलमान है। मुहर्रम में सोग मनाती ; शोक और मातम करती है। उसके पिता कम्युनिस्ट पार्टी के एक प्रमुख नेता थे। उन्होंने उसकी माता से प्रेम विवाह किया था। अब ज़ाले शादी करके घर बसाना चाहती है।
टैक्सी ड्राइवर का नाम तैयर है जो मेरी समझ में नहीं आया। शायद यह तैयब होगा जो बिगड़ते-बिगड़ते तैयर हो गया है। तैयर काफ़ी शर्मीले किस्म के नौजवान हैं। उसके पास भविष्य के लिए कोई योजना नहीं है। टैक्सी अपनी है। आमदनी ठीक-ठाक हो जाती है। शादी अभी नहीं की है न किसी से प्रेम करता है।
हमें शहर के केन्द्र पहुंचने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। एक चौराहे पर किसी औरत की बड़ी कलात्मक और भव्य प्रतिमा खड़ी थी। ज़ाले ने बताया कि यह औरत अपीन 'चादर' फेंक रही है। उसने यह भी बताया कि सोवियत यूनियन के समय यहां नारी सुधार के बड़े आंदोलन चले थे। इसके परिणाम स्वरूप पर्दा व्यवस्था को ख़त्म हो गयी थी। नारी शिक्षा पर ज़ोर दिया गया था। यह प्रतिमा यहां नारी मुक्ति का प्रतीक मानी जाती है।
बाकू में एक 'ओपेन एयर म्यूज़ियम' है। प्राचीन नगरों की तरह यहां भी शहर के चारों तरफ़ एक दीवार हुआ करती थी। वैसी ही जैसी दिल्ली के चारों तरफ़ थी, और अब उसके टुकड़े इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। बाकू का पुराना शहर इस शहरपनाह के अंदर है जो आज एक संग्रहालय जैसा महत्वपूर्ण है।
हमारी टैक्सी समंदर के किनारे पुराने शहर के पास रुकी। सामने एक मीनार-सी दिखाई पड़ रही थी। यह मीनार निश्चय ही दूर से आने जाने वालों को देखने और पहचानने के लिए बनाई गयी होगी। इसे बारहवीं सदी में एक पुरानी मीनार के स्थान पर बनाया गया था। इसे 'गिज़ ग्लासी' कहते हैं। ज़ोला ने मुझसे पूछा कि क्या मैं इसके ऊपर चढ़ना चाहता हूं? कुतुब मीनार के बिल्कुल ऊपर तक चढ़ चुके आदमी से यह सवाल काफ़ी बचकाना था। मैंने मना कर दिया लेकिन कैमरा सीध करके मीनार की कुछ तस्वीरें ज़रूर खींच ली। शहर का यह हिस्सा दरअसल अपने अंदर कई साम्राज्यों की यादें समेटे हुए हैं। यहां अग्निपूजक ईरान के पहले बड़े साम्राज्य अख़ामनश, दूसरे बड़े साम्राज्य सासानी, अरबी शासन, ईरान के परवर्ती शासकों, शीरवानी सम्राटों, तुर्की साम्राज्य और बाद में सोवियत यूनियन दौर की प्रति छायाएं दिखाई पड़ती हैं।
मीनार के पास एक सराय के खण्डहर थे इसके साथ पुरानी बाज़ार के दर भी थे जहां दुकानें लगती होंगी। पीछे तुर्की स्टाइल का एक हम्माम नज़र आया। मीनार के पास कुछ लोग पुराना समान बेच रहे थे। मैंने प्राचीन बाज़ार की पृष्ठभूमि में तैयर का एक फ़ोटो खींचा।
आगे शीखानशाह का किला था जिसके अंदर अब व्यवसायिक दबाव के कारण रेस्त्रां चल रहे हैं। यह प्राचीन किला बिल्कुल एशियाई या कहना चाहिए अपने देश के किलो जैसा ही लगा पर इसके अंदर की इमारत सलामत नहीं है। किले के दूसरे दरवाजे से हम बाहर आये तो सामने पार्क में एक विशाल मूर्ति लगी थी। मैंने पूछा तो ज़ाले ने बताया यह अज़रबाइजान के राष्ट्रकवि निज़ामी की प्रतिमा है। कवियों का ऐसा सम्मान मैंने योरोप में ही देखा था। एशिया में यह देखकर खुशी हुई और इसके बारे में मैंने ज़ाले से कहा तो उसने आज़रवाईजान करंसी का एक पांच सौ मनात का नोट निकालकर दिखाया जिस पर निज़ामी का चित्र बना था। उसने कहा कि हम तो कवियों को इतना सम्मान देते हैं कि उनके चित्र नोटों पर छापते हैं। मेरा सिर शर्म से झुक गया। कालिदास, ग़ालिब और टैगोर जैसे कवियों में से किसी का चित्र नोट पर छोड़िए सड़क पर भी नहीं मिलता। याद आया कि हंगरी की राजधनी बुदापैश्त में प्रमुख चौराहों के नाम कवियों, लेखकों, चित्रकारों, संगीतकारों, विद्वानों के नाम पर हैं। कोई प्रसिद्ध व्यक्ति यदि किसी इमारत में रह चुका होता है तो इमारत के बाहर पत्थर पर यह लिख कर लगा दिया जाता है कि अमुक-अमुक वैज्ञानिक लेखक, चित्रकार यहां इस समय में इस समय तक रहता था। क्या दरिद्र देश ही अपनी प्रतिभाओं का सम्मान नहीं करते? क्या इसी कारण वे दरिद्र होते हैं कि अपनी प्रतिमाओं का सम्मान नहीं करते?
_ आप क्या सोचने लगे? ज़ाले ने पूछा। वह मेरा पूरा ध्यान रख रही थी कि 'सर' के मेहमान को कुछ बुरा न लग जाये। ये बूढ़ा कहीं गिर न पड़े इसलिए अक्सर मुझे ज़रूरत पड़ने पर सहारा भी दे देती थी।
_कुछ नहीं, कुछ नहीं, मैंने कहा।
निज़ामी की तस्वीरें खींची और हम आगे बढ़े। अब शहर का योरोपियन हिस्सा शुरू हुआ। लगा मध्य योरोप में आ गये हों। पर्यटकों की भीड़-भाड़ चहल-पहल जो ईरान में नहीं है, यहां देखी।
ज़रूरत कुछ डालर चेंज कराने की थी क्योंकि आस्त्रा में बुर्जुगवार टैक्सी ड्राइवर एक लाख मनात झटक चुके थे। यहां बज़ार में जगह-जगह 'चेंजमनी' की दुकानें थीं जो ईरान में नहीं दिखाई देती। चालीस डालर चेंज कराये। ज़ाले ने कहा कि मैं पैसे सुरक्षित ढंग से रखूं क्योंकि 'लोग' अच्छे नहीं हैं। मैं मुस्कुरा दिया।
शहर की कुछ योरोपीय किस्म की इमारतें देखने के बाद हम लोग लौट आये। दोपहर को पक्का अज़री खाया। खाने की मेज़ पर ललित जी ने मेरा शाम का प्रोग्राम बना दिया। उन्होंने कहा कि आप शाम को 'कैम्पियन सी' के किनारे चाय पियेंगे। आपको ज़ाले और मेरी सेक्रेटरी वहां ले जायेंगे।
मुझ यह जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि पहली ही मुलाकात में ललित जी मेरे बारे में यह कैसे समझ गये कि मुझे क्या पसंद है क्या नहीं। उन्होंने यह भी कहा कि वे शाम को किसी 'बिजनेस डिनर' में फंस गये हैं, नहीं तो वे भी साथ चलते।
बाकू में समुद्र के तट पर दूर-दूर तक पार्क और टहलने की जगहें बनायी गयी हैं। इन्हीं पार्कों के अंदर पेड़ों और लताओं के झुरमटों के पास चाय के रेस्त्रां हैं। यहां जाने के रास्ते बहुत कलात्मक हैं यानी ऐसा लगता है कि आप नदी पर बने किसी पुल को पार करने के लिए रेस्त्रां में जा रहे हैं। मैं शाम के घुंघलके में ज़ाले, ललित जी की सेक्रेटरी गुल और टैक्सी ड्राइवर तैयर के साथ समुद्र के तट पर टहल रहा था। यहां भीड़ तो नहीं थी, लोग थे। इन्हीं लोगों में कुछ महिला चेहरे देखकर मैं ठिठक गया। लगा यही हैं वे कोहेक़ाफ़ की परियां। लेकिन यह बात किसी से पूछी नहीं जा सकती थी। ये लड़कियां उन सब लड़कियों से बिलकुल अलग थीं जिन्हें मैंने उस वक्त तक जिन्दगी में देखा था। इनके बाल इतने काले थे कि काला रंग भी इनके सामने फ़ीका पड़ रहा था। इनके क़द लंबे थे। शरीर का गठन बहुत सटीक और कलात्मक और नाजुक ही नहीं बल्कि गरिमापूर्ण था। इनका रंग न तो सफेद गोरा था और न सांवला था। एक अजीब रहस्यमयी रंग था इनके चेहरों का। इनके माथे चौड़े थे। नक्शों निगार लगता था किसी चित्रकार ने बनाये थे। वे गरिमा, जीवन्तता और सुंदरता का अद्भुत मिश्रण लगी, लगा नारी का इससे श्रेष्ठ स्वरूप हो ही नहीं सकता। कहते हैं मुगल सम्राट अकबर की एक पत्नी कोहेक़ाफ़ की थी जिसका नाम मरियम था।
हमारी बायीं तरफ़ समंदर था, हम एक चौड़े रास्ते पर चल रहे थे, दाहिनी तरफ़ एक पानी की कृत्रिम नहर थी उसके ऊपर छोटे-छोटे पुल से बने थे। नहर के दोनों तरफ़ पेड और लतायें थी। हम लोग सीढ़ियों पर चढ़ने लगे और नहर के उस पार एक रेस्त्रां के अंदर गये। रात के अंधेरे में पेड़ों के नीचे मेजें लगी थीं। हम एक जगह बैठ गये। कुछ ही देर में चाय और मुरब्बे हमारी मेज़ पर आ गये। मैं चाहता था कि इन लड़कियों से अधिक जानकारी मिल सके। यहां के समाज के बारे में, लोगों और जीवन के बारे में। पर पता नहीं कैसे पूरी बातचीत धर्म पर केन्द्रित हो गयी और पता चला कि वे तीनों ईश्वर पर पक्का विश्वास करते हैं। धार्मिक हैं पर अपने को आधुनिक मुसलमान कहते हैं। टैक्सी ड्राइवर तैयर के बारे में पता चला कि वे सब कुछ खा-पी लेते हैं पर अपने को मुसलमान मानते हैं।
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परियों की तलाश में
मैं बाकू में घूमा कम, आराम ज्यादा किया। सुबह-सुबह आलौकिक संगीत से उठता था। चाय पीता था। ललित जी से दुनियां जहान की बातें होती थी। तैयार होकर आज़री नाश्ता करता था। ललित जी आफ़िस चले जाते थे। ज़ाले आ जाती थी। उसके साथ चाय का दौर चलता था। वह कभी अपने माता-पिता के प्रेम प्रसंगों की चर्चा करती थी, कभी बताती थी कि उसके पिता उसका कितना ध्यान रखते हैं। कभी यह किस्सा छेड़ बैठती थी कि सोवियत ज़माने में उसकी माता आज़री कढ़ाई किए कपड़े बेचने मास्को तक जाती थी। कभी अपने पिताजी की कम्युनिस्ट गतिविधियों की चर्चा करती थी। इस बीच वह लंच की तैयारी भी करती रहती थी। ललित जी का ड्राइवर भी आ जाता था। वह निहायत व्यवहारिक आदमी था। चाय पी, दो बिस्कुट खाये और चला गया। लगता था उसे दुनिया जहान से कोई मतलब नहीं है।
ग्यारह बारह बजे मैं तैयार हो जाता था। दोपहर में ललित जी के साथ शानदार लंच होता था। वे घण्टा भर आराम करते थे। मैं दो घण्टे आराम करता था। शाम को वे चले जाते थे और मैं निकल पड़ता था अकेले शहर के भ्रमण पर। शराबखाने, चायखाने, समन्दर के किनारे बने रेस्त्रां, पश्चिमी ढंग की पुरानी इमारतें आदि आदि। रात के खाने के बाद ललित जी की लायब्रेरी में नियमित बैठक होती थी और कला, साहित्य, संस्कृति की चर्चाएं हुआ करती थी। लायब्रेरी से निकलते समय कोई किताब उठा लेता था और रात बारह एक तक पढ़ता रहता था। इसी बीच ललित जी ने मुझे बाकू में इतनी तरह के खाने खिलाये कि नाम भी याद नहीं।
_ 'अरे यार तुम घूमने आये हो, आराम करने नहीं आये।' एक दिन मैंने अपने आपको धिक्कारा।
रात के खाने के समय मैंने घोषणा कर दी कि मैं कल गूबा जा रहा हूं। बताया गया कि यह कोहेक़ाफ़ में एक अच्छा कस्बा है जहां बहुत सी रोचक चीजें हैं।
_ 'ज़रूर जाइये. . .कोहेक़ाफ़ की परियां देखना चाहते हैं?' ललित जी ने छेड़ा।
_ पर आप जायेंगे कैसे? आप भाषा तो जानते नहीं। ज़ाले ने घबराकर कहा।
_ 'अरे तो क्या हुआ? भटक जाऊंगा? खो जाऊंगा और क्या हो सकता है?'
_ 'नहीं नहीं. . .मेरी दोस्त का ब्वाय फ्रेंड गूबा में टैक्सी चलाता है। मैं उसको फ़ोन करती हूं।' ज़ाले ने कहा।
बहुत जल्दी सब कुछ तय हो गया। मैं आठ बजे की बस से गूबा जाऊंगा। ज़ाले की दोस्त का ब्याय फ्रेंड करीम मुझे बस स्टैण्ड पर मिलेगा और कस्बा घुमायेगा। वह मुझे आसानी से पहचान लेगा क्योंकि उसने आज तक कोई इण्डियन नहीं देखा है।
चल दिए जहां की साध लेकर आये थे। बाकू से बस चली- गूबा के लिए और रास्ते में पहाड़ ऊंचे होते गये। पेड़ हरे होते गये। झरनों का पानी साफ़ होता गया। बादलों का रंग सुरमई होता गया। एक बजे के करीब बस गूबा बस अड्डे पर रुकी। मैं उतरने भी न पाया था कि नीचे खड़े किसी आदमी ने हाथ हिला-हिलाकर मेरा स्वागत करना शुरू कर दिया- करीम. . .नीचे करीम खड़े थे। मैं उनसे मिला। हम एक शब्द- 'सलाम' के अलावा, एक दूसरे से और कुछ नहीं बोल सके। 'जबाने यार तुर्की है।'
आज़रबाईजान एक खानदेश था। गूबा भी एक खानदेश था। केन्द्रीय सत्ता के कमज़ोर पड़ते ही प्रभावशाली क्षेत्रीय नेताओं ने अपने छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिए थे जिन्हें अंग्रेजी में खानेट कहा जाता है। गूबा खानदेश की स्थापना 18वीं शताब्दी के मध्य में गूबा खान हुसैन अली ने की थी। उसने यहां अपना किला बनवा कर शहर के चारों तरफ़ दीवार भी खड़ी कराई थी। अन्य खानदेशो की तरह गूबा भी 1913 में रूस द्वारा जीत लिया गया था।
गूबा आने के दो आकर्षण थे। पहला 'कोहेक़ाफ़' की परियों को देखना और दूसरा गूबा के पास बनी मध्यकालीन यहूदी बस्ती का जायजा लेना। ज़ाहिर है कि 'कोहेक़ाफ़' की परियां किसी एक जगह नहीं मिलेंगी किसी इमारत की तरह कहीं जाकर उन्हें देखा नहीं जा सकेगा। यह मैं जानता था। इसलिए अपने अनुमान और दिए गए विवरण के अनुसार मैं स्थानीय महिलाओं में 'कोहेक़ाफ़' की परियों जैसी लड़कियों को देखने की कोशिश करने लगा। गूबा के पास एक प्राचीन अग्नि मंदिर भी है और उसे देखना भी ज़रूरी था। इसके अलावा शहर में तुर्की ढंग से पुरानी मस्जिद और हम्माम की इमारतें भी देखना चाहता था। मित्र टैक्सी चालक ने मुझे टैक्सी पर बिठाया और गुदियाल नदी के उस पार पहाड़ों पर स्थिति यहूदियों की बस्ती की तरफ़ रवाना हो गये। नदी बड़ी थी लेकिन पानी बहुत कम था। नदी का दूसरा किनारा काफ़ी ऊंचाई पर था और टैक्सी कई चक्करदार सड़कों पर से गुजरती उस बस्ती में पहुंच गयी। सीधी और अच्छी खासी चौड़ी गलियों के इधर-उधर घर बने थे लेकिन अजीब बात यह लगी कि बस्ती में लोग नजर नहीं आ रहे थे।
यह भी लग रहा था कि घर खाली है। बिना लोगों की बस्ती से टैक्सी गुजरती रही। कुछ घर तो अन्य पुराने अज़री घरों जैसे थे। लेकिन उनमें अहाता या कम्पाउण्ड नहीं था। कुछ दो मंजिले घरों में इतालवी ढंग की बाहर को निकली खिड़कियां बहुत रोचक लगी। मुख्य प्रवेश द्वार के ऊपर भी इसी तरह की बाहर को निकली बालकनी नुमा खिड़कियां काफ़ी घरों में देखी। दो-तीन गलियों में घूमने और इक्का दुक्के लोग देखने के बाद पता चल गया कि यहां की यहूदी आबादी इज़राइल बनने के बाद वहां चली गयी है क्योंकि बूढ़े लोगों के अलावा कोई और नहीं दिखाई पड़ रहा था। यहूदी के धर्म स्थल 'सेनेगॉग' के सामने भी सन्नाटा ही था। हो सकता है शाम के वक्त कुछ लोग रहते हों।
यहूदी बस्ती से निकलकर हम पुरानी अज़री बस्ती आ गये जहां प्राचीन मस्जिद है। ये बिल्कुल तुर्की ढंग की मस्जिद लगी। एक ऊंचा-सा मीनार और गोल नहीं बल्कि कुछ अण्डाकार बड़ा-सा गुम्बद मस्जिद के तुर्की स्टाइल को स्थापित करता था। आसपास की आबादी में कट्टर मुसलमान जैसे लगने वाले लोग नहीं थे। मस्जिद के बाद हम लोग एक दरगाह देखने गये। जिसकी फ़ोटो खींचने पर वहां मौजूद मौलवी किस्म के आदमी ने टैक्सी ड्राइवर से कुछ नाराजगी जाहिर की। मैं भाषा न जानने के कारण साफ़ बच गया।
शहर के पुराने हिस्से में एक जगह टैक्सी से उतर कर हम लोग चाय पीने जा रहे थे। यहां लड़कियों का एक गिरोह देखा जो निश्चित रूप से 'कोहेक़ाफ़' की परियों के विवरण से मिल रही थी।
नख शिख वर्णन करना कवियों का काम है। दुर्भाग्य से मेरे अंदर न तो उतनी क्षमता है और न शक्ति है। लेकिन फिर भी चूंकि 'कोहेक़ाफ़' की परियों के बारे में इतना लिख चुका हूं इसलिए बचा भी नहीं जा सकता। पहली बात इन लड़कियों के बारे में बहुत साफ़ लगी और वह यह कि ये अन्य लड़कियों से अलग लगीं। इनकी अलग पहचान भी साधारण नहीं है बहुत प्रमुख पहचान है। आमतौर पर इनका कद लंबा है लेकिन लंबाई इतनी नहीं है जो बुरी लगे। कद और काठी का संयोजन संभवत: क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति की वजह से बहुत सही और प्रभावशाली है। ऐसा नहीं है कि शरीर का एक हिस्सा अतिरिक्त रूप से दूसरे हिस्सों पर प्रतिकूल प्रभाव डालता हो। शरीर की विशेष बनावट की वजह से उनके चलने फिरने, खड़े रहने में एक राजकीय ठसक भी आ गयी है जो बहुत गरिमामय लगती है। पैर बिल्कुल सीधे हैं, कमान की तरह तिरछे नहीं हैं। जहां तक चेहरे का सवाल है, मीर तकी 'मीर' के अनुसार_ जो शक्ल नज़र आई तस्वीर नज़र आयी - वाला हाल है। लगता है इनका जन्म मां के पेट से नहीं हुआ है बल्कि किसी चित्रकार ने बड़े इतमीनान, लगन, उत्साह और समर्पण के साथ इनके नक्शो निगार बनाये हैं। चेहरे ही नहीं व्यक्तित्व का एक बड़ा हिस्सा इनके बाल लगे। काले इतने ज्यादा के काला रंग की शरमा जाये। पता नहीं इस काले रंग को क्या कहेंगे जिसमें चमक भी है और बेहिसाब काला रंग भी है। काले बाल पतले नहीं बल्कि खासे मोटे हैं। माथा चौड़ा है किताबी, खुले हुए चेहरे पर चौड़ा समतल और चारों ओर से आनुपातिक माथा चेहरे को एक विस्तार देता सा लगता है। माथे के नीचे भवें भी काली और घनी होती हैं लेकिन इनका रूप बहुत सधा हुआ लगता है। दोनों आंखों के ऊपर बीच से भवें 'अलिफ़' के अंदाज़ में शुरू होती हैं यानी एक काली मोटी लकीर जिसे शुरू करने से पहले क़लम को थोड़ा दाब दिया गया हो और कलम ने अपनी चौड़ाई से कुछ ज्यादा चौड़ी शुरुआत की हो। भवें इस तरह शुरू होकर बिल्कुल सीधी आगे बढ़ती है और फिर आकर्षक ढंग से नीचे को झुक जाती हैं। इस क्रम में उनकी मोटाई लगातार कम होती चली जाती है जो अंतिम बिंदु तक साफ़ नज़र आती है। पलकें इतनी घनी, काली और लंबी होती हैं कि आखों के चारों तरफ़ एक काला-सा हाला दिखाई पड़ता है। इस काले, गतिमान हाले के बीच सफेद आंखों की चमक बढ़ जाती है। आंखें मध्यम आकार की ही होती है। पलकों की वजह से आंखों तक पहुंचना कुछ आसान नहीं होता।
चेहरे पर जो कुछ भी है, तीखा है, नाक है तो सितुवां हैं, कहीं किसी छोटे से छोटे बिन्दु पर उंगली रख कर यह नहीं कहा जा सकता कि प्रकृति यहां चूक गयी है। इसी तरह तराशे हुए होंठ जिनका प्राकृतिक रंग ताज़गी और खुशी दर्शाता है।
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तेल के खेल
कुछ दिन के बाद ललित जी कुछ 'फ्री' हुए तो उन्होंने कार्यक्रम बनाने शुरू कर दिए। बाकू के बाहर तेल के खेत दिखाने ले गये। मशीनों से लगातार तेल निकलता है। एक पाइप जमीन के अंदर से उसी तरह कच्चा तेल खींचता है जैसे हैण्डपम्प से पानी बाहर निकलता है। यह तेल पाइप के माध्यम से एक जगह पहुंचता रहता है और वहां से तेल शोधक कारखाने में चला जाता है या निर्यात हो जाता है। रेगिस्तानी पहाड़ियों पर ले जाकर उन्होनें एक मुरमुरी किस्म की जमीन दिखाई और बताया कि इसमें नीचे गैस है। तेल के कुएं अनगिनत थे। इसके अलावा आज़रबाइजान कैस्पियन समुद्र से भी तेल और गैस निकाल रहा है। मैंने ललित जी से कहा कि तब तो यह देश बड़ा धनवान होगा। उन्होंने कहा मुश्किल यह है कि तेल की सम्पन्नता आम आदमी तक बहुत कम पहुंचती हैं। ऊपर ही ऊपर बहुत से खेल हो जाते हैं। जिनसे बड़ी कम्पनियों बिचोलियों और राजनेताओं की जेबें भर देती है।
सोवियत संघ के टूटने के बाद से ही अमेरिका की नजर मध्य एशिया के तेल पर है। मध्य एशिया के अन्य देशों की तुलना में आज़रबाइजान का तेल पश्चिमी देशों तक ले जाना भौगोलिक दृष्टि से ज्यादा सरल है। आज़रबाइजान के राजनैतिक हालत विशेष रूप से स्वतंत्रता हासिल करने के बाद अरमीनिया के साथ युद्ध और परिणाम स्वरूप देश का बड़ा भू-भाग खो देने के कारण उपजी राजनैतिक अस्थिरता से पश्चिमी देशों को बहुत लाभ हुआ है। सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस स्वयं अस्थिरता के दौर में था और आंतरिक समस्याओं से जूझ रहा था इस कारण वह मध्य एशिया में पश्चिमी देशों विशेष रूप से अमेरिका के बढ़ते प्रभाव को रोक नहीं सका।
आज़रबाइजान का तेल पहले सोवियत यूनियन के माध्यम से विश्व मण्डी में पंहुचता था लेकिन अब अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश यह तेल सीधे लेते हैं। एक 'ईस्ट वेस्ट इनर्जी कारीडोर' बनाया जा रहा है जिसके माध्यम से आज़रबाइजान का तेल पाइप लाइन के माध्यम से सीध तुर्की के बंदरगाहों पर पहुंचेगा और वहां से बहुराष्ट्रीय तेल कम्पनियां तेल ले जायेंगी। लगभग तीन बिलियन डालर से तैयार होने वाली यह पाइप लाइन बाकू तिबलिसी और सिहान से गुजरने के कारण टी.बी.सी. कहलाती है। यह प्रतिदिन एक मिलियन बैरल तेल भेजने की क्षमता रखेगी। टी.बी.सी. आज़रबाइजान और मध्य एशिया में बनने वाले आर्थिक ही नहीं राजनैतिक समीकरणों पर भी प्रभाव डालेगी। क्षेत्र में पश्चिम का प्रभुत्व बढेग़ा और ईरान पर सरलता से नजर रखी जा सकेगी। दूसरे देश भी इसका लाभ उठाने का प्रयास कर सकते हैं। ;क्षेत्र में रूस और चीन का प्रभाव कम हो सकता है। निश्चय ही ये दोनों देश इन हालत से खुश नहीं हैं और मध्य एशिया में अमेरिकी प्रभुत्व को रोकने के लिए शंघाई कार्पोरेशन का गठन किया गया है। इस गठबंधन में किरगिस्तान, ताजिकिस्तान, चीन, रूस, उज्बेकिस्तान और काजाकिस्तान शामिल हैं।
तेल के खेल ने बाकू का चेहरा अच्छी तरह बदला है। लगता है आर्थिक गतिविधियों का बोलबाला है। पिछले दस साल में शहर के अन्दर सैकड़ों की तादात में बड़ी-बड़ी विशाल इमारतें बन गयी है। छोटे मकानों और रिहायशी इलाकों के बीच बनी ये इमारतें कहीं कहीं बड़ी अटपटी लगती हैं। बाकू के बाजार विदेशी सामान और ग्राहकों से खलबलाते हैं तरह-तरह के नये रेस्त्रां बन गये हैं। ललित जी बाकू में बने रेस्त्रां का पूरा हिसाब रखते है। एक दिन ताजमहल में खाना खिलाने ले गये किसी पाकिस्तानी ने यह रेस्त्रां बनाया है। बातचीत के दौरान ललित जी ने बताया कि हालात कुछ ऐसे है कि भारतीय खाने के रेस्त्रां का नाम चाहे वह संसार के किसी कोने में हो 'ताजमहल' या 'महाराजा' ही हुआ करता है। हद ये है कि पाकिस्तानी भी इस नियम का पालन करते है। उप महाद्वीप का खाना भारतीय खाने के नाम पर बेचा जाना विवशता है। ललित जी ने तुर्की खाने का मजा चखाया फिर एक दिन ग्रीक खाना खाने गये। इतालवी और चीनी खाना तो खैर साधारण बात है।
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अग्नि मंदिर
मनुष्य का कुछ बुनियादी उपलब्धियों में आग और पहिये के आविष्कार को विशेष महत्व दिया जाता है। आग पैदा करना तथा इस्तेमाल करना तो मानव ने बाद में सीखा होगा लेकिन इससे पहले यह ज्ञान हो गया होगा कि आग कितनी विनाशकारी हो सकती है और उसके सामने कुछ भी नहीं ठहरता। तेल और आग का पुराना रिश्ता है। आज़रबाईजान को आग का देश भी कहा जाता है। जमीन के अंदर इतनी गैस है कि कहीं-कहीं पत्थर और मिटटी की तहें तोड़-फ़ोड़कर बाहर निकल पड़ती है और वातावरण के तापमान के कारण जलने लगती हैं। गैस के अथाह भंडार के कारण यह गैस लगातार निकलती और जलती रहती है। आज़रबाईजान में यह दृश्य कई स्थानों पर देखा जा सकता है।
बाकू में एक अग्नि मंदिर है। जिसे अतिशकदा कहा जाता है। ललित जी ने अपनी निजी जिज्ञासा के अंतर्गत इस अग्नि मंदिर के संबंध में काफ़ी सामग्री जमा कर रखी है। मेरी इच्छा और उनके सहयोग से एक दिन मैं ज़ाले और अपने प्रिय टैक्सी ड्राइवर तैयारी के साथ अग्नि मंदिर यानी अतिशकदा की तरफ़ निकल पडे ज़ो बाकू से दस बारह किलोमीटर दूर सुराखानी इलाके में है।
सुराखानी में टैक्सी दाखिल हुई तो लगा काफ़ी पुरानी बस्ती है। कुछ नीचे और पुराने ढ़ंग के मकान, गलियां, पतले रास्ते, छोटी-छोटी दुकानें दिखाई पड़ने लगी। सुराखानी में तेल के अनगिनत कुएं भी नजर आये जो दूर-दूर तक फ़ैले हुए थे। हमारी टैक्सी आबादी को पीछे छोड़कर एक मैदान में पहुंची जो शायद अतिशकदा के लिए कार पार्किंग है। यहां दाहिनी तरफ़ को एक पुरानी हवेलियों या सरायों जैसा फ़ाटक दिखाई पड़ा और उंची चहार दीवारी भी नज़र आयी। दरवाजा और फ़ाटक राजस्थानी या उत्तर भारत की पुरानी शैली में बने हुए हैं। तैयर ने टैक्सी बिल्कुल फ़ाटक के सामने रोकी तो मैंने उनसे कहा टैक्सी कुछ दूर खड़ी करो ताकि फ़ाटक की तस्वीर में टैक्सी न आ जाये। फ़ाटक की तस्वीरें खींचने के बाद हम आगे बढे। फ़ाटक के दरवाजे के ऊपर काले रंग के पत्थर की एक तख्ती पर उँ गणेश नम: लिखा था 'ओम' का निशान भी बना था।
अंदर बिल्कुल सन्ताटा था। सामने एक मंदिर दिखाई पड़ा जिसकी छत बिल्कुल उसी तरह की है जैसी भारतीय मंदिरों की होती है। इस छत पर त्रिशूल भी लगा दिखाई पड़ा। मंदिर के अंदर पत्थर के एक चौकोर से कुण्ड के अंदर से आग निकल रही थी। अहाते में चारों तरफ़ कोठरिया बनी थी जिसके उपर देवनागरी में नामपट्ट लगे हुए थे। इससे पहले हम मुख्य मंदिर की तरफ़ आगे बढ़ते यह पता चला कि अंदर जाने के लिए टिकट लेना पडेग़ा क्योंकि यह एक संग्रहालय है जो सरकार के संरक्षण में है। मुख्य द्वार के अंदर इधर उधर बने बरामदेनुमा कमरों में एक टिकट घर था। तीन टिकट खरीदने के बाद आगे बढ़े।
मुख्य मंदिर के चारों गोल खुले दर हैं। मंदिर की मुख्य इमारत लगभग पन्द्रह फुट लम्बी और पन्द्रह फुट चौड़ी है ऊपर चढ़ने के लिए तीन सीढियां हैं। हम मंदिर के अंदर आ गये। पत्थर के चौकोर हौज से पत्थर के टुकड़ो के बीच से आग की ज्वाला निकल रही थी। इस आग का रंग सामान्य आग जैसा लाल नहीं था, न इसमें धुआं था, न ही इसकी लपटें रंग बदल रही थीं। ये लगातार निकल रही थीं। हवा के झोंकों से जरूर इसमें परिवर्तन आता था। कभी एक दिशा में कभी, दूसरी दिशा में मुड़ जाती थी। यह आग जमीन से निकलने वाली गैस के कारण जल रही थी। बताया गया कि पता नहीं कब से यह आग इसी तरह निकल रही है। मंदिर की शिवाले जैसी छत के ऊपर चार चिमनियों जैसे बूर्ज भी बने थे। रात में इसमें से निकलने वाली गैस को भी जला दिया जाता है। तब मंदिर के ऊपर चार दिशाओं से आग की लपटे निकलती हैं। और नीचे मुख्य मंदिर के अंदर को भी ज्वाला फूटती रहती है।
मुख्य मंदिर में बाहर आकर देखा तो चारों तरफ़ पत्थर की कोठरियां बनी दिखाई पड़ी। अहाता चौकोर नहीं था। हम तीनों एक कोठरी के दर पर पहुंचे। चौकोर दर के ऊपर देवनागरी में खुदा पत्थर लगा था। मैंने फ़ोटो खींची। पढ़ने की कोशिश की तो कुछ नाम पढ़ सका। संवत पढ़ने में आया। अगली कोठरी में गये तो वहां गणेश जी की एक प्रतिमा रखी थी। बताया गया कि यह हाल ही में यहां रखी गयी है। पहले नहीं थी। अगली कोठरी भी खाली थी। पत्थर की ठण्डी दीवारे और नीची छत किसी मध्यकालीन कैदखाने की याद ताजा करा रही थी।
एक तरफ़ कोठरियों में संग्राहलय बनाया गया था। यहां अतिशकदा के पुराने चित्र लगे थे। जो विवरण लिखा था वह रूसी कुछ चित्र पुराने भारतीय व्यापारियों और साधु-सन्यासियों के चित्र थे। अगली कोठरी में अतिशकदा के इतिहास को सजीव करने का प्रयास किया गया था। एक मंडल में आदमी जंजीरो से जकड़ा दिखाया गया था। यह नमूना था उस सज़ा का जो यहां चोरों को दी जाती थी। एक मॉडल में सेठ अपने मुनीम के साथ हिसाब-किताब कर रहा था। एक अन्य प्रस्तुति में कुछ मसाला या दवाएं कूटते लोग दिखाई गये थे।
संग्राहलय से बाहर निकलकर हम फिर अहाते में आ गये। अचानक मुख्य द्वार से दो आज़री औरतें आती दिखाई पड़ी। वे सीधे अतिशकदा में गयी और हाथ फ़ैला कर कुछ प्रार्थना जैसा करने लगी। ज़ाले ने बताया शायद इनकी कोई पुरानी मुराद पुरी हो गयी और वे आभार व्यक्त करने आयी हैं या कोई मन्नत मानने आयी होगीं। इसका मतलब है कि स्थानीय लोग इस मंदिर को पवित्र मानते हैं। इस पर उनकी आस्था है।
अतिशकदे की मैं विभिन्न कोणों से फ़ोटो लेने लगा। मुझे लगा कितने दुख की बात है कि भारत में लोग इसके बारे में कुछ नहीं या बहुत कम जानते हैं। महा पंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपने मध्य एशिया के संस्मरणों में इस मंदिर का उल्लेख किया है। शाम को ललित जी ने दो दस्तावेज दिये। जिन्हें पढ़कर अतिशकदा के बारे में बहुत सी बातें स्पष्ट हो गयी। पहली बात तो यह है कि आज़रबाईजान की सरकार ने कुछ वर्ष पहले यूनिस्को लिखा था कि इस मंदिर को 'जोराशट्रियन मंदिर' के रूप में एक विश्व शोध स्मारक की मान्यता दी जाये। इस आवेदन पर एक जोराशट्रियन यानी पारसी शोध संस्थान ने खोजबीन करने के बाद यह निर्णय दिया कि अतिशकदा पारसी मंदिर नहीं है। इसका उल्लेख पिछले दो सौ वर्ष के किसी वृत्तांत नहीं हैं। यह वास्तव में भारतीय व्यापारियों द्वारा स्थापित अग्नि मंदिर है। यह पवित्र स्थान बहुत प्राचीन है। लेकिन 17वीं 18वीं शताब्दी में 'सिल्क रोड' पर व्यापार करने वाले भारतीय विशेष रूप से पंजाब के व्यापारियों ने इसे बनाया था। इसकी देखरेख का कार्य भी वही करते थे। यह मंदिर ही नहीं था बल्कि सराय और व्यापार केन्द्र के रूप में भी स्थापित था। इस मंदिर में साधु सन्यासी आते रहते थे जिनको अक्सर स्थानीय लोगों से असहमति भी हो जाती थी। कुछ पर्यटकों द्वारा दिये गये विवरणों के आधार पर यहां एक हठयोगी भी आया था, जो सात साल पहले अपना एक हाथ उठाये हुए था। अग्नि मंदिर के पुजारियों की व्यवस्था भी भारतीय व्यापारी किया करते थे। कोठरियों पर लिखे विवरण इस बात का प्रमाण है कि समय-समय पर भिन्न-भिन्न भारतीय व्यापारियों ने इन्हें बनवाया था। 'सिल्क रोड' का महत्व समाप्त हो जाने तथा राजनैतिक परिवर्तनों के कारण इस मंदिर से भारतवासियों का सम्पर्क टूट गया था लेकिन यह सराहनीय है कि आज़रबाइजान की सरकार ने संरक्षण दिया है। यह मंदिर इस्लाम धर्म के प्रभाव तथा कम्युनिष्ट शासन के बाद भी सुरक्षित है।
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फिर वही रास्ता
देखे हुए रास्ते पर चलना कितना तकलीफ़ देह होता है इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है। लेकिन अफ़सोस यह है कि लोग नये रास्ते नहीं बनाते, बने बनाये रास्ते पर चलना ज्यादा पंसद करते है। जहां इरानियों का सवाल है, उन्होंने तो आजरबाईजान जाने के दसियों रास्ते बनाये थे लेकिन इतिहास उन रास्तों को बंद करता चला गया और अब सिर्फ एक ही रास्ता बचा है जिससे मैं आया था। मतलब यह है कि वापस ईरान जाने के लिए आस्त्रा आना ही एक मात्रा रास्ता था। मैंने दसियों लोगों से पूछा कि क्या कोई दूसरा रास्ता, मतलब कोई और बॉर्डर भी है जहां से ईरान में दाखिल हो सकते हैं? लेकिन बताया गया नहीं।
बाकू से आस्त्रा तक का सफ़र देखे हुए रास्ते और उस रास्ते को देखना था जिस पर कुछ नहीं है। निर्जीव पहाडियां हैं। तेल के खेत और दूर-दूर फैली इक्का-दुक्का बस्तियां कुछ गावं कस्बे चौराहे और खस्ताहाल सड़क। दोपहर होते-होते सीमा तक पहुंच गया यह वही बॉर्डर है जहां आते समय 'कुछ' मांगा गया था और मैं बडी मुश्किल से जान बचा सका था।
बॉर्डर या कस्टम चौकी पर टैक्सी ने छोड़ा तो कुछ लोग पीछे लग गये, वे अजरी में जाने क्या क्या कह रहे थे। शायद होटल वालों के ऐजेण्ट थे या टैक्सी वाले थे। मैं सबसे पीछा छुड़ाता आगे बढ़ता रहा लेकिन एक जवान लडका बराबर साथ बना रहा। वह अंग्रेजी के कुछ शब्दों के माध्यमों से बातचीत कर रहा था अजनबी देश में देर तक बिना किसी कारण कोई आपके साथ चिपका रहे तो डर पैदा हो जाता है कि क्या चक्कर है। इस लड़के ने बताया कि यह लंच टाइम है। और दो बजे बॉर्डर खुलेगा, वह मुझे चाय पिलाने एक ढाबे किस्म के रेस्त्रा में ले गया। मैं अपना समान, पर्स, पासपोर्ट बगैरा पर बार-बार निगाह डालता था और डर रहा था कि यह लड़का और कुछ लेकर चम्पत हो गया तो मेरे ऊपर कयामत टूट पडेगी। जहां हम बैठे वहां चाय नहीं मिली। एक-दूसरे ढ़ाबे में लड़के ने कुछ छाज जैसी चीज पिलाना चाहा, छाज में कुछ मसाले डालकर स्वादिष्ट बनाया गया था। वहां मैंने कुछ खाया भी लड़का मुझसे मेरा पासपोर्ट दिखाने की फ़रमाइस करने लगा। मैंने अपने हाथ में लेकर पासपोर्ट दिखा दिया। लड़का कहने लगा कि वह पासपोर्ट अपने हाथ में लेकर देखना चाहता है। मैं डर गया और जल्दी से पासपोर्ट जेब में रख लिया। बहरहाल, उसने मेरा पता लिया और तरह-तरह के सवाल पूछे।
आजरी कस्टम वाले पिछली बार की तरह सब यात्रियों से कुछ ले रहे थे और मुझे एक कोने में प्रतीक्षा करने के लिए खड़ा कर दिया गया था। मैंने पर्स खोलकर देखा तो अच्छी खासी करेन्सी थी। मैंने सोचा चलो यार मैं भी पैसा देकर इस अदृश्य कैद से निजात पाऊं। वरना ये लोग पता नहीं कितने देर मुझे और खड़ा रखें।
घूस मिलते ही उनके चेहरे चमक गये और उन्होंने मेरी तरफ़ बड़े सम्मान से देखा। उन्हें याद था कि जाते समय मैंने पैसे नहीं दिये। उन्हें यह लगा कि आजरबाईजान में पन्द्रह-बीस दिन रहकर मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया है। वहां से बाहर निकला, अब एक छोटी-सी नदी को पार करना था और उस पार ईरान था। नदी के किनारे आज़रबाइजान पुलिस की एक चौकी बनी थी वहां बैठे सिपाई ने भी मुझसे घूस मांगी। मेरे पास अजरी करंसी खत्म हो चुकी थी। मैंने उसे पचास रुपये के बराबर वैल्यू का एक ईरान नोट थमा दिया तो उसने काफ़ी बुरा माना और फिर गिडगिडाने वाले अंदाज में कहने लगा कि कुछ और भी दो। उसका रिश्वत मांगने का यह तरीका मुझे अच्छा लगा और एक नोट और थमाकर मैं नदी पर बने पुल को पार कर गया। मैं ईरान में था मेरी जानकारी के अनुसार यहां रिश्वत का बाजार गर्म नहीं है जो आज़रबाइजान में लगातार बढ़ रहा है। आज़रबाइजान में ही ललित जी ने बताया था कि पुलिस में बड़ा भ्रष्टाचार था और है। क्योंकि सत्ता परिवर्तन के बाद उनके वेतन नहीं बढ़े थे, पर कीमतें बहुत बढ़ गयी थीं। पुलिस के भ्रष्टाचार से सभी परिचित थे और यह माना जाता था कि पुलिस वाले यदि घूस न लें तो इस नये समाज में उनका काम कैसे चलेगा। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर सरकार ने पुलिस का वेतन कई गुना बढ़ा दिया था और यह घोषणा हुई थी कि अब कोई पुलिस वाला घूस लेते पकड़ा गया तो उसके साथ बड़ा बुरा व्यवहार किया जायेगा।
आज़रबाईजान जाते समय मै ईरानी कस्बे आस्त्रा के जिस मुसाफिरखाने में रुका था वह काफ़ी गंदा था। इसलिए पीठ पर थैला लादकर नये मुसाफिरखाने की तलाश में निकल पड़ा। कस्बा जाना पहचाना ही नहीं मेरी पसंद का था। यहां पिछली बार बनाये एक दो दोस्ती भी हैं। सोचा समान रखकर दोस्तों की तलाश करूंगा।
मुस्द्दिक अपनी कम्प्युटर की दुकान पर मिल गये। वे मुझे देखकर खुश हुए। पिछली बार उन्होंने मुझसे कहा था कि उनका एक दोस्त मुस्तफ़ा मेरी कहानियों का फ़ारसी में अनुवाद करना चाहता है। मैंने उसे अपनी अंग्रेजी में छपी कहानियों की किताब दे दी थी। कुछ देर बाद मैं मुस्तफ़ा की किताबों की दुकान पर पहुंच गया। दुकान उन्होंने हाल ही में खोली है और उसमें केवल साहित्यिक किताबें रखते हैं। लगा कि अभी दुकान चल नहीं पाई है। बहरहाल, मुस्तफ़ा अंग्रेजी कुछ ज्यादा जानते हैं इसलिए उनसे बातचीत होने लगी।
मुस्तफ़ा ने बताया कि आस्त्रा छोटा-सा कस्बा है लेकिन वहां कई लेखक और कवि रहते हैं। उन्होंने आस्त्रा के कहानीकारों का एक संग्रह भी दिखाया। फ़ारसी में छपी साहित्यिक पुस्तकों को देखकर अच्छा लगा कि किताबों की सज्जा और डिज़ाइन इत्यादि बहुत अच्छी है। कुछ पढ़ने की भी कोशिश की और लगा कि ज्यादा नहीं अगर तीन-चार महीने यहां रहूं तो फ़ारसी सीख सकता हूं।
बातचीत घूम-फिर कर ईरानी समाज पर आ गयी। मुस्तफ़ा ने बताया कि बहुत से लोग ईरान के इस्लामी गणराज्य को वास्तव में इस्लामी नहीं मानते। उनका कहना है कि इस इस्लामी गणराज्य के पीछे वह आधुनिक दृष्टि नहीं है जो आज के सवालों के जवाब खोजने के लिए इस्लाम की व्याख्या करने की मांग करती है। उन्होंने कहा कि डॉ. अली शरायती के विचार आज भी ईरान की युवा बुद्धिजीवी पीढ़ी में लोकप्रिय हैं। तेहरान में भी डॉ. अली शरायती के बारे में लोगों से काफ़ी बातचीत हुई थी। वे बहुत लोकप्रिय बुद्धिजीवी थे जिन्होंने इस्लाम और आधुनिक युग के सवालों को एक साथ समझने का प्रयास किया था। वे शाह के जमाने में थे और कहा जाता है कि शाह की खुफ़िया एजेन्सी 'सवाक' ने लंदन में उनकी हत्या कर दी थी।
मैं आस्त्रा से तबरेज़ जाना चाहता था। क्योंकि आया तेहरान होकर था इसलिए फिर से तेहरान वापस चले जाने में कोई फ़ायदा न था। दूसरा यह कि आज़रबाईजान ;ईरान वाले हिस्से की राजधनी तबरेज़ है जो आज़री कल्चर का गढ़ माना जाता है। तीसरा यह कि बाइबल के कुछ संकेतों के आधार पर तबरेज़ वह नगर है जो स्वर्ग के द्वार पर बना हुआ है। इतना तो तय है कि स्वर्ग न देख पाऊंगा तो द्वार पर बना नगर देखने से क्यों चूंक जाऊं? इसलिए तय किया था कि ईरान ही नहीं मध्य एशिया के प्राचीनतम नगर तबरेज़ को देखना ज़रूरी है। अब सवाल यह था कि तबरेज़ में कहां ठहरेंगे। यहां इस मुक़ाम पर मदद करने के लिए मित्र मुस्तफ़ा सामने आये। उन्होंने तबरेज़ के कई होटलों में फ़ोन किए तो सीधे अज़री में जवाब मिला, फ़ारसी में नहीं। यह सुनकर मैं चौंक गया। इतना तो अंदाजा था कि अज़री और फ़ारसी भाषा ही नहीं बल्कि आज़रबाइजान की संस्कृति और समाज तथा ईरानी समाज और संस्कृति के बीच एक अदृश्य दीवार-सी है पर इतना पक्की होगी इसका अंदाज़ा न था।
(क्रमश: अगले अंकों में जारी)
Tag असग़र वजाहत,ईरान यात्रा संस्मरण,रचनाकार,हिन्दी
कुछ समझ नहीं आ रहा...फिर आयेंगे.
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