चलते तो अच्छा था ईरान और आज़रबाईजान के यात्रा संस्मरण - असग़र वजाहत अनुक्रम यहाँ देखें अध्याय 7 तेहरान में पहला जुमा " मेरे स...
चलते तो अच्छा था
ईरान और आज़रबाईजान के यात्रा संस्मरण
- असग़र वजाहत
अध्याय 7
तेहरान में पहला जुमा
"मेरे सरोकार, धर्म, जाति, देश, वग़ैरा में नहीं बल्कि सिर्फ आदमी में हैं, इंसान में हैं।" -इसी संस्मरण से.
तेहरान विश्वविद्यालय देश के बुद्धिजीवियों का गढ़ माना जाता है। राष्ट्रीय चेतना के विकास और साम्राज्यवादी शक्तियों से संघर्ष के इतिहास में भी तेहरान विश्वविद्यालय की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। शाह विरोधी आंदोलन और सुधारवादी प्रवृत्तियों की शुरुआत भी यहीं से हुई थी। इसमें शक नहीं कि तेहरान विश्वविद्यालय देश की नब्ज़ है। एक ज़माना था जब वहां वामपंथ का ज़ोर था, लेकिन अब ऐसा नहीं है, यह जरूर है कि इस्लामी क्रांति के बाद जो उदारवाद की लहर आयी है उसके सूत्र भी तेहरान विश्वविद्यालय में मिलते हैं।
मुझे बताया गया कि तेहरान विश्वविद्यालय में जुमे की नमाज़ होती है। जिसे देखना आवश्यक है पहला सवाल तो दिमाग़ में यही उठा कि विश्वविद्यालय में क्यों होती है? क्या हर जगह की तरह यहां जुमा मस्जिद नहीं है? फिर सोचा हो सकता है विश्वविद्यालय में कोई बड़ी मस्जिद हो और वहां नमाज़ होती हो। यह भी संभव लगा कि शायद बुद्धिजीवियों के गढ़ में नमाज़ होने का कोई प्रतीकात्मक कारण हो। बहरहाल, यह तय कर लिया कि जाऊंगा।
ख्याल था कि जुमे के दिन शहर में बसें न चलती होंगी। दुकानें बंद होंगी। आना-जाना कठिन होगा, पर फ्लैट से निकलते के बाद ऐसा नहीं लगा। मैं तेहरान विश्वविद्यालय के सामने वाली सड़क पर पहुंच गया। इधर-उधर जो बड़े चौराहे थे वहां ट्रैफ़िक बंद था, मेरा ख्याल था कि शायद विश्वविद्यालय परिसर के बाहर सड़क तक नमाज़ पढ़ने वाले होंगे। उसी तरह जैसे दिल्ली में जामा मस्जिद में जुमे के दिन नीचे सड़क तक नमाज पढ़ने वाले दरियां बिछाकर नमाज़ पढ़ते हैं। लेकिन यहां ऐसा न था। मैं विश्वविद्यालय जाने वाली मुख्य सड़क पर पैदल आगे बढ़ने लगा। पुलिस फ़ाटक तो पक्का इंतजाम था लेकिन सड़क खाली नजर आयी। विश्वविद्यालय के दो गेटों से लोग अंदर जा रहे थे। एक गेट से कारें अंदर जा रही थी और दूसरे गेट से पैदल जाने वाले जा रहे थे। पैदल जाने वालों का 'सिक्यूरिटी चेक' हो रहा था। मैंने यह भी देखने और समझने की कोशिश की कि नमाज़ पढ़ने वालों की भीड़ किस तरह के लोगों की है। लगा कि छात्र नहीं है। मध्यम और अधिकतर निम्न मध्य वर्ग के लोग हैं। बुद्धिजीवी नहीं हैं। जो जा रहे हैं वे सरकारी कर्मचारी, दुकानदार, पेशेवर और आमतौर पर अधेड़ उम्र आस्थावान लोग हैं। लाउडस्पीकर पर कुछ एलान हो रहे थे। नमाज़ में अभी वक्त था इसलिए मैं सड़क पर आगे बढ़ता चला गया। मुख्य सड़क पर दुकानें बंद थी लेकिन गलियों में कुछ दुकानें खुली थी। इसी सड़क पर आगे सिटी थियेटर की इमारत है। मैं वहां पहुंच गया। इमारत के सामने बनी बेंचों पर लोग बैठे थे। वहां से आगे एक पार्क है। पार्क में भी काफ़ी लोग नज़र आये। एक बेंच पर बैठकर इधर-उधर नज़र दौड़ाई तो एक तरफ़ एक लड़की और लड़का बैठे दिखाई दिए। लड़की हिजाब किए थी, पर यह जोड़ा प्रेमी-प्रेमिका ही हो सकते थे। क्योंकि उनके हावभाव और बातचीत करने का ढंग वैसा ही था। दोनों एक मोबाइल फ़ोन से खेल रहे थे। लड़के के हाथ से लड़की फ़ोन छीन रही थी और इस खेल में दोनों के जिस्म टकरा रहे थे। वे एक दूसरे का हाथ पकड़ रहे थे। फिर लड़के ने पीठ के पीछे से लड़की के कंधे पर हाथ रख दिया। मेरे पास वाली बेंच पर एक सज्जन कई अख़बार लिए बैठे पढ़ रहे थे। सामने एक विदेशी पर्यटक अपना बड़ा-सा बैक-पैक रखे बैठा ऊंघ रहा था जैसे कि रात भर सोया न हो, कुछ बच्चे खेल रहे थे। मध्यमवर्गीय परिवार खाने-पीने का सामान रखे पिकनिक कर रहे थे। तेज़ चटकती हुई धूप में पेड़ों के सायों में चहल-पहल थी।
शिआ विश्वासों में पानी का बड़ा महत्व है क्योंकि करबला के मैदान में विरोधी सेना ने इमाम हुसैन का पानी बंद कर दिया था। इमाम हुसैन और उनके सभी प्यासे साथियों की हत्या कर दी गयी थी। इसलिए पानी पिलाना शिआ समाज में आज भी महत्वपूर्ण है। यहां पार्क में ठण्डे पानी की व्यवस्था थी। सब पानी पी रहे थे। मैंने भी छककर ठण्डा पानी पिया और सोचा चलो अब नमाज़ का वक्त हो गया है।
मैं जब विश्वविद्यालय के गेट के सामने आया तो नमाज़ ख़त्म हो चुकी थी। मुख्य सड़क पर गेट के सामने एक बड़ी सी गाड़ी ; यह कोई छोटा ट्रक रहा होगा जो चारों तरफ़ से हमारे मोहर्रम के ताजिये जैसी थी, खड़ी थी। इस पर हार फूल मालाएँ वग़ैरा सजी थी। सामने बने प्लेटफ़ॉर्म पर तीन चार लोग खड़े थे। नीचे से लोगों ने गाड़ी को घेर रखा था और गाड़ी के ऊपर खड़े लोगों की तरफ़ रुपये बढ़ाते थे जिन्हें अंदर डाल दिया जाता था और रुपये देने वाले को रोटी का टुकड़ा, कोई छोटा-मोटा सामान या उन्हीं का दिया नोट फूलों की झालर से छुवाकर उन्हें वापस कर दिया जाता था। मैं इसे देखता रहा। यह गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। मैं उससे दूर फुटपाथ पर चल रहा था। चाहता तो यह था कि इसके चित्र खींचता लेकिन जान-बूझकर कैमरा नहीं लाया था। राहुल ने बताया था कि तेहरान में तस्वीरें खींचना खतरनाक साबित हो सकता है। दो-चार हफ़्ते पहले तस्वीरें खींचने के चक्कर में तेहरान की पुलिस ने बी.बी.सी. के एक पत्रकार को पकड़ लिया था। जिस दिन पकड़ा था उसी दिन शाम को उसे वापस जाना था। बहरहाल बड़ी कोशिशों से वह छोड़ा गया था। यह सुनकर मैंने तय किया था कि तेहरान में कैमरा लेकर निकलने से क्या फ़ायदा। बहरहाल, इतनी एहतियात के बावजूद मैं कुछ सप्ताह बाद तेहरान में ही फ़ोटो खींचने के जुर्म में पकड़ा गया था। यह कहानी आगे सुनाई जायेगी।
ताज़िये वाली गाड़ी आगे-बढ़ती रही। अगले चौराहे पर आकर यात्रा समाप्त हो गयी।
अध्याय 8
दोस्त अकेला दुश्मन ज़माना
ईरान का दुश्मन कौन है यह तय हो चुका है। दोस्त कौन है यह तय होना बाकी है। ईरान इस्लामी गणराज्य है और तर्क यह कहता है कि ईरान की मित्रता सउदी अरब से होनी चाहिए क्योंकि वहां भी इस्लामी निजाम व्यवस्था चलती है। पर ऐसा नहीं है। दो फ़र्क़ हैं पहला तो यह कि ईरान के मुसलमान शिआ हैं। इस्लाम के पूरे इतिहास में शिआ सुन्नी एक दूसरे से काफ़ी अलग खड़े दिखाई देते हैं। दूसरा कारण है कि सउदी अरब- एक अरब देश है। यह माना जाता है कि अरबों ;अरब मुसलमानों ने ही ईरानियों को पराजित कर ईरानी सत्ता को समाप्त किया था। इसलिए अरबों से दूरी स्वाभाविक है। तीसरा कारण यह है कि ईरानी अपने आपको अरबों से अधिक सुसंस्कृत, परिष्कृत, सभ्य मानते हैं।
जहां तक आसपास के देशों का सवाल है आजरबाइजान को छोड़कर अन्य किसी पड़ोसी देश में बड़ी शिआ आबादी नहीं है। तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजकिस्तान, किरगिस्तान और काज़ाकिस्तान भूतपूर्व सोवियत यूनियन के हिस्से थे। वहां शिआ आबादी काफ़ी कम या बिलकुल नहीं हैं। इसके साथ सोवियत यूनियन में रहने के कारण उनके समाजों में धर्म का इतना महत्व नहीं है जितना ईरान के समाज में है। आज़रबाईजान में शिआ आबादी है लेकिन वे काफ़ी अलग तरह के शिआ हैं। बाकू, आज़रबाईजान की राजधानी में एक टैक्सी ड्राइवर से बातचीत के दौरान मैंने पूछा था_
_ तुम शराब पीते हो?
_ हां पीता हूं।
_ तुम सुअर का गोश्त खाते हो?
_ खाता हूं।
_ तब तुम मुसलमान कैसे हुए?
_ क्यों, शराब पीने और सुअर का गोश्त खाने और इस्लाम से क्या ताल्लुक? उसने भोलेपन से पूछा था।
अब निश्चित रूप से ऐसे मुसलमानों को ईरान अपना मित्र नहीं मान सकता। संसार में कोई दूसरा देश जहां बड़ी शिआ आबादी हो वह इराक है। दरअसल ईरान और इराक युद्ध की पृष्ठभूमि का यह भी एक गणित था। जहां तक इराक के शिओं का सवाल है कि वे निश्चित रूप से ईरान के समर्थक हैं और ईरान उन्हें समर्थन देता है पर यहां मुश्किल यह है कि इराक में सुन्नी भी हैं और ईराक की सरकार औपचारिक तौर पर ईरान से मित्रता बनाने के कारण संकट में पड़ सकती है। इसलिए देखा जाये तो ईरान के मित्रों की सूची में पाकिस्तान ही हो सकता था पर वह अमेरिका के प्रभाव में इतना अधिक है कि ईरानी घबराते हैं। भारत भी ऐसे मित्रों की ऐसे मित्रों की सूची है जिन पर अधिक विश्वास नहीं किया जा सकता। इस तरह देखा जाये तो ईरान मित्रविहीन देश है।
तेहरान में मैट्रो के तोलेग़ानी स्टेशन के पास अमेरीकन दूतावास की वह ऐतिहासिक इमारत है जिसके अंदर ईरानी आतंकवादियों ने 1979 में 90 अमरीकी राजनयिक को बंधक बना लिया था। बंधक बनाये जाने के दो सप्ताह बाद 13 अमेरिकी महिलाओं को मुक्त कर दिया गया था। आतंकवादियों का समर्थन पूरा ईरान और आयातउल्ला ख़ुमैनी कर रहे थे। उनकी कई मांगों में एक मांग यह थी कि अमेरिका में शरण लिए शाह को ईरान वापस भेजा जाये ताकि उन पर मुकदमा चलाया जा सके।
अमरीकन दूतावास के बंधकों को छुड़ाने के नाटकीय प्रयासों में आठ अमरीकी सैनिक मारे गये थे। दोनों देश के राजनयिक संबंध टूट गये थे। ईरान ने 444 दिन के बाद 52 अमरीकी बंधक रिहा किये थे।
आज अमरीका और ईरान के बीच राजनयिक रिश्ते नहीं हैं। अमरीकी दूतावास की इमारतों पर बड़े-बड़े अक्षरों में अमरीका विरोधी नारे लिखे हुए हैं। इनमें कुछ इस प्रकार हैं_ 'अमरीका को मौत', 'अमरीका को कुचल दो', 'हम अमरीका को पराजित करेंगे।' आदि आदि।
ईरान और अमेरीकी के कटु रिश्तों का इतिहास पुराना है। ईरान के तेल पर अपना और पश्चिम का अधिकार जमाये रखने के लिए अमरीका ने जो हिंसक, आपराधिक और घृणित काम किए हैं उनकी सूची लंबी है। कहा जाता है 1979 में अमरीका दूतावास पर कब्ज़ा और अमरीकन राजनयिकों को बंधक बनाये जाने की कार्यवाही 1953 में सी.आई.ए. द्वारा ईरान के राष्ट्रीय नेता और निर्वाचित प्रधानमंत्री गुलाम मुहम्मद मोसद्दिक के तख्ता पलटने और हत्या से जुड़ती है। तख्ता पलटने के बाद लाखों ईरानियों को जेल में कड़ी यातनाएं दी गयी थी, हज़ारों की हत्याएं की गयी थी। बड़ी संख्या में लोग देश छोड़कर भाग गये थे। ईरान का पूरा इतिहास ही पलट गया था। शाह को सत्तारूढ़ करने के बाद सी.आई.ए. का शिकंजा ईरान पर कसता चला गया तथा हत्याओं और यातनाओं का सिलसिला लगातार चलता रहा।
सी.आई.ए. की दस्तावेजों से ही अब पक्के प्रमाण उपलब्ध हैं कि ईरान के राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री की सत्ता पलटने के लिए अमेरिका और ब्रिटेन ने ईरान के जनरल फ़ज़लउल्ला जाहिदी और सेना को पांच मिलियन डालर दिये थे। उस समय ईरान में कम्युनिस्ट पार्टी प्रभावशाली थी जो निर्वाचित प्रधानमंत्री को समर्थन दे रही थी। सी.आई.ए. ने अपने ऐजेण्टों द्वारा ईरान के धर्म गुरुओं पर हमला कराये और यह प्रचार किया कि हमले कम्युनिस्ट कर रहे हैं, इस तरह जनता कम्युनिस्टों के खिलाफ़ हो गयी थी। इसके बाद सेना सड़कों पर निकल आई थी। पश्चिम ने ईरान की नाकाबंदी कर दी थी और उनके बैंकों में जो ईरान का धन था उसे जब्त कर लिया था। इस कारण अराजकता फैल गयी थी। शाह ने निर्वाचित सरकार भंग कर दी थी और मोसद्दिक को फांसी पर लटका दिया गया था। ईरान के तेल पर अमरीका और ब्रिटेन की कम्पनियों का एकाधिकार स्थापित हो गया था जो निर्बाध रूप से शाह के पतन 1978 तक लगातार कायम रहा। ईरान के तेल पर एकाधिकार के कारण अमरीकी कम्पनियों ने अकूत सम्पत्ति बटोरनी और अमेरिका ने ईरान को 1950-1977 के बीच 18.1 बिलियन डालर के हथियार बेच कर भी भारी मुनाफ़ा कमाया।
शाह के समय 'सवाक' द्वारा किए गये अत्याचारों का खुलासा करते हुए एमनेस्टी इण्टरनेशनल ने 1976 में रिपोर्ट में लिखा था कि संसार में सबसे अधिक मृत्युदण्ड ईरान में दिया जाता है। किसी तरह की वैधानिक अदालतें नहीं हैं और अत्याचार का इतिहास अविश्वसनीय है। संसार का कोई देश ऐसा नहीं है जिसका मानव अधिकार रिकार्ड ईरान से खराब हो। शाह की सीक्रेट पुलिस को सी.आई.ए. से पूरी ट्रेनिंग, हथियार और सहयोग मिला करता था।
यह वह पृष्ठभूमि है जो ईरान और अमरीका के रिश्ते को समझने के लिए आवश्यक है। ईरान का शत्रु नंबर एक अमरीका है। इसके बाद अमरीकी गुट के अन्य देश जैसे ब्रिटेन आदि हैं।
अमेरिका विरोध के बावजूद ईरान में अमरीका जीवन शैली बहुत लोकप्रिय है, विशेषरूप से युवाओं के बीच जीन्स, अमरीकी खान-पान, अमरीकी फिल्मों का प्रचलन बढ़ रहा है। अमरीकी पद्धति के अनुसार घरों की सजावट बहुत लोकप्रिय है। जिस तरह अमरीका ने सोवियत जनता के मन पर अमरीका की संपन्नता का सिक्का बैठाया था तथा उसे अनुकरणीय बताया था उसी तरह ईरानियों के साथ किया जा रहा है। अमरीकी कंपनियों की जीन्स पहने, अमरीकी फैशन का अनुकरण करने और अमरीकी जीवन मूल्यों के प्रति उत्साह दिखाना दरअसल एक प्रकार के व्यवस्था विरोध का प्रतीक भी बन गया है। यह बहुत रोचक है कि राजनैतिक स्तर पर अमरीका विरोध सांस्कृतिक क्षेत्र में अमेरिका समर्थन में बदल जाता है। राजनेताओं तथा धार्मिक नेताओं के अंदर अमरीका से लोहा लेने की सशक्त इच्छा है लेकिन देखना यह होगा कि जनता में यह शक्ति कितनी है? कहा जाता है कि किसी भी राष्ट्रीय संकट के क्षण ईरान में अद्वितीय एकता स्थापित हो जाती है लेकिन 1953 का सी.आई.ए. द्वारा आयोजित तख्ता पलटना, शाह का शासन और उसके बाद के हालात इस पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।
पार्टी में ज़ोर आ गया था। बड़े लिविंग रूम में धुआं भर गया था। सिगरेट न पीने के बावजूद यह पता लगने में देर नहीं लगी कि यह केवल तम्बाकू का धुआं नहीं है। कुछ लोग तम्बाकू में मिलाकर कुछ और पी रहे थे। ऐसा बताया गया चरस, अफ़ीम और मरीजुआना आदि नशे बुद्धिजीवियों में प्रचलित हैं। जहां तक शराब का सवाल है वह बाज़ारों में उपलब्ध नहीं है लेकिन चोरी छिपी मिलती है और इसी कारण बहुत मंहगी है। ईरानी, विदेशी राजनयिकों से शराब एक अमूल्य तोहफ़े के रूप में स्वीकार करते हैं। चोरी छिपी मिलने वाली शराब वोदका किस्म की एक तेज़ शराब है जो पानी जैसी होती है।
अध्याय 9
खुरचन
यूनिस अगाई चित्रकार हैं। किसी कालिज में पार्ट टाइम पढ़ाते हैं। उनकी पत्नी मीना भी चित्रकार है। यूनिस से मेरी मुलाकात पार्टी में हुई थी और उन्होंने बड़ी लाचारी से कहा था कि मैं अंग्रेजी नहीं बोल सकता, लेकिन सच्चाई यह है कि वे निश्चित रूप से उतनी अंग्रेजी जानते हैं कि उससे बातचीत की जा सके।
यूनिस के पास चूंकि वक्त, दूसरों के मुकाबले थोड़ा ज्यादा रहता है इसलिए वे मेरे साथ सड़कें नापने के काम में शामिल हो गये हैं। मैंने उन्हें अपना 'बिरादरे ख़ुर्द' यानी छोटा भाई बना लिया है। यूनिस मुझे आर्ट गैलरियों, बाज़ारों, कबाब के ढाबों, पार्कों, संग्रहालयों में ले गये। धीरे-धीरे उनसे बेतकल्लुफ़ी हो गयी। वे यह समझ गये कि में आधी से ज्यादा बातें मज़ाक़ में करता हूं और मेरे सरोकार, धर्म, जाति, देश, वग़ैरा में नहीं बल्कि सिर्फ आदमी में हैं, इंसान में हैं। यूनिस भी इसी किस्म के आदमी हैं। वे ईरानी समाज की आलोचना बहुत धैर्य से सुनकर उस पर अपनी राय ज़ाहिर करते हैं।
एक दिन युद्ध और शहादत दर्शाते बड़े चित्रों को देखकर मैंने उनसे पूछा कि यह क्या है? उनका संक्षिप्त उत्तर था_ राजनीति। यूनिस ने बताया कि उनके पिता इस्लामी क्रांति में बहुत सक्रिय थे और उन चंद लोगों में से थे जो अयातउल्ला खुमैनी के काफ़ी निकट थे। इस्लामी क्रांति के बाद उन्हें कोई पद भी दिया था पर अब वे काफ़ी बूढे हो चुके हैं और घर पर ही रहते हैं।
अपने पिता से अलग यूनिस इस्लामी क्रांति और ईरानी समाज व्यवस्था और धर्म के रिश्तों बहुत सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि ईरानी समाज में गैरबरबादी बढ़ रही है। दूसरी ओर सम्पन्नता और धनाढ्यता भी बढ़ रही हैं। यह इस्लामी समाज का लक्षण नहीं है। उन्होंने अपनी ही बात नहीं की बल्कि अपने जैसे अन्य लोगों की भावनाओं से भी परिचित कराया- हम कहते हैं कि यह इस्लाम वह वास्तविक इस्लाम नहीं है जो होना चाहिए।
मुझे उनकी बातों में डॉ. अली शरायती के विचारों के अनगूंज सुनाई दी। डॉ. अली शरायती एक ईरानी बुद्धिजीवी थे जिन्होंने मुस्लिम समाज की समस्याओं को इस्लाम और मार्क्सवाद मिश्रित सिद्धांतों के आधार पर समझा था। मशहद विश्वविद्यालय में ही नहीं जहां वे समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर थे बल्कि पूरे ईरान में उनके विचारों को सराहा गया था और उनके माननेवालों का एक बड़ा ग्रुप बन गया था। उनकी लोकप्रियता और विचारों से डरकर शाह की सरकार ने उन पर लेक्चर न देने की रोक लगा दी थी। उनको मशहद विश्वविद्यालय से तेहरान के 'हुसैने इरशाद धार्मिक शोध संस्थान' में भेज दिया गया। उनकी लोकप्रियता इतनी थी कि उनके कोर्स में एडमीशन के लिए छ: हजार आवेदन-पत्र आये थे। उनकी लोकप्रियता तथा स्पष्टवादिता की वजह से शाह की पुलिस ने उन्हें चैन नहीं लेने दिया। वे तथा उनके अन्य साथी गिरफ़्तार कर लिए गये। 18 महीने जेल में यातनाएं सहने के बाद 1975 में रिहा होने पर डॉ. अली शरायती लंदन चले गये थे जहां रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी हत्या हो गयी थी।. . .कहा जाता है यह काम ईरान के शाह की सीक्रेट सर्विस 'सवाक' ने किया था।
डॉ. शरायती अंधविश्वासी धार्मिक व्यक्ति नहीं थे। न तो वे धर्म के विरोधी थे और न पाश्चात्य जीवन शैली को पूरी तरह स्वीकार करने के पक्ष में थे। वे मानवतावाद के कट्टर समर्थक थे। उन्होंने कुरान और इस्लाम की नई व्याख्या कर वर्तमान की चुनौतियां स्वीकार करने की बात जोर देकर कही है। डॉ. शरायती को न तो कट्टर धार्मिक मौलवी स्वीकार करते थे और पश्चिम का अंधा-अनुकरण करने वाले।
वे इस्लाम के इतिहास में संभवत: पहले विद्वान थे जिन्होंने धर्म के संस्थागत स्वरूप पर प्रश्नचिन्ह लगाया था। उन्होंने धर्म को आडम्बर और यथास्थितिवाद से निकाल कर मानवीय और सहज स्वरूप देने का प्रयास किया था। उन समस्याओं को रेखांकित किया था जिनसे मानव समाज, विशेष रूप से तीसरी दुनिया का समाज जूझ रहा है। उदाहरण के लिए मानवीयता, शोषण, साम्राज्यवाद, गरीबी इत्यादि को केन्द्र में रखकर उन्होंने कुरान और इस्लाम धर्म की आध्यात्मिकता को उस ऊंचाई तक ले जाने के बात कही थी। उनका अंदाज़े बयान ताज़ा, रोचक, ज़मीन से जुड़ा हुआ और हास्य तथा व्यंग्य का पुट लिए हुआ करता था। उनकी किताबें आज भी ईरान में बहुत पढ़ी जाती है। छोटे-छोटे कस्बों तक में मैंने डॉ. अली शरायती के पोस्टर दुकानों में बिकते देखे हैं।
यूनिस मुझे अपने घर लिए जा रहे हैं। आज उनके घर में मेरा खाना है। हम सिटी सेण्टर से 'सवारी'; शेयर्ड टैक्सी लेकर कहीं उतरते हैं। वहां से दूसरी 'सवारी' लेते हैं। फिर तीसरी सवारी लेते हैं। जैसा कि यूनिस ने बताया है उससे मैंने अंदाज़ा लगाया था कि यूनिस संघर्षशील चित्रकार हैं। पत्नी भी कहीं जमकर काम नहीं करतीं और यूनिस भी पार्टटाइम पढ़ाते हैं।
तीसरी सवारी से उतरकर हम ऊंची-ऊंची अपार्टमेण्ट इमारतों के पास आये। यहां एक बहुत प्रभावशाली लगभग पच्चीस मंज़िला इमारत में दाखिल हुए। हमारे देश में ऐसी इमारतों में धनकुबेर रहते हैं। बहरहाल बारहवीं मंज़िल पर यूनिस के फ्लैट में दाख़िल हुए। मीना ने दरवाज़ा खोला था। अंदर आकर देखा तो फ्लैट बहुत भव्य बिल्कुल अमरीकी तर्ज़ का लगा। लिविंग रूप इतना बड़ा लगा जितने बड़े हमारे यहां के तीन बेडरूम के फ्लैट होते हैं। फ्लैट के दरवाजे क़े सामने ही ईजल पर किसी योरोपियन मास्टर पेण्टर की 'न्यूड' का बड़ा सा प्रिन्ट लगा था। उस पर रोशनी सीधी पड़े इसलिए छत पर विशेष लैम्प लगा था। लिविंग रूम से मिला हुआ किचन था जो बिल्कुल अंतर्राष्ट्रीय स्तर का लगा।
फ्लैट की मैंने तारीफ़ की तो यूनिस ने बताया कि यह उसके ससुर ने मीना को दहेज में दिया है। मैंने पूछा कि तुम्हारे ससुर क्या करते हैं तो उसने बताया स्कूल में अध्यापक थे, अब रिटायर हो गये हैं। मेरे ऊपर एक बिजली गिरी। स्कूल के अध्यापक की इतनी अच्छी हालत कि उसने अपनी लड़की को दहेज में यह फ्लैट दे दिया। मैं आगे कुछ सोच न सका।
मीना ने चाय सामने रख दी। चाय के साथ एक तश्तरी में नीबू का मुरब्बा था। उसने कहा कि अगर मैं चाहूं तो मुरब्बे को चाय में डाल सकता हूं या चाय का एक घूंट लेने के बाद मुरब्बे का टुकड़ा खाऊं। उसने बताया कि ईरान में दोनों तरीके रायज हैं। मैंने मुरब्बे का एक टुकड़ा चाय में डाल लिया। मीना खाना पकाने लगी। मैं और यूनिस लिविंग रूम और किचन को बांटने वाली मेजनुमा दीवार पर चाय के गिलास लेकर बैठ गये।
लंबे-चौड़े लिविंग रूप में कुछ कम रौशनी थी। किचन में ज्यादा लाइट थी जहां मीना खाना पका रही थी। उन्होंने जीन्स और टाप पहन रखा था। उनके बाल कटे हुए थे। यूनिस ने बताया कि वे और मीना क्लासफ़ेलो थे। कालिज में ही उन्हें प्रेम हो गया था। वे चाहते थे कि प्रेम चलता रहे जल्दी शादी न करें। कुछ साल तो निभ गये। पर आखिरकार एक दिन यूनिस के माता-पिता को पता चला कि उनका लड़का एक लड़की से छिप-छिपकर मिलता है और उससे प्रेम करता है। यूनिस के माता-पिता उस पर शादी का दबाव डालने लगे और परिवार के इस दबाव के आगे यूनिस और मीना की एक न चली। दोनों को शादी करनी पड़ी। उन्हें शादी किए कई साल हो चुके हैं लेकिन अभी तक उन्होंने बच्चा नहीं पैदा किया है। धर्मानुसार उन्होंने शादी कर ली है पर बच्चे? सवाल है और जवाब नदारद है।
हमारी बातचीत में मीना भी हिस्सा ले रही थी। उन्होंने भारतीय साहित्य; प्राचीन ग्रंथ फ़ारसी में देखे हैं। पूछने लगी कि क्या भारत में अब तक लोग उसी तरह लिखते हैं जैसे पंचतंत्र लिखी गयी है? चित्रकार होने के नाते उन्हें भारतीय आधुनिक चित्रकला में रुचि है और वे बहुत कुछ जानना चाहती हैं।
खाना तैयार हो गया। मेज़ पर लगाया गया। लिविंग रूम की बत्तियां किसी सूरजमुखी के फूल की तरह खिल गयी। सलाद, पनीर, रोटी, चिकन पुलाव, चिकन कोरमा और चिकन बिरयानी के ऊपर खुरचन देखकर मुझे खुद हैरत हुई। वजह यह कि लखनऊ में जब बिरयानी पकाई जाती है तो खुरचन बन जाये इसका खास ख्याल रखा जाता है। मुझे लगा यह परम्परा भी ईरान की है। खुरचन से मतलब पतीली में बिरयानी की वह अंतिम तह है जिसे खुरच कर निकाल जाता है। चावल गलने के साथ तल भी जाते हैं और वे आपस में मिलकर एक मोटी परत जैसी बना लेते हैं। खुरचन को श्रेष्ठ माना जाता है इसलिए उसे पुलाव या बिरयानी की फ्लैट में चावलों के ऊपर रखा जाता है और मेहमानों को खुरचन विशेष आग्रह के साथ दी जाती है। यहां खुरचन थी पर मेहमान के लिए विशेष आग्रह नहीं था इसलिए मैं स्वयं ही खाने के साथ न्याय करने लगा।
इस बातचीत में एक रोचक बात यह पता चली कि ईरान की युवा पीढ़ी दूसरे धर्मों और विश्वासों ही नहीं 'भगवानों' के प्रति काफ़ी आकर्षित है। ईरान का युवा वर्ग अपनी मुक्ति या संतोष के लिए दूसरे धर्मों और विश्वासों की ओर जा रहे हैं। यहां यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि इस्लामी देशों के कानून में किसी व्यक्ति को इस्लाम धर्म छोड़कर किसी और धर्म को स्वीकार करने की सजा मौत है। ऐसी स्थिति में किसी इस्लामी देश के मुसलमान का अपना धर्म छोड़कर किसी और विश्वास या मत में जाना कितना खतरनाक हो सकता है इसकी कल्पना की जा सकती है।
बताया गया कि अन्य धर्मों या विश्वासों को स्वीकार करने वाले औपचारिक रूप से इस्लाम को नहीं छोड़ते। इस कारण किसी को पता नहीं चल पाता कि वे किसी और धर्म के अनुयायी बन गये हैं।
मीना को यह जानने में रुचि थी कि भारत में समाज कैसा है? लोग कैसे हैं? क्या समस्याएं है। लोग क्या सोचते हैं? यह भारतीय शिआ मुसलमानों के बारे में जानना चाहती थी। उसने बताया कि उसके बूढ़े माता-पिता इंडिया जाना चाहते हैं।
अध्याय 10
बुद्धिजीवियों की सड़क
तेहरान का इतिहास ईरान के पतनशील दौर की दस्तावेज़ है और यह शहर प्रतिक्रांतियों के लिए भी जाना जाता है। ईरान के सम्राट नादिरशाह की मृत्यु के बाद ईरान में सत्ता करीम खां जंद के पास आ गयी थी। जो एक अच्छा शासक था और नादिरशाह की तरह युद्ध-प्रिय नहीं था। करीम खां के बाद 1779 में सत्ता का खेल कुछ ऐसे रंग लाया कि शाही दरबार का एक हीजड़े आग़ा मुहम्मद खां के हाथ में देश की बागडोर आ गयी। 1795 में आग़ा मुहम्मद खां की हत्या उसी के नौकरों ने कर दी। यहां से तेहरान में साम्राज्यवादी घुसपैठ, अंर्तकलह, दुर्बल शासकों की विवशता और पश्चिम द्वारा ईरान के तेल पर अधिकार जमाने की जो दौड़ शुरू होती है उसका गवाह तेहरान है। इस तरह तेहरान ईरान के गौरवशाली इतिहास का हिस्सा नहीं कहा जा सकता। फिर भी पिछले सौ साल में तेहरान के चेहरे कई बार बदले हैं आज तेहरान राजनैतिक और बौद्धिक दृष्टि का केन्द्र है। राजधानियों की तरह तेहरान पर बेहिसाब धन व्यय किया गया है और किया जा रहा है जो साफ़ दिखाई पड़ता है। तेहरान जनसंख्या की दृष्टि से मुंबई से बड़ा शहर है। सड़कों और यातायात की व्यवस्था हमारे यहां के मुकाबले कहीं अच्छी है। शहर तीन तरफ़ पहाड़ों से घिरा है। बीच में अनगिनत बहुमंजिला इमारतों का विशाल क्षेत्र है।
तेहरान समाचारपत्रों के दफ्तरों, संग्रहालयों, प्रकाशनों, सिनेमाहालों, थियेटरों, कांन्फ्रेंस स्थलों, विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों के कारण देश की सबसे बड़ा बौद्धिक केन्द्र बन गया है। तेहरान में एक ग्रुप 'तेहरान फ़ोरम' के नाम से सक्रिय है। इसमें लेखक, कवि, चित्रकार, मूर्तिकार, वास्तुकार, सभी शामिल हैं। मुझे इनकी एक बैठक में जाने का मौका मिला चूंकि पूरी कार्यवाही फ़ारसी में हो रही थी इसलिए पूरा तो नहीं समझ सका लेकिन बताया गया कि कई लोगों ने अपने रचनाएं पढ़ी है और उस पर चर्चाएं हुई हैं। 'तेहरान फ़ोरम' के आफिस में ही मैं ऐसे कई लोगों से मिला था जिन्होंने मेरी बड़ी मदद की।
'तेहरान फ़ोरम' एक बेबसाइट भी है जिस पर देश और विशेष रूप से तेहरान की साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों की सूचना दी जाती है। यह एक लोकप्रिय और उपयोगी वेबसाइट है।
अजनबी शहरों में टैक्सी पर बैठ कर रास्तों, सड़कों और जगहों की तलाश में अकसर लाचारगी महसूस होती है लेकिन ईरान में कुछ फ़र्क़ है क्योंकि यहां फ़ारसी लिपि में लिखे नाम पढ़े जा सकते हैं। सड़कों, गलियों और मोहल्लों के नामपट लगाने में ईरानियों का जवाब नहीं है। बड़े-बड़े शहरों की बात तो छोड़ दे, छोटे-मोटे ग्रामीण इलाकों तक में हर गली और सड़क का नामपट लगा हुआ मिल जायेगा। यही नहीं ईरानी गलियों के नाम बड़े कलात्मक रखते हैं जैसे कूच-ए-सबा, कूच-ए-गुल, कूच-ए-ग़ज़ल, कूच-ए-सुमबुल वगैरा।
कई बड़ी सड़कों, गलियों से होता हुआ आखिरकार मैं 'कारवाने' के दफ़्तर के सामने पहुंच गया। 'कारवाने' एक सांस्कृतिक संस्था है। संभवत: स्वयंसेवी संस्था है। मुझे यहां कुछ ईरानी अभिनेताओं ने बुलाया था। बताया गया कि किसी नाटक की रीडिंग होगी. . .मैं वह तो न समझ पाऊंगा लेकिन पूरे माहौल और 'कारवाने' की गतिविधियों से परिचय हो जायेगा।
ईरान में पुरानी इमारतों और घरों में आंगन का रिवाज है। 'कारवाने' की इमारत के छोटे से आंगन में तीन अभिनेता बैठे थे। उनसे मेरा परिचय हुआ। उनमें शायद कोई भी अंग्रेजी में बातचीत नहीं कर सकता था इसलिए बात आगे न बढ़ सकी। मैंने कहा वे अपना काम जारी रखें। उन्होंने बातचीत शुरू कर दी। मैं दीवारों पर लगे पोस्टर देखने लगा। एक नाटक का पोस्टर लगा था। नाटक का नाम 'चादर' था। पोस्टर बहुत कलात्मक लगा और मैंने सोचा क्यों न यहां लगे नाटक के पोस्टरों के चित्र उतार लूं। जैसा कि मैं कह चुका हूं ईरान के ग्राफिक कलाकारों से मैं बहुत प्रभावित हूं। सीधे, सरल, कलात्मक और लिपि के रचनात्मक प्रयोग से वे पोस्टरों, पुस्तकों के मुख्य पृष्ठों, अखबारों के लेआउट और डिजाइन में जान डाल देते हैं। रंगों और रूप की गहरी समझ उनमें है। पोस्टरों के चित्र खींचने के बाद कहा गया था कि अब नाटक की रीडिंग शुरू होने वाली है। हम एह हालनुमा कमरे में आ गये। यहां कई अभिनेता बैठे थे। एक से मेरा परिचय निर्देशक के रूप में कराया गया। अभिनेताओं में लड़कियां भी थी। पाठ चालू हो गया। मैं चेहरे के हावभाव देखता रहा। यह समझने में बहुत समय नहीं लगा कि अभिनेता मंझे हुए और समर्पित किस्म के हैं।
नाटक के पाठ के बाद 'कारवाने' की निदेशिका से मुलाकात हुई। इन्होंने बताया कि 1998 में स्थापित यह संस्था प्रकाशन, नाटकों के मंचन के अतिरिक्त कार्यशालाएं और समारोह भी आयोजित करती है नये फिल्मकारों को प्रोत्साहित करती है और अनुवाद के कई कार्यक्रम चलाती है। बातचीत भारत-ईरान संबंधों पर होने लगी। मुझे जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ था इनको यह पता नहीं है कि तेरहवीं से सोलहवीं शताब्दी के बीच भारत के प्रसिद्ध ग्रंथों का फ़ारसी में अनुवाद हुआ है। उन्होंने बताया कि वे कुछ देशों के साथ मिलकर सांस्कृतिक आदान-प्रदान के कार्यक्रम चलाती हैं लेकिन भारत के दूतावास या अन्य किसी संस्था ने उनसे मिलजुल कोई करने का कमी कोई प्रस्ताव नहीं रखा।
ईरान की पूरी यात्रा के दौरान मैंने देखा कि भारत-ईरान सांस्कृतिक संबंध निष्क्रियता की स्थिति में हैं। भारतीय दूतावास इस संबंध में प्राय: कुछ नहीं करता और सैकड़ों साल पुराने संबंध बुरी तरह से टूट चुके हैं। आज आधुनिक भारतीय साहित्य और सांस्कृतिक परिदृश्य के बारे में ईरानी कुछ नहीं जानते और यही हाल भारत में भी है। पता नहीं दोनों सरकारों की प्राथमिकता सूची में साहित्य और संस्कृति है भी या नहीं। वैसे ईरानी सरकार ने दिल्ली में एक सांस्कृतिक केन्द्र खोल रखा है। पर यह केन्द्र धार्मिक कार्यक्रमों के अलावा और कुछ नहीं करता। भारत सरकार का तेहरान में कोई सांस्कृतिक केन्द्र भी नहीं है।
तेहरान के प्रमुख दैनिक समाचारपत्र 'हमबस्तगी' की सम्पादिका पूने निदाई और ईरानी लेखक महमूद फैसेअली बिरजानदी जो बातचीत हुई उसमें भी यह बात उभर कर सामने आयी कि आज ईरान और भारत के साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संबंध शून्य है। राजनीति के स्तर पर अवश्य अच्छे संबंध हैं। पर उन्हें दृढ़ता प्रदान करने वाली कड़ियां ग़ायब है। पूने निदाई ने कहा कि वे यह अवश्य जानना चाहेंगी कि कौन-कौन से भारतीय ग्रंथ फ़ारसी में अनूदित हुए हैं। यह भी बात हुई कि उन ग्रंथों को किसी संग्रहालय में रखा जा सकता है। निश्चित रूप से इतने बड़े काम सरकारी या बड़ी संस्था के स्तर पर किए जा सकते हैं। महमूद ने यह भी कहा कि आधुनिक भारतीय साहित्य के बारे में ईरानी लेखक प्राय: कुछ नहीं जानते। क्यों ऐसा नहीं हो सकता कि श्रेष्ठ आधुनिक या भारतीय साहित्य का फ़ारसी में अनुवाद और प्रकाशन हो? मैंने इन दोनों से कहा कि आज हमारे पास ईरान के बारे में जो भी खबरें पहुंचती हैं वे पश्चिमी न्यूज ऐजेन्सियों के माध्यम से आती है और वे ईरान को अपने विशेष चश्मे से देखती हैं। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि एक सीध रिश्ता बने ताकि ईरान के बारे सही जानकारियां भारतीय मीडिया को प्राप्त हो सकें?
'ईरान न्यूज़' के बुज़ुर्ग सम्पादक इरफ़ान परवेज़ तीस-पैंतीस साल पहले भोपाल से तेहरान चले गये थे। मैं उनसे आफिस में मिलने गया तो बहुत खुश हुए और बातचीत के बार-बार भोपाल में बिताये दिनों को याद करते रहे। अफ़सोस कि वे जिन लोगों के नाम ले रहे थे उन्हें मैं नहीं जानता और मैं भोपाल के जिन हिंदी उर्दू लेखकों का नाम बता रहा था वे उनके लिए अपिरिचित थे। इरफ़ान साहब से लंबी बातचीत हुई। उन्होंने बताया कि नवनिर्वाचित राष्ट्रपति अहमदी निजाद बहुत गंभीर और प्रतिबद्ध व्यक्ति हैं। तेहरान के मेयर के रूप में उन्होंने अपनी दक्षता और ईमानदारी का परिचय दिया है। निश्चित रूप से वे ईरान में कुछ नये आर्थिक कार्यक्रम लागू करेंगे जिससे बेरोजगारी पर लगाम लगेगी। इरफ़ान साहब भी भारत-ईरान साहित्यिक सांस्कृतिक शिथिलता को लेकर चिंतित लगे। उन्होंने कहा कि भारतीय जितना योरोप और अमेरिका के बारे में जानते हैं उसका दस प्रतिशत की ईरान के बारे में नहीं जानते जबकि दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक और राजनैतिक संबंधों का लंबा इतिहास है।
इरफ़ान साहब ने ईरानी खाना खिलाया और फिर पूछने लगे कि जाने के लिए टैक्सी बुलवाऊं? मैंने कहा नहीं मैं टैक्सी से नहीं जाऊंगा। इरफ़ान साहब कुछ क्षण मेरी तरफ़ देखते रहे फिर काफ़ी प्यार और बिरादराना अंदाज़ में बोले_ अगर पैसे कम हो तो मैं कुछ दूं आपको। मुझे उनका यह सवाल बड़ा आत्मीय लगा। दूर तक इसकी खूशबू फैली। मैंने कहा- 'जी नहीं ये बात नहीं है। मुझे तो तेहरान की सड़कें देखनी हैं।' वे मुस्कुराने लगे।
अध्याय 11
सीमा की सीमाएं
तेहरान में बारह दिन रहने के बाद कमर कसी और तय किया कि 'आज़रबाईजान' की तरफ़ कूच किया जाये। रास्ता खुश्की का ही बेहतर है क्योंकि बस का किराया कम है और सात-आठ घंटे के सफ़र में इधर-उधर का नजारा होगा, लोगों से बातचीत हो सकती है यही घूमने का मज़ा है। इसलिए तेहरान से आस्त्रा के लिए बस पकड़ी जो ईरान और आज़रबाइजान की सीमा पर एक छोटा-सा कस्बा है। इसका एक हिस्सा इधर ईरान में है और दूसरा एक छोटी-सी नदी के पार आज़रबाईजान में है।
मुझे बताया गया कि 'वोल्वो' बस मिलेगी और यात्रा बड़ी सुखद होगी। पर ऐसा नहीं था। बस घटिया थी और यात्रा सुखद नहीं थी। बस रास्ते में ख़राब भी हुई और रफ्तार भी कम रही।
रूस, जार्जिया, अरमीनिया, तुर्की, ईरान और कैस्पियन समुद्र से घिरे आज़रबाइजान का इतिहास पुराना है। आज जो आजरबाइजान है वह इस्लाम आने से पहले काकेशिया अल्बानिया कहलाता था। फ़ारसी और उर्दू में काकेशिया को कोहे क़ाफ़ कहते हैं। कोहेकाफ़ केन्द्रीय ईरान से दूरदराज़, कोकेशियन समुद्र के किनारे पहाड़ों की एक बड़ी श्रृंखला है जो किस्से कहानियों और दास्तानों में बहुत रोचक, रहस्यमयी आकर्षक और विचित्र प्रकार की चित्रित होती रही है। मध्य एशिया की पुरानी कहानियों में जो हमारे देश तक भी पहुंची हैं, कोहेक़ाफ़ में बसने वाली स्त्रियों को परियां कहा जाता है। यह विश्वास आज भी बना हुआ है कि 'कोहेक़ाफ़' में रहने वाली स्त्रियाँ संसार की सुन्दरतम स्त्रियाँ हैं। यही वजह है कि कहानियों और दास्तानों के शहज़ादे इन परियों पर आशिक हो जाते हैं और कोहे-काफ़ की खाक छानते हैं। लेव टालस्टाय के उपन्यास एक का नायक भी 'कोहेकाफ़' में रहने वाली एक अद्वितीय सुंदरी लड़की से प्रेम करने लगता है। कहने का मतलब यह कि सिर्फ 'कोहेकाफ़' की स्त्रियों के बारे में दंत कथाएं, किंवदंतियां किसी को भी इस बात पर मजबूर कर सकती है कि रहस्य से पर्दा उठाया जाये।
जहां तक इतिहास का सवाल आज़रबाइजान ईरानी साम्राज्य का हिस्सा रहा है और इस क्षेत्र का इतिहास ईरान का इतिहास ही रहा है। माना जाता है कि आज़रबाइजान फ़ारसी शब्द 'आज़र' यानी आग से बना है। कारण यह है कि प्राचीन अग्नि पूजकों के मंदिर इस क्षेत्र में थे। आज़रबाइजान का अपना अलग चरित्र, ईरान पर इस्लामी सेनाओं की विजय के बाद बनता दिखाई देता है। मुस्लिम साम्राज्य के अंतर्गत यह एक प्रांत था और ग्यारहवीं शताब्दी में तुर्की जातियों ने भी यहां आकर बसना शुरू कर दिया था। इस तरह तुर्की और फ़ारसी से आजरी भाषा का जन्म हुआ जो आज यहां की राष्ट्रभाषा है। हलाकू की विजय के बाद आज़रबाइजान उसके साम्राज्य का हिस्सा बन गया था। पन्द्रहवीं शताब्दी में आज़रबाइजान सफ़वी राजशाही का केन्द्र था। सफ़वी सम्राटों ने ईरान में अपनी सत्ता स्थापित कर तबरेज़ को राजधानी बनाया था। शाह इस्माइल सफ़वी ;1502-1524 ई ने शिया मत को 'राज्य का मत' घोषित कर दिया था जिसके कारण आज़रबाइजान सुन्नी तुर्की प्रभाव से अलग हो गया था। सफ़वी सम्राटों और तुर्की ख़लीफ़ा के बीच लगातार चलने वाले युद्धों के कारण राजधानी तबरेज़ से ;जो तुर्की की सीमा पर से हटाकर राजधानी इस्फ़हान से स्थापित की गयी थी।
1947 में नादिरशाह की हत्या के बाद आज़रबाईजान बिखर गया था। क्षेत्र के विभिन्न सरदारों, जिन्हें ख़ान कहा जाता था, ने अपने-अपने छोटे राज्य बना लिए थे। इन्हें खानदेश या ख़नात कहा जाता था। इसी समय रूसी साम्राज्य पूर्व में आगे बढ़ने लगा था। नतीजे में ईरान और रूस के बीच लंबे युद्ध चले और 1828 में आज़रबाईजान का बड़ा भाग रूस के हत्थे चढ़ गया। एक पतली नदी जिसे अरक कहा जाता है, सीमा निर्धारित हुई। रूस में क्रांति आने के बाद आज़रबाइजान सोवियत यूनियन के विघटन तक उसका हिस्सा था।
तेहरान से बस चली तो दोनों तरफ़ सूखी निर्जीव पहाड़ियों का न ख़त्म होने वाला सिलसिला शुरू हो गया। दोपहर होते-होते बस कैस्पियन सागर के तट पर आ गयी और छोटे कस्बों और गांवों के बीच से गुजरती रही। एक बात खासतौर पर नोट की कि कुछ क़स्बे बड़े साथ सुथरे, बहुत सजे सजाये और सम्पन्न नज़र आ रहे थे लेकिन जैसे-जैसे बस आगे बढ़ती रही मकानों का ढंग कुछ बदला हुआ और चमक-दमक कम होती चली गयी। बताया गया कि आज़रबाइजान का ईरानी क्षेत्र शुरू हो गया है। आमतौर पर ईरान के चौराहों पर धार्मिक प्रतीक ही दिखाई देते हैं लेकिन इस क्षेत्र के कुछ चौराहों पर बड़ी-सी उमरे-खय्याम स्टाइल सुराही को कलात्मक ढंग से लगाया गया था। बाद में पता चला कि यह सुराही तुर्की या अज़री संस्कृति का प्रतीक है। जैसे-जैसे सीमा पास आती जा रही थी सड़क की हालत भी खराब नज़र आती थी। कुछ घंटे बाद पहाड़ों का सिलसिला शुरू हो गया। सड़क की दाहिनी तरफ़ नदी बह रही थी। बायीं तरफ़ पहाड़ थे और सामने हरे भरे पेड़ों से सज्जित पहाड़ खड़े थे। ये पहाड़ हिमालय जैसे नहीं थे लेकिन निश्चित रूप से सुंदर थे। यहां कहीं-कहीं लोग एक ख़ास किस्म की तुर्की टोपी लगाये दिखाई दिए जो ईरान के अन्य इलाकों में नहीं देखी जाती। शाम को करीब पांच साढ़े बजे आस्त्रा कस्बा शुरू हुआ और एक जगह बस रोक दी गयी। दो ही सवारियां बची थी। एक लड़की थी जो शायद यहीं की रही होगी जो बस रुकते ही किसी दिशा में चली गयी। मैं बाहर निकला। ड्राइवर ने समान दिया। पूछने पर पता चला कि आस्त्रा कस्बे तक जाने के लिए टैक्सी लेनी पड़ेगी। मुझे बताया गया था कि मुसाफिरख़ाने सस्ते होते हैं और करीब डेढ़ दो सौ रुपये में कमरा मिल जाता है। टैक्सी ने एक मुसाफिरख़ाने 'मेहमानसराई आस्त्रां' के सामने उतार दिया। फ़ारसी के कुछ शब्दों के माध्यम से बातचीत शुरू हुई। मैंने अपना परिचय देने के लिए अपनी कहानियों की फ़ारसी में छपी पुस्तिका मुसाफिरख़ाने के मैनेजर को भेंट कर दी। मुझे पचास हज़ार रियाल यानी ढाई सौ रुपये में कमरा मिला जो निहायत गंदा, पुराना था। सामने लॉबी ऐसी थी जिसमें दूसरे कमरों के दरवाजे सामने की ओर खुलते थे. एक तरफ़ बाथरूम वग़ैरा बने थे ओर जिनकी दुर्गंध भी कभी-कभी कमरे के अंदर तक आ जाती थी लेकिन पैसे दे चुका था।
सामान कमरे में रखकर बाहर आया। ध्यान आया कि बाकू में मुझे ललित कुमार जी के यहां ठहरना है, पर उनके घर का पता मेरे पास नहीं है। सिर्फ आफिस का पता और फ़ोन है। सोचा कि अभी उन्हें ई-मेल कर देता हूं और कल सुबह तक जवाब आ जायेगा।
अध्याय 12
मुसद्दिक़ की दुकान
आस्त्रा पुराना कस्बा लगा। शायद इसका असली नाम आस्त्राबाद था। पर अब आस्त्रा रह गया है। एक मंजिला दुकानें, बीच में अच्छी ख़ासी चौड़ी साफ़ सड़क और चौराहों पर मस्जिदें। लोग भी ठीक-ठाक नज़र आये। मतलब गरीब, फ़क़ीर या निरीहप्राणी जैसे अपने यहां नज़र आते हैं, नहीं थे। बाज़ार में चहल-पहल थी। कबाबियों की दुकानों पर कबाब सिंक रहे थे। एक चायखाने के सामने से गुज़रा तो मेज़ पर हुक्का पीते लोग दिखाई दिए। चायखाने का नाम 'दिलपंसद' था। मैं मुसद्दिक की दुकान पूछता आगे बढ़ता रहा। बेकरी की काफ़ी दुकानें थीं। ईरान में रोटियां और बेकरी लाजवाब है। बहरहाल मुसद्दिक की दुकान मिली। यह कस्बे के हिसाब से बहुत आधुनिक कम्प्यूटर और इलैक्ट्रानिक चीज़ों की दुकान थी। मुसद्दिक़ से परिचय हुआ तो मालूम पड़ा कि अंग्रेज़ी भी जानते हैं फिर क्या था अंधे को आंखें मिल गयी।
मुसद्दिक़ से बातें होने लगी। उनकी मैनेजर एक युवा लड़की थी जो मेज़ पर बैठी कारोबार देख रही थी। मुसद्दिक को भी मैंने अपनी किताब दी। उन्होंने इंटरनेट पर बिठा दिया और मैंने ललित जी को मैसेज किया कि मैं कम शाम बाकू पहुंच रहा हूं। ललित कुमार से मेरा सीधा परिचय नहीं था। दिल्ली में किसी मित्र ने बताया था कि वे बाकू में व्यापार करते हैं और बड़े मस्त-मौला आदमी हैं। दिल्ली से ही उन्हें ई-मेल दिया था और उन्होंने बड़े प्यार से अपने यहां ठहरने की दावत दे दी थी। ई-मेल देने के बाद पैसे दिए तो मुसद्दिक ने चाय पिलाई। इधर-उधर की बातें होती रही। निगाह बचाकर मैं मुसद्दिक़ की मैनेजर को देख लेता था जो हक़ीक़त में बहुत सुंदर थी।
बाहर निकला तो खाना खाने का मसला पैदा हुआ। सोचा चलो कबाब खाये जायें। सड़क से हटकर कस्बे के अंदर वाली बाज़ारों में आ गया और यहां एक कबाब की दुकान में जा पहुंचा। सीखें रखी थी। मैंने इशारे से दो तरह के कबाबों की दो-दो सीखे सेंकने के लिए कहा। कुछ ही देर में एक बड़ी सी प्लेट में बड़ी-सी रोटी के ऊपर चार सीखें और चार भुने हुए टमाटर, एक कोकाकोला की बोतल सामने आ गयी। ईरानी कबाब के साथ टमाटर को भी सीखों में लगा कर भूनते हैं और उन्हें कबाब के साथ खाते हैं। एक किस्म के कबाब जो सिर्फ बोटियों के थे, दांतों से चब नहीं पाये। मेरे दांत गंदे ज़रूर हैं पर कमज़ोर नहीं हैं लेकिन काफ़ी कोशिश करने के बाद भी खा नहीं सका। कबाब की दो सीखें जो पिसे हुए गोश्त की थी खायीं। मज़ा बिल्कुल अलग लगा और बहुत अच्छा यह लगा कि मिर्च नाम को भी न थी। मसाला बहुत हलका और कम था।
रात देर तक कस्बे की बाज़ारों में घूमता रहा। बड़ी रौनक थी। चहल-पहल, अच्छे खाते-पीते लोग, बड़ी-बड़ी गाड़ियां और सामान से भरी दुकानें। कमरे पर लौट आया। सोचा था कि रात काटने के लिए कमरा ठीक है। पर लगा कि शायद नहीं क्योंकि लॉबी से एक तरह की दुर्गंध आ रही थी। पंखा ठीक से चल नहीं रहा था। मच्छर काट रहे थे। पलंग पर जो बिस्तर था वह कपड़ों के पुराने संग्रहालय से चुराया हुआ लग रहा था।
Tag असग़र वजाहत,ईरान यात्रा संस्मरण,रचनाकार,हिन्दी
thank you for taking us to iran , such a detailed dicription !!
जवाब देंहटाएंwish i could be there to enjoy those kababs with you...
हमेशा की तरह बेहतरीन।
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