मुझे कुछ याद नहीं ( मूल गुजराती उपन्यास मने कांई याद नथी का अनुवाद) पहली किश्त यहाँ पढ़ें दूसरी किश्त यहाँ पढ़ें लेखक - हरिसिंह दोड...
मुझे कुछ याद नहीं
(मूल गुजराती उपन्यास मने कांई याद नथी का अनुवाद)
पहली किश्त यहाँ पढ़ें
दूसरी किश्त यहाँ पढ़ें
लेखक - हरिसिंह दोडिया
अनुवादक - डॉ. उत्तम पटेल
10
सारा दिन पत्र ही की प्रतीक्षा में बीता।
पत्र नहीं आया था।
कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। सारा दिन मन उदास ही रहा था। वह घूमता रहा, टहलता रहा। खाई तक चक्कर काट आया। थोड़े मित्रों से मिला। सभी ने चटकारे ले-लेकर युवा स्त्रियों के बारे में बातें की थीं। जिससे तो वह ओर अधिक बेचैन हो उठा था।
दिल में एक छुपी आग लेकर वह तंबू के भीतर आया। फिर से रम के दो पेग लगा चुका था। कुछ चैन न था। उसने पत्नी को एक बार नहीं, बारंबार लिखा था कि वह हररोज पत्र लिखें।
फिर भी आज पत्र नहीं मिला।
कारण ?
उसने अनुमान लगाया कि नौकर को डिबिया में पत्र डालने दिया हो और वह भूल गया हो, या बाद में डालूँगा, सोच कर रख दिया हो...
अब तक तो पत्नी के दो पत्र मिलने चाहिये थे, किन्तु एक भी न मिला?
दूसरा दिन भी पत्र की प्रतीक्षा में ही बिता।
तीसरे दिन भी पत्र नहीं आया।
मुख्य थाने से थैला भर कर डाक लाने वाले संदेशवाहक से रह तो नहीं गया होगा ?
आज तो संदेशवाहक को डाँटना पड़ेगा...वह तो तंबू में ही रहेगा... और आज भी पत्र न मिला तो...
बीजेन्द्र बैचेन हो उठा।
वह बोतल के पास पहुँचा किन्तु बोतल तो खाली था। आज रात फिर मिलेगी तब तक होंठ पर जीभ फेरकर ही संतोष मानना पड़ेगा...
खाली बोतल को उसने जोर से कोने में फेंका। खणणण की आवाज के साथ काँच के टुकड़े बिखर गये।
समय मानो थम गया था।
अब क्या करें ? कहाँ जायें ? इस उदासी को कैसे मिटाया जाय ?
उसने पत्नी के सभी पत्र निकाले।
ग्यारह पत्र थे।
पारायण कर रहा हो वैसे सभी पत्रों को पढ़ता गया।
ऊख की साँठ से धीरे धीरे रस चूस रहा हो वैसे शब्दों का रस लेता रहा...चबाता रहा... निगलता रहा...
वह यहाँ आया था तब से, लगभग दो महीनों और सतरह दिनों के बीच ग्यारह पत्र मिल चुके थे, किन्तु अभी...
उसने फिर से गिनती कर देखी।
पत्र नहीं आया था और आज नौवाँ दिन चल रहा था।
पहले पहल तो सप्ताह ही में दो पत्र...
पोस्ट ऑफिस की काली मुहर वाले ग्यारह पत्रों को वह ताक रहा था।
फिर सोचा, आज तक जयजयवंती बेदरकार न थी। उसके पत्र अवश्य आते थे। जिस दिन पत्र आनेवाला होता उस दिन संदेशवाहक तंबू के दरवाजे के पास हँसता हुआ आता था।
इस बार कोई न कोई घोटाला हुआ है।
डाक लेकर आनेवाले संदेशवाहक निश्चित समय पर आता था। मुख्य थाने पर फौजी ट्रक में डाक आती थी। और वहाँ से संदेशवाहक द्वारा अलग अलग चौकियों पर भेजी दी जाती। डाक लाने-ले जाने की व्यवस्था तो यहाँ अच्छी ही थी।
तो फिर उसे पत्नी के पत्र क्यों नहीं मिल रहे हैं ? मन मानने को तैयार ही न था।
मन बेचैन था।
दिल में कुछ कुछ होने लगा था।
आज ऐसा क्यों हो रहा है, समझ में नहीं आ रहा था।
कुछ दिनों पहले पिता जी का पत्र मिला था। किन्तु परिपत्र जैसा। वे अधिक लिखते नहीं थे। पत्र भी अधिक नहीं लिखते। आज से नहीं वे जब सैनिक स्कूल में थे तभी से ही।
किन्तु पत्नी तो नियमित रूप से पत्र लिखती ही थी। और अपने भोले, निर्मल और स्वच्छ प्रकृति का परिचय देती रहती थी।
हरेक पत्र में वह कुछ न कुछ नया अवश्य लिखती। कभी लिखती कि पहाड़ी कौए ने सामने की पहाड़ी के छोटे वृक्ष पर घोंसला बनाया है तो फिर कभी नये अल्शेशियन कुत्ते के दोष बताती।
जयजयवंती के पत्र पढ़ने में मजा आता।
वैसे भी अब तक युद्ध शुरू तो हुआ ही न था। किन्तु कभी-कभी सामान्य मुठभेड़ होती रहती। दुश्मन का कोई विमान हमारी सीमा में आ घुसता। कभी किसी अन्य जगह पर हमला होता। किसी चौकी पर वे अपना झंड़ा लहरा देते, ऐसा होता रहता था। कोई विशिष्ट घटना न हुई थी। वैसे सारी सीमा पर सैन्य खड़ा था। कुछ संवेदनशील स्थानों पर चौकियाँ बना दी गई थीं। सैनिक थाने बराबर कार्यरत हो चुके थे। नियमित रूप से हरेक टुकड़ी के सैनिक निगाह रख रहे थे। आठ-आठ घण्टों के बाद बारी बदल दी जाती थी। किसी को छुट्टी न दी जाती थी। रात को लालटेन या मोमबत्ती जलाने की सख्त मनाही थी।
सब कुछ था। फिर भी हकीकत यह थी कि नव-नव दिनों से अपनी सुंदर पत्नी का कोई पत्र मिला न था। और उसके कारण का पता न था।
लोहे की खाट पर पड़े-पड़े बीजेन्द्र गहन सोच में था।
खिड़की खोल उसने सामने दिख रहे शांत प्रदेश की ओर देखा।
संदेशवाहक नहीं दिखा।
उसने घड़ी में देखा। मन ही मन हँसा और सोचा कि अभी तो थाने पर ही डाक वाला ट्रक नहीं आया होगा। वहाँ से लेकर संदेशवाहक निकलेगा तो उसे यहाँ आने में तो दो-ढाई घण्टे...
आँखें बंद कर वह पड़ा रहा।
यह तो कैसी भयानक पीड़ा है ? जिसने भोगा हो वही जाने- ऐसा एक मित्र ने हँसते हुए कहा, वह याद हो आया। तब तो उसे मज़ाक लग रहा था परंतु वह एक हकीकत थी- ऐसा अब खटिया में पड़ा पड़ा वह सोच रहा था।
सोचना बंद हुआ तो वह अधीर हो उठा और मन बेचैन। नींद उड़ गई तब उसने सारे पत्र फिर से पढ़े, दूसरी बार पढ़े, तीसरी बार पढ़े... और वह पढ़ता ही रहा...
शाम को पाँच बजे संदेशवाहक तंबू के पास आकर सलाम करके खड़ा रहा।
बीजेन्द्र ने पहले डाक ली और संदेशवाहक को एक सिगरेट दी।
लम्बी सिगरेट की ओर देख, खुश हो सलाम कर वह चला गया।
बीजेन्द्र ने लिफाफे के अक्षरों को पहचाना, पत्नी के ही थे।
झट से लिफाफे को फाड़ उसने पत्र को हाथ में ले लिया।
पत्र इस बार देर से मिला किन्तु पहले के पत्रों से लम्बा था। तीन-चार कागज़ भरे थे।
बीजेन्द्र बैठा ओर चैन से पत्र पढ़ने लगा।
‘प्रिय बीजेन्द्रसिंह राठौर'।
संबोधन पढ़कर वह चौंका। इस पत्र में संबोधन ही बदल गया था... अब तक मिले पत्रों में कुछ बातें तो बदली होती थीं। परंतु संबोधन तो ‘मेरे युवा अफसर... ' ही रहता।
किन्तु जैसे भूखा आदमी राह नहीं देखता, प्यासा तपस्या नहीं कर सकता वैसे वह भी पत्र पढ़ने लगा।
‘आपने बहुत राह देखी होगी। इस बार पत्र लिखना मैं चूक गई, ऐसा सोच आपको गुस्सा आया होगा। किन्तु... किन्तु मैं मजबूर थी। आपको क्या लिखूँ, कैसे लिखूँ, वह मैं निश्चित न कर पायी थी। बार-बार सोचा किन्तु मकड़ी के जाले में कोई मनमौज़ से उड़ रही मक्खी फँस जाती है वैसी स्थिति मेरी हो गई थी। और उसके बारे में सब कुछ आपको बता दूँ कि नहीं वह मैं निश्चित न कर पा रही थी। और उसी उधेड़बुन में इतना बड़ा पत्र लिख रही हूँ।
अगले ही पत्र में मैंने लिखा था कि यहाँ वर्षा शुरू हो गई है। छोटी-बड़ी पहाड़ियों पर काले बादल हर वक्त घिरे रहते हैं और फिर उदार मन से बरस कर प्यार से सराबोर कर देते हैं। सारी पहाड़ियों को पानी से तर-बतर कर देते हैं।
तुम ने तो यहाँ का मोनसून नहीं देखा न ? वर्षा का मौसम तो यहीं का।
अधिकतर तो अकेली अकेली मैं लाल मिट्टी के रास्ते से पहाड़ियों की ओर, और वहाँ से पगडंडी की ओर मुड़ जाती हूँ। अब तो सारी पहाड़ियों ने अपने पुराने वस्त्र त्याग नये पहन लिये हैं। जहाँ देखो वहाँ वनराजि ही वनराजि दिखाई देती है। कभी धूप तो कभी छाँव, कभी श्याम मेघों की परछाईं... और फिर वर्षा रूपी मोतियों का अविरत बरसना... सब कुछ बेनमून, अद्वितीय। ऐसी धरती कहीं भी नहीं है - ऐसा प्रतीत होता है।
हाल ही में पिता जी ने मैदानी खेत खरीदे हैं। उसकी सभी कारवाईयाँ कुछ दिन पहले ही पूरी हो चुकी हैं। वे भी शायद आपको बतायेंगे। सरसों की फसल बहुत सुंदर होती है... ऐसा बाजू की ज़मीन का मालिक कहता है... मैं भी वहाँ हो आयी हूँ। किन्तु तब मुझे जरा भी मालूम नहीं था कि धरती के इन टुकड़ों की देखभाल अब मुझे करनी होगी।
आज तो मुक्त मन से सब लिखना सोचा है। दिल बलकुल साफ है। भोले दिल से सब कुछ लिख रही हूँ, यह बताने की जरूरत है क्या ?
ये सब तो बाहर की बातें थीं। किन्तु मेरे दिल की, प्यासे दिल के क्या हाल हैं, वह भी साथ में बता दूँ।
मुँह में राम और बगल में छुरी, ये मेरे स्वभाव में नहीं है। जो परिस्थिति है, और मैंने जो कुछ भी किया है, ऐसा लिखने से बेहतर है कि मैंने जो कुछ भी किया है, वह विस्तार से बताना चाहती हूँ। वैसे मेरा दूसरा मन कह रहा है कि मुझे स्वयं आपको नहीं बताना चाहिये। आपको भानेवाली, झूठी-झूठी, पसंद आये वैसी बातें लिखते रहना। किन्तु मैं ऐसा न कर पायी। जिससे आपको सब कुछ बता देने का निर्णय कर लिया है।
एक बात का इकरार अवश्य कर लेने को मन ललचा रहा है कि यदि मेरी शादी न हुई होती, आपसे तन-मन मिले न होते तो जो गलती मैं कर बैठी हूँ, वह कभी न होती।
इक्कीस साल की उम्र में मैंने बरखा के ऐसे न जाने कितने मौसम देखे हैं कि जिससे पागल हुआ जा सकता था, किन्तु कभी भी बावरी होकर मैंने कोई गलती न की।
कहा जाता है कि बाघ-चीता जैसे हिंसक प्राणी एक बार मनुष्य का लहू चख जाते हैं तो मरते दम तक मनुष्य ही का शिकार करते हैं। और जल्दी मर जाते हैं। उसकी उम्र कम हो जाती है... किन्तु मनुष्य के लहू को चखनेवाला चीता किसी अन्य प्राणी का शिकार कभी ही करता है। मेरे चित्त के बारे में भी यदि कुछ कहना हो तो यही कहा जा सकता है। मैंने जब तक पुरुष को पूर्ण रूप से देखा न था, पूर्ण रूप से भोगा न था तब तक सब कुछ सामान्य था। किन्तु तुम्हारे सहवास के बाद तो...
हरी-हरी, नीली नीली पहाड़ियों पर दिल खोल बरसते पागल मेघ को देख आपकी याद के दीपक की सौ सौ ज्योतियाँ मेरे मनोजगत में प्रगट हो उठीं। मुझे कुछ भी सूझ न रहा था। प्रकाश की किरणों से मैं मानो चौंधिया गई थी... अंध हो गई थी।
शीतल पवन था, ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ थीं, बावरा-सा मेघ था। और मुक्तता से संवनन कर रहे पीले पीले पंखोंवाले ‘पीली' पंछी थे।
सब कुछ था यहाँ पर, किन्तु आप न थे। मन आकुलित था। उस बेचैनी, उस घबराहट को मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकती। उसके लिए मेरे पास शब्द नहीं है, डिक्शनरी में भी कोई शब्द न होगा।
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11
पिताजी ने मैदानी खेत जिससे खरीदे हैं उसका युवा लड़का कुछ दिनों से हमारे बंगले पर कभी-कभार आता रहता था। पैसे के बारे में बातें करने, कुछ दस्तावेज मुंशी के पास लिखवाने वह आता रहता था।
एक दिन शाम के वक्त मैं लाल मिट्टी के रास्ते से मुड़कर पगडंडी की ओर मुड़ी। सीधे छोटी-बड़ी पहाड़ियों को पार कर हम जहाँ बैठे थे, तुम्हारी गोद में मैं पड़ी थी, तुम्हारा हाथ मेरे कंधे पर था, वहाँ मैं बैठ पड़ी। तुम्हारी यादें आकाश में उभर आये बादलों की तरह मेरे चित्त में उभर आयी। जहाँ देखें वहाँ प्रेम... प्रेम... प्रेम... ही था। सारा वातावरण प्रेममय बन गया था। काले-काले मेघ पहाड़ियों पर अब बरसने लगे थे। मन मेरा मेरे बसमें न था। मूसलाधार वर्षा में मैं भीग चुकी थी। फिर भी दिल में तुम्हारी यादें थीं। एक पूर्ण पुरुष की यादें... गर्म गर्म यादें...
मैंने आँखें बंद कर लीं थीं। मेघ बरस रहे थे...यादें... यादें... सिर्फ यादें...
वहीं तो किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा।
मैं आँखें खोल न पायी। अपने हाथ से मैं उसे दबा बैठी... और फिर...
मेघ बरसते रहे, सूरज सो गया था। ‘पीली' पहाड़ियों के पीछे छिप गये थे, पहाड़ी कौआ छोटे वृक्ष की डाली के अपने घोंसले में जा छिपा था। तितलियाँ बिखर गई थीं।
मैं ऐसी मदहोश थी कि उससे बाहर निकलना मेरे लिए असंभव था। मेरे ही लिए नहीं किसी भी युवा स्त्री के लिए...
और उसी मदहोशी में उस जमीन मालिक के बेटे से मैं कब तक संभोग में डूबी रही, मुझे पता न रहा। किन्तु रायफल के एक बार से मेरा होश लौटा। कपड़े ठीक कर प्रगाढ़ होते जाते अंधेरे में देखा तो पिताजी दौड़ते हुए ढलान उतर रहे थे और मेरे साथ वाला युवा तड़प कर हमेशा के लिए शांत हो चुका था।
मैंने गलती की है ऐसा कहने से बेहतर है कि मैं कहूँ-कि मैं गलती कर बैठी।
जो कुछ हुआ उसका मुझे अत्यंत रंज है। किन्तु जो कुछ हो चुका है वह न हुआ ऐसा तो नहीं कहा जा सकता। मैंने अपने मन की सारी बातें अक्षरश: बतायी हैं। उसमें न तो अतिशयोक्ति है और न ही बनावट। अभी अभी जो कुछ हो चुका है वह मैंने कपटरहित हो तुम्हें लिखा है।
तुम, बीजेन्द्रसिंह राठौर-मेजर-राजपूताना रायफल्स-टुकड़ी नं.117, मेरे पति-पूर्ण पुरुष- क्या सोच रहे हो, क्या निर्णय लेने जा रहे हो, वह लिखोगे तो मुझे संतोष होगा... और तुम जो भी हुक्म करोगे, वह मुझे, जयजयवंती राठौर को, तुम्हारी पत्नी को मंजूर होगा, सदा के लिए मंजूर होगा...
और एक विशेष दु:खद बात बताती हूँ कि तुम्हारे पिताजी, मेरे पिताजी मेजर बसवेश्वरसिंह राठौर ने स्वयं पुलिस के पास जाकर समर्पण कर दिया है। वे हाल में कस्टडी में हैं और ऐसे जुल्म में गिरफ्तार हैं जिनकी जमानत भी नहीं हो सकती।
इन सब बातों का स्वीकार मेरे मुक्त रूप से, शुद्ध हृदय से करने के बाद मैं अपना यह आखिरी आश्चर्य व्यक्त कर रही हूँ कि पिताजी ने जब मेरे साथ के युवा को रायफल से उड़ा दिया, तब मुझे, उनकी पापिनी पुत्रवधू को क्यों न मारा ? क्यों न मारा ?
क्यों नहीं... क्यों नहीं... क्यों नहीं... ? '
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12
बीजेन्द्र शेर की तरह भयानक रूप से दहाड़ा।
सारा बर्फीला मैदान खाई तक हचमचा उठा।
ठण्डी धरा हिल उठी।
उसने आग ऊगलती आँखों से उस पत्र को देखा।
अपनी सुंदर, रूप रूप के अंबार जैसी जयजयवंती यह क्या कर बैठी ? उसने ये क्या कर दिया ? सारा जीवन बरबाद हो चुका था। पापी पत्नी उसके लिए मर चुकी थी। चाहे उसने भोलेपन में उसकी यादें दिल में भर कर ये किया हो...किन्तु...किन्तु... जयजयवंती अपने लिए, युवा मेजर बीजेन्द्रसिंह राठौर के लिए अग्राह्य थी। सदा सदा के लिए अग्राह्य थी।
आँखें आग उगल रही थीं। दिल में दावाग्नि जल रही थी। मन बेकाबू हो रहा था। सारा शरीर क्रोध से काँप रहा था। रोम रोम खड़े हो गये थे।
आकाश में रात गहरा रही थी। बादल झूल रहे थे। बर्फ की वर्षा होने लगी थी। ठंड़ ने अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू कर दिया था। हिम-सा ठण्डा पवन बर्फ का सीना चीर कर यहाँ तक आ पहुँचा था।
बाहर ये हाल थे तब युवा मेजर बीजेन्द्रसिंह राठौर...राजपूताना रायफल्स, टुकड़ी नं.117 की कमान संभालते हुए जल रहा था।
उसका मन, मोम जैसा हृदय और पत्थर-सा तन सुलगे हुए थे। भड... भड़... करके तीव्रता से जल रहे थे।
शरीर से पसीना टपकने लगा था।
कपड़े भीग गये थे।
तंबू का परदेवाला दरवाजा खुला था।
उसके हाथों पत्नी का आखिरी पत्र था। जिसके लिए वह नव-नव दिनों से तड़प रहा था, राह देख रहा था, घूम रहा था, बेचैन हो रहा था।
वही पत्र उसके हाथों था।
इसके लिए, इन समाचारों के लिए वह कितना व्याकुल था ? कितना परेशान था वह ?
ना... ना...
तो ?
बीजेन्द्रसिंह के मन में जानी दुश्मनों की तरह भयंकर युद्ध का प्रारंभ हो चुका था।
वह तो पत्नी की सुंदर मुखाकृति के पीछे पागल था।
किन्तु...
पत्नी ने अपनी गैरहाजिरी में हरी-हरी पहाड़ियों के बीच क्या कर दिया था ?
पाप ?
पाप नहीं तो ओर क्या ? पाप के भी दूसरे खूबसूरत रूप हो सकते हैं।
किन्तु अगर ऐसा ही होता तो अपनी खूबसूरत और युवा पत्नी अपने ही हाथों ये सब क्यों लिखतीं ? क्यों...? क्यों...?
अपने आपको निर्दोष सिद्ध करने... ?
‘नहीं... नहीं... नहीं... '
बीजेन्द्रसिंह की गर्जना सुनकर रम का बोटल देनेवाला सैनिक गभरा गया। वह दो कदम पीछे हट गया। डरते डरते दरवाजे के पास बोटल रख दबे कदमों से वापस चला गया।
बीजेन्द्रसिंह ने देखा। पागल की तरह उसने हँसना चाहा। वह हँसा। खिलखिलाकर हँसा। उसकी चमकदार आँखों में आँसू उभर आये। दाँत एक-दूसरे से टकराये। पत्र देखा। अंधेरे में कुछ नज़र न आया। किन्तु पत्नी का सुंदर चेहरा आँखों के सामने उभर आया।
थप्पड़ मारकर उसने उस मस्त चेहरे को हटाना चाहा किन्तु हटा न पाया। चेहरा जहाँ था वहाँ ही स्थिर था। अब उसका रूप उसके किस काम का ? अब उस यौवन का क्या करें ? अब उस मस्त शरीर से क्या काम ?
कुछ भी नहीं...कुछ भी नहीं... कुछ भी नहीं...
क्यों ?
वेश्याएँ क्या सुंदर नहीं होतीं ? उनकी काया क्या खूबसूरत नहीं होती ? बीजेन्द्रसिंह राठौर को वेश्या जैसी पत्नी से अब क्या लेना-देना ?
अब भी वह काँप रहा था।
अब भी शरीर में कँपकँपी थी।
दिल अब भी दुख रहा था।
अब भी मन में आग लगी हुई थी।
और अब भी आँखों के सामने जयजयवंती का चेहरा हूबहू नज़र आ रहा था।
बीजेन्द्रसिंह ने पास के कोने से रायफल उठा ली।
एक हाथ में पत्नी का पत्र था।
दूसरे में रायफल थी।
चमकदार आँखों के सामने खूबसूरत पत्नी थी।
उसने काँपते हाथ से पत्र को रायफल की नोक पर खोंस दिया और फिर ऑंख के सामने के पत्नी के चेहरे पर निशान ताका।
और फायरिंग किया।
ठण्डी रात की घनी हवा अशांत हो गई।
टूटती आवाज खाई की ओर दौड़ पड़ी। जिसने भी ये आवाज सुनी वे सब चौंक पड़े।
बर्फ के बीच की खोखली जगह में रहने वाले ठण्डे पंछी पंख फड़फड़ाकर उड़ गये। कुछ अफसर आशंकित हो दौड़ आये।
और रायफल की नोक पर खोंसे पत्नी की निर्दोषता के सारे शब्द टुकड़े-टुकड़े हो उड़ गये।
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13
किन्तु...
किन्तु पत्नी के चेहरे को वह भुला न पाया।
रायफल के बार से, नोक की ओर का मोटा हथेली-सा कपड़ा फट गया था किन्तु पत्नी का कोमल चेहरा नहीं मिटा था।
अब भी वह चेहरा आँखों के सामने उभरा हुआ था।
ऐसा कैसे हो सकता है ?
आग उगल रही आँखों की तुलना में रम का बोतल कुछ काम न आया।
उसने बोतल उठा लिया।
रायफल की लोहे की नली से बोतल का मुँह तोड़ डाला।
जलते अंगारों पर घिसते हुए पेट्रोल गिर पड़ा हो वैसे रम गले के भीतर उतारता रहा... आवाज थिर हवा पर तिरती रही... गट... गट... गट... गट... गट... गट...
होंठ पर काँच लगने से लहू निकल रहा था। होंठ चरचराते गये किन्तु उसे पता न था। टूटे बोतल को बेपरवा से फेंक वह तंबू में जा-आ रहा था। बर्फ के टुकड़ों को तोड़ता हुआ इधर-उधर देख रहा था।
वह जोर से चीखना चाहता था, आत्महत्या करने की इच्छा होने लगी। पत्नी की तंदुरस्त और सुहावनी काया के टुकड़-टुकड़े कर देने का मन हो रहा था। और वह नर्म नर्म बर्फ पर घूमता रहा... बेकाबू हो नाचता रहा...पैर मारता रहा... क्रोध से गङ्ढा करता रहा...
खुले आसमान से बर्फ की वर्षा हो रही थी।
बीजेन्द्रसिंह नशे में चकनाचूर था।
उसे कुछ भी याद न आ रहा था।
वह सब कुछ भूल चुका था।
एक ही बात पत्नी की निर्दोषता के इकरार की याद थी।
पत्र के शब्द जैसे जैसे याद आते वैसे वैसे वह बर्फ में लात मारता था। गिरता था। मैं... मैं... बोल रहा था।
देर तक वह तंबू के बाहर की बर्फ पर घूमता रहा।
वह थक गया।
बहुत थक गया था।
मन से संपूर्ण रूप से टूट चुका था।
पहले जो मन उत्साह, आरजू और अभीप्सा से भरा था, अब निराशा से भर गया था। आशा की कोई किरण नज़र नहीं आती थी। चारों ओर अंधेरा...सिर्फ अंधेरा छाया था। कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था, कहीं कोई रोशनी न थी, कोई सुख न था, और शांति भी न थी।
कहीं भी नहीं...
अब कोई पत्नी न थी, कोई सुंदरी न थी। कोई मदमस्त जयजयवंती नहीं थी।
अब कुछ भी बचा न था।
कुछ भी नहीं।
थकावट के कारण वह तंबू के दरवाजे के पास गिर कर बेहोश-सा पड़ा रहा।
सबेरा हुआ। सूरज निकला। खाई पर दिखा। किरणें फैलीं।
बीजेन्द्रसिंह राठौर की लाल-लाल आँखें जब खुलीं तब वह बर्फ में पैर डालकर पड़ा हुआ था। आधा शरीर तंबू के बाहर था। सारे शरीर में दर्द हो रहा था, आँखें लाल हो गई थीं।
यादें, आहिस्ता आहिस्ता, खाई की ओर से मलयानिल की तरह फिर से लौट रही थीं, पत्नी, उसका चेहरा, पत्र, पत्र के शब्द, रम का बोतल, रायफल का बार, क्रोध से बर्फ पर घूमना...
सब याद हो आया।
फिर से सारे बदन में आग लग गई।
उसने पानी पिया, जी भर पिया।
फिर वह पत्नी को आखिरी पत्र लिखने बैठा।
काँपते हाथ से पेन लिया।
क्या लिखना, समझ में नहीं आ रहा था।
कुछ देर गुस्से में ही बैठा रहा।
फिर लिखा-
‘जयजयवंती,
तेरा पत्र पढ़ा। मैं तुझे स्वीकार नहीं सकता। मैं तुझे माफ भी नहीं कर सकता। अब हम एक-दूसरे को सदा के लिए भूल जाते हैं। मैं सिर्फ बीजेन्द्रसिंह राठौर हूँ, तू सिर्फ जयजयवंती है। मैं पति था, तू पत्नी थी, वह सब अतीत हो चुका है। अब उसमें से कुछ भी नहीं है। अब मैं एक पुरुष हूँ और तू एक स्त्री मात्र, मेरा मकान, मेरी जमीन सबकुछ तेरे हैं। अब मैं कभी भी उन हरी-हरी पहाड़ियों में दर्द पाने के लिए नहीं आऊँगा। वहाँ रहकर तू सदा से जलती रहे, यही मेरी कामना है। तेरी मनोकामना क्या है, वह मैं नहीं जानता। किन्तु अंत में इतना जरूर बता देता हूँ कि तू मेरी पत्नी नहीं रही और न ही मैं तेरा पति। मैं तेरा पति नही हूँ, नहीं... नहीं... कोई भी नहीं... कोई भी नहीं... कोई भी नहीं... '
पत्र को लिफाफे में बंद कर उसने डाक की डिबिया में डलवा दिया।
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14
सिर से बहुत बड़ा बोझ उतर गया हो, उसने महसूस किया।
अभी संदेशवाहक आयेगा। पत्र अब नहीं आयेंगे। किन्तु उसने पत्नी को जो आखिरी पत्र लिखा है, वह ले जायेगा। चौथे या पाँचवें दिन उसे मिल जायेगा। और तब से दोनों सदा के लिए पति-पत्नी मिट जायेंगे। अपने सिवा किसी ओर के साथ रंगरेलियाँ मनाने वाली पत्नी को वह नहीं रख सकता, कभी भी नहीं...
बीजेन्द्र सोच ही में था कि संदेशवाहक तंबू के पास हँसता हुआ सलाम करके खड़ा रहा।
बीजेन्द्र को आश्चर्य हुआ कि अब किसका पत्र आयेगा ?
उसने कुछ न कहा। संदेशवाहक ने उसके हाथ में पोस्टकार्ड रखा, थोड़ी देर आशा से खड़ा रहा, फिर चला गया।
जेल सुप्रिन्टेन्डन्ट के हस्ताक्षर से युक्त जेल से लिखा गया पिताजी का पत्र था-
‘बिजु,
तुझे जानकारी मिली होगी। मैंने कुछ भी गलत नहीं किया। तुझे आश्चर्य इस बात का हुआ होगा कि मैंने जयजयवंती को क्यों नहीं मारा ?
उस पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। उसे जो सजा करनी हो वह तू कानून के अनुसार कर सकता है।
-बसवेश्वरसिंह राठौर'
उसने पत्र पढ़ा।
पिताजी पत्नी को सजा देने को बता रहे थे... वह तो उसे कड़ी से कड़ी सजा दे चुका। पति-पत्नी के संबंध को ही विच्छेद कर दिया था। उससे कड़ी सज़ा ओर क्या हो सकती है ?
शरीर को उसने कठोर बिछौने पर डाला।
सारा जीवन ही मानो बिखर गया था। सब नष्ट हो गया था। समुद्र की रेत में खड़े किये गये महल और मंदिर, सभी ज्वार की लहरों की एक ही चपेट में टूटकर रहावन बन गया था। कुछ भी बच न पाया था।
अब कोई याद न आ रहा था। न तो कोई पत्नी थी। न ही किसी का प्रेम था। अब किसी का पत्र नहीं आयेगा। न ही किसी की प्रतीक्षा करनी होगी।
अब तो वह था और थी राजपूताना रायफल्स की टुकड़ी नं.117 ।
उसने अभी तो करवत भी न ली थी कि एक डाकिया तंबू के दरवाजे पर समाचार लेकर आ पहुँचा था।
बीजेन्द्र ने चारों ओर से सील किया गया लिफाफा लिया। डाकिये को हस्ताक्षर दे, भेज दिया।
ऑडर था।
आज रात को आठ बजे के बाद पूरब की ओर की दुश्मन की छावनी पर एक साथ हमला करना है। सैनिकों को तैयार रखना। पीछे सहायता आ रही है।
बीजेन्द्र की यही तो चाह थी।
बिना युद्ध घुटन-सी हो रही थी।
अब तो मन कर रहा था कि युद्ध हो। पहले की बात अलग थी।
तैयार हो वह बाहर निकल पड़ा।
रात तक तैयारियाँ होती रहीं। अन्य किसी को पता न था। इतनी ही सूचना दी गई थी कि रात के आठ बजे प्रस्थान के लिए तैयार रहना होगा।
पहला हमला 117 नंबर की टुकड़ी को करना था। और उसके नेता बीजेन्द्रसिंह राठौर थे।
काम बहुत कठिन न था। किन्तु दुश्मन को यदि इस बात की जानकारी मिल जाय तो बड़ी मुश्किल हो सकती थी। इस लिए हरेक प्रकार की सावधानियाँ बरती जा रही थीं।
पूरब की ओर बर्फ का जो मैदानी इलाका था, उसे छोड़ने के बाद गहरी खाई आती थी। उससे होकर सामने जाना था और दुश्मनों की महत्वपूर्ण छावनी पर आज रात ही में कब्जा जमाना था।
खाई में उतरना कठिन था।
पहल कौन करें ?
बीजेन्द्रसिंह राठौर ने सिर पर कफ़न बाँध लिया था। अब जीवन के प्रति कोई मोह न था, मृत्यु से भय न था।
वह उतर पड़ा।
धीरे-धीरे सारी टुकड़ी उतर गई।
अब सामने जाना था।
चढ़ना कठिन था किन्तु इस महत्वपूर्ण टुकड़ी का हरेक जवान होशियारी से उपर चढ़ गया।
खाई की धार पर पेट के बल सो गये।
थोड़ी देर पड़े रहे।
सामने से किसी भी प्रकार की हिलचाल मालूम नहीं हो रही थी।
बीजेन्द्रसिंह राठौर ने पेट के बल सरकने की सूचना दी।
सब चौकी की ओर सरकने लगे।
फिर सभी को रुकने का आदेश दिया गया।
सब ‘जैसे थे'की स्थिति में रुके रहे।
सब से आगे बीजेन्द्रसिंह राठौर ने स्वयं ही रहना निश्चित किया।
वह आगे बढ़ गया।
टुकड़ी पीछे आ रही थी।
दुश्मन की चौकी असावधान थी।
पाँच मिनट के अंदर फायरिंग शुरू हो गया।
फायरिंग देर तक होता रहा।
दुश्मन की चौकी बहुत बड़ी थी। निकट ही छावनी थी। सहायता पहुँच चुकी थी। और युद्ध तीन घण्टे तक चलता रहा था।
चौकी पर भारतीय तिरंगा लहरा रहा था।
किन्तु बीजेन्द्रसिंह राठौर, उस युवा बहादुर अफसर का कोई अता-पता ही न था।
सब उसे खोज रहे थे।
आखिरकार लाश-से हाल में जब उसका शरीर मिला तब सभी ने संतोष की साँस ली।
उसे तुरंत छावनी केम्प के अस्पताल में भेजने की व्यवस्था की गई।
मेजर बीजेन्द्रसिंह राठौर के बेहोश शरीर को जब अस्पताल में दाखिल किया गया तब डॉक्टर ने भी उसके बचने की कोई आशा न बतायी थी।
लहू विपुल मात्रा में बह गया था।
सिर के पिछले हिस्से में गहरी चोट लगी थी।
वह कब होश में आयेगा या नहीं, निश्चित नहीं था।
नर्सें इधर-उधर दौड़ रही थीं। डॉक्टर उपचार करने लग गये थे।
लहू दिया जा रहा था।
सभी प्रकार के उपचार किये जा रहे थे।
तात्कालिक रूप से जो भी उपचार किया जा सके, कर के, इस गंभीर दर्दी को, घायल अफसर को सैनिक अस्पताल में डॉक्टर पेड्रिक के पास भेजने के बारे में विचारणा हो रही थी।
किन्तु प्रश्र यह था कि वह होश में आये या कराहने लगे... उसके जीने की कोई आश बंधे तभी उसे बड़े अस्पताल में भेजा जा सकेगा।
बीजेन्द्रसिंह राठौर का नाम चौकी जीतनेवाले के रूप में फैल चुका था। कमान्डर इन चीफ ने भी उसके हाल पूछे थे और पूरी देखभाल करने तथा सारे उपचार करने की सूचना दी थी। और अगर आवश्यकता महसूस हो तो सैनिक अस्पताल में भेजने की व्यवस्था करने के हुक्म भी कर दिये थे।
सब उसके साहस की प्रशंसा कर रहे थे।
तीन दिन उसके हाल बहुत ही नाजुक रहे। जीवन-मृत्यु के बीच झूलते हुए जब उसने पलकें खोलने की कोशिश की तब सभी को विश्वास आया कि बड़े अस्पताल में उसकी पूरी देखभाल की जायेगी।
सैनिक अस्पताल के ऊपरी डॉ.पेट्रिक को टेलिग्राम कर दिया गया।
कच्चे रास्ते से जीप द्वारा, एम्ब्यूलन्स में, फिर ट्रेन के द्वारा जब उसे सैनिक अस्पताल पहुँचाया गया तब वह सिर्फ आधे मिनट के लिए आँखें खोल पा रहा था।
अशक्ति, कमज़ोरी, रुई-सा चेहरा...
मेजर बीजेन्द्रसिंह राठौर पहचाना भी नहीं जा रहा था।
डॉ.पेड्रिक को तुरंत जानकारी दी गई।
अफसरों के लिए बनाये गये स्पेश्यल रूम में उसे ले जाया गया।
फिर से जाँच की गई।
केम्प अस्पताल के रिपोर्टों को डॉ.पेड्रिक ने दो बार देखा।
फिर से उपचार किये जाने लगे।
इंजेक्शन... लहू... ग्लूकोज...
सब दिया जा रहा था...
दिन के बाद दिन बीत रहे थे।
कुछ दिनों के बाद डॉ.पेड्रिक ने नर्स को बुलाकर सूचना दी कि घायल मेजर बीजेन्द्रसिंह राठौर के सामान में क्या-क्या है ? उसे जाँचा जाये।
एक घण्टे के भीतर रिपोर्ट आ गया।
कपड़े, दैनिक उपयोगी वस्तुएँ, पेन, कुछ पत्र और अन्य चीजें...
डॉ.पेड्रिक ने सारे पत्र अपने पास मँगाये।
बीजेन्द्रसिंह राठौर की सुंदर पत्नी जयजयवंती के सभी पत्र उन्होंने पढ़े। पत्नी से प्रगाढ़ प्यार था। वह पति को बहुत चाहती थी। हरी-हरी पहाड़ियों के बीच घूमते हुए हरदम पति को याद करती थी और सब कुछ बताती थी।
पढ़ी-लिखी युवती थी।
उसे ये जानकारी देनी होगी। उसके आने से संभव है कि मेजर में खुशी का संचार हो। ये जल्दी अच्छा हो जाय। इसे राहत महसूस हो।
डॉ.पेड्रिक ने स्वयं पत्र लिखा-
‘हमारे प्यारे मेजर बीजेन्द्रसिंह राठौर की पत्नी होने का सौभाग्य आपको प्राप्त हुआ है वह आनंद की बात है। मैं यह बताते हुए दिलगीर हूँ कि एक महत्वपूर्ण चौकी को जीतते हुए वे थोड़े घायल हुए हैं। देहरादून सैनिक अस्पताल में मैं इसका उपचार कर रहा हूँ। मेजर आपको बार-बार याद करता है। आप कुछ दिनों के लिए यहाँ आ सको तो मुझे बड़ी खुशी होगी।
अन्य सग-संबंधियों को सैनिक अस्पताल में प्रवेश नहीं मिलता, वह आप जानती हैं।
मेजर आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।
कब आ रही हो ?
मैं टेलिग्राम की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।
-डॉ.पेड्रिक'
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(क्रमशः अगले अंक में जारी)
रविरतलामी जी,उपन्यास की अगली किस्त का इन्जार है।मानसिक उथल-पुथल दर्शाता एक मार्मिक उपन्यास है।
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