- डॉ0 मधु सन्धु किसी सॉफ़्टवेयर की तरह बचपन मेरे अंदर पूरी तरह से फीडिड है। स्वास्थ्य पापा की प्राथमिकता रही है। बचपन से उनके बैड साइड...
- डॉ0 मधु सन्धु
किसी सॉफ़्टवेयर की तरह बचपन मेरे अंदर पूरी तरह से फीडिड है। स्वास्थ्य पापा की प्राथमिकता रही है। बचपन से उनके बैड साइड पर दो-चार-छह टॉनिक देखती आई हूँ। शौकीन तबीयत का होने के कारण घण्टों तैयार होने में लगाते थे। कहीं जाना हो तो सारा परिवार तैयार हो उनकी प्रतीक्षा में खड़ा रहता। उनके ग्लासेस और फ्रेम तो इतने महंगे होते कि ऑप्टीशियन - मिडल क्लास पापा को बड़ा बिज़नेस समझने का धोखा खा जाते। वे उम्र ही नहीं समय को भी बांध लेने की युक्तियों में व्यस्त रहते। पिछले दिनों नज़र में फर्क आ जाने के कारण पापा ने बार-बार आंखों का चेक अप करवाया। वे पापा जिनके लिए घर का मतलब होम थियेटर था, जिनकी नजरें दिन में कम से कम सात- आठ घण्टे टी0 वी0 स्क्रीन से चिपकी रहती थी, अब टी0 वी0 लगाकर भी इधर-उधर के काम करते रहते। उस ओर कम ही देखते।
मित्रों संबंधियों से बातचीत करके पता चला कि यह शहर आंख के रोगियों के लिए वरदान है। देश के विभिन्न हिस्सों से यहाँ तक कि राजधानी दिल्ली से भी लोग यहाँ आंख के आपरेशन के लिए आते हैं। कैटेरैक्स अब कोई बीमारी नहीं रही। इस अस्पताली सफर से नाइट-स्टे जैसी कोई चीज भी नहीं जुड़ी है। नजर में लगातार फर्क आने पर वे डाक्टरों के जाते रहे, कई तरह के आई ड्राप डालते रहे, काम पर जाते समय एक किट में दवा की शीशी एहतियात से रख लेते, वे पहचान चुके थे कि ऑंखें ही जीवन हैं। फर्क कोई नजर नहीं आ रहा था । उन्हें निर्णय लेना ही था, लेकिन मन में लगातार एक भय बैठा था। हर आत्मनिरीक्षण उन्हें आपरेशन नाम की चीज से और भी संत्रस्त कर जाता। आपरेशन शब्द ही ऐसा है। उन्होंने अपने बुजुर्गों की आंख के आपरेशन देखे थे। दिनों तक बिस्तर पर सीधा लेटना.... आंख पर पट्टी बंधना....लगातार सिर दर्द., कई तरह की तकलीफें- सोचकर ही वे सिहर उठते। इसी बीच कुछ एक परिचितों ने, पुराने मित्रवत आपटिशियन ने हौंसला दिया। बताया कि कैटेरेक्ट अब कोई बीमारी नहीं है और उन्होंने मन बना लिया। नेत्र चिकित्सालय का कार्ड बन गया। कई केबिनों में बैठे टेक्निशियंस और विशेषज्ञ डाक्टरों ने कई तरह के अत्याधुनिक यन्त्रों से आंख की जाँच की। अन्य सारे टेस्ट भी करवाए गए। ब्लड प्रेशर को छोड़ सब नार्मल था और दस -पन्द्रह दिन की दवा के बाद वह भी नार्मल हो गया। आई ड्राप दो एक दिन पहले ही शुरू हो गए। चिकित्सालय किसी फाइव स्टार होटल से कम नहीं था और उसका नक्शा भी किसी मुगलिया जंत्र-मंत्र से मेल खाता था। ऊपर से नीचे नज़र पड़ जाए तो कुतुबमीनार का भ्रम हो ही जाता था। पता ही नहीं चलता था कि यह लिफ्ट कहाँ जाएगी या सीढ़ियां किस मंजिल की किस लॉबी में खुलेंगी। वैसे यह जानने की जरूरत भी नहीं थी। हर सीट के पास खड़े अटेंडेंट रोगियों को अगले गन्तव्य की ओर ले जाते थे।
डॉक्टरों, नर्सों, अन्य कर्मचारी सब पहली नजर में एक जैसे ही लग रहे थे। उनके कोट उनके ओहदे के सूचक थे। डॉ0 सफेद कोटों में थे। प्रशासकीय स्टॉफ पिंक कोट पहने था। नर्सों के कोट पिस्ता रंग के थे। पैरा-मेडिकल नीले कोट में थे और सभी सफाई-कर्मचारी हरे रंग का कोट पहने थे। मेडिकल स्टोर और केन्टीन वाले सामान्य कपड़ों में थे।
सुबह पाँच बजे पापा आपरेशन के लिए पहुँच गए। साथ में मैं थी। सारी फार्मेलिटीज़ उन्होंने एक दिन पहले ही पूरी कर ली थी। पिंक कोट को पैसे जमा करवा, जैसे ही हम नीले कोट के साथ लिफ्ट में खड़े हो बड़े बड़े केबिन्ज में ऊपर पहुँचे, वहाँ पहले से ही काफी मरीज मौजूद थे। लकड़ी के फर्श और दीवारों वाला यह केबिन अपना आभिजात्य स्वयं बोल रहा था। चमकते -दमकते आर्टिफिशल खम्भे, गद्देदार सोफे, फूलों से सजा काउंटर, राजस्थानी किलों जैसे नकली- असली दरवाजे सब ध्यान आकर्षित कर रहे थे।
सभी मरीजों को पुकारने का ढंग अत्यन्त सम्माननीय था। मि0 , मिसेज, जी, श्री आदि शब्दों का प्रयोग बड़ी सावधानी से किया जा रहा था। मरीज बारी-बारी से अपने नाम के सम्बोधन के अनुसार अंदर जाकर जूते कपड़े आदि बदलते। जिस तरफ की आंख का आपरेशन होना हो, उस कलई पर विशेष रंग का रबड़ बैण्ड डाल दिया जाता। चादर के उस तरफ खास निशान होता। किसी भी तरह की गलती को टालने के लिए ऐसे अनेक संकेत नियत थे। कोई एक घण्टे बाद बाहर के हाल का टी0 वी0 चल पड़ा। पहला नाम पापा का ही था। पापा की साफ-सुथरी आंख 29 इंची टी0 वी0 के पर्दे को घेरे डिस्कवरी चैनल का भ्रम दे रही थी। सुईयां भी चाकू-छुरियों सी बृहदाकार लग रही थी। जॉनसन बड सी कोई चीज चिमटी के आकार सी लग रही थी। पुतली के पर्दे को जैसे ही सुई जैसी चीज ने छुआ, रक्त की दो-चार लाल-लाल बूँदें आंख के पानी में बिखर गई, पर साथ ही आंख साफ की जा रही थी। आपरेशन के समय मरीजों से आत्मीय बातचीत की जा रही थी- शायद उन्हें रिलेक्सड फीलिंग देने के लिए। पापा ने इर्म्पोटेड लेंस डलवाया था। सबसे बढ़िया और महंगा। आधे घण्टे में पापा बाहर थे- बेहद उत्तेजित और उत्साहित। लगता था जंग जीत कर आए हों। दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति बिल गेट्स बन गए हों। काला चश्मा अस्पताल के मेडिकल स्टोर से पहले ही खरीद लिया था और साथ ही लगा भी लिया था। लेंस नम्बरड था। इसीलिए पापा को अभी से सब बहुत साफ दिखाई दे रहा था। आई-ड्राप की कुछ शीशियां थी, जिन्हें सिर्फ जागते समय आंखों में डालना था- यह बूँदें पहले दिन घण्टे-घण्टे बाद यानि दिन में कोई अढ़तालीस बार, दूसरे दिन दो -दो घण्टे बाद यानि बत्तीस बार, तीसरे दिन तीन-तीन घण्टे बाद यानि कोई चौबीस बार। पापा तो इतने आह्लादित और आनन्दित थे कि अस्पताल से घर पहुँचने से पहले आसपास कहीं से पूड़ियां खाने का प्रस्ताव मेरे सामने रख रहे थे। यहाँ तक कि वे खुद दस किलोमीटर ड्राईव करके वापिसी पर घर आए। भले ही इसके मूल में उनका मेस्कुलिन ईगो, संस्कार या बुढ़ापे/बीमारी को ठेंगा दिखाने का भाव रहा हो। कुछ हिदायतें भी थी कि आंख को मलना बिल्कुल नहीं, पानी से पूरा परहेज चाहिए, रोशनी से बचाव करें, दवा डालते समय आंख को नीचे से पकड़ें, पलकों को कदाचित न छुए, छोटे बच्चों से दूर रहें कि कहीं वे हाथ न मार दें इत्यादि।
शाम तक दो-एक बन्धु हाल पूछने भी आ धमके, पर पापा पूरे उत्साहित थे। कहते-मुझे ग्यारहवीं में जाकर ऐनक लगी थी, तब इससे ज्यादा नम्बर था और अब यह आंख इतनी बढ़िया हो गई है कि लगता है मैं आठवीं का छात्र हूँ। सभी बता रहे हैं कि यह लेंस असली से ज्यादा बढ़िया, नेचुरल, शक्तिशाली और स्थायी है।
अभी दो महीने भी न बीते थे कि देखा टी0 वी0 के प्रति स्थायी अनुराग रखने वाले पापा फिर टी0 वी0 से ऑंखें चुराने लगे हैं। दस-पन्द्रह मिनट में सारे समाचार पत्र उनके कमरे से बाहर आ जाते। नाईट ड्राइविंग इग्नोर करने लगे। बता रहे थे कि दूसरी आंख पर असर पड़ रहा है। यह सब अब इत्तिफाक नहीं देवेच्छा सा लगने लगा था। एक दिन फिर उसी अस्पताल पहुँचे। एक और इर्म्पोटेड लेंस फिट करवाया, पर अब उत्साह का स्थान भय और आशंकाओं ने ले लिया था। पहले की तरह स्थिति को ग्लोरिफाई न कर वे मित्रों-परिचितों से छिपाना चाहने लगे थे। काली ऐनक उतारकर कमरे से बाहर आते। कभी लगी भी रह जाए तो पूछने वाले से वे एक विश्वसनीय सा झूठ बोल देते। दर्पण से बार-बार पूछते, 'बता तो भाई ! क्या मैं भी ढल सकता हूँ। रोशनी लौट आई थी, पर मन में एक भय घर कर गया था। अब न वे अखबार में माथा मारते थे, न टी0 वी0 में आंखें गढ़ाते थे। हां। सुबह और शाम का बहुत सा समय सैर में बिताते या कमरे की चिटखनी चढ़ा शवासन सा लगाए रखते।
पापा अपने बारे में सदैव अत्यधिक सेंस्टिव रहे हैं। पूरा व्यक्तित्व झनझना गया था। सोचती हूँ कैसा लगा होगा जब पापा ने सिर में पहला सफेद बाल देखा होगा ? जब पहली बार डॉ0 ने बी0 पी0 की बात कही होगी ? जब टेस्ट में कैटेरेक्ट आया होगा ? वे अपने से कितना जूझे, कितना टूटे होंगे।
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डॉ0 मधु सन्धु , प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, गुरुनानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर-143005, पंजाब।
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चित्र - नोन एंड अननोन मास्क्स - डिटेल - जगदीश चिंताला की कलाकृति
Tag मधु सन्धु,कहानी,केटेरेक्ट,रचनाकार
बहुत अच्छी कहानी।
जवाब देंहटाएंअपना भी केटरेक्ट का आप्रेशन हुआ जब मैं चौबीस का ही था। एम्स में ।
पूरे हस्पताल में ऊपर नीचे भागता दोड़ता रहता सारा दिन। डाक्टर विजिट पर आता तो मैं बैड से गायब।
मेरी उम्र का कोई था ही नहीं वहां।
या तो छोटे बच्चे या बूड़े लोग। अधिकतर लोग मुझे ही डाक्टर समझ बैठते। :)
एक बहुत अच्छी कहानी ! हाँ विचित्र सा तो लगा ही होगा । लगता भी है जब मन सब कुछ कर सकता है किन्तु शरीर साथ नहीं देता । यही तो जीवन है ।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती