स्वस्थ जीवन श्रीकृष्ण गोयल स्वस्थ जीवन से अभिप्राय है कि हमारा जीवन चिन्ता, मानसिक तनाव, दु:ख, रोगों से रहित हो, शरीर देदीप...
स्वस्थ जीवन
श्रीकृष्ण गोयल
स्वस्थ जीवन से अभिप्राय है कि हमारा जीवन चिन्ता, मानसिक तनाव, दु:ख, रोगों से रहित हो, शरीर देदीप्यमान हो तथा युवा शक्ति से परिपूरित हो। हमारा अपनी निम्न इच्छाओं, भावनाओं, विचारों पर नियंत्रण हो तथा जीवन दायिनी प्राण शक्ति को संचालन करने की कला हमें आती हो। हमारा चिन्तन, कर्म तथा व्यवहार अहंकार तथा स्वार्थ से रहित हो, हम परमात्मा के लिये कुशलता पूर्वक कर्म करते हुये जीवन जियें। हमारा लक्ष्य है कि प्रत्येक व्यक्ति दिव्य प्रेम का जीवित विग्रह हो, सर्वत्र प्रेम की गंगा प्रवाहित हो।
ऐसा होना पूरी तरह संभव है। वैदिक काल में भारतवासी इसी प्रकार का जीवन जीते थे। अब समय आ गया है, कि हम दिव्यता को पुनर्जीवित करें अन्यथा जीवन भौतिक प्रगति की सुविधाओं के होते हुए भी सम्पूर्णत: अभिशाप बन कर रह जायेगा। जीवन में दिव्यता लाने के लिये हमें अध्यात्मवाद से परिचित होना आवश्यक है।
परमात्मा अनन्त है, समस्त जगत उसी से उत्पन्न होता है, उसी में जीवन लीला करता है तथा उसी में विलीन होकर पुन: पुन: उत्पन्न होता है। मनुष्य परमात्मा का अंश है, उस में परमात्मा की परम शान्ति, आनन्द, असीम शक्ति, गुण, ज्ञान, प्रेम एकता, सौन्दर्य, माधुर्य आदि गुप्त रूप में छिपे पड़े हैं परमात्मा से अपने आपको युक्त करके इन दिव्य गुणों तथा शक्तियों को अपने भीतर धारण करके दिव्य जीवन जी कर मनुष्य सम्पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त कर सकता है। मनुष्य इतनी क्षमता प्राप्त कर सकता है कि वह सदा शान्त, आनन्दित रह कर असीम दिव्य शक्ति से परिपूरित होकर अपना प्रत्येक कर्म कुशलता पूर्वक करता हुआ रोगों से मुक्त होकर प्रेमयुक्त सुखद सम्बन्ध स्थापित करता हुआ अपना जीवन जी सकता है। परमात्मा से युक्त होने पर अहंकार तथा स्वार्थ विदा हो जाते हैं। मनुष्य का काम, क्रोध, मोह,लोभ आदि पर नियन्त्रण हो जाता है तथा वह प्रेम का जीवित विग्रह बन जाता है। ऐसा जीवन दिव्य जीवन कहलाता है। जीवन में प्रेम के फूल विकसित होते हैं, जिन की सुगन्ध से मानवता का कल्याण होता है तथा अन्य व्यक्तियों को भी दिव्य जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है । ऐसा मनुष्य सदा रोगों से मुक्त होकर युवा रहता है, उसे बुढ़ापा आता ही नहीं तथा उस में इच्छानुसार आयु दीर्घ करने की योग्यता आ जाती है। इस लक्ष्य की पूर्ति हेतु कुछ अनुभूत ध्यान की विधियाँ प्रस्तुत की जा रही हैं।
1- ऑंखें धीरे से मून्द ले, परमात्मा से प्रार्थना करें, कि आपका जीवन दिव्य हों, कुछ समय के उपरान्त परमात्मा से प्रार्थना करें कि आपको स्थिर शान्ति प्रदान करें। आराम से प्रतीक्षा करें, दस मिनट में आप का सारा शरीर सिर से पांव तक शान्ति की स्थिर प्रतिमा बन जायेगा, यदि मन में विचार उठें तो उन को आदेश दें कि वे थम जायें, ऐसा करने से विचार रूक जायेंगे। कुछ दिनों के अभ्यास से आप का मन पूरी तरह शान्त हो जायेगा । व्यावहारिक काल में जब मन अशान्त हो तो यही अभ्यास करें। इस प्रकार आप के भीतर गहन तथा स्थिर शान्ति स्थित हो जायेगी, आप बहुत हल्का-फुल्का महसूस करेंगे। जब भी समय मिले, शान्ति का अभ्यास करें। मन की परम शान्ति को चित्तवृति निरोध या समता कहते हैं ।
2- जब मन शान्त हो जाये तो परमात्मा से दिव्य शक्ति के लिये प्रार्थना करें, आप के शरीर में दस मिनट में असीम ऊर्जा आ जायेंगी। आप कभी काम करते थकेंगे नहीं तथा शक्ति से परिपूरित होंगे।
3- शान्ति तथा शक्ति के अभ्यास के उपरान्त प्रकाश का ध्यान करें। परमात्मा से प्रार्थना करें कि आप को दिव्य प्रकाश प्रदान करें। आप को विभिन्न प्रकार के प्रकाशों का अनुभव होगा। प्रकाश के द्वारा आप के सभी प्रकार के विचारों की शुद्धि की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जायेगी। आप के शरीर में दिव्य तेज़ की चमक आ जायेगी।
4- शान्ति, शक्ति, प्रकाश के ध्यान के उपरान्त बिन्दु का ध्यान करें। पिन की नोक के साइज के बिन्दु की अपने माथे के मध्य में कल्पना करें। कुछ दिनों के अभ्यास से बिन्दु की स्थिति दृढ़ हो जायेगी। उस के उपरान्त बिन्दु को सूक्ष्म अति सूक्ष्म करते जायें। असीम दिव्य ऊर्जा उत्पन्न होगी तथा आध्यात्मिक अनुभव होंगे। इस प्रयोग से आप के शरीर की कोशिकायें पुनर्जीवित हो जायेंगी, आप कभी बीमार एवं बूढ़े नहीं होंगे तथा आप में इच्छानुसार जीवन को दीर्घ करने की क्षमता आ जायेगी। किसी भी स्थिति में मृत्यु की इच्छा नहीं करनी है तथा उस से डरना नहीं है।
5- सदा शान्त रहें, कम से कम सार्थक वचन बोलें, अधिक सुनने की कला अपनायें, मन की बोलने की प्रवृत्ति पर संयम रखें, दोष दृष्टि को त्यागें, समस्याओं का उत्साहपूर्वक मुकाबला करें, सत्य का पालन करें। सन्तुलित भोजन सीमित मात्रा में लें।
उपरोक्त ध्यान की विधियों के प्रयोग से तथा नियमों के पालन से आप स्वस्थ जीवन जियें तथा अन्य व्यक्तियों के लिये प्रेरणा स्रोत बनें।
दिव्य जीवन
परमात्मा अनन्त है, मनुष्य परमात्मा का अंश है। परमात्मा के अनन्त गुण, असीम शक्ति, मौलिक ज्ञान, स्थिर शान्ति, आनन्द, प्रेम , सौन्दर्य , माधुर्य , कोमलता, उत्साह, निर्भीकता आदि मनुष्य में छिपे पड़े हैं, इनको जागृत करना, अपने भीतर महसूस करना तथा अपने जीवन में जीना प्रत्येक मनुष्य का धर्म एवम् प्रथम कर्तव्य है । जब तक मनुष्य परमात्मा से युक्त होकर, अहंकार तथा स्वार्थ से मुक्त होकर परमात्मा के लिए अपना जीवन नहीं जीता, तब तक सभी भौतिक सुविधाओं तथा उपलब्धियों के होते हुए भी उसके जीवन में अधूरापन होगा तथा जीवन का सारांश दुख एवम् निराश होगा, जीवन एक बोझ मात्र होगा।
परमात्मा से युक्त होकर जीवन जीने से टेंशन, चिन्ता, दुख, क्रोध, ईर्षा ,द्वेष आदि पूरी तरह समाप्त हो जायेंगे तथा मनुष्य को धीरे-धीरे बीमारी बुढ़ापे पर नियन्त्रण करने की कला आ जायेगी। शरीर सदा स्वस्थ तथा युवा एवम् देदीप्यमान होगा। अन्तत: एक ऐसी स्थिति प्राप्त की जा सकती है कि मनुष्य अपनी इच्छानुसार दीर्घ एवम् स्वस्थ जीवन जीने में सक्षम होगा, शरीर में इतनी शक्ति होगी कि थकावट होगी ही नहीं तथा कम नींद में अधिक शक्ति एवम् विश्राम प्राप्त होगा। मन पूरी तरह शान्त होगा, शरीर में हलकापन महसूस होगा, मनुष्य का अपने विचारों तथा अपनी भावनाओं पर सम्पूर्ण नियन्त्रण होगा, शरीर को गतिशील करने वाली प्राण शक्ति मनुष्य के नियन्त्रण में होगी। मनुष्य अपनी संकल्प शक्ति से स्वयं को रोगों से मुक्त तथा असीम ऊर्जा से युक्त कर सकेगा। ऐसा होना पूरी तरह सम्भव हैं । आवश्यकता है पूर्ण श्रद्धा एवम् विश्वास के साथ समर्पण भाव से सच्ची पुकार द्वारा दिव्य जीवन जीने की कला प्रदान किये जाने की मांग। अभ्यास के लिए एक अनुभूत विधि प्रस्तुत की जा रही है।
आराम से बैठ जायें, ऑंखें धीमें से मूंद लें तथा परमात्मा से प्रार्थना करें कि मेरा जीवन दिव्य हो। कुछ क्षणों के बाद परमात्मा से तीन बार कहें कि मुझे शान्ति प्रदान करो, सिर से लेकर गर्दन तक के भाग को शान्ति की स्थिर मूर्ति महसूस करें। दस मिनट में आप पूरी तरह शान्त हो जायेंगे, उसके उपरान्त सारे शरीर को अपने संकल्प द्वारा शान्त कर लें। कुछ दिनों के अभ्यास के उपरान्त आपको बहुत गहरी शान्ति प्राप्त होगी। व्यवहारिक काल में जब मन असन्तुलित हो, तो यही अभ्यास करें। धीरे-2 एक ऐसी स्थिति आ जायेगी कि आपका मन प्रत्येक अवस्था में सदा शान्त रहेगा। वास्तविक जीवन तब ही आरंभ होता है जब उसका आधार परम शान्ति होती है।
इसके उपरान्त इसी प्रकार शक्ति का अभ्यास करें, आपके शरीर में बहुत ऊर्जा आ जायेगी, आप कभी थकेंगे नहीं। उसके बाद प्रकाश का अभ्यास करें। आप को विभिन्न प्रकार के प्रकाश अपने भीतर दिखाई देंगे। शान्ति, शक्ति तथा प्रकाश के अभ्यास से आपका जीवन दिव्यता की ओर अग्रसर होगा। अपनी निम्न इच्छाओं पर प्रयत्न पूर्वक नियन्त्रण रखें।
ईश्वर की कृपा से हम सभी दिव्य जीवन जियें तथा ऐसा नव विश्व बनाने में सहयोग दें जो शान्ति, आनन्द, शक्ति ,दिव्य प्रेम, एकता, सद्गुणों , यथार्थ ज्ञान, सौन्दर्य , कोमलता माधुर्य पर आधारित हो तथा उसमें मन की नकारात्मक वृत्तियों के लिये कोई स्थान न हो।
योग का वास्तविक स्वरूप
आज योग बहुचर्चित विषय है, सभी व्यक्ति योग से परिचित हैं । कुछ योग आसन कर लेना, प्राणायाम की क्रियायें कर लेना, किसी प्रकार की ध्यान की विधि से कुछ समय के लिये आंशिक शान्ति प्राप्त कर लेना योग नहीं है। ये तो शरीर को कुछ सीमा तक स्वस्थ रखने की विधियां हैं। निस्सन्देह इन प्रक्रियाओं से कुछ लाभ होता है, परन्तु वास्तविक योग नहीं सधता। वास्तविक योग का जीवन में सिद्ध हो जाना महान् क्रान्ति है । योग के वास्तविक स्वरूप से परिचित होने का प्रयत्न किया जा रहा है।
योग का अर्थ है अनन्त परमात्मा से युक्त हो कर उस परमात्मा से स्थिर शान्ति, परम आनन्द, असीम शक्ति, दिव्य गुण, मौलिक ज्ञान, शुध्द प्रेम, एकता, सौन्दर्य, माधुर्य आदि को अपने भीतर धारण करना तथा प्रयत्न कर के दिव्यता को प्रतिपल जीवन में जीना।
वास्तव में हम सभी व्यक्ति परमात्मा का अंश होने के कारण उस से जुड़े हुये है, परन्तु हमें इस तथ्य का अनुभूत ज्ञान नहीं है। इसी अज्ञानता के कारण अहंकार उत्पन्न होता है, जुदेपन की भावना जन्म लेती है तथा मैं और मेरेपन में लिप्त मनुष्य निम्न स्तरीय भौतिक इच्छाओं की पूर्ति में अपनी सारी शक्तियां गंवा देता है। वास्तविक आनन्द तो भीतर है, बाहर के साधन तो जीवन निर्वाह के लिये हैं, उनका स्थान द्वितीय है न कि प्राथमिक। आज अधिकतर व्यक्ति बाहर की दौड़-धूप में लगे हुये हैं, इसी कारण जीवन में असन्तुलन है तथा स्वार्थ, भेदभाव एवम् उन से उत्पन्न चिन्ता, टैंशन, रोग, ईर्ष्या , द्वेष आदि का साम्राज्य है। भौतिक उन्नति के होते हुये भी जीवन में शान्ति , आनन्द, शक्ति, प्रेम, अच्छे सम्बन्ध कहीं भी दिखाई नहीं देते, जो कि गहन चिन्ता का विषय है । योग के द्वारा परमात्मा से युक्त होकर दिव्य जीवन जीकर हमें अपना कल्याण करना चाहिये । इसके लिये दृढ़ संकल्प, आत्मविश्वास, उत्साह, श्रद्धा, गहरी लगन तथा सतत् प्रयास की आवश्यकता है। यदि कुछ मात्रा में व्यक्ति वास्तविक योगमय दिव्य जीवन जीना प्रारंभ कर दें तो इतनी दिव्य ऊर्जा उत्पन्न होगी कि उस का प्रभाव अन्य व्यक्तियों पर भी अवश्य पड़ेगा तथा एक विश्वव्यापी मूक दिव्य क्रान्ति प्रतिफलित हो सकती है । अनुभव के आधार पर दिव्य जीवन जीने की कुछ सरल विधियां प्रस्तुत हैं।
आराम से बैठ जायें अथवा लेट जायें। आंखें धीमे से मूंद लें तथा परमात्मा से प्रार्थना करे कि वे आप को ठोस एवं स्थिर शान्ति प्रदान करें। आराम से प्रतीक्षा करें, लगभग दस मिनट में आप का सारा शरीर सिर से लेकर पांव तक शान्ति की स्थिर प्रतिमा बन जायेगा। आप ने ऐसी शान्ति जीवन मे कभी भी महसूस नहीं की होगी। जैसे-2 अभ्यास बढ़ता जायेगा, शान्ति की गहनता में वृद्धि होगी तथा कम समय में शान्ति प्राप्त होगी। जब भी समय मिले, शान्ति का अभ्यास करें । आप के स्वास्थ्य में आशातीत लाभ होगा। व्यवहारिक काल में जब भी मन असंतुलित हो, यह अभ्यास करें, आप तुरन्त शान्त हो जायेंगे। शान्ति आप का मूल स्वभाव है। अपने मन को प्रयास द्वारा इतना शान्त कर लेना है कि जीवन की घटनाओं तथा व्यक्तियों के व्यवहार का आप पर कोई प्रभाव न पड़े। शान्त होकर पूरी शक्ति तथा लगन एवं समर्पित भाव से परमात्मा की सेवा के रूप में प्रत्येक कर्म करना है, इस प्रकार कर्म करने से बिल्कुल थकावट नहीं होगी, अपितु शक्ति तथा कार्यक्षमता बढेंग़ी। दूसरों से व्यवहार करते हुये भीतर से शान्त रहना है। आन्तरिक शान्ति एक ऐसा दिव्य चुम्बक है जोकि परमात्मा की अनन्त शक्ति, गुण, ज्ञान को अपनी ओर आकर्षित करता है तथा इसके द्वारा मनुष्य के व्यक्तित्व में निरन्तर अवर्णनीय प्रगति होती रहती है जोकि अनुभव का विषय है, स्वास्थ्य में सुधार होता है तथा बुद्धि तीक्ष्ण होती है।
जब मन पूरी तरह शान्त होने लग जाये तो निम्नलिखित दिव्य गुणों का चिन्तन करें तथा अपने भीतर कण-कण में महसूस करें।
आनन्द, असीम शक्ति, प्रेम, एकता, सौन्दर्य, माधुर्य, कोमलता, उत्साह, निर्भीकता अनासक्ति, प्राणिमात्र की सेवा तथा सभी को अपने जैसा समझना।
प्रकाश का ध्यान करें, सूर्य, चन्द्र, अग्नि, ज्योति के ध्यान से भीतर अनन्त प्रकाश उत्पन्न होगा जिस की शक्ति आपको निरन्तर शुद्ध करती जायेगी।
किसी से कोई आशा न रखें, इससे दुख उत्पन्न होता है तथा शक्ति क्षीण होती है, सम्बन्घ खराब होते हैं। जो कुछ हो रहा है, उसको सहर्ष स्वीकार करें, इस से मन शान्त होगा। समस्याओं का उत्साहपूर्वक मुकाबला करें, इस से गुप्त शक्तियां जागृत होती हैं, धीरे-धीरे एक ऐसी स्थिति आ जाती है कि जीवन में समस्यायें रहती ही नहीं अपितु मनुष्य दूसरों की समस्याओं को सुलझाने की योग्यता प्राप्त कर लेता है। ध्यान में इतनी शक्ति है कि इससे मनुष्य देव बन जाता है । ऐसा व्यक्ति अपना ही नहीं अपितु विश्व का कल्याण करने वाला हो जाता है। कम से कम सार्थक बोलें तथा अधिक से अधिक सुनने की कला सीखें। मन की बोलने की प्रवृत्ति को प्रयत्न पूर्वक नियन्त्रण में रखें, दोष दृष्टि को त्यागें। हमारा जीवन परमात्मा की धरोहर है, उसी के लिये जीना वास्तविक योग है।
ईश्वर से प्रार्थना है कि वे हमें दिव्य जीवन जीने की बुद्धि तथा शक्ति दें, हमारा जीवन योगमय हो।
दिव्य स्वास्थ्य
श्री अरविन्द तथा श्री माँ की परम कृपा से उनके परमशक्तिशाली दिव्य वचन प्रस्तुत किए जा रहे हैं जोकि दिव्य स्वास्थ्य प्राप्त करने के सारगर्भित सूत्र हैं।
- शरीर को अवश्य व्यायाम करना चाहिए
- हमारा जीवन नियमित तथा क्रियाशील हो
- पोषक एवं संतुलित भोजन का सेवन किया जाए तथा पूरी निद्रा ली जाए
- अपने आप को दिव्य शक्तियों के प्रति ग्रहणशील रखो
- सदा परमात्मा से युक्त रहने का प्रयत्न करो
- परमात्मा का अनुभव करो तथा स्वयं परमात्मा बनो
- शरीर की बीमारी आंतरिक असन्तुलन की अभिव्यक्ति है। जब तक आंतरिक असन्तुलन का उपचार नहीं होता, बाहर का इलाज सम्पूर्ण तथा स्थायी नहीं हो सकता
शारीरिक कष्ट हमें समता सिखाने के लिए आते हैं तथा हमें जागृत करते हैं कि हमें अपने अनथक प्रयत्नों द्वारा परमात्मा की प्राप्ति के लिए सम्पूर्ण योग का अभ्यास करना चाहिए। सत्य के खोजियों के लिए बीमारी वरदान है तथा अंतत: बीमारी सदा के लिए समाप्त कर दी जा सकती है। हमें रोगों के बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए और उन से कभी डरना नहीं चाहिए। ये आत्मशुध्दि के लिए दिव्य वरदान हैं। 90; स्थितियों में रोग गलत चिंतन तथा झूठी कल्पनाओं के कारण होते हैं। यदि हमारा निम्नस्तरीय इन्द्रियों के सुखों तथा साधारण इच्छाओं पर निमंत्रण नहीं है, तो दिव्य शक्तियां काम नहीं करतीं। मनुष्य का जीवन हमें आत्मनियंत्रण तथा स्वयं पर आधिपत्य के लिए मिला है। हमें बीमारी पर विजय प्राप्त करने के लिए दृढ़ संकल्प शक्ति उत्पन्न करनी चाहिए तथा परमात्मा से सच्ची एवं गहरी प्रार्थना करनी चाहिए कि हमारी कोशिकाओं से रोग दूर भाग जाएँ तथा हमारी कोशिकाएं सम्पूर्णत: स्वस्थ हो जाएं । वास्तव में बीमारी ,बुढ़ापा तथा मृत्यु की अपनी कोई सत्ता नहीं है। हमें अपनी आंतरिक चेतना तथा शरीर की कोशिकाओं की अमरता का अनुभूत ज्ञान नहीं है, इसी कारण हम बीमारी, बुढ़ापे तथा मृत्यु के चंगुल में फंसते हैं । हमने सम्पूर्ण आत्मविश्वास के साथ इनका मुकाबला करना है तथा नियमित प्रयास द्वारा शक्ति तथा दिव्य प्रकाश को सच्ची प्रार्थना से बुलाकर अपने भीतर प्रवेश करना है। ये दिव्य शक्तियां सदा उपलब्ध हैं तथा इस बात की प्रतीक्षा में हैं कि हम उन्हें पुकारें , हमने केवल उनके प्रति अपने आप को खोलना है तथा शान्तिपूर्वक ग्रहणशील होना है। इसके लिए हमें अपने ऊपर सम्पूर्ण नियंत्रण करने की आवश्यकता है । मन की बात करने की प्रवृत्ति पर संयम करना है, दूसरों की आलोचना नहीं करनी है। अपने मानसिक दृष्टिकोण का कभी पक्षपात नहीं करना चाहिये, सभी दृष्टिकोण सापेक्षिक हैं, मानसिक पक्षपात की भावना अज्ञान तथा अहंकार से उपजती है, हमने उसका सम्पूर्णत: नाश करना है। अपनी स्वयं की कड़ी से कड़ी आलोचना करनी चाहिए तथा आत्मशुध्दि का प्रयास निरंतर जारी रखा जाए जोकि कभी ना समाप्त होने वाली जीवन भर की प्रक्रिया है। हमें कहीं भी रूकना नहीं है, आगे ही आगे बढ़ते जाना है। रोग के कीटाणुओं की भांति दिव्यता के कीटाणु भी संक्रमणशील हैं । हमने दिव्यता को अनुभव करना है तथा फूलों की सुगंध की तरह दिव्यता को फैलाना है। हमारा जन्म अपने लिए स्वार्थपूर्ण जीवन जीने के लिए नहीं हुआ है, हमने परमात्मा के लिए जीना है तथा शांत होकर पूरी शक्ति से इस प्रकार कार्य करना है जिससे समस्त मानवता को लाभ हो। हमने अपने भीतर सम्पूर्ण एकता को महसूस करना है तथा जीना है। हमें ऐसे व्यक्तियों तथा उपदेशों से सावधान रहना है जो कि जुदेपन की भावना उत्पन्न करें। सभी प्रकार के विभाजन अज्ञान के कारण उत्पन्न होते हैं। वास्तविक ज्ञान सम्पूर्ण एकता है। सभी प्राणी एक ही दिव्य चेतना के विभिन्न रूप हैं, हमारा कर्तव्य है कि हम सभी को अपना ही रूप समझें, उनसे अपने जैसा प्यार करें। हमने धरती पर दिव्यता स्थापित करने के लिए अग्रदूत बनना है जो कि अन्य व्यक्तियों के लिए प्रेरणा स्रोत हो।
शरीर मन तथा हृदय की सम्पूर्ण स्थिर शांति सभी रोगों को समाप्त करने की दिव्य औषधि है। रोग की चिन्ता करने की बजाए हमें रोग को भगाने के लिए दिव्य शान्ति तथा दिव्य प्रकाश का एकाग्रता के साथ ध्यान करना चाहिए। युवा अवस्था तथा स्वास्थ्य का चिंतन करें, अपने होठों को बिना खोले दूसरे व्यक्तियों का मुस्कान भरे चेहरे से अभिनन्दन करें। दिव्य चेतना में डाक्टरों तथा औषधियों की अपेक्षा अधिक अचूक रोग निवारक शक्ति है, दिव्य चेतना की असीम सर्वशक्तिमत्ता पर सम्पूर्ण विश्वास रखें। दिव्य चेतना के प्रति अपनी ग्रहणशीलता को बढ़ाए। अभ्यास करते-करते एक ऐसी स्थिति आ जाएगी, जब दिव्य चेतना का प्रवेश आपके शरीर में उसी प्रकार सहज हो जाएगा जैसे श्वास प्रक्रिया तथा दिल का धड़कना।
दिव्य स्वास्थ्य का अर्थ है कि हमारा शरीर के सभी अंगों की सम्पादन क्रिया पर नियंत्रण हो, हमें परमात्मा से अनंत दिव्य शक्ति लेने की कला आती हो तथा हमारा बीमारी, बुढ़ापे तथा मृत्यु पर नियंत्रण हो अर्थात हम अपनी इच्छा अनुसार जीवन को दीर्घ कर सके। हमारी परमात्मा से प्रार्थना है कि वे हमें इस दिशा में सहायता करें तथा हमारा मार्गदर्शन करें।
- शान्ति -शान्ति -शान्ति
- एकाग्रता-एकाग्रता-एकाग्रता
- दिव्य -शक्ति का आवाहन
- दिव्य प्रकाश का आवाहन
- ऊँ दिव्यम् - ऊँ दिव्यम् - ऊँ दिव्यम्
दिव्यता के पुष्प
हमें अपनी आत्मा को परमात्मा के प्रति उसी प्रकार खोलना चाहिए जैसे पुष्प सूर्य के प्रति खुले होते हैं। हमें अपनी भीतर की गहराइयों में प्रवेश करके अपनी शुध्द आत्मा का साक्षात्कार करना चाहिए जो कि असीम शान्ति तथा परम आनंद से परिपूरित है। उस के उपरांत हमें अपनी आत्मा को परमात्मा से संयुक्त करना चाहिए जिस में असीम शक्ति, गुण तथा ज्ञान हैं। मनुष्य जीवन का वास्तविक लक्ष्य है कि हम अपने संपूर्ण अस्तित्व को परमात्मा से जोड़कर अपने मन, हृदय तथा शरीर को दिव्य बनाएं। इधर-उधर की अनावश्यक बातें करने, गप्पें हांकने तथा इन्द्रिय उपभोगों की चर्चा करने की बजाय परमात्मा का एकाग्र मन से चिन्तन करना चाहिए। हमें अपने मन, हृदय तथा शरीर की सभी कोशिकाओं को प्रयत्न द्वारा शांत करनें की कला सीखनी चाहिए। स्थिर शांति धरती पर दिव्यता के पुष्प विकसित करने की आधारशिला है। सबसे पहले अपने आपको स्थिर पत्थर की तरह शांत करो, उस के उपरांत दिव्य शक्ति एवम् दिव्य प्रकाश का आवाहन करो तथा परमात्मा की सेवा के रूप में मानवता को दिव्य करने के लिए अधिक से अधिक कार्य करो। इस प्रकार आपका सम्पूर्ण अस्तित्व परमात्मा का दिव्य यंत्र बन जाएगा। आपकी उपस्थिति मात्र से अन्य व्यक्तियों में रूपान्तरण् आएगा तथा दिव्यता पुष्पों की सुगंध की भांति सभी दिशाओं में फैलेगी। प्रत्येक व्यक्ति ने दिव्यता का पुष्प बनना है तथा शान्ति, शक्ति, प्रेम, सौन्दर्य, एकता, दिव्य प्रकाश को सभी दिशाओं में विकसित करना है तथा मन की नकारात्मक वृत्तियों से अपनी रक्षा करनी है। एक छोटे से तिनके से लेकर सूरज तक सभी आपस में जुड़े हुए हैं। हमने इस एकता को अनुभव करना है तथा जीना है। यह एक लम्बी सतत प्रक्रिया है तथा यह दिव्य यात्रा अति सुन्दर एवं आनंदपूर्ण है। जिस क्षण कोई व्यक्ति सत्य के मार्ग पर चलने का संकल्प कर लेता है, दिव्य शक्तियां उसको सहर्ष अपने संरक्षण मे ले लेती हैं। ये दिव्य शक्तियां सदा उन व्यक्तियों की सहायता के लिए तत्पर हैं जो सम्पूर्ण समर्पित भाव से अपने आप को उनके प्रति खोलते हैं। दिव्यता हमारे जीवन की शैली होनी चाहिए। जब कोई व्यक्ति अपने आप को परमात्मा से एकाकार करता है तो परमात्मा उसकी आतंरिक तथा बाध्य सब प्रकार की आवश्यकताओं का ध्यान रखते हैं। हमारा कर्तव्य है कि हम दिव्य मार्ग पर चलते हुए अधिक से अधिक कर्म करें तथा प्रतिपल सर्वांगीण प्रगति करें। जब कोई व्यक्ति परमात्मा के साथ संयुक्त हो जाता है तो उसमें इतनी शक्ति आ जाती है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, वह असीम हो जाता है। हमारा कर्तव्य है कि हम परमपिता परमात्मा से संयुक्त हो जाएं तथा उसकी परम कृपा के लिए गहरी प्रार्थना करें कि सारी मानवता दिव्यता का पुष्प बन जाए। हमने एक ऐसे सुन्दर प्रेमयुक्त, उल्लासपूर्ण युग का निर्माण करना है जो कि पूर्व युगों में कभी नहीं हुआ। विज्ञान की द्रुत गति से प्रगति एक ही बात का संदेश देती है कि दिव्य प्रेम, दिव्य चेतना तथा दिव्य शक्तियों का सर्वतोमुखी निरन्तर प्रगतिशील उत्थान हो। हमने इस दिशा में आगे ही आगे बढ़ते जाना है। परमपिता परमात्मा हमारी रक्षा करें, प्रयत्न हमें करना होगा। हमने केवल अपने लिए ही नहीं जीना है परन्तु परमात्मा के लिए जीना है व विशेषकर मानवता के लिए, जो कि इस समय विज्ञान तथा अध्यात्म में विसंगति के कारण अतिशोचनीय विकट स्थिति में है। दिव्यता ही इस समय की मांग है तथा हमने दिव्यता का आश्रय लेकर विज्ञान तथा अध्यात्म को प्रणय के सूत्र मे बांधना है। आध्यात्म तथा विज्ञान अर्थात आंतरिक तथा बाह्य एक ही परमात्मा की अभिव्यक्तियां हैं। हमने अहंकार तथा आपसी विभाजन की प्रवृत्ति को सम्पूर्णत: समाप्त करना है तथा प्रत्येक प्राणी से प्रेम से युक्त होकर जीवन जीना है। केवल प्रेमपूर्वक जीवन जीना ही धरती पर दिव्यता के पुष्प विकसित करने का मार्ग है।
हमारी परमपिता परमात्मा से प्रार्थना है कि वे हम पर कृपा करें तथा हमें सदा प्रेरित करते रहें कि हम एकाग्रता का अभ्यास करें, परमतत्व का ध्यान करें, दिव्य शक्ति तथा दिव्य प्रकाश का आवाहन करें तथा सर्वोपरि एकता तथा प्रेम को अनुभव करें एवं जियें तथा उन सभी छुद्र सीमाओं को तोड़ें जो जुदापन तथा आपसी संघर्ष उत्पन्न करती हैं। प्रेम तथा एकता ही हमारे जीवन का नारा तथा लक्ष्य हो।
ऊँ दिव्यम् - ऊँ दिव्यम् - ऊँ दिव्यम्
ऊँ एकम् - ऊँ एकम् - ऊँ एकम्
दिव्य एकता
एकाग्र होकर प्रभु का चिन्तन करें, परमात्मा से एकता स्थापित करें। आप परमात्मा-स्वरूप हो जायेंगे तथा आप के भीतर परमात्मा की दिव्य चेतना, समता तथा प्रेम का विकास होगा।
चेतना के जागृत होने पर मौलिक ज्ञान, असीम शक्ति, आन्तरिक तप, ठोस प्रकाश मनुष्य में विकसित होने लग जाते हैं। सारा संसार दिव्य चेतना की असीम शक्तियों के सहारे ईश्वरीय नियम के आधीन कार्य कर रहा है जो कि निरन्तर प्रगतिशील हैं तथा विभिन्न रूपों में चेतना की नित्य नूतन अभिव्यक्ति हो रही है। परमात्मा के साथ संयुक्त होकर हम असीम शक्ति, दिव्य गुण तथा मौलिक ज्ञान प्राप्त करके अपने जीवन को विभूषित कर सकते हैं। इस लक्ष्य हेतु हमें आन्तरिक तथा बाह्य परम शान्ति का एकाग्रता पूर्ण ध्यान करना होगा।
हमारे विचारों, भावनाओं, इच्छाओं संवेगों तथा शरीर की कोशिकाओं में स्थिर शान्ति होनी चाहिये। इस के लिये एक सरल तथा प्रभावात्मक अभ्यास अपस्थित है।
अपनी आंखों को धीमे से मून्द लें तथा परमात्मा से प्रार्थना करें कि वे आप को घनीभूत स्थिर शान्ति प्रदान करें। आप ऐसा महसूस करें कि आप का शरीर स्थिर शान्ति की पत्थर की प्रतिमा बन गया है तथा आराम से बैठ जायें, यदि मन में कोई विचार उठ रहे हैं तो उन्हें आदेश दे दें कि वें शान्त हो जायें। लगभग दस मिनट में आप को बहुत गहरी शान्ति महसूस होगी, शान्ति दिव्यता की आधारशिला है। शान्त होने पर आप को असीम दिव्य शक्ति, गुण, मौलिक ज्ञान प्राप्त होने प्रारंभ हो जायेंगे जो कि निरन्तर प्रगतिशील प्रक्रिया हैं। हमने पूरी तरह शांत होकर अघिक से अधिक कार्य स्फूर्ति से करना हैं। इस प्रकार हमें कभी थकावट नहीं होगी तथा हम परमात्मा के दिव्य यन्त्र बन जायेंगे तथा निरन्तर प्रगति हेतु कार्यरत रहेंगे तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नये रिकार्ड स्थापित करेंगे जोकि अन्य व्यक्तियों के लिये प्रेरणा स्रोत होगा।
इस प्रकार मानवता में निरन्तर प्रगतिशील की नवीन मूक क्रान्ति लाई जा सकती है तथा सभी के चेहरों पर दैदीप्यमान मुस्कुराहट होगी जो कि आज के भोग प्रधान युग में कहीं भी दिखाई नहीं देती। हम सब ने दिव्यता के समुद्र मे गहरा गोता लगाना है तथा दिव्यता के रत्न बिखेरने हैं। आज स्थिति ऐसी है कि धरती निवासी मनुष्य अज्ञान तथा अहंकार के कारण दुर्गन्ध पूर्ण हो गया है , हम ने दिव्यता की सुगन्ध सभी दिशाओं में प्रसारित करनी है। हमारा कर्तव्य बनता है कि हम जात-पात, धर्म , पार्टी-बाजी, भाषा, राष्ट्रीयता आदि की क्षुद्र सीमाओं से ऊपर उठें तथा दिव्य एकता को महसूस करें, धारण करें तथा जियें।
समता का अर्थ है हर स्थिति में शान्त रहना। जीवन की घटनाओं तथा दूसरे व्यक्तिओं के व्यवहार का हमारे मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। यह सर्वमान्य सत्य है कि जीवन की घटनाओं को तथा अन्य व्यक्तिओं के व्यवहार को हम बदल नहीं सकते। प्रयत्न पूर्वक समता का अभ्यास कर के हम अपने आप को अप्रभावित रख सकते हैं। समता कोई निष्प्राण शून्य स्थिति नहीं है, इसमें असीम दिव्य शक्ति है जो मनुष्य को सदा अधिक से अधिक कर्म करने की प्रेरणा देती है। समता दिव्यता का सारांश एवं सुस्थिर आधार है । हमें सदा एकाग्रता पूर्वक समता का ध्यान करना चाहिए तथा ऐसी प्रवीणता प्राप्त करनी चाहिये कि समता हमारे जीवन का अभिन्न तत्व बन जाये। समता में असीम अवर्णनीय शक्ति है, यह जीवन की सभी कठिनाइओं पर विजय प्राप्त कर के जीवन को दिव्य बना सकती है । हमने स्थिर शान्ति के सिंहासन पर शोभायमान होकर अपने सभी कर्म आनन्द पूर्वक चुस्ती के साथ करने हैं। परमात्मा सदा हमारे साथ हैं। हम ने तो पूरी शक्ति तथा आन्तरिक गहराई के साथ केवल उन को पुकारना है।
प्रेम परमात्मा की सबसे प्रथम अभिव्यक्ति है। सारा विश्व शुद्ध प्रेम की आधारशिला पर स्थित होकर कार्यरत है। बड़े खेद की बात है कि मनुष्य प्रेम करना भूल गया है जबकि सम्पूर्ण प्रकृति सदा प्रेम में लीन होकर अपनी निष्काम सेवा से दिव्यता को सभी दिशाओं में बिखेर रही है। हम ने अपनी भूल का सुधार करना है तथा धरती को दिव्य बनाना है।
सभी प्राणियों से उत्तम होते हुये भी मनुष्य क्यों प्रेम करना भूल गया है। भगवान ने मनुष्य को मन प्रदान किया है जोकि सोच सकता है, विश्लेषण कर सकता है, वाद-विवाद कर सकता है परन्तु इस में एक त्रुटि है कि यह जोड़ने की बजाये तोड़ता है। इस मनोवृत्ति से अहंकार उपजता है, जिसके परिणामस्वरूप अपने आप को सबसे उत्तम समझने की भावना जन्म लेती है तथा मनुष्य अपनी विचारधारा दूसरों के ऊपर थोपने का प्रयत्न करता है। इसके अतिरिक्त मन बाह्यगामी हो गया जबकि वास्तविक स्थिति यह है कि उसे अन्तर्गामी होकर अपने मूल स्रोत परमात्मा से युक्त होकर सभी संसारिक कार्य करने चाहिये। मन ऐन्द्रीय इच्छाओं की पूर्ति में प्रसन्नता ढ़ूंढ़ता है। इच्छायें अनंत हैं तथा इनकी पूर्ति से प्राप्त प्रसन्नता क्षणिक है । इस भांन्ति मनुष्य अपना सारा जीवन निरर्थक गंवा देता है। एक व्यक्ति के अच्छे या बुरे कर्मों का प्रभाव समस्त विश्व पर पड़ता है, कारण कि हम सब जुड़े हुये हैं। वर्तमान स्थिति में जब मानवता की अधिक संख्या अज्ञान के कारण गलत दिशा में चल रही है, सत्य के खोजियों का सर्वोपरि कर्तव्य बनता है कि वे दृढ़ संकल्प तथा अनथक प्रयासों द्वारा सच्ची लगन एवं धैर्य से अपने जीवन में सत्य तथा प्रेम के दीपक प्रज्वलित करें जिस से अज्ञान का अंधकार दूर हो जाये ।
सत्य में असीम शक्ति है, वह किसी भी प्रचार के बिना अपना काम शान्ति पूर्वक करता रहता है। इसी क्षण से हम ने सत्य तथा प्रेम के दिव्य मार्ग पर चलना है , यही समय की मांग है। सच्चे दिल से सत्य का चिन्तन करें तथा प्रेमपूर्वक जीवन जियें। प्रेम हमारा मौलिक स्वभाव है, यह किसी भी चीज़ पर आश्रित नहीं है, इस की अपनी मौलिक सत्ता है। प्रेम एक दिव्य प्रवाह है, यह किसी प्रतिफल का आकांक्षी नहीं है । यह सूर्य की भांति सभी को अपना प्रकाश तथा ऊर्जा प्रदान करता है । प्रेम को प्राप्त करना तथा इस को प्रसारित करना बहुत सरल हैं । परमात्मा से सच्चे हृदय से शान्त भाव से गहरी प्रार्थना करें कि वे आप के जीवन में प्रेम की सुरभि उत्पन्न कर दें। इतनी सी बात है, शेष सब कुछ परमात्मा संभाल लेंगे। सभी दिशाओं से शान्ति तथा प्रेम को अपने भीतर समाहित करें, धीरे-धीरे आप दिव्यता के घनीभूत केन्द्र बन जायेंगें तथा अन्य व्यक्ति आप की ओर आकर्षित होने लग जायेंगें। इस प्रकार दिव्यता की मूक क्रान्ति प्रारंभ हो जायेगीं, अन्तत: समूची पृथ्वी प्रेम का दिव्य जीवित विग्रह बन जायेगी तथा देवताओं को भी धरती पर आने के लिये बाघ्य कर देगी।
हमें सदा दिव्य चेतना, शुध्द प्रेम तथा एकता का शान्त भाव से एकाग्रता सहित ध्यान करना चाहिये । परमात्मा इस दिव्य क्रान्ति में सदा हमारे साथ हैं।
वास्तविक योग
योग का अर्थ है जुड़ना। वास्तव में सारा ब्रह्माण्ड एक इकाई है तथा सब कुछ आपस में दृढ़ता से जुड़ा हुआ है, हमें इस तथ्य का अनुभूत ज्ञान नहीं हैं। योग का ठीक लक्ष्य ही यह है कि इस एकता को महसूस किया जाये, इसे जिया जाये तथा यह अनुभव हमारा सहज स्वभाव बन जाये। कुछ आसन कर लेना, प्राणायाम कर लेना, किसी विधि से ध्यान कर लेना वास्तविक योग नहीं है। निस्सन्देह इनसे स्वास्थ्य लाभ होता है तथा आंशिक शान्ति प्राप्त होती है, परन्तु इतना ही काफी नहीं है।
आदिकाल से सत्य के खोजियों ने इस एकता का अनुभव किया है तथा इसे जिया भी है। उन महापुरुषों ने अपना दिव्य अनुभव मानवता को प्रदान किया है ताकि योग के नियमों का अनुपालन कर के धरती के जीवन को दिव्य बनाया जा सके। इस लेख के माध्यम से हम अपने आप को योग की विधियों तथा सिध्दान्तों से परिचित करने का प्रयास करेंगें, जिन से हमें योगमय जीवन जीने का मार्गदर्शन प्राप्त हो तथा उसके परिणाम स्वरूप इस धरती पर परम शान्ति, आनन्द, असीम शक्ति, प्रकाश, प्रेम, एकता, सौन्दर्य, मानवीय मूल्य, देदीप्यमान युवा स्वास्थ्य का साम्राज्य हो तो परिवारों, समाज, राष्ट्र तथा समस्त विश्व में प्रेम भरे सुखद सम्बन्ध हों तथा भय, दु:ख, चिन्ता, द्वेष, घृणा आदि किसी भी नकारात्मक वृत्ति के लिये कोई स्थान न हो।
मनुष्य में दिव्यता की सम्भावना विद्यमान है , सभी दिव्य गुण उसके भीतर सुप्त अवस्था में पड़े हैं। दृढ़ संकल्प , सच्ची लगन तथा गहरी पुकार से हम परमात्मा की ओर अभिमुख होकर अपने भीतर दिव्य गुण तथा दिव्य शक्तियां जागृत कर सकते हैं। मनुष्य जैसा सोचता है, वैसा ही बन जाता है। हमारे विचारों में बहुत शक्ति है, विचार मनुष्यों से भी अधिक शक्तिशाली तथा प्रभावात्मक हैं। हमें एकाग्र होकर शान्त भाव से दिव्य गुणों का सतत चिन्तन करना चाहिये। अभ्यास के द्वारा ये दिव्य गुण हमारे भीतर विकसित होने लग जायेंगे। हमारे वायुमंडल में विभिन्न प्रकार की अनन्त दिव्य आत्मायें विद्यमान है जिनका हमें बोध नहीं है। एकाग्रता तथा ध्यान के द्वारा हम इन दिव्य आत्माओं से अपनी आध्यात्मिक प्रगति के लिये सहायता, शक्ति तथा मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं। हमें आध्यात्मिक साधना के लिये कुछ समय अवश्य निकालना चाहिये। योग एक प्रयोगात्मक व्यावहारिक साधना प्रणाली है जिस का अभ्यास प्रतिदिन नियमपूर्वक अधिक से अधिक करना चाहिये। शास्त्रों के अध्ययन का अभिप्राय है कि उन को समझकर अभ्यास किया जाये तथा एकाग्रता द्वारा दिव्य गुणों को अपने भीतर दृढ़ता से धारण करके प्रयत्न से उन्हें व्यावहारिक जीवन में जीना है, तभी शास्त्रों के अध्ययन की सार्थकता है । यदि किसी व्यक्ति को ध्यान के समय शान्ति महसूस होती है, तो वह शान्ति प्रत्येक स्थिति में उस के जीवन का अभिन्न अंग बन जानी चाहिये। योग की आधारशिला है भीतरी तथा बाह्य स्थिर शान्ति। शान्ति को प्राप्त करने के उपरान्त मनुष्य के आनन्दमय क्रियाशील जीवन की यात्रा प्रारंभ होेती है।
मनुष्य अनन्त परमात्मा का अंश है, उस में असीम दिव्य शक्ति ,दिव्य गुण तथा मौलिक दिव्य ज्ञान गुप्त अवस्था में सुप्त पड़े हैं। हमने उनको जागृत करके अभिव्यक्त करना हैं। बहुत सरल तथा प्रभावात्मक विधियां प्रस्तुत की जा रही हैं।
स्थिर घनीभूत शान्ति:-
अपनी आंखों को धीमे से मून्द लें, परमात्मा से प्रार्थना करें कि आप का जीवन दिव्य हो तथा अपने मन में पूरी शक्ति से तीन बार शान्ति, शान्ति, शान्ति कहें। उसके उपरान्त ऐसा महसूस करें कि सिर से लेकर गर्दन तक का भाग स्थिर शान्ति की पत्थर की प्रतिमा बन गया है। इस स्थिति में दस मिनट रहें। आप को बहुत गहरी शांति महसूस होगी जोकि आप ने पहले कभी नहीं महसूस की होगी। उस के उपरान्त पांच मिनट के लिए गले से लेकर छाती के बीच के भाग तक उसी प्रकार स्थिर शान्ति अनुभव करें । उस के बाद छाती से लेकर पेट के निचले भाग तक पांच मिनट के लिए उसी प्रकार स्थिर शान्ति महसूस करें। बीस मिनट के अभ्यास से आप का सारा शरीर शान्ति की स्थिर प्रतिमा बन जायेगा। तब अपनी दोनों हथेलियों को अपनी आंखों पर रखें, ऑंखें खोलें तथा बिना होंट खोले चेहरे पर मुस्कराहट लायें । जब कभी मन असंतुलित हो, शान्ति का यह अभ्यास कुछ क्षणों के लिये करें, आप तुरन्त शान्त तथा हलके-फुलके हो जायेंगें
घ्यान :-
स्थिर शान्ति वास्तविक योग की आधारशिला है, अगला कदम है ध्यान करना। ध्यान का अर्थ है कि शान्त होकर किसी भाव/ विचार के बारे में गहराई से बार-बार निरन्तर चिन्तन किया जायें। ध्यान का वास्तविक लक्ष्य है कि परमात्मा का चिन्तन कर के दिव्य गुण, तथा दिव्य शक्तियां प्राप्त की जायें। सतत अभ्यास के परिणाम स्वरूप मनुष्य सदा परमात्मा से युक्त रहता है तथा दिव्य गुण, शक्ति एवम् मौलिक ज्ञान उस में धीरे-धीरे अवतरित होने लग जाते हैं। हमने सभी दिव्य गुणों को विकसित करना है जैसे शान्ति, आनन्द, प्रेम, एकता, सौन्दर्य, कोमलता माधुर्य, लयबध्दता, उत्साह, निर्भीकता, कर्म कुशलता आदि आदि।
एकाग्रता :-
ध्यान के उपरान्त एकाग्रता का स्थान है। एकाग्रता द्वारा मनुष्य को आत्मा का बोध प्राप्त होता है तथा परम शान्ति एवम् आनन्द का लाभ होता है। मनुष्य एकाग्रता द्वारा परमात्मा से एकाकार होकर दिव्य शक्तियों को प्राप्त कर सकता है। एकाग्रता का अभ्यास इस प्रकार करें।
कृपया अपनी आंखों को धीमें से मून्द ले, शरीर को पूरी तरह शान्त कर लें तथा उसके उपरान्त कल्पना करें कि आप की छाती के मध्य में या माथे के मघ्य में बारीक सुई पिन फिट हुआ हुआ है तथा अपने ध्यान को पिन की नोक पर केन्द्रित करें। जब कभी मन कल्पित सुई पिन की नोक से परे हट जाये, उस को पुन: वहाँ ले आयें । कुछ दिनों के प्रयत्न पूर्वक अभ्यास से आप की एकाग्रता स्थिर होने लग जायेगी।
मन की एकाग्रता से काम अच्छी प्रकार कम समय में हो जाता है तथा समय की बचत होती है । बचे हुये समय का सदुपयोग करके आत्मशुध्दि की जा सकती है तथा सर्वांगीण प्रगति के पथ पर अग्रसर हुआ जा सकता है।
- शान्ति - शान्ति - शान्ति
- ध्यान - ध्यान - ध्यान
- एकाग्रता - एकाग्रता - एकाग्रता
- दिव्य कृपा का आवाहन
- दिव्य शक्ति का आवाहन
- दिव्य प्रकाश का आवाहन
- दिव्य गुणों का आवाहन
दिव्यता का वाहक बनें तथा धरती पर दिव्यता को स्थापित करें। अहंकार तथा आसक्ति को त्याग कर निष्काम भाव से जीवन को दिव्य बनायें तथा परमात्मा के लिये जियें तथा काम करें।
रात को सोने से पहले ध्यान तथा एकाग्रता का अभ्यास करना चाहिये, इस से निद्रा की गुणवत्ता में सुधार आयेगा। कम नींद में अधिक विश्राम, तरोताज़गी तथा शक्ति प्राप्त होगी। स्वास्थ्य तथा कार्यक्षमता में वृध्दि होगी। तनाव, चिन्ता,भय तथा मन की नकारात्मक वृत्तियां समाप्त हो जायेंगी। ध्यान द्वारा मनुष्य परमात्मा का दिव्य वाहन बन जाता है तथा धरती पर दिव्यता का प्रसार करता है। जब भी समय मिले, उस समय इधर-उधर की बातें करने की बजाये या व्यर्थ चिन्तन करने की अपेक्षा ध्यान तथा एकाग्रता के अभ्यास द्वारा परमात्मा का चिन्तन किया जाये, उससे जीवन की समस्त समस्याओं के समाधान की शक्ति तथा बुध्दि प्राप्त होगी। मन की बातें करने की तथा आलोचना करने की प्रवृत्ति पर प्रयत्न द्वारा नियन्त्रण किया जाये । अहंकार तथा आसक्ति आप को स्पर्श न कर पायें। सदा विनम्र रहें तथा मधुभाषी बनने का प्रयास करें, सर्वतोमुखी प्रगति के पथ पर अग्रसर रहें। हमने असीम परमात्मा से युक्त होकर आन्तरिक तथा बाह्य दोनों क्षेत्रों में प्रगति करनी है। प्रत्येक व्यक्ति ने दिव्य होकर धरती पर दिव्यता का साम्राज्य स्थापित करना है। सारा जीवन ही योग है तथा हम ने दिव्यता में स्नान करना है। परम पिता परमात्मा से प्रार्थना है कि वे हमें सच्चे योगी बनने की क्षमता प्रदान करें ताकि हम धरती को दिव्य बनाने में अधिक से अधिक योगदान प्रदान कर सकें।
दिव्यता के तारे
वैज्ञानिकों के अनुसार हमारे शरीर में 100 ट्रिलियन ;100,000,000,000,000ध्द कोशिकाएं हैं। कोशिका हमारे शरीर की सबसे छोटी जीवित इकाई है जो कि स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकती है तथा अन्य कोशिकाओं से मिल कर भी कार्य कर सकती है। मां श्री के अनुसार शरीर की कोशिकाओं की चेतना में एकाग्रता होती है। जब तक शरीर की कोशिकाओं की चेतना की एकाग्रता बनी रहती है, शरीर जीवित रहता है तथा जब चेतना की एकाग्रता टूट जाती है तो शरीर की मृत्यु हो जाती है। यह एक स्वाभाविक प्राकृतिक प्रक्रिया है। शरीर की कोशिकाओं के योग के द्वारा चेतना की एकाग्रता की सहज प्रकृति पर नियंत्रण किया जा सकता है एवम् मनुष्य इच्छा अनुसार स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन जी सकता है, तथा अपनी इच्छा अनुसार जीवन को दीर्घ कर सकता है। इसके लिए कोशिकओं की चेतना की एकाग्रता के सूक्ष्म योग के अभ्यास की आवश्यकता है, जिसकी हमने गहन अभ्यास के उपरांत शोध की है। इसके परिणामस्वरूप कोशिकाएं शुध्द हो जाती हैं तथा कोशिकाओं को अपनी मौलिक अमरता प्राप्त हो जाती है। उसके परिणाम स्वरूप मनुष्य बीमारी, बुढ़ापे तथा मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकता है। शरीर की बुढ़ापे की प्रक्रिया को जवानी में बदला जा सकता है तथा देदीप्यमान युवा स्वास्थ्य प्राप्त किया जा सकता है।
हमें भूतकाल से आसक्ति नहीं करनी चाहिए, भूतकाल की उपलब्धियां हमें भविष्य में प्रगति करने के लिए प्रेरणीय होनी चाहिएं। अध्यात्म में सतत प्रगति की आवश्यकता है परन्तु दुर्भाग्य की बात है कि हम भूतकाल से चिपटे हुए है, जिसके परिणामस्वरूप एक शोचनीय विकट स्थिति उत्पन्न हो गई है। जिस प्रकार वैज्ञानिक पदार्थ पर खोज कर रहे हैं, उसी प्रकार अध्यात्म के क्षेत्र में सत्य के खोजियों को निरन्तर खोज करनी चाहिए तथा सुप्त दिव्यता को असीम मात्रा में जागृत करना चाहिए। भूतकाल की उपलब्धियों के यशोगान करने से या उनका अनुसरण करने से कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। हमें आन्तरिक तथा वाह्य दोनों क्षेत्रों में प्रगति करनी चाहिए तथा उनका सामन्जस्य स्थापित करना चाहिए, दोनों ही परम चेतना की अभिव्यक्ति हैं।
प्रगति का चिन्तन करें। बिना किसी भय तथा शंका के प्रगति की ऊंची उड़ान की कल्पना करें। वे व्यक्ति सौभाग्यशाली होते हैं जो कि सुनहरे भविष्य की कल्पना करते हैं। विश्राम करने की वृत्ति बहुत ही घातक है। उज्जवल भविष्य का अपने मस्तिष्क में सृजन करें, एकाग्रता से उस का चिन्तन करें तथा महसूस करें कि आपकी कल्पना साकार हो रही है। ऐसा करने से आपकी चेतना प्रगति की दिव्य शक्तियों से संयुक्त हो जायेगी तथा आप को अपना लक्ष्य साकार करने की बुध्दिमता तथा शक्ति प्राप्त होगी।
वर्तमान की उज्जवल कल्पनायें भविष्य में साकार होती हैं। पारितोषिक की प्रतीक्षा किये बिना कठोर परिश्रम जारी रखें। परिश्रम का फल प्रचुर मात्रा में आपकी आशाओं तथा कल्पनाओं से कहीं अधिक अवश्य मिलेगा, परन्तु कब मिलेगा, ऐसा किसी को मालूम नहीं है। मनुष्य को अपनी सफलता में अचूक तथा दृढ़ विश्वास रखना चाहिये तथा धैर्य से प्रतीक्षारत रहना चाहिये । सब से महत्वपूर्ण बात है कि मनुष्य को अपने कर्म में अधिक से अधिक आनन्द लेना चाहिये जो कि सर्वोत्तम पुरस्कार है। मनुष्य का जीवन निरर्थक क्रियाकलापों में व्यस्त रहने के लिये तथा अहंकार जनित इच्छाओं की पूर्ति के लिये नहीं प्राप्त हुआ है। सदा एकाग्रता से प्रभु का चिन्तन करें, उस की महती कृपा का आवाहन करें, परम पिता परमात्मा आप को अपनी संरक्षक भुजाओं में ले लेगें। परमात्मा तथा उस की सृष्टि से संयुक्त होना जीवन का परम लक्ष्य है। मनुष्य परमात्मा का अंश होने के कारण असीम दिव्य सम्भावनायें अपने भीतर संजोये हुये है। मनुष्य का परम धर्म है दिव्यता को साकार करना । हमें अपनी दिव्यता का तथा परमात्मा से अभिन्नता का अनुभूत ज्ञान नहीं हैं। अज्ञान के कारण मनुष्य अपने आप को दूसरों से भिन्न समझता है जो कि सब से बड़ी भूल तथा मूर्खता है, इसके फलस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि संसार उस के अनुरूप चले, जो कि पूर्णत: असम्भव है। वास्तविक दृष्टिकोण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को दिव्य असीम परमात्मा का छोटा सा चमकने वाला तारा समझे तथा परमात्मा के चिन्तन द्वारा उससे युक्त होकर दिव्य प्रकाश का प्रसार करे। अज्ञान के कारण हमने अपने आप को अपने मन तथा शरीर से संयुक्त कर लिया है तथा अपने आपको शरीर तथा मन के संबन्धों तथा वस्तुओं का गुलाम बना लिया है, जब कि परमात्मा से संयुक्त होकर हम अपने स्वामी बन सकते हैं तथा दिव्य शक्तियों के अग्रदूत होकर अपना जीवन प्रभु की सेवा में समर्पित कर के नव विश्व का निर्माण करने में प्रमुख भूमिका निभा सकते हैं। अज्ञान की अवस्था में मनुष्य सुख तथा दु:ख के द्वन्दों में जीता है, परमात्मा से संयुक्त होकर परम आनन्द, शान्ति, शक्ति तथा अन्य दिव्य गुण प्राप्त किये जा सकते हैं। परमात्मा के साथ संयुक्त होने के लिये हमारे भीतर सच्ची लगन तथा गहरी पुकार होनी चाहिये, सदा मन को एकाग्र कर के परमात्मा का ध्यान करना चाहिये। अपने समय का सदुपयोग करना चाहिये तथा बाह्य गतिविधियों से बचना चाहिये, जिन से चेतना की अधोगति होती है। हमें सदा प्रेम एवं उत्साह के साथ दिव्य गुण जैसे स्थिर शान्ति, शक्ति, प्रकाश, आनन्द, एकता, प्रेम, सौन्दर्य आदि का ध्यान करना चाहिये तथा धरती को दिव्य बनाने के लिये भरसक प्रयत्न करना चाहिये।
परम पिता परमात्मा हम पर कृपा करें ताकि हम धरती माता को दिव्यता के तारों से प्रकाशित कर सकें। हमें अज्ञान तथा असत्य को दूर करने के लिये सूर्य, चाँद, तारों तथा अग्नि का ध्यान करना चाहिये। धरती पर सत्य तथा प्रेम का साम्राज्य हो, यही हमारी एक मात्र कामना है।
भ्रष्टाचार से मुक्ति
भ्रष्टाचार का शाब्दिक अर्थ है आचरण का भ्रष्ट हो जाना। मनुष्य का आचरण तब भ्रष्ट होता हैं, जब उसकी बुध्दि विपरीत होती है। मुनष्य की बुध्दि तब विपरीत होती है जब उस का सम्पर्क परमात्मा से टूट जाता है। परमात्मा से विमुख होने के उपरान्त मनुष्य का निरन्तर पतन होता जाता है, वह अपना ही शत्रु बन जाता है तथा उस का जीवन निरर्थक एवं भारमय बन जाता है। वह झूठी आत्मतृप्ति में जीता है, विपरीत बुध्दि वाले भ्रष्टाचार में रत मनुष्य के कर्मों को जानने का प्रयत्न करें ताकि उन से बचा जा सके।
ऐसा मनुष्य परमात्मा के अज्ञान के कारण अहंकार का शिकार होता है, अपनी सारी ऊर्जा अहंकार की तृप्ति, स्वार्थ तथा अहंकार से उत्पन्न इच्छाओं की पूर्ति में व्यय कर देता है। अपने को सब से बुध्दिमान तथा महान् समझता हैं। ऐन्द्रिय उपभोग तथा बाह्य जीवन ही उस के लिये सब कुछ हैं। नैतिक मूल्य, चरित्र, आन्तरिक गुण, देश प्रेम तथा मानवता उसके लिये कोई अर्थ नहीं रखते। ऐसा अशोभनीय आचारण होने के कारण अज्ञानी मनुष्य मानसिक तनाव, चिन्ता, बेचैनी तथा दु:खों से पीड़ित रहता हैं, उस को पता ही नहीं कि जीवन में सच्चा प्रेम क्या होता है। ईर्षा, द्वेष, भेदभाव, जुदेपन की भावना तथा अपने स्वार्थ की सिध्दि के लिये लोगों में फूट डालना ऐसे मनुष्य का स्वाभाविक कर्म बन जाता है। यदि देखा जाये तो वर्तमान सन्दर्भ में अधिकतर व्यक्ति अज्ञान के कारण भ्रष्टाचार के चुंगल में फंसे हुये हैं। आज स्वतन्त्रता के उपरान्त निस्सन्देह भारत ने भौतिक प्रगति की है, परन्तु नैतिक मूल्यों का पतन हुआ है। बहुत सुधार की आवश्यकता है। जिस वर्गरहित सर्वांगीन समृध्द प्रेमयुक्त देशभक्त भारत के लिये स्वतन्त्रता के सैनानियों ने अपने जीवनों का बलिदान दिया था, ऐसे भारत को जन्म देने के लिये हमें देश हित के लिये संकल्पबध्द होकर अहंकार, स्वार्थ एवं तुच्छ ऐन्द्रीय सुखों को त्याग कर पूरी लगन से प्रयास करने की घोर आवश्यकता है। उसके लिये हमें अनन्त परमात्मा से युक्त होकर स्थिर शान्ति, परम आनन्द, असीम शाक्ति, दिव्य गुण, ज्ञान, सौन्दर्य, माधुर्य, प्रेम, उत्साह, देश भक्ति प्राप्त करके दिन रात देश के लिये तथा मानवता के लिये प्रयत्न करने की आवश्यकता है। यद्यपि यह कर्तव्य सभी का है, तथापि यथा राजा तथा प्रजा की उक्ति के अनुसार इस की सर्वाधिक जिम्मेदारी राजनेताओं पर है। यदि वे अपनी राजगद्दी तथा स्वार्थ की बजाये देश हित का चिन्तन करें तथा सभी राजनैतिक पार्टियां मिल कर प्रेम पूर्वक काम करें तो अतिशीघ्र देश का स्वरूप बदला जा सकता है । लोगों में भेदभाव तथा फूट डालने की बजाय आपसी प्रेम का मार्ग अपनाने की आवश्यकता है। यदि वर्तमान नेता ठीक मार्ग नहीं अपनाते तो भारत माता उन को क्षमा नहीं करेंगी, अन्य कल्याणकारी शक्तियाँ उनका स्थान ले लेंगी। यह सुनिश्चित है कि भारत ने आध्यात्मिक प्रगति करनी है तथा विश्व गुरू बनना है। भविष्य में दिव्य प्रेम का साम्राज्य होगा, सारा विश्व एक परिवार होगा। इस दिशा में मिल कर हम सबने काम करना है तथा भ्रष्टाचार से मुक्त होकर प्रेम से युक्त होकर जीवन जीना है।
वैज्ञानिक प्रगति ने हमें बहुत निकट ला दिया है, यदि वास्तविक दिव्य योग द्वारा अध्यात्म को विज्ञान से जोड़ दिया जाए तो स्वर्णिम युग लाया जा सकता है तथा ऐसा करने में आध्यात्मिक पृष्ठभूमि होने के कारण भारत ही सक्षम है । जीवन में आध्यात्मिक पुष्प विकसित करने के लिये कुछ सूत्रों की चर्चा की जा रही हैं।
निम्नलिखित दिव्य गुणों का चिन्तन करें, उन्हें प्रयत्नपूर्वक अपने भीतर महसूस करें, धारण करें तथा भरसक प्रयत्न से अपने जीवन में जियें।
स्थिर शान्ति, परम आनन्द, असीम शक्ति, प्रेम, एकता, देश भक्ति, सौन्दर्य, माधुर्य, प्रकाश देदीप्यमान युवा स्वास्थ्य, मानवता से प्रेम आदि-आदि।
कृपया याद रखें कि स्थिर शान्ति प्राप्त होने के उपरान्त मनुष्य दिव्य गुणों तथा असीम शक्ति को आकर्षित करने वाला चुम्बक बन जाता है। शान्त मन में सभी समस्याओं के समाधान का मौलिक ज्ञान उत्पन्न होता है। परमात्मा की सेवा के रूप में देश तथा मानवता कल्याण हेतु अधिक से अधिक काम करें। अहंकार, आसक्ति तथा स्वार्थ को त्यागना है तथा प्रेम सेवा से युक्त होकर निष्काम भाव से सर्वांगीण गति के लिये निरन्तर कार्य करना है। इस प्रकार कर्म में संलग्न व्यक्ति का जीवन भगवतमय दिव्य हो जाता है। भविष्य में ऐसे दिव्य पुरूष ही धरती माता के संचालन का कार्यभार संभालेंगे तथा अन्तत: सारी मानवता दिव्य हो जायेगी। यह ही एक मात्र सुनिश्चित मार्ग है भ्रष्टाचार से मुक्ति का।
परमात्मा से प्रार्थना है कि हमें दिव्य जीवन जीने की क्षमता प्रदान करें तथा हम सभी मिल कर दिव्य जीवन द्वारा भ्रष्टाचार से उसी प्रकार मुक्ति प्राप्त करें जैसे भारतीय स्वतंत्रता के सेनानियों ने देश हित को ध्यान में रख कर सभी भेद-भाव को भूल कर आत्म बलिदान द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त की थी।
दिव्य जीवन ही समय की माँग है।
मुख्य बिन्दु
- धीरे-धीरे अपनी चेतना का विकास करें, चेतना को विस्तृत करें , गहरा करें, ऊँचा करें तथा सूक्ष्म करें ।
- अपने अहंकार को अनन्त परमात्मा की असीम घनीभूत शान्ति में विलीन करें ।
- निम्नलिखित दिव्य गुणों का चिन्तन तथा मनन कर के इन्हें धारण करें
स्थिर शान्ति, शक्ति, प्रकाश, दिव्य मौलिक ज्ञान, आनन्द, सौन्दर्य, एकता, प्रेम, माधुर्य, कोमलता, उत्साह, निर्भीकता, देदीप्यमान युवा स्वास्थ्य, मुस्कान ।
- जीवन में जब कोई समस्या उपस्थित हो, ध्यान करें, ईश्वर को सच्चे दिल से गहराई के साथ याद करें तथा सहायता के लिये प्रार्थना करें आप को समस्या का समाधान प्राप्त हो जायेगा।
- सदा परमात्मा की उपस्थिति महसूस करें।
- अपना सर्वस्व परमात्मा को समर्पित करते रहें।
- परमात्मा से संयुक्त हो कर स्वयम् परमात्मा बनें ।
- ऐसे व्यक्ति से या शिक्षा से सावधान रहें जो आपसी भेद-भाव उत्पन्न करे। अज्ञान तथा अहंकार के कारण भेदभाव की वृत्ति उत्पन्न होती है जो मनुष्य को दु:खी करती है तथा सीमित करती है।
- अपनी निम्न इच्छाओं तथा इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखें, ये चेतना का हास करती हैं। हमने अपने आप को परमात्मा से युक्त करके चेतना को विकसित करना है।
- दृढ़ संकल्प तथा ईश्वर की प्रार्थना द्वारा अहंकार तथा आसक्ति पर विजय प्राप्त करनी है।
- आप के रुपान्तरण का प्रभाव समस्त विश्व पर पड़ेगा, हम सब एक हैं तथा जुड़े हुये हैं।
- निरन्तर सर्वांगीण प्रगति आप के जीवन का मूलमन्त्र होना चाहिए।
- सदा उज्जवल भविष्य की कल्पना करें तथा महसूस करें कि वह साकार हो रहा है।
- भीतर से पूरी तरह शान्त होकर, अधिक से अधिक कर्म करें, आप की क्रियाशीलता का आधार स्थिर शान्ति हो।
- सदा कार्यरत रहें, प्रगति पथ पर निरन्तर चलते रहें , कहीं नहीं रुकना है, ठहराव मृत्यु है। आप असीम दिव्य शक्ति से परिपूरित अमर व्यक्तित्व हैं, निरन्तर परमात्मा के लिये क्रियाशील रहें।
- आकाश की विशालता का चिन्तन करें ।
- सूर्य, चांद, सितारों का चिन्तन करें तथा उनके प्रकाश को अपने भीतर महसूस करें ।
- महसूस करें कि आप पुष्प की भान्ति खिल रहे हैं
- स्वयं से प्रेम करें, अपने देश से प्रेम करें, मानवता से प्रेम करें, परमात्मा से अर्थात् कण-कण से प्रेम करें
- कृपया अपने आपको अधिक से अधिक विस्तृत करें ।
- भीतर गहराइयों में प्रवेश करें तथा अधिक से अधिक परमात्मा के प्रति समर्पित हों।
- परमात्मा के प्रति गृहणशील हों।
- अपने मालिक बनें न कि दास
- ध्यान करें
- एकाग्र हों
- ईश्वर की कृपा को पुकारें
- स्वयं दिव्य बनें तथा दिव्यता का प्रसार करें
रचनाकार संपर्क - श्री कृष्ण गोयल
307-बी, पाकेट-2,
मयूर विहार फेस-1
दिल्ली-110091
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