असग़र वजाहत का यात्रा संस्मरण - 4 : जाना पहचाना अजनबी

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चलते तो अच्छा था ईरान और आज़रबाईजान के यात्रा संस्मरण - असग़र वजाहत अनुक्रम यहाँ देखें अध्याय 3 जाना-पहचाना अजनबी गर्...




चलते तो अच्छा था

ईरान और आज़रबाईजान के यात्रा संस्मरण

- असग़र वजाहत

अनुक्रम यहाँ देखें

अध्याय 3

जाना-पहचाना अजनबी

गर्मियों की तपती हुई दोपहर में नीम के पेड़ पर तोते लंबी तानकर सोते थे। सिर्फ निमकौलियां गिरा करती थीं। सामने पड़ी खपरैल में सन्नाटा होता था। हम लोगों के बूढ़े दादा खपरैल के पास बनी कच्ची कोठरी में लेट जाते थे और अंधा जाफ़र उन्हें हाथ का पंखा झला करता था। गिरगिटान गर्मी के मारे झाड़ियों में इधर उधर भागते थे और कव्वे अपने खुली चोंच लिए मक्कारी से इधर-उधर देखते दीवार के साये में बैठे रहते थे। लू चीखती चिल्लाती पूरे मैदान में दनदनाती फिरती थी। शाम को दादा बाहर निकलते थे और कभी-कभी बातचीत करते हुए तरंग में आ जाते थे तो कहते थे_ मैं इस गर्मी में न बचूंगा. . .अगर बच गया तो अगले साल अपने वतन चला जाऊंगा और वहीं मरूंगा।

अपने वतन? हमें हैरत होती थी। हमारा यहां के अलावा और वतन कहां है?

_ ईरान चला जाऊंगा. . .ईरान. . .जहां से हमारे पुरखे सैयद इकराउद्दीन हुमायूं की फ़ौज में हिन्दुस्तान आये थे।

_ ईरान तो बहुत बड़ा है? ईरान में कहां से?

_ मियां, ख़ाफ़ नाम का एक गांव है?

( ख़ाफ़ - पांच किमी)

हमारे घर में नौरोज़ धूमधाम से मनाया जाता था। अण्डे उबालकर जाफ़रान से रंगे जाते थे। मीठी रोटी पकती थी। शरबत बनता था और दूसरे खाने पकते थे। मीठे नमकीन कोफ़ते और खीर दस्तरखान पर सजाये जाते थे। तरह-तरह की चीजों पर नजर दी जाती थी।

फिर खाना खाया जाता था।

नौरोज़ सब लोग तो नहीं मनाते? हम लोग क्यों मनाते हैं?

_ ये ईरान का त्योहार है।

तोतों का झुण्ड नीम के पेड़ से उड़कर चिलवर के पेड़ों की ऊंची दीवार से होता हुआ तालाब ओर अमरूद के बाग़ की तरफ़ जाता है और गिरगिटान कहीं गायब हो जाते हैं?

ये ईरान कहां है?

ईरान के बारे में किसी को कुछ ज्यादा न मालूम था। यह भी नहीं कि यह ईरान ही 'अर्यारान' है। यहां रहने वाले अपने को आर्य करते हैं। यहां का बादशाह अपने का 'आर्य महर' कहलवाता है। उसकी दूसरी पत्नी बहुत सुंदर है. . .

(ख़ाफ़ का एक दृश्य)

तेहरान के मेहराबाद हवाई अड्डे पर तोतों का झुण्ड उतर रहा है। हरे-हरे चमकीले तोते और उनकी लाल चमकीली चोंचें। तेहरान हवाई अड्डे को खाली कराया जा रहा है। तोते किसी तरह का कोई सिगनल नहीं समझते, पता नहीं क्या हो।

जब शहर नज़र आता है तो एक ही रंग दिखाई देता है। मिट्टी का सा मटमैला रंग। इसी रंग के पहाड़ जिनके दामन में तेहरान बसा हुआ है, इसी रंग की इमारतें, इसी रंग की सड़कें और इसी रंग का मेहराबाद हवाई अड्डा, एयरपोर्ट की इमारत सफेद और ठण्डी. . .तस्वीरें. . .विज्ञापन नदारद को. . .सपाट. . . साफ़. . .एकरंगी कस्टम महिला अधिकारियों के काले लबादे और काला हिजाब ;काला कपड़ा जिससे सिर ढका जाता है और वह सामने तथा पीछे तक जाता है, सिर्फ चेहरा नज़र आता है. . .वह भी सफेद. . .पासपोर्ट लेकर महिला अधिकारी के पास गया। आमतौर पर रिवाज़ है जब आप किसी के पास जायें तो मुस्कुराइये ताकि किसी तरह का मानवीय रिश्ता कायम हो सके। पर हिजाब और काली चादर में लिपटी, सफेद पत्थर जैसे चेहरे वाली औरत को देखकर मुस्कुराना तो दूर की बात है मैं कुछ क्षण के लिए सांस लेना भी भूल गया। कार्यवाही होने लगी। कोई बातचीत नहीं। कोई 'हेलो' नहीं . . .कोई सलाम नहीं. . .कुछ नहीं. . .आगे बढ़ा डालर चेंज कराने थे। एक सज्जन बैठे थे। उन्होंने एक फ़ॉर्म आगे बढ़ा दिया। फ़ॉर्म भरा और नज़र उठाकर सामने देखा तो बाबूजी ग़ायब। वाह भई वाह, मज़ा आ गया। क्या प्यारी हरकत की है। मतलब यहां भारतीय बाबुओं की कमी नहीं खलेगी। कुछ देर बाद बाबूजी आये, शायद 'कैश' लेने चले गये थे। चालीस डालर कैश कराये और उन्होंने मुझे इतने नोट पकड़ा दिये कि अगर उन्हें गिनने बैठ जाता तो शाम हो जाती। जल्दी-जल्दी उन्हें इधर-उधर रखा और आगे बढ़ा।

(ख़ाफ़ का एक और दृश्य)

तेहरान में मेरे मेज़बानों यानी राहुल और मोनी ने ईमेल से बताया था कि मैं हवाई अड्डे से 'प्रीपेड' टैक्सी लेकर उनके घर आ जाऊं। बाहर निकला इधर-उधर देखा। प्रीपेड का बूथ नज़र आ गया। मोनी के घर का पता मैंने किसी से फ़ारसी में लिखवा लिया था, वह दिखाया। प्रीपेड बूथ पर ही टैक्सी वाले भी खड़े थे। बल्कि प्रीपेड बूथ में बैठे पुलिस के सिपाही और टैक्सी वालों के बीच बड़े घनिष्ठ संबंध दिखाई पड़ रहे थे। मुझसे दस हज़ार रियाल लिए गये और रसीद काटकर टैक्सी ड्राइवर को दे दी गयी। यह बात मैं समझ नहीं पाया। मेरे ख्याल से रसीद मुझे दी जाती और मंज़िल पर पहुंच कर मैं वह रसीद टैक्सी वाले को देता। खैर अजनबी देश और परदेशी. . .सड़क पर आते ही लगा अरे ये तो सारे बोर्ड सूचनाएं, नाम मैं पढ़ सकता हूं। कुछ समझ ना पाऊं ये बात दूसरी है। मरकज़े शहर, शाह राहे अफ्रीका, आज़ादी-मैदान. . .अरे वाह ये तो खूब रही। दिल में भ्रामक ख्याल आया कि अब कोई टैक्सी चालक मुझे उल्लू न बना सकेगा।

शहर शुरू हुआ। वही एक रंग जो हवाई जहाज से देखा था। ऊंची-ऊंची बेहिसाब इमारतें, लंबी-चौड़ी सड़कें, सफ़ाई, इधर-उधर पार्क और बाग. . .पहली नज़र में तेहरान बहुत आधुनिक, विकसित, सम्पन्न शहर लगा। आबादी बंबई से ज्यादा है और शहर को तीन तरफ़ से पहाड़ घेरे हैं। शहर चिंघाड़ता हुआ पहाड़ों के ऊपर चढ़ गया है।

मोनी के फ्लैट वाली बिल्डिंग पर पहुंच गये। टैक्सी चालक से बड़ी सज्जनता से कहा- 'टिप' मैं ज़रूर देता पर मजबूरी यह थी कि मेरे पास सभी दस-दस हज़ार रियाल के नोट थे। मैंने टैक्सी चालक को बताया कि 'चेंज' या छोटे नोट नहीं हैं। उन्होंने कहा दस हज़ार रियाल उन्हें 'टिप' में दिए जायें। यह बात मेरी समझ में नहीं आई। यानी जितना किराया था उतनी ही 'टिप'? मैंने उसे 'टिप' नहीं दी जिसका उसने काफ़ी बुरा माना।

राहुल तेहरान में किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में बड़े पद पर काम करते हैं। उनका फ्लैट उनके मरतबे के अनुसार ही है। उनके नौकर ने मेरा स्वागत किया बताया कि भइया और दीदी कहीं जरूरी काम से गये हैं, शाम तक आयेंगे। मनोज ने मुझे मेरा कमरा दिखाया। वाह भई वाह बढ़िया बहुत बढ़िया. . .कभी-कभी फ़कीरों की किस्मत भी खुल जाती है।

(ख़ाफ़ का बाज़ार)

मनोज ने चाय बनाई और उससे बातचीत होने लगी। उसने ईरानियों के बारे में बताया कि अच्छे लोग होते हैं। उसकी दोस्ती एक ईरानी ड्राइवर से हो गयी है जो अब्दान में रह चुका है और थोड़ी हिंदी जानता है। उससे एक बार मनोज ने कहा कि मुझे बाल कटाने हैं, मैं नहीं जानता कि दुकान कहां है। यह टैक्सी ड्राइवर न सिर्फ मनोज को बाल कटवाने अपनी टैक्सी पर बिठाकर ले गया बल्कि पैसे भी खुद ही दिए।

मनोज हमारे देश के पता नहीं कितने प्रतिशत घरेलू नौकरों की तरह पहाड़ का है- गढ़वाल। पहाड़ियों की तरह बातूनी और सीधा है। चूंकि भाषा नहीं जानता इस डर से घर के बाहर कम ही निकलता है। यहां आने से पहले दिल्ली में रह चुका है। इसलिए मुझसे मिल कर काफ़ी प्रसन्न हुआ और दिल्ली के बारे में काफ़ी देर तक बात करता रहा।


शाम को मोनी और राहुल आ गये। हमने विशुद्ध भारतीय खाना यानी फुलके, दाल, सब्जी, चावल वग़ैरा खाया और मैं इन दोनों को यह बताने की कोशिश करता रहा कि मैं ईरान क्यों आया हूं। दरअसल ईरान आने की कोई वजह होती तो मैं बताता भी। मैं कैसे कहता कि भारतीय तोतों का एक झुण्ड आज मेहराबाद हवाई अड्डे पर उतरा है।

(सबसे ऊपर का चित्र - ख़ाफ़ स्थित एक पुराना मसजिद. सभी चित्र @ - असग़र वजाहत)

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COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. बेनामी4:09 pm

    अगले अंक की प्रतीक्षा।

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  2. बहुत रोचक ढंग से लिखा है आपने।
    घुघूती बासूती

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: असग़र वजाहत का यात्रा संस्मरण - 4 : जाना पहचाना अजनबी
असग़र वजाहत का यात्रा संस्मरण - 4 : जाना पहचाना अजनबी
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