- संजीव कुमार पिछले लगभग ढाई दशकों में मनोहर श्याम जोशी हिंदी के अकेले ऐसे उपन्यासकार रहे हैं, जिन्हें पसंद करने के सवाल पर पाठक-आलो...
- संजीव कुमार
पिछले लगभग ढाई दशकों में मनोहर श्याम जोशी हिंदी के अकेले ऐसे उपन्यासकार रहे हैं, जिन्हें पसंद करने के सवाल पर पाठक-आलोचक समाज में तीखा ध्रुवीकरण देखा जा सकता है। लोग या तो उनके धुर प्रशंसक रहे हैं या धुर निंदक। यह स्थिति साहित्य की सराहना और आस्वाद संबंधी सैध्दांतिकी में दिलचस्पी रखनेवालों के लिए अत्यंत सारगर्भित है, क्योंकि ऐसे ध्रुवीकरण से पैदा होनेवाली बहसें ही साहित्य की यात्रा के निर्णायक मोड़ों का मानचित्र तैयार करती हैं। जहां तक जोशी का सवाल है, उनके संबंध में ऐसी बहसें अभी तक कायदे से हो नहीं पाई हैं। बाकायदा बहस छेड़ पाने की महत्वाकांक्षा इपंले (इन पंक्तियों के लेखक) की भी नहीं है, पर वह उपन्यासकार जोशी को नापसंद करनेवाले मिज़ाज का एक मोटा खाका अवश्य खींचना चाहता है। इपंले की ऐसी कोशिश से कितनी मानीख़ेज़ बातें निकल पाएंगी, कहना मुश्किल है, पर इसमें संदेह नहीं कि ऐसी कोशिश अगर किसी समर्थ सिध्दांतकार के हाथों हो, तो उससे कथा-कथन संबंधी कई नये प्रस्थानों पर रोशनी पड़ेगी।
तो आइए, देखें, किसे नापसंद है उपन्यासकार जोशी !
नापसंद करनेवालों में सबसे अव्वल वे लोग हैं, जिन्हें किसी उपन्यास से आधिकारिक कथन वाली एक निर्भ्रांत कथा की अपेक्षा रहती है। ऐसी कथाओं का वाचक प्राय: ईश्वर वत् सर्वज्ञ-सर्वव्यापी होता है और अगर वैसा नहीं भी होता, यानी अगर उसका अवलोकन-बिंदु मनुष्य वत् अवरूद्ध होता है (सामान्यत: प्रथम पुरुष वाचक), तो अपनी सीमित जानकारी से ही वह एक निर्भ्रांत पाठ तैयार कर लेता है। आज तक की कथा-आलोचना को ऐसे निर्भ्रांत क़िस्सों के बारे में ही निर्णय देने का अभ्यास रहा है। 'गोदान' कृषि संस्कृति का महाकाव्य है या शहर और गांव के दो पाटों के बीच बहती भारतीय जीवन की विशाल धारा का चित्र - इन दोनों तरह के निर्णयों के लिए निर्णयकर्ता का इस बात के प्रति आश्वस्त होना जरूरी है कि डोरी, गोबर, भोला, दातादीन, मातादीन, दुलारी सहुआइन, धनिया, झुनिया, रायसाहब, खन्ना, मेहता, मिर्ज़ा खुर्शैद, गोविंदी, मालती इत्यादि पात्रों से संबंधित तथ्य, स्थितियां और घटनाएं संदेह से परे हैं। यह आश्वासन उसे वाचक के आधिकारिक कथन से प्राप्त होता है। अगर तथ्यों और घटनाओं के बारे में वाचक के कथन की आधिकारिकता किसी वजह से ख़ारिज़ हो जाए, तो निर्णय देने की प्रक्रिया में भारी संकट खड़ा हो जाएगा। कई बार आलोचक वाचक की ऐसी बातों को मानने से इंकार भी कर देता है, जो राय के रूप में आई हों, पर वहां भी वह वाचक द्वारा प्रस्तुत स्थूल तथ्यों और घटनाओं को असंदिग्ध मानने पर विवश होता है। वस्तुत: उन्हीं तथ्यों और घटनाओं को आधार बना कर वह वाचक की रायज़नी पर सवाल खड़े करता है। मिसाल के तौर पर पिछले दिनों किसी आलोचक ने डोरी के बारे में गोदान के वाचक की सहानुभूति को इस आधार पर निंदनीय माना कि वह एक बेईमान आदमी है, जो भोला से उसकी गाय ठग लेता है और दमड़ी बंसोड़ के साथ बांस का सौदा करने में अपने भाइयों का हिस्सा मारने की कोशिश करता है। यानी वाचक भोला को ठगने की कोशिशों का जो वृत्तांत देता है, उसे तथ्य के रूप में स्वीकार कर लेना और डोरी के बारे में उसके इस कथन को, कि ''डोरी किसान था और किसी के जलते हुए घर पर हाथ सेंकना उसने सीखा ही न था'', एक आत्मगत प्रतिक्रिया मान कर ख़ारिज़ कर देना - ऐसी प्रवृत्ति आलोचना में अक्सर देखी जाती है। यह प्रवृत्ति कितनी मूर्खतापूर्ण है, इस बात को फ़िलहाल रहने दें। जो बात हमारे काम की है, वो यह कि वाचक द्वारा दी गई जानकारी को पूरी तरह या काफ़ी दूर तक आधिकारिक मान कर ही आज तक की पाठकीय और आलोचकीय प्रतिक्रियाएं आकार ग्रहण करती आई हैं। और ऐसा मानना कही से भी पाठक-आलोचक की अपनी सहूलियत का मामला नहीं रहा है। जब से कथाएं लिखी जा रही हैं, तब से आज तक उनका विधान वाचक के इसी प्राधिकार पर टिका है। कथा के चिराचरित विधान में उसे संदिग्ध और अविश्वसनीय मान पाने की गुंजाइश ही नहीं होती।
ठीक इसी बिंदु पर मनोहर श्याम जोशी के कथा-विधान का वैचित्र्य प्रकट होता है। 'कसप' को छोड़ कर उनके किसी भी उपन्यास की कथा में तथ्यों, स्थितियों और घटनाओं की विश्वसनीयता बरकरार नहीं रहती। विश्वसनीयता की किलेबंदी तो ख़ैर 'कसप' में भी नहीं है (वाचक के ईश्वर वत् सर्वज्ञ-सर्वव्यापी होने और बिनसर के घने जंगलों में बैठ कर आधुनिक कादंबरी लिखने वाला वयोवृद्ध संस्कृतज्ञ, संभवत: नायिका का पिता, होने के बीच एक तनाव है), पर उसकी कथा-पद्धति कम-से-कम जानबूझ कर संदेह पैदा नहीं करती। 'हरिया हरक्यूलीज़ की हैरानी', 'हमज़ाद' और 'क्याप' का ढांचा ऐसा है कि किस्सागोई का चरम उदाहरण होते हुए भी ये उपन्यास अपने ही किस्से को संदिग्ध बनाते चलते हैं और अंतत: जो चीज़ निकल कर आती है, उसे किस्सा कहने की बजाय किस्सों के बनने का किस्सा कहना ही उचित और संभव लगता है। ऐसा-ही-था और ऐसा-ही-हुआ वाला दावा इन तीनों उपन्यासों में नहीं मिलता, बल्कि इस तरह के तमाम दावों का खंडन करते हुए ये उपन्यास बताते हैं कि कुछ हुआ तो ज़रूर था, लेकिन उस तक पहुंच पाना नामुमकिन है। जहां तक पहुंच पाना मुमकिन है, वह मूल घटना नहीं, घटना की प्रस्तुतियां हैं, वृत्तांत हैं, जिनमें अनेक पाठांतर मिलते हैं। यह एक ऐसी चीज़ है, जिसे निर्भ्रांत कथा की उम्मीद रखनेवाले पचा नहीं पाते। अपच की स्थिति में दो तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आती हैं। जो समझदार हैं, वे जान लेते हैं कि यह चीज़ लाख नापसंद हो, पर चिराचरित कथा-विधान से इतनी अलग है कि इस पर चिराचरित पद्धति से कोई राय ज़ाहिर करना एक तरह के फंसाव को निमंत्रण देना है। जो नासमझ हैं, उन्हें इस फंसाव का अंदेशा ही नहीं होता और वे पुराने आज्मूदा तरीके से उपन्यास की खिंचाई करने का हास्यास्पद दुस्साहस कर बैठते हैं। कोई आठ नौ साल पहले 'दूसरा शनिवार' में 'हमज़ाद' की एक समीक्षा आई थी, जिसमें समीक्षक ने अपने तईं जोशी जी पर काफ़ी तीखा प्रहार करते हुए बताया था कि सफ़ेद-स्याह चरित्र गढ़नेवाली पद्धति, जिसे आधुनिकता के आगमन के साथ साहित्य ने कब का पीछे छोड़ दिया, आज भी इस उपन्यास में देखी जा सकती है और उपन्यासकार ने बुरे को बुरा दिखाने की तमाम हदें तोड़ते हुए एक तरह से अपने ही बीमार दिमाग़ का परिचय दिया है। उस समीक्षक से ग़लती ये हो गई कि उसने 'हमज़ाद' की समीक्षा के नाम पर तख़तराम विलायतीराम धरेजा 'तअस्सुफ़' अहमदपुरी के लिखे अफ़साने 'मेड़ा शर्म भी तू, मेड़ा शान भी तू' की समीक्षा लिख दी। यह तख़तराम उपन्यास का ही एक पात्र है, जो उपन्यास के भीतर मिस्टर जयदेव को ब्लैकमेल करने के लिए एक अफ़साना लिखता है जिसमें, उसके दावे के अनुसार, जयदेव के बाप पुनयानी साहिब की दरिंदगी का कच्चा चिट्ठा दर्ज़ है। इसी अफ़साने को मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास 'हमज़ाद' मानते हुए, उसके आगे-पीछे हुए पत्राचार की पूरी अनदेखी करते हुए और इस बात की कोई नोटिस न लेते हुए कि 'मेड़ा शर्म भी तू, मेड़ा शान भी तू' की कैसी धज्जियां उपन्यास के भीतर ही जयदेव के पत्र में उड़ाई गई हैं, वह समीक्षा लिखी गई थी। इससे क्या साबित होता है? यही कि इस तरह की रचनाओं के सम्मुख आलोचना में एक दयनीय पिछड़ापन है। रचना एक क़िस्सा देती है और लगे हाथ उसे पंक्चर भी कर देती है, पर निर्भ्रांत कथा की अपेक्षा रखनेवाली आलोचना-पद्धति पंक्चर किये जाने की इस कार्रवाई की नोटिस ही नहीं ले पाती, क्योंकि उसने ऐसी सुनियोजित छिद्रों और दरारों वाली कथा से निपटना सीखा नहीं है। रचना आधिकारिक कथन वाली निर्भ्रांत कथा को छोड़ कर आगे बढ़ गई है, पर आलोचना है कि इस नये विधान के आगे अपने औज़ारों की लाचारगी को या तो देख नहीं पाती या देख कर भी उन्हें बदलने को तैयार नहीं होती और छाड़न को ही रचना का सत्व मान कर उस पर टूट पड़ती है।
इपंले की जानकारी में आज तक जोशी पर किसी ने भी ज्ञानमीमांसात्मक प्रश्नों को लेकर हमला नहीं किया, जबकि उपन्यासकार जोशी के साथ सबसे गंभीर बहस इसी धरातल पर हो सकती है। अपने पहले उपन्यास 'कुरु कुरु स्वाहा' से लेकर आख़िरी उपन्यास 'क्याप' तक वे इस जगत्-सचाई-सार को लेकर 'आब्सेस्ड' हैं ('कसप' को छोड़ कर) कि हम यथार्थ से नहीं, उसकी बहुविध प्रस्तुतियों से ही रू-ब-रू होते/हो सकते हैं। वास्तविकता विभिन्न आख्यानों में गुम है और उसे उनके बीच से निचोड़ कर निकाल पाना नामुमकिन है। वास्तविकता पहुंचेली है - तारा झावेरी से लेकर महामाया सेनगुप्ता तक के विभिन्न नामों और तांत्रिक से लेकर नक्सली तक के विभिन्न कामों के बीच जिसकी पहचान स्थिर कर पाना वाचक के लिए संभव नहीं हो पाता, जबकि इस वाचक के लिए उसकी भौतिक उपस्थिति कहीं से माया/भ्रम नहीं है (आख़िर सागरतट पर वह इस अप्सरावत सुंदरी से गुत्थमगुत्था होता है और युद्धक्षेत्र से ख़बर आती है कि जोशी जी खेत रहे)। वास्तविकता गूमालिंग की जिज्ञासा में हैरान हरिया है, जिसके अनेक क़िस्से बिरादरी में प्रचलित हैं और उनमें से किसी पर भी उपन्यास के वाचक की मुहर नहीं लगी है। वह कहता है - ''हम जितना ही अनुमान-अनुसंधान करते गए, हमारे पास उतने ही तथ्य और कथ्य जमा होते गए। लेकिन उनके विषय में सत्यासत्य का निर्णय करना कठिनतर होता चला गया। क्या वे सच-जैसे लगनेवाले झूठ थे? या कि झूठ-जैसे लगनेवाले सच थे? या कि वे कुछ सच और कुछ झूठ थे? क्या जो पक्षधर नहीं हैं, उनके लिए कुछ भी सच नहीं है? या कि उनके लिए कुछ भी झूठ नहीं है? अगर निष्पक्षता का मतलब अनिर्णय है, तो क्या हम हरिया हरक्यूलीज़ की हैरानी की कहानी पर बस इसी तरह हैरान ही होते रह सकते हैं? रात को नुक्कड़ के पनवाड़ी की दुकान पर पक्षधरों के झूठ टकराते रहे और उनमें से किसी एक को हमेशा-हमेशा के लिए सच मान लेना बिरादरी में लोकतंत्र के ज़ोर पकड़ लेने के कारण असंभवप्राय हो गया।'' वास्तविकता रहस्यमय ढिणमिणाण भैरव काण्ड है, जिसके बारे में प्रकाशित एक किस्से की ऐसी-तैसी फेरता हुआ 'क्याप' का वाचक एक अलग आख्यान प्रस्तुत करता है और अंत में उस काण्ड का रहस्य हल करने के लिए कुछ अते-पते देता हुआ सीधे-सीधे यह भी कह जाता है कि 'फस्कियाधार वाले यों भी गप्पी समझे जाते हैं।' (वाचक खुद फस्कियाधार निवासी है और फसक का मतलब है गप्प।) यानी अपने डेढ़ सौ पृष्ट लंबे दावे को वह अंतत: फसक बता चलता है। जोशी जी के इस आख़िरी उपन्यास की आख़िरी पंक्ति है - ''आप कहेंगे कि यह कथा तो क्याप-जैसी हुई ! धैर्य-धन्य पाठकों, यही तो रोना है।'' (क्याप माने कुछ अजीब, अनगढ़-सा।) एक अर्थ में यह बात जोशी के पूरे कथा-साहित्य पर लागू होती है। उनके जैसा किस्सागो - किस्सागोई वाली शैली से लेकर गझिन घटना-व्यापार की गढ़ंत तक में - पूरे हिंदी साहित्य में कोई नहीं हुआ और यह किस्सागोई के शिखर पर पहुंचे हुए इस रचनाकार के लिए ही संभव था कि वह किस्सों को अंदर से तोड़ कर रख देने की हिमाक़त करे।
कोई हैरत नहीं कि जोशी अपना अगला उपन्यास बंगाल (मौजूदा बांग्लादेश) के भवाल संन्यासी मामले पर लिख रहे थे। (इस लेख के छपने तक शायद वह प्रकाशित हो चुका हो।) पूर्वी बंगाल की एक बहुत बड़ी ज़मींदारी - उसके तीन उत्तराधिकारियों में से दूसरे कुमार की कथित संदिग्ध मौत और कथित संदिग्ध दाह-संस्कार - लोगों में अफ़वाह कि कुमार मरे नहीं हैं, संन्यासियों के एक समूह में भटक रहे हैं - बाद में दो और उत्तराधिकारियों की मौत के साथ ज़मींदारी का कोई वारिस नहीं - कथित मौत के बारह साल बाद द्वितीय कुमार ठहराये जानेवाले संन्यासी का आगमन - सत्य के निर्धारण के लिए लगभग पच्चीस साल तक चलनेवाली अदालती कार्रवाई - पक्ष और विपक्ष में हज़ारों लोगों की गवाहियां, तथ्यातथ्य के हज़ारों साक्ष्य, सत्यासत्य के हज़ारों क़िस्से - इसके बाद निर्णयों का दौर - एक निर्णय में संन्यासी को बहुरूपिया करार दिया जाना, दूसरे निर्णयों में उसे सचमुच का कुमार बताया जाना और अंतत: इंग्लैंड की प्रिवी काउंसिल द्वारा ऊंची अदालत के इस निर्णय को बहाल रखा जाना। स्वाधीनतापूर्व हिंदुस्तान के इस बहुचर्चित मामले पर इतिहासकार पार्थ चटर्जी ने किताब लिखी है, 'ए प्रिंसली इम्पोस्टर ? द कुमार ऑफ़ भवाल एंड द सेक्रेट हिस्ट्री ऑफ़ इंडियन नेशनलिज्म' (प्रथम संस्करण : 2002, परमानेंट ब्लैक, दिल्ली)। पूरी किताब इस मामले के एक-एक बारीक ब्यौरे को सामने लाती है, पर अपनी ओर से कहीं भी यह दावा नहीं करती कि दरअसल संन्यासी बहुरूपिया था या द्वितीय कुमार रामेंद्र नारायण रॉय। कारण स्पष्ट है। इतिहासकार के पास यह जानने के स्रोत तो हैं कि कब किस बात को सत्य की मान्यता दी गई - क्यों दी गई, इसका अनुमान लगाने की एक पद्धति भी उसके पास है - लेकिन सत्य था क्या, इसे जानने के स्रोत उसके पास नहीं हैं। भूमिका में पार्थ लिखते है -''. . . शुरू में ही ये बता दूं कि भवाल केस के विराट दस्तावेज़ों के बीच काम करते हुए चार साल बिता चुके होने के बाद भी, और इस तथ्य के बावजूद कि तीन अदालतों ने मुद्दई के पक्ष में अपना निर्णय दिया, मैं आज भी अज्ञेयवादी ही ठहरता हूं। मैं नहीं जानता कि जो संन्यासी 1921 में ढाका में नमूदार हुआ, वह क्या सचमुच भवाल का द्वितीय कुमार ही था जिसकी, उस समय तक की जानकारी के मुताबिक, 1909 में दार्जिलिंग में मृत्यु हो गई थी? सत्य की जांच के जितने तरीके मैं जानता हूं, उन सबको साक्ष्य पर लागू करने के बाद और तीनों अदालतों के जिन जजों ने केस की सुनवाई की थी, उनके द्वारा अपनाई गई प्रक्रियाओं का अपनी क्षमता भर यथोचित और पारदर्शी मूल्यांकन करने के बाद मैं यह बात कह रहा हूं। मैं महसूस करता हूं कि सत्य से अंतत: वंचित रह जाने की इस दु:स्थिति के लिए ज़िम्मेदार मेरी पध्दतियां हैं। अगर मैं भवाल केस पर कोई उपन्यास लिख रहा होता, तो मेरे पास अपनी कथा के लिए अधिक सुसंगत कथानक और अधिक संतोषजनक निष्कर्ष गढ़ पाने की आज़ादी होती। दूसरी ओर, जज के स्थान पर न होना मुझे ख़ासा सुकून भी देता है। इतिहासकार के विपरीत वह विडंबना का आनंद लूटने की विलासिता नहीं कर सकता; उसे यह निर्णय सुनाना ही पड़ता है कि आख़िरकार मामला साबित हुआ या नहीं !''
क्या भवाल संन्यासी को लेकर जोशी का उपन्यास वैसा ही होगा, जैसे उपन्यास की बात पार्थ कर रहे हैं? जिसमें अधिक सुसंगत कथानक और अधिक संतोषजनक निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया होगा? उपन्यासकार के रूप में जोशी जी की दिलचस्पियों से परिचित उनका कोई भी पाठक कह सकता है, नहीं। इस प्रकरण की ओर अगर उनका ध्यान खिंचा होगा, तो ठीक इसी कारण से कि यहां आख्यानों में वास्तविकता के गुम जाने की तस्वीर बहुत मुकम्मिल और जीवंत रूप में उभरती है। उन्होंने निष्चित रूप से किसी ऐसे कुमार की कहानी नहीं लिखी होगी, जो तेरह साल तक भटकने के बाद संन्यासी बन कर अपने राज में लौटता है और अपने न्यायोचित उत्तराधिकार का दावा करता हुआ पच्चीस साल तक मुकदमा लड़ता है। उन्होंने किसी ऐसे बहुरूपिये ठग की कहानी भी नहीं लिखी होगी, जो प्रजा में फैली हुई एक अफवाह का दामन थाम कर अपने कुमार होने का दावा ठोंकता है और अंतत: अपनी ठगी में विजयी होता है। सबसे अधिक संभावना इस बात की है कि उन्होंने उन तमाम कहानियों की कहानी लिखी हो, जो सत्य का अपने-अपने तरीके से दावा करती हैं। ऐसी कहानी में हमें अंतत: यह पता नहीं चलता कि सत्य की जीत हुई या हार, बल्कि यह कि सत्य के किस दावे की जीत हुई और किसकी हार?
यानी पार्थ जिसे एक उपन्यासकार की सुविधा बता रहे हैं, जोशी कभी उस सुविधा का भोग करनेवाले उपन्यासकार नहीं रहे और इस रूप में एक ख़ास तरह की आस्वाद-क्षमता वाले पाठकों-आलोचकों के लिए ख़ासे असुविधाजनक हो गए।
जैसा कि मैंने पीछे कहा, उपन्यासकार जोशी से अगर कोई गंभीर बहस हो सकती है, तो इसी ज्ञानमीमांसा के सवाल पर। कोई चाहे तो उनके ख़िलाफ़ इस नुक्ते पर एक व्यवस्थित दलील तैयार कर सकता है कि वे दरअसल कहना क्या चाहते हैं? क्या यही कि किसी चीज़ के बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता? तो फिर इतना कुछ कहने की ज़रूरत उन्होंने क्यों महसूस की? लेकिन अफ़सोस, इस तरह के सवालों के साथ जोशी से निपटने की कोशिश कभी की नहीं गई। इपंले की महत्वाकांक्षा है कि वह अपने इस पसंदीदा लेखक को कभी इन सवालों के साथ घेरने का आत्मविश्वास अपने अंदर महसूस करे . . . या कम-से-कम सिलसिलेवार तरीके से यही साबित कर पाए कि जोशी इस तरह के सवालों के आगे परास्त हो जानेवाला मीडियॉकर नहीं है।
कथा-विधान के बाद अब थोड़ी चर्चा उपन्यासकार जोशी के खिलंदड़े 'इष्टाइल' की। उनका खिलंदड़ापन ऐसे तमाम लोगों को नाग़वार गुज़रता है जो (1) मुद्रा की गंभीरता से ही मुद्दे की गंभीरता का अनुमान लगा पाते हैं और (2) समाज तथा मानवता के बहुत सारे 'गंभीर' प्रश्नों को लेकर इस क़दर 'चिंतित' हैं कि पठन के सुख को महसूसने और सराहने की क्षमता खो चुके हैं। जोशी जी की मुद्रा 'कुरु कुरु स्वाहा' से लेकर 'क्याप' तक कभी गंभीर नहीं रही। कहीं वे गूएन (गू की गंध) का जाप करते मिलते हैं, तो कहीं गौंतेन (गोमूत्र की गंध) का; कहीं कृष्णा मेनन के साथ फ्रांज फेनन का तुक मिलाते पाए जाते हैं, तो कहीं दिमाग़ का अगाड़ी और जिस्म का पिछाड़ी साथ-साथ दिए जाने की चर्चा करते। ऐसे लेखक को अगर गुरु-गंभीर हिंदी समाज के बहुतेरे लोग महज़ भाषा का खेल करनेवाला हल्का-फुल्का गपोड़ मान लें, तो क्या आश्चर्य ! आश्चर्य तो तब होगा, जब ये लोग समझें कि 'केतना त्रासद है हास्य अउर केतना हास्यास्पद है त्रास' ('कुरु कुरु स्वाहा' में रथिजित भट्टाचार्य)। इसे समझानेवाले असंख्य प्रसंग जोशी साहित्य में मिलेंगे, बशर्ते कि मुद्रा की गंभीरता से ही मुद्दे की गंभीरता का अनुमान लगाने की हड़बड़ी छोड़ कर उसका पारायण किया जाए। 'क्याप' की गौंतेन-चर्चा इस लिहाज़ से इपंले को अविस्मरणीय लगती है। नायक दलित है, जाति का डूम। बहुत मेधावी विद्यार्थी। हाई स्कूल पास करने के बाद सरकारी स्कॉलरशिप के साथ लखनऊ के एक कॉलेज में दाख़िला मिलता है। अपने ही गांव के एक ब्राह्मण कांग्रेसी नेता उर्बादत्तज्यू के घर के बारामदे पर, उनकी कांग्रेसी प्रगतिशीलता की बदौलत, रहने का इंतज़ाम हो जाता है। रहने-खाने के बदले बाग़-बग़ीचे और मवेशियों से जुड़े कई काम करने के साथ-साथ उर्बादत्तज्यू की लड़की को पढ़ाने की ज़िम्मेदारी भी तय होती है और यहां से शुरू होती है नायक की 'जवानी और जवानी की दुखभरी कहानी भी'। पहली बार उर्बादत्तज्यू के घर के पिछवाड़े में नौकर द्वारा अपनी थाली में बासी रोटी-सब्ज़ी ऊपर से गिराये जाने का इंतज़ार करते हुए नायक गीले बालों को तौलिए से पोंछती उस सुंदर-सी किशोरी को देखता है। उसे लगता है कि उसने 'जन्म इसी को पढ़ाने और इससे प्रेमपाठ पाने के लिए ही लिया है'। फिर शुरू होता है पढ़ाने का सिलसिला। एक डूम को ट्यूशन के लिए घर के भीतर तो घुसने दिया नहीं जा सकता। इसलिए जगह तय होती है, बग़ीचे की ओर खुलनेवाली वह कोठरी जिसमें कुदाल-फावड़े रखे जाते हैं। हर शाम कॉलेज से लौट कर वह उत्तरा नाम्नी इस किशोरी को इसी कोठरी में पढ़ाता है और पूरे समय उत्तरा की कर्कशा बुआ निगाह रखने के लिए वहीं बैठी रहा करती हैं। अब गौंतेन की चर्चा उपन्यासकार के ही शब्दों में - ''वह ट्यूशन के लिए अपनी भद्ये को साथ लेकर आतीं। उनके हाथ में गौंत यानी गोमूत्र का डिब्बा होता। वह दरवाज़े पर आरामकुर्सी डालकर बैठ जातीं और जवान गुरु और किशोर शिष्या पर अपनी गिद्ध-दृष्टि जमाये रखतीं। ज्यों ही ट्यूशन पढ़ाकर मैं बाहर जाता वह अपने पर, उत्तरा पर और फ़र्श पर, कमरे की हर चीज़ पर, गौंत छिड़कतीं। मैं यह सोच-सोच कर दुखी होने लगा कि अगर कभी बामण की इस बेटी के मुंह से ग़लती से डूम के इस बेटे के लिए प्यार-जैसा कोई शब्द निकल गया तो इसकी बुबू इसे शायद गौंत से ही कुल्ला करवायेगी। ख़ैर, इस दुख ने मुझे मांजा और मेरे क्रांति संकल्प को मज़बूत बनाया। मैं प्रेम में पड़ता गया। अपने को मार्क्स और उत्तरा को मार्क्स की संपन्न सामंती प्रेमिका के रूप में देखता गया। बग़ीचे की ओर खुलनेवाली वह कोठरी गौंतेन यानी गोमूत्र-गंध से भर गयी। और वही गौंतेन हमेशा-हमेशा के लिए मेरे वास्ते शृंगार रस का उद्दीपन करने वाली शै बन गयी।
''मैं गौंत को इस तरह सूंघने लगा मानो वह 'इवनिंग इन पेरिस'-जैसा कोई विलायती सेण्ट हो। मैं उस कमरे में भी गौंतेन बीच-बीच में तब सूंघने लगा जब वहां कोई दूसरा नहीं होता। इतनी सावधानी बरतने पर भी एक दिन उर्बादत्तज्यू ने मुझे पकड़ ही लिया। मैं उन्हें गोमूत्र के फ्रांसिसी इत्र बन जाने का रहस्य समझा न सका। मुझे यह कहकर मत टोकिए कि गोमूत्र के फ्रांसिसी इत्र बन जाने का इस रहस्यमय ढिणमिणाण भैरव काण्ड से क्या लेना-देना है? धैर्य रखिए और मेरी इस बात पर विश्वास कीजिए कि अगर गोमूत्र फ्रांसिसी इत्र न बन जाता तो यह 'रहस्यमय' हादसा न होता। बल्कि उस हादसे में तो कोई रहस्य है ही नहीं। रहस्य तो इसी में है कि गोमूत्र फ्रांसिसी इत्र बन जा सकता है। गोमूत्र के फ्रांसिसी इत्र बन जाने जैसे रहस्यमय काण्डों से ही कविता से लेकर क्रांति तक मानवता की श्रेष्ठतम उपलब्धियां संभव होती आई हैं।''
पढ़ाई के साथ-साथ शुरू होती है बामण की बेटी और डूम के बेटे की गुपचुप प्रेमकथा, जिसका विफल अंत नायिका की खुदकुशी और नायक के गहरे अपराधबोध के साथ होता है। अब नायक को हर समय 'क्वार वाक्क' यानी कोरी उल्टी आती रहती है, जिसमें वह सूअर की तरह 'ओंइक ओंइक' करता जाता है। इस रोग के बारे में एक बार कोई सिरफिरा कहता है कि उर्बादत्तज्यू के यहां रह कर उसने बामण को जो छूत लगा रखी है, ये उसी की सज़ा है और प्रायश्चित के लिए एक लुटिया गौंत पीना होगा। नायक गोमूत्र तो नहीं पीता है, मगर एक छोटी बोतल लेकर सीधा जंगल चला जाता है वहां चरती हुई किसी गाय की तलाश में। ''मुझे याद आ गया था, गोमूत्र प्रेमिका की याद दिलानेवाला फ्रांसिसी इत्र है मेरे लिए। जब मैं बोतल में गौंत भर रहा था तो मेरे नथुनों में ही नहीं, मेरे रोम-रोम में जल्लाद बुबू की निगाहों से बचते हुए मेरी निगाहों से निगाह और अंगुलियों से अंगुलियां मिलाती एक भद्ये के प्यार की गंध बसती चली जा रही थी। उस दिन के बाद से मैं बराबर अपने पास किसी छोटी शीशी में गोमूत्र रखने लगा और उसे बीच-बीच में सूंघने लगा। . . . मैं छिपा कर क्या सूंघता हूं इस बारे में तरह-तरह की चर्चाएं चलीं। किसी ने सोचा नसवार, किसी ने सोचा कोकैन, किसी ने सोचा इत्र, सिर्फ़ मैंने ही जाना कि मैं क्रांति की प्रेरणा देनेवाले प्रेम को सूंघता हूं।''
केतना त्रासद है हास्य अउर केतना हास्यास्पद है त्रास ! एक व्यक्तित्व के भीतर गोमूत्र की गंध का यह सफ़र क्या किसी सुधी पाठक को महज़ खिलंदड़ेपन का नमूना लग सकता है? निहायत गैरसंज़ीदा-सा दिखता हुआ कथाकार यहां जितने नायाब ढंग से गंध-साहचर्य के अत्यंत परिचित, फिर भी अत्यंत गहन मनोवैज्ञानिक पहलू को दलित होने की मार्मिक यातना और प्रेम की अनादि छटपटाहट के साथ बुन देता है, वह अद्भुत है। पर क्या कीजिए यदि किसी को ये बुनाई तभी समझ में आए, जब कथाकार बाकायदा इन्हें बुनने की भंगिमा में दिखलाई दे ! क्या कीजिए यदि किसी को 'कविता से लेकर क्रांति तक मानवता की श्रेष्ठतम उपलब्धियों' पर वाचक की टिप्पणी कथाकार का एक मज़ाक जान पड़े और इन उपलब्धियों को व्यक्तित्व में बन आई गांठों/ग्रंथियों से तथा उन गांठों को सामाजिक स्थितियों से जोड़नेवाला जटिल रचाव उसे समझ में न आए ! क्या कीजिए यदि वाचक को गौंत की गंध में गोंते लगाता देख कोई अपने नथुनों के साथ-साथ दिमाग़ के दरवाजे भी बंद कर ले ! निस्संदेह, जिनके पठन में ये संस्कारगत रुकावटें नहीं हैं, जो आंखों की लेंस का फ़ोकस बदल कर शरारत के झीने अवगुंठन के पार देख सकते और वहां छिपी पीड़ा को महसूस कर सकते हैं, जो भंगिमा एवं कथ्य के परंपरासिध्द तालमेल को भंग कर एक नई संगत बिठाने की हरक़त से चकित-मुदित होना जानते हैं, उन्हें ही उपन्यासकार जोशी पसंद आएंगे।
शैली के संदर्भ में दूसरा नुक्ता पठन के सुख को महसूसने और सराहने की क्षमता से जुड़ा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिंदी के सर्जक-आलोचक समाज में ऐसे लोगों की एक बड़ी तादाद है, जिनकी सामाजिक-राजनीतिक संघर्षों में भागीदारी तो नगण्य है, पर जिनके लेखन में और आलोचनात्मक मानदंडों में इकहरी/फ़ॉर्मूलेबाज़ समाज-चिंता का पूरा क़ब्ज़ा है। ऐसे लोग मनोहर श्याम जोशी के अद्भुत हास्य-विनोद और अनवरत चलनेवाली चुटकियों की झड़ी के साथ कहकहे नहीं लगा पाते। वे जोशी को मूलत: मसखरा भी मानते हों, तो कोई आश्चर्य नहीं। ऐसे लोगों से इपंले बस इतना कह सकता है कि समाज की चिंता में आप हंसना छोड़ दें, यह बहुत बुरी बात है और मुल्तानी मिट्टी की तरह चेहरे पर चढ़ाई गई गंभीरता के लेप में दरार पड़ने के भय से हंसना छोड़ दें, यह तो और भी बुरी बात है। अपने अंदर झांक कर देखिए कि चिंता सचमुच किस चीज़ की है, समाज की या मुल्तानी मिट्टी नुमा गंभीरता के 'फ़ेस पैक' की ?
अब नापसंद करनेवालों की सूची में, फ़िलहाल के लिए, आख़िरी प्रविष्टि। यहां खड़े हैं इपंले की अपनी बौद्धिक-वैचारिक प्रजाति के लोग यानी कम्युनिस्ट। निस्संदेह, इस प्रजाति के सारे जोशीपढ़े लोग यहां नहीं है, पर उनमें से बहुत सारे हैं। पीछे बताई गई वजहों के अलावा ये जोशी से इस वजह से भी रुस्वा हैं कि उसने कम्युनिस्टों को बहुत गाली दे रखी है। अरे कॉमरेड, ये बड़ा छलिया लेखक है; इसे दुबारा ग़ौर से पढ़ो। इसने जिस भी पात्र की चर्चा श्रध्दापूर्वक अच्छे इंसान के रूप में की, वह कम्युनिस्ट निकला। पूरी कौम के नाम एक कौमी गाली निकालनेवाले ख़लीक या कल्चरवालों के जमावड़े में 'न्यू एज' बिछा कर बैठनेवाले स्यूडो कॉमरेड जोशी को ही सिर्फ़ याद न रखो (हालांकि उनमें भी इतना बुरा कुछ नहीं है)। 'सिनेमा जगत के सौ फ़ीसदी जीनियस' रथिजित भट्टाचार्य को भी याद रखो, जो ''विफल व्यक्तियों से घण्टों बातें कर सकते थे, लेकिन सफल व्यक्तियों से, और ख़ास कर उन सफल व्यक्तियों से जो उनकी सफलता के हेतु बन सकते थे, बात करने के लिए पांच मिनट निकाल सकना भी उनके लिए दूभर था।'' इस दादा की चर्चा 'कुरु कुरु स्वाहा' का वाचक लगातार श्रध्दामिश्रित विस्मय के साथ ही करता है और यह कोई 'ग़लती से हो गई मिस्टेक' नहीं है कि उपन्यास के सबसे विचक्षण एवं गहन अंतर्दृष्टि वाले संवाद इसी पात्र के हिस्से में हैं। अपनी अधूरी पड़ी फ़िल्म के स्क्रिप्ट में स्लाइट कम्प्रोमाइज़ की बात पर यह पात्र गरज कर कहता है, ''जाओ अभी तूम कमप्लीट कर लो ओ फिलीम। ... एक ही बात - नाम मेरा मत देना। यही मैं बोले हैं प्रोडयूसर से कि बना लो अउर क्रेडिट दो 'अबरुध्द गान' डाइरेक्टेड बाई स्लाइट कम्प्रोमाइज। जोसी मनहर सियाम, कभी मेरा सामने आयन्दा स्लाइट कम्प्रोमाइज शे एक्सप्रेशन यूज मत करना, समझा। रथिजित भट्टाचार्य जानता नेई कि स्लाइट कम्प्रोमाइज क्या होता? बिग कम्प्रोमाइज, टोटल कम्प्रोमाइज, एइसा बोलेगा तो ओ रथिजित जानता। सुपरहिट कमर्शियल उससे बनवाने का हो तो एइसा बोलो। वह बनायेगा मूड होने से। बनाया है, जभी मूड हुआ था।'' वाचक के यह कहने पर कि 'बिग हिट बनाना आपके बायें हाथ का खेल है', दादा मुस्कुरा कर बोलते हैं, ''ऐ मनहर, बायें हाथ का खेल मत बोलो जी - वह मेरा कमिटेड हाथ - लेफ्टिस्ट ! सारा कॉमरेड लोग रागेंगे - दादा एई की, आपनी बामपक्खे कमर्शियल काज कोरचेन। तो अभी, आई हैव डिसाइडेड, अम इन लोग से कहेगा जे मैं भी तोमारी तरह दायां हाथ से कमर्शियल बनाते और बायां हाथ से कम्युनिस्ट रहते।'' जोशी जी जब किसी संदर्भ में पूछते हैं, ''रेवोल्यूशनरी होकर आप नियति की बात कैसे कर पाते हैं?'', तब दादा का लाख टके का जवाब है, ''ओ एइसे कि जो आसाल क्रांतिकारी होगा ओ जानेगा जे क्रांति मानव जातीर अदृश्ट।''
'क्याप' के कका खीमराम यानी खिमुवा खब्ती को याद रखो, कॉमरेड ! ''दिहातियों की तरह सिलेटी कपड़े का तंग मोहरी का पाजामा और उसी कपड़े की कमीज़ और बांहों तथा कॉलर से चीकट हो चुका काला कोट पहने, अपनी छतरी टेक कर दुर्गम चढ़ाइयां पार करते, नमस्कार की जगह लाल सलाम कहते, पता नहीं किस रूस-हूस के किन लेनिन-हेनिन की फसकें सुनाते हुए अधेड़ और कुंवारे खीमराम निरक्षर गांववालों के ही नहीं, मुट्ठी-भर शहरी पढ़े-लिखों के मन में भी हास्य और करुण रस पैदा करते रहे। उनसे शायद ही कभी किसी ने कम्युनिस्ट साहित्य खरीदा हो। लेकिन सारे कस्तूरीकोट में शायद ही कोई ऐसा रहा हो जिसने उनका स्वागत न किया हो, उन्हें बैठने के लिए आसन न दिया हो, कलेवा या भोजन न कराया हो, विदा करते हुए बतौर उपहार छोटा सिक्का या कोई छोटी-मोटी चीज़ - जैसे अपने बाड़े में लगी ककड़ी - उन्हें न थमायी हो।'' ऐसा कम्युनिस्ट चरित्र आपको पार्टी वालों से लेकर गैरपार्टी लेखकों तक कहीं नहीं मिलेगा। यह विडंबना - कि शायद ही किसी ने कम्युनिस्ट साहित्य खरीदा हो, लेकिन शायद किसी ने उनका स्वागत न किया हो - पहली बार जोशी की ही बदौलत हिंदी साहित्य में दर्ज़ हुई है। इस वाक्य को यों भी पढ़ सकते हैं - शायद ही किसी ने वोट दिया हो, लेकिन शायद ही किसी ने महान न कहा हो।
खीमराम को कई लोग खब्ती मानते हैं और उन पर हंसते हैं। उनका अनुयायी भतीजा, कथा का वाचक-नायक, जब उनसे पूछता है कि लोगों के हंसने पर उन्हें बुरा लगता है या नहीं, खीमराम का उत्तर विचारधारात्मक स्तर पर जितना ही समृध्द है, भावनात्मक स्तर पर उतना ही छू जानेवाला - ''सच बात तो यह है भाऊ कि जब तक मार्क्स का संदेश मान कर हम लोग समाज में गैरबराबरी पूरी तरह ख़त्म नहीं कर देंगे, जब तक हम मार्क्स की इस बात का मर्म समझ नहीं लेंगे कि मनिख तो अपनी खुशी के लिए तमाम तरह की चीजें रचनेवाले को ही कहा जा सकता है, दूसरे के लिए मेहनत-मजूरी करनेवाली मशीन को नहीं, तब तक हर इंसान दूसरे इंसान पर हंसता ही रहेगा, उससे सच्ची हमदर्दी कभी नहीं रखेगा। भाऊ, इस निखद्द समाज में हर आदमी दूसरे पर हंसता है कहा। ताकतवर कमज़ोर के मुंह पर हंसता है तो कमज़ोर ताकतवर के पीठ पीछे।''
इन कॉमरेड कका के मरने के बाद भतीजे के पास उनकी एक तस्वीर बची रहती है। बहुत आगे चल कर, जब भी यह भतीजा - कथा का 'मैं' - अपने क्रांतिपथ में हताशा का अनुभव करता है, कका खीमराम की इस तस्वीर से बातें कर और उनसे बेशक़ीमती मशवरे हासिल कर अपनी हताशा दूर करता है। अपने अनुयायियों का अवसरवाद जब उसकी हताशा को चरम पर पहुंचा देता है, तब कका से बातें करने की कोशिश में वह पाता है कि बदरंग हो चुकी तस्वीर में वे ढूंढ़े से नज़र नहीं आते। ''मेरे स्मृति-शेष कका का एकमात्र स्मारक यह चित्र ही था, किंतु इसमें से कका कुछ उसी तरह गायब हो गये थे अथवा उनके वारिसों द्वारा गायब करा दिये गये थे जैसे कि मास्को में क्रेमलिन की प्राचीर में कृतार्थ रूसियों के दर्शनार्थ संभाल कर रखी हुई 'व्हाट इज़ टू बी डन' के लेखक की लाश गायब कराई जा रही थी अब ! . . . फिर चित्र को एकटक देखते हुए मैंने अपनी स्मृति में कका का आह्वान किया ताकि अपनी स्मृति से कका के चेहरे का उस बदरंग चित्र पर आरोपण कर सकूं। मैंने पाया कि स्मृति-शेष क्रांतिकारी कका एक क्रांतिकारी के रूप में मेरी स्मृति तक में शेष हो चुके हैं। मैं बहुत छटपटाया और अपनी स्मृति के आगे बहुत गिड़गिड़ाया लेकिन मेरे जेहन में एक अदद कॉमेडियन कका ही उभरते रहे। मुझे उनकी सारी कहानी ऐसी प्रतीत हुई जिस पर खुल कर हंस लेना डूम रामध्यानु से लेकर बामण मेधातिथि तक सबके सामाजिक-राजनीतिक स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद 'लाफ्टर योगा' सिद्ध हो सकता था।''
खीमराम जैसे चरित्र का रचयिता उपन्यासकार जोशी क्या किसी को कम्युनिस्टों के बारे में अनाप-शनाप बकनेवाला लेखक लग सकता है? हां, वे छद्म प्रगतिशीलों को अक्सर लाभप्रद 'लाफ्टर योगा' का विषय बनाते हैं, यह बात सही है। यह बात भी सही है कि वे कम्युनिस्टों के बारे में अक्सर ख़ासी तीखी राजनीतिक चुटकियां लेते हैं। पर मज़ाक और चुटकियों के रूप में आनेवाली इन गहरी आलोचनाओं में किसी नारेबाज़ को ही प्रतिक्रांति के तत्व नज़र आएंगे। अगर हम सबसे उम्दा क़िस्म का समाज रचने का सपना देखते हैं, तो हमें उन आलोचनाओं के प्रति सबसे अधिक खुला हुआ भी होना चाहिए, जो पिछले अनुभवों के आधार पर उस समाज-रचना की रुकावटों को रेखांकित करती हैं। हर आलोचना बदनाम करने के लिए ही नहीं होती, कॉमरेड ! जानता हूं, यह मान लेना ख़ासा मुश्किल है, पर आपके लिए अगर यह मुश्किल ही नहीं, असंभव हो, और वह भी 'क्याप' की आलोचनात्मक हमदर्दी के बावजूद, तो आप किसी समाज-रचना के स्वप्न से नहीं, निहायत सामंती क़िस्म की बाबूसाहबी से परिचालित हैं और यह चिंता का विषय है कि इस वैचारिक असहिष्णुता की नींव पर कैसे समाज की रचना होगी !
पर यह कहना कि इपंले की प्रजाति के कई लोग सिर्फ़ उपर्युक्त कारणों से ही जोशी को नापसंद करते हैं, ग़लत होगा। उनकी नापसंदगी में ध्वनित होता एक बड़ा सवाल ये है कि अपने ही तरह के 'याकिवाद' के शिकार इस लेखक के यहां समाज का कौन-सा यथार्थ-बोध मिलता है? यह एक तरफ लेखक की व्यापक दिलचस्पियों और दूसरी तरफ़ ज्ञान-मीमांसा के नये प्रस्थानों से टकरानेवाला सवाल है। कई बार इपंले ने खुद बड़ी कोफ्त के साथ - और कई रियायतों के साथ - अपने इस पसंदीदा लेखक के पुस्तकावतार से यह सवाल पूछा है।
इपंले को विश्वास है, खीमराम की तस्वीर की तरह पुस्तकें कभी-न-कभी इस सवाल का जवाब देंगी।
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रचनाकार - संजीव कुमार हिन्दी के तेजस्वी समीक्षक हैं. संप्रति दिल्ली विश्वविद्यालय में वरिष्ठ व्याख्याता.
सम्वेद, अंक -15, फरवरी 2007 से साभार. सम्वेद - संपादक राजीव रंजन गिरी, बी 3/44, तीसरी मंजिल, रोहिणी, दिल्ली - 110085
लेखक संपर्क:
संजीव कुमार,
वरिष्ठ व्याख्याता, देशबंधु कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय)
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पटपड़गंज, दिल्ली
पिन - 110092
Tag संजीव,कुमार,मनोहर,श्याम जोशी
बहुत अच्छा लेख है। जोशीजी की भाषा को पसंद करने के लिये जैसा पिछले लेख में कहा गया कि पाठक को बहु पठित न हो तो कुछ तो पठित होना चाहिये!
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