हल उसमें बैलों की ताक़त है और लोहे का पैनापन एक जवान पेड़ की मज़बूती किसी बढ़ई की कलाकार कुशलता धौंकनी की तेज़ ऑंच में तपा लु...
हल
उसमें बैलों की ताक़त है
और लोहे का पैनापन
एक जवान पेड़ की मज़बूती
किसी बढ़ई की
कलाकार कुशलता
धौंकनी की तेज़ ऑंच में तपा
लुहार का धीरज
इन सबसे बढ़कर
परती को फोड़कर उर्वर बना देने की
उत्कट मानवीय इच्छा है उसमें
दिन भर की जोत के बाद
पहाड़ में
मेरे घर की दीवार से सटकर
खड़ा वह
मुझे किसी दुबके हुए जानवर की तरह
लगता है
बस एक लम्बी छलांग
और वह ग़ायब हो जायेगा
मेरे अतीत में कहीं। -2004-
प्रथम अंकुर मिश्र कविता पुरस्कार से सम्मानित
भूसा
दरअसल
कोई भी अछूता नहीं रहता इससे
मुहावरे से लेकर
पशुओं के सपनों तक
यह कहाँ नहीं है
इसे भी उगाया धरती ने
अनाज के साथ एक ही पेट से
इसे भी मिला
इसके हिस्से का खाद-पानी
कभी यह हरा था
इसी ने बचाया दानों को
वक्त पड़ने पर
मौसम के थपेड़ों और कीड़ों से
फसल के साथ कटकर
यह भी खलिहान में आया
अलगाया गया दानों से बड़ी मेहनत
और कुशलता के साथ
अब लादकर ले जाया जा रहा है
इसे
पूरी सड़क घेरकर चलती डगमग
ट्रैक्टर ट्रॉलियों पर
पता नहीं क्या होगा इसका
किसी मिल में काग़ज़ बन जायेगा
या फिर
यह थान पर खड़े किसी भूखे पशु की
ज़िन्दगी में शामिल होगा
बहरहाल
इतना तो साफ है
कि इसे भी सहेज रहे हैं लोग
दानों के साथ
इस दुनिया में
वे सार भी बटोर रहे हैं
और थोथा भी
शायद बचे रहने के लिए
दोनों की ज़रूरत है उन्हें। -2004-
प्रथम अंकुर मिश्र कविता पुरस्कार से सम्मानित
पुरानी हवाएँ
चन्द्र्रकान्त देवताले जी को याद करते हुए
मेरे साथ
बहुत पुराने दिनों की हवाएँ हैं
मेरे समय में ये बरसों पीछे से आती हैं
और आज भी
उतनी ही हरारत जगाती हैं
मेरे भीतर की धूल को
उतना ही उड़ाती हैं
बिखर जाती हैं
बहुत करीने से रखी हुई चीजें भी
क्या सचमुच
हवाएँ इतनी उम्र पाती हैं ?
विज्ञान के बहुश्रुत नियम से उलट
ये ज़िन्दगी की हवाएँ हैं
हमेशा
कम दबाव से अधिक की ओर
जाती हैं। -2004-
सहारा समय में प्रकाशित
ये दुनिया रंग-बिरंगी
कुमार विकल को याद करते
सभी कुछ रंगीन था
जब तुम गए
और इन रंगों का हिसाब रखते
पृथ्वी के चारों ओर
बहुत तेज़ी से घूम रहे थे
इंसानी इदारे
तुम्हारी मौत उतनी रंगीन नहीं थी
और उस दिन अख़बारों में बहुत कम जगह बची थी
वे भी अब रंगीन हो चले थे
पैदा हो चुका था इलेक्ट्रॉनिक मीडिया
हालांँॅकि ख़बरों के लिए उसने
गली-गली घूमना शुरू नहीं किया था
सबसे तेज़ होने में अभी कुछ देर थी
पीने की चीज़ों में
तुमने शायद शरबतों के नाम सुने हों
वे सब भी रंगीन थे
अब तो खैर दिखते ही नहीं
ठंडी बोतलों के घटाटोप में
मेरे सपने तो होने ही थे
रंगीन
चौबीस-पचीस की उम्र में
मैंने पढ़ीं तुम्हारी कविताएँ
और यह भी
कि कवि से ज्यादा
तुम्हारा
शराबी होना मशहूर था
मैंने देखा
मेरी उम्र वाले लड़कों की तरह
तुम भी दुनिया की ख़ाली जगहों में
अपने रंग भर रहे थे
और हमारे रंग दुनिया के रंगों में
इज़ाफ़ा कर रहे थे
अपने सबसे चमकीले दिनों की
धूप में
मैंने तुम्हें ढूँढा
जिसके लिए मेरे पास था
तुम्हारी कविताओं का
एक आधा-अधूरा इलाक़ा
और धूप तो हम दोनों ही पर
बराबर पड़ती थी
वो इलाके-इलाक़े में भेद नहीं
करती थी
मेरे भी बन चले थे बहुत सारे साथी
उन दिनों तुम्हारी तरह मैं भी
मुक्ति की वह अकेली राह अपना चुका था
ये अलग बात है
कि इस राह पर तुम मुझसे बहुत आगे खड़े थे
बहुत कठिन हो चली थी दुनिया
तुम्हारे लिए
और मैं तो अभी ऑंखें ही खोल रहा था
मैंने तुम्हें
वक्त और दुनिया के साथ
खुद से भी
लड़ते देखा था
कविताओं में ही सही
लेकिन बहुत कुछ
अटपटा करते देखा था
ओ मेरे पुरखे बुरा मत मानना
पर मुझे लगता है
कि बहुत रंग-बिरंगी थी ये दुनिया
हमारे भी वास्ते
इसे हमने खुद ही चुना था
और ये हक़ीक़त तुम भी जानते थे
जी रहे थे
इन्हीं रंगों के बीच
इन्हीं की बातें करते थे
और इन्हीं से भाग जाना चाहते थे
ओ मेरे पुरखे!
आख़िर क्या हो गया था ऐसा
कि अपनी आख़िरी नींद से पहले
तुम दुनिया को
सिर्फ अपनी उदासियों के बारे में
बताना चाहते थे
और भी बहुत कुछ होता है
ज़िन्दगी में
उदासियों के अलावा
उदासियों से बेहतर
बताने को
लेकिन अब तुम कुछ भी नहीं
बता पाओगे
इस सबके बारे में अब तो बतायेंगीं
सिर्फ तुम्हारी कविताएँ
जिन्हें अपनी घोर असमर्थता में भी
इतना सामर्थ्य दे गए हो तुम
कि जब भी
रंगों के बारे में सोचें हम
और उन्हें कहीं भरना चाहें
तो हर जगह झिलमिलाते दिखें
तुम्हारे भी रंग
और हमें तुम्हारी याद आए। -2004-
इरावती में प्रकाशित
गैंगमेट वीरबहादुर थापा
बहुत शानदार है यह नाम
और थोड़ा अजीब भी
एक ही साथ
जिसमें वीर भी है
और बहादुर भी
यहाँ से आगे तक
22.4 किलोमीटर सड़क
जिन मज़दूरों ने बनायी
उनका उत्साही गैंग लीडर रहा होगा ये
या कोई उम्रदराज़ मुखिया
लो0नि0वि0 की भाषा
बस इतनी ही
समझ आती है मुझे
दूर नेपाल के किन्हीं गाँवों से
आए मज़दूर
उन गाँवों से
जहाँ आज भी मीलों दूर हैं
सड़कें
यों वे बनायी जाती रहेंगी
हमेशा
लिखे जाते रहेगे कहीं-कहीं पर
उन्हें बनाने के बाद
ग़ायब हो जाने वाले कुछ नाम
1984 में कच्ची सड़क पर
डामर बिछाने आए
वे बाँकुरे
अब न जाने कहाँ गए
पर आज तलक धुंधलाया नहीं
उनके अगुआ का ये नाम
बिना यह जाने
कि किसके लिए और क्यों बनायी जाती हैं
सड़कें
वे बनाते रहेंगे उन्हें
बिना उन पर चले
बिना कुछ कहे
उन सरल हृदय अनपढ़-असभ्यों को नहीं
हमारी सभ्यता को होगी
सड़क की ज़रूरत
बर्बरता की तरफ़ जाने के लिए
और बर्बरों को भी
सभ्यताओं तक आने के लिए। -2004-
हंस में प्रकाशित
गिध्द
किसी के भी प्रति
उनमें कोई दुर्भावना नहीं थी
वे हत्यारे भी नहीं थे
हालाँकि बहुत मज़बूत और नुकीली थी
उनकी चोंच
पंजे बहुत गठीले ताक़तवर
और मीटर भर तक फैले
उनके डैने
वे बहुत ऊँची और शान्त उड़ानें भरते थे
धरती पर मँडराती रहती थी
उनकी अपमार्जक छाया
दुनिया भर के दरिन्दों-परिन्दों में
उनकी छवि
सबसे घिनौनी थी
किसी को भी डरा सकते थे
उनके झुर्रीदार चेहरे
वे रक्त सूँघ सकते थे
नोच सकते थे कितनी ही मोटी खाल
माँस ही नहीं
हड्डियाँ तक तोड़कर वे निगल जाते थे
लेकिन
वे कभी बस्तियों में नहीं घुसते थे
नहीं चुराते थे छत पर और ऑंगन में पड़ी
खाने की चीजें
वे पालतू जानवरों और बच्चों पर
कभी नहीं झपटते थे
फिर भी हमारे बड़े
हमें उनके नाम से डराते थे
बचपन की रातों में
अपने विशाल डैने फैलाये
वे हमारे सपनों में आते थे
बहुत कम समझा गया उन्हें
इस दुनिया में
ठुकराया गया सबसे ज्यादा
ज़िन्दगी का रोना रोते लोगों के बीच
वे चुपचाप अपना काम करते रहे
धीरे-धीरे सिमटती रही उनकी छाया
बिना किसी को मारे
बिना किसी दुर्भावना के
मृत्यु को भी
उत्सव में बदल देने वाली
उनकी वह सहज उपस्थिति
धीरे-धीरे दुर्लभ होती गयी
हालाँकि उनके बिना भी
बढ़ता ही जायेगा ज़िन्दग़ी का ये कारवाँ
लेकिन उसके साथ ही
असहनीय हाती जायेगी
मृत्यु की सड़ाँध
हमारी दुनिया से
यह किसी परिन्दे का नहीं
एक साफ़-सुथरे भविष्य का
विदा हो जाना है। -2004-
हंस में प्रकाशित
मोमबत्ती की रोशनी में कविता-पाठ
वीरेन दा के साथ
बहुत काली थी रात
हवाएँ बहुत तेज़
बहुत कम चीजें थीं हमारे पास
रौशनी बहुत थोड़ी-सी
थोड़ी-सी कविताएँ
और होश
उनसे भी थोड़ा
हम किसी चक्रवात में फँसकर
लौटे थे
देख आए थे
अपना टूटता-बिखरता जहान
हमारी आवाज़ में
कँपकँपी थी
हमारे हाथों में
और हमारे पूरे वजूद में
हम दे सकते थे
एक-दूसरे को थोड़ा-सा दिलासा
थपथपा सकते थे
एक-दूसरे की काँपती-थरथराती देह
पकड़ सकते थे
एक-दूसरे का हाथ
हम बहुत कायर थे
वीरेन दा
उस एक पल
और बहुत बहादुर भी
मैं थोड़ा जवान था
तुम थोड़े बूढ़े
हमारी काली रात में
गड्ड-मड़ड हो गयी थी
आलोक धन्वा की
सफेद रात
वो पागल कवि
लाजवाब
गड्ड-मड्ड हो गया था
थोड़ा तुममें
थोड़ा मुझमें
अक्सर ही आती है यह रात
हमारे जीवन में
पर हम साथ नहीं होते
या फिर होते हैं
किसी दूसरे के साथ
सचमुच
क्षुद्रताओं से नहीं बनता जीवन
और न ही वह बनता है
महानताओं से
पर कभी-कभी
क्षुद्रताओं से बनती है महानता
और महानताओं से
कोई क्षुद्रता! -2003-
विपाशा के कवितांक में प्रकाशित
रानीखेत से हिमालय
बेटे से कुछ बात
वे जो दिखते हैं शिखर
नंदघंटा-पंचाचूली-नंदादेवी-त्रिशूल
वगैरह
उन पर धूल राख और पानी नहीं
सिर्फ बर्फ गिरती है
अपनी गरिमा में
निश्छल सोये-से
वे बहुत बड़े और शांत
दिखते हैं
हमेशा ही
बर्फ नहीं गिरती थी उन पर
एक समय था
जब वे थे ही नहीं
जबकि बहुत कठिन है उनके न होने की
कल्पना
अक्षांशों और देशांतरों से भरी
इस दुनिया में
कभी वहां समुद्र था
नमक और मछलियों और एक छँछे उत्साह से भरा
वहांँ समुद्र था
और बहुत दूर थी धरती
पक्षी जाते थे कुछ साहसी
इस ओर से उस ओर
अपना प्रजनन चक्र चलाने
समुद्र
उन्हें रोक नहीं पाता था
फिर एक दौर आया
जब दोनों तरफ की धरती ने
आपस में मिलने का
फैसला किया
समुद्र इस फैसले के ख़िलाफ़ था
वह उबलने लगा
उसके भीतर कुछ ज्वालामुखी फूटे
उसने पूरा प्रतिरोध किया
धरती पर दूर-दूर तक जा पहुंचा
लावा
लेकिन
यह धरती का फैसला था
इस पृथ्वी पर
दो-तिहाई होकर भी रोक नहीं सकता था
जिसे समुद्र
आख़िर वह भी तो एक छुपी हुई
धरती पर था
धरती में भी छुपी हुई कई परतें थीं
प्रेम करते हुए हृदय की तरह
वे हिलने लगीं
दूसरी तरफ़ की धरती की परतों से
भीतर-भीतर मिलने लगीं
उनके हृदय मिलकर बहुत ऊंचे उठे
इस तरह हमारे ये विशाल और अनूठे
पहाड़ बने
यह सिर्फ भूगोल या भूगर्भ-विज्ञान है
या कुछ और?
जब धरती अलग होने का फैसला करती है
तो खाईयां बनती हैं
और जब मिलने का तब बनते हैं पहाड़
बिना किसी से मिले
यों ही
इतना ऊंचा नहीं उठ सकता
कोई
जब ये बने
इन पर भी राख गिरी ज्वालामुखियों की
छाये रहे धूल के बादल
सैकड़ों बरस
फिर गिरा पानी
एक लगातार अनथक
बरसात
एक प्रागैतिहासिक धीरज के साथ
ये ठंडे हुए
आज जो चमकते दीखते हैं
उन्होंने भी भोगे हैं प्रतिशोध
भीतर-भीतर खौले हैं
बर्फ-सा जमा हुआ उन पर
युगों का अवसाद है
पक्षी अब भी जाते हैं यहां से वहाँ
फर्क सिर्फ इतना है
पहले अछोर समुद्र था बीच में
अब
रोककर सहारा देते
पहाड़ हैं! -2005-
वागर्थ में प्रकाशित
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शिरीष कुमार मौर्य के कविताओं की पहली किश्त व लेखक परिचय यहाँ पढ़ें:
शिरीष कुमार मौर्य की कविताएँ -1
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चित्र - अनु की डिजिटल कलाकृति
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