...
**-**
सब भूल जाते हैं...
केवल
याद रहते हैं
आत्मीयता से सिक्त
कुछ क्षण राग के,
संवेदना अनुभूत
रिश्तों की दहकती आग के!
आदमी के आदमी से
प्रीति के सम्बन्ध
जीती-भोगती सह-राह के
अनुबन्ध!
केवल याद आते हैं!
सदा।
जब-तब
बरस जाते
व्यथा-बोझिल
निशा के
जागते एकान्त क्षण में,
डूबते निस्संग भारी
क्लान्त मन में!
अश्रु बन
पावन!
(2) ममत्व
न दुर्लभ हैं
न हैं अनमोल
मिलते ही नहीं
इहलोक में, परलोक में
आंसू .... अनूठे प्यार के,
आत्मा के
अपार-अगाध अति-विस्तार के!
हृदय के घन-गहनतम तीर्थ से
इनकी उमड़ती है घटा,
और फिर ....
जिस क्षण
उभरती चेहरे पर
सत्त्व भावों की छटा _
हो उठते सजल
दोनों नयन के कोर,
पोंछ लेता अंचरा का छोर!
(3) यथार्थ
राह का
नहीं है अंत
चलते रहेंगे हम!
दूर तक फैला
अंधेरा
नहीं होगा ज़रा भी कम!
टिमटिमाते दीप-से
अहर्निश
जलते रहेंगे हम!
साँसें मिली हैं
मात्र गिनती की
अचानक एक दिन
धड़कन हृदय की जायगी थम!
समझते-बूझते सब
मृत्यु को छलते रहेंगे हम!
हर चरण पर
मंज़िलें होती कहाँ हैं?
ज़िन्दगी में
कंकड़ों के ढेर हैं
मोती कहाँ हैं?
(4) लमहा
एक लमहा
सिर्फ़ एक लमहा
एकाएक छीन लेता है
ज़िन्दगी!
हाँ, फ़क़त एक लमहा।
हर लमहा
अपना गूढ़ अर्थ रखता है,
अपना एक मुकम्मिल इतिहास
सिरजता है,
बार - बार बजता है।
इसलिए ज़रूरी है _
हर लमहे को भरपूर जियो,
जब-तक
कर दे न तुम्हारी सत्ता को
चूर - चूर वह।
हर लमहा
ख़ामोश फिसलता है
एक-सी नपी रफ्तार से
अनगिनत हादसों को
अंकित करता हुआ,
अपने महत्त्व को घोषित करता हुआ!
(5) निरन्तरता
हो विरत ...
एकान्त में,
जब शान्त मन से
भुक्त जीवन का
सहज करने विचारण _
झाँकता हूँ
आत्मगत
अपने विलुप्त अतीत में _
चित्रावली धुँधली
उभरती है विशृंखल ... भंग-क्रम
संगत-असंगत
तारतम्य-विहीन!
औचक फिर
स्वत: मुड़
लौट आता हूँ
उपस्थित काल में!
जीवन जगत जंजाल में!
(6) नहीं
लाखों लोगों के बीच
अपरिचित अजनबी
भला,
कोई कैसे रहे!
उमड़ती भीड़ में
अकेलेपन का दंश
भला,
कोई कैसे सहे!
असंख्य आवाज़ों के
शोर में
किसी से अपनी बात
भला,
कोई कैसे कहे!
(7) अपेक्षा
कोई तो हमें चाहे
गाहे-ब-गाहे!
निपट सूनी
अकेली ज़िन्दगी में,
गहरे कूप में बरबस
ढकेली ज़िन्दगी में,
निष्ठुर घात-वार-प्रहार
झेली ज़िन्दगी में,
कोई तो हमें चाहे,
सराहे!
किसी की तो मिले
शुभकामना
सद्भावना!
अभिशाप झुलसे लोक में
सर्वत्र छाये शोक में
हमदर्द हो
कोई
कभी तो!
तीव्र विद्युन्मय
दमित वातावरण में
बेतहाशा गूँजती जब
मर्मवेधी
चीख-आह-कराह,
अतिदाह में जलती
विधवंसित ज़िन्दगी
आबद्व कारागाह!
ऐसे तबाही के क्षणों में
चाह जगती है कि
कोई तो हमें चाहे
भले,
गाहे-ब-गाहे!
(8) चिर-वंचित
जीवन - भर
रहा अकेला,
अनदेखा _
सतत उपेक्षित
घोर तिरस्कृत!
जीवन - भर
अपने बलबूते
झंझावातों का रेला
झेला !
जीवन - भर
जस-का-तस
ठहरा रहा झमेला !
जीवन - भर
असह्य दुख - दर्द सहा,
नहीं किसी से
भूल
शब्द एक कहा!
अभिशापों तापों
दहा - दहा!
रिसते घावों को
सहलाने वाला
कोई नहीं मिला _
पल - भर
नहीं थमी
सर -सर
वृष्टि - शिला!
एकाकी
फाँकी धूल
अभावों में -
घर में :
नगरों-गाँवों में!
यहाँ - वहाँ
जानें कहाँ - कहाँ!
(9) जीवन्त
दर्द समेटे बैठा हूँ!
रे, कितना-कितना
दु:ख समेटे बैठा हूँ!
बरसों-बरसों का दुख-दर्द
समेटे बैठा हूँ!
रातों-रातों जागा,
दिन-दिन भर जागा,
सारे जीवन जागा!
तन पर भूरी-भूरी गर्द
लपेटे बैठा हूँ!
दलदल-दलदल
पाँव धँसे हैं,
गर्दन पर, टख़नों पर
नाग कसे हैं,
काले-काले ज़हरीले
नाग कसे हैं!
शैया पर
आग बिछाए बैठा हूँ!
धायँ-धायँ!
दहकाए बैठा हूँ!
(10) अतिचार
अर्थहीन हो जाता है
सहसा
चिर-संबंधें का विश्वास _
नहीं, जन्म-जन्मान्तर का विश्वास!
अरे, क्षण-भर में
मिट जाता है
वर्षों-वर्षों का होता घनीभूत
अपनेपन का अहसास!
ताश के पत्तों जैसा
बाँध टूटता है जब
मर्यादा का,
स्वनिर्मित सीमाओं को
आवेष्टित करते विद्युत-प्रवाह-युक्त तार
तब बन जाते हैं
निर्जीव अचानक!
लुप्त हो जाती हैं सीमाएँ,
छलाँग भर-भर फाँद जाते हैं
स्थिर पैर,
डगमगाते काँपते हुए
स्थिर पैर!
भंग हो जाती है
शुद्व उपासना
कठिन सिद्व साधना!
धर्म-विहित कर्म
खोखले हो जाते हैं,
तथाकथित सत्य प्रतिज्ञाएँ
झुठलाती हैं।
बेमानी हो जाते हैं
वचन-वायदे!
और _
प्यार बन जाता है
निपट स्वार्थ का समानार्थक!
अभिप्राय बदल लेती हैं
व्याख्याएँ
पाप-पुण्य की,
छल _
आत्माओं के मिलाप का
नग्न सत्य में / यथार्थ रूप में
उतर आता है!
संयम के लौह-स्तम्भ
टूट ढह जाते हैं,
विवेक के शहतीर स्थान-च्युत हो
तिनके की तरह
डूब बह जाते हैं।
जब भूकम्प वासना का
'तीव्रानुराग' का
आमूल थरथरा देता है शरीर को,
हिल जाती हैं मन की
हर पुख्ता-पुख्ता चूल!
आदमी
अपने अतीत को, वर्तमान को, भविष्य को
जाता है भूल!
(11) पूर्वाभास
बहुत पीछे
छोड़ आये हैं
प्रेम-संबंधों
शत्रुताओं के
अधजले शव!
खामोश है
बरसों, बरसों से
तड़पता / चीखता
दम तोड़ता रव!
इस समय तक _
सूख कर अवशेष
खो चुके होंगे
हवा में!
बह चुके होंगे
अनगिनत
बारिशों में!
जब से छोड़ आया
लौटा नहीं;
फिर, आज यह क्यों
प्रेत छाया
सामने मेरे?
शायद,
हश्र अब होना
यही है _
मेरे समूचे
अस्तित्व का!
हर ज्वालामुखी को
एक दिन
सुप्त होना है!
सदा को
लुप्त होना है!
(12) अवधूत
लोग हैं _
ऐसी हताशा में
व्यग्र हो
कर बैठते हैं
आत्म-हत्या!
या
खो बैठते हैं संतुलन
तन का / मन का!
व हो विक्षिप्त
रोते हैं - अकारण!
हँसते हैं - अकारण!
किन्तु तुम हो
स्थिर / स्व-सीमित / मौन / जीवित / संतुलित
अभी तक!
वस्तुत:
जिसने जी लिया संन्यास
मरना और जीना
एक है उसके लिए!
विष हो या अमृत
पीना
एक है उसके लिए!
(13) सार-तत्व
सकते में क्यों हो,
अरे!
नहीं आ सकते
जब काम
किसी के तुम _
कोई क्यों आये
पास तुम्हारे?
चुप रहो,
सब सहो!
पड़े रहो
मन मारे,
यहाँ-वहाँ!
कोई सुने
तुम्हारे अनुभव,
कोई सुने
तुम्हारी गाथा,
नहीं समय है
पास किसी के!
निष्फल -
ऐसा करना
आस किसी से!
अच्छा हो
सूने कमरे की दीवारों पर
शब्दांकित कर दो,
नाना रंगों से
चित्रांकित कर दो
अपना मन!
शायद, कोई कभी
पढ़े / गुने!
या
किसी रिकॉर्डिंग-डेक में
भर दो
अपनी करुण कहानी
बख़ुद ज़बानी!
शायद, कोई कभी
सुने!
लेकिन
निश्चिन्त रहो _
कहीं न फैले दुर्गन्ध
इसलिए तुरन्त
लोग तुम्हें
गड्ढ़े में गाड़ / दफ़न
या
कर सम्पन्न दहन
विधिवत्
कर देंगे ख़ाक / भस्म
ज़रूर!
विधिवत्
पूरी कर देंगे
आख़िरी रस्म
ज़रूर!
(14) निष्कर्ष
ऊहापोह
(जितना भी)
ज़रूरी है।
विचार-विमर्श
हो परिपक्व जितने भी समय में।
तत्त्व-निर्णय के लिए
अनिवार्य
मीमांसा-समीक्षा / तर्क / विशद विवेचना
प्रत्येक वांछित कोण से।
क्योंकि जीवन में
हुआ जो भी घटित -
वह स्थिर सदा को,
एक भी अवसर नहीं उपलब्ध
भूल-सुधार को।
सम्भव नहीं
किंचित बदलना
कृत-क्रिया को।
सत्य _
कर्ता और निर्णायक
तुम्हीं हो,
पर नियामक तुम नहीं।
निर्लिप्त हो
परिणाम या फल से।
(विवशता)
सिध्द है _
जीवन : परीक्षा है कठिन
पल-पल परीक्षा है कठिन।
वीक्षा करो
हर साँस गिन-गिन,
जो समक्ष
उसे करो स्वीकार
अंगीकार!
(15) तुलना
जीवन
कोई पुस्तक तो नहीं
कि जिसे
सोच-समझ कर
योजनाबद्व ढंग से
लिखा जाए / रचा जाए!
उसकी विषयवस्तु को _
क्रमिक अधयायों में
सावधानी से बाँटा जाए,
मर्मस्पर्शी प्रसंगों को छाँटा जाए!
स्व-अनुभव से, अभ्यास से
सुन्दर व कलात्मक आकार में
ढाला जाए,
शैथिल्य और बोझिलता से बचा कर
चमत्कार की चमक में उजाला जाए!
जीवन की कथा
स्वत: बनती-बिगड़ती है
पूर्वापर संबंध नहीं गढ़ती है!
कब क्या घटित हो जाए
कब क्या बन-सँवर जाए,
कब एक झटके में
सब बिगड़ जाए!
जीवन के कथा-प्रवाह में
कुछ भी पूर्व-निश्चित नहीं,
अपेक्षित-अनपेक्षित नहीं,
कोई पूर्वाभास नहीं,
आयास-प्रयास नहीं!
ख़ूब सोची-समझी
शतरंज की चालें
दूषित संगणक की तरह
चलने लगती हैं,
नियंत्रक को ही
छलने लगती हैं
जीती बाज़ी
हार में बदलने लगती है!
या अचानक
अदृश्य हुआ वर्तमान
पुन: उसी तरतीब से
उतर आता है
भूकम्प के परिणाम की तरह!
अपने पूर्ववत् रूप-नाम की तरह!
(16) अनुभूति
जीवन-भर
अजीबोगरीब मूर्खताएँ
करने के सिवा,
समाज का
थोपा हुआ कर्ज़
भरने के सिवा,
क्या किया?
ग़लतियाँ कीं
ख़ूब ग़लतियाँ कीं,
चूके
बार-बार चूके!
यों कहें -
जिये;
लेकिन जीने का ढंग
कहाँ आया?
(ढोंग कहाँ आया!)
और अब सब-कुछ
भंग-रंग
हो जाने के बाद _
दंग हूँ,
बेहद दंग हूँ!
विवेक अपंग हूँ!
विश्वास किया
लोगों पर,
अंध-विश्वास किया
अपनों पर!
और धूर्त
साफ़ कर गये सब
घर-बार,
बरबाद कर गये
जीवन का
रूप-रंग सिँगार!
छद्म थे, मुखौटे थे,
सत्य के लिबास में
झूठे थे,
अजब ग़ज़ब के थे!
ज़िन्दगी गुज़र जाने के बाद,
नाटक की
फल-प्राप्ति / समाप्ति के क़रीब,
सलीब पर लटके हुए
सचाई से रू-ब-रू हुए जब _
अनुभूत हुए
असंख्य विद्युत-झटके
तीव्र अग्नि-कण!
ऐंठते
दर्द से आहत
तन-मन!
हैरतअंगेज़ है, सब!
सब, अद्भुत है!
अस्तित्व कहाँ हैं मेरा,
मेरा बुत है!
अब,
पछतावे का कड़वा रस
पीने के सिवा
बचा क्या?
ज़माने को
न थी, न है
रत्ती-भर
शर्म-हया!
(17) आह्लाद
बदली छायी
बदली छायी!
दिशा-दिशा में
बिजली कौंधी,
मिट्टी महकी
सोंधी-सोंधी!
युग-युग
विरह-विरस में
डूबी,
एकाकी
घबरायी
ऊबी,
अपने
प्रिय जलधर से
मिल कर,
हाँ, हुई सुहागिन
धन्य धरा,
मेघों के रव से
शून्य भरा!
वर्षा आयी
वर्षा आयी!
उमड़ी
शुभ
घनघोर घटा,
छायी
श्यामल दीप्त छटा!
दुलहिन झूमी
घर-घर घूमी
मनहर स्वर में
कजली गायी!
बदली छायी
वर्षा आयी!
(18) आसक्ति
भोर होते _
द्वार वातायन झरोखों से
उचकतीं-झाँकतीं उड़तीं
मधुर चहकार करतीं
सीधी सरल चिड़ियाँ
जगाती हैं,
उठाती हैं मुझे!
रात होते
निकट के पोखरों से
आ - आ
कभी झींगुर; कभी दर्दुर
गा - गा
सुलाते हैं,
नव-नव स्वप्न-लोकों में
घुमाते हैं मुझे!
दिन भर _
रँग-बिरंगे दृश्य-चित्रों से
मोह रखता है
अनंग-अनंत नीलाकाश!
रात भर _
नभ-पर्यंक पर
रुपहले-स्वर्णिम सितारों की छपी
चादर बिछाए
सोती ज्योत्स्ना
कितना लुभाती है!
अंक में सोने बुलाती है!
ऐसे प्यार से
मुँह मोड़ लूँ कैसे?
धरा - इतनी मनोहर
छोड़ दूँ कैसे?
(19) मंत्र-मुग्ध
गहन पहेली,
ओ लता - चमेली!
अपने
फूलों में / अंगों में
इतनी मोहक सुगन्ध
अरे,
कहाँ से भर लायीं!
ओ श्वेता!
ओ शुभ्रा!
कोमल सुकुमार सहेली!
इतना आकर्षक मनहर सौन्दर्य
कहाँ से हर लायीं!
धर लायीं!
सुवास यह
बाहर की, अन्तर की
तन की, आत्मा की
जब-जब
करता हूँ अनुभूत _
भूल जाता हूँ
सांसारिकता,
अपना अता-पता!
कुछ क्षण को इस दुनिया में
खो जाता हूँ,
तुमको एकनिष्ठ
अर्पित हो जाता हूँ!
ओ सुवासिका!
ओ अलबेली!
ओ री, लता - चमेली!
(20) हवा
ओ प्रिय
सुख-गंध भरी
मदमत्ता हवा!
मेरी ओर बहो _
हलके-हलके!
बरसाओ
मेरे
तन पर, मन पर
शीतल छींटें जल के!
ओ प्यारी
लहर-लहर लहराती
उन्मत्ता हवा!
नि:संकोच करो
बढ़ कर उष्ण स्पर्श
मेरे तन का!
ओ, सर-सर स्वर भरती
मधुरभाषिणी
मुखर हवा!
चुपके-चुपके
मेरे कानों में
अब तक अनबोला
कोई राज़ कहो
मन का!
आओ!
मुझ पर छाओ!
खोल लाज-बंध
आज
आवेष्टित हो जाओ,
आजीवन
अनुबन्धित हो जाओ!
(21) जिजीविषु
अचानक
आज जब देखा तुम्हें _
कुछ और जीना चाहता हूँ!
गुज़र कर
बहुत लम्बी कठिन सुनसान
जीवन-राह से,
प्रतिपल झुलस कर
ज़िन्दगी के सत्य से
उसके दहकते दाह से,
अचानक
आज जब देखा तुम्हें _
कड़वाहट भरी इस ज़िन्दगी में
विष और पीना चाहता हूँ!
कुछ और जीना चाहता हूँ!
अभी तक
प्रेय!
कहाँ थीं तुम?
नील-कुसुम!
(22) राग-संवेदन / 2
तुम _
बजाओ साज़
दिल का,
ज़िन्दगी का गीत
मैं _
गाऊँ!
उम्र यों
ढलती रहे,
उर में
धड़कती साँस यह
चलती रहे!
दोनों हृदय में
स्नेह की बाती लहर
बलती रहे!
जीवन्त प्राणों में
परस्पर
भावना - संवेदना
पलती रहे!
तुम _
सुनाओ
इक कहानी प्यार की
मोहक,
सुन जिसे
मैं _
चैन से
कुछ क्षण
कि सो जाऊँ!
दर्द सारा भूल कर
मधु-स्वप्न में
बेफ़िक्र खो जाऊँ!
तुम _
बहाओ प्यार-जल की
छलछलाती धार,
चरणों पर तुम्हारे
स्वर्ग - वैभव
मैं _
झुका लाऊँ!
(23) वरदान
याद आता है
तुम्हारा प्यार!
तुमने ही दिया था
एक दिन
मुझको
रुपहले रूप का संसार!
सज गये थे
द्वार-द्वार सुदर्श
बन्दनवार!
याद आता है
तुम्हारा प्यार!
प्राणप्रद उपहार!
(24) स्मृति
याद आते हैं
तुम्हारे सांत्वना के बोल!
आया
टूट कर
दुर्भाग्य के घातक प्रहारों से
तुम्हारे अंक में
पाने शरण!
समवेदना अनुभूति से भर
ओ, मधु बाल!
भाव-विभोर हो
तत्क्षण
तुम्हीं ने प्यार से
मुझको
सहर्ष किया वरण!
दी विष भरे आहत हृदय में
शान्ति मधुजा घोल!
खड़ीं
अब पास में मेरे,
निरखतीं
द्वार हिय का खोल!
याद आते हैं
प्रिया!
मोहन तुम्हारे
सांत्वना के बोल!
(25) बहाना
याद आता है
तुम्हारा रूठना!
मनुहार-सुख
अनुभूत करने के लिए,
एकरसता-भार से
ऊबे क्षणों में
रंग जीवन का
नवीन अपूर्व
भरने के लिए!
याद आता है
तुम्हारा रूठना!
जन्म-जन्मान्तर पुरानी
प्रीति को
फिर-फिर निखरने के लिए,
इस बहाने
मन-मिलन शुभ दीप
ऑंगन-द्वार
धरने के लिए!
याद आता है
तुम्हारा रूठना!
अपार-अपार भाता है
तुम्हारा रागमय
बीते दिनों का रूठना!
(26) दूरवर्ती से
शेष जीवन
जी सकूँ सुख से
तुम्हारी याद
काफ़ी है!
कभी
कम हो नहीं
एहसास जीवन में
तुम्हारा
यह बिछोह-विषाद
काफ़ी है!
तुम्हारी भावनाओं की
धरोहर को
सहेजा आज-तक
मन में,
अमरता के लिए
केवल उन्हीं का
सरस गीतों में
सहज अनुवाद
काफ़ी है!
(27) बोध
भूल जाओ _
मिले थे हम
कभी!
चित्र जो अंकित हुए
सपने थे
सभी!
भूल जाओ _
रंगों को
बहारों को,
देह से : मन से
गुज़रती
कामना-अनुभूत धारों को!
भूल जाओ _
हर व्यतीत-अतीत को,
गाये-सुनाये
गीत को : संगीत को!
(28) श्रेयस्
सृष्टि में वरेण्य
एक-मात्रा
स्नेह-प्यार भावना!
मनुष्य की
मनुष्य-लोक मध्य,
सर्व जन-समष्टि मध्य
राग-प्रीति भावना!
समस्त जीव-जन्तु मध्य
अशेष हो
मनुष्य की दयालुता!
यही
महान श्रेष्ठतम उपासना!
विश्व में
हरेक व्यक्ति
रात-दिन / सतत
यही करे
पवित्र प्रकर्ष साधना!
व्यक्ति-व्यक्ति में जगे
यही
सरल-तरल अबोध निष्कपट
एकनिष्ठ चाहना!
(29) संवेदना
काश, ऑंसुओं से मुँह धोया होता,
बीज प्रेम का मन में बोया होता,
दुर्भाग्यग्रस्त मानवता के हित में
अपना सुख, अपना धन खोया होता!
(30) दो ध्रुव
स्पष्ट विभाजित है
जन-समुदाय _
समर्थ / असहाय।
हैं एक ओर _
भ्रष्ट राजनीतिक दल
उनके अनुयायी खल,
सुख-सुविध-साधन-सम्पन्न
प्रसन्न।
धन-स्वर्ण से लबालब
आरामतलब / साहब और मुसाहब!
बँगले हैं / चकले हैं,
तलघर हैं / बंकर हैं,
भोग रहे हैं
जीवन की तरह-तरह की नेमत,
हैरत है, हैरत!
दूसरी तरफ़ _
जन हैं
भूखे-प्यासे दुर्बल, अभावग्रस्त ... त्रस्त,
अनपढ़,
दलित असंगठित,
खेतों - गाँवों / बाजारों - नगरों में
श्रमरत,
शोषित / वंचित / शंकित!
(31) विपत्ति-ग्रस्त
बारिश
थमने का नाम नहीं लेती,
जल में डूबे
गाँवों-क़स्बों को
थोड़ा भी
आराम नहीं देती!
सचमुच,
इस बरस तो क़हर ही
टूट पड़ा है,
देवा, भौचक खामोश
खड़ा है!
ढह गया घरौंधा
छप्पर-टप्पर,
बस, असबाब पड़ा है
औंधा!
आटा-दाल गया सब बह,
देवा, भूखा रह!
इंधन गीला
नहीं जलेगा चूल्हा,
तैर रहा है चौका
रहा-सहा!
घन-घन करते
नभ में वायुयान
मँडराते
गिध्दों जैसे!
शायद,
नेता / मंत्री आये
करने चहलक़दमी,
उत्तार-दक्षिण
पूरब-पश्चिम
छायी
ग़मी-ग़मी!
अफ़सोस
कि बारिश नहीं थमी!
(32) विजयोत्सव
एरोड्रोम पर
विशेष वायुयान में
पार्टी का
लड़ैता नेता आया है,
'शताब्दी' से
स्टेशन पर
कांग्रेस का
चहेता नेता आया है,
'ए-सी एम्बेसेडर' से
सड़क-सड़क,
दल का
जेता नेता आया है,
भरने जयकारा,
पुरज़ोर बजाने
सिंगा, डंका, डिंडिम,
पहुँचा
हुर्रा-हुर्रा करता
सैकड़ों का हुजूम!
पालतू-फालतू बकरियों का,
शॉल लपेटे सीधी मूर्ख भेड़ों का,
संडमुसंड जंगली वराहों का,
बुज़दिल भयभीत सियारों का!
में-में करता
गुर्रा-गुर्रा हुंकृति करता
करता हुऑं-हुऑं!
चिल्लाता _
लूट-लूट,
प्रतिपक्षी को ....
शूट-शूट!
जय का जश्न मनाता
'गब्बर' नेता का!
(33) हैरानी
कितना ख़ुदग़रज़
हो गया इंसान!
बड़ा ख़ुश है
पाकर तनिक-सा लाभ _
बेच कर ईमान!
चंद सिक्कों के लिए
कर आया
शैतान को मतदान,
नहीं मालूम
'ख़ुददार' का मतलब
गट-गट पी रहा अपमान!
रिझाने मंत्रियों को
उनके सामने
कठपुतली बना निष्प्राण,
अजनबी-सा दीखता _
आदमी की
खो चुका पहचान!
(34) समता-स्वप्न
विश्व का इतिहास
साक्षी है _
अभावों की
धधकती आग में
जीवन
हवन जिनने किया,
अन्याय से लड़ते
व्यवस्था को बदलते
पीढ़ियों
यौवन
दहन जिनने किया,
वे ही
छले जाते रहे
प्रत्येक युग में,
क्रूर शोषण-चक्र में
अविरत
दले जाते रहे
प्रत्येक युग में!
विषमता
और ...
बढ़ती गयी,
बढ़ता गया
विस्तार अन्तर का!
हुआ धनवान
और साधनभूत,
निर्धन -
और निर्धन,
अर्थ गौरव हीन,
हतप्रभ दीन!
लेकिन;
विश्व का इतिहास
साक्षी है _
परस्पर
साम्यवाही भावना इंसान की
निष्क्रिय नहीं होगी,
न मानेगी पराभव!
लक्ष्य तक पहुँचे बिना
होगी नहीं विचलित,
न भटकेगा / हटेगा
एक क्षण
अवरुद्व हो लाचार
समता-राह से मानव!
(35) अपहर्ता
धूर्त _
सरल दुर्बल को
ठगने
धोखा देने
बैठे हैं तैयार!
धूर्त _
लगाये घात,
छिपे
इर्द-गिर्द
करने गहरे वार!
धूर्त -
फ़रेबी कपटी
चौकन्ने
करने छीना-झपटी,
लूट-मार
हाथ-सफ़ाई
चतुराई
या
सीधे मुष्टि-प्रहार!
धूर्त _
हड़पने धन-दौलत
पुरखों की वैध विरासत
हथियाने माल-टाल
कर दूषित बुद्वि-प्रयोग!
धृष्ट,
दु:साहसी,
निडर!
बना रहे
छद्म लेख-प्रलेख!
चमत्कार!
विचित्र चमत्कार!
(36) दृष्टि
जीवन के कठिन संघर्ष में
हारो हुओ!
हर क़दम
दुर्भाग्य के मारो हुओ!
असहाय बन
रोओ नहीं,
गहरा ऍंधेरा है,
चेतना खोओ नहीं!
पराजय को
विजय की सूचिका समझो,
ऍंधेरे को
सूरज के उदय की भूमिका समझो!
विश्वास का यह बाँध
फूटे नहीं!
नये युग का सपन यह
टूटे नहीं!
भावना की डोर यह
छूटे नहीं!
(37) परिवर्तन
मौसम
कितना बदल गया!
सब ओर कि दिखता
नया-नया!
सपना _
जो देखा था
साकार हुआ,
अपने जीवन पर
अपनी क़िस्मत पर
अपना अधिकार हुआ!
समता का
बोया था जो बीज-मंत्र
पनपा, छतनार हुआ!
सामाजिक-आर्थिक
नयी व्यवस्था का आधार बना!
शोषित-पीड़ित जन-जन जागा,
नवयुग का छविकार बना!
साम्य-भाव के नारों से
नभ-मंडल दहल गया!
मौसम
कितना बदल गया!
(38) युगान्तर
अब तो
धरती अपनी,
अपना आकाश है!
सूर्य उगा
लो
फैला सर्वत्र
प्रकाश है!
स्वधीन रहेंगे
सदा-सदा
पूरा विश्वास है!
मानव-विकास का चक्र
न पीछे मुड़ता
साक्षी इतिहास है!
यह
प्रयोग-सिद्ध
तत्व-ज्ञान
हमारे पास है!
(39) प्रार्थना
सूरज,
ओ, दहकते लाल सूरज!
बुझे
मेरे हृदय में
ज़िन्दगी की आग
भर दो!
थके निष्क्रिय
तन को
स्फूर्ति दे
गतिमान कर दो!
सुनहरी धूप से,
आलोक से -
परिव्याप्त
हिम / तम तोम
हर लो!
सूरज,
ओ लहकते लाल सूरज!
(40) प्रबोध
नहीं निराश / न ही हताश!
सत्य है-
गये प्रयत्न व्यर्थ सब
नहीं हुआ सफल,
किन्तु हूँ नहीं
तनिक विकल!
बार-बार
हार के प्रहार
शक्ति-स्रोत हों,
कर्म में प्रवृत्ता मन
ओज से भरे
सदैव ओत-प्रोत हों!
हों हृदय उमंगमय,
स्व-लक्ष्य की
रुके नहीं तलाश!
भूल कर
रुके नहीं कभी
अभीष्ट वस्तु की तलाश!
हो गये निराश
तय विनाश!
हो गये हताश
सर्वनाश!
(41) सुखद
सहधर्मी / सहकर्मी
खोज निकाले हैं
दूर - दूर से
आस - पास से
और जुड़ गया है
अंग - अंग
सहज
किन्तु / रहस्यपूर्ण ढंग से
अटूट तारों से,
चारों छोरों से
पक्के डोरों से!
अब कहाँ अकेला हूँ ?
कितना विस्तृत हो गया अचानक
परिवार आज मेरा यह!
जाते - जाते
कैसे बरस पड़ा झर - झर
विशुध्द प्यार घनेरा यह!
नहलाता आत्मा को
गहरे - गहरे!
लहराता मन का
रिक्त सरोवर
ओर - छोर
भरे - भरे!
(42) बदलो!
सड़ती लाशों की
दुर्गन्ध लिए
छूने
गाँवों-नगरों के
ओर-छोर
जो हवा चली _
उसका रुख़ बदलो!
ज़हरीली गैसों से
अलकोहल से
लदी-लदी
गाँवों-नगरों के
नभ-मंडल पर
जो हवा चली
उससे सँभलो!
उसका रुख़ बदलो!
(43) बचाव
कैसी चली हवा!
हर कोई
केवल
हित अपना
सोचे,
औरों का हिस्सा
हड़पे,
कोई चाहे कितना
तड़पे!
घर भरने अपना
औरों की
बोटी-बोटी काटे
नोचे!
इस
संक्रामक सामाजिक
बीमारी की
क्या कोई नहीं दवा?
कैसी चली हवा!
(44) पहल
घबराए
डरे-सताए
मोहल्लों में / नगरों में / देशों में
यदि -
सब्र और सुकून की
बहती
सौम्य-धारा चाहिए,
आदमी-आदमी के बीच पनपता
यदि -
प्रेम-बंध गहरा भाईचारा चाहिए,
तो _
विवेकशून्य अंध-विश्वासों की
कन्दराओं में
अटके-भटके
आदमी को
इंसान नया बनना होगा।
युगानुरूप
नया समाज-शास्त्र
विरचना होगा!
तमाम
खोखले अप्रासंगिक
मज़हबी उसूलों को,
आडम्बरों को
त्याग कर
वैज्ञानिक विचार-भूमि पर
नयी उन्नत मानव-संस्कृति को
गढ़ना होगा।
अभिनव आलोक में
पूर्ण निष्ठा से
नयी दिशा में
बढ़ना होगा!
इंसानी रिश्तों को
सर्वोच्च मान कर
सहज स्वाभाविक रूप में
ढलना होगा,
स्थायी शान्ति-राह पर
आश्वस्त भाव से
अविराम अथक
चलना होगा!
कल्पित दिव्य शक्ति के स्थान पर
'मनुजता अमर सत्य'
कहना होगा!
सम्पूर्ण विश्व को
परिवार एक
जान कर , मान कर
परस्पर मेल-मिलाप से
रहना होगा!
वर्तमान की चुनौतियों से
जूझते हुए
जीवन वास्तव को
चुनना होगा!
हर मनुष्य की
राग-भावना, विचारणा को
गुनना-सुनना होगा!
(45) अद्भुत
आदमी _
अपने से पृथक धर्म वाले
आदमी को
प्रेम-भाव से _ लगाव से
क्यों नहीं देखता?
उसे ग़ैर मानता है,
अक्सर उससे वैर ठानता है!
अवसर मिलते ही
अरे, ज़रा भी नहीं झिझकता
देने कष्ट,
चाहता है देखना उसे
जड-मूल-नष्ट!
देख कर उसे
तनाव में
आ जाता है,
सर्वत्र
दुर्भाव प्रभाव
घना छा जाता है!
ऐसा क्यों होता है?
क्यों होता है ऐसा?
कैसा है यह आदमी?
गज़ब का
आदमी अरे, कैसा है यह?
ख़ूब अजीबोगरीब मज़हब का
कैसा है यह?
सचमुच,
डरावना वीभत्स काल जैसा!
जो - अपने से पृथक धर्म वाले को
मानता-समझता
केवल ऐसा-वैसा!
(46) स्वप्न
पागल सिरफिरे
किसी भटनागर ने
माननीय प्रधान-मंत्री ......... की
हत्या कर दी,
भून दिया गोली से!!
ख़बर फैलते ही
लोगों ने घेर लिया मुझको _
'भटनागर है,
मारो ... मारो ... साले को!
हत्यारा है ... हत्यारा है!'
मैंने उन्हें बहुत समझाया
चीख-चीख कर समझाया _
भाई, मैं वैसा 'भटनागर' नहीं!
अरे, यह तो फ़कत नाम है मेरा,
उपनाम (सरनेम) नहीं!
मैं
'महेंद्रभटनागर हूँ,
या 'महेंद्र' हूँ
भटनागर-वटनागर नहीं,
भई, कदापि नहीं!
ज़रा, सोचो-समझो।
लेकिन भीड़ सोचती कब है?
तर्क सचाई सुनती कब है?
सब टूट पड़े मुझ पर
और राख कर दिया मेरा घर!!
इतिहास गवाही दे _
किन-किन ने / कब-कब / कहाँ-कहाँ
झेली यह विभीषिका,
यह ज़ुल्म सहा?
कब-कब / कहाँ-कहाँ
दरिन्दगी की ऐसी रौ में
मानव समाज
हो पथ-भ्रष्ट बहा?
वंश हमारा
धर्म हमारा
जोड़ा जाता है क्यों
नामों से, उपनामों से?
कोई सहज बता दे _
ईसाई हूँ या मुस्लिम
या फिर हिन्दू हूँ
(कार्यस्थ एक,
शूद्र कहीं का!)
कहा करे कि
'नाम है मेरा - महेंद्रभटनागर,
जिसमें न छिपा है वंश, न धर्म!'
(न और कोई मर्म!)
अत: कहना सही नहीं -
'क्या धरा है नाम में!'
अथवा
'जात न पूछो साधु की!'
हे कबीर!
क्या कोई मानेगा बात तुम्हारी?
आख़िर,
कब मानेगा बात तुम्हारी?
'शिक्षित' समाज में,
'सभ्य सुसंस्कृत' समाज में
आदमी - सुरक्षित है कितना?
आदमी - अरक्षित है कितना?
हे सर्वज्ञ इलाही,
दे, सत्य गवाही!
(47) यथार्थता
जीवन जीना _
दूभर - दुर्वह
भारी है!
मानों
दो - नावों की
विकट सवारी है!
पैरों के नीचे
विष - दग्ध दुधारी आरी है,
कंठ - सटी
अति तीक्ष्ण कटारी है!
गल - फाँसी है,
हर वक्त
बदहवासी है!
भगदड़ मारामारी है,
ग़ायब
पूरनमासी,
पसरी सिर्फ़
घनी अंधियारी है!
जीवन जीना _
लाचारी है!
बेहद भारी है!
(48) खिलाड़ी
दौड़ रहा हूँ
बिना रुके / अविश्रांत
निरन्तर दौड़ रहा हूँ!
दिन - रात
रात - दिन
हाँफ़ता हुआ
बद-हवास,
जब -तब
गिर -गिर पड़ता
उठता,
धड़धड़ दौड़ निकलता!
लगता है _
जीवन - भर
अविराम दौड़ते रहना
मात्र नियति है मेरी!
समयान्तर की सीमाओं को
तोड़ता हुआ
अविरल दौड़ रहा हूँ!
बिना किये होड़ किसी से
निपट अकेला,
देखो _
किस क़दर तेज़ _ और तेज़
दौड़ रहा हूँ!
तैर रहा हूँ
अविरत तैर रहा हूँ
दिन - रात
रात - दिन
इधर - उधर
झटकता - पटकता
हाथ - पैर
हारे बग़ैर,
बार - बार
फिचकुरे उगलता
तैर रहा हूँ!
यह ओलम्पिक का
ठंडे पानी का तालाब नहीं,
खलबल खौलते
गरम पानी का
भाप छोड़ता
तालाब है!
कि जिसकी छाती पर
उलटा -पुलटा
विरुध्द - क्रम
देखो,
कैसा तैर रहा हूँ!
अगल - बगल
और - और
तैराक़ नहीं हैं
केवल मैं हूँ
मत्स्य सरीखा
लहराता तैर रहा हूँ!
लगता है _
अब, ख़ैर नहीं
कब पैर जकड़ जाएँ
कब हाथ अकड़ जाएँ।
लेकिन, फिर भी तय है _
तैरता रहूंगा, तैरता रहूंगा!
क्योंकि
ख़ूब देखा है मैंने
लहरों पर लाशों को
उतराते ... बहते!
कूद - कूद कर
लगा रहा हूँ छलाँग
ऊँची - लम्बी
तमाम छलाँग-पर-छलाँग!
दिन - रात
रात - दिन
कुंदक की तरह
उछलता हूँ
बार - बार
घनचक्कर-सा लौट -लौट
फिर - फिर कूद उछलता हूँ!
तोड़ दिये हैं पूर्वाभिलेख
लगता है _
पैमाने छोटे पड़ जाएंगे!
उठा रहा हूँ बोझ
एक-के-बाद-एक
भारी _ और अधिक भारी
और ढो रहा हूँ
यहाँ - वहाँ
दूर - दूर तक _
इस कमरे से उस कमरे तक
इस मकान से उस मकान तक
इस गाँव-नगर से उस गाँव-नगर तक
तपते मरुथल से शीतल हिम पर
समतल से पर्वत पर!
लेकिन
मेरी हुँकृति से
थर्राता है आकाश - लोक,
मेरी आकृति से
भय खाता है मृत्यु-लोक!
तय है
हारेगा हर हृदयाघात,
लुंज पक्षाघात
अमर आत्मा के सम्मुख!
जीवन्त रहूंगा
श्रमजीवी मैं,
जीवन-युक्त रहूंगा
उन्मुक्त रहूंगा!
(49) सिफ़त
यह
आदमी है _
हर मुसीबत
झेल लेता है!
विरोधी ऑंधियों के
दृढ़ प्रहारों से,
विकट विपरीत धारों से
निडर बन
खेल लेता है!
उसका वेगवान् अति
गतिशील जीवन-रथ
कभी रुकता नही,
चाहे कहीं धँस जाय या फँस जाय;
अपने
बुध्दि-बल से / बाहु-बल से
वह बिना हारे-थके
अविलम्ब पार धकेल लेता है!
यह
आदमी है / संयमी है
आफ़तें सब झेल लेता है!
(50) बोध-प्राप्ति
परिपक्व
कड़वे अनुभवों ने ही
बनाया है मुझे!
आदमी की क्षुद्रताओं ने
सही जीना
सिखाया है मुझे!
विश्वासघातों ने
मोह से कर मुक्त
भेद जीवन का
बताया है मुझे!
ज़माने ने सताया जब
बेइंतिहा,
काव्य में पीड़ा
तभी तो गा सका,
मर्माहत हुआ
अपने-परायों से
तभी तो मर्म
जीवन का / जगत् का
पा सका!
**-**
रचनाकार परिचय - महेंद्र भटनागर (डॉ.)
एम.ए., पी-एच. डी. (हिंदी)।
जन्म-तिथि _ 26 जून, 1926; जन्म-स्थान _ झाँसी (उ.प्र. भारत)।
व्यवसाय / सम्प्रति _ अध्यापन, मध्य-प्रदेश महाविद्यालयीन शिक्षा / शोध-निर्देशक : हिन्दी भाषा एवं
साहित्य।
कृतियाँ µ कविता _ तारों के गीत (1949), टूटती शृंखलाएँ (1949), बदलता युग (1953), अभियान
(1954), अंतराल (1954), विहान (1956), नयी चेतना (1956), मधुरिमा (1959), जिजीविषा (1962),
संतरण (1963), चयनिका (1966), बूँद नेह की : दीप हृदय का (1967) / हर सुबह सुहानी हो! (1984) / महेंद्र भटनागर के गीत (2001) / गीति-संगीति (2006), कविश्री : महेंद्रभटनागर (1970), संवर्त (1972), संकल्प (1977), जूझते हुए (1984), जीने के लिए (1990), आहत युग (1997), अनुभूत क्षण (2001),
उमंग तथा अन्य कविताएँ (2001), डा. महेंद्र भटनागर की कविता (2002), मृत्यु-बोध : जीवन-बोध
(2002 ), राग-संवेदन (2005), कविताएँ : एक बेहतर दुनिया के लिए (2006), डा. महेंद्र भटनागर की
कविता-यात्रा (2006), एक मुट्ठी रोशनी (2006), ज़िन्दगीनामा; आलोचना µ आधुनिक साहित्य और कला (1956), दिव्या : एक अध्ययन (1956) / दिव्या : विचार और कला (1971), विजय-पर्व : एक अध्ययन
(1957), समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद (1957), नाटककार हरिकृष्ण 'प्रेमी' और 'संवत्-प्रवर्तन'
(1961), पुण्य-पर्व आलोक (1962), हिन्दी कथा-साहित्य : विविध आयाम (1988), नाटय-सिध्दान्त और
हिन्दी नाटक (1992); एकांकी _ अजेय आलोक (1962); रेखाचित्र / लघुकथाएँ µ लड़खड़ाते क़दम
(1952), विकृतियाँ (1958), विकृत रेखाएँ : धुँधले चित्र (1966); बाल व कैशोर-साहित्य µ हँस-हँस गाने
गाएँ हम! (1957), बच्चों के रूपक (1958) / स्वार्थी दैत्य एवं अन्य रूपक (1995), देश-देश की बातें
(1967) / देश-देश की कहानी
(1982), जय-यात्रा (1971), दादी की कहानियाँ (1974)
विशिष्ट _ डा. महेंद्र भटनागर-समग्र (कविता-खंड 1,2,3 / आलोचना-खंड 4,5 / विविध-खंड 6 : (2002)
अनुवाद _ कविताएँ अनेक विदेशी भाषाओं एवं अधिकांश भारतीय भाषाओं में अनूदित व पुस्तकाकार
प्रकाशित।
संपादन _ 'सन्ध्या' (मासिक / उज्जैन / 1948-49), 'प्रतिकल्पा' (त्रौमासिक / उज्जैन / 1958 ), ।कअपेमत कृ श्च्वमजबतपजश् ;भ्ंस.ल्मिंतसल ध् डंतंदकंए भ्ण्च्ण्ध्2006ध्दए कविश्री : 'अंचल' (1969), स्वातंत्रयोत्तार हिन्दी साहित्य (1969), गोदान-विमर्श (1983)
अध्ययन _ कवि महेंद्र भटनागर : सृजन और मूल्यांकन / सं. डा. दुर्गाप्रसाद झाला (1972), कवि महेंद्र
भटनागर का रचना-संसार / सं. डा. विनयमोहन शर्मा (1980), डा. महेंद्र भटनागर की काव्य-साधना / ममता मिश्रा (1982), प्रगतिवादी कवि महेंद्र भटनागर : अनुभूति और अभिव्यक्ति / डा. माधुरी शुक्ला (1985),
महेंद्र भटनागर और उनकी सर्जनशीलता / डा. विनीता मानेकर (1990), सामाजिक चेतना के शिल्पी : कवि डा. महेंद्र भटनागर / सं. डा. हरिचरण शर्मा (1997), डा. महेंद्र भटनागर के काव्य का वैचारिक एवं
संवेदनात्मक धरातल / डा. रजत षड़ंगी (2003), महेंद्र भटनागर की काव्य-संवेदना : अन्त:अनुशासनीय
आकलन / डा. वीरेंद्र सिंह (2004), डा. महेंद्र भटनागर का कवि-व्यक्तित्व / सं. डा. रवि रंजन (2005), डा.महेंद्रभटनागर का रचना-कर्म / डा. किरणशंकर प्रसाद (2006), डा. महेंद्रभटनागर की काव्य-सृष्टि / सं. डा. रामसजन पाण्डेय;
पुरस्कार-सम्मान _ मध्य-भारत एवं मध्य-प्रदेश की कला व साहित्य-परिषदों द्वारा सन् 1952, 1958, 1960, 1985 में पुरस्कृत; मध्य-भारत हिन्दी
साहित्य सभा, ग्वालियर द्वारा 'हिन्दी-दिवस 1979' पर सम्मान, 2 अक्टूबर 2004 को, 'गांधी-जयन्ती' के
अवसर पर, 'ग्वालियर साहित्य अकादमी'-द्वारा 'डा. शिवमंगलसिंह'सुमन'- अलंकरण / सम्मान,मध्य-प्रदेश लेखक संघ, भोपाल द्वारा 'डा. संतोषकुमार तिवारी - समीक्षक-सम्मान' (2006) एवं अन्य
अनेक सम्मान। संपर्क % 110 बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर _ 474 002 (मध्य-प्रदेश)
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