अन्तरा करवड़े की लघुकथाएँ लघुकथा क्र. 1 से 10 यहाँ पढ़ें गाँव की लड़की शहर के नामी पब्लिक स्कूल के प्रांगण में गहमा गहमी थी। आज प्राईमर...
अन्तरा करवड़े की लघुकथाएँ
लघुकथा क्र. 1 से 10 यहाँ पढ़ें
गाँव की लड़की
शहर के नामी पब्लिक स्कूल के प्रांगण में गहमा गहमी थी। आज प्राईमरी टीचर्स के इण्टरव्यू होने थे। ढेर सारी फेड़ेड़ मेकअप में सजी सजी सँवरी¸ सलवार सूट से लेकर पाश्चात्य कपड़ों में लिपटी कन्याएँ¸ गृहिणियाँ वहाँ थी। कोई अपने पहले के अनुभव बाँट रही थी तो कुछ अपने अंतर्राष्ट्रीय शिक्षण के तमगे लहरा रही थी। किसी को वक्त काटने के लिये जॉब चाहिये था तो कोई इंडिपेंडेंसी फील से परिचित होना चाह रही थी।
इतनी जगमगाहट के बीच¸ फीके नारंगी रंग पर बैंगनी फूलों की सुरूचिपूर्ण कढ़ाई वाली कलफ लगी सूती साड़ी पहने एक लड़की सकुचाई सी बैठी थी। पाश्चात्य शैली में सजाई हुई बैठक में¸ सोफा सेट¸ टीपॉय¸ शोकेस के बीच मोंढ़े सी रखी हुई वह थोड़ी सी आतंकित अवश्य थी लेकिन इसका असर उसके आत्मविश्वास पर नहीं पड़ पाया था। उसके आस - पास के सभी अपने व्यवहार से ही उसे "आऊट ड़ेटेड़" या "रिजेक्टेड़ पीस" जैसा किये दे रही थी।
तभी उनके बीच एक ढ़ाई साल का बालक रोता - रोता दाखिल हुआ। उसकी हाफ पैण्ट गन्दी और गीली थी¸ नाक बह रही थी। धूल में खेलकर आने के कारण आँसुओं से चेहरे पर काले निशान बन गये थे। वह करूणार्द्र स्वर में रोता हुआ¸ अपनी माँ को ढूँढ़ता हुआ वहाँ चला आया था और उसे वहाँ न पाकर उसकी हिचकियाँ बँधी जा रही थी। सारा वातावरण "ओ माय गॉड"¸ "वॉट अ डर्टी किड"¸ "वेयर इज हिज केयरलेस मदर?" जैसे जुमलों से भर गया। नन्हा बालक गोदी में लिये जाने के लिये हर किसी की ओर हाथ बढ़ाता लेकिन उस नन्हे देवदूत को देखकर किसी भी शहरी का दिल नहीं पसीजा।
तभी सूती साड़ी वाली¸ मोढ़े सी गाँव की लड़की ने अपने नयन पोंछे और उस बालक को प्यार से गोदी में लिया। उसके गंदे होने और उससे स्वयं के गंदे हो जाने की परवाह किये बिना! पास ही के गुसलखाने में ले जाकर उसने उसे साफ किया¸ मीठी बातें करने से उसका रूदन बंद हुआ। बालक की टी शर्ट की जेब में उसका नाम - पता लिखा था। वह झट रिसेप्शन पर जाकर सारी जानकारी के साथ उस नन्हे मुन्ने को दे आई जहाँ से माईक पर विधिवत घोषणा कर उसे उसकी माँ के पास सौंप दिया गया।
सूती साड़ी वाली से रिसेप्शन पर उसका नाम - पता आदी पूछा गया। वह वापिस वेटिंग रूम में पहुँची तब उसने पाया कि सारा पाश्चात्य माहौल अब उसे न सिर्फ हिकारत वरन् मजाक की दृष्टि से भी देख रहा था। उसने पास लगे काँच में स्वयं को देखा¸ जगह - जगह गीले धब्बे¸ धूल के दाग। लगता था जैसे बिना इस्त्री की मुचड़ी सी साड़ी पहनी है। वह पसीना - पसीना हो आई। अब क्या खाक इंटरव्यू देगी यहाँ जहाँ पहले से ही इतनी लायक युवतियाँ है! एक नि:श्वास छोडकर वह चल दी। उसके जाने के दस मिनट बाद ही वह इंटरव्यू पोस्ट पोण्ड होने की खबर दी गई और वह वेटिंग रूम "ओह माई गॉड"¸ "हाऊ डिसगस्टिंग" और "सो सॅड" जैसे जुमलों के साथ खाली हुआ।
तीसरे ही दिन सूती साड़ी वाली के घर उस शाला का नियुक्ति पत्र आ पहुँचा। उनकी भाषा में वह एक प्रेक्टिकल थिंकर थी और इसीलिये चुनी गई...
एक जात है सभी
समारोह स्थल पर तो जो होना था वही हुआ। यानी भाषण¸ हार - फूल¸ इनकी ऐसी तो उनकी वैसी। और होता भी क्या है खैर इन राजनीतिक समारोहों में। भीड़ अपना किराया वसूल चलती बनी और टेंट हाऊस वाले ने सिर पर खड़े रहकर जब तक खुद का हिसाब बराबर नहीं कर लिया तब तक वहाँ से हिला तक नहीं। पुराना अनुभवी लगता था। सारे जमीनी से लेकर आसमानी कार्यकर्ता¸ समारोह की सफलता का सेहरा अपने सिर बँधवाने के लिये सामूहिक विवाह समारोह की भाँति रेल पेल मचा रहे थे।
इन सभी रूटीन हैप्पनिंग्स से ऊबते हुए मैंने एक पत्रकार की हैसियत से इस बार की स्टोरी में कुछ नया डालने का सोचा। सारा कार्यक्रम समाप्त होने के बाद जब कार्यकर्ताओं की भीड़ भी छँट गई तब उस स्टेडियम का एक सफाईकर्मी अपनी ही धुन में वहाँ के खाली डिस्पोजेबल गिलास¸ कुचले हार¸ कागज आदी कचरे को ठिकाने लगा रहा था। निर्लिप्त भाव चेहरे पर लिये वह साक्षात निर्गुण पंथ का समर्थक दिखाई दे रहा था। उसको लगभग चौंकाते हुए मैं उसके पास पहुँचा और यह छुपाते हुए कि मैं कोई पत्रकार हूँ ¸ उससे बातें करता हुआ उसके मन की टोह लेता रहा। बात ही बात में मैंने उससे पूछ ही लिया कि चूँकि वह लगभग हर कार्यक्रम का जो उस स्टेड़ियम में होता है¸ सक्षी रहा है तब अलग - अलग राजनीतिक पार्टियों के आयोजनों में क्या भिन्नता उसे नजर आती है?
मुझे एक्स रे मशीन की नजर से घूरता हुआ वह बोला¸ "देखो बाबू! नेता जात एक ही होती है। पिछले हफ्ते गंदगी हटाने का संकल्प लेकर समारोह कर गये और इस हफ्ते सफाई आंदोलन की रूपरेखा बनाने को जमा हुए थे। लेकिन दोनों ही बार हमारे लिये इस गंदगी का सिरदर्द ही छोड़ गये।"
फिर मुझे अपने पैड में कुछ लिखता देख वह हँसते हुए कहने लगा¸ "देखो बाबू¸ मुझसे पूछा उसे अपने तक ही रखना नहीं तो ये रिपोर्टरी की नौकरी भी जाएगी हाथ से हाँ! कितने ही बने और बिगड़ गये है यहाँ।"
मैं ठगा सा देखता रहा और वह सफाईकर्मी पुन: निर्गुणी हो चला था।
भड़भूंजिया
बाबा अपने जमाने में थोड़ा बहुत आयुर्वेद पढ़े हुए थे। घर गृहस्थी के चक्कर में ऐसे उलझे कि बस पिसते ही रहे। हाँ! बीच बीच में अपना शौक पूरा करने की खातिर अपने मित्र के पास जो कि पेशे से वैद्य थे¸ जाकर बैठा करते थे। उनसे बतियाकर तो कभी उनकी मरीजों को जाँचने की विधि देखकर अपना ज्ञान बढ़ाया करते। उन्हीं से पूछ ताछकर कुछ बड़े बड़े ग्रंथ भी मँगवाए थे उन्होंने। समय मिलने पर पढ़ा करते थे। अपने बेटे में यह रूचि पैदा करना चाहते थे वे लेकिन वह ये सब कुछ छोड़कर एक नामी न्यूज एजेन्सी में रिपोर्टर बन गया था।
रिटायरमेंट के बाद अब बाबा के पास भरपूर समय था। उन्होने अपने कमरे के एक कोने को साफ करवाकर वहाँ अलग - अलग खाने वाली एक अलमारी लगवा ली थी। वहाँ अपनी मोटी किताबें रखते। अलग अलग आसव¸ बूटियाँ¸ चूर्ण जाने क्या क्या लाकर रखा था वहाँ उन्होंने। दिन रात वे या तो अपनी पुस्तकों में मगन रहते या बोतलों में से कुछ यहाँ तो कुछ वहाँ किया करते।
उनका ये नया शौक घर में मजाक का विषय बना हुआ था। "सठिया गये है" से लेकर "बुढ़ापे का चस्का" जैसे जुमले अप्रत्यक्ष रूप से उनके कानों तक पहुँचे थे। ये सब कुछ अनसुना करके वे अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहे। उनका लक्ष्य था बुढ़ापे में शरीर की हड्डियों को कमजोरी से बचाने के लिये एक विशेष औषधि का निर्माण। और वे इसका प्रयोग स्वयं पर और अपने एक सहयोगी मित्र पर कर रहे थे।
परिवार के लोगों को इस बात की कोई जानकारी नहीं थी। उन्हें दिन रात इन औषधियों के साथ काम करते देख उनका बेटा कहता¸ "क्या बाबा आप भी! बुढ़ापे में क्या नया शौक चर्राया है आपको? घूमना फिरना¸ पूजा पाठ¸ आराम छोड़कर फालतू भाड़ झोंका करते है।"
बाबा तिलमिलाकर रह जाते। बेटा यह जुमला अक्सर दोहराता। किसी के उनके विषय में पूछने पर कहता¸ "अपने कमरे में बैठे भाड़ झोंक रहे होंगे।"
लेकिन वे तटस्थ होकर अपने काम में मग्न रहते। और फिर लगभग दो वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद वह शुभ दिन आ ही गया था। उनकी नवीन औषधि अपना असर दिखा रही थी। और इस उपलब्धि के लिये उन्हें एक आविष्कारक की मान्यता के रूप में एक भव्य समारोह में सम्मानित किया जाने वाला था।
इस शुभ अवसर पर उन्हें लगा जैसे उनकी जीवन भर की साध पूरी हो गई थी। स्वयं का मकान बनाकर या बच्चों की शादी करके भी वे इतना आनंदित और संतुष्ट नहीं हो पाए थे जितने कि आज थे।
उनका घर पत्रकारों¸ न्यूज चैनलों के कैमरों से दिन भर अता पड़ा रहा। वे सहज ही उनके सभी प्रश्नों का समाधान करते हुए किसी अभ्यस्त चिकित्सक की भाँति व्यवहार कर रहे थे।
उनका बेटा भी अपने व्यवहार में बिना किसी पुरानी झिड़की या कटु शब्दों को बीच में न ला¸ एक सामान्य रिपोर्टर की हैसियत से उनका इंटरव्यू अपनी न्यूज एजेन्सी के लिये ले गया था।
उस शाम बाबा के मित्र मण्डल ने उनके सम्मान में एक भोज रखा। सभी खुश¸ प्रसन्नचित्त। उनमें से एक बुजुर्गवार¸ इधर उधर की बातों के बीच ही बाबा से उनके बेटे के विषय में पूछने लगे। यह सुनने के लिये कि स्वयं के विषय में बाबा क्या कहते है¸ बेटा उनके पीछे ही खड़ा था।
बाबा ने कहा¸ "मेरा बेटा? अरे वह तो बड़ा उम्दा रिपोर्टर है। तड़क - भड़क नहीं। जमीन से जुड़े मुद्दों पर ही अपनी कलम चलाता है। आप यकीन नहीं करेंगे¸ आज ही वह एक भड़भूँजिये का इंटरव्यू लेकर गया है।"
अब बेटे के चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे उसने कुछ सुना ही न हो...
सेटिंग
मिश्राजी ने देखा¸ वही कम बालों वाला छितरी सी मूछों का मनुष्य घर के बाहर आकर मीटर रीड़िंग ले रहा है।
"अरे इससे तो अपनी सैटिंग है!" वे मन ही मन बड़बड़ाए और लगभग दौड़ ही पड़े।
"अरे अली भाई ऽऽ!"
अली भाई दरवाजे के बाहर कदम ही रख रहे थे कि यह आवाज उन्हें लौटा लाई। आखिर मिश्राजी ने उनसे बड़ी जान पहचान निकाल रखी थी। और आजकल इसके सिवाय कहाँ कोई काम होता है भला। यह मीटर रीडिंग करने आने वाला शख्स वैसे तो अच्छा भला मालूम होता था।
फिर बातों ही बातों में मिश्राजी इन लोगों की सैटिंग के विषय में जान पाए थे। एक निश्चित रकम रीडर की जेब में और लगभग हर महीने एवरेज बिजली का बिल।
"अरे मैंने कहा जनाब चाय पानी तो लिये जाते गरीबखाने से!" मिश्राजी कुछ ज्यादा ही बोल गये है ऐसा उनकी पत्नी को लगा। और अली भाई अभ्यस्त की भाँति बैठ भी गये। दौर चल पड़ा तो बारिश के बहाने चाय के साथ भजिये भी तले गये और पूरे ड़ेढ़ घण्टे की आवभगत के बाद अली भाई तृप्त मन से वहाँ से
निकले।
इधर मिश्राजी खैर मना रहे थे कि इस बार का बिल तो एवरेज ही आएगा। लेकिन पन्द्रह दिनों के बाद ड़ेढ़ हजारी रकम के आँकड़े सामने देख उनकी त्यौरियाँ चढ़ गई।
"आने तो दो अब इस अली भाई को" वे मन ही मन बड़बड़ाए।
फिर कुछ दिनों बाद जब उन्होने सफाई के बहाने से मीटर का बक्सा खोला तब तेज गति से घूमते चक्के को देख हैरान रह गये। पूरे घर की जाँच पड़ताल की उन्होने कि कहीं कोई घरेलू यंत्र ज्यादा बिजली तो नहीं खींच रहा? यहाँ तक कि पूरे घर की सभी बिजली से चलने वाली वस्तुएँ बंद कर देने के बाद भी मीटर का चक्का था कि सामान्य गति से घूमता ही जा रहा था।
"जरूर कुछ गड़बड़ है" वे मन ही मन में बोले।
"ये अली भाई से ही पूछना होगा कि क्या माजरा है! आखिर सैटिंग है उससे अपनी।" उन्होने तय तो किया लेकिन अली भाई को वापिस उनके घर की मीटर रीड़िंग लेने आने के लिये अभी काफी समय शेष था।
एक छुट्टी के दिन उन्होने अपनी सुबह की सैर के दौरान देखा कि उनके घर के पिछवाड़े की झोपड़ियों में से एक पर एक चौदह पन्द्रह वर्ष का किशोर ऊँचाई पर चढ़ा हुआ एक तार से दूसरा तार जोड़ रहा है। मिश्राजी ने उस तार को गौर से देखा तो उन्हें आश्चर्य हुआ। यह तार तो उनके घर के पीछे से आ रही थी।
"अच्छा ! तो ये माजरा है!" वे किला फतह करने की सी मुद्रा में बोले। "अभी पकड़ता हूँ इसे।" कहकर वे आगे बढ़े ही थे कि उन्हें सामने से भागवत साहब आते दिखाई दिये। मिश्राजी को याद आया कि किस प्रकार पिछली बार किसी बात को लेकर भागवत साहब का इन लोगों से विवाद हुआ था और ये बाल - बाल बचे थे।
उस समय तो वे सीधे घर पर आने के लिये निकले पर यह ठान लिया कि अली भाई से चर्चा कर इसकी रिपोर्ट जरूर लिखवाएँगे। आखिर ये झोंपड़ी वाले उनके दिये पैसों पर बिजली का इस्तेमाल कर रहे है। सब कुछ क्या मुफ्त में मिलता है? यही सब कुछ सोचते सोचते उन्होनें घर की राह ली। लेकिन अनजाने ही उनके कदम अली भाई के मुहल्ले की ओर बढ़ चले। एक बार उन्होंने अस्पष्ट सा पता बताया जरूर था। उसी के आधार पर उन्होंने उन तंग गलियों में वह घर ढूँढ़ निकाला।
आवभगत और चाय पानी के बाद वे मुद्दे पर आए¸ "अरे अली भाई! आप तो अपनी सैटिंग के हिसाब से चल ही रहे होंगे लेकिन इन दिनों पिछवाड़े की झोपड़पट्टी के लोगों ने नया ही नाटक शुरू किया है।" मिश्राजी किसी नवीन तथ्य के रहस्योद्घाटन से पहले की सी चुप्पी गहराकर आगे बोले¸ "अरे तार खींचकर अपने टापरे में रौशनी करते है ये लोग। अभी - अभी देखा मैंने और सीधा आपके पास दौड़ा चला आया हूँ। अब बताईये कि इन चोरों को कैसे सबक सिखाया जाए।"
आशा के विपरीत¸ अली भाई थोड़े गंभीर हो उठे। किसी भी तरह से वे बातचीत के मुद्दे को टालते हुए इधर उधर की उड़ाते रहे। साथ ही ये भी कहा कि एक दो महीनों के बाद अवैध बिजली लेने वालों के खिलाफ सरकारी मुहिम शुरू होने वाली है। ऐसे में अभी से इन लोगों से झगड़ा क्यों मोल लिया जाए? फिर मिश्राजी को भी तो उसी इलाके में रहना है। बिजली बिल के हजार पाँच सौ के लिये वे घर की सुरक्षा तो खत्म नहीं कर सकते थे।
खैर! मिश्राजी उल्टे पाँव घर लौट आए। उन्हें रह रहकर यह बात परेशान कर रही थी कि आखिर उनकी सैटिंग में क्या कमी रह गई जो इतना भारी बिल भरना मजबूरी बन गया!
उस दिन मिश्राजी के घर की कामवाली बाई छुट्टी पर थी और बदले में पिछवाड़े के झोपड़े की बाई को दे गई थी। उसकी बातचीत बातचीत में जब पिछली रात के टेलीविजन सीरियल का जिक्र आया तब मिश्राजी की श्रीमतीजी ने पूछ ही लिया¸
"क्यों बाई! तुम्हारे इलाके में तो बिजली का कनेक्शन ही नहीं है फिर तुम टी वी कैसे देखती हो?"
"वो बाई ऐसा हे कि मीटर वाले बाबूजी के यहाँ बर्तन कपड़े करती हूँ न मैं! सो उनसे सैटिंग जमा ली है मेरे मुन्ना ने। उनसे पूछकर हर दो महीनों के अंदर किसी बँगले की लाईन से जोड देते है। बस अपनी तो ऐसे ही निभ जाती है।" वह खींसे निपोर कर हँसने लगी।
मिश्राजी को समझ में आ गया कि अली बाई के यहाँ की नौकरानी की सैटिंग उनसे ज्यादा अच्छी है। वे तेजी से घूमते मीटर को असहाय से देखते रहे।
वाग्देवी का तेज
सुनहरी खिली धूप में श्यामा अपने कथित द्विवतीय काव्य संग्रह के लिये रूपरेखा बनाती हुई बैठी थी। तभी ड़ाकिया कुछ पत्र लेकर आया। उनमें से बाकी को छाँटकर अलग रखा¸ एक पर उसकी दृष्टि जड़ हो गई । ये क्या? उसका कलेजा धक् से रह गया। उस सफेद पर सुनहरे रंग से छापे गये निमंत्रण पत्र के उन वाक्यों को वह एक साँस में पढ़ गई¸
"कवियत्री मंजूश्री के प्रथम काव्य संग्रह "अन्तर्मन" के विमोचन पर आपकी उपस्थिती प्रार्थनीय है।"
इन पंक्तियों का एक एक शब्द श्यामा को बींधता हुआ चला गया। यह मंजूश्री¸ यानी श्यामा के पिता कविवर्य कृष्णदास की सुशिष्या। अत्यंत सुंदर काव्यपाठ किया करती थी और समाचार पत्र के समीक्षकों द्वारा इसे समय समय पर अगली पीढ़ी की सशक्त दावेदार के रूप में भी निरूपित किया गया था। हर बार श्यामा इसके काव्य को¸ व्यवहार को स्वयं की प्रतिभा के समक्ष बौना साबित करने पर तुली रहती।
दोनों ने कृष्णदास जी के शिष्यत्व में ही साहित्य स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी। श्यामा जहाँ अंकों में विजयी हुई वहीं मंजूश्री में थी नैसर्गिक काव्य प्रतिभा जिसका लोहा आज सभी मान रहे थे।
"इसका मतलब¸ पिताजी को पहले से ही मालूम था कि मंजूश्री का काव्य संग्रह भी उसी प्रकाशक के पास है जिसके पास मैंने दो महीने पहले मेरी काव्य पांडुलिपी भिजवाई थी!" श्यामा मन ही मन सोचने लगी। "तो क्या ये जानते हुए भी उन्होने मंजूश्री की कविता पुस्तक पहले छप जाने दी?" श्यामा रूआँसी हो उठी। किशोरवय से उसने जिस मंजूश्री को अपनी प्रतिद्वंद्वी मान रखा था वह आज उसके ही पिता की मदद से उसे नीचा दिखाने पर तुली हुई है।
वह तमककर पिता के समक्ष उपस्थित हुई। कृष्णदासजी यानी माता सरस्वती के परम् भक्त। अपने निवास पर उन्होने संगमरमर की अत्यंत मनोज्ञ ऐसी माँ की प्रतिमा स्थापित की थी। उनका नियम था कि अपनी रचनाओं को पहले माँ को अर्पित करते और फिर वे किसी भी भाग्यशाली प्रकाशक के झोले में गिरती। इस उपासना के प्रखर तेज के फलस्वरूप आपकी रचनाएँ विश्वविख्यात और चिरनावीन्य लिये पाठकों के हृदय में अपना स्थान बना लेती थी। इस संपूर्ण सफलता का श्रेय वे माँ के तेज और कृपा को ही देते।
अपनी पुत्री श्यामा और शिष्या मंजूश्री के बीच एक अनकही सी अस्वस्थ प्रतियोगिता है इसका अंदाजा उन्हें काफी पहले हो गया था। परंतु वे इसे उम्र का तकाजा मान मौन बने रहे। मंजूश्री एक उत्कृष्ट कवयित्री के रूप में उभरने लगी थी और उनके शिष्यत्व को सार्थक करती हुई अपनी प्रत्येक उपलब्धी का श्रेय गुरू को देती हुई क्रमश: प्रगति कर रही थी। वहीं श्यामा में प्रतिभा कम और जुगाड़ की प्रवृत्ति ज्यादा थी। आज भी उसे सभी उसकी कविताओं के कारण कम और कृष्णदासजी की सुपुत्री के रूप में अधिक जानते थे।
अपनी प्रतिभा को प्रसारित करने के उद्देश से ही श्यामा ने दिन रात मेहनत करके¸ पिता के उपदेशों की अवहेलना करते हुए एक आधुनिक शैली का काव्य सृजित किया था। उनके लाख मना करने के बावजूद काफी मान मनौव्वल से उनका सिफारिशी पत्र एक बड़े प्रकाशक के लिये लिखवा दिया था। दो महीने बीत गये थे इस बात को और कोई उत्तर नहीं आया था। प्रकाशन योग्य न होने के बावजूद कृष्णदासजी के पत्र के उत्तर में स्वयं प्रकाशन कंपनी के मालिक का फोन उन्हें आया था जिसमें उन्होने याचनाभरे स्वर में इसके प्रकाशन में असमर्थता व्यक्त की थी। इधर श्यामा इसी प्रतीक्षा में थी कि कब उसका संग्रह प्रकाशित होगा और वह मंजूश्री से पहले प्रकाशित हो पाने के सुख का अनुभव करेगी।
"ये क्या है पिताजी?" श्यामा लगभग चीख ही पड़ी थी। "क्या आपको भी खबर नहीं थी इस आयोजन की?" श्यामा की माँ यह आवाज सुनकर पूजाघर में दौड़ी आई और आश्चर्यचकित हो पिता पुत्री का संवाद सुनती रही।
"देखो श्यामा! तुम अन्यथा न लो। इस प्रकाशक ने स्वयं ही मंजूश्री को अपना प्रस्ताव भेजा था। उसने स्वयं बड़ी मेहनत की है इस संग्रह के लिये।" कृष्णदासजी कातर स्वर में बोले।
"नहीं पिताजी। मैं कुछ नहीं जानती। उससे पहले मेरा संग्रह प्रकाशित न हो इसलिये आपपर उसने दबाव ड़ाला होगा और आप अपनी बेटी का हित छोड़ उसी के हित में चल रहे है। यहाँ तक कि मुझे तो आज यह निमंत्रण पत्र देखकर मालूम पड़ रहा है।" श्यामा असंयत सी बोलती जा रही थी।
"मैं कुछ नहीं जानती। यदि मंजूश्री से पहले मेरा संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ तो मैं आपको कभी क्षमा नहीं करूंगी।"
"श्यामा!" कृष्णदासजी और उनकी पत्नी का युगल स्वर गूँजा। लेकिन तब तक श्यामा वहाँ से जा चुकी थी।
"हे माता! कैसा धर्म संकट है।" कविवर्य ने माँ के समक्ष हाथ जोड़े।
"कोई धर्म संकट नहीं है आपके समक्ष।" उनकी धर्मपत्नी का दृढ़ स्वर गूँजा। "इस समय आपका सही धर्म है अपने पिता होने का लाभ पुत्री को देना। आज के जमाने में कैसे कैसे मंत्रीपुत्र¸ नायक पुत्र अपने स्थानों पर जमे हुए है।"
"लेकिन रूक्मिणी उस प्रकाशक का स्पष्ट उत्तर आया है कि श्यामा का संग्रह छपने योग्य नहीं है। मैं अपनी माँ को क्या जवाब दूँगा?" उन्होने पुन: याचक की भाँति माँ सरस्वती की शांत प्रतिमा को निहारा।
आनेवाले दस दिनों तक यही पाप मन में पाले कविवर्य उस प्रकाशक को मनाते रहे। अपनी ओर से कुछ कविताएँ¸ श्यामा ने लिखी है कहते हुए उसके पास भिजवाई और उसे जबर्दस्ती इस संग्रह को जल्द से जल्द छापने को राजी किया।
मंजूश्री के संग्रह का लोकार्पण समारोह तीन दिन बाद था जब श्यामा के हाथों में उसका छपा हुआ संग्रह था। आनन फानन में तीसरे ही दिन यानी मंजूश्री के समारोह से एक दिन पूर्व की तिथी श्यामा के संग्रह के लोकार्पण समारोह के लिये चुनी गई। पानी की तरह पैसा बहाकर सारी तैयारियाँ की गई। उपहार देकर समीक्षकों की उपस्थिती तय की गई। आनेवाले साहित्यप्रेमियों के लिये भोज भी रखा गया था। श्यामा अत्यंत उत्साहित थी और अपनी माँ के साथ मिलकर अपने परिधान¸ भाषण आदी की तैयारी कर रही थी।
लेकिन कृष्णदासजी उस दिन के बाद से अपनी माँ से दृष्टि मिलाकर बात नहीं कर पाए थे। आयोजन के दिन घर से प्रस्थान करते हुए वे दुखी मन से माँ के समक्ष खड़े थे। मन हुआ कि फूट फूटकर रो लें। अपने किये का प्रायश्चित्त कर ले। परंतु समय ही नहीं था। बड़ी हिम्मत कर उन्होने माँ के मुखारविंद की ओर दृष्टिपात किया। वह प्रखर तेज और तीक्ष्ण दृष्टि उन्हें असहनीय जान पड़ी।
समारोह स्थल खचाखच भरा था। कविवर्य को सभी शुभचिन्तक बधाई दे रहे थे। श्यामा को भी वह सब कुछ मिल रहा था जिसकी लालसा में उसने वर्षों बिताए थे। आयोजन शुरू होने को था। तभी विचारमग्न से कविवर्य को एक परिचित कंठस्वर सुनाई दिया।
"प्रणाम गुरूजी!"
वह मंजूश्री थी। जब आर्शीवाद लेकर उठी तब कविवर्य को लगा जैसे उसके मुख पर आज कुछ ऐसा भाव है जो उन्होने अभी अभी कहीं देखा है। वे बेचैन हो उठे। कार्यक्रम शुरू हुआ। वे मंच पर अपने स्थान पर विराजे। श्यामा का काव्यपाठ शुरू हुआ। वह अपने पिता की लिखी कविता को अपनी कह सबके समक्ष पढ़े जा रही थी¸ वाहवाही ले रही थी। तभी कविवर्य का ध्यान पुन: मंजूश्री के मुख पर गया और उनके मस्तिष्क में बिजली सी कौंधी।
आज मंच की साम्राज्ञी अवश्य श्यामा थी। लेकिन मंजूश्री के मुख पर था उसी वाग्देवी का तेज जिसे कविवर्य ने यहाँ आने से पूर्व अपनी माँ के मुख पर देखा था।
और वे मन ही मन अगले दिन के आयोजन की रूपरेखा बनाने लगे थे।
महानगर डायरी
हमारा प्यारा सा छोटा¸ सुंदर परिवार है। यानी मेरे पति¸ चार साल का बेटा अभि और मैं। और हाँ अभि के दादा भी हमारे ही साथ रहते है। मैं थोड़ा गलत बोल गई। इतना भी छोटा परिवार नहीं है हमारा। मेरे पति तो दिन भर काम में व्यस्त रहते है। वो एक्सपोर्ट का बिजनेस है ना हमारा। कस्टम वालों से लगाकर टैक्स अथॉरिटीज सभी के साथ अच्छी सेटिंग है इनकी। मैं अपनी सहेलियों के साथ जिम¸ किटी और क्लब की एक्टीविटीज में ही इतना थक जाती हूँ कि हफ्ते में दो तीन बार तो हम बाहर ही खा लेते है।
अभि के दादाजी को नहीं भाता ये सब। अब बाहर जाएँगे तो साढे ग्यारह बारह से पहले लौटेंगे क्या? उनके लिये पॅक्ड डिनर ले आते है। कभी खाते है तो कभी वैसा ही पड़ा रहता है।
दादा को मेरा घर में किटी करना¸ टीवी पर सीरियल देखना¸ कॉकटेल पार्टीज में जाना और यहाँ तक कि नॉन वेज और ड्रिंक्स तक लेना भी पसंद नहीं है। हद होती है दकियानूसी सोच की भी । आखिर कोई किसी की लाईफस्टईल में¸ जीने के तरीके पर तो पेटेंट नहीं रख सकता न?
आप ही बताईये जब वे घर में जोर जोर से मंत्रा बोलकर हमारी मॉर्निंग स्लीप में दखल देते थे¸ धूप जलाकर मेरे सारे इम्पोर्टेड कर्टन्स खराब कर दिये उन्होने¸ अभि के बर्थडे पर उसे गंदे आश्रम के बच्चों के पास ले जाने की जिद करने लगे थे¸ अपनी पत्नी की धरोहर के नाम पर तीन पेटियों की जगह घेरे हुए रहते है तब हम उन्हें कुछ भी कहते है क्या?
कई बार मेरा दिमाग खराब होता है लेकिन अभि के पापा सब कुछ समझते है। वे तो दादा से ज्यादा बातें भी नहीं करते। उन्होने मुझे बता रखा है कि मरते समय उनकी माँ को उन्होने वचन दिया है इसलिये दादा को वृद्धाश्रम में नहीं रख सकते। अब आखिर मैं भी तो भारतीय नारी हूँ। कुछ तो ख्याल रखना ही पड़ता है ना पति की इमोशन्स का।
लेकिन दादा ने उस दिन तो हद ही कर दी थी। दिवाली पर मैं नौकरानियों के लिये कुछ सामान लाने बाजार ही नहीं जा पाई थी। सोचा कि अपनी सासूजी की पुरानी धुरानी सड़ियों के बंड़ल में से चार पाँच निकाल कर उन्हें दे भी दूँगी तो काम चल जाएगा। दादा टहलने गये थे और मैंने अपना काम कर ड़ाला था। लेकिन अभि! आखिर बच्चा ही तो ठहरा¸ सो इनोसेंट ही इज। उसने दादा को बता ही दिया कि मैंने दादी की साड़िया रमा¸ ऊमा¸ पारो और सविता को दी है। फिर क्या था¸ वे मुझसे¸ रियली मुझसे ऊँची आवाज में बातें करने लगे थे।
पता नहीं कौन सी पास्ट हिस्ट्री बताते रहे थे। पुराना वैभव और क्या - क्या। तब मैंने उन्हें अभि के पापा वाली बात बता ही दी थी कि
"आपकी धर्मपत्नी की ही बदौलत आपको दाना - पानी मिल रहा है यहाँ। नहीं तो...।" और पता नहीं क्यों वे छाती मलते हुए से हमेशा की तरह नाटक करते बैठ गये थे।
और सच बताऊँ अभि ने ये भी सुन लिया और तो और मेरी सारी एक्सप्रेशन्स को वह बखूबी इमीटेट करने लगा है आजकल। उसे ना मेरा वर्ड "धर्मपत्नी" बड़ा अच्छा लगा था। कहता था "ममा आप तो बड़ा ही अच्छा मदर टंग बोलती है।" अभि के पापा का मूड थोड़ा सा ऑफ जरूर हुआ था लेकिन जब अभि ने मेरा डायलॉग वैसे ही एक्सप्रेशन्स के साथ बार - बार दोहराया तब ही ऑल्सो एन्जॉइड लाईक एनीथिंग।
फिर तो जब भी दादा खाना खाने बैठते¸ अभि उनके आगे पीछे दौड़ता हुआ यही डायलॉग बोलता रहता। लेकिन कितने रूड व्यक्ति थे वो। मैंने तो सुना है और देखा भी है कि दादा दादी को अपने नाती पोतों से कितना प्यार होता है लेकिन यहाँ दादा तो बस एक्सप्रेशनलेस होकर बैठे रहते थे।
साल का ये दिन मुझे बड़ा बोरिंग लगता है यू नो। मेरी सासू माँ की बरसी। अब आप ही सोचिये कि जिस लेड़ी को मैं ठीक से जानती भी नहीं उसके लिये ये सारा कुछ करने की एक्सपॅक्टेशन मुझसे क्यों की जाती है? पता नहीं कौन कौन से बूढ़े और बोरिंग व्यक्ति आ जाते है इस दिन। और इतना खाते है कि पूछिये मत। और तो और सभी गँवारों के जैसे नीचे बैठकर खाते है। और हमारे दादा! उनकी तो पूछिये मत। प्ताा नहीं हमारे बारे में इन सभी लोगों को क्या क्या बताते रहते है।
इस सब चक्कर में अभि के पापा को घर पर रहना होता है और उनका बिजनेस लॉस होता है सो अलग। लेकिन कौन इन्हें समझाए। देखिये कैसे बैठे है सभी। छी! मुझे तो उनके सामने जाने की इच्छा भी नहीं होती। उसपर आज साड़ी पहननी पड़ती है सो अलग। अभि को तो मैं उसकी नानी के यहाँ भेज देती हूँ हमेशा लेकिन इस बार जिद करके रूका है वो यहाँ। मैं ध्यान रखती हूँ कि वो इनमें से किसी भी आऊट ऑफ डेट पीस के पास न चला जाए। ऐसा लग रहा है कि कब ये लोग एक बार के जाएँ यहाँ से और मैं साड़ी की जगह ढीली नाईटी पहनू।
लेकिन उस दिन आराम तो था ही नहीं जैसे किस्मत में। सबके साथ दादा खाने बैठे थे। वही हमेशा की आदत! सासू माँ के "चरित्र" का गुणगान! वे खाना अच्छा बनाती थी¸ वे मेहमाननवाजी अच्छी करती थी¸ उनके जाने के बाद तो जैसे घर में जान ही नहीं रही आदी आदी। और जानते है उतने में क्या हुआ? अभि वहाँ पहुंचा और उसने अपना वही डायलॉग सबके बीच में दादा पर मारा। उसका प्रेजेन्स ऑफ माईंड भी लाजवाब है।
"आपकी धर्मपत्नी की ही बदौलत आपको दाना - पानी मिल रहा है यहाँ। नहीं तो...।"
लेकिन दादा हमेशा की तरह तटस्थ नहीं बैठे रहे। वे गिर पड़े थे अपनी जगह पर ही।
खैर... हमें डॉक्टर ने बताया कि किसी शॉक के कारण ही हार्ट फेल हुआ है। अब जो आदमी इस दुनिया में ही नहीं रहा उसके लिये कोई कहाँ रूकता है भला। उन्होने उनका अंतिम संस्कार काशी में करवाने का लिखा था। हमने रमाबाई और उसके पति को टिकट निकालकर दे दिया था संस्कार कर आने के लिये। फिर हम प्लांड़ केरला ट्रिप पर गये। कितना फ्रस्ट्रेशन आया था अभि के पापा को। उससे बाहर निकलना भी तो जरूरी था।
अभि अपने साथ दादा का पुराना फोटो भी लाया था। एक दिन मैं और उसके पापा रिसोर्ट के लॉन में कॉफी पी रहे थे। उनका मूड थोड़ा ऑफ था। अभि भी कमाल का लड़का है हाँ। दादा का फोटो हमारे सामने रखा और कहने लगा¸
"आपकी धर्मपत्नी की ही बदौलत आपको दाना - पानी मिल रहा है यहाँ। नहीं तो...।"
हमारा हँसते - हँसते बुरा हाल था...
गंदा कुत्ता
ठाकुरजी बड़े सफाई पसंद व्यक्ति थे। धूल का एक कण तो क्या जरा सा दाग भी हो¸ उन्हें बर्दाश्त नहीं होता था। सारा घर सिर पर उठाए रहते। उनके घर के नौकर चाकर सभी के नाक में दम था। सभी बेचारे दिन भर झाडू¸ गीला कपड़ा लिये यहाँ वहाँ दौड़ भाग मचाते रहते। पूजा घर में स्वच्छ सफेद संगमरमर लगा हुआ था और ठाकुरजी का आदेश था कि इसकी रोजाना सफाई होना जरूरी है।
दूसरी बात¸ उन्हें जानवरों से बड़ी घृणा थीी। खासकर कुत्तों से। गाय या हाथी कभी गली मोहल्ले में घूमते तो उन्हें कोई एतराज नहीं होता लेकिन कुत्ता कहीं भी दिखा कि उनका मुँह चढ़ जाता। उनके हिसाब से यदि ये संसार चलता होता तो सभी जगहों पर सफेद पत्थर मढ़वा दिया होता उन्होने जिससे धूल का नामोनिशान न रहे।
लेकिन इन दिनों ठाकुरजी की त्यौरियाँ चढ़ी हुई रहती थी। रोजाना उनकी सुबह की सैर के वक्त एक भूरा सा मध्यवय का स्वस्थ कुत्ता किसी पुराने संगी साथी की भाँति उनके साथ हो लेता था। वे लाख उसे झिड़कते¸ भगाते वहाँ से लेकिन वह पूँछ हिलाता फिर थोड़ी देर बाद हाजिर हो जाता। उन्हें इस तरह से परेशान होते देख शायद उस श्वान को बड़ा मजा आता था क्योंकि वह राह चलते किसी अन्य व्यक्ति के पीछे कभी भी नहीं गया था।
"अरे साथ में छड़ी लिये चला करो।" ठाकुरजी के मित्र ने सुझाया। लेकिन उससे भी कुत्ता नहीं ड़रा। "उसे कुछ बिस्कुट ड़ाल दिया करो रोजाना।" दूसरा सुझाव आया। "लेकिन इससे एक के स्थान पर और भी कुत्ते पीछे पड़ने लगे तो?" उनकी धर्मपत्नी का कहना सही था। खैर वे अपनी सुबह की सैर पर उस संगी के साथ जाते रहे¸ उसपर कुढ़ते रहे। संपर्क होता रहे तो इंसान - इंसान का भी प्रेम हो जाता है फिर ये तो खैर जानवर था। लेकिन ठाकुरजी को कबी रास नहीं आया। वे उससे हमेशा चार हाथ दूर ही रहते। खई बार राह चलते उनसे कईयों ने कहा भी था¸ "अरे ठाकुर साहब आसरा दे दीजिये इस अनाथ को अपने बँगले में।" तब ठाकुर साहब "शिव शिव! आज कहा¸ फिर मत कहना ऐसी अपशगुनी बात। मैं और किसी कुत्ते को स्वेच्छा से अपने घर में रखूँगा?" और वे त्यौरियाँ चढ़ाते¸ उस श्वान को एक बार फिर झिड़कते हुए आगे निकल जाते।
उन दिनों शहर सांप्रदायिक तनाव के घेरे में था। एक त्यौहार विशेष के दिन शहर के मध्य विस्फोट होने वाला है ऐसी अफवाह जोरों पर थी। ठाकुरजी नित्य की भाँति सफेद झक कुर्ते पजामें में सैर को निकले। हाथ में बेंत की लकड़ी¸ साथ में अनचाहा संगी। रिंग रोड़ पर पहुँचने को ही थे कि कहीं दूर से नारे बाजी और अस्पष्ट वाद विवाद के स्वर सुनाई दिये। ये सोचकर कि वे अपानी सैर पूरी करके ही लौटेंगे¸ वे अपने रोज के रास्ते पर चल निकले। लेकिन देखते ही देखते¸ पूरा माहौल बदल गया। ठाकुरजी सम्हल पाते इससे पहले ही जोर - जोर से ढोल ढमाके पीटते कुछ ट्रकनुमा वाहन निकले। उनमें बैठे चिल्लाते हुए हथियारों से लैस युवा। तूफानी गति से गुजरते उन वाहनों के पीछे थी एक क्रुद्ध भीड़। रास्ते में आते जा रहे सभी वाहनों¸ लोगों पर अपना गुस्सा बरसाती उस भीड़ पर पीछे से अश्रुगैस ¸ लाठियाँ भी वार कर रही थी। सब कुछ अनियंत्रित सा हो चला था।
ठाकुरजी को सोचने तक का समय न मिला और अनजाने ही वे अपने श्वान मित्र के पदचिन्हों पर उस अनदेखी बस्ती की तंग गलियों से गुजरते हुए किसी टूटे - फूटे शरण स्थल पर पहुँचे। श्वान ने उनका साथ नहीं छोड़ा था। इतनी तेजी से यह लंबी दूरी तय कर आने के कारण उनकी साँस फूल रही थी। कुत्ता भी जीभ निकाले हाँफ रहा था। उस जीर्ण - शीर्ण से टूटे¸ एकांत मकान की सीढ़ियाँ¸ सीलन से भहराकर टूटने को हो आई थी। धूल की परतें जमी थी वहाँ। हमेशा के सफाई पसंद ठाकुरजी आज इतने थके और सहमें से थे कि अपनी झक सफेदी की परवाह किये बिना उन गंदी सीढ़ियों पर जस के तस टिक गये।
उन्होने देखा¸ थका हुआ कुत्ता हाँफता जा रहा था लेकिन उसने एक स्थान पर पंजों से मिट्टी खोदी¸ उस जगह को साफ किया और फिर उसपर बैठ सुस्ताने लगा। ठाकुरजी मुस्कुराने लगे। तो आज ये कुत्ता सफाई में उन्हें पीछे छोड़ गया था।
लेकिन उनकी हँसी ज्यादा देर तक टिक नहीं पाई। भीड़ का शोर वहाँ भी आ पहुँचा था। कब और किस वक्त वे क्या कर बैठे इसका कोई भरोसा नहीं था। ठाकुरजी ने कातर नेत्रों से श्वान को देखा। वह समझ रहा था। बाहर निकलकर वह दो तीन सुरक्षित से दिखाई देते रास्तों पर चलने को हुआ। परंतु जल्द ही वापिस लौट आता। और अंत में उसने एक ऐसा रास्ता ढूँढ़ निकाला जो उस टूटे मकान के पिछवाड़े से निकलकर नाले के पार जाता था। ठाकुरजी अपने सारे सोच विचार ताक पर धरे उस कुत्ते के पीछे दुम हिलाते चले जा रहे थे। शायद यही रास्ता आगे चलकर रिंग रोड़ के दूसरे छोर पर खुलता है। वहाँ से दो तीन किलोमीटर के बाद उनका अपना इलाका ही आ जाएगा।
लेकिन थोड़ा ही आगे चले होंगे¸ कि दो पागल से दिखाई देते व्यक्ति उनपर शक की निगाह रखते पीछे हो लिये। उनकी टोह लेते हुए पीछे से वे एक भरपूर वार करने को ही थे कि वह श्वान गजब की फुर्ती से उन दोनों पर टूट पड़ा। जगह - जगह पंजों के घाव और खून लिये वे दोनों सर पर पाँव रखकर भागे।
ढाकुरजी तो जैसे पत्थर का बुत हो गये थे। कुत्ते ने उनके धूल से सने हाथ चाटने शुरू किये। उन्होने कोई प्रतिवाद नहीं किया। वह पूँछ हिलाता उनके पैरों में लोट लगाने लगा¸ उनका पायजामा धूल - कीचड़ से सान दिया। ठाकुरजी ने कोई विरोध नहीं जताया। उल्टे वे उसे गोदी में लेकर किसी नन्हे मुन्ने के जैसे लाड़ करने लगे। खुद में हुए इस बदलाव पर उन्हें स्वयं आश्चर्य हो रहा था। और हो भी क्यों ना !
आखिर यही कुत्ता आज इन्सानियत में उनसे आगे जो निकल गया था...
पोटेंशियल कस्टमर
जोशी अंकल का विनू इन दिनों पास की मल्टी में रहने वाले उसके ममेरे दादा दादी के यहाँ जाने में काफी रूचि लेने लगा है। सत्रह अठारह साल का विनू उन अकेले रहते दादा दादी के लिये कभी घर का बना अचार ले जाता तो कभी गरम - गरम पूरणपोली। वे दोनों भी बड़े खुश थे। इसी बहाने उनका भी थोड़ा वक्त निकल जाता। थोड़ा उसके साथ बतियाने में और उससे दुगुना उसके विषय में बतियाने में।
पूछने पर वह बताता कि उसी बिल्ड़िंग में उसका खास दोस्त प्रशांत भी रहता है रूम लेकर। उसके यहाँ जाने पर दादा दादी के यहाँ भी चक्कर लगा आता है। वैसे प्रशांत से उसकी कोई इतनी खास नहीं थी। बस हाईस्कूल में दोनों साथ पढ़े थे इतना ही।
दादा दादी भी अकेले से अपना जीवन जी रहे थे। दोनों की ही तबियत वैसे तो बिल्कुल ठीक ठाक थी। दादा चौंसठ के थे और दादी साठ के लगभग। उनके बच्चे अपन भविष्य सुधारने दूसरे देशों में थे और उनके अनुसार ये दोनों वहाँ की संस्कृति¸ रहन सहन से मोल जोल नहीं बैठा पाएँगे। इसलिये जब तक स्वयं का सब कुछ कर सकते है¸ कोई तकलीफ नहीं। आगे देखा जाएगा।
कई बार दादा दादी जब यही दुखड़ा फिर ले बैठते तब विनू उन्हें समझाता था¸ "आप क्यों चिंता करते है दादा! मैं हूँ ना यहाँ आपकी मदद करने को। आप तो जो भी काम हो¸ मुझे बेधड़क बता दिया कीजिये।" बड़े अपनेपन से कहता था विनू। दादा दादी निहाल हो जाते।
इसी तरह धीरे धीरे उसने इन दो महीनों में दादा के पेंशन निकालने से लगाकर किराना सामान लाने¸ उनके इंश्योरंस की प्रीमियम भरने से लगाकर बैंक में जमा खर्चे तक का काम संभाल लिया था। उसे इस तरह से काम करता देख उसका दोस्त प्रशांत हैरान होता।
"अरे यार कोई इन दिनों इतना तो अपने घर के लिये भी नहीं करता¸ तू है कि जुटा रहता है यहाँ पर। कोई मतलब साधना है क्या?" प्रशांत ने उसे टटोलते हुए पूछा था।
"बस यही समझ ले।" विनू मुस्कुराते हुए बोला था।
उस दिन दादाजी को मालूम था कि विनू ऊपर प्रशांत के यहाँ आया है। वे उसके लिये खुद जाकर उसके पसंद की फ्रूट आईस्क्रीम लाए थे । दादा दादी का विचार था कि विनू और प्रशांत को एक साथ नीचे बुलाकर आईस्क्रीम पार्टी दी जाए। इसलिये दादाजी ऊपर प्रशांत के ब्लॉक की ओर बढ़ रहे थे।
ऊपर पहुँचकर बेल दबाने को ही थे कि उन्हें सुनाई दिया जैसे दोनों दोस्त मिलकर उन्हीं के विषय में बतिया रहे है। वे बेल बजाना छोड़ उनकी बातें सुनने का प्रयत्न करने लगे।
"अरे बता ना यार। देख तू भाव मत खा क्या। बता तो ऐसा क्या है ये नीचे वाले दादा दादी के पास जो मेरे यहाँ आने के बहाने इनके चक्कर लगाया करता है तू?" प्रशांत विनू को परेशान कर रहा था।
"अभी नहीं यार। देख जल्दी ही तुझे समझ आ जाएगा कि मैं क्या करने वाला हूँ।" विनू बात टालने के मूड़ में था। दादाजी और सतर्क हो उठे।
"बता ना यार कोई लड़की वड़की हो उनके रिश्ते में तो मैं भी सेवा का पुण्य कमाऊँ।" प्रशांत ने विनू को छेड़ा।
"नहीं रे। अब तू इतना ही पीछे पड़ा है तब सुन। ये दादा दादी वैसे बड़े पैसे वाले है । मैंने इनके बैंक का काम क्या यूँ ही हथियाया है? और दादा अभी पैंसठ के नहीं हुए है। अगले महीने मैं एक इंश्योरेंस कंपनी की एजेंसी ले रहा हूँ। ये मेरे पोटेंशियल कस्टमर है इन्हे ऐसी भारी पॉलिसी बेचूंगा कि सारे फायदे अपने। इतने दिनों के संबंधों के बाद मना थोड़े ही करेंगे दोनों बूढ़ा बूढी क्यों?" और विनू और प्रशांत ताली मारकर हँसने लगे थे।
दादाजी को लगा जैसे उनके हाथों से अचानक किसी ने छड़ी छीन ली है...
सपने
"बाबू ऽऽ! औ बाबू ऽऽ! अरे हो क्या घर में बाबू?"
"जाईये! आ गया भगत आपका। मम्मी ने बीच में ही पोथी बंद करते हुए कहा।
"अरे हरिराम भैया! बड़े दिनों के बाद दिखाई पड़ रहे हो । सब कुशल मंगल तो है?" पिताजी बड़ी आत्मीयता से मिलते है इस हरिराम माली से । ऐसे जैसे कोई पुराना बिछड़ा हुआ साथी बड़े दिनों के बाद मिल रहा हो। और हरिराम माली¸ वह तो बिछ बिछ जाता है पापा के शहद में डूबे शब्दों पर।
कहने को कॉलोनी के छह सात घरों में बगीचे की देखभाल का काम करता है बस। लेकिन चाय पानी की बैठकें बस हमारे यहाँ ही जमती है उसकी। वो भी रविवार की सुबह। गिनकर एक घण्टा।
मम्मी को थोड़ी चिढ़ है इस माली से। और हो भी क्यों ना। हफ्ते में एक दिन तो मिलता है पापा को आराम से बैठने बोलने को। उसपर सुबह का आधा घण्टा ये ही चाट जाता है। ऊपर से चाय नाश्ता। उसकी बेसिर पैर की बातें सुननी पड़ती है सो अलग।
"क्यों पाल रखा है इसे अपने यहाँ? कहने को आमने सामने के दस घरों में काम करता है लेकिन वक्त काटता है हमारे ही घर। क्या रस आता है तुम्हें इसकी बातों में भगवान जाने।" मम्मी बड़बड़ाया करती।
उस दिन तो हद ही हो गई। रविवार था और मामा के यहाँ कथा का आयोजन था। सुबह दस बजे पहुँचना था और माँ के शब्दों में अपशकुनी के जैसा हरिराम आ टपका था। उस दिन बड़ा खुश¸ हाथों में ताजे फूलों का गुच्छा चेहरे पर वैसी ही ताजी मुस्कान।
मम्मी के चेहरे पर लग गया ग्रहण और हरिराम के मुख से बतरस बरसता रहा। पूरा एक घण्टा खाकर उठा था वो। पिताजी भी खुश खुश थे उसे विदा करते हुए।
गाड़ी में मैंने पूछ ही लिया था उनसे¸ "पिताजी! ये हरिराम माली क्या कर रहा था आज? इतनी देर बैठा रहा। फालतू ही देर करवा दी हमें।" मैंने कुछ कुछ मम्मी के बिगड़े मूड़ को टटोलते हुए कहा।
"बेटा! हरिराम आज एक बहुत बड़ी जंग जीत गया है।" वे कुछ रूके। हम सभी के प्रश्नार्थक चेहरे देखकर उन्होने आगे कहना शुरू किया।
"हरिराम का बेटा आज इंजीनियरिंग की परीक्षा पास करके लौटा है । एक माली का बेटा और वो भी इंजीनियर। इसलिये आज वह बड़ा खुश था। अगले हफ्ते से अपने बेटे के पास शहर जा रहा है जहाँ उसे नौकरी लगी है। यहाँ का काम काज अब उसका छोटा भाई देखा करेगा।"
पापा साँस लेने को रूके। मुझे मेरा प्री इंजीनियरिंग टेस्ट के लिये गॅप लेना अखरने लगा था।
पापा कहने लगे¸ " अब तो खुश हो ना प्रिया! हरिराम हमारी रविवार की सुबहें खराब नहीं कर पाएगा कभी।"
मम्मी के चेहरे पर अपराधी के से भाव थे।
मिट्टी लौट आई
सुरेन्द्र की माँ किसी कलाकार से कम नहीं थी। अपने हाथों के हुनर से उन्होने कितने ही चादरें लिहाफ जीवंत किये। फुलकारी¸ जरदौजी¸ सिंधी टाँका¸ यहाँ तक कि कागज और कपड़ों के फूल¸ खिलौने¸ मिट्टी के सुंदर दीपक भी उनके हाथों से जन्म लेकर किसी भी पवित्र स्थान की शोभा बढ़ाने में समर्थ थे।
अपने घर में उन्होने दीवार के सहारे लटकती कई आकृतियाँ लगा रखी थी। उनकी सबसे सुंदर कृति¸ कमरे के कोने में रखी हुई बड़ी सी मूर्ति थी। उसके हाथ में रखे हुए घट में से सुनहरी चुनरी बाहर निकलती हुई रखी थी जो बहते हुए जल का सा आभास देती थी। एक के ऊपर एक चूड़ियाँ बैठाकर बनाया गया बेलनाकर फूलदान¸ और भी न जाने क्या क्या था उनकी कला कौशल के खजाने में।
माँ के जाने के बाद बस ये उसकी कलाकृतियाँ ही थी जो उनके इस घर में जीवंत होने का आभास देती थी।
एक दिन सुरेन्द्र घर लौटा तो उसकी पत्नी लतिका ने उसे सरप्राईज दिया। उसने ध्यान से देखा। पूरा घर नर्म गुदगुदे से¸ फर वाले खिलौनों से अटा पड़ा था।
जाने कहाँ अपनी पूँछ छोड़ आया काला कलूटा बंदर था तो "कभी साथ ना छोड़ेंगे" की तर्ज पर एक दूसरे से चिपके रंग बिरंगे लव टैड़ी। बड़ी मूर्ति के स्थान पर एक सजीव सा लगता जर्मन शेपर्ड़ तनकर खड़ा हुआ था। और तो और घर के परदों को भी कुछ नन्हे खरगोश अपने आगोश में लिये थे।
"बस यही बाकी था।" कहकर लतिका ने उसके हाथ से गाड़ी की चाबी छीनी और उसमें एक नैन मटक्का करता मछलियों का जोड़ा लगाकर उसे नियत स्थान पर टाँग दिया। सुरेन्द्र ने देखा कि वहाँ पहले से ही कुछ मुँह चिढ़ाती और आँख दिखाती आकृतियाँ मौजूद थी।
उसे लगा जैसे वह मिनू बिटिया को किंड़रगार्ड़न भर्ती करवाने ले गया था¸ वैसा ही कुछ यहाँ आ गया है।
इस सबके पीछे लतिका का आर्टिस्टिक स्टेटमेंट था कि पहले का डेकोरेशन "लाईव" नहीं था और अब इन सॉफ्ट टॉयज की नर्म देह और मासूम मुखमुद्रा एक प्रकार की वार्म फीलींग देती है।
सुरेन्द्र ने कुछ भी नहीं कहा।
फिर उसने देखा कि लगभग छ: महीने इस वार्म फीलींग के साये तले रहकर¸ उसकी बचपन से गुड़ियाओं के बीच पाली बढ़ी बेटी अचानक खुद को बड़ा समझने लगी है। माँ के नकारात्मक रूख की परवाह न करते हुए भी अपनी अभिव्यक्तियों को पॉटरीज क्लास में जाकर आकार देने लगी है।
सुरेन्द्र खुश होने लगा।
बेटी की देशज कलाकृतियाँ गुदगुदे बनी टैडी के बीच जगह पाने में सफल रही।
किसी भी तरीके से हो¸ घर में मिट्टी लौट रही थी।
घर खुश था...
चिड़ियाघर
हिरन के पिंजरे में आज त्यौहार का सा माहौल था। एक नन्हा सा मृगछौना वहाँ जन्मा था। चीतल प्रजाति का ये हिरन यदि स्वस्थ और सुंदर निकलता है तो चिड़ियाघर की शान बढ़ जाएगी। पशु चिकित्सक से लगाकर एनीमल फीडर और कई वन्य जीव प्रेमी संस्थाएँ इसमें रूचि ले रही थी।
सामान्य से कुछ कम वजन का वह नन्हा हिरन शावक बेसुध सोया था। उसके आस - पास छायाकारों¸ रपट लेखकों और वन्य जीव प्रेमियों की भीड़ थी। हिरनी माँ¸ इस बरसते सुख की छाँव तले नर के साथ बैठी¸ थकी हुई सी¸ इस दृश्य को देखते हुए स्वास्थ्य लाभ ले रही थी। उसके खान पान और दवाइयों का विशेष ध्यान रखा जा रहा था।
हिरन के पिंजरे के पिछवाड़े एक गंदा नाला बहता था। उसी के पास की एक सूखी और आरामदेह जगह पर एक कुतिया ने भी एक साथ आठ बच्चों को जन्म दिया था। दोनों जानवरों को इन्सानों से मिलते इस अजीब व्यवहार को देखकर आश्चर्य होता था।
हिरनी तो खैर पिंजरे में रहते हुए इस तरह के जीवन की अभ्यस्त हो चुकी थी। कुतिया को उसे देख देख कर हैरानी होती थी। इसने ऐसा आखिर क्या कर लिया है जो इतनी सेवा सूश्रूषा पा रही है? इतनी कवायद करने के बाद भी जन्मा तो एक ही शावक था ना उसने? और कुतिया ने तो पूरे आठ आठ जीव एक साथ जने है।
इस तरह की विड़ंबना वह पहले भी देख चुकी थी। इन्सानों का दिमाग उसे कभी भी समझ नहीं आया था। कुतिया बैठी सोचा करती। इसी बीच नाले का गंदा पानी कभी कभी सरकार की अतिक्रमण हटाओ मुहिम के अफसरों के जैसा उसकी ममता पर कब्जा करने आता। वह नन्हे¸ बंद आँखों के जीव लिये एक स्थान से दूसरा स्थान बदलती रहती।
उस दिन कुतिया विशेष सतर्क थी। उसके नन्हे अब अपने कोमल पैरों से आगे - पीछे सरकने लगे थे। और उनकी इन गतिविधियों से आकर्षित हो दो गली के बच्चे इस टोह में थे कि कब इनमें से एकाध हाथ लग जाए। वह दिन भर उन्हें भौंक कर¸ गुर्राकर वहाँ से भगाती रही थी।
ये सब करते करते अब कुतिया थकने लगी थी। सोचने लगी कि काश एकाध पिंजरा उसे भी नसीब हो जाता तो इन नन्हों की चिंता न रहती। लेकिन पता नहीं ये इन्सान भी क्या अजीब प्राणी है। जाने उस हिरनी के एक बच्चे पर इतनी कृपा क्यों बरस रही है। उसकी हिरनी माँ देखो कैसी सारी चिंताओं से दूर सो रही है। उसे ना स्वयं के खाने की चिंता है और न ही बच्चे के लिये खाना ढूँढ़कर लाना होता है।
कुतिया ने एक आह भरी। काश कि उसके बच्चे भी हिरनी के नन्हे के जैसे भाग्यवान होते!
तभी नाले पार के पिंजरे से एक चीख उभरी। कुतिया ने उठकर देखा¸ दो मनुष्य नन्हे मृगछौने को जबर्दस्ती उसकी माँ से अलग पिंजरे के बाहर ले गये । यही नहीं उन्होने उसे एक नुकीली सी सूई भी चुभो दी।
हिरनौटा दर्द से बिलबिला रहा था। उसकी पिंजरे में बंद हिरनी माँ असहाय सी तिलमिला रही थी।
कुतिया ने आठों जीव अतिरिक्त सावधानी से अपने कब्जे में लिये और चैन से सो गई।
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