-आशुतोष ज़बरदस्त बारिश और घर की बालकनी पर बैठा मैं. बारिश की बूंदों को गिनते-गिनते नहा पड़ी पार्क के पास एक कुतिया. वह अपने दांतों में नन्हे प...
-आशुतोष
ज़बरदस्त बारिश और घर की बालकनी पर बैठा मैं. बारिश की बूंदों को गिनते-गिनते नहा पड़ी पार्क के पास एक कुतिया. वह अपने दांतों में नन्हे पिल्ले को पकड़े तेजी से अपार्टमेंट की ओर भाग रही थी. बाक़ी पिल्ले भीगते हुए कूं-कूं कर रहे थे. कुतिया एक पिल्ले को रखकर दोबारा आती और दूसरे को फिर ले जाती.
मुझे अपनी मां की याद हो आई. घर से सैकड़ों मील दूर वह मां जो उम्र के इस पड़ाव पर सिर्फ़ मेरी आवाज़ सुनकर खिल उठती है. बस यही पूछती है_''कैसे हो. खाना खा लिया. तबियत ठीक है. बारिश में भीगना मत.'' जैसे मैं अभी भी बच्चा हूं पिल्ले की माफ़िक और वह अपने दांतों में पकड़ किसी सुरक्षित जगह पर ले जाना चाहती हो. उसके दांतों में अजीब तरह की नमी. कुछ गोंद जैसी तो कुछ मोम जैसी. चुभन में जैसे चाशनी घुली हो. मेरा हाथ अनायास ही गर्दन पर चला गया. लगा मैं अभी भी मां के दांतों के बीच फंसा हूं. तभी सेल फ़ोन की घंटी ने सोच के ताने-बाने को झिलमिल कर दिया. शमसी का फ़ोन था. कह रहा था आज फिर एंजला ने एंकरिंग करने से मना कर दिया. कुछ तबियत खराब थी. जल्दी ही घर चली गई. ऐसा पिछले कई महीने से चल रहा था. वह आती, थोड़ा काम करती और फिर अचानक उठती, अपना बैग उठाती और तबियत का 'बहाना' बनाकर चली जाती. कोई उसे ऊपर से कुछ नहीं कहता. सब जानते थे वह ''बॉस'' की प्यारी है. लेकिन अंदर-ही-अंदर सब कुढ़ते थे. वह स्वभाव से बुरी नहीं थी. सबसे घुलती-मिलती थी, उसकी किसी से दुश्मनी भी नहीं थी. थोड़ी मूडी, थोड़ी नकचढ़ी, थोड़ी खूबसूरत और थोड़ी प्रोफ़ेशनल. न ज्यादा सुंदर न ज्यादा बदसूरत. लेकिन बॉस को न जाने क्या भाया कि वह उसी पर अपना स्वामित्व जताने लगे थे. न शब्दों से न वाणी से सिर्फ़ अपने बॉडी लैंग्वेज़ से. कभी अकारण सेट पर आ जाना. कभी अकारण अपने कमरे में बुला लेना. कभी बिना खता किसी को डांट देना कि फलां ने उसकी तरफ़ देखने की जुर्रत क्यों की. एंजला को भी उस खेल में मजा आता. वह उनके पास जाती और उनसे दूर भी रहती. वह क़रीब आते, वह भाग जाती. वह दूर रहते तो सट जाती. वह खूबसूरत नहीं थी लेकिन अंदाज़ कातिल. आंखें पतली लेकिन सम्मोहन जो पूरे इंसान को लील जाए. कपड़ों में कभी लतीबी तो कभी बेतरकीब. लेकिन यह सब जानबूझकर. चाहने वाले सिर्फ़ वह ही नहीं थे. पूरी फौज थी. नज़र तो मैंने भी डाली थी. लाइन भी मिली, मुझे मुगालता भी हुआ था लेकिन कायर मन कंधों पर हाथ फेरने से ज्यादा कुछ नहीं कर पाया. कभी लगता दे देगी, तो कभी लगता नहीं देगी. कभी लगता आज की रात क़त्ल कर ही दूं. तो कभी लगता अगर छुरी उल्टी पड़ गई तो सिर पर बचे हुए बाल भी नहीं रहेंगे. मैंने शमसी को कहा, यार किसी और को बिठा दो. फिर थोड़ा अकड़ते हुए बोला, यार उसका इलाज कराना पड़ेगा. मैं एक बार बात कर ही लूंगा. लेकिन किससे बात करूंगा. उससे जो खुद उसका मारा हुआ है. शमसी की भी वह दोस्त थी. कम-से-कम शमसी यह मानता था. वह बोला, ''चलो मैं ही उससे बात कर लूंगा.'' मुझे कुछ जलन सी हुई. साला मेरा जूनियर क्यों उससे बात करेगा. मैं ही एंजला से बात करता हूं. मैंने शमसी से कहा_''नहीं, छोड़ो, मैं देखता हूं.'' मैं फिर बरसात की बूंदों में खो गया. बारिश थोड़ी और तेज़ हो चली थी. सड़क पर पानी जम गया था. रोशनी धुंधली पड़ गई थी. दिखना भी कम हो गया. कुतिया अपने चौथे पिल्ले को सुरक्षित जगह पर रख पांचवें को खोज रही थी.
पांचवां कहीं गायब हो गया था. वह कभी इधर जाती तो कभी उधर. तभी फिर सेल फ़ोन बजा. नंबर एंजला का था. लपक कर फ़ोन उठाया. आवाज़ में कड़ाई लाते हुए बोला, ''तुमने आज फिर छुट्टी ले ली!'' ''हां तो, मन नहीं था एंकरिंग का.'' मैंने कहा, ''तो?'', वह बोली, ''चलो कहीं घूमने चलते हैं.'' मैंने कहा, ''तुम्हारा दिमाग खराब है. ऑफ़िस जाना है. अगले इलेक्शन का पूरा शेडयूल बनाना है. बॉस से मीटिंग है. कल ही तो यजुवेंद्र से नाराज़ होकर उन्होंने इलेक्शन का चार्ज मुझे दिया है. न बाबा न. यू गो यार. सम अदर टाइम.'' ''सी, यू विल नॉट गो विद मी?'' मैंने कहा, ''नहीं.'' उसने फ़ोन पटक दिया. कुतिया को अभी भी पिल्ला नहीं मिला था. वह इधर-उधर छटपटा रही थी. तभी कुतिया के शरीर को चीरता हुआ मेरा मन न जाने कैसे पार्क, पार्क को चीरता हुआ अपार्टमेंट, अपार्टमेंट के पेट से निकलता हुआ सड़क और फिर हाइवे के रास्ते यजुवेंद्र के घर जा पहुंचा. कमरे के अंदर झांका तो जानी-पहचानी खिलखिलाहट कानों में जा पड़ी. यह आवाज़ एंजला की थी. उसके बिस्तर में लेटी हुई. बिजली गुम, कमरा अंधेरा और कमरे के एक कोने पर अधनंग पड़ा यजुवेंद्र. वह यजुवेंद्र जो उम्र में मुझसे एकाध साल छोटा था लेकिन कामयाबी के घोड़े पर ऐसा चढ़ा कि जल्द ही मेरा बॉस बन बैठा. सही जगह पर सही टांका फिट करना उसकी फ़ितरत थी. एंजला को पसंद तो मैं भी करता था लेकिन यजुवेंद्र में न जाने क्या जादू था. उसने भी उसे खूब प्रमोट किया. एक मामूली लड़की एक साल में स्टार बन गई. अच्छे-अच्छे सीनियर उससे डरने लगे. अफ़वाहों ने भी राजधानी एक्सप्रेस पकड़ ली. वह रफ्तार से भागती एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन, दूसरे से तीसरे_तीसरे से चौथे_तभी मेरी सोच में फिर ख़लल पड़ी. फिर सेलफ़ोन की घंटी बजी. एंजला की लगभग रोनी-सी आवाज़ मेरे कानों में जाने को बेताब थी ''तुम ऐसा नहीं कर सकते. यू कांट डू दिस टू मी. यू कांट इग्नोर मी लाइक दिस. आई एम कमिंग टू योर प्लेस.'' मैं हां या ना कहता उससे पहले ही उसने फ़ोन पटक दिया. अगले ही क्षण एक एसएमएस ने दस्तक दी_''आई मिस यू''. एसएमएस भेजने वाले का नाम था एंजला. एंजला, छोटे शहर की एंजला. थोड़ी पढ़ी-लिखी, थोड़ी समझदार. थोड़ी नकचढ़ी, थोड़ी संवेदनशील. मां-बाप न अमीर, न गरीब. दिल्ली पहुंची तो ठीक थी. नए दोस्त मिले तो सपनों ने आंखों में घरौंदे बनाने शुरू कर दिए. जैसे-जैसे मौक़ा मिला घरौंदे बड़े होने लगे. महत्तवाकांक्षाओं ने जैसे हवा से बातें करनी शुरू कीं तो एंजला के अंदर का छोटा शहर कभी छोटा तो कभी बड़ा होने लगा. कुछ प्रतिभाशाली थी और कुछ मेहनती तो शुरुआत में हिम्मत नहीं हुई. थोड़ा ज़िस्म भी ठीक था तो भंवरे भी इर्द-गिर्द नाचने लगे. किसी ने सिगरेट ऑफ़र की तो किसी ने गाड़ी में लिफ्ट, कोई उससे वॉयसओवर करवाता तो कोई अपनी ज़िंदगी की स्क्रिप्ट उससे लिखवाने को बेताब होता. वह कभी समझती तो कभी नहीं समझती. जब ब्राइटेस्ट स्टार यजुवेंद्र ने उसे लाइन देनी शुरू की तो इस खेल में उसे मजा आने लगा. शुरुआत हुई तो बात घर तक भी जाने लगी. कभी शरीर पर कपड़े होते तो कभी कभी घर छोड़ने की पेशकश तो कभी बीमारी में घर आकर देखने का बहाना. एंजला सब समझती थी. वह उसका फ़ायदा भी उठाना चाहती थी और नहीं भी. वह लाइन भी देती और उसे काट भी देती थी.
एडिट मीटिंग के बीच से सुपर बॉस उसे एसएमएस करना नहीं भूलते थे. लेकिन न जाने क्यों एंजला कहीं फंस गई थी. उसके छोटे शहर का मन कहीं अटक गया था. बड़े बॉस की बड़ी कार उसे अच्छी तो लगती थी लेकिन उसे अपना घर ज्यादा खूबसूरत मालूम पड़ता था. बारिश की बूंदें थोड़ी कमज़ोर होने लगी थीं.
कुतिया काफ़ी परेशान थी. अब रोने लगी थी. उसकी आंखों के आंसू और बारिश का पानी घुलने लगे थे. एंजला की कार भी बारिश का सीना चीरकर मेरे घर की तरफ़ बढ़ी चली आ रही थी. ऐसा लग रहा था मानो वह रात को सोई नहीं थी. कपड़े उल्टे-पुल्टे थे. आंखें सूजी हुईं. काजल पानी में बह निकला था. मैं उठा दरवाज़ा खोलने. उसने झट से मुझे पकड़ लिया. इतनी ज़ोर से मेरा हाथ पकड़ा कि लगा टूट जाएगा. मैंने पूछा, ''क्या हुआ.'' ''कुछ नहीं'', छोटा-सा जवाब. ''झूठ मत बोलो. मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूं. क्या किसी ने कुछ कहा है, किसी से झगड़ा हुआ, किसी ने डांटा,'' एक साथ कई सवाल. मुझे उन सवालों के जवाब पता थे. कुछ नहीं कहना बस मेरा मुंह देखते जाना. ''तुमने फिर यजुवेंद्र से झगड़ा किया?'' मैंने वही पुराना सवाल दोहरा दिया. मुझे उसके जवाब भी पता थे. वह जवाब जो उसने कभी नहीं दिए, बस मुझे पता चल जाते थे. कैसे यजुवेंद्र आजकल एक नई ट्रेनी पर मेहरबान है. कैसे एक नए रिपोर्टर की कार यजुवेंद्र के घर के आस-पास देखी जाने लगी है. कैसे रविंदर को देखते हए यजुवेंद्र का पूरा बदन आजकल खिलने लगता है. कैसे कल यजुवेंद्र पैलेस सिनेमाहॉल में नई 'सेक्सी' के साथ बांहों में बांहें डाले देखा गया. एंजला ने यह सब कभी नहीं बताया. न जाने क्यों वह यह सब सुनकर उदास...थोड़ी असुरक्षित हो जाया करती. यजुवेंद्र अभी भी उससे प्यार से बातें करता, अभी भी उसे प्राइम टाइम पर सबसे ज्यादा मौक़ा देता. मैंने आज तय कर लिया था कि उससे पूछकर ही रहूंगा. मैंने तेज़ आवाज़ में कहा, ''तुम बताती क्यों नहीं, क्या बात है?'' उसके सब्र का बांध अब टूटा कि तब टूटा. फिर अचानक वह उठी और मेरे सीने से लगकर रोने लगी. मैंने उसे रोते हुए कभी नहीं देखा था. लगा कुछ ज्यादा ही गड़बड़ है. लेकिन पूछने का कोई फ़ायदा नहीं. वह कभी नहीं बताएगी, मैं जानता था. मुझे वह मामूली-सी लड़की याद आने लगी थी. वह जो कुछ दिन पहले ही दिल्ली आई थी. लंबे बाल, मामूली से कपड़े. एक अदद कैरियर की तलाश में एक न्यूज़ चैनल के दफ्तर जा पहुंची. पहली नज़र में उसे नौकरी नहीं मिलनी थी. लेकिन न जाने कैसे वह ट्रेनी बन गई. मैंने यह सवाल कभी नहीं पूछा. उसने भी बताना मुनासिब नहीं समझा. उसने ही मुझे खोज निकाला था. मुझे याद है कि जब पहली बार वह मेरे पास आई. उसे एंकरिंग करनी थी. आज सरकार से समर्थन वापसी की ख़बर चल रही थी. एक-दो पार्टियों के नेताओं को स्टूडियो आना था. कुछ सवाल उसे भी पूछने थे. मैंने कुछ सवाल लिखकर दे दिए. साथ ही अपने मोबाइल का नंबर भी. शो ख़त्म हो गया. अचानक देर रात एक एसएमएस आया_''थैंक यू.'' फिर सिलसिला चल निकला. वह अक्सर गाहे-बगाहे आ जाती. मैं भी सारा काम छोड़कर उसके सवाल लिख देता. देर रात एसएमएस ''थैंक यू.'' फिर ''थैंक यू'' आना बंद हो गया. एसएमएस थोड़े लंबे होने लगे. मैं भी जवाब देने लगा. जवाब देने में मज़ा आने लगा और इंतज़ार अखरने लगा. एक दिन हिम्मत करके उसे डिनर पर ले जाने की इच्छा व्यक्त की. वह फ़ौरन तैयार हो गई. मैंने सोचा गोटी फिट हो गई. फिर वह घर भी आने लगी. पंद्रह-बीस दिनों में एक बार हम गप्पें मारते और वह चली जाती. एक दिन वह काफ़ी उदास थी. मैंने पूछा. काफ़ी कुरेदा पर उसने कोई जवाब नहीं दिया. फिर उसकी उदासी बढ़ने लगी. मेरा पूछना लंबा होता गया. उसके जवाब छोटे होते गए.
एक दिन किसी ने बताया कि वह यजुवेंद्र के साथ देखी गई. मुझे खराब लगा. सोचा पूछूंगा. काफ़ी हिम्मत जुटाई. न पूछ पाया. फिर अफ़वाहों के पर लगने लगे. क़िस्से रोचक होने लगे. और उसका प्राइम-टाइम पर आना भी बढ़ने लगा. लेकिन उसका मुझसे मिलना कम नहीं हुआ. हां, बीच में वह गायब कुछ ज्यादा ही होने लगी थी. सेलफ़ोन भी नहीं उठाती. एसएमएस का जवाब भी नहीं देती. मन भटकता हुआ न्यूज़ रूम की दीवार को पार करता यजुवेंद्र के घर की ओर जाने को मचलता और उसके बिस्तर पर एक पहचानी-सी सूरत भी दिखाई पड़ती. सोचता, अब कभी उसके एसएमएस का जवाब नहीं दूंगा. लेकिन फिर सिलसिला चल पड़ता. इस बीच एक दिन शमसी ने ब्रेकिंग न्यूज़ दी. एंजला उसे क़वर करने लॉस एंजेल्स जा रही है. एक बगावत की फ़िल्म विदेशी फ़िल्मों की कैटेगरी में पुरस्कार के लिए नॉमिनेट हो गई है. कई सीनियर के सीने पर सांप लोट गया. उनकी तमन्नाओं ने दम तोड़ दिया. सुपर बॉस का फ़रमान था, हमें इस इवेंट को नए तरीके से कवर करना चाहिए. किसी जूनियर को भेजेंगे तो नया ''पर्सपेक्टिव'' मिलेगा. उन दिनों चैनल के लिए कंप्टीशन बढ़ गया था. नए आइडियाज़ की सख्त ज़रूरत थी. यजुवेंद्र भी थोड़ा परेशान था. उसने मुझसे पूछा ''ये बॉस को क्या हो गया? एंजला का फ़िल्मों से क्या लेना-देना?'' जवाब मुझे भी पता था और उसे भी. न वह बोला और न मैं. एंजला काफ़ी खुश थी. उसने एसएमएस कर मुझे न्यूज़ ब्रेक की. मैंने भी बधाई दी. हम देर रात पब भी गए. सेलिब्रेट करने. अंदर कुछ टूटता-सा महसूस हुआ. यजुवेंद्र भी थोड़ा चिड़चिड़ा हो गया था. लेकिन एंजला अपनी ही दुनिया में मस्त. फ़िल्म को ऑस्कर न मिलना था न मिला. लेकिन एंजला की ज़िंदगी की स्क्रिप्ट में एक नया मोड़ आ गया था. अब बॉस कुछ ज्यादा ही लिबर्टी लेने लग गए थे. कभी बालों पर हाथ फेर देते तो कभी गालों को सहला देते. एंजला बुरा नहीं मानती. उसका प्रमोशन हो गया. यजुवेंद्र सब देखता और अनदेखा कर देता.
एंजला के आंसुओं ने मेरी शर्ट भिगो दी. उसकी सिसकियां तेज़ होने लगीं. अतीत से निकलकर मेरी आंखों ने उसकी आंखों पर जूम-इन किया. फिर धीरे से टिल्ट-डाउन और उसके होंठों पर कैमरा फ़िक्स हो गया. होंठ थरथरा रहे थे. वह कुछ कहना चाहते थे. कुछ बोल भी रहे थे. लेकिन मैं सुन नहीं पा रहा था. फिर फुसफुसाहट थोड़ी तेज़ हुई_''क्या मैं गंदी लड़की हूं, एम आई ए बैड गर्ल?'' मैं चौंका. कुछ कहता कि
वह फिर बोली, ''मैं दोहरी ज़िंदगी नहीं जी सकती.'' मैंने पूछा, ''आख़िर हुआ क्या है?'' वह फिर कुछ नहीं बोली बस रोती रही. मैं पूछता रहा. लेकिन उसने मुंह नहीं खोला. बाहर बारिश तेज हो गई थी. कुतिया के रोने की भी आवाज़ आ रही थी.
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रचनाकार - आशुतोष का सर्जनात्मक सफर 'साप्ताहिक हिंदुस्तान', 'दैनिक हिंदुस्तान', 'बीआईटीवी', 'आज तक' से चलता हुआ ‘आईबीएन-7' के प्रबंध-संपादन पर जा पहुँचा है. हंस के टीवी-मीडिया विशेषांक के लिए खासतौर पर लिखी गई उनकी यह पहली कहानी.
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चित्र - पीवी राजगोपाल की कलाकृति.
Tag आशुतोष,कहानी,मृगमरीचिका,हिंदी
बढ़िया कहानी।
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