-नीरजा माधव चन्तारा के दोनों हाथ तेज़ी से बेलन के साथ-साथ गोल-गोल घूम रहे थे. चौके पर पड़ी आटे की लोई पूड़ी का आकार ले रही थी. ''तुम क...
-नीरजा माधव
चन्तारा के दोनों हाथ तेज़ी से बेलन के साथ-साथ गोल-गोल घूम रहे थे. चौके पर पड़ी आटे की लोई पूड़ी का आकार ले रही थी.
''तुम कब से इहां काम कर रही हो?'' पास ही बैठी शांति ने अपनी पूड़ी को ज़मीन पर बिछे सफेद कपड़े पर फेंकते हुए पूछा. उसके हाथ में आटे की दूसरी लोई नन्हे गेंद की तरह थमी थी.
''हो गया होगा आठ-दस साल.'' चन्तारा ने एक दृष्टि शांति पर डाली थी और अपने चौके से पूड़ी उठाकर सफेद कपड़े पर फेंक दिया.
''मजूरी बढ़ाए कि नहीं चौहान बाबू?''
''काहे नहीं बहिन. उनकी किरपा तो बनी ही है. पहिले दिन भर की मजूरी पचास थी. अब बढ़ते-बढ़ते सौ रुपया कर दिया है.'' चन्तारा ने दूसरी लोई बेलन के नीचे दबा दिया था.
''हमको तो अभी अस्सी पर तय किए
हैं.'' शांति के चेहरे पर एक असंतोष का भाव था.
''बढ़ जाएगा धीरे-धीरे. अब जितने का ठीका होता है उतने में ही न सब कारीगरों को भी बांटना है.''
चन्तारा ने ढज्ञ।री को उंगली से चौड़ा किया और एक ओर झुककर देखने लगी थी.
''क्या है बहिन?''
''फुग्गी है उधर.'' झिरी में आंखें गड़ाए चन्तारा ने उत्तार दिया.
''कौन है?''
''मेरा लड़का.''
''वह भी आया है?''
''हां.''
''काम करता है यहीं?''
''हां. टैचू बनता है बड़े लोगों के यहां कार-परोजन में.''
शांति भी उत्सुकता रोक न सकी. बेलन को ज़मीन पर रख चन्तारा के कंधे पर झुक आई और झिरी से उस पार देखने लगी थी. सामने एक चौदह-पंद्रह वर्ष का लड़का नंगे बदन खड़ा था. दो व्यक्ति उसके हाथ, पेट और चेहरे पर हल्के नीले रंग की कोई चीज़ पोत रहे थे. सिर पर जटा की तरह बालों का नकली विग लगा था. कमर से बाघम्बर जैसा छोटा-सा वस्त्रा लटक रहा था. शेष खुले पैरों पर भी वही नीला पुता हुआ था.
''कहां है फुग्गी?'' शांति ने फुसफुसाकर पूछा था.
''वही जो सज रहा है.'' चन्तारा के स्वर में कोई उल्लास न था.
''वह जिसको सब नीला रंग पोत रहे हैं?''
''हां. रंग नहीं, सफेदा है. उसी में नीला पाउडर मिलाकर दो बूंद सरसों का तेल भी मिलाते हैं.''
''हाय, हाय, बेचारा लड़का, नंगे बदन कैसा कांप रहा है. इतनी ठंडक में ये क्यों बना रहे हैं? कुछ दूसरा...''
''अब ग्राहक जो चाहेगा, वही न बनाएगा ठीकेदार.''
चन्तारा का स्वर निराशा में डूब गया था.
'अरे इतना जाड़ा-पाला में कपड़ा वाला टैचू बना दिया होता तो ठिठुरता नहीं
लड़का.'' शांति ने पुरानी-सी शाल को अपने सिर के ऊपर से ओढ़ते हुए कहा.
''हां, मेम, जोकर चाहे नूरजहां ही बना देता. उसमें कपड़ा रहता है तन पर. पिंजरे वाली चनकानता में भी रहता कपड़ा. पर महात्मा और संकर में तो बस एक छोटा-सा ही कपड़ा पहनाते हैं. महात्मा बनेगा तो कमर से मर्दानी धोती या फिर बाघम्बर.'' उसने कनात का पकड़ा हुआ टोक छोड़ दिया था और अपना दूसरा कंधा पकड़कर झूलती अपनी तीन वर्षीया बेटी को पकड़ लिया.
''बेचारा.'' शांति भी अपनी जगह बैठ गई.
''अरे अभी क्या देख रही हो बहन. इतनी ठंड में चार-छह घंटे खड़ा रहेगा, या जब तक बाराती-घराती खा-पीकर एक किनारे न हो जाएं. उसके बाद आधी रात में सरसों के तेल से रगड़-रगड़कर छुड़ाना पड़ेगा सारा रंग. दुर्गत हो जाती है उसकी.''
चन्तारा ने बेटी को ज़बरदस्ती अपनी बगल में बैठा लिया और चौके पर दूसरी लोई रख लिया.
''क्यों, रंग पानी से नहीं छूटता?'' शांति ने पूछा.
''सफेदा है न? रंग होता तो छूट जाता आराम से.''
''अरे राम राम. तब तो लड़का बेचारा और ठिठुर जाता होगा जाड़े में. गर्मी में तो भले ही तकलीफ़ न हो, पर जाड़े में तो मरगन हो जाती होगी.''
''अरे बहिन, ई पेट जो न करवाए. पहिले केवल गर्मी के दिनों में ही शादी-बियाह का लगन होता था. अब तो जाड़ा बरसात, खरमास, कौनो मौसम नहीं छूटता शादी से. न जाने कौन से पतरा से पंडित लोग लगन सोधते हैं.''
''मुसलमान और दूसरी बिरादरियों का भी तो बियाह होता होगा. उसमें कौन लगन पताई देखता है.'' शांति ने पूड़ी बेलकर कपड़े की ओर उछाला था.
''हां, ठीक है. कितने ग़रीब-गुरबा की रोटी भी तो चलती है इसी बियाह से.'' चन्तारा ने एक बार फिर झुककर कनात की झिरी में आंखें टिका दी थीं.
''हे चन्तरवा, शन्तिया, तुम लोग बक-बक ही करती रहोगी कि काम भी करोगी? कड़ाही खाली जा रही है. घी जल रहा है और तुम लोग बतकही कर रही हो. चलाओ हाथ जल्दी-
जल्दी.'' पूड़ी छान रहे सरूप साव डपटकर बोल पड़े. उनके हाथ में पकड़े बड़े से पौना में कई फूली पूड़ियों से रिस-रिसकर घी कड़ाई में चू रहा था.
''माई, पूड़ी लूंगी.'' चन्तारा की बेटी मचली थी पूड़ियों को देख.
''चुप्प. अभी नहीं.'' चन्तारा ने उसे अपनी कुहनी से एक टिहोका दिया.
''नहीं, भूख लगी है माई. पूड़ीऽऽ...'' वह रिरियाते हुए पूड़ियों की ओर ललचाई दृष्टि से देख रही थी.
''नहीं, अभी भगवान जी को भोग लगेगा, तब सबको मिलेगा.'' चन्तारा के हाथ तेज़ चलने लगे थे.
''नहीं, अभी. हम अभी लेंगे.'' वह फिर मचली.
''चटाक्...'' एक हल्का-सा झापड़ उसके गाल पर जमाकर चन्तारा ने अपना ब्लाउज़ ऊपर उठाया था और बच्ची को दबोचकर अपना स्तन उसके मुंह में दे दिया.
गुस्से में बच्ची ने अपने दांतों को उसके स्तन में गड़ा दिया था. एक सीत्कार के साथ चन्तारा ने एक भारी घूंसा बच्ची की पीठ पर जड़ते हुए झटके में स्वयं से अलग किया था. निरावृत देह से कुछ क्षण के लिए उसका ध्यान हटकर अपनी पीड़ा पर चला गया था. सरूप साव बड़ी लालसा से यह दृश्य देख रहे थे. हाथ में एक पूड़ी उठाए वे जल्दी से चन्तारा के पास आ गए थे.
''क्यों पीट रही हो बच्ची को? लो, यह दे दो. मेरे होते हुए क्यों परेशान होती हो? बच्चे तो भगवान की मूरत होते हैं.'' वे पूड़ी चन्तारा के हाथ में पकड़ा रहे थे और दृष्टि कहीं और भटक रही थी. पूड़ी थामते हुए चन्तारा ने उनकी दृष्टि की पहुंच पर आंचल
में.'' वह बहुत आशा भरी दृष्टि से सरूप साव की ओर देख रही थी.
''बस अपने फुग्गिया की चिंता है. कभी हम लोगों की भी चिंता होती है तुझको?'' सरूप साव गहरी दृष्टि से उसे देखते हुए हँसे थे. बदले में चन्तारा भी हँस पड़ी थी.
''बहुत चालाक हो तुम सब. बात घुमाना तो कोई तुम लोगों से पूछे. ब्रह्मा के भी कान काट लो.''
सरूप साव चूल्हे की ओर जाने लगे थे.
''साव जी, दो ठो पूड़ी...'' चन्तारा गिड़गिड़ाई.
''अभी बचिया को दिया न? दो मिनट ठहरकर दूंगा, नहीं तो मालिक कहेंगे कि पहले चन्तारा को ही भोग लगा दिए साव जी?'' हो-होकर हँसे थे सरूप साव और जाने के लिए मुड़े थे.
बगल में बैठी चन्तारा की बेटी दोनों हाथों में पूड़ी को थामे जल्दी-जल्दी काटकर खा रही थी. चन्तारा ने उसे अपने पीछे आड़ में बिठा दिया ताकि अन्य कारीगरों और आने-जाने वालों की दृष्टि न पड़े उस पर. एक बार पुन: कनात की झिरी से उसने झांककर जायजा लिया था.
फुग्गी लगभग तैयार हो चुका था. एक मिट्टी के बड़े से कसोरे में धूप और लोहबान सुलगाई जा रही थी. उसे जटा के ऊपर रखकर एक ऊंचे स्थान पर बैठाया जाता था फुग्गी को. सफेद चादर से टके से खड़ी हो गई थी वह.
चमकीली शेरवानी, तंग पायजामा, कमर में खुंसी तलवार, हाथ में भाला और सिर पर बड़ा-सा साफा. मूंछें भी अपनी नहीं थी फुग्गी के बाऊ की. बड़ी-बड़ी झोप्पादार मूंछों के पीछे उसका असली चेहरा तो छिप ही गया था.
''क्या कर रही हो?'' उसने अपनी आवाज़ को भारी बनाते हुए पूछा था.
''पूड़ी बेल रही...अरे तुम...?'' एकाएक अपने पति को पहचान वह झेंप गई थी. अकारण ही वह डरकर बोल रही थी. अगले ही पल वह हँसते-हँसते दुहरी हो गई थी. आंखों से छलक आए पानी को आंचल से सुखाते हुए वह बोल पड़ी, ''ये कौन भेस बनाए हो फुग्गिया के बाऊ?''
''अरे चीन्ह गई तुम?'' मैं तो सोचा कि डराऊंगा कुछ देर.''
''हां हां, बहुरुपिया तो हो ही तुम.'' वह हँसी थी.
''चलो इसी बहाने दरबान बनने का शौक पूरा हो गया, नहीं तो कौन राजा हमको पूछता? दउरी सूप बीनते-बीनते जिनगी
तमाम.'' वह उल्लास से भरा हुआ था.
''क्या करना होगा तुमको?'' चन्तारा ने पूछा था.
''कुछ नहीं. बस, वह जो गेट बना हुआ है न फूलों वाला, उसी के सामने खड़ा रहना है हम दोनों को.''
''दोनों को?''
''हां, गेट पर एक ही दरबान नहीं रहता न? हमारे साथ वाला जूठन भी दरबान बना है. दोनों ओर भाले को एक-दूसरे से सटा हम खड़े रहेंगे और जब कोई बराती, घराती या दूल्हा आएगा तो हम अपना भाला सीधा कर
लेंगे.'' उसने उसे समझाया था.
''इससे क्या होगा?'' चन्तारा का बेवकूफ़ी भरा सवाल उसे हँसा गया था.
''अरे पागल, हमेशा कुछ होगा ही? शादी-ब्याह में ये सब फैशन है आजकल. पुराने ज़माने की रईसी की झलक है इसमें. एक दिन के लिए दूल्हा और उसके संग-साथ के लोग राजा का सुख उठाते हैं.''
''हूं, एक दिन का राजा बनने से क्या फ़ायदा? बेकार में पैसा...'' चन्तारा ने मुंह सिकोड़ा.
''ये सब न हो तो हम ग़रीबों की रोज़ी-रोटी कैसे चले? तुमको समझ नहीं आएगी. पचास लोगों को पूड़ी बेलने और सब्जी काटने के लिए तो ठेकेदार नहीं न लगा लेगा. ई सब होने से सबका काम-धन्धा ही बढ़ा है. वह भी खुश, हम भी खुश. जी भी आन-मान हो जाता है हम लोगों का ये सब देखकर.''
''हां, तुम्हारा होता होगा आन-मान राजा बाबू बनकर. हमको तो घर-बाहर वही चौका-बेलन.'' चन्तारा ने मुंह बिचकाया था.
''अगली किसी लगन में तुझे अमेरिकन मेम या नूरजहां बनवा दूंगा. बड़ी जमेगी तू.''
''अरे जाओ, छह घंटा टैचू बनकर मैं तो बैठ चुकी. अपना तो भाला हटाने-बढ़ाने के बहाने हिल-डुल लोगे पर जिसको एक तरह से बैठे रहना पड़ता होगा उसकी सजाय पूछो जाकर. कुल्ला पेशाब लग जाए तो क्या हो?'' चन्तारा ने चुटकी ली थी. दोनों हँस पड़े थे.
''अरे चन्तारा, झरोखा ही झांकोगी कि हाथ भी चलेगा?'' सरूप साव चूल्हे के पास से उसे टोक रहे थे.
''अभी हम लोग दो मिनट के लिए हाथ रोक दें तो सावजी एकदम पिनपिना जाएंगे.'' उधर से सब्जी के लिए धनिया की पत्ताी काटते रजिन्दर की आवाज़ आई थी.
''धोती खोल के खड़े हो जाएंगे गुस्से में.'' धीरे से फुसफुसाकर एक महिला ने कहा तो आसपास की आलू छीलती महिलाएं हँस पड़ी थीं खिलखिलाकर.
चन्तारा ने कनात का टोक छोड़ दिया और सिर झुकाए पूड़ी बेलने लगी थी. गले में लिपटी पुरानी मटमैली शाल को उठाकर एक किनारे रख दिया था. फुग्गी इतनी ठंड में नंगे बदन वहां खड़ा रहे और वह चूल्हे के पास बैठी शाल ओढ़कर पूड़ी बेले? इसके लिए उसकी आत्मा धिक्कार रही थी. यहां तो भला तम्बू की छांह है. थोड़ी दूर ही सही, बड़ा-सा चूल्हा चल रहा है. कुछ तो गर्मी लग रही है, पर फुग्गिया बेचारा...खुले आसमान के नीचे ओस और ठंडक में नंगे बदन बैठा रहेगा कब तक?
चन्तारा को लगा उसका कलेजा कोई मसल रहा है. वह उठी थी. शाल को पुन: उठाकर कंधे पर डाला था और परात में पंद्रह-बीस पूड़ियों को रखकर साव को चूल्हे के पास देने के बहाने पहुंची थी. साव ने मुस्कराते हुए उसकी ओर देखा.
''साव जी, दो पूड़ी दे दीजिए तो फुग्गिया को दे आऊं?'' वह धीमे-से गिड़गिड़ा उठी.
''कैसे ले जाएगी? सब देख रहे हैं.'' साव ने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई. सभी अपने-अपने काम में तल्लीन थे.
''जल्दी से अंचरा फैलाओ. झट से छिपा लेना नहीं तो मालिक हमको जीने नहीं देगा.'' सरूप साव ने फुसफुसाते हुए दो ठंडी पूड़ियां दउरा से निकालकर उसके फैले आंचल में फेंक दी थीं.
चन्तारा जल्दी-जल्दी डग भरते कनात की दूसरी ओर चली गई थी.
''क्यों साव जी, अब नहीं कहोगे कि देरी हो रही है? दो आंख कर रहे हैं?'' रजिन्दर ने चंतारा को दूसरी ओर जाते देखा तो साव की चुटकी ली.
''अरे भाई, किसी का कुल्ला पेशाब हम नहीं न रोक देंगे. तुमको भी लगी हो तो जाओ निपट आओ.'' सरूप साव ने बारीकी से बात टाली थी. सब हँस पड़े. चन्तारा फुग्गी के पास पहुंची तो दो-तीन लोग उसके हाथ में रुद्राक्ष की माला लपेट रहे थे.
''हे भइया, जरा दो कौर कुछ मुंह में डाल लेने दो. सुबह से कुछ नहीं खाया है ये.'' वह याचक की तरह बोल पड़ी थी. फुग्गी उसकी ओर दैन्य भाव से देख रहा था. उसके दांत ठंड के कारण रह-रहकर किटकिटा उठते थे. उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में भूख की पीड़ा कसमसा रही थी. माथे पर त्रिपुंड और पतले ओठों पर हल्की लाली के पीछे सफेद दांत चमक उठे थे मां के आते ही.
''नहीं, अब नहीं. पूरा मेक-अप हो चुका है. छह बज गए हैं. कुछ ही देर में बरात लगेगी. घराती तो आने भी लगे हैं.'' रुद्राक्ष पहना रहा व्यक्ति रुखाई से बोल पड़ा.
''हे भइया, बस ज़रा-सा. हम अपने हाथ से ही तोड़कर मुंह में डाल दें.'' वह गिड़गिड़ाई थी. फुग्गी का भीतर धंसा पेट उसे पीड़ा पहुंचा रहा था.
''वाह भाई वाह, हम लोग मूर्ख हैं क्या, जो एक का मेकअप करे, फिर भोजन कराएं, फिर मेक-अप करें...फिर...'' वह गुर्राया.
''क्यों परेशान कर रही हो? अभी इसको तैयार कर लेने के बाद स्टैचू लड़की को भी तैयार करना है हमें. इसे हम खिलाने लगेंगे तो मेक-अप पोंछा जाएगा और हमें फिर मेहनत करनी होगी.'' दूसरे ने अपेक्षाकृत कुछ विनम्रता से समझाया.
चन्तारा की आंखों में आंसू मचल उठे थे. उसने अंतिम प्रयास किया, ''हे भइया, माई हूं न इसकी. जानवर भी अपना बच्चा भूखा नहीं देख पाता. देख लो इसका पेट. कितना धंसा है भूख से? तुम्हारी अम्मा भी होती तो न सह पातीं.''
''अच्छा खिला दो.'' दूसरे वाले ने हारकर सहमति दे दी.
''क्या करते हो यार? फिर मेकअप करोगे?'' पहले वाला गुर्राया.
''जाने दो, मैं कर दूंगा. बस लिपस्टिक ही ख़राब होगी न? दोबारा मार दूंगा. इतनी ठंड में खाली पेट बैठेगा और कहीं मार दी ठंडक तो बस...'' वह हँसा.
''हे शीतला माई, रक्षा करना मेरे बाल बच्चे की.'' बुदबुदाती हुई चन्तारा ने अपने आंचल से पूड़ी निकालकर हाथ में ले लिया और एक टुकड़ा तोड़कर फुग्गी के मुंह में डाल दिया. वह जल्दी-जल्दी मुंुह चलाने लगा था. उसकी आंखों में एक चमक जाग उठी.
''तब तक मैं अपनी यह शाल ओढ़ा दूं भइया, फुग्गी को?'' दूसरा कौर उसके मुंह में डालते हुए चन्तारा ने डरते-डरते पूछा.
''शाल ही क्यों, रजाई ले आकर ओढ़ा दो. ऊंगली पकड़ते-पकड़ते पहुंचा थामने लगी.'' दूसरा वाला लड़का बिगड़ पड़ा.
फुग्गी ने हाथ के इशारे से मां को मना किया और धीरे से पानी मांगा.
''हे लौण्डे, पानी पिएगा तो पेशाब लगेगी. लग रहा है जैसे लड़ाई के मैदान में जा रहा है जो सारा खाना-पानी दुरुस्त कर लेना चाह रहा है. अरे, दो-चार घंटे बाद खाना अढ़ाई सेर और पी कंडाल भर पानी. कौन रोकेगा?'' दूसरा वाला लड़का ही फिर बोला था.
''बहुत दया कर रहा था न? अब तू ही झेल.'' पहले वाले ने दूसरे को कोसा और स्टैचू लड़की को सजाने में व्यस्त हो गया.
''क्यों जी, अभी घराती-बराती किसी के मुंह में अन्न नहीं गया और तुम भोग लगाने लगी. तुम्हीं बड़की पंडिताइन हो क्या?'' एक कसैला-स्वर कानों में पड़ा चन्तारा के और दूसरी पूड़ी का कौर तोड़ते-तोड़ते वह सहमकर रुक गई थी. फुग्गी ने भी डरकर मुंह चलाना रोक दिया. सामने कन्या पक्ष के मालिक खड़े-खड़े आग्नेय नेत्रों से उन दोनों को घूर रहे थे.
''क्यों, हमने खाना बनाने का ठेका दिया है कि लंगर खोला है?'' वे जल-भुनकर पूछ रहे थे.
''मलिकार, बहुत भूखा था बच्चा, इसीलिए...मांगकर लाई हूं, चुराकर नहीं. पूछ लीजिए साव जी से मलिकार.'' उसके चेहरे पर दैन्य पसर गया था. दोनों जुड़े हाथों के बीच पूड़ी थमी थी.
'पूछूंगा तो है ही. ये तमाशा हो रहा है? किसी की इज्ज़त ले लेंगे ये लोग? अब किसी में ईमान नहीं बचा. जहां निगाह न डालो तो लूट ले जाएं लोग. इसीलिए ठेके पर दिया जाता है कि लोग इज्ज़त उतार लें मौके पर?''
''मलिकार बस दो ही पूड़ी ले आई थी. एक खिला दिया है, एक ये है. आपकी इज्ज़त हमारी इज्ज़त है सरकार. नराज मत होइए मालिकार. अब ऐसी ग़लती नहीं होगी.'' वह गिड़गिड़ा उठी. उसका हृदय धुक-धुक करने लगा था. साव जी ने चोरी से उसे पूड़ी निकालकर दिया था. कहीं मालिक पूछने लगे तो वे मुकर न जाएं इस बात से? तब क्या होगा?
''आप बड़े हैं मालिक, बेटी का ब्याह कर रहे हैं. हम गरीबों का भी पुन्न आशीर्वाद लग जाए बिटिया को.'' चन्तारा ने पूड़ी को ज़मीन पर रखा था और मालिक के चरण छू लिए थे.
''नहीं, मैं गरीबों को खिलाने का विरोध नहीं करता. मैं तो ख़ुद ही चाहता हूं कि अधिक से अधिक लोग खाएं-पीएं हमारे यहां. अंतिम बेटी है. रज्ज-गज्ज से विदा करना चाहता हूं. बस हमारी भी इज्ज़त-मान का ध्यान तुम लोग रखो.'' मालिक की आवाज़ नरम हो गई थी. चन्तारा आश्वस्त हुई थी. मालिक दूसरी ओर जाने के लिए मुड़ गए तो वह पुन: अपने स्थान पर आई थी और ज़मीन पर पड़ी पूड़ी को उठा लिया.
''हां, हां अब नहीं खिलाओ. हमने फिर से लिपस्टिक वगैरह लगाकर ठीक कर दिया
है.'' मेकअप करने वाले दूसरे आदमी ने मना किया था चन्तारा को. फुग्गी भी सहम गया था कुछ क्षण पहले का दृश्य देखकर. उसकी खाने की इच्छा मर गई थी. उसने हाथ के इशारे से मां को मना किया. चन्तारा चली गई.
द्वार पूजा के बाद जयमाला के लिए वर-वधू मंच पर आ गए थे. इत्र से सुगंधित क़ीमती जेवरों और साड़ियों से लकदक महिलाएं, गर्म सूट में सजे-संवरे पुरुष पूरे पंडाल में इधर-उधर विचरण कर रहे थे. कुछ कुर्सियों पर बैठे थे तो कुछ दूल्हे और दुल्हन के साथ मंच पर चुहलबाजी में व्यस्त थे. ठंड से बचने के लिए गर्म-गर्म कॉफी की घूंट भरती महिलाएं और लड़कियां निरर्थक बातों पर भी ठहाके लगाने का प्रयास कर रही थीं, ताकि लोगों की दृष्टि उनकी ओर खिंचे. कोई अपने कटे बालों को बड़ी अदा के साथ झटक रहा था तो कोई पारंपरिक परिधान में था.
बड़ी-बड़ी मूंछों और सिर के साफा ने तो फुग्गी के बाऊ को और भड़कीला बना दिया था. चन्तारा को आज अपना पति बहुत अच्छा लगा था. उसने लजाकर मुंह दूसरी ओर फेर लिया. सलाद और प्लेट सजी मेज़ के पास काली पैंट और नारंगी छोटी-सी शर्ट पहने सिर पर हैट, आंखों पर काला चश्मा लगाए मेम बनी एक लड़की कमर पर एक ओर बल दिए खड़ी थी. हाथ प्लेट की ओर इशारा करते एक स्थिर मुद्रा में थे. एक बारगी देखकर आश्चर्य हो रहा था कि क्या वह मोम की गुड़िया है या सचमुच का इन्सान?
क्या-क्या फैशन चल निकला है? कल को कुछ और होगा. पहले तो सबके यहां शादी में काठ का सुग्गा आता था मड़वे में. बढ़ई उस सुग्गे वाले झोंपे को लेकर खड़ा होता था. मालकिन मूसल, लोढ़े और सूप से तथा फिर अपने आंचल से उसका परिछन करती थी. गोतिन दयादिन गारी गाती थी...'गोड़ मोरा बथेला, परिछ लेई जाऊ रे...' सोचते हुए चन्तारा के ओठों पर एक मुस्कान रेंग गई थी. मंच पर दुल्हन दूल्हे के गले में वरमाला डाल रही थी. लोग तालियां बजा रहे थे. फूल फेंक रहे थे एक दूसरे पर. लड़कियां लजा रही थीं बेताब. चन्तारा ने फुग्गी की खोज की. बड़े गेट के भीतर दाहिनी ओर खुले आकाश के नीचे फुग्गी अपने रुई जैसे कपड़े के पहाड़ पर बैठा था. दूर से देखने पर रुई बर्फ़ जैसी दिखाई दे रही थी. उसके ऊपर बैठे फुग्गी के सिर के ऊपर से धीरे-धीरे धुआं उठ रहा था.
चलो, धूप और लोहबान की कुछ तो गरमी लग ही रही होगी मेरे बेटे को. चन्तारा ने अपने मन को दिलासा दिया. फुग्गी के बगल में त्रिशूल और उस पर लटका डमरू दिखाई दे रहा था. आंखें आधी बंद आधी खुलीं, मानो ध्यानावस्थित. पूरा बदन नंगा. बस कमर पर बाघम्बर लटक रहा था. चन्तारा को सिहरन-सी हुई थी. उसने कंधे पर सो रही बेटी को अपनी शाल से
''बेचारा, ठंडा रहा होगा.'' बगल में खड़ी शांति ने चन्तारा को टिहोका दिया.
''हूं. नेता या मुनीम बना दिए होते तो ठीक रहता.'' चन्तारा बेबसी में बोल रही होती.
''इस बार जाड़ा भी तो गजबै पड़ रहा है. सांझ से ही कोहिरा, हाथ-पैर तो जैसे सुन्न हो जा रहा है.''
''हूं.'' चन्तारा र्खोई-सी बोल रही थी. तीन चार मनचले लड़के फुग्गी के आसपास खड़े होकर उसे देख रहे थे.
न चाहते हुए भी चन्तारा के पांव उधर ही बढ़ने लगे. मंच पर आशीर्वाद देने और वीडियोग्राफी का कार्यक्रम चल रहा था. थोड़ी देर के लिए आरकेस्ट्रा वाले भी चाय-पानी करने चले गए थे.
''क्यों यार, क्या ये सचमुच की मूर्ति है?'' एक लड़का फुग्गी की आंखों में आंखें डालकर पूछ रहा था.
''तुमको हँसी नहीं आ रही है मूर्ति जी?'' दूसरे ने पूछा.
''चन्दू के चाचा ने, चांदनी रात में चाची को चांदी के चम्मच से चटनी चटाया.'' चाऊमिन खाते हुए एक लड़के ने स्टैचू बने फुग्गी को हँसाने का प्रयास किया. फुग्गी मूर्तिवत् रहा.
''सचमुच चटा यार. देख बोलता है कि नहीं.'' एक ने सलाह दी तो दूसरे ने झट प्लास्टिक के चम्मच से चिली सॉस उसके ओठों पर लगा दिया. पास खड़ी चन्तारा को क्रोध आया था.
''ये क्या बाबू. वह भी किसी का लड़का है. ऐसे क्यों करते हो?''
चन्तारा को रजिन्दर चुप कराने लगा था.
''क्या बोलती हो? इसीलिए तो सजाकर खड़ा किया जाता है कि लोग खुश हों देखकर. तुम क्या बक रही हो? मुफत में नहीं कर रहा है न तुम्हारा बेटा.''
चन्तारा को अपनी त्रुटि का एहसास हुआ था और वह सिर झुकाए अपने झुंड की ओर चली गई थी. पूड़ी बेलने की गुहार हुई तो वे सब कनात के पीछे चूल्हे की ओर भागी थीं. बराती खाने पर एक साथ टूट पड़े थे. बेयरे थालियों और भगौनों में भर-भरकर पोलाव, सब्जी और पूड़ी कतारबध्द बर्तनों में भरने लगे थे.
''बस एक घंटे की भीड़ और है. फिर सब लोग निबट जाएंगे. मड़वे में ब्याह बैठ जाएगा तो हम लोगों की छुट्टी हो जाएगी.'' सरूप साव ने पौना हाथ में ले लिया था. औरतों के हाथ जल्दी-जल्दी पूड़ी बेलने लगे थे. पुरुष लोई काट-काटकर उनकी ओर फेंक रहे थे.
''इरे इतनी जल्दी नहीं होगा साव.'' शांति ने भीड़ की ओर देखा. ''चार-पांच सौ लोग हैं खानेवाले. हम लोगों से साढ़े तीन सौ लोगों के लिए कहा गया था.'' रजिन्दर चन्तारा के बगल में बैठा आटे की लोई काट रहा था. पास की बिछी चादर पर चन्तारा की बच्ची शॉल में लिपटी सोई थी.
एक कोलाहल-सा मचा था एक ओर. कुछ लोग किसी को उठाए लिए जा रहे थे. मालिक बदहवास से उन लोगों की तरफ़ बढ़े जा रहे थे.
''क्या हुआ साहब?'' रजिन्दर उठ खड़ा हुआ था.
''वह कहां है?''
''कौन?''
''अरे भाई जिसका लड़का स्टैचू बना था.'' उनकी दृष्टि बेचैन सी चन्तारा को ढूंढ रही थी।
''उधर बैठी है चन्तारा.'' रजिन्दर ने उसकी ओर इशारा किया.
''क्या हुआ मलिकार?'' किसी अनहोनी की आशंका में उसका हृदय धड़क उठा था.
''देखो, चन्तारा, तुम्हारा लड़का शायद बेहोश होकर गिर पड़ा है. लोग पास वाले डॉक्टर के पास लेकर गए हैं.''
''हाय राम! क्या हुआ मेरे फुग्गी को?'' वह चीख़ पड़ी थी.
''चुप चन्तारा, रोना नहीं. ब्याह बैठ चुका है. कोई अपशकुन न हो चन्तारा. लड़की के भविष्य का मामला है. सारा ख़र्च मैं उठाऊंगा तेरा. रोना नहीं, अन्यथा मेरी लड़की को अपशकुनी मान बैठेंगे ससुराल वाले लोग.'' मालिक के दोनों हाथ जुड़े थे चन्तारा के सामने और वे दैन्य भाव से चन्तारा की बढ़ रही हिचकियों को रोक लेने का अनुरोध कर रहे थे.
चन्तारा ने सोती हुई बच्ची को कंधे पर लादा था और मुंह में आंचल ठूंसे उस ओर भागी थी जिधर लोग फुग्गी को लेकर गए थे.
विवाह मंडप में मंत्रोच्चार हो रहा था.
(अन्यथा, नवंबर)
रचनाकार - नीरजा माधव अंग्रेज़ी साहित्य में एमए. पी-एच डी हैं. 'चिटके आकाश का सूरज', 'अभी ठहरो अंधी सदी', 'आदिमगंध तथा अन्य कहानियां', 'पथदंश' (कहानी-संग्रह) 'तेभ्य: स्वधा', 'गेशे जम्पा', 'यमदीप' (उपन्यास) प्रकाशित. एक कहानी-संग्रह और एक उपन्यास प्रकाश्य. संप्रति आकाशवाणी, वाराणसी में सेवारत.
एक अच्छी कहानीueela
जवाब देंहटाएंHans me padhi thi yah kahani, shayad sangharshsheel aam jan ki kahaniyan visheshank me...Sangrashsheel aam jan ke rup ke chantara to hai, par bhasha ke saath pura nyay lekhika nahi kar saki hain, khaas kar boli me.
जवाब देंहटाएंहाँ, उपस्थित जी, यह कहानी हंस तथा अन्यत्र भी पूर्वप्रकाशित है. इस कहानी के रचनाकार में पुनःप्रकाशन हेतु अनुमति मिलने के पश्चात् यहाँ प्रकाशित किया गया है.
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी कहानी ...
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