कहानी: ‘ हैप्पी न्यू ईयर ' संजय विद्रोही उन दिनों ऑफिस में मदान साहब की तूती बोलती थी। मदान साहब ईस्ट इंडिया कम्पनी के ...
- संजय विद्रोही
उन दिनों ऑफिस में मदान साहब की तूती बोलती थी। मदान साहब ईस्ट इंडिया कम्पनी के फार्मूले ‘फूट डालो-राज करो' को प्रशासन का अचूक हथियार मानते थे। यह मंत्र उनके लिए बिजनेस का कायदा था और जीने का ढंग । किसको कितनी ढील देनी है और किसको कितना ‘भाव' ये वो अच्छी तरह जानते थे। रोब उनका ऐसा कि बस पूछो मत। ताड़ने और हॉंकने के मामले में पक्के ‘कांईये' और पूरे ‘फेंकू'। अनिच्छित व्यक्ति अगर काम से भी आ बैठे तो जानबूझ कर अपने आप को अन्य कार्यों में व्यस्त कर लेना और बातों के जवाब में सिर्फ ‘हॉं-हुँ' करते रहना उनकी ‘टालने की कला' थी। बेचारा आने वाला तब हार कर कहता ‘अच्छा सर मैं चलता हूँ' तो तपाक से बोल पड़ते ‘ओके ओके'। आदमी बेचारा अपना सा मुँह लेकर लौट जाता। जबकि कई दफा ‘चमचा टोली' के लोग अनावश्यक ही उनके पास ठठ्ठ लगा कर बैठे रहते और चाय समोसों का दौर चलता रहता। मदान साहब तब चमचों की बातों पर हो-हो कर के दॉंत निपोरते नहीं अघाते।
जब कभी वो राऊण्ड पर निकलते तो मानो कॉरिडोर में कर्फ्यू लग जाता। एरिया मैनेजरों को एक साथ खडे हो कर गपियाते देख लेते तो उनकी नजर चश्मे के भीतर भी टेढी हो जाती। तब वो लोग बेचारे कई दिनों तक एक साथ नहीं दिखाई पड़ते थे। और भूले से अगर दिख भी जाते तो तुरन्त अपने काम धंधे में लग जाते। मदान साहब ऑफिस के हर आदमी के बारे में ‘खुफिया जानकारियॉं' लेते रहते थे और इस काम में उनकी चमचा टोली खूब बढ चढ कर अपनी ‘डयूटी' पूरा करती थी। कई दफा तो बात में नमक मिर्च लगा कर अच्छी जायकेदार बना कर मदान साहब के सामने सुनाई जाती और अन्य ‘सहगोत्री' चमचे हॉं में हॉं मिलाकर बात पर सच्चाई की मोहर लगा देते। कई सीधे-सादे लोग इस तरह आये दिन चमचा टोली के ‘अधिकारिक वक्तव्यों' की बली चढ जाते। मदान साहब सारे तमाशे को खूब एन्जॉय करते । उनकी इस विशिष्ट कार्यशैली के परिणाम भी आफिस में नजर आने लगे। किसी को आधा टारगेट अचीव करने पर ही भारी इन्क्रीमेण्ट मिलने लगा और किसी को टारगेट से ज्यादा अचीव करने पर भी कोरा ‘वेरी गुड'। नतीजतन ऑफिस में ‘खबरचियों' की नई खेंप तैयार होने लगी। जो जितना बडा ‘खबरची' वो बॉस का उतना बडा हितैसी और उतना ज्यादा प्रिय।कहने की आवश्यकता नहीं कि उसका उतना ही भारी इन्क्रीमेण्ट। लगाई -बुझाई से दूर रहने वाले भी अब इस ‘एकस्ट्रा कैरिकुलर एक्टिविटि' में गहरी दिलचस्पी लेते दिखाई देने लगे। ऑफिस का माहौल बडा बेढब हो चला था। कौन,कब,क्या कर बैठे ?कोई नहीं जानता था। आये दिन लोग पाळा बदलते दिखने लगे।
दिसम्बर का आखिरी पखवाडा चल रहा था। सब लोग साल की आखिरी रात को अपने अपने अंदाज से सेलिब्रैट करने वाले थे। आजकल सब लोग बस इसी प्लानिंग में लगे रहते थे। जरा फुरसत पाई नहीं कि लगे हवा में किले खडे करने। कोई पत्नी के साथ तो कोई गर्लफ्रैण्ड के साथ । कोई घर में तो कोई शराबघर में ।नये साल के स्वागत को हर कोई तत्पर जान पडता था। आज भी लंच के बाद लगे मजमे में इसी टॉपिक पर डिस्कशन चल रहा था। तभी चपरासी हाथ में एक टाईप किया हुआ कागज लेकर हॉल में अवतरित हुआ। उसकी निगाहें किसी को ढूंढ रही थी। प्रजापत को देखते ही वो मुस्कुरा दिया और आगे बढकर उसके हाथ में ‘वो कागज' देकर चलता बना। सब एकसाथ प्रजापत के पास जा पहुँचे ये देखने कि आखिर चपरासी क्या देकर गया है। किन्तु ये जानकर कि मदान साहब ने दिनेश प्रजापत का ‘एक्सप्लेनेशन' कॉल किया है तुरन्त ही सब तितर बितर हो गये। ‘न्यू ईयर सेलिब्रैसन' की चर्चाऍं एकाएक फुर्र हो गई। सब अपनी अपनी टेबिल पर जाकर काम में मुँह देकर बैठ गये।
दिनेश जैसे दब्बू किन्तु काम के प्रति सीरियस रहने वाला कैसे मदान की चपेट में आ गया ?जानकर मुझे बडी हैरानी हुई। उस पर अपनी कम्पनी का ‘डाटा' दूसरी प्रतिस्पर्धी कम्पनी के साथ शेयर करने का आरोप लगाया गया था। प्रजापत ने रो-रो कर बुरा हाल कर लिया था। जिससे और कुछ नहीं मगर ये जरूर जाहिर हो रहा था कि बन्दा बेकसूर है और किसी की कच्ची ‘खबर' पर उसको बलि का बकरा बनाया जा रहा है। मैंने उसको ढाढस बॅंधाया और " चिन्ता मत कर,कोई रास्ता निकाल लेंगे।" कहकर उसको सॉंत्वना दी। उस दिन शाम को दफ्तर से हम साथ ही निकले। मैं उन दिनों कुँवारा था और जवाहरनगर में एक मकान के गैराज पोर्शन में रहता था। मालिक मकान दुबई गया हुआ था कमाने और मालकिन अपने बच्चों के साथ अकेली यहॉं रहती थी,प्रवासी भारतीय की अप्रवासी पत्नी बेचारी। मेनगेट की एक अतिरिक्त चाबी मैंने बनवा रखी थी। सो खा-पीकर रात देर से लौटने में कोई असुविधा नहीं होती थी। तिस पर मकान मालकिन से भी थोडा ‘तारतम्य' था । सो किसी किस्म की तकलीफ नहीं थी मुझको वहॉं।उ स दिन प्रजापत को मैं अपने साथ ही ले गया। वो भी इस शहर में अकेला ही था। अकेला रहेगा तो ज्यादा सोच विचार करेगा,इसी विचार से मैंने उसको अपने साथ ले लिया था।
करीब घण्टे भर की समझाईश के बाद जाकर कहीं वो नॉर्मल हो पाया था। नौ बजे के लगभग हम डिनर करने के लिए निकले। मैं अक्सर राजापार्क में ही खाना खाता हूँ। नजदीक पडता है। सो पैदल ही निकल पडे। अभी ढाबे से काफी दूर थे कि अचानक प्रजापत बोल पडा " सक्सेना आज मूड ठीक नहीं है। एक-एक पैग हो जाए तो कैसा रहे?" अँधे को क्या चाहिए? दो ऑंखें। मैं झट तैयार "नेकी और पूछ पूछ।"
अब हम खाने की बजाय पीने की जुगाड में लग गए। एक रिक्शा किया गया और शाही अंदाज में उसको निर्देश दिया गया " रोशन बार चलो।"
एक-एक पैग से चल कर दौर तीन-तीन पैग तक जा पहुंचा। प्रजापत की ऑंखें चमकने लगी और वो आत्मसम्मान से लबरेज हो उठा " वो साला समझता क्या है अपने आप को? सक्सेना तुम अगर जरा सा सहारा लगा दो तो मैं साले की एसी-तैसी कर के रख दूँ।" मैं भी कुछ कम विद्रोही नहीं हुआ जा रहा था। फौरन बोला " उठो आज उसके घर चलते हैं। वहीं साले की मॉं-बहन एक करेंगे। अपना हुलिया नहीं पहचान पाएगा साला आईने में।"
" मगर सक्सेना अगर उसने हमसे बात करने से मना कर दिया तो ?" प्रजापत ने संदेह जताया।
" कैसे मना कर देगा?कोई मजाक है? डरता क्यूँ है साले? मैं हूँ ना साथ में।"
" वो और नाराज हो गया तो?" प्रजापत अब डरने लगा था। पल भर पहले शेर की तरह दहाडने वाला प्रजापत मेमने की तरह मिमियाने लगा था।
" तू साले हिजडा है क्या? तुझ जैसे कस्सी लोगों ने ही तो उसको खुला सांड बना दिया है। वरना क्या मजाल वो चूं भी कर जाए?जानता नहीं क्या कि हमारी खून-पसीने की कमाई पर ही वो एयरकंडिशनर की हवा खा रहा है। उसको साले को क्या पता कि फिल्ड में काम कैसे होता है?" मैं पूरी तरह तरंग में था और ‘करो या मरो' का बिगुल फूंकने की ठान चुका था।
"लेकिन उसने कुछ कह दिया तो?" वो अब भी सहम रहा था।
" तू डर मत यार। मेरे साथ चल बिंदास।"
" चल ठीक है। फिर जो कुछ बोलना है तू ही बोलना। मैं तो हॉं में हॉं भर दूँगा बस।" उसने तपाक से कहा और मैंने "हो" कहते हुए हामी भर दी।मदान का घर राजापार्क से ज्यादा दूर नहीं था। बार से बाहर आ कर हमने एक रिक्शा पकडा और थोडी ही देर बाद हम बापूनगर स्थित मदान साहब के घर के सामने थे। घर के बाहर एक कॉल बेल लगी थी। किन्तु बजाए उसको बजाने के, हम लगे दरवाजे को जोरों से पीटने और पीटते ही गए जब तक कि ‘भडाक' से दरवाजा खुल नहीं गया।दरवाजे पर मिसेज मदान थी ‘बोलिए।'
"मदान साहब से मिलना था।" मैं किंचित मुँह पर हाथ रख कर बोला। कहीं शराब की बदबू ना आ जाए।
" वो तो सो गए।" मिसेज मदान ने बडा सपाट-सा उत्तर दिया।
"ठीक है" मैं भी आग्याकारी बालक की तरह वापस पलट गया। मिसेज मदान दरवाजा बंद करने लगी । ना जाने मुझे क्या हुआ मैं वापस मुडा और किंचित ऊँची आवाज में बोला " जगा दिजिए। कहिए सक्सेना आया है।" मानो सक्सेना ना हुआ, कोई पीएम हो गया। मैं झौंक में था। पीछे मुड कर देखा प्रजापत दुबका जा रहा था सहमे हुए मेमने-सा। ऑंखों से उसको घुडकाया तो वो थोडा खिसक कर आगे हो गया। पर बोला कुछ नहीं। मिसेज मदान दरवाजा खुला छोड कर अन्दर बढ गई थी और मैं घुस कर हॉल में पडे सोफे पर जा कर पसर गया। ईशारे से प्रजापत को भी बुला लिया। वो भी पॉंव समेट कर पास ही एक कुर्सी पर बैठ गया। थोडी ही देर बाद मदान साहब प्रकट हुए। मंहगा नाईट सूट पहने वो बिल्कुल फ्रैश लग रहे थे और साफ लग रहा था कि वो चाहे जो भी कर रहे हों सो तो नहीं रहे थे। हॉं आने जाने वालों के लिए टालने का बहाना अच्छा है कि ‘साहब सो रहे हैं।'
‘कहो' उन्होंने बैठते हुए पूछा। साथ में बैठे प्रजापत को देखकर वो सारी रामकथा समझ गए। घूर कर उन्होंने प्रजापत को देखा भर, वो सहम गया। उसकी टॉंगें कांप रही थी और सारा नशा हिरण हो चुका था।
‘क्या काम था इतनी रात गए?' उन्होंने फिर पूछा।
‘कुछ खास नहीं। बस यूँ ही थोडा डिस्कशन करना था। सो चले आए और क्या?' मुझे कुछ और नहीं सूझा।
‘बोलो क्या डिस्कशन करना है?'
‘यही कि ऑफिस का माहौल ठीक नहीं है' मैंने बात शुरू की।
‘क्यों ?क्या हुआ ऑफिस के माहौल को?' मदान साहब बिल्कुल नॉर्मल थे।
‘होना क्या है? आप आजकल किसी की सही बात सुनने को तैयार ही नहीं हैं। कुछ ‘स्वार्थी‘ लोगों ने आफिस को खेमेबाजी का अडडा बना रखा है। चुगलखोरों की बातों में आकर एसे निर्णय लिए जा रहे हैं, जिनसे शरीफ लोगों का जीना मुहाल हो गया है। इस प्रजापत का क्या कसूर था? जरा बताईये। मुझ में अचानक जाने कहॉं से शक्ति फूट पडी।
‘तुम नाहक ही इसकी तरफदारी कर रहे हो सक्सेना। मुझे ऑथेंटिक रिपोर्ट मिली है कि यह आदमी हमारे ‘डाटा-बेस' को दूसरी कम्पनी से शेयर कर रहा है।'
‘कौन है आपका ऑथेंटिक रिपोर्टर? वो गुप्ता जो एक एक चाय के लिए लोगों के गले पडता रहता है या वो अरोडा जो आपके पीछे से आपकी पत्नी के बारे में चटखाारे ले लेकर भददी-भददी बातें करता है। या वो सिंघल जिसकी लडकी आपके छोटू को पढाती है। किस ऑथेंटिक रिपोर्टर की बात कर रहे हैं आप?' मुझ पर ‘सुरा' पूरी तरह से हावी थी। मानो आरपार की लडाई के मूड में था।
‘मैं तुम्हें कोई एक्सप्लेनेशन देने की जरूरत नहीं समझता। किंतु मैं किसी भी केस को ऊपर रिकमण्ड करने से पहले खुद तसल्ली कर लेता हूँ ,तभी कोई एक्शन लेता हूँ। समझे?'
‘आप जानते हैं ,लोग आपकी कम्पनी में काम करना नहीं चाहते।'
‘कौन कहता है?'
‘कौन नहीं कहता ये पूछिए?' सुनकर मदान साहब सकपका गए।
‘आप जितनी तनख्वाह देते हैं ना ,उतने का तो अलाऊन्स उठा लेते हैं अन्य कम्पनियों वाले। चुगलखोरी के माहौल में कोई कैसे रह पाएगा तब?एसे में आपके यहॉं नौकरी करना घटी दरों पर बेगार करना नहीं तो और क्या हुआ? बताईये।' मैं घोडे पर सवार था फुल और आज ‘सम्पूर्ण स्वराज' की घोषणा करने पर आमादा था। प्रजापत जस का तस बुत बना बैठा था। मानो काठ मर गया हो।
‘तुम चाहते क्या हो? स्पष्ट बताओ।' मदान बोला। मदान साहब का ‘साहब' भी दारू की भेंट चढ़ गया।
‘प्रजापत के खिलाफ जो आरोप पत्र आपने निकाला है, उसको आप वापस लें बस।'
‘नहीं तो?'
‘नहीं तो मैं, नहीं हम दोनों नौकरी छोड देंगे। कल अपनी मेज पर हमारा रेजिगनेशन देख लेना। लात मारते हैं एसी नौकरी को जहॉं आत्मसम्मान चमचागिरी का मुखापेक्षी हो।' कहते हुए मैंने जेब से रजनीगंधा का जिपर-पाऊच निकाला और दो तीन चम्मच एक साथ फॉंक गया। मेरी बात सुनकर मदान लाल पीला नहीं हुआ जैसा वो अक्सर हो जाता है। वो शांत बना रहा और मेरी तरफ मुस्कुराकर देखते हुए बोला ‘तुम एक काबिल प्रोफेशनल हो सक्सेना। किसी बात की तह में जाए बगैर सिर्फ भावनाओं में बह कर फटे में पॉंव घुसा देना तुमको शोभा नहीं देता। तुम्हें असल बात मालूम नहीं है अभी।'
‘मालूम नहीं है तो आप बता दीजिए ना।' मैं पूरे जोश में था और आज प्रजापत को न्याय दिलाकर उठने की ठान कर आया था।
‘जोशी को तो तुम जानते ही हो। उसकी आजकल कम्पनी की पब्लिक रिलेशन ऑफिसर दीपाली बरूआ के साथ कुछ ज्यादा ही देखादेखी चल रही है। दोनों घण्टों ऑफिस में बतियाते हैं। प्रेमालाप में लीन रहते हैं।'
‘तो इसमें इस गरीब का क्या लेनादेना?' मैं बीच ही में बोल पडा।
‘सुनो तो।दफ्तर में उनका जी नहीं भरता तो वे लोग शहर में मिलते हैं। और शहर में मोज-मस्ती करने के लिए ये आपके मित्र महानुभाव उन्हें अपना आवास उपलब्ध कराते हैं। बदले में जोशी इनकी मिटिंग दूसरी कम्पनी के मैनेजर से कराता है। क्या है ये सब? बताओ।' मदान एकाएक ऊँची आवाज में बोलने लगा। सुनकर प्रजापत तो पत्ते की तरह कॉंपने लगा।लेकिन मैंने तुरन्त प्रतिवाद किया ‘किसी के घर आना-जाना कोई जुर्म तो नहीं है। आप भी अपने कलिग्स के घर आते-जाते होंगे। लोग भी आप के घर आते-जाते होंगे। इस मामले में आपकी दखलंदाजी बिल्कुल नाकाबिले बर्दाश्त होगी। तब किस तरह प्रजापत दोषी हुआ। बताऍं।रही बात उनके बीच चल रही देखादेखी की। सो उसमें ना आप कुछ कर सकते हैं ना मैं। जोशी और दीपाली बच्चे तो हैं नहीं कि उनको कुछ कहा जाए। वैसे भी प्यार करना कोई जुर्म तो है नहीं हमारे मुल्क में। उन्हें अपना निजी जीवन अपनी मरजी से जीने का पूरा हक है। हॉं,दूसरी कम्पनी वाली बात अवश्य ही विचारणीय है। किन्तु वो आपके लिए भी विचारणीय है। आप क्यों नहीं आत्म निरीक्षण करते कि क्या वजह है कि जो प्रजापत जैसा दब्बू आदमी भी ‘स्विच ओवर' करने कि सोच रहा है और दूसरी कम्पनी के मैनेजर से मीटिंग कर रहा है?' मैं आज पूरा प्रवचन झाडने के मूड में था।
‘अच्छा चलो तुम्हारी बात मान लेता हूँ। तो क्या तुम दोनों मेरी एक बात मानोगे।'मदान ने मुस्कुराते हुए पल्टी मारी।
‘क्या?' हम दोनों के मुँह से एक साथ बेसाख्ता निकला। इतनी देर में पहली बार प्रजापत के मुँह से बोल फूटा था।
‘मैनेजमेण्ट जोशी के काम से कुछ खास खुश नहीं है ,तुम तो जानते ही हो।काम में उसकी दिलचस्पी जरा भी नहीं है। इश्कमिजाजी जरा ज्यादा है। अगर तुम दोनों उसके खिलाफ एक बढिया सी कम्पलेण्ट लिख कर मुझे दे दो तो मैं तुम्हारा साथ दूँगा। बदले में प्रजापत का एकसप्लेनेशन वापस हो जाएगा और तुम्हारा इंक्रिमेण्ट। आफ्टर ऑल यू आर ए डिजर्विंग कैण्डडेट।' मदान ने आखिर अपने पत्ते मेरे सामने खोल ही दिए।
‘हम एसा गिरा हुआ काम नहीं कर सकते। क्यों करें ?जाति तौर पर हमको उनसे क्या तकलीफ है?कम से कम मुझको तो नहीं. और इस प्रजापत को भी क्या हो सकती है? क्यों बे?' मैं तैश खा गया। प्रजापत काठ के उल्लू की तरह जस का तस खडा था।
‘तब फिर यहॉं क्यों खडे हो?' मदान ने साफ शब्दों में हम पर अपनी मंशा जता दी थी। मतलब साफ था कि या तो उसका साथ दो नहीं तो भुगतो। सुनकर प्रजापत के तो माथे पर पसीना चमकने लगा। मैं एक झटके के साथ खडा हो गया और ‘मदान साहब नमस्ते। जिन्दा रहे तो मिलेंगे' कहकर चल पडा। प्रजापत मेरे पीछे पीछे।
दूसरे दिन, मैं अपने केबिन में बैठा अभी गई रात की घटना के बारे में ही सोच रहा था कि तभी पिऊन आया और ‘मदान साहब बुला रहे हैं।' कहकर चलता बना। सुनकर अपन तो कल की घटना को याद करके मारे आशंका के एक बार तो घबरा गए। लेकिन फिर सोचा देखा जाएगा । चलो।
मदान साहब ने मेरे आते ही चपरासी को बुला कर चाय का आर्डर दे दिया और साथ में कुछ बिस्कुट नमकीन ले आने की भी ताकीद की। चपरासी भी आज आश्चर्यचकित था। मदान के चेहरे की मुस्कुराहट को देखकर मुझे नहीं लगता था कि वो कल रात की बात को ‘डिस्कस' करना चाहता है। फिर मुझे क्यों बुलाया है सुबहा सुबह बग्रै किसी कारण के? मैं अजीब पशोपेश में था। आखिर मैंने ही पूछ डाला ‘जी सरा। कहिए।'
‘कहना क्या है भई? हमसे तो अकेले अब ये आफिस सम्हलता नहीं है। क्या क्या देखें हम? हम चाहते हैं कि तुम कुछ हमारी मदद करो। आफिस की कुछ रिस्पांसिबिलिटी तुम से शेयर करना चाहते हैं। आफ्टर ऑल यू आर ए डिजर्विंग कैण्डडेट एण्ड सीनियर पर्सन।' वो कुटिलता से मुस्कुरा रहा था।
‘आदेश करें सर।' मैं अतिरिक्त विनम्र था । ना जाने क्यों?
‘आदेश नहीं सक्सेना। तुम इतने सीनियर हो तुमसे तो मैं रिक्वेस्ट ही कर सकता हूँ।ऊपर वालों ने कुछ कम्पीटेण्ट आफिसर्स के नाम मॉंगे हैं मुझसे । जिन्हें असिस्टेण्ट मैनेजर के प्रमोशन के लिए कन्सिडर किया जा सके। सिनियेरिटी के हिसाब से तो दो तीन लोग हैं आफिस में। किन्तु मेरे जेहन में सिर्फ तुम्हारा ही नाम है। क्योंकि तुम ‘डिजर्विंग' तो हो ही ‘कम्पीटेण्ट' भी हो। लोग तुम्हारी बात मानते हैं और स्टाफ तुम्हारी ईज्ज्त करता है। तुम्हारे एक ईशारे पर काम होता है ,ये मैं जानता हूँ। आफिस भर में तुमसा कोई ओर नजर नहीं आता मुझको।' उसने बडी कुटिलता से मुस्कुराते हुए बुलाने का म्तांव्य साफ किया। चाय बिस्कुट आ चुके थे।
‘जी मुझे क्या करना होगा?'मैंने चाय की घूँट भरते हुए पूछा।
‘करना कुछ नहीं है। इस सारी प्रक्रिया में एक अडचन आ रही है, बस।'
‘क्या?'
‘जोशी। वो भी इस प्रमोशन का दावेदार है। उसका अनुभव तुमसे दो साल ज्यादा है।जिस कारण टॉप मैनेजमेण्ट जोशी के लिए ज्यादा ‘कीन' है। पर मैं जानता हूँ कि वो कितना निकम्मा है। सिर्फ सर्विस पीरियड बढ जाने से कोई ज्यादा काबिल थोडे ही हो जाता है। तिस पर मैं ये भी जानता हूँ कि प्रमोशन की तुमको ज्यादा जरूरत है। तुम्हें अपनी बहन की शादी करनी है तुम्हारा छोटा भाई मथुरा में इंजिनियरिंग की पढाई कर रहा है गॉंव में तुम्हारे बूढ़े मॉं बाप भी हैं। और फिर तुमको अपने बारे में भी तो सोचना है ,शादी ब्याह करना है कि नहीं ? या जिन्दगी भर ‘अप्रवासी मकान मालकिन' का किरायेदार बने रहना है? बोलो। इसलिए मैं पर्सनली तुम्हें प्रमोट कराना चाहता हूँ। यू नो मेरी रिकमण्डेशन पर ही सब डिपेण्ड करेगा।' मदान अपने असली चोले में आता जा रहा था। उसकी मुस्कुराहट से कमीनगी साफ झलक रही थी।
‘लेकिन¼' मैं रात की बात को अभी भूला नहीं था।
‘लेकिन वेकिन क्या? मुझे पता है तुम दिल के बहुत साफ हो। कल रात भी तुमने जो कुछ किया वो प्रजापत की मदद करने के लिहाज से ही किया था। इसलिए मैंने उस सब का कुछ बुरा नहीं माना। वरना किसी की क्या मजाल कि मदान के सामने इतने ऊँचे सुर में बोल जाए? नौकरी से हाथ धोना पड़ जाए सो अलग। चक्की और पिसवा दूँ,दो मिनट में।' मुस्कुराते हुए उसने मेरे सम्मुख अपनी सामर्थ्य का और मेरी विवशता का एक ही झटके में खुलासा कर दिया था। वाकई वो बडा घाघ था, आज मैं साफ देख रहा था। मैं चुप ही रहा। कुछ बोला नहीं।
‘जी मुझे क्या करना होगा?' मैंने कुछ देर बाद पुन: दोहराया।
‘कुछ नहीं। बस जोशी के खिलाफ एक बढिया-सी कम्पलेण्ट तैयार कर के उस पर दस-बीस लोगों के साईन करवा दो। बाकी सब मैं देख लूँगा। क्या है कि सब लोगों पर तुम्हारा बडा दबदबा है। लोग तुम्हें मना नहीं करेंगे। मैं उसी कागज पर अपना कमेण्ट लिखकर हैड ऑफिस भेज दूँगा। उसके बाद तुम्हारे प्रमोशन में कोई रोडा नहीं रहेगा।' उसने मेरी तरफ ऑंख मिचकाते हुए कुटिलता से फुसफुसाया।
‘सर,एक तरफ आप मुझे ‘डिजर्विंग' और ‘कम्पीटेण्ट' कहते हैं और दूसरी तरफ मुझसे ऐसा कार्य करने को कहते हैं। मैंने कल रात ही आपको मना कर दिया था कि मुझसे ऐसा नहीं हो सकेगा। जोशी जी ने मेरा क्या बिगाडा है? बल्कि जब मैं इस शहर में नया नया आया था तब उन्होंने मेरी मदद ही की थी। उस मदद का बदला मैं इस तरह दूँगा। ऐसा आपको क्यों लगता है? मैं ऐसा कतई नहीं कर पाऊँगा।'मैंने किंचित रोष के साथ कहा।
‘देखो मदद-वदद तो कोई भी कर सकता है,प्रमोशन कोई भी थोडे ही दिला सकता है। और फिर तुम ये क्यों भूलते हो कि हम खुद तुमको इस काम के लिए कह रहे है। मदान खुद। सोचो जरा।' उसने कुटिलता से फिर ऑंख दबा दी।
‘सॉरी सर। आपने गलत आदमी को चुना है, बस। मैं इससे ज्यादा कुछ नहीं कह सकता। चलता हूँ।' मैं कहता हुआ उठने लगा।
‘सक्सेना ! ये काम तुम नहीं करोगे तो कोई और करेगा। मदान एक बार जो ठान लेता है वो कर के मानता है।' वो बुरी तरह तिलमिला उठा। क्रोध के मारे उसका चेहरा तमतमा गया। मैं बगैर कुछ बोले केबिन से बाहर निकल गया।
आ के सीट पर बैठा ही था कि प्रजापत पास आ बैठा ‘क्या कह रहा था ?'
‘कुछ नहीं । वही ,जोशी का रोना रो रहा था।' मैंने छोटा-सा जवाब दिया। इतने में ही पिऊन फिर से मेरी टेबिल के सामने आ खडा हुआ। ‘क्या है?' मैंने जोर से पूछा।
‘परजापत जी, साब बुला रहे हैं।' उसने जरा हिकारत से बिना मेरी ओर देखे प्रजापत से कहा। प्रजापत सिर पर पैर रख कर भागा। मूड ऑफ था। सो मैं उस दिन हॉफ-डे लेकर घर चला आया।
प्रजापत आजकल खुश रहने लगा था। उसने मदान से माफी मॉंग ली थी और भविष्य में अनुशासन में रहने का भरोसा भी दिलाया था। उसका ‘एक्सप्लेनेशन' भी कैंसिल हो गया था। मदान की मण्डली में भी वो अक्सर बैठा दिखाई देने लगा था। प्रजापत को खुश देखकर मैं भी मन ही मन खुश था कि चलो एक शरीफ आदमी ‘झमेले' में पडने से बच गया।
फिर एक दिन आफिस में घुसते ही प्रजापत ने मिठाई का डब्बा सामने कर दिया। मैंने प्रश्निल भाव से पूछा ‘किस खुशी में? '
वो तपाक से बोला ‘हैप्पी न्यू ईयर।'
‘सेम टू यू।' अचानक मुझे याद आया कि आज तो नया साल है।
‘एक पीस और ले सक्सेना।' प्रजापत ने पुन: डब्बा मेरी और बढाते हुए कहा।
‘बस यार।'
‘ले तो सही।' इस बार उसकी आवाज में मनुहार थी।
‘आखिर बात क्या है? बडा खुश दिखाई दे रहा है आज।' मैंने दूसरा पीस उठाते हुए पूछा।
‘प्रमोशन हो गया अपना' वो तपाक से बोला और मुस्कुराता हुआ आगे बढ गया।
अचानक मदान के कहे अन्तिम वाक्य कान में गूंज उठे ‘सक्सेना ! ये काम तुम नहीं करोगे तो कोई और करेगा। मदान एक बार जो ठान लेता है वो कर के मानता है।'
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कहानी धाँसू है, हकीकत के बहुत करीब।
जवाब देंहटाएंपहले पता नहीं कहीं पढ़ी है,शायद अभिव्यक्ति पर या संजय भाई के ब्लाग पर. :) है कहानी प्रवाहयुक्त. ध्न्यवाद फिर से पेश करने को.
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