व्यंग्य: एक फ़ाइल का सफ़र -रवींद्र नाथ त्यागी यह जो फ़ाइल नाम की चीज है यह वाकई बड़ी खतरनाक है. अगर फ़ाइल न होती तो न इतने बाबू होते और न इत...
-रवींद्र नाथ त्यागी
यह जो फ़ाइल नाम की चीज है यह वाकई बड़ी खतरनाक है. अगर फ़ाइल न होती तो न इतने बाबू होते और न इतने अफ़सर. नतीजा यह होता कि हमारा बजट आधा हो जाता और सिगरेट और शराब सस्ती हो जाती. देश में जो कुछ भी परेशानियाँ हैं वे सब फ़ाइल के ही कारण हैं:
यह हुस्न से ही है इश्क पैदा
यह इश्क से ही मुसीबतें हैं
जो ये न होता तो दिल न होता
जो दिल न होता तो गम न होता
-अकबर
ख़ैर, स्थिति यह है कि हुस्न की तरह फ़ाइल की हुस्न बानू भी सीन पर मौजूद है. एक जरा-सा मसला था मगर जैसे ही बाबू ने उसे फ़ाइल कवर में फ़ीते से नत्थी कर दिया, वह कयामत हो गया. जरा सी बात थी मगर जब उसमें से शाखाएँ निकलने लगीं तो ऐसा लगने लगा कि वनमहोत्सव की तैयारियाँ हो रही हैं. पहले यह जाँच-पड़ताल की गयी कि इस तरह का मसला पहले भी पैदा हुआ था या नहीं. अगर हुआ था तो वह कैसे हल किया गया था और यदि नहीं हुआ था तो क्यों नहीं हुआ था? खैर, बात यहीं खत्म नहीं होती. मसला एक व्यक्ति का है पर इसकी स्वीकृति या अस्वीकृति का प्रभाव हजारों लोगों पर पड़ेगा. लगता है मामला विधि मंत्रालय को जाएगा और फिर वित्त मंत्रालय को. इसके बाद क्या होगा, पता नहीं:
सितारों के आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क के इम्तहाँ और भी हैं.
-इकबाल
मैं फ़ाइल उठाता हूँ, एक अधिकारी से बात करता हूँ और फ़ाइल उसे भेज देता हूँ. यह अधिकारी इतना सतर्क है कि टेलिफोन पर भी कोई वादा नहीं करना चाहता. वैसे उसके वायदे की क्या कीमत है यह मैं जानता हूँ पर फिर भी:
उम्मीद तो बंध जाती, तस्कीन तो हो जाती
वादा न वफ़ा करते, वादा तो किया होता.
-हसरत
मैंने फ़ाइल उस अधिकारी के पास भेज दी है. लगभग पंद्रह दिन हो गये हैं और जैसा कि उन्होंने बताया है वे उस पर की बीस दफ़ा विचार भी कर चुके हैं. मगर फ़ाइल जो है वह वहीं है जहां थी. मूल प्रश्न को पीछे छोड़ा जा रहा है और दीगर बातों पर ध्यान दिया जा रहा है. फ़ाइल उनके पास है, जो चाहे करें:
आईना सामने है, खुद लुत्फ़ ले रहे हैं
जुल्फें बना-बनाकर, तेवर बदल-बदलकर
-माइल
किसी तरह फ़ाइल उनके पास से निकली तो दूसरे विभाग में गयी. ये अधिकारी साहित्यिक हैं और शायरी का शौक रखते हैं. शायरी का सरकारी नौकरी से बड़ा सीधा संबंध है:
लोग कहते हैं कि फ़न्ने-शायरी मनहूस है
शेर कहते कहते मैं डिपुटी कलक्टर हो गया
-अकबर
इस अधिकारी की बाकी विशेषताएँ दो हैं. एक तो यह कि यह जो कुछ एक हाथ से देते हैं वह दूसरे हाथ से ले लेते हैं. इन्होंने यदि कोई प्रस्ताव स्वीकृत किया तो समझ लीजिए कि दाल में कुछ काला है. ठीक वही स्थिति जिसमें कवि ने कहा था:
शर्म में भी हैं तेरी परले शिरे की शोखियाँ
आँख नीची कीं तो बुर्का रूख से ऊँचा कर दिया.
-अज्ञात
और दूसरी बात यह है कि इन्हें कितना भी बुरा-भला कह लीजिए, बुरा नहीं मानते. कई बार मैंने फ़ाइल पर भी काफी तीव्र आलोचना की मगर ये हैं कि असर ही नहीं पड़ता:
शोख ऐसा है कि उस बुत को अगर काफिर कहो
हँस के कहता है कि प्यारा लफ़्ज है, ये फिर कहो
-अकबर
किसी तरह फ़ाइल उनके यहाँ से निकली तो एक और सलाहकार के पास गयी. उन्होंने इतनी ईमानदार सलाह दी कि मानो या न मानो यही तय करना मुश्किल हो गया. बात साफ़ करने के लिए फ़ाइल दुबारा मार्क की तो इन्होंने दस सवाल और पूछ लिए. यह किस्तों में चोट पहुँचाना बड़ा कष्टदायक है मगर फ़ाइल है कि सब कुछ झेलना पड़ता है:
कहूं किससे कि क्या है, शबे गम बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता
-ग़ालिब
मैंने इनसे कई बार कहा कि जो कुछ भी पूछना हो वह पहली बार ही पूछ लिया करो:
शर्म बेजा है, बुरा करते हो
अच्छी सूरत को छुपाया न करो
-रिन्द.
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मगर ये हैं कि फ़ाइल बीस बार वापस करेंगे तो हर बार नए मुद्दे पर होगी. इस बीच वह तन्वंगी फ़ाइल गर्भवती महिला की भांति स्वस्थ हो जाती है. कहाँ एक पेज के प्रारंभ हुई थी और अब वह ऐसी हो गयी है कि उसके सामने मैं भी छोटा लगता हूँ:
क्यों न हो शेख इस कदर मोटा
रोज खाता है गोश्त मुर्गों का
-अज्ञात
सारे सवाल पूछने के बाद इस विभाग ने बताया कि फ़ाइल उनसे संबंधित नहीं है. यानी कि पिछले छः महीने की मेहनत बेकार. इधर से उधर यूँ ही मारे-मारे फिरते रहे:
याँ से वाँ, वाँ से याँ, हुक्म हुआ वस्ल की शब
हम उठाते ही, बिछाते ही रहे बिस्तर अपना
-अज्ञात
इसके बाद फ़ाइल एक विशेष उच्चाधिकारी के पास गयी. इन अधिकारी की यह विशेषता है कि इनके पास गयी फ़ाइल आम तौर पर वापस नहीं लौटती. आयात है, निर्यात नहीं. फ़ाइल उनके पास है और आप शेर याद कर रहे हैं:
ये कह-कहकर हम दिल को बहला रहे हैं
वो अब चल चुके हैं वो अब आ रहे हैं
-जिगर
आँखें सफेद, दिल भी चला इंतजार में
क्या कुछ न हम भी देख चुके इंतजार में
-मीर
आधी से ज्यादा शबे गम काट चुका हूँ
अब भी अगर आ जाओ तो ये रात बहुत है
-साकिबतेरे फ़िराक ने गम से बचा लिया सबसे
मेरे करीब अब कोई बला नहीं आती
-जिगरआने के वक्त तुम तो कहीं के कहीं रहे
अब आए तुम तो फ़ायदा, हम ही नहीं रहे
-मीर
मैं रिमाइंडर भेजता हूँ. फिर डैमी आफ़ीशियल पत्र डालता हूँ. वे टेलिफ़ोन करते हैं और पूछते हैं कि क्या उस फ़ाइल पर अब भी कुछ होना बाकी है? उनका विचार है कि इतनी अवधि में बिना कुछ किए ही मसला हल हो गया होगा. मैं निवेदन करता हूँ कि मामला काफ़ी जिंदा है और तूल पकड़ता जा रहा है. वे बड़ा आश्चर्य प्रकट करते हैं और जल्दी ही एक्शन लेने का वचन देते हैं. स्थिति वही है जो कवि ने पहले ही भांप ली थी:
मैंने कहा जो उससे ठुकरा के चल न जालिम
हैरत में आके बोले, क्या आप जी रहे हैं?
-अकबर
पंद्रह दिन बाद इन्होंने फिर फ़ाइल वापस कर दी और फिर उसी विभाग को भेजने की सलाह दी जहाँ से वह ससम्मान वापस आयी थी. मैंने एक शेर अर्ज किया:
मीर क्या सादा हैं, बीमार हुए जिनके सबब
उसी अत्तार के लौंडे से दवा लेते हैं
-मीर
इस शेर का उन पर असर पड़ा. उन्होंने फ़ाइल रख ली. पंद्रह दिन बाद मैंने फिर फोन किया. उन्होंने बताया कि उन्होंने निर्णय तो ले लिया है पर वे उसे अपने सीनियर को सबमिट करना चाहते हैं. मैं दुःख में मुस्कुराने लगा:
कहा जब साथ चलने के लिए उस तिफ़्ले नादाँ से
तो बोला, ठहर जाओ, पूछ लें हम अपनी अम्माँ से
-गुस्ताख़
आज एक साल से ऊपर हो रहा है. फ़ाइल है कि अभी वहीं बद्रीनाथ के मार्ग में रुकी है. कल फोन किया था कि कानूनी धमकी का खत आया है. जवाब में बोले कि बस फ़ाइल चलने ही वाली है. मैं सिगरेट सुलगाता हूं, ताजीराते हिंद की दफ़ा 302 को याद करता हूँ और यह शेर पढ़ता हूँ:
वो फिर वादा मिलने का करते हैं यानी
अभी कुछ दिनों हमको जीना पड़ेगा
-आसी
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