तेरी मेरी कहानी -सलीम खान आधी रात को हिंदुस्तान आजाद हुआ था परंतु स्वतंत्र देश की पहली सुबह में विभाजन के खून की लाली शामिल थी और बदहवासी के...
तेरी मेरी कहानी
-सलीम खान
आधी रात को हिंदुस्तान आजाद हुआ था परंतु स्वतंत्र देश की पहली सुबह में विभाजन के खून की लाली शामिल थी और बदहवासी के उस आलम में खुशी के साथ आंसू शामिल थे। आबादी की अफरा-तफरी के दौर में कई लोगों के लिए किसी नतीजे पर पहुंचना बहुत मुश्किल था। जमीनी हकीकत को नजरअंदाज करके ख्वाबों की जन्नत में जाएं या न जाएं ये सवाल अनेक आत्माओं को मथ रहा था। कैसा अजीब-सा दौर था कि दरख्त जमीन से इल्तिजा कर रहा है कि मेरे पैर छोड़ दो। सब भाग रहे थे परंतु कोई कहीं पहुंच नहीं रहा था।
हम लोग पलासिया में अपने पुश्तैनी मकान में रहते थे। मेरे पिता अब्दुल रशीद खान होलकर पुलिस में डीआईजी थे और उनके महकमे में भी तब्दीलियां हो रही थीं।
इंदौर हमेशा से एक थमा हुआ शहर रहा है, कमोबेश मानसरोवर झील की तरह। वक्त की बर्फ यहां आहिस्ता-आहिस्ता पिघलती है परंतु उस दौर में पहली बार मालवा की जमीन का मोह छोड़कर कुछ लोग जाना चाहते थे। मालवा की जमीन में एक नशा है जिससे छूटना आसान नहीं। इस शहर में बसे अधिकांश लोग यहां किसी नौकरी के तहत आए थे।
तबादला होने पर खुद बाहर चले गए परंतु अपने परिवार को मालवा की शरण में ही रखा और सेवानिवृत्त होते ही यहां आकर जम गए। इस शहर की सुस्त रफ्तार यहां के बाशिंदों की दिल की धड़कन की तरह है जिसमें एक रिदम है, एक ताल है। इस जमीन पर स्टेस्थेस्कोप रखकर देखिए। यह काम आपको अजीब और मुश्किल लगता है तो उस्ताद अमीर खान को सुन लीजिए। इसके रंग आपको एम.एफ. हुसैन के चित्रों में नजर आएंगे। लता के अलाप में आप इसकी सुबह को महसूस कर सकते हैं। उस दौर में कुछ लोग इस दिलकश शहर को छोड़ने का सोच रहे थे।
इस शहर में सराफा है, कसेरा बाजार है, कोयला बाखल हैं, कपड़ा बाजार और व्यवसाय के आधार पर रखे मोहल्लों के नाम वाले इस शहर में तवायफों के मोहल्ले को बंबई बाजार कहते हैं। यह बंबई के साथ नाइंसाफी है परंतु छोटे शहर और कस्बे महानगरों को कुछ इसी अंदाज में देखते हैं। बचपन से मन में जमे कुटैव कुछ इस तरह भी जाहिर होते हैं।
उस सुबह बारिश हो रही थी। अब्बा अहाते में बैठकर चाय पी रहे थे। रेडियो सीलोन पर कुंदनलाल सहगल का गीत बज रहा था। इस फरमाइशी प्रोग्राम में सहगल का गीत रोज बजाया जाता था और इसी के साथ अब्बा अखबार रखकर दफ्तर जाने के लिए तैयार होते थे। ठीक उसी समय एक साइकल आकर रुकी। बर्तन बाजार के नदीम साहब आए थे। जब नदीम साहब राजस्थान के सूखे से तंग आकर इंदौर आए थे तब वे महू के छावनी में जाकर पुराने कपड़ों के बदले नए बर्तन देने का व्यवसाय करते थे। बर्तन बाजार में दुकान लेने लायक हैसियत बनते-बनते दस बरस लग गए थे।
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इंदौर के हर गली मोहल्ले में उन्होंने बर्तन बेचे थे। अब्बा ने नदीम साहब को तौलिया दिया और चाय के लिए आवाज लगाई। अब्बा ने उनकी पेशानी पर लिखी परेशानी पढ़ ली परंतु वे कुछ बोले नहीं। अब्बा की तरह खामोशी को इस्तेमाल करते मैंने आज तक किसी को नहीं देखा। मेरी पटकथाओं में पात्रों की खामोशी शायद इसी प्रभाव से आई है। कोई बाप कभी मरता नहीं, वह बेटे की सांसों में जिंदा रहता है। बेटे की खामोशी में आप पिता को सुन सकते हैं। नदीम साहब ने ठंडी करने के लिए रकाबी में चाय डाली और काढ़े की तरह हलक से नीचे उतार ली। जाहिर है कि वे जल्दी में थे।
नदीम साहब ने रकाबी नीचे रखी और तपाक से बोले-मैं पाकिस्तान जाना चाहता हूं। मुझे लगता है हिंदू ग्राहक मुझसे बर्तन नहीं खरीदेंगे। विभाजन का सबसे ज्यादा असर इंसानी सोच पर हुआ था। अब्बा ने खामोशी बनाए रखी। नदीम साहब बोले-मैं आपसे सलाह लेने आया हूं।
नदीम साहब को अब्बा पर बहुत भरोसा था। बरसों पहले बरसात की एक रात नदीम साहब को सामने से आता हाथी नजर नहीं आया और उनकी बर्तन से लदीफदी साइकल टकरा गई। कीचड़ में गिरने के कारण उन्हें चोट तो नहीं आई मगर उनके बरतन बिखर गए और साइकल का हैंडल टेढ़ा हो गया। महू से लौटते हुए अब्बा ने नदीम साहब के बर्तन इकट्ठे कराए और उन्हें मय साइकल के अपनी कार पर लादकर घर ले आए। इस तरह ये दोस्ती शुरू हुई थी। इस बार साइकल का हैंडल ठीक था पर नदीम साहब का खुद पर भरोसा से उठ गया था। कोई इस तरह से अपनी जमीन नहीं छोड़ता। इस बार बर्तन बिखरे नहीं थे, बांधे जा रहे थे।
अब्बा ने उन्हें समझाया कि ग्राहक क्वालिटी और किफायती देखकर दाम देकर माल खरीदता है न कि दुकानदार का मजहब देखकर। आमतौर पर औरतें ही बर्तन खरीदती हैं और किफायत का जितना खयाल उन्हें होता है, उतना मर्दों को नहीं। जिस शहर की तमाम गलियों में जिसने घर-घर व्यापार किया, उस शहर के ग्राहकों पर भरोसा करना चाहिए। यह शहर बहुत पुराना है और आप इसके अफसाने का एक हिस्सा हैं। नदीम साहब थोड़ी देर चहलकदमी करते रहे और फिर बैठ गए। अब्बा ने उनके कंधे पर हाथ रखा। दोनों थोड़ी देर खामोश रहे। बरसात भी थम गई थी। नदीम साहब ने अपने रेनकोट की घड़ी की और उसे साइकल के कैरियर पर लगाया। अब्बा को शुक्रिया कहकर चले गए।
अब्बा की समझाइश का असर हुआ और नदीम साहब ने पाकिस्तान जाने का इरादा छोड़ दिया। उनकी दुकान जम गई। उनके सारे डर काफूर हो गए। उनकी मेहनत और मुनासिब मुनाफा कमाने के कारण उनकी दुकान पर लोगों का भरोसा बढ़ गया और बर्तन बेचने वालों की बिरादरी में कभी किसी ने उनके मुसलमान होने की बात कभी नहीं की। बिरादरी के सारे समारोह में उन्हें सम्मान से बुलाया गया और बर्तन विक्रेता संघ के अध्यक्ष भी चुने गए।
कुछ वर्षों बाद अब्बा कपड़ा बाजार किसी काम से गए तो लौटते समय नदीम की दुकान पर रुके। नदीम ने उन्हें सादर बैठाया। थोड़ी देर बाद एक ग्राहक आया और एक बर्तन के मूल्य को लेकर नदीम से बात करने लगा। नदीम साहब ने उसे झिड़क दिया और बहुत सख्ती से पेश आए। इतना ही नहीं उन्होंने उसे कहीं और से बर्तन खरीदने की सलाह भी दे दी। कुछ ही देर में अब्बा ने महसूस किया कि कामयाबी ने नदीम का दिमाग खराब कर दिया और अब वे बहुत मगरूर हो गए हैं।
अब्बा उठकर रुखसत लेने लगे तो नदीम ने और रुकने का इसरार किया। अब्बा से उनका व्यवहार सम्मानपूर्वक था परंतु ग्राहकों के प्रति व्यवहार बदल चुका था। अब्बा ने उनसे कहा कि अब वे चाहें तो पाकिस्तान जा सकते हैं।
साभार - दैनिक भास्कर
bahut bhadiya
जवाब देंहटाएंरवि जी,
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा कहानी है। प्रस्तुत करने के लिये धन्यवाद।