. युद्ध . -बलजीत सिंह रैना रातोंरात सुरेंद्रनाथ कौल अपने घर का थोड़ा सा ज़रूरी सामान सरदार हकूमतसिंह के ट्रक पर लादकर परिवार सहित जम्मू आ पहु...
युद्ध
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-बलजीत सिंह रैना
रातोंरात सुरेंद्रनाथ कौल अपने घर का थोड़ा सा ज़रूरी सामान सरदार हकूमतसिंह के ट्रक पर लादकर परिवार सहित जम्मू आ पहुंचा था.
सरदार हकूमतसिंह से उसकी जान- पहचान बहुत पुरानी नहीं थी लेकिन गहरी और सघन थी. तब वह बारामूला सरकारी अस्पताल में मेडिकल असिस्टेंट था. हकूमतसिंह का बड़ा ख़तरनाक ट्रक एक्सीडेंट हुआ था. बाईं टांग की हड्डी टूट गई थी. ग्यारह दिन अस्पताल में रहा और इन ग्यारह दिनों में सुरेंद्रनाथ ने बड़े अपनेपन से उसकी मरहम पट्टी की थी. बाद में बीस-बाइस दिन मरहम पट्टी के लिए वह उसके घर भी जाता रहा. यह एक महीने की सेवा उन दोनों को इतना निकट ले आई कि वह सगे भाईयों जैसे दोस्त हो गए.
ट्रक पर सामान रखवाते हुए सुरेंद्रनाथ की आंखें भर आईं तो हकूमत सिंह ने गर्म हाथों से उसका कंधा दबाते हुए कहा था, ''हौंसला रख सुरेंद्रनाथ! कभी हम भी इसी तरह मुजफराबाद से उजड़े थे. पैदल चलते ऊड़ी, करना होते हुए बारामूला पहुंचे थे. हिम्मत रख...तेरे परिवार को जम्मू पहुंचाने के लिए रब सबबी (ईश्वर की इच्छा से) मैं आज अपने ट्रक के साथ तेरे पास हूं पर जब हम उजड़े थे तब हमें छोड़ने वाला कोई नहीं था. कबाईलियों की गोलियों की बौछार को लांगकर आधे-अधूरे पहुंचे थे बारामूला. कईयों का तो अंतिम संस्कार भी नहीं कर पाए थे. पर तू दिल छोटा न कर, हम चाहे पलटकर मुजफराबाद न जा सके, पर मेरा दिल कहता है, आप लोग ज़रूर वापस आओगे. भारत सरकार इतनी आसानी से नहीं छोड़ने वाली इस कश्मीर को.
बाल्टियां ट्रक के क्लीनर को पकड़ाते हुए सुरेंद्रनाथ के बड़े लड़के प्राणनाथ ने कहा, ''मेरी बात याद रखिएगा, सिंघ अंकल, हम पंडितों के बाद यह जिहादी आपको भी नहीं छोड़ेंगे.''
हकूमत सिंह ने हां में सिर हिलाते हुए माना था, ''जानता हूं बेटा. यह धार्मिक जनून किसी का सगा नहीं होता. यह तो अपने ही धर्म के लोगों को बे-वजह शक के आधार पर मार डालता है फिर दूसरे किसी को बख्शने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता. यह तो पंजाब में चल रही मूवमेंट का परिणाम है जो अभी तक इन्होंने हमसे छेड़छाड़ नहीं की, वरना जिन्होंने सैंतालीस में गोलियां बरसाकर हमें घर छोड़ने के लिए मजबूर किया था, वे आज कैसे हमारे सगे हो गए? फिर भी, मैं समझता हूं कि अभी इन्सानियत इतनी नहीं मरी कि कोई किसी की की हुई नेकियों को ही भूल जाए.''
''हां यह बात तो आपकी ठीक है, भाईसाहब! नेकी को तो दुश्मन भी याद रखता है.'' इस बार सुरेंद्रनाथ की पत्नी बोली थी.
सुरेंद्रनाथ गहरे सोच में डूब गया था. सचमुच लोग इतने नाशुकरे नहीं है. बीमारों की सेवा-टहल करते हुए उसने पैसे के साथ-साथ कुछ नेकियां भी कमाई थीं. पड़ोसी ज़हूर साहब की बेटी फरीदा भी उसकी कमाई हुई नेकियों में से एक थी.
फरीदा_जो थोड़ी देर पहले ही उनके घर आई थी. पहले तो बारह बजे रात की दस्तक ने उन्हें डरा ही दिया था. लेकिन जब हिम्मत जुटाकर दरवाज़ा खोला तो सामने बुरके में छिपी फरीदा की सलाम सुनकर सांस में सांस आई थी. लेकिन यह सांस थोड़ी देर बाद घुटन में बदल गई. फरीदा ने बताया कि आज रात किसी भी समय उन पर हमला हो सकता है, इसलिए जैसे भी हो उन्हें रातों-रात जान बचाकर निकल जाना चाहिए.
''एक बोतल खून दिया था फरीदा को.'' सुरेंद्रनाथ अचानक बोल पड़ा, ''हकूमत सिंघ, उस एक बोतल खून ने आज मेरे परिवार को जिहादियों की गोलियों का निशाना बनने से बचा लिया. फरीदा बेटी का ऑपरेशन था तब, उसके पेट में बहुत बड़ा टयूमर बन चुका था. ईश्वर की कृपा से बच गई. सचमुच नेकी दरिया से निकल कर कब, कैसे, किस मोड़ पर आपके सामने खड़ी हो जाए,...वरना जिस जेहलम में इतना ज़हर भर गया हो उसमें से अमृत निकल कर आधी रात को मेरे दरवाज़े पर दस्तक क्यों देता? और तुम! आज ही रात भर ठहरने के लिए मेरे घर कैसे आ जाते? मैं इसे केवल संयोग नहीं मानता.''
हकूमत सिंह ने एक बार फिर अपने गर्म हाथ से सुरेंद्रनाथ का कंधा दबाया. साथ ही उसे ख़याल आया, क्या सुरेंद्रनाथ के परिवार की तरह उन्हें भी किसी रात अचानक यूं उजड़ना पड़ेगा? इस सोच ने उसे झनझना दिया. उसने एक लंबी सांस खींचकर छोड़ी और तभी ट्रक का डाला बंद होने की खड़ाक ने उसकी चेतना को झिंझोड़ा.
ट्रक जब जवाहर नगर की एक मस्जिद के पास से निकला तो लाउडस्पीकर से कश्मीर की आज़ादी के लिए छिड़े जिहाद में, कुर्बानियां देने के लिए, उकसाने वाले भाषण के साथ ले के रहेंगे_आज़ादी यहां पे चलेगा_निज़ामें मुस्तफ़ा...जैसे नारे गूंज रहे थे.
सुबह आकाश में अभी एक अकेला तारा टिमटिमा रहा था जब हकूमत सिंह ने ट्रक बटोत की चढ़ाई में एक होटल के आगे जा रोका था. वह जब पंडित सुरेंद्रनाथ के परिवार के साथ चाय-नाश्ते के लिए
हकूमतसिंह के साथ, कश्मीरी पंडितों का परिवार देखकर बोला था, ''ओ कूमते चाचा, पंडितों का डेरा तो नहीं ले जा रहा जम्मू? मैंने भी चार जीव बिठाए हुए हैं...बीजबिहाड़ा के आगे खड़े थे...कहने लगे जितने चाहे पैसे ले लों सरदार जी पर हमें जम्मू ले चलो. मैंने भी बेचारों को बिठा लिया. हालात कुछ ज्यादा ही ख़राब हो गए हैं कूमते चाचा! हमारे लिए भी मुश्किलें बनेंगी.'' ''हां खराब तो बहुत हो गए हैं!'' हकूमतसिंह ने सिर हिलाते हुए कहा था, ''तू अपनी सुना, सुना है तेरे घर रोज़ जलूस लेकर चले आते थे?''
''हमारी तो तू कुछ ना पूछ चाचा. तू तो जानता है हमारे बाबा की ज़मीन जायदाद...हमारे सेब और बादाम के बाग़ों को देख कर दुनिया वैसे ही जलती है. असल में कुछ मुसलमानों की हमारे बाग़ों पर नीयत ख़राब हो गई थी. गांव के पांच-सात घर रोज़ जलूस निकालकर हमारे घर आ धमकते. एक दिन, दो दिन, तीसरे दिन, हमारे बाबे को गुस्सा आ गया उस दिन...डांग लेकर निकला बाहर_कहने लगा, ''हमारा घर कोई यू एन ओ का दफ्तर है? त्राठा जोगियो (इस लायक हो कि तुम पर बिजली गिरे) हमने कब रोका है तुम्हें आज़ादी लेने से? चलो मैं साथ चलता हूं तुम्हारे, चल के यू एन ओ के दफ्तर के बाहर नारे मारो.'' बाबे के हाथों में डांग देखकर दौड़े फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. अगले दिन गुरुद्वारे की बाहर वाली दीवार पर पोस्टर लगा छोड़ा था, जो सिक्ख हमारी आज़ादी की तहरीक में रुकावट बन रहे हैं वे सब हमारी हिट-लिस्ट में हैं. पोस्टर पढ़कर बाबे को चढ़ा गुस्सा, वह गया मुजाहिदीनों के लोकल कमांडर के पास...उसे बाबे ने मुसलमानों की सारी करतूत सुनाई. कमांडर ने कहा कि जो मुसलमान इस तरह सिक्खों को नाजायज तंग करते हैं वे कश्मीर की आज़ादी के लिए जद्दोजहद करने वालों के गध्दार हैं, और उनके ख़िलाफ़ कारवाही होगी. बस, फिर नहीं आया कोई. हकूमते चाचा आपको किसने कहा यह सब?
हकूमत सिंह मुस्कराया था, ''अख़बारों में इश्तिहार पढ़ा था आपके बाबे का कि, मैं वाहिगुरू को हाज़िर नाज़िर जानकर वज़ाहत करना चाहता हूं कि मैं कश्मीरियों की आज़ादी की लड़ाई में किसी प्रकार की रुकावट खड़ी नहीं कर रहा. कुछ लोग अपने जाति फ़ायदे के लिए हमारे बारे में ग़लत प्रचार कर रहे हैं. लिहाज़ा जेकेएलएफ या हिजबुल मुजाहिद्दीन मेरे ख़िलाफ़ पूरी तहक़ीकात किए बिना कोई कारवाही न करें. एक बे-गुनाह कश्मीरवासी- सरदार ज्वालासिंघ, त्रााल, कश्मीर.''
''इश्तिहार तो देना ही पड़ता है आजकल, हकूमते चाचा! जान किसे प्यारी नहीं होती, आधी से अधिक अख़बार तो इश्तिहारों से भरी होती है...हर किसी को अपनी बेगुनाही का इश्तिहार देना ही पड़ता है. कभी सोचा था कि यह सब कुछ होगा कश्मीर में?'' ''पिछले दस वर्षों में पंजाब में थोड़ा कुछ हुआ था? पर यह सब नहीं देखा अख़बारों में!'' हकूमत सिंह के माथे पर चिंता की रेखाएं गहरा गईं. सोचने लगा, कश्मीर में ही नहीं, अलग होने का नारा तो पंजाब में भी लग रहा था. लेकिन पंजाब में इस नारे से पहले पानी का नारा था, बिजली का नारा था, चंडीगढ़ की मांग थी...लेकिन जब एक भी मांग पूरी न हुई तब देश से अलग होने का नारा लगा, पर यहां कश्मीर में तो सीधे ही आज़ादी का नारा लग गया.''
नाश्ते के बाद ट्रक स्टार्ट करते हुए हकूमत सिंह बोल पड़ा था, ''सुरेंद्रनाथ, मैं सोचता हूं कि यह लोग अभी कश्मीरी सिक्खों को तंग नहीं करेंगे, पर मुझे लगता है अगले चक्कर में मुझे भी अपना परिवार जम्मू लाना पड़ेगा.''
जैसे-जैसे गाड़ी पतनी टॉप की तरफ़ बढ़ रही थी. धुंध और और गहरी होती जा रही थी. एक स्थान पर गाड़ी एक तरफ़ करके हकूमते ने ट्रक रोक लिया था और इस घनी धुंध के छंटने की प्रतीक्षा करने लगा.
कुछ दिन गीता भवन में रहने के बाद सुरेंद्रनाथ के परिवार को जम्मू से पंद्रह किलोमीटर दूर अखनूर रोड़ पर मिश्रीवाला के पास लगे शरणार्थी कैंप में एक तंबू मिल गया था.
शुरू-शुरू में तो जम्मू के डोगरों ने बड़ी फराख दिली से कश्मीरी शरणार्थियों का स्वागते किया, बढ़-चढ़कर मदद की, गीता भवन में स्थान दिया, लंगर चलाए, कपड़े बांटे, यहां तक की मुसीबतों के मारे कश्मीरियों ने अपनी बेटियों के रिश्ते कमाऊ डोगरे लड़कों के साथ करने के फ़ैसले भी ले लिए थे, लेकिन जैसे-जैसे कश्मीरी शरणार्थियों की जम्मू में भीड़ बढ़ने लगी और कश्मीर के हालात और अधिक बिगड़ते गए, डोगरे अपने आदर्शवादी इन्सानी जज्बे की जकड़न से मुक्त होते हुए और यथार्थवादी दृष्टिकोण से अपने भविष्य को लेकर चिंतित होने लगे. उन्हें अपने अधिकार, भविष्य में बंट जाने का भय सताने लगा. शरणार्थियों के कारण ज़मीन की क़ीमत आसमान छूने लगी थी. दाल-सब्जी और छोटी-बड़ी चीज़ें महंगी हो रही थीं. जम्मू शहर में जिधर दृष्टि दौड़ाओ कश्मीरियों की एक भीड़ चली आती दिखाई देती, जिस मेटाडोर, बस में बैठो कश्मीरियों से लदी हुई मिलती, यहां तक कि जम्मू; कश्मीरी पंडितों के शहर का भ्रम पैदा करने लगा! परिणाम इसका यह निकला कि जम्मूवालों को अपनी डोगरा पहचान पर ही हमला होता महसूस होने लगा. धीरे-धीरे, अलग-अलग धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक... स्थानीय संस्थाओं की तरफ़ से कश्मीरी पंडितों को वापस भेजने या फिर जम्मू शहर से बाहर दूर दराज़ स्थानों और कैंपों में बसाने की आवाज़ें उठने लगीं.
इस बार गर्मी भी तो खूब पड़ी थी. कुछ पत्राकार जब सुरेंद्रनाथ कौल के टैंट के आगे से निकल रहे थे तो उन्हें देखकर सुरेंद्रनाथ की पत्नी ने ऊंची आवाज़ में सुनाकर कहा था, 'कश्मीर से चिल्लेकलां की सख्त सर्दी के दिनों में स्वर्ग के सुख जैसी कांगड़ी सिर्फ़ पेट की चमड़ी ही जलाती थी, लेकिन यह छयालिस डिग्री सैल्सियस ने तो तन के साथ-साथ मन भी जला डाला है.' कहते-कहते उसने एक लंबी सांस छोड़ी थी.
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एक स्थानीय पत्राकार ने आगे बढ़कर कहा था, ''हां गर्मी तो सचमुच बहुत है, लेकिन सैंतालिस में जब पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर से, बहुत से सिक्ख और पंडित शरणार्थी बनकर इस शहर में आए थे, तो उन्होंने अपने आपको यहां की आबोहवा में एडजस्ट कर ही लिया था.''
''कौन एडजस्ट नहीं करता?'' इस बार प्राणनाथ बोला था, ''सब करते हैं. जो मर जाते वे भी तो एडजस्ट ही करते हैं...इस जला देने वाली गर्मी में बिन पंखे के इन तिरपाल के टैंटों में हालात के साथ एडजस्ट करते हुए; मां के आंचल जैसी चिनार की ठंडी छाया में पले बच्चे से पूछिए इस आग में झुलसना क्या होता है?''
प्राणनाथ को भावुक सा होते देख एक और पत्राकार उसके पास आ खड़ा हुआ और बड़े हमदर्दी भरे लहज़े में पूछने लगा, ''आपका नाम प्लीज़?''
''प्राणनाथ कौल.''
पत्राकार बोला, ''देखिए कौल साहब, जेकेएलएफ वाले दावा कर रहे हैं कि उन्होंने किसी कश्मीरी पंडित को परेशान नहीं किया, बल्कि पंडित कुछ हिंदू पार्टियों के ग़लत प्रचार के कारण से कश्मीर छोड़ रहे हैं. आप बताएंगे कि आपके घर छोड़ने की क्या वजह रही?''
''देखिए ऐसा है कि कश्मीरी मुजाहिद जब हमें ज़बरदस्ती जलूस के साथ चलने के लिए कहते; वहां तक तो ठीक था, फिर वे आज़ाद कश्मीर का नारा लगाने को कहते, जान बचाने के लिए हम नारा भी लगा देते थे, पर जब उन्होंने कहा कि हमारे साथ ट्रेनिंग के लिए सीमा पार चलो तो यह हम कैसे कर सकते थे? इस बात के लिए वे हमारे पूरे परिवार को जलाकर मार डालने वाले थे लेकिन हमारी एक पड़ोसन ने हमें उनके ख़तरनाक इरादों के बारे में बतला दिया और हम रात में ही निकल आए.''
कुछ खीजते हुए सुरेंद्रनाथ ने कहा था, ''आपने कभी उनके नारे सुने होते तो यह सवाल ही न करते. एक ग्रुप कहता है, ''बटो बरयि, बटनियो सान-सब बनेगा मुसलमान. (पंडितें के बिना, पंडितानीयों के साथ, सब को बनाएंगे मुसलमान)'' तो दूसरा कहता है, ''हिंदुस्तानी कुत्ताो, वापस जाओ.'' तीसरा जलूस चिल्लाता है, ''आधी रोटी खाएंगे, पाकिस्तान बनाएंगे.''...एक ग्रुप नहीं है वहां, भाई साहब! पचासों हैं, और आप एक जेकेएलएफ को लेकर बैठे हैं! एक ग्रुप सबको साथ लेकर चलने की बात करता है, तो दूसरा हम लोगों की बहू-बेटियों पर बुरी नज़र डालता है. धमकी भरी चिट्ठियां मिलती हैं. हमारे तो घर तक बांट लिए हैं उन्होंने!''
जवाब में एक पत्राकार ने कैमरा क्लिक करके सुरेंद्रनाथ के टैंट के भीतर परिवार का फ़ोटो खींच लिया. शेष, सिर हिलाते हुए आपस में बयानों का विश्लेषण करते हुए अगले टैंट की तरफ़ चले गए.
सूरज की सिंदूरी टिक्की धीरे-धीरे नीचे होती हुई दूर लहरा रहे सफ़ेदों और टाली के वृक्षों में जा अटकी थी. एक अर्धपागल कश्मीरी पंडित जिसके इकलौते पुत्रा को मिलिटेंटों ने घर से बुलाकर बीच गली में मार डाला था, दूर जा रहे पत्राकारों की टोली को देखते हुए यकायक अपनी धुन में ललदिद का गीत ऊंची आवाज़ में टेक लगाकर गाने लग पड़ा था, ''बुथ क्या जान छुय...वोन्द छुय किद्बा...असलुच कथ जांह सनीनो...परान लेखान वुठ ओंगजि ग़ज़ी... अंदरिम दुयी चज़ी नो'' (रूप क्या सुंदर...दिल पत्थर का...पढ़ने-लिखने में दी उम्र गवां...सत्य कभी जाना ही नहीं...भीतर का द्वैत वहीं का वहीं)
पसीने से तर-ब-तर सुरेंद्रनाथ रिहाड़ी कॉलोनी की खाली मेटाडोर में जा चढ़ा था. गर्मी बर्दाश्त के बाहर. मेटाडोर का एक आधा सा खुला शीशा उसने हवा के लिए पूरा खोल दिया, पायजामे के पहुंचे ऊपर सरका कर पिंडलियां, घुटने नंगे किए, दोनों बाजुओं को फैलाकर चौड़ा होकर आराम से सीट पर पसर गया.
थोड़ी ही देर में मेटाडोर सवारियों से भर गई, सुरेंद्रनाथ वैसे ही चौड़ा होकर बैठा था कि उसी जैसा एक अक्खड़ डोगरा मेटाडोर में चढ़ आया. उसने सुरेंद्रनाथ को इशारे से एक तरफ़ सिकुडने के लिए कहा ताकि उसके बैठने के लिए भी स्थान निकल सके. लेकिन गरमी से बौखलाए सुरेंद्रनाथ ने अपनी भौंहों को ऊपर की तरफ़ झटका देते हुए तर्क पेश किया था, ''जगह किधर है और सवारी बिठाने के लिए?''
डोगरे को उसकी बात सुनकर गुस्सा आ गया था, बोला, ''आप लोग अपने आपको समझते क्या हो? अपनी मारूति में नहीं बैठे हो आप, मैटाडोर है. हम जम्मू के लोग एडजस्ट करने वाले लोग हैं. आप एक तो कश्मीर से भागकर हमारे सिर पर आ चढ़े हो, अब ऊपर से एडजस्ट भी नहीं करते!'' पंडित सुरेंद्रनाथ कौल को अचानक एहसास हुआ कि उसने बड़ा ग़लत पंगा ले लिया है. झट से एक तरफ़ सिमटता हुआ बोला, ''अरे आप तो ऐसे ही नाराज़ हो गए...आओ जी राजा जी! बैठो आप...ऐसी भी क्या बात है...आप ही की गाड़ी है.''
डोगरा सीट में फंसते हुए बोला, ''गाड़ी की बात नहीं है पंडित जी, असूल की बातहै.''
''बिल्कुल जी, असूल तो होना ही
चाहिए.'' बनावटी सी हँसी सुरेंद्रनाथ ने अपने चेहरे पर उतार ली थी.
इतनी देर में कुछ और सवारियों के चढ़ आने से मेटाडोर खचाखच भर गई. एक और कश्मीरी बूढ़ा जिसे बैठने के लिए सीट नहीं मिली थी सवारियों के बीच पैरों में बैठ गया. लू बरसती गरमी से उसके शरीर से पसीना जैसे निचुड़ रहा था. सांस चढ़ी होने के बावजूद उसने जेब से सिगरेट की डब्बी और माचिस निकाली और एक सिगरेट सुलगा लिया. पहला ही भरपूर कश खींच कर जब उसने धुआं छोड़ा तो साथ की सीट पर बैठी औरतों ने चुन्नियों के सिरे से अपनी-अपनी नाक ढंक ली.
''जंगल में!'' वह बूढ़ा कश्मीरी यूं बोला था, जैसे अचानक मुंह में चली आई कड़वाहट को थूक रहा हो, ''हां, जंगल में रहता रहा हूं मैं...शहर होता तो आज रिफूजी बनकर जम्मू में क्यों आता?''
सिक्ख लड़के ने बूढ़े पंडित की मानसिक अवस्था को समझते हुए कहा, ''घबराओ नहीं पंडित जी, यह जंगल किसी को भी समाप्त नहीं कर सके. छ: सदी पहले भी तो कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के केवल ग्यारह परिवार ही बचे रह गए थे!''
''अब नहीं बचेंगे!'' बूढ़े ने पक्का होते हुए कहा था, ''तब की बात और थी. तब यह जंगल एक मुर्गे तक को जिबह होते हुए नहीं देख सकता था लेकिन अब क्लाशिनकोव और बंदूकें लेकर घूम रहा है!''
सुरेंद्रनाथ का जी कर रहा था कि वह भी कुछ बोलकर अपने मन की भड़ास निकाले, पर वह साथ बैठे डोगरे से इतना सहम गया था कि उसके मुंह से चूं तक न निकली.
रिहाड़ी कॉलोनी के बरगद के पास जब वह मेटाडोर से उतरा तो उसके पीछे वह बूढ़ा भी उतर आया. सुरेंद्रनाथ ने उसे अपने जैसा ही दुखी शरणार्थी जान नमस्कार करते हुए कहा था, ''बू छुस कोशर'' (मैं कश्मीरी हूं). ''नमस्कार नमस्कार!'' उसे अपना कश्मीरी भाई जानकर बूढ़े ने भी कश्मीरी में ही कुशलक्षेम पूछी थी, ''वारे? खोश पेयठ?'', फिर अचानक बूढ़े को अहसास हुआ कि ''खोश पेयठ'' पूछना तो व्यर्थ है, आज कश्मीरी पंडित कैसे खुश हो सकते हैं? पर कुशल क्षेम पूछने का आदिम संस्कार आदमी छोड़ भी कैसे सकता है?
''मैं सुरेंद्रनाथ कौल, जवाहर नगर, श्रीनगर से. आप?''
''छानपुरा कश्मीर.''
''यहां कहां ठहरे हैं?'
''नगरोटा कैंप में. इधर पास ही मेरे सांढ़ू ने मकान बनाया हुआ है. आप इधर किधर जा रहे हैं?'' बूढ़े ने पूछ लिया था.
मैं किराए पर रहने के लिए एक कमरा ढूंढ रहा हूँ. ''अच्छा...अच्छा...कमरा...''
चिलचिलाती धूप और हवा की तपिश झेलते हुए वे धीरे-धीरे बात करते हुए चल रहे थे. अचानक बूढ़ा चक्कर खा कर गिरने लगा तो सुरेंद्रनाथ ने उसे थाम लिया. गरमी के मारे बूढ़े का मुंह खुल गया था और आंखें बंद हो रही थीं.
बूढ़े को बेहोश होते गिरते देख कुछ राह चलते सज्जन भी रुक गए. हर कोई बूढ़े का अपने ज्ञान के अनुसार मुआयना कर रहा था, कि अचानक भीड़ में से आवाज़ उभरी, ''पंडितैं गी लू लगी गेई दीअै. इसी हस्पताल लेई जाओ (पंडित को लू लग गई है. इसे हस्पताल ले जाओ).''
एक और आवाज़ उभरी, जो सुरेंद्रनाथ से मुखातिब थी, ''पंडित जी, यह आपके बुजुर्ग हैं?''
रिश्तेदारी तो कोई नहीं थी पर सुरेंद्रनाथ ने सोचा उन दोनों के बीच कश्मीर की मिट्टी का रिश्ता तो है ही, उनके बीच घर उजड़ने की सांझ तो है ही और सबसे बड़ी बात, दोनों की आज एक ही सांझी पहचान थी, 'कश्मीरी शरणार्थी', उत्तार में उसने अपना सर हां में हिला दिया, ''हां, यह मेरा बुजुर्ग है.''
प्रधानमंत्राी ने लोगों को मानसिक रूप से युध्द के लिए तैयार रहने के लिए कह दिया है. तरह तरह की अटकलों का बाज़ार गर्म है. बड़ी ताक़तें हिंद पाक युध्द के समर्थन में नहीं हैं. युध्द को किसी भी क़ीमत पर टालने की विश्वस्तरीय कार्यवाहियां शुरू हो चुकी हैं. शरणार्थियों के आ जाने से ज़मीनों के जो भाव अचानक बढ़ गए थे, युध्द की संभावना ने उन्हें उसी स्तर पर रोक लिया था.
सुरेंद्रनाथ कौल का अधिकांश समय आजकल तवी पुल के पास ही बने इंडिया काफ़ी हाउस में व्यतीत होता था. जम्मू में 'कॉफी हाउस कल्चर' का अभी अधिक प्रचलन नहीं था, लेकिन कश्मीरी पंडितों के आ जाने से वहां आजकल चहल-पहल थी. सारा दिन कश्मीरी यहीं बैठे-बैठे काफ़ी पीते, सिगरेट फूंकते, सियासत की बातें करते, कश्मीर की बातें करते, शरणार्थी कैंपों की बातें करते, डोगरों के बदलते व्यवहार की बातें करते, और बातें करते-करते नहीं थकते!
उसकी मेज़ पर जुड़े कश्मीरियों में से एक प्रोफ़ेसर कह रहा था, 'कश्मीर भारत के लिए ऐसे लाड़ले बेटे की तरह है, जिसने अपने जिद्दी स्वभाव के चलते हमेशा अधिक रियायतें प्राप्त की हैं.'
सुरेंद्रनाथ ने उसकी बात को आगे बढ़ाया, ''और अगर ईश्वर न करे यही कश्मीर कभी भारत और पाकिस्तान से अलग हुआ तो उस मनहूस बेटी की तरह होगा, जिसकी मांग भारत और पाकिस्तान के लाखों सिपाहियों के ख़ून से भरी जाएगी.''
''अरे कुछ नहीं होगा.'' एक और कश्मीरी बोला था, ''आज के दौर में युध्द के बारे में सोचना कोई खाला जी का बाड़ा नहीं. भारत एशिया की एक बड़ी ताक़त है. युध्द की स्थिति में अंतरराष्ट्रीय शक्तियां भारत की शक्ति को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती. यह सब जिहादी जल्दी ही एक मेज़ पर बातचीत के लिए आ बैठेंगे. गवर्नर ने इनकी कमर तोड़ दी है.''
''कश्मीर में यह सब तो होना ही था,'' सुरेंद्रनाथ ने स्पष्ट किया, ''चुनाव में हेराफेरी करके मुस्लिम युनाइटिड फ्रंट को हराना, फ्रंट के लोगों को झूठे पुलिस केस बनाकर पकड़ना, उन्हें टार्चर करना...यह सब कितनी देर सहते वे? वे यही मुसलमान हैं जो कभी कहते थे, ''अल करी, वांगन करी, बॅब करी लो लो (हमारा घिया बनाएगा या बैंगन बनाएगा जो भी करेगा शेख अब्दुल्ला करेगा...) आज उसी शेर की क़ब्र खोदने के लिए तैयार हो गए हैं. जब लोगों को इन्साफ़ मिलना बंद हो जाए तो उनका लोकतांत्रिाक प्रणाली पर से विश्वास तो उठना ही था.''
प्रोफ़ेसर महोदय को सुरेंद्रनाथ की बात हज़म नहीं हुई, ''आप पाकिस्तान में चलने वाले ट्रेनिंग कैंपों को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं. यह लड़ाई सत्ताासी में एक इलैक्शन हारने से ही शुरू नहीं हो गई है. इसके लिए पाकिस्तान का रिलिजियस एक्सपलॉयटेशन का कार्ड बड़ी देर से काम कर रहा है. यही नहीं पाकिस्तानी हुक्मरानों को सत्ताा में बने रहने के लिए हमेशा से ही भारत के साथ जुड़े किसी अहम मुद्दे की ज़रूरत रही है, किसी ऐसे हउवे की जिसके नाम पर लोगों को गुमराह करके राजपाट चलाया जा सके. अब जब अफगानिस्तान से रूसी सेनाएं हट गई हैं, तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर जैसा हऊआ तो था ही. सो उसने कश्मीर कार्ड खेल दिया. एमयूएफ को बूथ कैपचरिंग करके हराना तो..."
प्रोफ़ेसर साहब ने लंबा क़िस्सा छेड़ दिया था. सुरेंद्रनाथ सोच रहा था, जो हो गया, जिस तरह भी हो गया, क्या यह सब इतना महत्तवपूर्ण है कि हम अब आगे 'क्या होने वाला है' या 'क्या होगा' की चिंता के स्थन पर अपने अतीत में ही डूबे रहें? युध्द का ख़तरा देश पर मंडरा रहा है...और यदि कहीं ईश्वर न करे युध्द छिड़ ही गया तो उसका कैंप तो कान्हा चक सीमा के पास ही है...क्या उसके परिवार को एक बार फिर उजड़ना पड़ेगा? क्या शरणार्थी कैंप का एक अदद तम्बू भी उनकी क़िस्मत में नहीं है? वह सोच रहा था और बस सोच रहा था!
बरसात शुरू हो चुकी थी. शरणार्थी कैंप के तम्बुओं के आसपास की मिट्टी पोली होने के कारण दलदल सा बन गया था. रात दिन में रात के लगभग दस बज चुके थे जब हकूमत सिंह ने अपना ट्रक मिश्रीवाला शरणार्थी कैंप के पास ही नहर के किनारे ला खड़ा किया था. सब्जियों का थैला उठाकर वह कीचड़ से बचता हुआ सुरेंद्रनाथ के तंबू की तरफ़ बढ़ा. काफ़ी एहतियात बर्तने के बावजूद अंधेरे के कारण उसका पांव एक फिसलवीं जगह पर पड़ गया और वह 'छड़ाप' से गिर पड़ा था. गिरने की आवाज़ सुनकर सुरेंद्रनाथ अपने लड़कों सहित तंबू से बाहर निकल आया, पर उनके आने तक एक और कश्मीरी लड़के ने आगे बढ़कर हकूमत सिंह को उठा लिया था. प्राणनाथ ने आगे बढ़कर 'सत श्री अकाल' कहते हुए सब्जियों वाला थैला पकड़ लिया. सुरेंद्रनाथ भीतर से टार्च लेकर बाहर आया और उसे तंबू के भीतर ले गया.
''ज्यादा तो नहीं लगी, भाई साहब?'' सुरेंद्रनाथ की पत्नी ने पूछा?
''नहीं कुछ ख़ास नहीं.''
सुरेंद्रनाथ आधी सी बाल्टी पानी ले आया. गड़वी से पानी डालकर हकूमत सिंह के हाथ पैर धुलवाए. कपड़ों से लगी मिट्टी साफ़ करके जब वह लोहे के फोल्डिंग बेड पर बैठा तो सुरेंद्रनाथ का पांच साल का पोता उसकी गोद में आ बैठा.
प्राणनाथ की पत्नी ने थैले से सब्जी निकाल कर टोकरी में डाली तो हाकसाग और नदडू देखकर सुरेंद्रनाथ की पत्नी की आंखें भर आईं.
''और सुनाओ बाल-बच्चे...परिवार का क्या हाल है?'' सुरेंद्रनाथ ने पूछा, ''सुना है त्रााल में दो तीन सिक्खों को मार दिया है मुसलमानों ने?''
''हां, त्रााल में सिक्खों ने कड़ा फ़ैसला लिया है. उन्होंने किसी भी स्थिति में घर छोड़ने से इन्कार कर दिया है. उन्होंने मानसिक रूप से स्वयं को लड़ने मरने के लिए तैयार कर लिया है. हमने भी बारामूला में सिक्खों की मौत के विरोध में जलूस निकाला था...पर सच्ची बात तो यह है कौल कि मैं अपना परिवार वहां से निकाल लाया हूं. नानक नगर की तरफ़ कमरा ले लिया है; एक बुजुर्ग अभी बारामूला में ही है...लेकिन, जिस हिसाब से सिक्खों के क़त्ल हो रहे हैं, कितनी देर तक वे लोग रह पाएंगे वहां? कश्मीरी पंडित तो निकल ही आए हैं अब यदि कश्मीरी सिक्ख भी निकल आए; तब कश्मीर और पाकिस्तान में क्या फ़र्क़ बचेगा? वहां तो पाकिस्तान बना बनाया है.''
''पता नहीं क्या बनेगा हम लोगों का?'' सुरेंद्रनाथ गहरे सोच में डूब गया, ''सात महीने हो गए हैं श्रीनगर से निकले हुए...फिरन में तिरंगा सेंकते हुए जवाहर टनल पार किया था...आज चिनार की छाया के लिए तरस रहे हैं. लोग कहते हैं युध्द का संकट टल गया है, लेकिन क्या तुम यह बात कह सकते हो हकूमत सिंह?'' सुरेंद्रनाथ कौल ने उसकी आंखों में गहरे झांका. हकूमत सिंह की आंखों में एक सहम थी, एक अनिश्चय का भाव और था. सुरेंद्रनाथ कौल का प्रश्न, ''क्या युध्द सचमुच टल गया है?''
वे दोनों एक-दूसरे की आंखों में किसी रोशनी की किरण की तलाश कर रहे थे और तंबू के एक कोने में बैठा सुरेंद्रनाथ का छोटा-बेटा विजय नाथ अपनी डायरी में यह कविता नोट कर रहा था...
युध्द!
टल गया होगा आपके लिए
आप, जो सीमाओं पर
दो देशों की फ़ौजी लड़ाई को
कहते हो युध्द!
क्या समझोगे-क्या होता है युध्द?
पूछो हमसे
जो उजड़ते और भोगते आए हैं युध्द
एक मुद्दत से....
हम जिनका
सैंतालिस मुज़फराबाद में उजड़ा
पैंसठ पूंछ में
इकत्तार छंब में
और अब नब्बे...कश्मीर में!
हम-जिन्हें जीते जी
स्वर्गवासी होने का
सम्मान प्राप्त है;
भारत के वह अदृश्य सैनिक हैं
युध्द केवल युध्द है नियति जिनकी!
युध्द!
टल गया होगा आपके लिए
आप-जो सीमाओं पर
दो देशों की लड़ाई को
युध्द कहते हो
आप क्या समझोगे
क्या होता है युध्द?रचनाकार - पंजाबी के चर्चित कथाकार बलजीत सिंह रैना के 'इक जमा दो मनफ़ी', 'घर परत रेहा आदमी', 'मिट्ठी मिट्ठी चौम' 'अजीब आदमी', 'जायज-नाजायज', 'कथा अजब देश की' आदि कहानी-संग्रह के अलावा तीन कविता-संग्रह, दो उपन्यास और एक नाटक प्रकाशित हैं.
पढा और पढकर रोंगटे खडे हो गये।
जवाब देंहटाएंकाश्मीर के जमीनी हालात को बयान करती रचना।
बहुत बहुत धन्यवाद, उपलब्ध कराने के लिये।