- संगीता गुंदेचा हर एक वस्तु अन्तहीन है. जो रुकता है टूट गया होता है – एन्टोनिओ पोर्कियो जब मैं छोटा था और मालवा के एक...
- संगीता गुंदेचा
हर एक वस्तु अन्तहीन है. जो रुकता है टूट गया होता है – एन्टोनिओ पोर्कियो
जब मैं छोटा था और मालवा के एक छोटे से कस्बे में रहता था, यह बात तब की है. पता नहीं क्यूं उस समय को याद करने पर मुझे वहाँ सुबह-सुबह गोबर से घर लीपती हुई अपनी मां दिखाई देती है. घोड़े की लीद और गाय के गोबर से बने लीपन को लीपती हुई. अपने सधे हुए हाथों से उखड़ी हुई जमीन पर लीपन के अर्द्धचंद्राकार खींचती हुई. उस दृश्य के ठण्डे उजलेपन में मेरी आँखें न जाने क्यूं हर बार ठहर सी जाती है. तब मेरी उम्र कोई आठ बरस की रही होगी. मैं इकलौता था. मां चाहती थीं कि उन्हें लड़की हो लेकिन जब मैं पैदा हुआ वे दुःखी नहीं हुईं, उन्होंने मुझे लड़कियों की तरह कपड़े पहनाना शुरू कर दिया. वे बहुत समय तक मेरी लम्बी चोटी बांधती रहीं. उन्होंने मेरे कानों में बालियाँ भी डाल रखी थीं. दो चमकीली सुनहरी बालियाँ. वे मुझे पुकारती भी कुछ ऐसे ही नाम से थीं, जो अमूर्त था. चीनू नाम का कोई अर्थ नहीं, फिर ये नाम किसका है पुकारने वाला अन्त तक सिर्फ अनुमान लगा सकता है.
मां में मुझे हमेशा से ही दूसरों के प्रति करूणा और सम्मान दिखता था. सिर्फ भिखारियों, मनुष्यों, जानवरों के लिए नहीं, प्रकृति मात्र के प्रति. वह पेड़-पौधों का भी बहुत सम्मान करती थी. जब कभी वह अपनी सखियों के साथ मन्दिर जाती और वे रास्ते में पड़ने वाली लताओं या वृक्षों से फूल तोड़ने लगतीं, मां उनसे कहती, इन्हें मत तोड़ो, इनमें जान है. मां की सखियाँ उन पर हँसने लगतीं. हमारे घर के आँगन में बीचों-बीच एक आंवले का पेड़ था. मुझे अच्छी तरह याद है कि मां मुरब्बा डालने के लिए अपने आप टूटकर गिरे या पक्षियों के गिराए फलों का इन्तज़ार करती थी. चिड़ियों या तोतों की चोंच लगे फलों में एक खास बात यह होती है कि वे जूठे होने पर भी जूठे लगते नहीं हैं. वे पक्षी मुझे अब ऐसे जान पड़ते हैं जैसे वे मां के लिए शबरी का काम किया करते थे.
बहरहाल, नौ बरस तक का होते-होते मुझे हरेक चीज़ में जान महसूस होने लगी और खासकर उन चीज़ों में जिन्हें बेकार समझकर हम कूड़ेघर में फेंक आते हैं - मसलन मूंगफली के छिलके, टूटे पेन, पुरानी कापियाँ, कांच की चटकी हुई शीशियाँ, सब्जियाँ और फलों के छिलकों और ऐसी ही कई चीज़ें जो मां मुझे कूड़े पर फेंक आने को कहती थीं. धीरे धीरे मुझे लगने लगा कि मां इन चीज़ों को बेवजह ही कूड़ेघर में फिंकवा देती हैं. इनमें जान है. इन्हें जब मैं कूड़ेघर में फेंक आता हूँ, वे वहाँ पड़ी-पड़ी सुबकती रहती होंगी फिर अपने प्राण छोड़ देती होंगी. मेरी न जाने क्यूं मां से यह कहने कि हिम्मत ही नहीं होती थी कि मां हम कचरा बाहर कूड़े पर क्यूं फेंक आते हैं, उसे सहेजकर घर में ही क्यूं नहीं रख लेते. कचरा जब मरता होगा, उसे कितनी तकलीफ होती होगी. कारण शायद यह था कि कचरा फेंकना मुझे सभी घरों की आदत में शुमार दिखता था. मैंने मां की तरफ से उत्तर भी खुद ही खोज लिया था कि वह कहेगी, ‘सब कचरा फेंकते हैं इसलिए हम भी फेंक देते हैं.’ मां मुझे प्रतिदिन जब जबरन टट्टी करने के लिए भेजती, मैं बहाने बनाता, नहीं जाता और जाता तो बहुत देर से लौटता. यह सोचकर बैठा रहता कि टट्टी जब तक मेरे पेट में है, वह जिन्दा रहेगी. जैसे ही वह बाहर निकलकर गिरेगी और उस पर पानी गिरेगा वह मरने लगेगी. फिर बिचारी मेहतरानी उसकी लाश उठाकर ले जाएगी.
दीवाली आई. मां ने घर की सफाई करना शुरू की. घर के दोनों कमरे, पीछे का बरामदा और टट्टी-पेशाबघर चूने से पोते गए. वे चमचमाने लगे. मां ने पूरा घर लीपा और चौखट पर गेरू और चूने से मांडने बनाए. फिर उसने पुराने और बेकाम के सामान की छंटाई शुरू की जिसे वह फेंकने वाली थी. टूटी बाल्टियाँ और मग, दवाई और क्रीम खत्म हो जाने के बाद बची डिब्बियाँ, पुराने टाट, टुकड़ा टुकड़ा बिजली के तार एक-एक कर मेरी आँखों के सामने से गुजरते जा रहे थे. जब कोई चीज़ मां फेंकने के ढेर में रख देती, लेकिन कभी कुछ सोचते हुए उसे उठाकर अलग कर लेती, मेरी खुशी का ठिकाना न रहता. मैं मां को सोच-सोचकर उन चीज़ों के उपयोग के बारे में बताने लगा जिनके बारे में वह विचार कर रही होती. दरार पड़े हुए कप-बस्सियों के बारे में मैंने मां से कहा कि हम उनमें भिखारियों को कुछ खाने-पीने के लिए दे सकते हैं. वह तुरन्त मान गई. टूटे हुए मटके को गमले की तरह इस्तेमाल करने की सलाह भी मैंने मां को दी. कई चीज़ों को बचाने के बावजूद फेंकने वाली चीज़ों का ढेर इतना बड़ा गो गया था कि उसे देखकर मेरी आँखों में आँसू आ गए.
मैं घर से बाहर निकल आया. फिर घूमकर घर के पीछे की गली में बने कूड़ेघर तक गया और कुछ सोचते-सोचते पीछे के दरवाजे से जैसे ही अन्दर आया, बरामदे के कोने में रखा लकड़ी का एक बड़ा-सा बक्सा मुझे दिखाई दिया. मेरा दिमाग चल पड़ा. मैंने मां से कहा कि सारा कचरा मैं फेंक कर आऊँगा. मां के थककर सो जाने के बाद मैंने धीरे-धीरे सारा सामान लकड़ी के बक्से में करीने से जमा दिया और अच्छी तरह से बक्से का दरवाजा बन्द कर दिया. यह करते हुए मुझे जो खुशी हासिल हुई थी, वह मैंने फिर और किसी काम में कभी महसूस नहीं की. यह करते हुए मैं मन ही मन एक सयाना आदमी बन गया था जिसने कितनी ही जानें बचाईँ थी. उस दिन शाम का खाना नहीं बना था और हमने फलों को खाकर काम चलाया था. जाहिर है केले और सेवफल के छिलके फेंकने मैं ही गया था. छिलके मेरे हाथों में बहुत देर तक वैसे ही पड़े रहे थे जब तक कि मां ने दुबारा आवाज नहीं दे दी.
पिछले दो दिनों से मैं सफाई के बहाने से स्कूल नहीं गया था इसलिए अगले दिन सुबह बिना किसी खौफ के मैं स्कूल चला गया. मां दिनभर में जमा घर का कचरा एक बाल्टी में रख देती थी और शाम को मुझे फेंकने के लिए भेजती थी. जब मैं स्कूल से लौटा पहले मैंने करीब आधी भरी हुई बाल्टी देखी फिर मैं बरामदे तक गया, कोने में नज़र डाली और लौट आया. दूसरे दिन भी बस्ता कंधे से उतारने के बाद मैंने बाल्टी में झांका वहाँ भिण्डी, बैगन, प्याज के छिलके और धूल भरे कुछ कागज़ जमा थे. फिर मैं धीरे-धीरे बरामदे तक गया, लकड़ी के बक्से की ओर अपनी नजर डाली, कोना खाली था. मैंने घूमकर पूरे बरामदे में देखा, बक्सा कहीं नहीं था. मैं दरवाजा खोलकर कूड़ेघर की और भागा. कूड़ेघर में मेरा बक्सा लुढ़का हुआ पड़ा था. उसका दरवाज़ा खुला था, जिसमें से उसके भीतर का सामान बड़ी बेतरतीबी से बाहर निकल आया था. मैं कूड़ेघर के भीतर कूद पड़ा. मैंने लुढ़के हुए लकड़ी के बक्से को सीधा करने की भरसक कोशिश की, लेकिन वह मुझसे हिला तक नहीं. मैं अपने दोनों हाथों में बक्से को भरकर और अपने गाल उससे टिकाए हुए बैठ गया. हवा का एक तेज़ झोंका आया और मेरे नथुनों में असहनीय दुर्गन्ध भरती चली गई. मैं कूड़ेघर से बाहर निकल आया. मैं समझ गया था कि लकड़ी का बक्सा और उसके भीतर की चीज़ें अभी-अभी दम तोड़ चुकी हैं.
दो-तीन दिन बाद मैं पहले की तरह ही बाल्टी उठाकर कूड़ेघर पर कचरा फेंकने के लिए जाने लगा. मुझे नहीं पता क्या, लेकिन बक्से की घटना के बाद से मेरे भीतर कुछ टूटा जरूर था.
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