—पूर्णिमा वर्मन मौसम ने दस्तक दी है। पेड़ों ने चोले बदल दिए हैं¸ आकाश गुनगुनाने लगा है और पंछियों ने फुला लिए हैं अपने डैने इधर उधर डालियों प...
—पूर्णिमा वर्मन
मौसम ने दस्तक दी है। पेड़ों ने चोले बदल दिए हैं¸ आकाश गुनगुनाने लगा है और पंछियों ने फुला लिए हैं अपने डैने इधर उधर डालियों पर इतराने के लिए। खुलने लगे हैं जेठ के नये दिन¸ शुरू हो गए हैं धूप के आचमन¸ गुलमोहर दर गुलमोहर – धूप के छींटे – लाल¸ नारंगी और पीले। धूप है कि बरस रही हैं¸ आंगन है कि तप रहा है और गुलमोहर है कि खिल रहा है — खिलखिलाकर।
ऐसे गुलमोहर को देख कर जिया भी जा सकता है और मरा भी जा सकता है। तभी तो दुष्यंत कुमार ने कहा था—"जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के लिएमरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए"यानि चाहे अपना घर हो या दूसरे की गली¸ दोनों जगह गुलमोहर के लिए जान हाज़िर है। बाद में यह शेर बहुत जगह गुलमोहर के वर्णन के समय याद किया गया। कमलेश्वर ने भी 'कितने पाकिस्तान' में खिड़की से झांकते इस पेड़ के विषय में लिखते हुए दुष्यंत कुमार की उपरोक्त पंक्तियों को दोहराया है। आइए उस अंश को यहां एक बार फिर दोहरा लें—
"बहुत भारी मन से अदीब ने कौशल्या को देखा। फिर कांच की दीवार के पार उसकी कोठरी को। तभी कौशल्या को सिस्टर ने पुकारा। वह जाने लगी¸ तो कांच के फ्रेम में आकर गुलमोहर की सुर्ख फूलों वाली शाख फिर झांकने लगी . . .और उसके बिस्तर के आस–पास दुष्यंत की लाइनें तैरने लगीं–जिएं तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तलेमरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिएशाख ने दुबारा झांक कर देखा। शायद बाहर फिर हवा चली थी . . ".
कृष्णा सोबती ने दिल्ली की यादों में नीम¸ जामुन और इमली के पेड़ों के साथ इस पेड़ को शामिल करते हुए कहती है— "करीने से बने बंगलों की कतारें और उनकी दीवारों से झांकती बुगनबेलिया की नाजुक जानदार बेलों से लटकते गुच्छे गुलाबी–लाल–सफ़ेद–पीले हवाओं से अठखेलियां करते झूल–झूल झूम–झूम उठते और इस सबको सगेपन से निहारते ऊंचे नीम¸ जामुन¸ इमली और गुलमोहर।"
राजी सेठ अपनी एक कविता में कहती हैं — 'तुम्हारी वर्षगांठ ऐसे बीते जैसे लदा हुआ गुलमोहर'¸ लगता है वे इस समय गुलमोहर को खुशियों से भरा–भरा देख रही हैं। सोहिनी दयाल रास्तों पर लगे गुलमोहर को मुग्ध हो कर देखती हैं—'वह गुलमोहर का पेड़ जनपथ को कितना ललित बनाता है।' अभिरंजन भी कहते हैं 'हंसो ऐसे जैसे हवा से हिलकर हंसते हैं गुलमोहर के फूल' और प्रसून जोशी कहते हैं — 'तूने हंस के मुझसे मुस्कुराने को कहा मेरे मन के मौसम गुलमोहर से हो गए।' यानी कुल मिला कर गुलमोहर प्रतीक है खुशियों का।
पर खुशी हो या गम गुलमोहर का खिलना बंद नहीं होता। सन्नाटे के क्षणों में भी गुलमोहर चुपचाप खिलते हुए खिलखिलाता है —अपने में तन्मय। मकानों की कतार के बाद सपाट चौड़ी सड़क है। लाल फूलों की सुकोमल छतरी से सजे हुए हैं गुलमोहर¸ कतार दर कतार हरी मखमली घास पर उसकी सुकोमल पंखुड़ियां रंगोली सी सजा रही हैं। कोमल पंखुरियां झर रही हैं . . .रुक–रुक कर अभिनंदन की बारिश करती हुई . . .टप . . . टप . . . टप . . .। नीचे दूब पर बुनी हुई है धूप छांह की चटाई। फर्न की तरह छोटी–छोटी पत्तियों की बुनावट वाले हिलते हुए पत्तों के साथ ताल से ताल मिला¸ हर पल चटाई भी बदल देती है अपना रूप। हवा का एक झोंका आता है सर . . .र . . .र . . . छतरी सिहरती है और चटाई बदल देती है अपनी छवि। जहां छांह थी वहां धूप और जहां धूप थी वहां छांह। सड़क है कि सुनसान पड़ी है¸ दूब है कि धूप छांह से खेल रही है और धूल है कि हवा के झोंके से उड़ी जा रही है —
शायद ऐसा ही कोई दृश्य रहा होगा जब दिनेश शुक्ल ने लिखा—हंस कर बोली अलविदा¸ पगडंडी की धूलसन्नाटा बुनते रहे¸ गुलमोहर के फूल।गर्मी की उमस भरी दोपहर में जब सड़के सुनसान हो जाती हैं उस समय उड़ती हुई धूल से विदा लेते हुए गुलमोहर के फूलों का सन्नाटा बुनना बड़ा ही कलात्मक बिंब है।
इसी तरह वे एक और दोहे में कहते हैं—"होंठों–होंठों चुप्पियां आंखों–आंखों बातगुलमोहर के ख्वाब में सड़क हंसी दिन–रात"सड़क भी चुप गुलमोहर भी चुप फिर भी वे आंखों से बात कर रहे हैं। ऐसे चुप गुलमोहर के ख्वाब में सड़क का हंसना जैसे मौन में अपरिमित संतोष की लहर बहुत से सहृदय पाठकों के मन को छू लेगी।गुलमोहर के लिए लोगों की दीवानगी और लोगों के लिए गुलमोहर की दीवानगी के किस्से कम नहीं। कहते हैं पेड़ों की संवेदना बहुत घनी होती है। गुलमोहर भी इसका अपवाद नहीं। धर्मवीर भारती को जानने वाले बताते हैं कि मुंबई में उनके घर के सामने एक गुलमोहर का पेड़ हुआ करता था जो उनके देहावसान के बाद धीरे–धीरे सूख गया। वृक्ष और मनुष्य के बीच बहती इस संवेदनात्मक सघनता को शांति देवबाला जी की कहानी गुलमोहर में गहराई से महसूस किया जा सकता है।
कथाकार उदयप्रकाश का भी कहना है कि दिल्ली का वर्तमान घर उन्होंने उसके सामने उगे गुलमोहर के सौंदर्य से प्रभावित हो कर ख़रीदा था। हांलांकि बहुत दिनों तक वह गुलमोहर साथ न रह सका पर यह गुलमोहर किसी संवेदना का नहीं षड्यंत्र का शिकार हो गया।
संवेदना और षड्यंत्र के बीच यह जो दुनिया बसी है¸ जिस जिजीविषा से यह आगे चलती जाती है उसका सटीक प्रतीक है गुलमोहर। गर्मी की तंग सांसों में पूरी श्रद्धा और आत्मविश्वास के साथ खिलते हुए गुलमोहर को देखकर कोई भी व्यक्ति प्रेरणा का विस्तृत निर्झर पा सकता है।
गुलमोहर पेड़ तो है ही¸ गुलमोहर नाम के घर¸ होटल¸ रेस्त्रां¸ गली और मुहल्ले भी कम नहीं। गुलमोहर रोड¸ गुलमोहर एनक्लेव¸ गुलमोहर एवेन्यू¸ गुलमोहर हॉल और गुलमोहर अपार्टमेंट भी बहुत से शहरों में मिल जाएंगे। जिसने भरतपुर की सैर की है और पक्षी विहार देखा है वह 'रिजौर्ट बाघ' के मुख्य रेस्त्रां 'गुलमोहर' को भूला नहीं होगा। बंगलोर नगर अपने बगीचों के लिए प्रसिद्ध है पर अगर आप बंगलोर जाएं और मौसम गुलमोहर के खिलने का हो तो ताज वेस्ट एंड के गुलमोहर स्यूट्स में ठहरना न भूलें। गुलमोहर से घिरे इस गांव की शोभा आपका मन मोह लेगी। अगर पैसे बचाने हों तो 'गुलमोहर ब्रेड एंड ब्रेकफास्ट' नाम का एक सुंदर–सा लॉज भी है पर गुलमोहर प्रेमियों के लिए यह एक धोखे का सौदा हो सकता है क्यों कि वहां गुलमोहर की बजाय अमलतास का एक सुंदर पेड़ है।
मंजुल भगत के एक कहानी संग्रह का शीर्षक ही है गुलमोहर के गुच्छे। आबिद सुरती के उर्दू उपन्यास 'गुलमोहर के आंसू' को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिल चुका है। गोविंद भाई पटेल के गुजराती उपन्यास 'खिलियो गुलमोहर' को भी बहुत से लोगों ने पढ़ा होगा। 1998 में रितु कुमार ने लाल और पीले रंगों की विभिन्न छविओं में शिफॉन पर बने डिज़ायनर कपड़ों की प्रस्तुति की थी¸ इसका नाम था— गुलमोहर कलेक्शन। जस्सी के फैशन उद्योग 'गुलमोहर हाउस' को अभी आप भूले नहीं होंगे। देवदास का वह दृश्य भी आपको याद होगा जब देवदास पारो के घर के सामने लाल फूलों वाले वृक्ष के नीचे बने चबूतरे पर अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है। भूपेंद्र और मिताली सिंह के गाए गीत और ग़ज़लों के एक सीडी का नाम भी गुलमोहर है। कुल मिला कर यह कि गुलमोहर तरह–तरह से साहित्य और कला की दुनिया के लोगों को रिझाता रहा है।
गुलमोहर शृंगार का भी प्रतीक है। किसी घर की चारदीवारी से सट कर खड़ा है गुलमोहर। सघन दूब की गोद में उगी सफ़ेद बोगनविला उससे लिपटी है गलबहियां डाले। हवा के तेज़ झोंकों में झूम रहे हैं दोनों। बोगनविला के तन से उड़ रहे हैं हल्के–हल्के काग़ज़ जैसे नन्हें फूल¸ छूट रही हैं सफ़ेद–लाल–गुलाबी फुलझरियां¸ झूम रहे हैं गुच्छे और गुलमोहर की फलियों के झुनझुने बज रहे हैं— धीमे–धीमे। ऐसी दोपहरी किसका मन नहीं मोह लेगी. शाम को जब दिन और रात मिलते हैं तब गुलमोहर की लाली क्षितिज पर बिखर कर धरती और आकाश को मिला देती है। रात में जब चांद आता है तो गुलमोहर के साथ मिल कर शरारतें करना नहीं भूलता¸ गुलमोहर का साथी बन जाता है। तभी तो तरंग यादव लिखते हैं—'गुलमोहर की शाख हटा कर तूने किसको झांका चांद'।
सुबह से शाम तक हर ऋतु हर साल जो दुनिया के दिलवालों के दिल पर छाया रहता है वह है गुलमोहर। मौसम मादक हो¸ थोड़ा सा वक्त हो¸ पेट में दाना हो तो गुलमोहर दर गुलमोहर प्रकृति में चैन ही चैन बिखरा नज़र आता है इसीलिए तो कहा है कि—सड़कें जितनी जल रहीं नभ जितना बेचैन¸ गुलमोहर की छांह में मन को उतना चैन।
मूल आलेख अभिव्यक्ति से साभार. रचनाकार पूर्णिमा वर्मन इंटरनेट की प्रतिष्ठित हिन्दी पत्रिका अभिव्यक्ति की संपादक हैं.
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