- ब्रजेश कुमार झा बात कुछ ऐसी है कि पचहत्तर साल के सफर में फ़िल्मी गानों ने अपना अंदाज़े-बयां कई बार बदला। यह अब भी जारी है। यहां एक साथ सम्...
- ब्रजेश कुमार झा
बात कुछ ऐसी है कि पचहत्तर साल के सफर में फ़िल्मी गानों ने अपना अंदाज़े-बयां कई बार बदला। यह अब भी जारी है। यहां एक साथ सम्पूर्ण चर्चा तो सम्भव नहीं किन्तु, एक धार में तो गोता लगा ही सकते हैं।
क्या है न कि गीत व खान- पान से हमारी संस्कृति का खूब पता चलता है। हमारी रुचि और आदतें यहीं से बनती और संवरती हैं।
खैर! हरी-मिर्ची और चोखा के साथ भात-दाल खाने वाले ठेठ पूरबिया को मराठवाड़ा घूमते वक्त कई-कई दिन बड़ा- पाव पर गुजारना पड़े तो उसकी हालत का अंदाजा लगाइये। फिर भी अपने गांव-कस्बे से दूर बहुत- दूर बड़ा-पाव खाते वक्त गीतकार अनजान के गीत "पिपरा के पतवा सरीखे मोर मनवा कि जियरा में उठत हिलोर " की धीमी आवाज कहीं दूर से कानों को छूती है तो तबीयत रूमानी हो जाती है। हमारे कदम अनायास उस ओर मुड़ जाते हैं। मन गुनगुना उठता है-" पुरबा के झोकवा में आयो रे संदेशवा की चलो आज देशवा की ओर।"
सिनामाई गीतों द्वारा जगाई इसी रूमानियत के बूते मराठवाड़ा में बीते अगले कुछ दिन रस- भरे हो जाते हैं। और तब, गुजरते वक्त के साथ बड़ा- पाव भी स्वाद के स्तर पर हमारी रुचि का हो जाता है। ठीक यही हाल पंजाब की गलियों में तफरीह करते वक्त ' मक्के की रोटी और सरसों दा शाग' खाते हुए या फिर बंगाल में लगातार भात-मांछ से पाला पड़ते किसी दूर देश के ठेठ आंचलिकता पसंद लोगों की होगी। किन्तु, इस बहुसांस्कृतिक देश में जहां भी जाएं वहां कुछ छन की अरुचि के बाद नई रुचियां पैदा ले लेंगी। सिनेमाई गीतों ने नई रुचि पैदा करने और विभिन्न लोक-संस्कृतियों से अवगत कराने का बड़ा काम किया है। इस बहुभाषीय देश में सबों की रुमानियत परवान चढ़ सके , इसका पूरा ख्याल सिनेमाई गीतकारों- संगीतकारों ने रखा।
जब हिन्दी सिनेमा आवाज की दुनिया में दाखिल हुआ तो लोकगीतों को पहली मर्तबा रागों में पिरोने का काम बड़े स्तर पर शुरू हुआ। होली त्योहार का गीत-
अरे … जा … रे… हट नटखट पलट के दुंगी आज तोहे गारी रे मुझे समझो न तुम भोली-भाली रे …।
यह राग पहाड़ी पर आधारित है। पारंपरिक त्योहारों- मौसमों पर ऐसे हजारों लोकगीत हैं। इसके अलावा दैनिक कामों में लगे लोगों के मनोभावों को अभिव्यक्त करने के लिए भी कई आंचलिक गीतों का सहारा लिया गया। चन्द और गीत मुलाहिजा फरमाईये-
उड़े जब- जब जुल्फें तेरी क्वारियों का दिल मचले दिल मेरिये… ॥
यकीनन , इस गीत से पंजाब की गलियों में खिलते रूमानियत के फूल की खुशबू आती है। हिन्दी सिनेमा में लोकगीतों की परंपरा को समृद्ध करने के लिए दूसरी भाषा के गीतों का इस्तेमाल बड़ी उत्सुकता से किया गया। कवि प्रदीप ने 'पियु पियु बोल ' गीत लिखा। यह गीत काफी लोकप्रिय हुआ। जबकि यह प्रसिद्ध गुजराती लोकगीत 'मारो छे मोर ' पर आधारित है। आज के दौर की बात करें तो 'चल छैयां-छैयां ' हमें याद आता है जो दक्षिण भारतीय लोकधुन पर आधारित है। इन सभी गीतों में इतनी मिठास है कि कई बार रिवाइन्ड कर के लोग इसे सुनते हैं। तीन-चार मिनिट के इन लोकगीतों में इतनी कसक और नोस्तालजिया है कि पूछिए मत! हमारे सामने सीधे गांव- कस्बों की तस्वीर उभर आती है। इसे बार-बार सुनने- देखने की तबीयत होती है।
बहरहाल , जब बंबई नगरी फिल्म उद्योग का केंद्र बनने लगी तो जगह- जगह के लोग फ़िल्मी दुनिया में किस्मत आजमाने आने लगे। जो आए वे अपने साथ गांव-कस्बों की माटी की महक और लोकधुनों को भी लाए। इसी दौरान लाहौर से गुलाम हैदर का बंबई आना हुआ। उनके साथ ठेठ पंजाबी ढोलक और ड्रम भी आए। उन्होंने चौथे दशक के प्रारम्भिक काल में ही पारंपरिक शैलीगत संगीत से मुक्ति का एलान किया। आगे नौशाद अली ने ढोलक को फ़िल्मी दुनिया में महत्वपूर्ण वाद्य के रूप में स्थापित कर दिया।इन्होंने ' रतन' फिल्म के माध्यम से उत्तर प्रदेश के लोकगीतों को प्रस्तुत किया। जोहराबाई अंबालावाली का गाया-
"*अंखिया** ** मिला** ** के**,**जिया ** ** भरमा** ** के**, ** चले** ** नहीं** ** जाना"** *
हर जुबान पर चढ़ा। आगे लोक-मिश्रण की वजह से कई सिनेमाई गीत लोकप्रिय हुए। पंजाबी लोकगीत * '**मैं** * *झूठ** **बोल्या** '* हो या फिर ठेठ पूरबिया * '**पान** **खाए** **सैंया** ** हमार** '**।** *
लोकधुनों पर आधारित सरल संगीतमय गीतों की सफलता में तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों ने भी अपनी तरफ से महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उसी जमाने से लोग गांव छोड़ कर शहरों में बसने लगे । वे बड़े शहरों-महानगरों और बन पड़ा तो विदेश की ओर पलायन करने लगे। लेकिन, गांव की संस्कृति से अलग होकर भी वहां की स्मृतियों को जेहन से मिटा नहीं पाए। वो धुनें कान पर पड़ी नहीं कि छोड़ आए उन गलियों में स्मृतियां पुन: लौट आती हैं। मन गाने लगता है-
बसंत आया नहीं कि सब कुछ पीला दिखने लगता है। एक अजीब खुमारी छा जाती है। पंजाब की गलियों में चारो तरफ आवाज गूंजने लगती है-
लोकगीत कई नयी अनुभूतियों के साथ खुद को बदलता जाता है। अब तो देहाती धुनों- बोलों में शहरी नवीनता मिलने लगी है। हाल में आई ' बंटी और बबली' फिल्म के गाने इसके गवाह हैं। यहां ठेठ देहाती शब्दों के बीच अंग्रेजी के शब्दों का भी इस्तेमाल हुआ है।
**………** पर्शनल** ** से** ** सवाल** ** करते** ** हैं*। '
यहां पर्सनल क्या है? और मोरे , कजरारे , कारे वगैरह। ये सभी तो अंचल की खुशबू देते हैं।
गीतों के साथ लोकवाद्य- यंत्र भी खूब प्रचलित हुए। ' बीन ' को ही देखें! कल्याणजी-आनंदजी ने इसका खूब इस्तेमाल किया। ' नागिन' फिल्म से चला दौर अब तक जारी है।
अब क्या है न कि एक मर्तबा ' बंबई नगरिया तू देख बबुवा' । देश के सुदूर हिस्सों से आए लोगों की जमात ने इस नगरी में भाषा के स्तर पर बिल्कुल भेलपुरीनुमा हिन्दी यानी, बंबइया हिन्दी को धनी बनाया। वैसे इसे तकनीकी दृष्टि से ' पिजिन' माना जाता है। अर्थात, यह बोली तो है पर किसी की मातृबोली नहीं है। और न ही इसका प्रयोग औपचारिक अवसरों पर किया जाता है। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि जिस जगह की अपनी कोई मातृभाषा नहीं है, उसने लोकगीतों-संगीतों की नवीन रचना के वास्ते उपयुक्त जगह और माहौल प्रदान किया।
संगीतकार नौशद का मानना है कि गीतकार डी एन मधोक लोकगीतों को हिन्दी सिनेमा में स्थान देने वाले शुरूआती लोगों में बड़े महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। सन् 1940 में बनी ' प्रेमनगर' के लिए उन्होंने लोकगीतों पर आधारित गाने लिखे जैसे-
किन्तु , नए शोध से यह बात सामने आई है कि सन् 1931-1933 से ही कई अनजान गीतकार लोकगीतों पर आधारित गाने फिल्मों के लिए लिख रहे थे। एक बानगी-
"साँची कहो मोसे बतियां , कहां रहे सारी रतियां।"(फरेबीजाल)1931 ।
तब से लेकर आज तक अनेक गीतकारों-संगीतकारों ने गायन की लोक- कला को फिल्मों में दिखाने- सुनाने में जबरदस्त रुचि दिखाई। याद कीजिए ' गंगा यमुना' का गीत – ' तोरा मन बड़ा पापी सांवरिया' । इसे खुद नौशाद ने ठुमरी शैली में प्रस्तुत किया था। इसमें आंचलिकता की खास खुशबू है।
आगे 'मोरा गोरा अंग लई ले ' (बंदिनी) , ' जिया ले गयो री मोरा सांवरिया' (अनपढ़) , 'तोरा मन दर्पण कहलाए '(काजल) जैसे गीतों में मोरा-तोरा की देशज महक अलग ही है।शब्दों के उच्चारण से भी आंचलिकता का आभास कराया गया। 'मिलन' का सदाबहार गीत ' सावन का महीना पवन करे सोर' यहां शोर की जगह सोर उच्चारण किया गया है। इससे लोक- ध्वनि स्वत: उत्पन्न हो जाती है।
हिन्दी सिनेमा में ऐसे हजारों गीत हैं जिसे लोकभाषा में गुन- बुन कर धुनों में पिरोया गया। याद करें-' इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मोरा' (पाकीजा) , 'चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजरे वाली मुनिया ' (तीसरी कसम) या फिर चप्पा –चप्पा चरखा चले (माचिस)। ये आज भी कानों में पड़ते हैं तो तबीयत रूमानी हो जाती है। ऐसे माहौल में सब कुछ हमारी रूचि का हो जाता है। भात-मांछ , बड़ा-पाव , बड़ा-सांभर , दाल-रोटी सब कुछ। और हम मजे में इसे खाते गीत सुनते हप्तों गुजार देते हैं।
(समाप्त)
रवि जी बहुत बढ़िया। आपका ये साईट तो बहुत ही अच्छा है। क्या इस प्रविष्टी में दिए गए गानों के कुछ लिंक भी दिए जा सकते हैं?
जवाब देंहटाएंमुझे नहीं लगता कि इन गानों को इंटरनेट पर भी कहीं डाला गया होगा.
जवाब देंहटाएंएकाध व्यक्तिगत इक्का-दुक्का प्रयास हो भी सकते हैं, परंतु उनकी जानकारी नहीं है.
वैसे, इन गीतों को सुनने का आनंद ही कुछ और होता है - और जो आजकल के पॉप कल्चर युक्त रीमिक्स गीतों से कतई नहीं आ सकता.