**-** वह फिर दिखाई दिया. उसके कान्धे पर छड़ियों का एक बड़ा गट्ठा था. वह झुका-सा लग रहा था, घर जाने का उसका समय अभी हुआ नहीं है. हालांकि अब आ...
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वह फिर दिखाई दिया. उसके कान्धे पर छड़ियों का एक बड़ा गट्ठा था. वह झुका-सा लग रहा था, घर जाने का उसका समय अभी हुआ नहीं है. हालांकि अब आठ बजने वाले थे- रात के. कुछ बूंदाबांदी होने वाली थी. सैलानी कुछ खरीदारी तो कर रहे थे, पर संख्या बहुत कम थी. क्यों न कम हो, अब मौसम जो खत्म हो चला था. जो धुँआधार बारिश देखना चाहते थे, वे लोग ही महाबलेश्वर आए हुए थे. अनय ने जब उसे तीसरी या चौथी बार देखा तो ठिठक गया. वह भी अनय को अजीब निगाहों से ताक रहा था. अनय को बेटी ने गुड़ियों की दुकान में खींच लिया.
अनय का मन दुकान में नहीं लग रहा था. वह बार-बार मुड़कर बाहर झांकना चाहता और बेटी सिमरन मुड़कर कोई गुड़िया उठाकर पापा की ओर देखती.
“पापा, मुझे ये गुड़िया चाहिए...”
“बेटे, मम्मी से कहकर ले ले...”
“पापा कैसी है गुड़िया?”
“अच्छी है बेटे, तुझे पसन्द है.... ले ले...”
मम्मी जूट की एक बैग पसन्द करने में लगी थी. वह सिमरन की गुड़िया पर ध्यान नहीं दे पायी. सिमरन का भाई बारह साल का है. बहन की पसन्द पर उसकी मुहर लग गयी और सिमरन अपनी गुड़िया के साथ फुदकने लगी.
अनय दुकान में बेमन से खड़ा था. इधर-उधर किसी को तलाशता. परन्तु वह दुकान के भीतर क्यों मिलता? उसे याद आया कि ‘सनसेट प्वाइंट’ पर वह अधेड़ आदमी बुढ़ापे की ओर झुक गया था. वह अपनी छड़ियाँ बेचना चाहता था. शायद आज एक भी छड़ी नहीं बिकी.
“बाबूजी, ले लीजिए, बहुत बढ़िया है और एकदम किफ़ायती...”
“मुझे नहीं चाहिए...” अनय आगे बढ़ गया. परन्तु वह पीछा करता रहा, “साहब, केवल एक सौ बीस में.... इतनी सस्ती और मजबूत छड़ी आपको कहीं नहीं मिलेगी.”
अनय आगे बढ़ने लगा तो वह पीछे-पीछे चलने लगा, “साहब, दस रुपये कम दे देना...”
कुछ दूर तो वह पीछे-पीछे चला, पर जब उसे लगा कि ये साहब छड़ी नहीं खरीदेंगे तो पता नहीं कब वह नए ग्राहक की तलाश में पीछे मुड़ गया.
अनय ने पीछे मुड़कर देखा, पर वह भीड़ में कहीं खो गया था.
‘सनसेट प्वाइंट’ पर भीड़ बढ़ रही थी. युवा सैलानी आगे बढ़न की होड़ में. जुलाई में ‘सनसेट प्वाइंट’ पर इतनी भीड़ नहीं होती पर पिछले चार दिनों से बारिश नहीं हुई थी, इसलिए भीड़ यहाँ आ गई थी.
वह भीड़ के बीच अपने ग्राहक तलाश रहा था. फिर उसने दिशा बदली और बस स्टॉप की ओर बढ़ा. कुछ उम्रदराज लोग अपनी गाड़ियों में ही बैठे थे... अनय बच्चों के लिए पानी की बोतल लेने गया था. बोतल लेकर जैसे ही पीछे मुड़ा, फिर वही आदमी छड़ी लेकर आगे आया, “साहब सौ रुपये दे देना. बिलकुल खरीद भाव में...”
अनय ने एकबारगी उसे देखा और आगे बढ़ गया. सिमरन और सारंग प्यासे होंगे...सिमरन पानी पीने लगी. सूर्यास्त का समय था. सूर्यास्त का समय था. सारंग अपनी मां के साथ खड़ा था. अनय के सामने पन्द्रह साल पुराना समय पलक झपकते ही उभर आया.
इसी प्वाइंट पर वह नयी नवेली पत्नी श्वेता के साथ खड़ा था. सूर्यास्त के समय इस प्वाइंट तक पहुँचने की फिराक में वह टैक्सीवाले पर कितना बरसा था और टैक्सीवाले ने भी पूरी शिद्दत से ड्राइव कर सही समय पर यहाँ पहुँचाया था. कितना खुश था वह. सूर्यास्त देखने के सही समय पर श्वेता को ला सका वह. अपने कैमरे से वह सूर्यास्त को ‘क्लिक’ करता रहा. श्वेता के फोटो भी अलग-अलग ऐंगल से खींचता रहा. फिर श्वेता का हाथ थामकर तब तक एकाग्र खड़ा रहा जब तक सूर्य पूरी तरह डूब नहीं गया. बीच-बीच में श्वेता को निहार लेता. श्वेता से नजर मिलते ही उसकी आँखों में एक दुनिया उभर आती. दूर पहाड़ियों के चारों ओर लाली ही लाली थी. वह पता नहीं कब तक श्वेता के साथ खड़ा था. उसे लग रहा था सूरज की सारी ऊष्मा श्वेता की हथेलियों में उतर आई है और वह अपने आपको बहुत सुरक्षित और सुख से लबरेज महसूस कर रहा था.
एक छड़ीवाला उसके सामने से गुजरा. वह छड़ियों की ओर देखता रहा... “चालीस रुपये...चालीस रुपये...” चिल्लाता हुआ छड़ीवाला गुजर गया. छड़ीवाले ने अनय और श्वेता की ओर ऐसे देखा जैसे वे इसके ग्राहक हो ही नहीं सकते... वह चिल्लाता रहा... “चालीस रुपए...चालीस रुपए...”
अनय आँखों ही आँखों में एक छड़ी तय कर चुका था. बाबूजी का खयाल उसका पीछा कर रहा था. वह छड़ीवाले को पुकारने को हुआ. फिर एक व्यवहारिक खयाल ने उसे रोक दिया, ‘आखिरी दिन ले लेंगे, अभी से कौन संभालेगा.’ श्वेता ने गुमसुम पति को भरपूर निहारा और अपनी खास अदा में एक मुसकान बिखेरी. अनय का हाथ हथेली से छिटककर सिर पर एक हल्की-सी चपत के रुप में टपका और कान्धे पर आकर निढाल हो गया. फिर पता नहीं कब तक वे दोनों झूमते हुए सड़क पर चहलकदमी करते रहे. अचानक टैक्सीवाले को सामने पाकर वे सचेत हो गए. एक-दूसरे को देखकर हंस दिए और टैक्सी में बैठ गए. सीधे होटल न आकर वे बाजार में कहीं कॉफ़ी पीने उतर गए और यूँ ही टहलने लगे. ठीक-ठाक होटल देखकर वे बैठ गए. काफी देर तक कॉफ़ी की चुस्कियाँ लेते हुए बातें करते रहे. अनय की निगाह में अचानक कुछ चमका, ‘बाबूजी ने सपनों-सी यह जिन्दगी देने के लिए क्या नहीं किया...’ वह खयालों में खो गया. पर उसका खोना श्वेता की निगाहों से बच नहीं पाया.
“कहाँ खो गए?” श्वेता की शोखी अनय को बटोर लाई और वह एक घूँट में बची हुई कॉफी गले के नीचे उतार कर उठ खड़ा हुआ.
“चलो होटल चलते हैं.”
“ठहरो ना, ऐसी भी क्या जल्दी है?”
“चलो भई” ... श्वेता को अनय ने कुछ ऐसे अन्दाज से देखा कि श्वेता के मुँह से अनायास ही निकल गया “हट, शरारती कहीं के...”
“अच्छा ठीक है भई इसी सड़क पर टहलते हैं. सुना है, यहाँ का भुना चना बहुत मशहूर है.” फिर चने का एक पैकेट लेकर वे दूर तक यूँ ही भटकते रहे. बाद में, श्वेता ने ही कहा, “चलो अब होटल चलते हैं?” फिर श्वेता अनय की बाँह पकड़कर चलने लगी.
सारंग पता नहीं कब से अपने पापा को निहार रहा था. अनय खिलौनों के बीच नारियल की जटाओं से बने साधु को निहार रहा था. बाबूजी याद आए थे. आँखें भर आयी थीं. उसकी डबडबाई आँखों में बाबूजी मानों मुस्करा रहे थे, ‘बेटे तेरे परिवार को देखकर, तेरी सफलता देखकर मैं बहुत खुश हूं...’ फिर जैसे उन्होंने अनय की बुदबुदाहट सुनी, ‘बाबूजी बहुत कुछ छूट गया... बहुत कुछ करना छूट गया’ ... ‘कुछ नहीं छूटा बेटे...’ जैसे अनय को छूकर कह रहे हों, ‘सुखी रहो...’ ‘पर बाबूजी मैं आपके लिए छड़ी नहीं ला पाया था... तब. आपने याद से कहा था’ ... ‘कोई बात नहीं बेटे ... देखो मैं हूँ न तुम्हारे साथ... सारंग तुम्हें कैसे निहार रहा है?’
अनय ने आँखें पोंछी. साधु जटाओं के बीच से अनय को जैसे निहार रहा हो. सिमरन पापा का हाथ पकड़कर दुकान से बाहर चलने को कह रही थी. दुकान की भीड़ छंट चुकी थी. सारंग पापा की इस खोई-सी मूरत को निहार रहा था. श्वेता को मालूम था अनय को जरूर बाबूजी याद आ रहे होंगे.
अनय को बड़ा अजीब लगा अपना खो जाना. उसने दोनों बच्चों को भींच लिय़ा और श्वेता से बोला, ‘चलो...’
श्वेता से वह आँख नहीं मिला पाया था... श्वेता समझ रही थी अनय को, “कम आन, अनय...”
दुकान से बाहर निकलकर उस छड़ीवाले आदमी को अनय की निगाहें बेसब्री से खोज रही थीं.
बाहर हल्की-सी बारिश हो रही थी. वह छड़ीवाला उसी दुकान के बाहर बारिश रुकने का इन्तजार कर रहा था. उसने बड़ी आशाभरी निगाह अनय पर डाली, जैसे कह रहा हो, ‘आज एक भी छड़ी नहीं बिकी... घर क्या मुँह लेकर जाऊँ?’ अनय पलभर उसके सामने खड़ा रहा और एक छड़ी की ओर इशारा कर बोला, “ये वाली निकालो...”
“साहब, सिर्फ अस्सी रुपये में ही दे दूंगा. आज एक तो छड़ी बेचूं.”
अनय ने छड़ी ले ली और उसे एक सौ बीस रुपये देकर अकेला ही आगे बढ़ गया... छड़ी वाला देखता रह गया... अनय रह-रहकर छड़ी पर हाथ फेर रहा था. मानों बाबूजी से बातें कर रहा हो.
पीछे-पीछे तीनों आ रहे थे. छड़ीवाला हैरत से उन चारों को निहार रहा था. फिर उसने पैसे गिने और माथे से लगाने के बाद जेब में रख लिए... अनय का चेहरा वह कभी नहीं भूल पाएगा.
उसने झटके से छड़ियों का गट्ठर पीठ पर उठा लिया. उसकी कमर कुछ सीधी हो गयी थी. उसे लगा कुछ दिन और वह बिना छड़ी के चल सकता है. छड़ीवाले के पैर तेजी से अपने घर की ओर बढ़ रहे थे.
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कहानी दिल को छू गयी।
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http://chhaya-e-shadow.blogspot.com/
बहुत कुछ न कह कर भी कह जाने वाली कहानी है। सुन्दर लेखन।
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